मंगलवार, 2 दिसंबर 2014
सोमवार, 24 नवंबर 2014
वैरियर एल्विन: आदिवासियों के अंबेडकर - प्रमोद मीणा
वैरियर एल्विन: आदिवासियों के
अंबेडकर
- प्रमोद मीणा
कुछ ही समय में गोंड आदि
आदिवासियों के उमंग-उत्साह से भरे जीवन की सहजता वैरियर की गांधीवादी ईसाइयत पर
भारी पड़ने लगी। वह मांडला में आदिवासियों के धर्मांतरण के लिए तो नहीं आया था, किंतु गोंड आदि
आदिवासियों ने इस गांधीवादी को अवश्य क्रमश: आदिवासी जीवन में संस्कारित कर दिया।
अपनी पुस्तक ‘Leaves from the Jungle’ में वैरियर ने उस पूरी प्रक्रिया
का वर्णन किया है जिसके तहत आदिवासियों की आदिम जीवन पद्धति की भिन्नता से चिढ़ने
वाला यह गांधीवादी ईसाई फादर कैसे गांधीवादी संयम, नैतिकता, ब्रह्मचर्य, चरखा और प्रार्थना आदि को आदिवासियों के
लिए व्यर्थ पाने लगता है। आदिवासियों को चरखा चलाकर सूत कातने का उपदेश देने का
कोई औचित्य ही उसे नजर नहीं आता क्योंकि गोंड आदिवासियों के क्षेत्र में कपास पैदा
ही नहीं होता था। मद्यपान निषेध के नियम को महुआ की बहुलता वाले इस गोंड क्षेत्र
में लागू करना अव्यवहारिक था। कारण कि महुआ से बनाया जाने वाला मादक द्रव्य
आदिवासियों की थकावट दूर करने वाला स्फूर्तिदायक पेय था। आदिवासी जीवन और संस्कृति
का आधार माने जाने वाला महुआ जैसा वृक्ष हिंदुओं के तुलसी से किसी मायने में कम
नहीं होता।
(ऑक्सफोर्ड से प्रकाशित वैरियर
एल्विन की आत्मकथा का आवरण पृष्ठ)
विगत औपनिवेशिक ब्रिटिश राजसत्ता के
प्रति नॉस्टेलिजिया रखने वाले आज के ब्रिटिश नागरिक और विदेशी साम्राज्यवाद से
नफरत करने वाले भारतीय राष्ट्रवादी, दोनों के लिए वैरियर एल्विन एक समस्या का नाम है। एक अंग्रेज और ईसाई धर्म
प्रचारक होकर भी गांधी और उनके राष्ट्रीय आंदोलन में निष्ठा रखने के कारण जहां
तत्कालीन ब्रिटिश राजसत्ता एल्विन को खतरे की घंटी मानकर भारत से बाहर रखने की
पक्षधर थी, वहीं आगे चलकर भारतीय स्वाधीनता
आंदोलन से किनारा करके भारत की आदिम जनजातियों के अध्ययन और उनके हितों के प्रति
स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर देने वाला एल्विन हिंदूवादी कांग्रेसियों को भी खटकने
लगता है। राष्ट्र की मुख्यधारा में आदिम जनजातियों को लाने के नाम पर कांग्रेस की
हिंदूवादी मान्यताओं और नीतियों का विरोध करने वाला भला क्योंकर राष्ट्रवादियों को
सह्य हो सकता था। एक बिशप पिता का पुत्र एल्विन ईसाई धर्मशास्त्रों का गहन अध्येता
होने के साथ-साथ अपने जीवन के आरंभ में ईसाइयत के प्रचार-प्रसार के प्रति समर्पित
रहा हो, लेकिन आगे चलकर आदिम जनजातियों के प्राकृतिक धर्म की
हिमायत में आदिवासियों के ईसाईकरण के प्रति विरोध पर उतर आना उसे ईसाई चर्च के लिए
भी गले की हड्डी बना देता है। जहां भारत के आदिम आदिवासी समुदायों के लिए एल्विन
अंबेडकर सरीखी हैसियत रखता है, वहीं राष्ट्रवाद के हिमायती उसके
स्वायत्त आदिवासी दर्शन और दिशा निर्देशों को राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए
खतरा बताते आये हैं। मध्य भारत और पूर्वोत्तर की आदिम जनजातियों पर पूरी संवेदनशीलता
और आदिवासी दृष्टिकोण से 45 के आसपास पुस्तकें और सैकड़ों लेख लिखने वाला यह
नृतत्वशास्त्री ऑक्सफोर्ड का प्रथम श्रेणी का विद्वान था लेकिन घुर्ये जैसे
हिंदूवादी नृतत्वशास्त्री एल्विन के लेखन में वैज्ञानिक तटस्थता और विश्लेषण की
गहराई नहीं पाते। अस्तु, वैरियर एल्विन का व्यक्तित्व
विरूद्धों का सामंजस्य ही कहा जायेगा। समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन वैरियर एल्विन
जैसे लोगों को अंग्रेजी राज का दूसरा पक्ष कहते हैं। वैरियर एल्विन वह अंग्रेज
साहब था जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा किये गये शोषण की प्रतिक्रिया में भारतीय
आदिम आदिवासियों की सभ्यता-संस्कृति और श्रेष्ठता के साथ-साथ उनकी समस्याओं को राज
के समक्ष लाकर अपने स्तर पर एक प्रकार से उऋण होना चाहता है, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पापों का प्रायश्चित करना
चाहता था। तमाम विवादों और किंतु-परंतु के बावजूद आदिवासी भारत के प्रति उनकी
निष्ठा संदेह से परे थी। यही कारण है कि स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रथम
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एल्विन को आदिवासी बहुल पूर्वोत्तर विशेषतः नेफा
के आदिवासी विषयों का सलाहकार नियुक्त करके उनके निर्देशन पर चलकर अपनी सरकार की
आदिवासी विषयक नीतियां बर्नाइं। आदिम आदिवासियों की परंपरागत पहचान और अस्तित्व का
संरक्षण करते हुए इन्हें आधुनिक सभ्यता की मानवीय उपलब्धियों के साथ कैसे संबद्ध
करें, इसी सवाल का जबाव है - एल्विन का वृहद् लेखन। एल्विन
आदिम आदिवासियों को पिछड़ा और असभ्य कहने के बिल्कुल खिलाफ थे। उनका स्पष्ट मानना
था कि आदिवासी समाज और सभ्यता तथाकथित सभ्य कही जाने वाली आधुनिक जातियों से कहीं
ज्यादा श्रेष्ठ है। इसप्रकार पूर्व को विशेषतः आदिवासियों को पिछड़ा सिद्ध करके
उन्हें सभ्य बनाने की मुहिम चलाने वाली पश्चिमी ईसाई परियोजना के सामने एल्विन
रास्ता रोके खड़े नजर आते हैं। एक तरफ सस्ती उपभोक्ता वस्तुओं से दूषित होती
आदिवासी कला दृष्टि को बचाने की चिंता एल्विन को है, तो दूसरी ओर राज्य प्रशासन के अति हस्तक्षेप से आदिवासी स्वायत्तता पर मंडराते
खतरे को भी एल्विन पहचान रहे थे।
वैरियर
एल्विन का पूरा नाम था - हैरी वैरियर हॉलमन एल्विन किंतु शायद ही वे अपना पूरा नाम
प्रयुक्त करते हों। वैरियर एल्विन 29 अगस्त 1902 को डोवर में जन्मा था। एल्विन
उच्च मध्यवर्गीय एंग्लो सैक्सन परिवार से आते थे। वैरियर का परिवार विधिवेत्ताओं, पादरियों और चर्च के फादरों का परिवार था। वैरियर के
दो रिश्तेदार और दो चचेरे भाई तत्कालीन शाही (इम्पेरिअल) प्रशासनिक सेवा में थे।
इनके पिता एडमंड हैनरी एल्विन कट्टर ईसाई बिशप थे। पिता के कारण जहां एल्विन में
बाईबिल की उपदेश कथाओं और ईसाई धर्म सिद्धांतों के प्रति निष्ठा पनपी, वहीं मां मिन्निए एल्विन ने बालक एल्विन के मन में
मसीहाई आदर्श जगाया। पिता हैनरी एक तो धर्म प्रचार के कार्यों से सदैव घर से बाहर
रहते थे, दूसरा बालक एल्विन के बचपन में ही उनका देहांत होने
से मां मिन्निए एल्विन के व्यक्तित्व ने बालक एल्विन को ज्यादा प्रभावित किया।
वैरियर एल्विन परिवार का सबसे बड़ा बच्चा था। वैरियर से डेढ़ साल छोटी उनकी एक
बहिन एल्डिथ थी और सबसे छोटा एक भाई बासिल था। घर का पूरा माहौल ईसाई धार्मिक विश्वासों
से रचा-बसा था। पति की मृत्यु ने एल्विन की मां को धर्म के प्रति और ज्यादा
समर्पित कर दिया था। एल्विन को कट्टर एंगलीय पारिवारिक परंपरा में दीक्षित करने के
लिए 1915 में केल्टेनहम (Cheltenham) स्थित डीन क्लोज मेमोरियल विद्यालय में भर्ती कराया
गया। यह विद्यालय अंग्रेजी चर्च के कैथोलिक संप्रदाय का खुला विरोध करने के लिए
जाना जाता था। एंगलीय ईसाई संप्रदाय आंख-कान बंदकर बाईबिल के धर्मोपदेशों पर चलते
हुए अपने मत प्रचार करने का हिमायती था जबकि कैथोलिक संप्रदाय तुलनात्मक रूप से
काफी उदार था। स्थानीय धार्मिक विश्वासों और परंपराओं को अपनाने में कैथोलिक
संप्रदाय संकोच नहीं करता था। यद्यपि वैरियर एल्विन की विद्यालयी शिक्षा उनमें
एंगलीय संस्कारों के बीज डालने वाली थी लेकिन आगे चलकर ऑक्सफोर्ड के विद्यार्थी
जीवन ने एल्विन को धर्म मीमांसा की ओर प्रेरित करते हुए एंगलीय मत के प्रति शंकालू
और विद्रोही बना दिया। नियमबद्ध एंगलीय विद्यालय की संयिताओं से मुक्त हो 1921 में
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यायल के मेर्टन महाविद्यालय में प्रवेश लेना मानो एल्विन के
लिए स्वतंत्रता के मुक्त आकाश में उड़ना ही था। उदारवादी एंग्लो कैथोलिक मत
1920-30 के दौर वाले ऑक्सफोर्ड में अपने शिखर पर था। अतः इस उदारवादी लहर का
प्रभाव वैरियर एल्विन पर पड़ना भी स्वाभाविक ही था। वैरियर के लिए अब क्राइस्ट
ऐतिहासिक जड़ पात्र नहीं रह गया था। वैरियर अब क्राइस्ट को तत्कालीन गरीब लोगों के
साथ संबद्ध करके देखने में विश्वास करने लगे।
वैरियर
को एंगलीय वैचारिकता और कर्मकांडीय जकड़बंदी से मुक्त करने में उनकी नानी फ्लोरा हॉलमन
की भूमिका भी बड़ी उल्लेखनीय है। नानी न तो चर्च जाती थी, न कभी बाईबिल पढ़ती थी। ब्रांडी की शौकीन नानी वैरियर
के एंगलीय परिवार में चाहे पथभ्रष्ट समझी जाती हो, लेकिन कहीं न कहीं वैरियर की जीवन दिशा को तय करने में उनका भी योगदान था।
अपने नवासे में सुदूर भारत के प्रति परिचय और उत्साह जगाने में इन्हीं नानी की
महत्ती भूमिका रही थी। नानी के पिता उत्तरी भारत में अंग्रेज सेना में सिपाही रह
चुके थे। अतः उत्तरी भारत की अनेकों आंखों-देखी और कानों सुनी कहानियां नानी से ही
एल्विन को परंपरागत उत्तराधिकार में प्राप्त हुईं।
धर्मशास्त्र
विषय के साथ ऑक्सफोर्ड से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो उपाधि हासिल करने वाले
वैरियर एल्विन के पास ऑक्सफोर्ड में ही अपना भविष्य संवारने के साथ-साथ इंग्लैंड
के चर्च में भी कार्य के स्वर्णिम अवसर थे। लेकिन तभी जीवन के इस महत्वपूर्ण मोड़
पर उनकी मुलाकात विन्सलॉव (Winslow) से होती है। विन्सलॉव एक ऐसे अंग्रेज ईसाई थे जो
भारत में रहकर अपने ‘‘क्राइस्ट सेवा संघ’’ के माध्यम से भारतवासियों
के बीच क्राइस्ट के सेवा आदर्श पर चलना अपना जीवन लक्ष्य तय कर चुके थे। आप से
प्रभावित हो वैरियर भारत को ही कर्मभूमि बनाना तय कर लेते हैं। ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ हिंदुओं में प्रचलित आश्रम
परंपरा और गांधी जी के साबरमती आश्रम के आदर्श पर नीच जात हिंदुओं में अपने सेवा
कर्म के माध्यम से ईसाइयत की जड़ें फैलाने में यकीन रखता था। ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ से जुड़कर दलित भारतवासियों की
सेवा करने के अपने निर्णय के मूल में वैरियर गुलाम भारत के प्रति क्षतिपूर्ति की
अंतःप्रेरणा बताते थे। ब्रिटेन ने भारत को
अपना उपनिवेश बनाकर उससे सिर्फ लिया ही लिया था, अतः वैरियर ब्रिटेन के ऊपर चढ़े भारत के ऋण को अपने
सेवा कर्म के माध्यम से कुछ हद तक उतारना चाहते थे। अतः अपने पिता के पुराने शिक्षणालय
में उपप्रधानाचार्य के पद पर कुछ समय कार्य करने के उपरांत वैरियर इस पद का त्याग
करके 1927 ई. में जलमार्ग से होकर नवबंर में ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ के पूना स्थित मुख्यालय पहुंच जाते हैं। तत्कालीन पूना, जाति और पितृसत्ता विरोधी समाजसुधार आंदोलनों का
केंद्र था और साथ ही बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले के राष्ट्रीय आंदोलनों
का गढ़ भी था पूना। इन सबसे ऊपर ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ के
आश्रम की गांधीवादी सादगी, सरलता और सेवा भाव की गंभीरता ने
भी वैरियर पर स्थायी प्रभाव डाला। जनवरी 1928 में साबरमती में आयोजित एक
अंतर्राष्ट्रीय सर्वधर्म सद्भाव सम्मेलन में हिस्सेदारी करने का मौका एल्विन को
मिला। इस दौरान साबरमती आश्रम में एक सप्ताह का जो सान्निध्य एल्विन को प्राप्त
हुआ, उससे एल्विन के जीवन की पूरी दिशा ही बदल गयी। गांधी
के सर्वधर्म समन्वय के आदर्श और मध्यकालीन भक्ति आंदोलन और भारतीय आध्यात्मिकता ने
वैरियर एल्विन को भारतीयता की ओर अधिकाधिक प्रवृत्त कर दिया। 1930 के नमक तोड़ो
आंदोलन से आरंभ हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ के प्रमुख विन्सलॉव की अनुपस्थिति में वैरियर एल्विन के नेतृत्व में संघ
अपने अराजनीतिक मठीय जीवन से बाहर निकलकर कांग्रेसी आंदोलनकर्ताओं के साथ संबद्ध
हो जाता है और भारतीय जन आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस के साथ
खड़े होना सच्चा भारतीय सिद्ध होने का पर्याय बन चुका था। वैरियर एल्विन और उनके
संघ के साथी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की तर्ज पर प्रतिदिन चरखा चलाने, खादी का प्रचार करने और मदिरा की दुकानों के सामने
होने वाले धरने-प्रदर्शनों में शिरकत करने का प्रस्ताव पारित करते हैं।
तत्कालीन
औपनिवेशिक अंग्रेज सरकार और ईसाई मिशनरी संगठन वैरियर एल्विन सदृश्य एक प्रभावी
वक्ता-लेखक अंग्रेज ईसाई का यो खुलकर कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से सहानुभूति
रखना और उसमें हिस्सेदारी करना स्वीकार नहीं कर सकते थे। लेकिन साम्राज्यवादी
सरकार के अत्याचारों के विरूद्ध खुलकर स्वाधीनता आंदोलन का पक्ष लेने से वैरियर को
शोलापुर के शमराओ हिवाले (Shamro Hiwale) के रूप में एक विश्वसनीय साथी मिल गया जो वैरियर
से भी बढ़कर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से सहानुभूति रखता था। हिवाले आगे चलकर आदिम
आदिवासियों के अध्ययन में वैरियर का चिर सहचर साबित होने वाला था। कांग्रेस के
नेतृत्व में चल रही आजादी की लड़ाई के प्रति शमराओ की अतिसंवेदनशीलता ने ही इस
लड़ाई में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी को लेकर वैरियर के मन में चलने वाले द्वंद्व को
दूर किया था। जीसस और सत्याग्रह के बीच निकट संबंधों की स्थापना करने वाले वैरियर
के विचारों-व्याख्यानों-लेखों ने भारतीय ईसाई चर्च और मिशनरियों के प्रबंधकों को
धर्म संकट में डाल दिया। वैरियर के दिखाये रास्ते पर चलना तो स्वयं सरकार से ही
टकराव मोल लेना था अतः ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ के स्थापक और मुख्य कर्ताधर्ता विन्सलॉव से वैरियर का टकराव नियत ही था।
वैरियर गांधी के व्यक्तित्व में एक अनचिन्हे जीसस की छवि देख रहा था जबकि विन्सलॉव
अपने आश्रम को राष्ट्रीय आंदोलन से अछूता रखने को दृढ़ प्रतिबद्ध था ताकि सरकारी
कोप भाजन से आश्रम को बचाया जा सके। अंततः अपने राजनीतिक मतभेदों के चलते वैरियर
एल्विन ने ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ छोड़
दिया। लेकिन कांग्रेस और गांधी के समर्थन में दिये जाने वाले वैरियर के भाषण और
लेख ज्यों-ज्यों उग्र होते गये और ज्यों-ज्यों वह गांधीवादी सत्याग्रह को जीसस के
सेवा-त्याग के साथ संबद्ध करता गया, वैसे-वैसे वह अंग्रेज सरकार के गले की हड्डी बनता गया जिसे न उगला जा सकता था
और न निगला ही जा सकता था। ऑक्सफोर्ड स्नातक अंग्रेज ईसाई फादर वैरियर एल्विन की
विद्वता और प्रभावी लेखन-भाषण से उत्पन्न होने जा रहे आसन्न खतरे को भांपकर भारत
की अंग्रेज सरकार ने एल्विन के हर कदम पर पैनी निगाह रखना आरंभ कर दिया। अंग्रेज
सरकार विरोधी भाषण-लेखन के जुटाये जा रहे ये प्रमाण आगे चलकर एल्विन पर दबाव बनाने
के काम आने वाले थे।
चूंकि
भारत की बहुसंख्यक जनता गरीबी और जातिप्रथा की अमानवीय रूढि़यों से ग्रसित थी अतः
एल्विन भारत के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित करने के लिए समाज के निर्धनतम अछूत
तबके के साथ रहना चाहते थे। और ‘क्राइस्ट सेवा संघ’
छोड़ने से पूर्व ही एल्विन को भारत के साथ इसप्रकार से जुड़ने का मौका मिल गया।
गुजरात में ब्रिटिश पुलिस के उत्पीड़न की जांच करने वाली कांग्रसी समीति में एक
सदस्य के रूप में कार्य करते हुए एल्विन की मित्रता भील आदिवासियों की सेवा के लिए
पूर्णतः समर्पित कांग्रेसी ए.वी.ठक्कर से हो गयी थी। इन्हीं ए.वी.ठक्कर के
निमंत्रण पर एल्विन को दाहोद में संचालित उनके भील सेवा मंडल का साक्षात्कार करने
का मौका मिला। दाहोद जाने से पहले ए.वी.ठक्कर (ठक्कर बाबा) वैरियर को मुंबई (बंबई)
की एक भंगी बस्ती भी ले गये थे जहां सफाई कर्मियों की भयावह स्थिति देखकर वैरियर
आतंकित से हो गये। वैरियर को इस भंगी बस्ती में लंदन की सबसे घटिया गंदी बस्ती से
भी ज्यादा त्रासदायक स्थिति नजर आई। मैल और गंदगी से बदबदाती यह बस्ती मानवता के
नाम पर कलंक थी।
मुंबई
की इस दलित बस्ती की बदहाली से वैरियर द्रवित तो थे लेकिन शहरी निर्धनता के इस
भयावह यथार्थ से उन्हें ऊब सी हो गयी क्योंकि वहां जीवन संघर्ष में सुकून देने
वाली प्रकृति के आकर्षण का नितांत अभाव था जबकि दाहोद पहुंचने पर भीलों का
प्राकृतिक परिवेश उन्हें अपनी ओर खींचने लगा। ठक्कर बाबा के इस भील आश्रम ने एक
बार पुनः वैरियर के पूरे जीवन की दिशा ही बदल दी। मुंबई के भंगियों की जैसे ये भील
आदिवासी भी अत्यंत निर्धन थे लेकिन उनके विपरीत भील सांस्कृतिक रूप से समृद्ध थे।
भीलों की अपनी विशिष्ट धार्मिक मान्यताएं और रीति-रिवाज धर्मशास्त्र के अन्वेषी
विद्वान एल्विन के लिए निजी रूचि का विषय थीं। भील सेवा मंडल के अपने इस अनुभव से
ही वैरियर इस दिशा में सोचने को अग्रसर हुए कि दलितों के सदृश्य आदिवासी भी
उपेक्षित-शोषित हैं, तो क्यों न उन्हीं के समाज का अंग
बनकर उनकी सेवा-सहायता का व्रत लिया जाये। वैरियर को दूर-दराज के दुर्गम क्षेत्रों
में बसी आदिम आदिवासियों की बस्तियों के अध्ययन और वहां रहकर सेवा-सहायता का मिशन
चलाने की दिशा में प्रेरित करने वालों में सरदार बल्लभ भाई पटेल का नाम भी
महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में रामचंद्र गुहा का मानना है कि पटेल जैसा दूरंदेशी
राजनेता नहीं चाहता था कि एक गैर भारतीय ईसाई हिंदू समाज को उसके बीच विद्यमान
असमानता पर उग्रतापूर्वक फटकार लगाये। पटेल ने वैरियर को समझाया कि अछूत कांग्रेस
के लिए कोई समस्या नहीं हैं क्योंकि स्वयं हिंदू समाज उनका पुनरूद्धार करने में
सक्षम है। वैरियर भी शहर की दलित-गलित बदबूदार कच्ची बस्तियों से दूर जंगल के शांत-सुकून
भरे माहौल में गरीब आदिम आदिवासियों के प्रति अपने अंदर एक प्रकार का आकर्षण महसूस
करने लगे थे। पिछड़ी कही जाने वाली आदिम आदिवासियों की समृद्ध संस्कृति और आधुनिक
सभ्यता के बीच तालमेल बैठाने की दिशा में वैरियर के सामने कार्य करने का खुला अवसर
था।
एक-दूसरे
कांग्रेसी नेता जमुनालाल बजाज ने भी वैरियर को मध्य भारत के आदिवासियों के बीच काम
करने की प्रेरणा दी। बजाज एक समृद्ध व्यापारी के साथ-साथ कांग्रेस के खजांची भी
थे। बजाज ने वैरियर को सलाह दी कि वह मध्य भारत के गोंड आदिवासियों पर काम करे।
कांग्रेस के स्वयंसेवकों और राष्ट्रीय नेताओं के साथ-साथ ईसाई मिशनरियों ने भी तब
तक इन आदिवासियों पर ध्यान देना आरंभ न किया था। बजाज ने आगे चलकर आदिवासी समाज के
अध्ययन में वैरियर की सतत् आर्थिक मदद की थी। इसप्रकार वैरियर ने ठक्कर बाबा, पटेल और बजाज आदि की सलाह और स्वयं की रूचि आदि को
ध्यान में रखकर मध्य प्रांत के मांडला जिले के करांजिआ गांव में गोंड आदिवासियों
के बीच अपना आश्रम स्थापित किया। ध्यातव्य है कि आदिम आदिवासी समुदाय के बीच आश्रम
की स्थापना मध्य प्रांत के अंग्रेज प्रशासन को बिल्कुल नापसंद थी। चूंकि वैरियर
एल्विन और शमराओ हिवाले पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में चल रहे खान अब्दुल गफ्फार के
आंदोलन खुदाई खितमतगार के ब्रिटिश दमन की रिपोर्ट अभी हाल ही में तैयार करके आये
थे, अतः एल्विन की इसप्रकार की राजनीतिक पृष्ठभूमि को
देखते हुए गृहसचिव इमर्सन नहीं चाहता था कि एल्विन शांतप्रायः आदिवासी क्षेत्र में
किसी भी प्रकार की कोई दखल करे। गृहसचिव के आगाह करने पर मांडला जिला मजिस्ट्रेट
के आदेश पर एक पुलिस वाला प्रति सप्ताह एल्विन के आश्रम पर निगरानी रखने के लिए
नियुक्त था। लेकिन पुलिस की सतत् निगरानी होने पर भी अंग्रेज सरकार वैरियर के
खिलाफ ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं जुटा पायी जिसकी बिनहा पर वह वैरियर पर लगाम लगाने
के लिए कोई कदम उठा पाती। अंग्रेज प्रशासन के अतिरिक्त नागपुर का बिशप वुड अलग
वैरियर से खार खाये था। वह वैरियर एल्विन को चर्च की तरफ से करांजिआ में तब तक
कार्य करने की अनुमति देने को तैयार न था जब तक कि वैरियर एल्विन स्वयं ब्रिटिश
सम्राट और ब्रिटिश कानून के प्रति निष्ठा की शपथ लेने को प्रस्तुत नहीं हो जाता।
नागपुर बिशप की नाराजगी के संदर्भ
में गांधीजी वैरियर को सांत्वना देते हैं कि सत्य उसके साथ है अतः उसे किसी बिशप
के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है। वैरियर एल्विन स्वयं को गांधीजी के पुत्र सदृश्य
मानता था किंतु गांधीवादी आश्रम जीवन की कठोर दिनचर्या, ब्रह्मचर्या और नीरस नियमबद्धता उसे खलती थी। गांधी
उनके लिए भारत के राष्ट्रीय नेता के रूप में अति सम्माननीय थे लेकिन उनके
व्यक्तित्व की अति महानता के कारण वैरियर पूर्णतः उनके साथ तादात्म्य नहीं कर
पाये। गांधीवादी सादगी, आत्मसंयम, यौन इच्छाओं पर नियंत्रण और जीवन की एकरसता के बरक्स
एल्विन धीरे-धीरे आदिवासी जीवन के सांस्कृतिक उल्लास और उत्सव धर्मिता के प्रति
आकर्षित होता गया। गांधीजी और कांग्रेस के द्वारा की जा रही आदिवासियों की उपेक्षा
भी कहीं न कहीं आगे चलकर उन्हें गांधीवाद से दूर करती गयी थी। वैरियर को निर्धन और
दलित जन के प्रति गांधीजी का प्रेम संत फ्रांसिस की याद दिलाता था लेकिन संत
फ्रांसिस के यहां न तो आचार-विचार में गांधीवादी कठोर अनुशासन था और न राजनीति के
प्रति कोई आग्रह ही था। मराठी संत तुकाराम भी वैरियर की श्रद्धा के केंद्र बन गये
थे। इस भक्त कवि का गरीबों के बीच यत्र-तत्र जाकर मानुष प्रेम के गीत गाना वैरियर
को सेवा कर्म और मानव मात्र के प्रति समभाव रखने की प्रेरणा देता था
इसप्रकार वैरियर गांधीजी के प्रति
निष्ठा रखते हुए भी उनकी आश्रमवादी नियनिष्ठता में क्रमश: अपनी आस्था खाते जा रहे
थे। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन में वैरियर अपना
योगदान देने को सदा तत्पर रहते थे। इसीलिए वैरियर को भारत से बाहर रखने के लिए ही
बंबई के पासपोर्ट अधिकारी ने कुछ तकनीकी जटिलताओं का हवाला देकर उनके पासपोर्ट का
नवीनीकरण करने से इंकार कर दिया। अतः जुलाई 1932 में वैरियर एल्विन अपने पासपोर्ट
के नवीनीकरण और परिवार से मिलने के साथ-साथ अपने मांडला आश्रम के लिए चंदे आदि के
सिलसिले में भी ब्रिटेन लौट गये। चूंकि भारत सरकार वैरियर एल्विन को दुबारा भारत
में नहीं देखना चाहती थी अतः लंदन स्थिति राज्य सचिव को भी निर्देश दे दिये गये थे
कि वैरियर एल्विन को किसी भी सूरत में भारत वापसी का पासपोर्ट नहीं दिया जाये।
किंतु अंतर्राष्ट्रीय मिशनरी परिषद के सचिव विलियम पेटॉन (William Paton) और
सिंध के गवर्नर सर लांसलॉट ग्राहम (Sir Lancelot Graham) के
सकारात्मक हस्तक्षेप से अंततः एल्विन अपना पासपोर्ट हासिल करने में सफल रहे। किंतु
पासपोर्ट के नवीनीकरण की अच्छी-खासी कीमत भी उन्हें अदा करनी पड़ी। लांसलॉट ग्राहम
की सिफारिश पर भारत के गृह सचिव एम.जी.हालैट (M.G. Hallet)
एल्विन के पासपोर्ट को हरी झंडी दिखाने को तैयार तो हो गये लेकिन इसके लिए वैरियर
एल्विन को ब्रिटेन विरोधी राजनीतिक गतिविधियों और भारत में अंग्रेज सरकार विरोधी
लेखन से दूर रहने का शपथपत्र देना पड़ा। स्वयं को धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों
तक ही सीमित रखने की हां भरनी पड़ी। इसप्रकार नवंबर 1932 में फादर एल्विन की भारत
वापसी हो सकी। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन से स्वयं को दूर
रखने की यह शर्त एल्विन के भारत प्रेम के खिलाफ जाती थी किंतु भारत के आदिम
आदिवासियों के लिए एकप्रकार से यह शर्त वरदान ही साबित हुई क्योंकि अब एल्विन बिना
किसी सरकारी रोक-टोक के अपना पूरा समय और ऊर्जा आदिवासियों के हित संवर्धन में लगा
सकते थे।
चूंकि वैरियर एल्विन राजनीतिक
स्वाधीनता की कांग्रेसी लड़ाई में सक्रिय रूप से हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे अतः
अब वे पूर्णतः अपने आश्रम में रहकर अपने मित्र शमराओ हिवाले के साथ मिलकर
आदिवासियों के कल्याण और उनके अध्ययन में जुट गये। जहां हिवाले आदिवासियों की शिक्षा-चिकित्सा
और झगड़ों के निपटान में डूबे रहते थे, वहीं वैरियर आदिवासियों के जीवन-जगत का अध्ययन करके उनकी समृद्ध
सभ्यता-संस्कृति और वर्तमान कड़वे यथार्थ को बाह्य जगत के सामने लाने लगे। आदिवासी
जीवन से वैरियर कितने ज्यादा अभिभूत हो चुके थे, इस बात का पता संत फ्रांसिस के नाम पर बनाये गये उनके आश्रम (गोंड सेवा मंडल)
के स्थापत्य-अलंकरण से साफ चलता है। यह आश्रम अपनी बनाबट और सजावट में खांटी
आदिवासी था। करांजिआ गांव में एक ऊंची पहाड़ी चोटी टिकरी टोला के ऊपर था यह आश्रम।
स्थानीय आदिवासी श्रम और स्थानीय प्राकृतिक सामग्री जैसे बांस, मिट्टी और घास-फूस से निर्मित हुआ था यह आश्रम। आश्रम
की मिट्टी की दीवारें गोंड शैली में उकेरे गये शेर, हाथी आदि जंगली जानवरों की आकृतियों से सुसज्जित थी। आश्रम पर एक भगवा ध्वज
लहराता था जिस पर क्रास का निशान बना था। आश्रम तक पहुंचने के लिए लंबी सीढ़ियां
चढ़नी होती थीं। रामचंद्र गुहा वैरियरा की जीवनी लिखने के क्रम में इस आश्रम को
देखने भी गये थे और उन्होंने अपनी पुस्तक में इसका सजीव चित्रण किया है। उन्हें यह
आश्रम एक मंदिर सदृश्य लगा था। वास्तव में यह आश्रम गांधी आश्रमों की तर्ज पर बना
था, न कि किसी ईसाई मिशनरी को वैरियर ने अपना आदर्श बनाया
था। वैरियर का यह आश्रम आसपास के गोंड और बैगा आदिवासियों की धार्मिक मान्यताओं का
पूरा सम्मान करता था। इन आदिवासियों की पहचान और अस्तित्व का संरक्षण करते हुए
इन्हें आधुनिक सभ्यता के विकास से लाभांवित करना ही इस आश्रम का उद्देश्य था।
अभी वैरियर को करांजिआ में अपना
आश्रम खोले ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था कि पूना के ‘क्राइस्ट सेवा संघ’ की एक पूर्व परिचित सदस्य मैरी गिलेट वैरियर के साथ ईसाई धर्म सिद्धांतों
में निर्देशित सेवा कर्म पर चलने के लिए 1933 के जनवरी महीने में करांजिआ आ गई।
यद्यपि वैरियर ने आरंभ में मैरी गिलेट के आश्रम से जुड़ने का विरोध किया था लेकिन शीघ्र
ही वैरियर और एल्विन परस्पर प्रेम महसूस करने लगे। दोनों जीसस और गरीबों के प्रति
अपने समर्पण से कहीं ज्यादा एक-दूसरे के प्रति आकर्षित थे। यहां तक कि वे तो शीघ्र
ही विवाह बंधन में भी बंधने जा रहे थे। लेकिन गांधीवादी आदर्श विवाहित जीवन बिताते
हुए आश्रम में रहने की इजाजत नहीं देता था। गांधीजी का सिद्धांत कहता था कि
पति-पत्नी को भी ब्रह्मचर्य जीवन बिताते हुए नैतिक पवित्रता का प्रतिमान सामने
रखना चाहिए। और गांधीजी द्वारा अनुमति न दिये जाने के कारण वैरियर और मैरी का
विवाह अंततः नहीं हो पाया। मैरी आश्रम छोड़कर यूरोप वापिस लौट गयी। वैवाहिक जीवन
को गरीब आदिवासियों की सेवा में बाधक मान वैरियर ने भी गांधी के निर्णय को स्वीकार
कर लिया। लेकिन गांधी आदि कांग्रेसी नेता वैरियर के आदिवासी आश्रम को समय की
बर्बादी मान रहे थे और वैरियर से अपेक्षा रखते थे कि वह इंग्लैंड लौटकर कांग्रेस
का पक्ष सशक्त ढंग से अपने लोगों के समक्ष रखे। यद्यपि मैरी के बिछोह और तिस पर
आदिवासियों के प्रति कांग्रेस के सौतेले रवैये ने वैरियर को काफी निराश किया।
किंतु वास्तव में नियति वैरियर को कदम दर कदम आदिवासियों के और ज्यादा समीप लाती
जा रही थी। आगे हम पाते हैं कि आदिवासियों को निकट से देखने, उनसे जुड़ने के सिलसिले में वैरियर ने दो आदिवासी
युवतियों से विवाह किया। पहली पत्नी थी कोसी और दूसरी थी लीला। लीला से वैरियर का
विवाह कोसी को तलाक देने के उपरांत हुआ था। दोनों के बीच मनमुटाव और रिश्ते की
टूटन के मूल में था - परपुरूष के कारण पारिवारिक तनाव। लेकिन इस विवाह की असफलता
के बावजूद तमाम परिचितों की चेतावनियों को दरकिनार करके वैरियर पुनः एक आदिवासी
युवती को ही जीवन साथी के रूप में अपनाता है।
एक
ओर कांग्रेस जहां वैरियर के आश्रम के प्रति उदासीन थी, वहीं दूसरी ओर ‘गोंड सेवा मंडल’ की नीति पर चलते हुए गोंड
आदिवासियों में ईसाई धर्म प्रचार से दूर रहकर इन आदिवासियों की परंपराओं और
मान्यताओं का सम्मान करने से नागपुर का बिशप अलग नाराज था। लेकिन वैरियर और शमराओ
हिवाले जानते थे कि सत्य और मानवता उनके पक्ष में है। अतः करांजिआ आश्रम की शाखाएं
आसपास के आदिवासी इलाकों में खोलकर वे आदिवासियों के हित में निरंतर आगे बढ़ते
गये। गोंड आदिवासी क्षेत्र में उन्होंने तीन शाखाएं खोलीं - बोदांर, हर्रा टोला और बिरदासपुर की शाखायें। वैरियर के ये
आश्रम आदिवासियों की शिक्षा के लिए जहां गांधीवादी मूल्यों से अनुप्रेरित
राष्ट्रवादी शिक्षा की दीक्षा देने वाले विद्यालय चलाते थे, वहीं आदिवासियों में फैलने वाली स्थानीय बीमारियों के
इलाज का कार्य भी इनमें होता था। ज्वर, सूजन, चोट, जंगली जानवरों और विशैले सरीसृपों
आदि के काटने पर हिवाले अपने लघु चिकित्सालय में लोगों का उपचार करता था।
आदिवासियों में संपत्ति और स्त्री को लेकर होने वाले झगड़ों में भी हिवाले
बीच-बचाव करके समझौता करवा देता था। इसप्रकार आदिवासियों के साथ जमीनी स्तर पर
जुड़ने से वैरियर और हिवाले उनका विश्वास जीतने में सफल रहे।
हिवाले
की अपेक्षा वैरियर ज्यादा आदर्शवादी होने से आरंभ में गोंड आदिवासियों साथ उतना
तादात्म्य स्थापित न कर पाये थे। गांधीवाद और ईसाई नैतिकता-आदर्श अभी भी वैरियर पर
कहीं ज्यादा गहराई तक हावी थे अतः इस समय तक आदिवासियों को लकर उनका रवैया
कुलमिलाकर सुधारवादी ही था। आदिम आदिवासियों की अव्यवस्थिति अर्थव्यवस्था और
बेतरतीब ढंग से बने घर उन्हें पसंद न आते थे। भौतिक तरक्की को लेकर आदिवासियों का
अनुत्साह पश्चिमी सभ्यता के इस प्रत्यक्षदर्षी की समझ से परे था। वैरियर चाहते थे
कि आदिवासियों में शिक्षा को लेकर जागृति आये और वे अपने बच्चों को विद्यालय
भेजें। वे मद्यपान से दूर रहें और बच्चों के टीकाकरण में बढ़-चढ़कर हिस्सा लें।
साफ-सफाई को लेकर जागरूक बनें और विवाह में किये जाने वाले अनावश्यक खर्चों से
बचें। यद्यपि वैरियर का यह सुधारवादी आदर्शवाद ईसाई मिशनरियों से काफी साम्य रखता
था तथापि ईसाई धर्म प्रचार वैरियर का उद्देश्य बिल्कुल भी न था।
लेकिन
कुछ ही समय में गोंड आदि आदिवासियों के उमंग-उत्साह से भरे जीवन की सहजता वैरियर
की गांधीवादी ईसाइयत पर भारी पड़ने लगी। वह मांडला में आदिवासियों के धर्मांतरण के
लिए तो नहीं आया था, किंतु गोंड आदि आदिवासियों ने इस
गांधीवादी को अवश्य क्रमश: आदिवासी जीवन में संस्कारित कर दिया। अपनी पुस्तक ‘Leaves from the Jungle’ में वैरियर ने उस पूरी प्रक्रिया
का वर्णन किया है जिसके तहत आदिवासियों की आदिम जीवन पद्धति की भिन्नता से चिढ़ने
वाला यह गांधीवादी ईसाई फादर कैसे गांधीवादी संयम, नैतिकता, ब्रह्मचर्य, चरखा और प्रार्थना आदि को आदिवासियों के लिए व्यर्थ
पाने लगता है। आदिवासियों को चरखा चलाकर सूत कातने का उपदेश देने का कोई औचित्य ही
उसे नजर नहीं आता क्योंकि गोंड आदिवासियों के क्षेत्र में कपास पैदा ही नहीं होता
था। मद्यपान निषेध के नियम को महुआ की बहुलता वाले इस गोंड क्षेत्र में लागू करना
अव्यवहारिक था। कारण कि महुआ से बनाया जाने वाला मादक द्रव्य आदिवासियों की थकावट
दूर करने वाला स्फूर्तिदायक पेय था। आदिवासी जीवन और संस्कृति का आधार माने जाने
वाला महुआ जैसा वृक्ष हिंदुओं के तुलसी से किसी मायने में कम नहीं होता। वैरियर
एल्विन और शमराओ हिवाले द्वारा पहने जाने वाले हिंदू भगवा वस्त्र और उनके द्वारा
दिन में बारंबार की जाने वाली प्रार्थनाएं भी गोंड आदिवासी पसंद नहीं करते थे।
उनका मानना था कि वे ऐसा ईश्वर को रिश्वत देने के लिए करते हैं ताकि ईश्वर उन्हें
अमीर बना दे! पथ्य-अपथ्य का निषेध और ब्रह्मचारी-सा संयमित जीवन गोंड आदिवासियों
को नीरस लगता था। गांधीवादी दैहिक पवित्रता और ब्रह्मचर्य आदिवासियों में कोई
मायने नहीं रखते। आदिवासी संस्कृति हिंदुओं की पितृसत्तावादी संस्कृति की जैसे
अपनी बेटियों और बहिनों की चैकीदारी नहीं करती। गोंड आदिवासी गीत स्त्री-पुरूष
प्रेम और वैवाहिक जीवन के गीत होते हैं। खेतों और जंगलों में एक आदिवासी युवती
बिना किसी नैतिक-धार्मिक हिचकिचाहट और भय के अपने प्रेम की अभिव्यक्ति को स्वतंत्र
होती है। विवाह आदिवासी समाज में सात जन्मों का बंधन न रहकर पारस्परिक प्रेम और सहमति
का बंधन है। मन न मिलने पर आदिवासी पुरूष-स्त्री बड़ी सहजता से संबंध विच्छेद करके
पुनः नयी जिंदगी बिताने को स्वतंत्र होते हैं। आदिवासियों के सान्निध्य में रहकर
वैरियर भी क्रमश: आदिवासी बनता जा रहा था। आदिवासी विवाहों और उत्सवों में वह
मदिरा के प्रति अपनी ललक को नहीं दबा पाता था। चरखा चलाकर सूत कातना भी उन्होंने
छोड़ दिया जबकि गांधीजी का चरखा चलाने पर विशेष आग्रह हुआ करता था। यहां तक कि
वैरियर ब्रह्मचर्य को भी आदिवासियों की जैसे ही सहज मानवीय इच्छा को दबाने वाला
पाखंड मानने लगा। नागपुर और बॉम्बे के बिशप आदि के द्वारा की जाने वाली आलोचनाओं
से तंग आकर 1935 में वैरियर ने औपचारिक रूप से इंग्लैंड के चर्च से अपने संबंध
विच्छेद की घोषणा भी कर दी। चर्च से मुक्त हो जाने पर वैरियर बौद्धिक और नैतिक
स्तरों पर तमाम प्रकार के ईसाई धार्मिक प्रतिबंधों से औपचारिक रूप से मुक्त हो
गये।
आदिवासियों
के उत्थान या उन्हें पिछड़ा मानकर सुधारने की मुहिम चलाने वाले तथाकथित समाजसुधारक
और मिशनरी प्रचारकों को वैरियर एल्विन के जीवन से सीखने की जरूरत है। आपको पहले
वैरियर की जैसे आदिवासी बनकर आदिवासियों को समझना होगा, उनका विश्वास जीतना होगा और तभी आप आदिवासियों का कुछ
हित वास्तव में कर पायेंगे। गोंड आदिवासियों के बीच वैरियर को अपना पहला मित्र एक
झाड़-फूंक करने वाला आदिवासी पंडा बाबा मिला था। स्थानीय झारखंडी बोली सीखने के
लिए वैरियर इस आदिवासी के संपर्क में आया था। गोंड आदिवासी मिथकों के इस असाधारण
जानकार पंडा बाबा के माध्यम से वैरियर ने गोंड और पूर्णतः आदिम आदिवासी बैगा लोगों
का गहन अध्ययन किया। बैगा लोगों के रीति-रिवाजों को लिखित रूप में लाने और उनसे
छीने जाते जंगलों पर व्यापक नागरिक समाज का ध्यान खींचने के लिए वैरियर ने बैगा
आदिवासियों पर एक मोनोग्राफ तैयार किया था। चूंकि औपनिवेशिक सरकार और राष्ट्रीय
नेता आदिवासियों को नगण्य मानते थे अतः वैरियर ने शमराओ के साथ मिलकर मांडला के
आदिवासियों के गीतों को एकत्रित किया। इनमें से कुछ ‘जंगल के गीत’ शीर्षक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुये। ‘जंगल के गीत’ पुस्तक की सफलता ने वैरियर एल्विन
के जीवन कर्म की दिशा अंतिम रूप से निर्धारित कर दी। आदिवासियों की शिक्षा और
चिकित्सा आदि का काम शमराओ के हवाले करके वैरियर अपनी लेखनी से उनके पक्ष में
माहौल अनुकूलित करने में जुट गये। किंतु ठक्कर बाबा के ‘भील सेवा मंडल’ की तर्ज पर स्थापित किये गये अपने आश्रम ‘गोंड सेवा मंडल’ का मुख्यालय वैरियर को करांजिआ से
बीस मील और आगे सरवाचप्पर में स्थानांतरित करना पड़ा क्योंकि वहां का जमींदार
गोंडों में आती चेतना से नाखुश होकर वैरियर और उनके आश्रम के मार्ग में अड़चने
डालने लगा था। मुख्यालय का यह स्थानांतरण ‘जंगल के गीत’ के प्रकाशन के दौरान ही 1936 में
किया गया था।
1936
के साल ही वैरियर अपने आश्रम के लिए चंदा जुटाने दो महीने की ब्रिटेन यात्रा पर भी
गये थे। इस समय तक वैरियर कांग्रेस और उसके स्वाधीनता आंदोलन से एक दूरी बना चुके
थे क्योंकि आदिम आदिवासियों के प्रति कांग्रेस की उदासीनता और हिंदुत्व की ओर झुकी
हुई कुछ कांग्रेसी नेताओं की राजनीति उन्हें स्वीकार्य नहीं हो सकती थी। वैसे भी
पासपोर्ट नवीनीकरण के मामले में दिया गया शपथ पत्र उन्हें कांग्रेस का खुलकर
समर्थन करने की अनुमति नहीं देता था। लेकिन कांग्रेसी राजनीति से स्वयं को अलग कर
लेने पर भी अंग्रेज सरकार द्वारा वैरियर के कार्यों पर संदेह करना और सरकारी
टोका-टोकी जारी थी। अतः अब अंग्रेज सरकार
के इस अनावश्यक हस्तक्षेप से बचने के लिए वैरियर ने स्वेच्छा से स्वयं को कांग्रेस
और उसके आंदोलन से पृथक् घोषित करते हुए अपने पुराने परिचित मिशनरी दोस्त विलियम
पेटॉन के मार्फत एक वक्तव्य भारत राज्य सचिव को सौंपा। इसमें वैरियर ने आदिम
आदिवासियों के बीच मानव सेवा कर्म करते हुए स्थानीय अंग्रेज प्रशासन के हाथ मजबूत
करने का दावा किया था। किंतु उनके इस वक्तव्य को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के विरोध
में व्याख्यायित न किया जाना चाहिए। यह तो आदिवासियों के बीच सरकारी नियंत्रण से
मुक्त हो अपना कार्य करने के अवसर प्राप्ति की व्यावहारिकता थी। इतना ही नहीं
वैरियर ने निचले दरजे के राज कर्मचारियों के दुराग्रहों और अपमानों से छुटकारा
पाने के लिए स्वयं के लिए एक अवैतनिक मजिस्ट्रेट के सरकारी पद की मांग भी अंग्रेज
सरकार के समक्ष कर डाली। अंततः वैरियर की यह कूटनीति काम कर गई और उन्हें केंद्रीय
प्रांत के गवर्नर ने सम्माननीय (ऑनररी) मजिस्ट्रेट नियुक्त कर दिया। इस पद ने
वैरियर को आदिवासी मसलों की सुनवाई और निपटान का विशेष अधिकार भी दे दिया।
इसप्रकार आदिम आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में ब्रिटिश सरकार ने वैरियर को
अपनी स्वीकृति देकर उन्हें आदिवासी हितों की रक्षा करने का स्वर्णिम अवसर मुहैया
करा दिया। 1936 के अंत में भारत लौटने पर जब मांडला में गोंड आदिवासियों के
हिंदूकरण का ‘राज गोंड’ आंदोलन पनपने लगा, तो वैरियर हिंदुत्व के कांग्रेसी संस्करण के प्रति और शंकालू बन गया। दूसरी ओर
मध्य प्रांत के गवर्नर सर फ्रांसिस विलिए द्वारा गोंड आदिवासियों के प्रति दिखाई
गई सहृदयता ने वैरियर को काफी प्रभावित किया।
1938
में वैरियर एल्विन ने अपने आश्रम गोंड सेवा मंडल का नाम परिवर्तित करके ‘भूमिजन सेवा मंडल’ कर दिया ताकि दूसरे आदिवासियों और भूमि से जुड़ी जातियों को भी इसके दायरे में
लाया जा सके। हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा संचालित गोंड आदिवासियों के शुद्धिकरण
के आंदोलन - राज गोंड आंदोलन के जबाव में भी वैरियर अपने आश्रम का कार्यक्षेत्र
बढ़ाना चाहता था। हिंदू सुधारवादियों के दबाव डालने पर वैरियर को पुनः अपने आश्रम
का मुख्यालय सरवाचप्पर से 9 मील उत्तर में स्थित पाटनगढ़ परिवर्तित करना पड़ा।
पाटन में गोंडों के अतिरिक्त कुछ थोड़े से परधान आदिवासी भी थे जो बहुत मिलनसार और
उमंग-उत्साह से भरे आदिवासी थे। 1938 के अंतिम सप्ताह में वैरियर की बहिन एल्डिथ
भी कुछ दिनों के लिए इंग्लैंड से अपने भाई के पास रहने आई थी। सरवाचप्पर में रहते
हुए वैरियर एल्विन ने आदिवासी जीवन पर केंद्रित अपने दो उपन्यास पूरे किये -
फूलमात (Phulmat) और ‘ए क्लाउड दैट इज ड्रैगोनिश’। इन दो उपन्यासों के अतिरिक्त आपने ‘बैगा’ शीर्षक से बैगा आदिवासियों पर नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन भी पुस्तकाकार रूप में
प्रकाशित किया था। ‘The Baiga’ में बैगा आदिवासियों के समृद्ध यौन जीवन का चित्रण
है जहां यौनिकता को लेकर स्त्री-पुरूष में किसी प्रकार की ग्लानी या अपराध भाव
नहीं पाया जाता। इन आदिवासियों के आर्थिक जीवन और उदरपूर्ति का माध्यम रही बेवार
प्रथा पर भी इसमें विस्तृत विवेचन है। बैगा आदिवासी धरती को माता मानते थे और उसके
सीने पर लोहे का हल चलाकर खेती करना पाप समझते थे। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने बेवार
प्रथा के तहत होने वाली एक प्रकार की झूमर खेती पर प्रतिबंध लगा बैगाओं की कमर ही
तोड़ दी थी। ‘दि बैगा’ के प्रकाशन के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया
था जिससे वैरियर के गोंड सेवा मंडल को मिलने वाली समुद्रपारीय आर्थिक सहायता को
धक्का लगा। लेकिन इस पुस्तक ने वैरियर को डब्ल्यू.जी. (बिल) आर्कर (W.G. (Bill) Archer)
के रूप में एक नया मित्र दिया। आर्कर भी वैरियर के ही समान आदिवासियों में रूचि
रखने वाला अंग्रेज था। उरांवों के लोकगीतों पर उसने भी एक पुस्तक लिखी थी जो अब
पूरी होने वाली थी। एक नौकरशाह होने पर भी यह अंग्रेज नौकरशाही के आभिजात्य घेरे
से बाहर रहता था।
‘दि बैगा’ के प्रकाशन उपरांत वैरियर ने अपनी अधूरी पड़ी एक पुस्तक को अप्रैल 1940 में
पूरा किया। यह पुस्तक थी - ‘दी अगारिआ’ जो लोहे को गलाकर औजार बनाने वाले अगारिआ आदिवासियों पर थी। पुस्तक औद्योगिक
लौह उत्पादों और ब्रिटिश सरकार की राजस्व नीति से इन लौह आदिवासियों पर पड़ने वाले
प्रतिकूल प्रभावों को प्रकाश में लाती है। इसप्रकार ‘दि बैगा’ और ‘दि अगारिआ’ पुस्तकों के साथ वैरिआर एल्विन आदिवासियों की आवाज बनकर उभरते हैं जो दिकुओं
के हस्तक्षेप, औद्योगिक सभ्यता और ब्रिटिश औपनिवेशिक
शासन के सामने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे।
वैरियर
के गोंड सेवा विद्यालय में एक आदिवासी छात्रा कोसी अर्मू पढ़ा करती थी। आगे चलकर
इसी आदिवासी युवती कोसी से वैरियर ने अप्रैल 1940 में विवाह कर लिया। यह विवाह
लगभग एक दशक तक निभाया गया। ब्रिटिश साम्राज्य की एक गुलाम आदिवासी युवती से शासक
जाति के वैयिर का यह विवाह स्वयं वैरियर के परिजनों के साथ-साथ उसके परिचित
अमेरिकी-यूरोपीय मित्रों को पसंद न आया था। यद्यपि कोसी का परिवार मध्ययुगीन
छत्तीसगढ़ के गोंड शासकों से संबद्ध था किंतु ब्रिटिश भारत में वे थे तो गुलाम ही।
कोसी का परिवार भी एक दिकू से अपनी बेटी का विवाह नहीं चाहता था। लेकिन इस विवाह
ने वैरियर के आदिवासी लेखन में बहुत ही उल्लेखनीय भूमिका निभाई। कोसकोसी के सहयोग
के बिना वैरियर ‘दि अबोरिजनल’ (1943) और ‘दि मुरिआ एंड देअर घोटुल’ (1946) पुस्तकों में आदिवासी जीवन
और समाज का इतना जीवंत चित्रण नहीं कर सकता था। जिन आदिवासी समुदायों के बीच
वैरियर काम कर रहा था, उनके बीच वैरियर को स्वीकार्यता
दिलाने में कोसी की जो भूमिका रही, उससे इंकार नहीं किया जा सकता। आदिवासी जगत के मिथकों और रहस्यों की अबूझ
पहेली को समझने में कोसी वैरियर के लिए एक माध्यम सदृश्य ही थी।
आदिवासियों
के नये-नये समुदायों का अध्ययन करने और सभ्य समाज के सामने उनकी समस्याओं और उनके
वैशिष्ट्य को प्रस्तुत करने की अदम्य जिजीविषा वैरियर को 1940 में आदिवासी बाहुल्य
बस्तर ले गयी। आदिवासियों के हितों के
प्रति प्रतिबद्ध बस्तर के दीवान डब्ल्यू.वी.ग्रिगसन की पुस्तक ‘The Maria Gonds of Bastar’ (1938) ने इस दिशा में निर्णायक प्रेरक भूमिका अदा की थी। बस्तर के तत्कालीन दीवान
ई.एस.हाइडे (E.S.Hyde) ने वैरियर को बस्तर का सम्माननीय नृतत्वशास्त्री और जनगणना अधिकारी
नियुक्त करके उनकी राह आसान कर दी। ब्रिटिश प्रशासन द्वारा संरक्षित बस्तर के
आदिवासियों की स्थिति से वैरियर संतुष्ट नजर आते हैं क्योंकि उनकी
सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक संस्थाएं और मान्यताएं फलफूल रही थीं। बस्तर में
परंपरागत आदिवासी अर्थव्यवस्था अभी तक बची हुई थी।
बस्तर
में रहते हुए वैरियर ने अपनी पहली पुस्तक मुरिआ आदिवासियों की ‘घोटुल’ प्रथा पर केंद्रित की। घोटुल इन आदिवासियों की नयी पीढ़ी को सुखी-समृद्ध यौन
जीवन की शिक्षा देने वाली प्रथा और सामाजिक संस्था थी। आदिवासी युवक-युवती घोटुल
में रात बिताते हुए अपने समाज की संस्कृति, कला और सामुदायिक परंपराओं में भी दीक्षित हो जाते थे। कोसी की सहायता के बिना
घोटुल की रहस्यमयी और बाहरी लोगों के लिए प्रतिबंधित दुनिया का साक्षात्कार वैरियर
नहीं कर सकता था। वैरियर ने अपनी अगली पुस्तक ‘मारिआ-मर्डर एंड सुसाइड’ में मारिआ आदिवासियों में बहुतायत
से विद्यमान रही हत्या और आत्महत्या की प्रवृत्ति के मूल में निहित कारणों को
समझाने का प्रयास किया है। इन हत्याओं और आत्महत्याओं के पीछे थी - मारिआ
आदिवासियों की अज्ञानता और मारिआ पुरूषों में अपनी स्त्रियों को लेकर विद्यमान ईर्ष्या-शंका
की मनोवृत्ति। आगे चलकर वैरियर ने अपना शोध अध्ययन पूर्वी उड़ीसा के आदिवासियों पर
विशेषतः जुआंग पर केंद्रित किया। जुआंग वृक्षों की पत्तियों और छाल से अपनी देह
ढकने वाली आदिम आदिवासी प्रजाति थी जो बाहरी दुनिया से पूर्णतः कटी हुई थी। जुआंग
लोगों का रवैया अंग्रेज आदि बाहरी दिकुओं के प्रति असहयोगपूर्ण और अविश्वास से भरा
था।
इस
समय तक वैरियर भारत की आदिम आबादी की प्रमाणिक आवाज बन चुके थे लेकिन कांग्रेस के
हिंदुत्वववादी नेता एल्विन पर आदिम आदिवासियों को राष्ट्रवाद से दूर ले जाने और
मुसलिम लीग की तर्ज पर अखंड भारत राष्ट्र के रास्ते में रोड़ा डालने के आरोप लगाने
लगे थे। उनका कुतर्क था कि एल्विन आदिम आदिवासियों को भारतीय समाज से अलग-थलग
प्राकृतिक अभयारण्यों की सीमाओं में रखने का हिमायती है। दूसरी ओर ‘The Aborigins – So Called and
Their Future’ के लेखक जी.एस.घुर्ये आदिवासियों को प्राणपन से
पिछड़ा हिंदू सिद्ध करने का जिहाद छेड़े थे। घुर्ये वैरियर के लेखन के मूल में
आदिम आदिवासियों को उनके मूल धर्म - हिंदू धर्म से दूर करने का गुप्त उद्देश्य
होना प्रचारित कर रहे थे। हकीकत में इन दोनों प्रकार के आरोपों में दम न था। इसमें
कोई दो राय नहीं कि वैरियर आदिवासियों के संरक्षण के पक्ष में थे विशेषतः आदिम
आदिवासियों के। किंतु वे जंगली जानवरों की तरह उनकी स्वाधीनता का दमन करके उन्हें
किसी राष्ट्रीय उद्यान/अभयारण्य/चिडि़याघर में बंद रखने की बात नहीं कर रहे थे। वे
तो यह चाहते थे कि उनके प्रिय आदिम आदिवासी अपने प्रकृतिक परिवेश में, अपनी मान्यताओं, अपनी जीवन शैली के साथ सुरक्षित रह सकें और आधुनिक सभ्यता की मानवतावादी देनों
का लाभ ले सकें। जहां तक घुर्ये का सवाल है, तो घुर्ये कूप मंडूक किताबी नृतत्वशास्त्री थे। घनघोर ब्राह्मणवादी संस्कृति
और हिंदूवादी धार्मिक मान्यताओं का कट्टर समर्थक यह प्रोफेसर आदिम आदिवासियों के
हिंदूकरण की नीति पर चल रहा था।
1944
में ऑक्सफोर्ड से एल्विन की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई - ‘फोक टेल ऑफ महाकौशल’ और ‘फोक सांग्स ऑफ मैकाले हिल्स’। पहली पुस्तक शमराओ हिवाले के साथ मिलकर लिखी गयी थी
और पत्नी कोसी एल्विन का साथ तो था ही। ‘फोक टेल ऑफ महाकौशल’ में मध्य प्रांत की 150 लोक गाथाओं
का संग्रह था। ये गाथायें भाइयों की पारस्परिक कलह और पत्नियों की आपसी ईर्ष्या पर
केंद्रित थीं। एल्विन स्वीकारते हैं कि आदिवासियों में प्रचलित इन गाथाओं पर हिंदू
कथा साहित्य का भी किंचित प्रभाव साफ देखा जा सकता है। शताब्दियों से हिंदू जनता
के साथ रहा संपर्क ही इस प्रभाव के मूल में है। ‘फोक सांग्स ऑफ मैकाले हिल्स’ के गीत मुख्यतः आदिवासी
प्रेमी-प्रेमिका के रोमांस गीत हैं। आदिवासी समाज पर पड़ने वाले आधुनिक सभ्यता के
प्रभाव भी इनमें यदा-कदा झलकते हैं। यह पुस्तक 600 गीतों का एक विशाल संग्रह बन
पड़ी है। गांधीवादी सुधारवाद और ईसाई मिशनरियां नाच-गान प्रधान आदिवासी संस्कृति
की उत्सवधर्मिता को नैतिक सभ्यता के हवाले से हतोत्साहित करते रहे थे। अतः एल्विन
इसप्रकार के अपने संग्रहों के माध्यम से गांधीवाद और मिशनरी सुधारवाद का प्रतिकार
करते हैं। मांडला और बस्तर के आदिवासी इलाकों में शिक्षा के नाम पर मिशनरियों के शिक्षा
संस्थानों में जो ईसाई धर्म प्रचार किया जा रहा था, वैरियर उसके सख्त खिलाफ थे। आदिवासियों के इस धर्मांतरण को वे आदिवासी
अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा बताते हैं। आदिवासी संस्कृति के खिलाफ दुष्प्रचार करती
ईसाई मिशनरियों को एक माकूल जबाव ईसाई धर्मशास्त्रों का एक प्रकांड विद्वान ही दे
सकता था। और वैरियर एल्विन ने अपने लेखों और पुस्तकों से इसप्रकार के दुष्प्रचारों
को सिरे से खारिज किया है। आर्थिक प्रलोभनों और जोर-जबर्दस्ती से किये जाने वाले
इन आदिवासी धर्मांतरणों को सप्रमाण सामने लाकर वैरियर ने उन घुर्ये जैसे विरोधियों
को भी चुप कर दिया जो उन पर आदिवासियों के पृथक्करण की नीति के चलते राष्ट्रविरोधी
होने के तथाकथित आरोप लगाते नहीं थकते थे। डच मिशनरियों के धर्म प्रचार कार्यों की
मुख़ालफत करने के कारण वैरियर को ईसाई मिशनरियों और अंग्रेज प्रशासकों की नाराजगी
भी झेलनी पड़ी लेकिन इस मसले पर ए.वी.ठक्कर, भूलाभाई पटेल जैसे कांग्रेसी नेता और पुरूषोत्तम ठाकुरदास जैसे उद्योगपति
वैरियर के साथ थे। यद्यपि वैरियर कांग्रेस की हिंदुत्ववादी आदिवासी नीति से
बिल्कुल असहमत था लेकिन विदेशी ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण और दुष्प्रचार की
तुलना में कांग्रेस आदिवासियों के लिए उतना बड़ा खतरा न थी।
विश्वयुद्ध
के कारण अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो चुकी थी अतः वैरियर को अपने क्षेत्र अध्ययन में
आर्थिक समस्याएं आ रही थीं। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए वायसराय के राजनीतिक
सलाहकार बन चुके अपने मित्र सर फ्रांसिस विलिए के सहयोग से वैरियर उड़ीसा के
सम्माननीय नृतत्वशास्त्री के पद पर नियुक्त कर दिया गया। 1943 से 1946 के बीच
उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों के दौरे करके उन्होंने कुछ नये आदिवासियों पर अध्ययन
किये, जैसे कुत्तीआ कोंध और बोंडा आदि आदिवासी। कोंध
आदिवासियों की संस्कृति में मानव बलि की प्रथा रही थी जिसे अंग्रेज सरकार ने
प्रतिबंधित कर दिया था। बोंडा आदिवासी स्वतंत्रता, समानता और स्वायत्तता के आदिवासी आदर्षों को मानते थे। लेकिन मानव हत्या या
बलि की प्रथा इनमें भी थी। इन दोनों हिंसक आदिवासियों की अपेक्षा सओरा आदिवासी कुछ
शांत थे लेकिन वैरियर ने पाया कि ये भी बाहरी लोगों से विशेष सतर्कता बरतते थे।
वैरियर ने उनकी एक देवी ‘साहिबोसुम’ का जिक्र किया है जो अंग्रेज साहबों को उनके क्षेत्र
से दूर रखने वाली एक देवी रही थी। अपनी इन आदिवासी यात्राओं से एकत्रित सामग्री का
उपयोग करते हुए एल्विन उड़ीसा के विभिन्न आदिवासियों पर पृथक्-पृथक् पुस्तकें
लिखने की योजना रखते थे। अपनी पुस्तकों में गहाराई तक डूबकर आदिवासियों पर काम
करने वाले वैरियर एल्विन अपनी आदिवासी पत्नी कोसी को पर्याप्त समय नहीं दे पाते
थे। और ऊपर से पति-पत्नी दोनों ही विपरीत लिंगियों के प्रति आकर्षित हो परस्पर
ईमानदार नहीं रह पाते थे। अतः वैरियर और कोसी के संबंधों में तनाव आने लगा था।
उनके पहले पुत्र कुमार का जन्म होने के बाद 1945 में वैरियर की अनुपस्थिति में
कोसी पुनः गर्भवती हो गयी। यद्यपि वैरियर के लिए पराये व्यक्ति की संतान को अपनाना
अपमान और लांक्षण का विषय था। लेकिन एक बार पुनः नये सिरे से कोसी के साथ अपनी
पारिवारिक जिंदगी शुरू करने के लिए उन्होंने कोसी की इस गलती को माफ करके तलाक के
निर्णय को वापिस ले लिया। इसी समय भारत के नृतत्वशास्त्रीय सर्वेक्षण की सरकारी योजना
में उन्हें एक महत्वपूर्ण पद (उपनिदेशक का पद) दिया गया। इस सर्वेक्षण का मुख्यालय
पहले बनारस और फिर कलकत्ता (कोलकता) स्थानांतरित हो गया। वैरियर बनारस और फिर
कलकत्ता के इस प्रवास पर अपने मित्र शमराओ हिवाले को साथ नहीं ले गये थे। हिवाले
मांडला में ही भूमिजन सेवा मंडल का कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए रह गया।
इस
नृतत्वशास्त्रीय सर्वे में उपनिदेशक का पद वैरियर ने कई बिंदुओं को मद्देनजर रखते
हुए स्वीकारा था। जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित अंतरिम सरकार ने यह
सर्वेक्षण विभाग भारत की ग्रामीण आबादी का अध्ययन करने और उसके लिए समुचित नीतियां
निर्धारित करने के लिए खोला था। अतः वैरियर इस विभाग में कार्य करते हुए स्वतंत्र
भारत की कांग्रेस सरकार की आदिवासी विषयक नीतियों को भी प्रभावित कर सकता था। अपने
परिवार और आश्रम की आर्थिक आवश्यकताओं की दृष्टि से भी यह सरकारी नौकरी महत्वपूर्ण
थी। इन सबके साथ-साथ इस नौकरी में नये आदिवासी क्षेत्रों की यात्रा और उनके अध्ययन
हेतु पर्याप्त अवकाश भी सुलभ था। किंतु 1947 में देश के आजाद होने पर वैरियर को
औपनिवेशिक शासन में अभी तक मिलता आया प्रशासनिक समर्थन जाता रहा। धर्म के नाम पर मातृभूमि
भारत का विभाजन झेल चुके भारतवासियों के लिए अब किसी भी प्रकार का अलगाव और
पृथक्करण असह्य था। नवस्वाधीन देश के कर्णधार अब राष्ट्रीय एकता और सर्वसमन्वय के
लिए प्रतिबद्ध थे। ऐसे में आदिम आदिवासियों के संरक्षण और मुख्यधारा की सभ्यता से
उन्हें पृथक् रखने की नीति में विश्वास करने वाले वैरियर को कांग्रेसी नेता और भी
ज्यादा शक की निगाह से देखने लगे थे। अंग्रेज शासन की जगह नवस्थापित कांग्रेसी शासन
में वैरियर भी स्वयं को मातहत महसूस कर रहे थे। पत्नी कोसी के साथ भी पुनः झगड़ा
और तनाव जोर पकड़ता जा रहा था। वैरियर के मित्र बिल आर्कर 1947 में भारत की आजादी
के बाद भी नागा पहाडि़यों के उप आयुक्त के पद पर रहकर आदिवासियों के बीच अध्ययन
करना चाहते थे लेकिन नई सरकार ऐसे महत्वपूर्ण पद पर किसी विदेशी को स्वीकार करने
को कैसे तैयार हो सकती थी। अतः बिल आर्कर भी अन्य अंग्रेज प्रशासकों की जैसे
ब्रिटेन लौट गया। आर्कर का भारत छोड़ना वैरियर के लिए किसी सदमे से कम न था।
गांधीजी की हत्या और सर्वे के मुख्यालय का बनारस से कलकत्ता स्थानांतरण लगभग
साथ-साथ हुआ था।
सर्वे के सरकारी कार्यालयी ऊबाऊ
काम ने वैरियर को काफी थका दिया। आदिवासियों के अध्ययन की जगह उसका समय सरकारी
रपटें तैयार करने में जाया हो रहा था और ऊपर से सर्वे के भारतीय आयुक्त बी.एस.गुआ
वैरियर की चमड़ी के रंग के आधार पर उनके प्रति पूर्वाग्रह रखते थे। गुहा के
निर्देश पर असम के आदिवासी क्षेत्रों में वैरियर को अध्ययन की अनुमति तक न दी गई।
और अंततः इन सब नकारात्मक चीजों के बीच मार्च 1949 में वैरियर और कोसी के बीच
कानूनन संबंध विच्छेद हो गया। कोसी का पहला पुत्र कुमार वैरियर के पास रहा जिसे
वैरियर ने शमराओ हिवाले की पत्नी कुसुम हिवाले के पास परवरिश के लिए रख दिया।
कुसुम बाद में पाटनगढ़ छोड़कर अपने बच्चों और कुमार के साथ जबलपुर में रहने लगी थी
क्योंकि शमराओ और उसकी बन नहीं पाती थी। अप्रैल 1949 में वैरियर ने सर्वे का
यांत्रिक और नीरस कार्य भी छोड़ दिया। इसप्रकार वैरियर बेरोजगार हो गया और पाटनगढ़
वापिस लौट आया। एडरियन ब्रेंट के छद्म नाम से लिखे रहस्मयी हत्याओं वाले अपने दो
उपन्यासों में वैरियर की खीझ स्वातंत्र्योत्तर कांग्रेसी सरकार पर दिखाई देती है।
यहां तक कि वह यूरोप लौट जाने पर भी गंभीरता से सोचने लगा था। लेकिन इसी समय की गई
ब्रिटेन की असफल यात्रा ने उसे हताश कर दिया और उसने अपना विचार स्थगित कर दिया।
किंतु इन तमाम विपरीत परिस्थितियों
में भी वैरियर की जिजीविषा कायम थी। पाटनगढ़ में एक आदिवासी परधान युवती कचरी से
पुनः वैरियर के जीवन में प्रेम का स्रोत फूट पड़ा। कोसी के विपरीत यह आदिवासी
युवती न तो मदिरापान करती थी और न कोसी की तरह चंचल ही थी।कचरी कचरी एक घरेलू
युवती थी जो वैरियर की घर-गृहस्थी को पटरी पर ला सकती थी। वैरियर ने कचरी का नया
नाम लीला रखा जो भारतीय प्रेम की प्रतीक कृष्णलीला से प्रेरित था। लेकिन वैरियर
प्रथम विवाह की असफलता के बाद फिर इतनी जल्दी औपचारिक रूप से कानूनन विवाह बंधन में
बंधने को तैयार न थे। अक्टूबर 1950 में लीला ने वैरियर के पुत्र बसंत को जन्म
दिया। बसंत के जन्म के समय वैरियर अपने एक ऑक्सफोर्ड मित्र के निमंत्रण पर कोलंबो
गया हुआ था। वहां से लौटकर वे पुनः सओर आदिवासियों की अध्ययन यात्रा पर निकल गये।
अपने इस बार के उड़ीसा आदिवासी क्षेत्र सर्वेक्षण के अंतिम सप्ताह वैरियर को शमराओ
हिवाले और उनके एक मित्र विक्टर ससून का अच्छा साथ मिल गया। विक्टर बंगाल के एक
समृद्ध परिवार से था और आदिवासियों की जीवन-संस्कृति में रूचि रखता था। आगे चलकर
उसने वैरियर के अध्ययन-शोध में सहायता भी की। विक्टर ससून और बिल आर्कर, दोनों ने वैरियर को अपना अध्ययन क्षेत्र अब
स्वातंत्र्योत्तर भारत के स्थान पर अफ्रीका स्थानांतरित करने की सलाह दी। लेकिन
वैरियर उम्र के इस ढलान पर किसी नये महाद्वीप में अज्ञात भाषाओं के बीच नये सिरे
से अकादमिक जीवन आरंभ करने को तैयार न हुआ। दूसरे, अफ्रीकी आदिवासियों और यूरोपीय श्वेत नस्ल के बीच विद्यमान कटुता भी उसे पसंद
न थी। वैसे 1949 में ब्रिटेन से लौटते समय और पुनः 1951 में विक्टर ससून के साथ
वैरियर अफ्रीका की यात्राएं कर चुका था। जीवन की अनिश्चितता और तनावों के बीच
दिसंबर 1951 में एक पुराने परिचित के निमंत्रण पर वैरियर ने थाइलैंड की यात्रा भी
की।
ब्रिटेन, अफ्रीका और थाइलैंड की ये यात्राएं भावी जीवन की दिशा
तलाशती यात्राएं थीं लेकिन अंततः एल्विन ने आजाद भारत में ही रहना तय किया। कल की शासक
जाति का यह श्वेत पुरूष अब आजाद भारत में चाहे मातहत हो चुका था लेकिन भारतीय
बहुसांस्कृतिक परिदृश्य में वैरियर एल्विन के लिए भी स्थान था। आजादी उपरांत ‘भूमिजन सेवा मंडल’ ने दो बार अपना नाम परिवर्तित किया। 1949 में यह ‘ट्राइबल आर्ट एंड रिसर्च यूनिट’ बना और एक साल बाद ‘ट्राइबल वैलफेयर, आर्ट एंड रिसर्च यूनिट’ में तब्दील हो गया। जहांगीर पटेल के आर्थिक सहयोग की
वजह से वैरियर एल्विन 1951 में ‘दि ट्राइबल आर्ट ऑफ मिडिल इंडिया’ को ऑक्सफोर्ड से प्रकाशित कराने में सफल हुए। इनकी एक
अन्य पुस्तक भी ऑक्सफोर्ड ने प्रकाशित की - ‘मिथस् ऑफ मिडिल इंडिया’। 1950 में उड़ीसा के कोरापुर जिले
के ऊंचे स्थलों में रहने वाले बोंडा आदिवासियों पर वैरियर की एक विवरणात्मक
नीरस-सी पुस्तिका आई थी। इस पुस्तिका से वैरियर भी संतुष्ट न थे। वास्तव में यह
नृतत्वशास्त्र के पंडितों के लिए लिखी ही नहीं गई थी। लखनऊ विश्वविद्यालय के
प्रोफेसर डी.एन.मजूमदार ने व्यक्तिगत ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित हो इसकी तीखी
आलोचना की। ‘मिथस् ऑफ मिडिल इंडिया’ की पूरक पुस्तक के रूप में वैरियर की एक अन्य पुस्तक
1954 में आई - ‘ट्राइबल मिथस् ऑफ उड़ीसा’। उड़ीसा के आदिवासियों पर लिखी गई इनकी अंतिम पुस्तक
1955 में प्रकाशित हुई थी - ‘दि रिलीजन ऑफ एन इंडियन ट्राइब’, जो सओरा आदिवासियों का नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन थी।
सओरा आदिवासियों का यह अध्ययन व्यक्तिगत रूचि का विषय होने के कारण बहुत उच्च
स्तरीय बन पड़ा था। सओरा आदिवासी अन्य आदिवासियों की अपेक्षा व्यवस्थित
धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना संपन्न थे और धर्म वैरियर की विशेषज्ञता का आरंभिक
केंद्र रहा ही था। यह पुस्तक सओरा भाववाद/हाववाद (Shamanism) पर मुख्यतः प्रकाश डालती है। इन
पुस्तकों के समानांतर वैरियर का एक रूप अखबारी समीक्षा लेखक और लेख रचनाकार का भी
रहा है। तात्कालिक प्रसिद्धि और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में इसप्रकार के लेखन
ने वैरियर की काफी मदद की। टाइम्स ऑफ इंडिया, बंबई और दि स्टेट्समैन, कलकत्ता के लिए वैरियर ने 1949-53
के दरमियान खूब लिखा था। किंतु दूसरी ओर 1950-55 के दौरान इलैस्ट्रेड वीकली ऑफ
इंडिया जैसी गंभीर और सम्मानित पत्रिका में निरंतर आदिवासियों की समृद्ध संस्कृति
और उनकी संकटग्रस्त स्थिति पर लिखते हुए वैरियर स्वातंत्र्योत्तर भारत सरकार को
आदिवासी विषयों पर सचेत करते रहे थे। वैरियर अपने इन लेखों से राष्ट्र निर्माण में
आदिवासियों के संभावित योगदान को रेखांकित कर रहे थे। वे अपने संभ्रांत पाठकों से
अपेक्षा करते हैं कि वे आदिवासी कला-संस्कृति और मूल्यों का संरक्षण करने में
योगदान दें। आदिवासियों को पिछड़ा और क्रूर बताने वाले आदिवासी विरोधी
पूर्वाग्रहों के प्रति वैरियर इन पाठकों को चेताते नजर आते हैं।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में वैरियर
पत्र-पत्रिकाओं में अपने लेखन के माध्यम से शासक वर्ग को आदिम आदिवासियों को लेकर
संवेदनशील होने के लिए प्रेरित कर रहे थे किंतु वैयक्तिक जीवन में बाहरी लोगों और
हिंदुत्व के प्रभाव से नष्ट होती आदिवासी सभ्यता-संस्कृति के प्रति आप बहुत चिंतित
थे। जनवरी 1952 में दक्षिण बिहार के आदिवासी क्षेत्रों की अपनी यात्रा में उनका
साक्षात्कार वहां के आदिवासियों पर हिंदू सुधारवादियों की पितृसत्तावादी संस्कृति
से पड़ने वाले दुष्प्रभावों से हुआ। अपने मित्र आर्कर को लिखे एक पत्र में मलेरिया
मच्छर और भ्रष्टाचार को आदिम आदिवासियों का हितैषी बताते हुए वे अपनी निराशा नहीं
छिपा पाते। पुत्र कुमार की शिक्षा के प्रति बढ़ती अरूचि वैरियर के लिए एक दूसरी
समस्या बनती जा रही थी। कुमार अभी तक जबलपुर में कुसुम हिवाले के संरक्षण में उनके
बच्चों के साथ ही रह रहा था। वैरियर ने उसकी बेहतर शिक्षा-दीक्षा के लिए बंबई के
एक आवासीय विद्यालय सेंट मैरी में दाखिला करा दिया।
1952 की उड़ीसा यात्रा के समय
आदिवासियों के बीच होने पर भी वैरियर अकेलापन महसूस करने लगा था। वे अपनी पहली
पत्नी कोसी को तलाक देने के बाद अब दैहिक आकर्षण के स्थान पर अपने जीवन में
स्थायित्व और परस्पर ईमानदारी चाहते थे। लीला के साथ उनके अनौपचारिक प्रेम संबंध
थे और उससे एक पुत्र बसंत भी था। लेकिन पिछले विवाह की दुखद स्मृतियां अभी तक
वैरियर पर हावी थीं और वे लीला को औपचारिक पत्नी का दरज़ा देने को तैयार नहीं हो
पा रहे थे। मई 1952 में लीला ने वैरियर को एक अन्य पुत्र का उपहार दिया जिसका नाम
रखा गया था - नकुल। यद्यपि अपने भावी जीवन साथी को लेकर वैरियर अभी तक अंतिम
निर्णय पर नहीं पहुंच सके थे लेकिन स्वाधीन भारत के प्रधानमंत्री नेहरू जी का अपने
एक भाषण में जून 1952 में व्यक्त आदिवासियों के प्रति नजरिया वैरियर को अपने
अनुकूल लग रहा था। उभरते हुए आदिवासी नेता जयपाल सिंह, उद्योगपति सर होमी मोदी आदि के द्वारा
उन्हें मिल रही स्वीकृति भी उन्हें आश्वस्त करने वाली थी।
1952 में ही मोदी रोटरी क्लब, दिल्ली के आमंत्रण पर एक भाषण देने दिल्ली गये और
उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू जी से वैयक्तिक रूप से मिलने का प्रयास भी किया।
यद्यपि नेहरू अपनी किसी यात्रा पर दिल्ली से बाहर थे लेकिन लौटने पर उन्होंने
वैरियर के पत्र में व्यक्त वैरियर की ख्वाहिश पर असम के तत्कालीन राज्यपाल
(गवर्नर) जयरामदास दौलतराम को निर्देश दिया कि वे वैरियर को अनुसंधान हेतु आवश्यक
सहूलियतें प्रदान करें। अतः असम के गवर्नर का आमंत्रण वैरियर को अंततः एक नये
आदिवासी क्षेत्र में ले आया जो उनके भावी आदिवासी अध्ययन का केंद्र बना। राज्यपाल
ने वैरियर से यह अपेक्षा भी व्यक्त करी कि वे विद्रोही हो रहे असमिया आदिवासियों
पर एक रिपोर्ट भी सरकार को सौंपे। वैरियर 15 नबंवर 1952 को शमराओ के साथ पाटनगढ़
से असम के लिए निकले थे और असम पहुंचकर मणिपुर के नागा आदिवासी क्षेत्र की यात्रा
पर चल पड़े। वहां के आदिवासियों की स्वायत्त सामाजिक व्यवस्था, संस्कृति और जंगल-जमीन पर उनके अधिकारों से वैरियर
बहुत प्रभावित हुए। राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए वैरियर ने आगे भी असम के
आदिवासियों के मध्य कार्य करने की अपनी हार्दिक इच्छा व्यक्त की। असम से लौटने के
कुछ समय बाद ही वैरियर एल्विन ने अंततः लीला को सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी घोशित
कर दिया। लीला को पत्नी के रूप में स्वीकारने की पृष्ठभूमि में वैरियर का एक
अमेरिकी शोध छात्रा से असफल प्रेम बताया जाता है। इस प्रेम की असफलता ने वैरियर के
समक्ष आदिवासी लीला के समर्पण का महत्व अंतिम रूप से स्पष्ट कर दिया। यद्यपि
वैरियर के परिजन और मित्रजन पुनः एक आदिवासिन के साथ वैरियर के विवाह के विरोधी थे
लेकिन इस बार वैरियर का यह विवाह सफल सिद्ध हुआ। यह विवाह 20 सितंबर 1953 को
जबलपुर के एक न्यायधीश के समक्ष संपन्न हुआ था।
लीला के साथ वैरियर के इस विवाह ने
उनके जीवन में एक प्रकार का स्थायित्व अंततः ला दिया। असम के राज्यपाल के समक्ष
प्रस्तुत की गई वैरियर की रिपोर्ट से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नेहरू ने वैरियर
को नेफा का आदिवासी सलाहकार नियुक्त कर दिया। यह नियुक्ति प्रारंभ में तीन सालों
के लिए थी जिसे वैरियर की योग्यता का सम्मान करते हुए उनकी मृत्युपरंत निरंतर जारी
रखा गया। इस पद पर रहते हुए वैरियर ने साल 1954 के प्रथम दिवस से प्रशासन को अपनी
सेवा देना आरंभ किया था। वैसे मई 1953 में भारत सरकार के शिक्षा मंत्री ने
राष्ट्रीय नृतत्वशास्त्रीय सर्वे के निदेशक का पद भी वैरियर को देना चाहा था लेकिन
वैरियर ने वेतन आदि कारणों से अपनी रूचि नहीं दिखलाई। आदिवासियों के हितों और
मुद्दों से संबद्ध मामलों के सलाहकार के रूप में वैरियर की नियुक्ति उनके लेखन के
प्रति भारत सरकार का सम्मान ही थी। पाटनगढ़ को अंतिम रूप से अलविदा कहते हुए
वैरियर शिलांग आ गये जो असम की राजधानी थी। शमराओ हिवाले मांडला में ही आदिवासी
सेवा कर्म के लिए पीछे रह गये। वैसे वैरियर एल्विन की योजना हिवाले को भी नेफा
बुलाने की थी ताकि वह अपने इस मित्र के साथ असम के आदिवासियों पर बेहतर ढंग से काम
कर सके। शिलांग की आबोहवा और प्रकृति के साथ-साथ वैरियर वहां के आदिवासियों की
स्वायत्तता और परंपरागत सभ्यता-संस्कृति के संरक्षण से बहुत प्रभावित हुआ था। अभी
तक तथाकथित आधुनिकता से अछूती रही आदिवासियों की एक पूरी नयी दुनिया वैरियर के
आकर्षण का मुख्य विषय थी। जब वैरियर ने नेफा और असम को अपना अंतिम निवास बनाने का
निश्चय कर लिया तो भारतीय नागरिकता के लिए भी 27 फरवरी 1954 में आवेदन कर दिया। कल
का नेफा आज भारत का एक पूर्ण राज्य ‘अरूणाचलप्रदेश’ है। वैरियर जब नेफा का आदिवासी
सलाहकार बनाया गया तब नेफा सीधे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के अंतर्गत आता था।
और शिलांग स्थिति असम का राज्यपाल भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नेफा का प्रशासन
देखा करता था। इस व्यवस्था में नेफा के मामलों में आदिवासी सलाहकार के रूप में
वैरियर की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण थी।
नेफा एक आदिवासी बाहुल्य प्रदेश था
और आज भी है। ब्रिटिश सरकार इस प्रदेश के आदिवासियों को सैन्य ताकत के बल पर दबाकर
रखती थी ताकि वे असम के चाय बागानों पर हमला न करें। मुख्य राष्ट्रीय दल कांग्रेस
का आजादी से पहले यहां असित्तव तक न था। दूसरी ओर नेफा के दक्षिण-पूर्व में
सीमावर्ती नागालैंड में अमेरिकी मिशनरियां काफी सक्रिय थीं और ए.जेड.फिजो के
नेतृत्व में वहां एक अलगाववादी आंदोलन चल रहा था। अतः देश की आजादी उपरांत नेफा के
प्रति आजाद देश की नेहरू सरकार की नीति विशेष संवेदनशीलता की मांग करती थी। शायद
इसीलिए नेहरू ने वैरियर एल्विन को यहां के आदिवासी मामलों का सलाहकार नियुक्त
किया। और वैरियर नेहरू की अपेक्षाओं पर खरे भी उतरे। उनके नेतृत्व में नेफा के प्रशासनिक
अधिकारियों को आदिवासियों के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान कर पाठ पढ़ाया गया। उनकी
आवश्यकताओं और स्वायत्तता पर विशेष ध्यान देते हुए उनका विश्वास जीतने का प्रयास
किया गया। आदिवासियों के साथ उनके उत्सवों में शरीक होना और उनके साथ खाना-पीना इस
नीति का हिस्सा थे।
मार्च-अप्रैल 1954 में वैरियर नेफा
और नागालैंड के सीमावर्ती क्षेत्र की दो महीने लंबी यात्रा पर रहा। वहां पर
टैगिन्स, कोनयाक और फोम आदि आदिवासी समुदायों का
अध्ययन-निरीक्षण करता रहा। कोनयाक आदिवासियों में मानव शिकार की प्रथा थी जिसे
आजाद देश की कांग्रेस सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। इस प्रतिबंध के कारण कोनयाक
आदिवासी निराश-हताश थे। वे स्वयं को पौरूषहीनता का शिकार समझने लगे थे। वैरियर इस
प्रतिबंध से तो सहमत था लेकिन वह आदिवासियों के उत्साह-उमंग को भी बरकरार रखने का
पक्षधर था। और इसका उपाय हो सकता था - आदिवासी कलाओं, नृत्यों और उत्सवों को ज्यादा से ज्यादा प्रोत्साहन
देना। वास्तव में आदिवासियों में प्रचलित कुप्रथाओं को तो प्रतिबंधित करना जरूरी
है लेकिन विकल्प रूप में उन्हें सृजनात्मक कला-संस्कृति की ओर प्रेरित करना भी आवश्यक
है, अन्यथा वे अन्य प्रकार के दुष्प्रचारों में बह सकते
हैं। और कोनयाक आदिवासियों के संदर्भ में ऐसा ही हो रहा था। नानागालैंड के आओ (Ao) धर्म प्रचारक
अपने संकीर्ण किस्म के बापतिस्त मत का प्रचार इन आदिवासियों के मध्य कर रहे थे। वैरियर
ने बापतिस्तों को आर.एस.एस. का ईसाई संस्करण बताया है। आदिवासियों पर लादी जाने
वाली इस ईसाइयत और भोंडी आधुनिकता के प्रति वैरियर अपनी रिपोर्ट में तीखी
प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। फोम आदि आदिवासियों में प्रचलित मृतकों के अंतिम
संस्कार की प्रथाओं को फूहड़ और असभ्य बताने वाले सरकारी अध्यापकों की भी वैरियर
भत्र्सना करते हैं। आने वाले वर्षों में वैरियर नियमित रूप से इसीप्रकार आदिवासी
इलाकों की यात्रा पर जाते रहे। उनकी सर्दियां इन यात्राओं में ही गुजरती थीं और
गर्मियां शिलांग के सचिवालय में। 1954 की सर्दियों में लाला ने वैरियर के तीसरे
पुत्र अशोक को जन्म दिया जिसके कारण वैरियर की आदिवासी इलाकों की यह वार्षिक
यात्रा एक महीने विलंब से हुई थी लेकिन टली नहीं। इस यात्रा में वैरियर तिब्बत की
ओर रहने वाले अबोर (Abor) आदिवासियों से परिचित हुए। बीच-बीच
में शमराओ हिवाले भी शिलांग आकर कुछ समय वैरियर के साथ बिताता था। सितंबर 1954 और
मई 1955 में शमराओ वैरियर के पास कुछ समय के लिए रूका था।
मई 1954 में भारत सरकार की ओर से
वैरियर से अनुरोध किया गया कि वे पूर्वोत्तर को गांधी जी से परिचित कराने वाली एक
पुस्तक लिखे। इस अनुरोध का परिणाम था – ‘Gandhiji-The Bapu of his people’
वैरियर के चाहे गांधी जी से कितने ही मतभेद रहे हो लेकिन अपनी इस पुस्तक में वे
आदिवासियों के लिए गांधीजी की प्रासंगिकता बताते नजर आते हैं। वैरियर के मुताबिक
आदिवासी समाज गांधी जी के जीवन और दर्शन से अहिंसा, प्रेम और आत्मनिर्भरता के पाठ सीख सकता है। इसके
अतिरिक्त उदारता के साथ-साथ विविधता में एकता की सीख भी गांधीवाद से मिलती है। एक
दौर में वैरियर एल्विन पर गांधीजी का बहुत प्रभाव था लेकिन अब वैरियर गांधी जी के
उत्तराधिकारी नेहरू की ओर आकर्षित थे। और इस आकर्षण का मूल था - दोनों की
आदिवासियों के प्रति समान सोच। अगस्त 1955 में अपनी शिलांग यात्रा के दौरान नेहरू
वैरियर एल्विन के घर भी गये थे। वापस लौटकर नेहरू ने नेफा प्रशासन को जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने नेफा प्रशासन को आदिवासी मामलों के
सलाहकार वैरियर के निर्देशों का पूरा-पूरा सम्मान करने को कहा।
सर्दियों की अपनी वार्षिक
घुमक्कड़ी के दौरान वैरियर नवंबर 1955 में लीला को भी अपने साथ लेकर गये थे और इस
बार उन्होंने मिशमी पहाड़ियों की यात्रा की। कुछ यात्राओं पर वैरियर के साथ उनका
सबसे बड़ा पुत्र कुमार भी रहा था। ये यात्राएं वैरियर को आदिम आदिवासियों के और
ज्यादा समीप ले आती थीं। वैरियर भारतीय सीमावर्ती प्रशासनिक सेवा (Indian Frontier Administrative
Service) के अफसरों को भी आदिवासियों के बीच घूमने-फिरने के लिए
सतत् निर्देश दिया करते थे। आदिवासियों के साथ घुलने-मिलने, उनके साथ बैठकर खाने-पीने से जहां अधिकारी आदिवासियों
का विश्वास अर्जित कर सकते थे, वहीं वे आदिवासियों को समझने में
भी सफल रहते थे। वैरियर इन अधिकारियों से आदिवासी क्षेत्रों पर रिपोर्टें भी तैयार
कराते थे ताकि उनकी परख हो सके।
1956 की गर्मियों में वैरियर ने
नेफा के बौद्ध केंद्र तवांग बौद्ध मठ की यात्रा की। तवांग में पहुंचकर वैरियर की
चिर अतृप्त धार्मिक-आध्यात्मिक चेतना पुनः जाग गई। इस बौद्ध मठ ने वैरियर को उनके ऑक्सफोर्ड
वाले छात्र जीवन की स्मृति दिला दी। वे बौद्ध धर्म की ओर यकायक इतना आकर्षित हो
गये थे कि एक लघु बौद्ध प्रतिमा तक अपनी जेब में रखने लगे थे। वहां के आदिवासियों
की नयी पीढ़ी पर बौद्ध मत के घटते प्रभाव से वे चिंतित भी थे।
नेफा में बिताये गये अपने जीवन के
उत्तरार्द्ध में वैरियर की मुख्य भूमिका आदिवासी मामलों के प्रशासनिक सलाहकार की
थी। यद्यपि उनके अंदर का नृतत्वशास्त्री जीवित था और सक्रिय भी था किंतु नव
स्वाधीन भारत राष्ट्र की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का दबाव भी अब उनके ऊपर था। उन्हें
आदिवासियों के हितों के साथ-साथ देश राष्ट्रीय हितों का भी ध्यान रखना था। और अपने
इन दोनों दायित्वों के बीच सुंदर समन्वय प्रस्तुत करने में वे सफल रहे जिसका
अप्रतिम उदाहरण है – ‘A Philosophy of Nefa’ यह पुस्तक पहली बार 1957 में प्रकाशित
हुई थी जिसे दो साल बाद वृहत् रूप में नवीन संस्करण के साथ प्रकाशित किया गया।
इसमें वैरियर प्रधानमंत्री नेहरू के आदिवासी प्रवक्ता नजर आते हैं। भारतीय समाज की
मुख्य धारा से आदिम आदिवासियों के पृथक्करण की अपनी पुरानी नीति से थोड़ा पीछे
हटते हुए वैरियर इस नीति को स्वाधीन भारत में अप्रासंगिक और राष्ट्रीय एकता के
मार्ग में बाधक बताने लगते हैं। अब उनकी चिंता का विषय है कि आधुनिक सभ्यता की
मानवीय उपलब्धियों को आदिवासी समुदाय की बेहतरी में कैसे उपयोग किया जाये कि
आदिवासी जीवन मूल्य भी संरक्षित रहे और आदिवासियों का जीवन स्तर भी सुधरे।
पृथक्करण और आत्मसातीकरण की परस्पर विरोधी दोनों नीतियों के मध्यवर्ती मार्ग का
अनुकरण करते हुए अब वैरियर जहां एक ओर अपने आदिवासियों को स्वाधीन भारत के साथ
संबद्ध करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे उनके अस्तित्व का
भी संरक्षण चाहते हैं। आदिवासी समाज के प्रति भारतीय प्रशासन की नीति के संदर्भ
में इस पुस्तक की ऐतिहासिक भूमिका रही है। यह पुस्तक प्रशासकों को चेतावनी देती है
कि वे अपनी शासित आदिवासी जनता को पिछड़ी और असभ्य समझने की भूल न करें। और वे
आदिवासियों के उन्नायक मसीहा बनने का अभिमान न पाले।
आदिवासियों के लिए वैरियर मद्धम
गति वाली संरक्षक विकास नीतियों के हिमायती थे। नेहरू सरकार की पंचवर्षीय योजना के
स्थान पर वे आदिवासियों के लिए पचास वर्षीय योजना की बात करते हैं। आदिवासियों की
स्वायत्त अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भरता के साथ-साथ उनके कलात्मक अभिरूचि सौंदर्य
पर उनका विशेष बल होता था। नेफा में मुनाफे के भूखे धूर्त मारवाड़ी व्यपारियों की
दुकानों पर बिकती सस्ती,-भोंडी उपभोक्ता वस्तुओं से उन्हें
विशेष चिढ़ थी। हिंदू देवी-देवताओं के कलैंडरों और पोस्टरों से आच्छादित ये दुकाने
जहां हिंदू धर्म प्रचार का केंद्र थीं, वहीं घटिया गुणवत्ता वाली अनावश्यक उपभोक्ता वस्तुएं आदिवासी कमाई की बार्बादी
के साथ-साथ उनकी सौंदर्याभिरूचि को विकृत करने का काम भी करती थीं। वैरियर अपने मत
के समर्थन में गांधीवादी स्वदेशी आंदोलन का भी प्रमाण देते हैं। नेफा के
आदिवासियों में प्रचलित हस्त बुनाई को वे प्रोत्साहित करते थे। लेकिन सरकारी बुनाई
प्रशिक्षण केंद्रों में सिखाये जाने वाले बुनाई सांचों से वे असंतुष्ट थे।
आदिवासियों की परंपरागत बुनाई और बुनाई के प्रारूप इन प्रशिक्षणों से कहीं ज्यादा
बेहतर थे। नेफा के आदिवासियों की कलात्मक दस्तकारी और बुनाई की परंपराओं पर
उन्होंने एक पुस्तक भी प्रकाशित की – ‘The Art of the North East Frontier at India.’ आदिवासी नृत्य और संगीत के साथ-साथ परंपरागत देशज बुनाई और दस्तकारी को
मुनाफाधर्मी वाणिज्यिक सभ्यता के आक्रमणों से बचाना आज की महत्ती आवश्यकता बन चुकी
है। वैयिर चाहते थे कि प्रशासनिक भवन और विद्यालय इसप्रकार के होने चाहिए कि वे
आदिवासी समाज को बाहरी दुनिया का अजूबा न लगे। जो आदिवासी समाज आग के चारों ओर बैठकर
सामूहिक जीवन जीता है, जो एक गोल घेरे में अपने मुखिया के
इर्द-गिर्द इकट्ठा होता है, उसके लिए नब्बे डिग्री के कोण वाले, सीधी रेखाओं की आकृति वाले सरकारी भवन पराये ही सिद्ध
होते हैं। वैरिवैरियर जगदलपुर जेल में आदिवासियों की दुर्दशा से भी बहुत द्रवित थे
अतः वे आदिवासी कैदियों के लिए एक आदर्श सुधार केंद्र स्थापित करने के पक्षधर थे।
एक ऐसा सुधार केंद्र जहां वे पहाड़ों से घिरे जंगल के बीच प्राकृतिक परिवेश में रह
सके। जहां उनके सिर पर आसमान की खुली छत हो, जहां आग जलाकर उसके चारों ओर वे नाच-गा सके। लेकिन जब सरकारें एक सामान्य कैदी
के मानवाधिकार के विषय में ही नहीं सोचती, वहां आदिवासी किस खेत की मूली हो सकते थे!
‘A Philosophy of Nefa’ के दोनों
संस्करणों की प्रस्तावना स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने लिखी थी। प्रथम प्रस्तावना
में नेहरू ने वैरियर की इस पुस्तक में व्यक्त विचारों को अपनी स्वीकृति देते हुए
निर्देश दिया है कि आदिवासी इलाकों का प्रशासन इस पुस्तक को सामने रखकर ही चलाना
चाहिए। इसप्रकार यह पुस्तक नेहरू सरकार की आदिवासी नीति का घोषण पत्र ही बन गयी
थी। दूसरे संस्करण की भूमिका में नेहरू ने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के संदर्भ
में पांच आधारभूत सिद्धांत दिये थे जिन्हें वैरियर आदिवासी विकास के लिए
प्रधानमंत्री नेहरू का पंचशील सिद्धांत कहा करते थे - 1.आदिवासियों की कलात्मक और
सांस्कृतिक विरासयत का पूरा सम्मान करते हुए उनका विकास किया जाना चाहिए। उनके ऊपर
बाहर से कोई भी चीज नहीं थोपी जानी चाहिए। 2. भूमि और जंगलात विषयक आदिवासी
अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। 3. आदिवासी क्षेत्र के प्रशासन और विकास हेतु
आदिवासियों के बीच से ही कुछ योग्य व्यक्तियों को चुनकर प्रशिक्षण दिया जाना
चाहिए। तकनीकी कार्यों के लिए कुछ बाहरी लोगों की नियुक्ति जरूरी हो सकती है।
लेकिन आदिवासी इलाकों में बड़ी संख्या में बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित होना
चाहिए। 4. आदिवासी क्षेत्र में अति प्रशासन की स्थिति नहीं होनी चाहिए। उनकी
सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के माध्यम से ही प्रशासनिक कार्य चलाया जाना चाहिए।
5. आंकड़ों के आधार पर या मुद्रा व्यय के आधार पर विकास कार्यों या प्रशासनिक
नीतियों का मूल्यांकन न करके मानव चरित्र के विकास को मूल्यांकन की कसौटी बनाया
जाना चाहिए। वास्तव में नेहरू के इस आदिवासी पंचशील में आदि से अंत तक वैरियर के
विचारों की अनुगूंज साफ सुनी जा सकती है।
किंतु वैरियर की नीतियों से लोहिया
जैसे देशज खांटी समाजवादी और आसामी सहमत न थे। लोहिया वैरियर की सलाह पर लागू ‘इनर लाइन परमिट’ व्यवस्था को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अवशेष बताते थे, तो आसामी पत्रकार वैरियर पर नेफा और असम के परंपरागत
ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-धार्मिक रिष्तों में दरार डालने के आरोप लगाते रहते थे। इसमें
कोई संदेह नहीं कि आसामी पत्रकार आसामी राजनेताओं की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को
ही वाणी दे रहे थे। लेकिन लोहिया जैसा प्रखर बौद्धिक व्यक्ति वैरियर की आदिवासी
नीतियों पर आदिवासियों के लिए जंगली जानवरों की तर्ज पर आरक्षित वन्य क्षेत्र
निर्माण का आरोप लगा रहा था, तो निस्संदेह यह गंभीर आरोप था।
लोहिया यह बात राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में कह रहे थे। लेकिन अंग्रेज सभ्यता के
हर प्रतीक से अनावश्यक पूर्वाग्रह के कारण लोहिया वैरियर की नीतियों का निष्पक्ष मूल्यांकन
नहीं कर पाये। वास्तव में वैरियर आदिम आदिवासियों को दिकू सभ्यता की छूत से बचाना
चाहते थे, वे निरीह आदिवासियों के हितों और उनकी महान परंपराओं
का संरक्षण चाहते थे, न कि राष्ट्रीय एकता के मार्ग में
कोई बाधा खड़ी करना उनका उद्देश्य था। असम के नेताओं के इस आरोप में तो बिल्कुल ही
दम न था कि वैरियर का मंतव्य ‘नृतत्वशास्त्रीय संग्रहालय’ में आदिवासी अजूबे खड़ा करना था। वास्तव में आसामी
नेताओं और पत्रकारों के साथ वैरियर के मतभेदों का एक बड़ा मुद्दा नेफा के
विद्यालयों में लागू की जाने वाली भाषा को लेकर था। वैरियर का आग्रह असमी के स्थान
पर हिंदी को विद्यालयी भाषा बनाने पर था जिसे असमी भाषी अपनी तौहीन समझते रहे।
वैसे वैरियर के समकालीन अन्य नृतत्वशास्त्री भी व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और पेशेगत
प्रतिस्पर्धावश वैरियर की इस पुस्तक की आलोचना करते रहे थे। लब्धप्रतिष्ठित नृतत्वशास्त्री
निर्मल कुमार बोस अन्य शोषित-उत्पीडि़त जनता के साथ आदिवासियों को भी एक ही पलड़े
में रखकर देखने के पक्षधर थे, वे उन्हें अलग से पृथक् दर्जा देने
के विरोधी थे। किंतु लखनऊ के एक अन्य वैरियर विरोधी विद्वान मजूमदार राष्ट्रीयता
के आधार पर आदिवासी स्वायत्तता का विरोध करते थे। जी.एस.घुर्ये भी 1959 में आयी
अपनी पुरानी पुस्तक ‘The Aborigines-So Called And Their Future’ के नवीन संस्करण
में वैरियर पर अपने पुराने आरोप दोहराते हैं। लेकिन घुर्ये समेत अन्य नृतत्वशास्त्रियों
और राजनेताओं के इन आरोपों और सवालों से वैरियर विचलित न थे। वास्तव में वैरियर
विरोधी इन आलोचकों की दृष्टि अभी भी स्वाधीनता पूर्व के वैरियर पर ही टिकी थी।
तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के शासन में वैरियर आदिवासियों के पृथक्करण के मुखर समर्थक
थे लेकिन अब स्वाधीन भारत में उनकी दृष्टि बदलते समय के साथ तब्दील हो चुकी थी।
आजाद देश का संविधान और नेहरू सरकार चूंकि आदिवासियों की आवाज सुन रहे थे और उनके
प्रति संवेदनशील थे अतः वैरियर पहले की जैसे आदिवासी पृथक्करण पर अड़े हुए न थे।
पहले भी वैरियर उन्हीं आदिवासी समुदायों को पूर्णतः दिकू लोगों से दूर रखना चाहते
थे जो अपने अस्तित्व रक्षा के लिए जूझ रहे थे। वैरियर कई जगह स्पष्ट करते हैं कि
वे परिवर्तन के नितांत विरोधी नहीं हैं लेकिन यह परिवर्तन आदिवासियों की बेहतरी के
लिए होना चाहिए, न कि अवनति के लिए। आदिम स्थिति से
आधुनिक सभ्यता की ओर रूपांतरण के संक्रमण काल में वैरियर उस सीमा तक आदिवासियों के
संरक्षण के हिमायती थे जब तक कि आदिवासी स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होकर अपने हितों
की स्वयं रक्षा करने में सक्षम न हो जाये।
नेफा में आदिवासी विशेषज्ञ के रूप
में प्रशासनिक सलाहकार के काम में वैरियर को आत्म संतुष्टि हो रही थी। भारतीय
नागरिकता भी उन्हें मिल गयी थी। पारिवारिक जीवन में उनके अब स्थिरिता थी और वे
अपने बच्चों के साथ खुश थे। किंतु जिस समय वैरियर नेफा के आदिवासी सलाहकार थे, उसी दौर में कम्यूनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत को हथिया
लिया गया था और दलाईलामा को विस्थापित होकर नेफा के रास्ते भारत आना पड़ा था।
यद्यपि तवांग बौद्ध मठ से दूर मैदानी क्षेत्र में होने से वैरियर तवांग में उनका
स्वागत करने को उपलब्ध न हो सके थे, लेकिन चीन के इस आक्रमण और तिब्बत पर उसके आधिपत्य के खिलाफ उनकी लेखनी ने
वाजिब प्रतिक्रिया व्यक्त की। मई 1959 में गृह मंत्रालय के बुलावे पर वैरियर ने
भारत के आदिवासी इलाकों में आर्थिक विकास पर बनाई गई एक समीति की अध्यक्षता करते
हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। मार्च 1960 में प्रस्तुत की गई इस रिपोर्ट को गुहा ‘A Philosophy of Nefa’ का उत्तर चरण बताते हैं जहां वैरियर ने अपने विचारों को संपूर्ण भारत के
संदर्भ में रखा था। वे एक आदिवासी की आंखों से, उसके दृष्टिकोण से चीजों को देखने पर बल देते हैं।
ऐतिहासिक धरोहर के रूप में आदिवासी संस्कृति की रक्षा का तर्क देते हुए वैरियर
अपनी संस्कृति का संरक्षण आदिवासियों का अधिकार बताते हैं। भारत के अन्य नागरिकों
के समान आदिवासियों को भी अपनी सभ्यता-संस्कृति की रक्षा का अधिकार है। इस रिपोर्ट
में आदिवासियों की बदतर स्थिति को लेकर वैरियर का आक्रोष भी साफ नजर आता है जो ‘A Philosophy of Nefa’ में गायब था। भारत की आजादी लाखों लोगों के लिए खुशियों का पैगाम रही हो
लेकिन वैरियर के अनुसार यह आजादी आदिवासियों के लिए अर्थहीन रही थी। मुख्य धारा के
समाज ने आदिवासियों से उनके पहाड़ छीन लिये हैं। वाणिज्यिक अर्थव्यवस्था ने सस्ते
और भद्दे उत्पादों का अंबार लगाकर आदिवासी कलाओं को लूटा है। जंगल में शिकार पर
प्रतिबंध लगाकर सभ्य कहलाने वाली सरकार ने आदिवासियों की थाली से उनका पौष्टिक
निवाला तक छीना है। क्षुद्र वैयक्त्कि स्वार्थों में डूबी आधुनिक औद्योगिक सभ्यता
की तुलना में वैरियर आदिम आदिवासी समाज को कहीं ज्यादा सभ्य घोषित करते हैं। कारण
कि यह आदिवासी समाज सामूहिकता और सामाजिकता की भावना में विश्वास करने वाला
आत्मनिर्भर समाज है। इस समाज में कलात्मक सृजनता, ईमानदारी, सच्चाई और आतिथ्य सत्कार के संस्कार विद्यमान रहे हैं।
प्रधानमंत्री नेहरू ने वैरियर
एल्विन को जो सबसे मुश्किल काम सौंपा, वह था तत्कालीन भारत सरकार के लिए सिरदर्द बनते जा रहे नागा विद्रोह के संदर्भ
में भारतीय पक्ष को मजबूती के साथ संसार के समक्ष विशेषतः अंग्रेज पाठकों के समक्ष
रखना। नागा क्षेत्र में भारतीय सेना की तथाकथित क्रूरता की खबरों को जिसप्रकार ‘दि आब्जर्बर’ लंदन में उठा रहा था, वैसे में वैरियर ही सबसे उपयुक्त
व्यक्ति था जो इस आदिवासी क्षेत्र की समस्या को भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा
करते हुए संसार के सामने ला पाता। वैरियर को एक ओर भारत राष्ट्र के प्रति अपनी
निष्ठा सिद्ध करनी थी जबकि दूसरी ओर नागा आदिवासियों के साथ हुए अन्याय को भी
सामने लाना था ताकि पुस्तक विश्वसनीय बन सके। नागाओं की कलात्मक परंपराओं और
विद्रोहों के इतिहास को पुस्तक में दर्शाते हुए भी लेखक उन्हें शेष भारतीय
आदिवासियों के वर्ग में ही रखता है जिनका भविष्य ससम्मान भारतीय राष्ट्र का हिस्सा
बनने में ही सुरक्षित था।
असम राज्यपाल के भूतपूर्व नेफा
सलाहकार के.एल.मेहता दिल्ली सरकार में संयुक्त सचिव हो गये थे। उनके कहने पर
राष्ट्रपति ने नेफा के आदिवासी मामलों के सलाहकार के पद पर वैरियर का कार्यालय
पांच साल और बढ़ा दिया था। ये पांच साल 1 जनवरी 1960 से आरंभ होते हैं। लेकिन उम्र
बढ़ने के साथ-साथ वैरियर का अंतिम समय भी अब नजदीक आ रहा था। 1960 में ही अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित
जनजातियों पर बनाये गये एक उच्च स्तरीय आयोग (कमीशन) के सदस्य के रूप में वैरियर
को भी चुना गया। आयोग के कुल दस सदस्यों में से आठ गांधीवादी मद्यत्यागी-शाकाहारी
कांग्रेसी थे जबकि शेष दो थे इनके पूर्णतः विरोधी रहे - वैरियर एल्विन और जयपाल
सिंह। इस आयोग को उसके अध्यक्ष यू.एन.ढ़ेबर के नाम पर ‘ढ़ेबर आयोग’ के नाम से जाना गया था। ढ़ेबर आयोग के सदस्य के रूप में वैरियर ने राजस्थान का
दौरा किया। वहां विद्यालयों में आदिवासी भील बच्चों पर लादे जा रहे शाकाहार और
फूहड़ गणवेश का इन्होंने विरोध किया। गांधीवादी बुनाई-कढ़ाई के स्थान पर तीरंदाजी, काष्ठ पर नक्काशी और मुखौटा निर्माण के प्रशिक्षण को
आपने भील बच्चों के लिए ज्यादा उपयोगी बताया। भील बच्चों को उनके अपने इतिहास से
दूर रखना भी इन्हें खला था। अध्यक्ष ढ़ेबर के विपरीत वैरियर आदिवासी इलाकों में
मद्यपान प्रतिबंध की सिफारिश के खिलाफ थे। कारण कि मद्य आदिवासी सभ्यता और
संस्कृति का एक हिस्सा रहा है। आयोग के कार्य ने वैरियर को काफी थका दिया था। इस
दौरान उन्हें एक हृदयाघात भी हुआ। 1961 के अंतिम सप्ताह में इन्होंने ऑल इंडिया
रेडियो पर ‘सरदार पटेल स्मृति व्याख्यान’ दिया था। चूंकि उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर अब वे किसी
विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे अतः यह व्यख्यान किसी आदिवासी विषय के स्थान पर
प्रेम के दर्शन पर केंद्रित रहा था। लेकिन आदिवासी समाज में स्वीकृत दैहिक प्रेम
को भी वैरियर ने भावनात्मक प्रेम के बराबर ही महत्व दिया। दाम्पत्य प्रेम को कहीं
भी ब्रह्मचर्य से हीनतर नहीं बताया। आदिवासी समुदायों में विद्यमान प्रेम का
स्वरूप सदैव से वैरियर के आकर्षण का विषय रहा था। फरवारी 1962 में आगामी साल के
कलैंडर का विषय वैरियर ने शेष भारत के साथ नेफा के समावेश पर केंद्रित किया और इस
विषय से संबद्ध प्रतिकृतियां (पोर्टेट्स) भी इन्होंने तय कर ली थीं। इसप्रकार 1963 का यह कलैंडर वैरियर के आदिवासी
दृष्टिकोण में आये बदलाव और संशोधन का सूचक था।
वैरियर अभी तक अनदेखे रहे नेफा के
सभी भागों को देख लेना चाहते थे लेकिन सरकारी फाइलें और गिरता स्वास्थ्य उन्हें अब
पहाड़ों पर चढ़ने और जंगलों में खो जाने की अनुमति नहीं दे रहा था। इसी बीच नबंवर
1962 में चीन का आक्रमण हुआ जिसने उन्हें बहुत व्यथित किया। अपने प्रिय तवांग पर
चीनी सेना के कब्जे ने तो उन्हें तोड़ ही दिया। नेफा के आदिवासी इलाकों को रौंदती
चीनी सेना ने वैरियर की नेफा फ़लसफे पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। असम और शेष भारत
से नेफा के अलगाव को भारत की पराजय का एक बड़ा कारण बताया गया। नेफा से चीनी सेना
तो वापिस चली गयी लेकिन वैरियर के नेफा दर्शन के प्रति देश भर में
अस्वीकृति-असंतोष पैदा हो चुका था। वैरियर और नेहरू, दोनों का आभामंडल इस चीनी आक्रमण से धूमिल हो गया था। वैरियर के लिए सबसे निराशाजनक
बात यह थी कि पंजाब के किसानों को नेफा के अंदर बसाने की बात होने लगी थी ताकि
वहां के आदिवासियों के साथ वे घुलमिल सके और चीन को दुबारा हमला करने का मौका न
मिले।
वैरियर का स्वास्थ्य भी और बदतर हो
गया था। उनके यकृत और पित्ताशय संक्रमण ग्रसित हो गये थे। लेकिन इस बीच वैरियर
अपनी आत्मकथा ऑक्सफोर्ड को प्रकाशित करने के लिए दे चुके थे। उनकी यह आत्मकथा
दुर्भाग्य से उनके जीवन काल में तो न आ सकी किंतु आज यह वैरियर और उनके आदिवासियों
को समझने का एक विश्वसनीय जरिया है। इसकी वर्तनी तो वैरियर ने अस्पताल में ही ठीक
की थी जबकि दूसरी बार हृदयाघात के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
1963 के पूरे साल वैरियर का अस्पताल आना-जाना लगा ही रहा। अप्रैल और जून में क्रमश:
वैरियर की बहिन एल्डिथ और उनका अभिन्न साथी शमराओ शिलांग आकर उनसे मिले थे।
पाटनगढ़ से वैरियर के शिलांग आगमन पश्चात् से शमराओ विभिन्न आर्थिक समस्याओं और
पत्नी से अलगाव आदि से जूझता रहा था। शरद ऋतु में अर्मांड डेनिस नाम व्यक्ति
वैरियर से मिलने आया जो आदिवासियों पर लिख रहा था। देश के एक अन्य प्रतिष्ठित
घुमक्कड़ नृतत्वशास्त्री निर्मल कुमार बोकस भी वैरियर को देखने आये थे जबकि इन
दोनों विद्वानों के बीच आदिवासी विषयों पर मतभेद जगजाहिर थे। ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटि प्रेस के आग्रह पर अपनी पुरानी पुस्तक ‘मुरिआ और उनका घोटुल’ का एक संक्षिप्त संस्करण भी वैरियर
ने 1963 के अंतिम दिनों में तैयार किया था। इस संस्करण में मध्य भारत के आदिवासी
क्षेत्रों में समकालीन बदलावों को रेखांकित करते हुए एक नयी भूमिका वैरियर ने दी
थी। इसप्रकार यह पुस्तक भारत के आदिवासी लोगों के बदलते इतिहास की ओर संकेत करती
है।
1964 की जनवरी में वैरियर को सीने
में दर्द की शिकायत रही। एक पखवाड़े तक तो वे अपना दायां हाथ तक नहीं उठा सके थे।
लेकिन इसप्रकार की पीड़ाजनक स्थिति में भी उन्हें तो अपने आदिवासियों की चिंता ही
लगी हुई थी। ऐसी स्थिति तक में उन्होंने नेफा के न्यायिक और प्रशासनिक संस्थानों
के आधार स्रोत के रूप में छपने जा रही एक पुस्तक की भूमिका बोलकर लिखवाई थी।
सीमावर्ती प्रशासनिक सेवा (फ्रंटियर सर्विस) के लिए योग्य युवा अधिकारियों की
नियुक्ति सुनिश्चित करने के लिए वे 20 फरवरी 1964 को दिल्ली भी गये। दिल्ली जाने
के दो अन्य मकसद भी थे - एक तो अपने आपको नेफा के सलाहकार के पद पर आगे भी बनाये
रखने के लिए स्वस्थ सिद्ध करना और दूसरे दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य
हेतु कुलपति, दिल्ली विश्वविद्यालय से मुलाकात
करना।
20 फरवरी को वैरियर का पूरा दिन
चयन समीति की बैठक में जाया हो गया। 21 और 22 को वे पंजाबी किसानों को नेफा में
बसाने का विरोध करने गृहमंत्रालय गये थे। 22 की शाम उन्हें हृदय में दर्द की तकलीफ
हुई जो इस बार प्राणघातक सिद्ध हुई। इसप्रकार कार्याधिक्य के बोझ तले वैरियर ने
स्वयं को ही नष्ट कर लिया। लेकिन अंत तक वैरियर ने अपने आदिवासी भाइयों के हितों
को लेकर कोई समझौता नहीं किया। वैरियर के लिए आदिवासी सभ्यता-संस्कृति का संरक्षण
प्रमुख लक्ष्य था और इसी लक्ष्य के लिए उन्होंने अपने को खपा दिया। वास्तव में
इसमें कोई दो राय नहीं कि वैरियर आदिवासियों के अंबेडकर कहलाने के अधिकारी हैं।
‘मूक आवाज़’ हिंदी जर्नल
अंक-7
(जुलाई-सितंबर 2014) ISSN 2320 – 835X
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