सोमवार, 4 नवंबर 2013
गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013
हिंदी का बाज़ार - दीपक शर्मा
हिंदी का
बाज़ार
- दीपक
शर्मा
हिंदी
भाषा के लिए काफी समय से एक जुमला प्रचलित है कि ‘हिंदी गरीब की भौजाई है’ लेकिन
अब इस जुमले का अतिक्रमण करती हुई हिंदी भाषा गरीब की भौजाई ही नहीं, इस बाज़ार की मां बन बैठी है। बाज़ार को अपनी इस मां का आंचल थाम
कर ही आगे बढ़ना होगा। मीडिया के संदर्भ में अगर बात की जाए तो कहना होगा कि आज हर
चैनल या तो हिंदी में अपना प्रसारण कर रहा है या करना चाहता है। हॉलीवुड फिल्मों
का हिंदी में डब करके प्रसारण हो रहा है और अब तो दक्षिण भारतीय फिल्मों का भी
प्रसारण हिंदी में विभिन्न चैनलों पर होता रहता है जो हिंदी की बढती हुई शक्ति को
ही दर्शाता है। न केवल कंप्यूटर बल्कि मोबाइल फोन में भी हिंदी के विभिन्न
सोफ्टवेयरों का प्रयोग किया जा रहा है और हिंदी भाषा से संबंधित नये-नये
कार्यक्रमों को भी निर्मित किया जा रहा है। हर देशी और विदेशी कंपनी हिंदी भाषा
में अपना एक निजी हिंदी चैनल लाने की ताक में रहती है। साहित्य के क्षेत्र में भी
अन्य भाषाओं से सबसे ज्यादा अनुवाद हिंदी भाषा में ही किये जा रहे हैं। इस बाज़ार
आधारित अर्थव्यवस्था और इससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों ने हिंदी भाषा के संसार
को ही बदल कर रख दिया है। यह बदलाव इस गति से हो रहा है कि उसे ठीक से कुछ निश्चित
शब्दों में बांधना बहुत मुश्किल कार्य है|
भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके अभाव में संसार की हर संस्कृति
और समाज व्यर्थ है। उस समाज और संस्कृति से सम्बंधित हर नियम और संस्कार का कोई
मोल नहीं है। भाषा ही है जो हमें वि२व भर से जोड़ने का काम करती हुई लोगों को
ग्लोबल अभिव्यक्ति दिलाने में सहायक होती है। संसार से भाषा की अगर विदाई हो जाए
तो जीने का कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा। भाषा का वास्तविक अर्थ किसी भाव और विचार
का सफल सम्प्रेषण होता है फिर भले ही भाषा का स्वरुप कोई भी हो। इस बात को हिंदी
भाषा के संदर्भ में रख कर देखा जाए तो कहना होगा कि आज हिंदी भाषा भी अपने पुराने
चोले को उतारकर नयी होकर हमारे सम्मुख उपस्थित है। जिस शुद्धतावादी दृष्टिकोण की
दुहाई आमतौर पर हिंदी के लिए दी जाती रही है उसे हिंदी भाषा ने काफी पीछे छोड़ दिया
है जो आज के परिदृश्य में बहुत ज़रुरी भी था। अगर हिंदी भाषा को इसी शुद्धतावाद के
फेरे में व्यस्त रखा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी भाषा की मृत्यु पर शोक मनाने
वाला भी कोई नहीं मिलेगा और न ही कोई हिंदी पढ़ना-लिखना चाहेगा। भाषा का उद्देश्य सरल रूप में भावों और विचारों को अपने लक्षित वर्ग तक पहुंचाना होता है और आज
हिंदी यही कर रही है।
हर
वर्ष में आने वाला सितम्बर का महीना हिंदी के लिए जीवन बूटी का काम करता है जिसमें हिंदी भाषा के भविष्य को लेकर अनेक तरह के सकारात्मक पहलुओं को सबके सम्मुख
रखा जाता है। हर बार की तरह इस बार भी सितम्बर का महीना आने पर हिंदी पखवाड़े में
अनेक प्रकार की हलचले हुईं, और ऐसा होना भी लाज़मी है आख़िरकार इस महीने
की 14 तारीख को हिंदी दिवस जो आता है। हर बार की तरह इस वर्ष भी
हिंदी दिवस आया और चला भी गया। इस दौरान विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों एवं
सम्मेलनों में हिंदी की चिंता करते हुए अनेक विद्वानों द्वारा बड़े जोर शोर से लंबे-लंबे
भाषण दिये गये तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा और वि२वभाषा बनाने की घोषणाएं की गयीं।
लेकिन अगले ही पल हिंदी से सम्बंधित यह चिंताएं और बड़े बड़े दावे चारों खाने चित्त
मिलते हैं। मतलब जिस औपचारिकता के साथ हिंदी के वर्तमान एवं भविष्य की चिंताएं हम
सुनते-पढ़ते हैं, वह सब मात्र औपचारिक रूप में ही रह जाता है जिसका व्यावहारिक
प्रयोग हमें देखने को नहीं मिलता। मज़ेदार बात तो यह है कि इस प्रकार के सम्मेलनों
में हमें केवल हिंदी का अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगों के अलावा इक्का-दुक्का
मंत्री और नेता के साथ प्रिंट मीडिया का एकाधा पत्रकार ही नज़र आता है। प्रिंट
मीडिया का पत्रकार इस दौरान पूरे तेवर लिए हुए रहता है जो गोया हिंदी से सम्बंधित
इन कार्यक्रमों को कवर करके कोई अहसान हिंदी समाज पर कर रहा हो। इसके अतिरिक्त
इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो यह अहसान करने की भी जेहमत नहीं उठता। यहां प्रश्न यह उठता
है कि हिंदी के प्रति यह जागरूकता आखिर किसके लिए है? जिस समाज में हिंदी की आवश्यकता को बताना ज़रुरी है, वही जब
इनसे नदारद रहता है तो वह कैसे हिंदी के महत्व को समझ सकेगा?
मीडिया की भूमिका भी हिंदी के प्रति उपेक्षित ही नज़र आती है जो हिंदी की खाकर भी
हिंदी के प्रति उदासीन रहता है।
वर्तमान
समय में हम देखते हैं कि जिस भारत में पहले वेलेंटाइन डे का ही चलन था और जिसकी
अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकृति के बाद मदर डे, फादर डे, फ्रेंडशिप डे, चोकलेट डे और न जाने कितनी तरह के
दिवसों को मनाने का चलन बढता जा रहा है वहीं हमारे अन्य महत्वपूर्ण दिवसों के
प्रति हमारे समाज की रूचि या तो कम हुई है या परिवर्तित हुई है। उल्लेखनीय है कि
इन अन्य दिवसों की तुलना में हिंदी दिवस या कहे तो हिंदी डे के प्रति एक बहुसंख्यक
वर्ग की कोई रूचि ही नहीं रहती। गौरतलब है कि जिन दिवसों का आज हमारे भारत में चलन
हो चला है, वे दरअसल अन्य देशों में समयाभाव के कारण उस विशेष दिन पर उस रिश्ते को
मनाने के लिए खोजे गये हैं। लेकिन क्या हम भारतीय परिवेश में ऐसा सोच सकते हैं कि
हम अपने मित्र से केवल उसी दिन मिले, जिस दिन फ्रेंडशिप दिवस हो। अपने माता पिता
को एक विशेष दिन कुछ कार्ड्स या गिफ्ट देकर खुश करें भले ही उन्हें अपने साथ रखने
में हमें तकलीफ होती हो। और क्या जिस उद्देश्य और विचारधारा के चलते इन दिवसों को
मनाया जाता है, क्या उसी दृष्टि से हमें हिंदी दिवस या कहें तो हिंदी डे को भी
मनाना चाहिए तभी जाकर हम हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार कर सकते हैं? स्पष्ट है कि यह विभिन्न प्रकार के दिवस इसलिय मनाये जाते हैं ताकि इनके
प्रति लोगों को संवेदनशील बनाये रखा जा सके। लेकिन प्र२न यहां फिर यह उठता है कि
क्या सच में हिंदी इस स्थिति में आ पहुंची है कि लोगों को हिंदी के प्रति जागरूक
करने के लिए समय-समय पर हिंदी दिवसों का आयोजन करना पड़े?
कारण, हिंदी दिवसों या अनेक अन्य अवसरों पर हिंदी की दुर्दशा
पर रोना रोया जाता है तथा हिंदी भाषा से गायब होने वाले परम आवश्यक तत्व ‘शुद्धतावाद’
के लिए छाती पीटी जाती हैं। अब अनेक हिंदी आलोचकों को तो यह भी बुरा लग जाएगा कि
लेखक ने हिंदी डे क्यों लिखा है। खैर, प्रश्न यहां यह है कि
साल भर में एक- दो दिन हिंदी भाषा से सम्बंधित समस्याओं की मात्र चर्चा करके हिंदी
भाषा का विकास किया जा सकता है।
प्रश्न
यह भी है कि आखिर ऐसे क्या कारण हो गए हैं कि हिंदी दिवस को मनाना ज़रुरी होता जा
रहा है? इसके जवाब में यह कहना होगा कि हिंदी भाषा
को हिंदी समाज की मानसिकता ने ही पीछे किया है। एक विशेष वर्ग ने हिंदी का मतलब
केवल साहित्यिक विशुद्ध हिंदी ही माना है और जब तक यह सोच हिंदी समाज में उपस्थित
रहेगी तब तक हिंदी की स्थिति को सुधारा नहीं जा सकता। सभी को पता है कि हिंदी भाषा
का हृदय बहुत विशाल है जिसके भीतर संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, फ़ारसी, अरबी, तुर्की, अंग्रेजी, फ़्रांसिसी इत्यादि भाषाओं के साथ-साथ
भारत की ही अनेक बोलियों के शब्द समाहित हैं जिन्हें हिंदी ने बहुत ही खुले मन से
अपनाया है और जो हिंदी भाषा के ही अपने शब्द प्रतीत होते हैं। अब अनेक आलोचक तो
हिंदी भाषा से अन्य भाषाओं के साथ-साथ ब्रज, अवधि, भोजपुरी, बांग्ला, खड़ीबोली
जैसी बोलियों को भी अलग करने पर जोर देते हैं। इस वर्ग की यह मान्यता है कि इन
सबसे विरक्त होकर ही हिंदी भाषा का वास्तविक स्वरुप सबके सामने आएगा और अन्य
बोलियों के अस्तित्व को भी बचाया जा सकेगा। लेकिन यहां कहना होगा कि हिंदी भाषा इन
बोलियों के अस्तित्व के लिए खतरा न होकर बल्कि उनके अस्तित्व का ही पुनर्निर्माण
है जो इन बोलियों को भी एक ग्लोबल अभिव्यक्ति दिलवाती है। इन लोगों को यह क्यों
नहीं समझ आता है कि हिंदी में समाविष्ट होकर इन बोलिओं का क्षेत्र विस्तार ही हो
रहा है। हिंदी के स्वरुप में रची-पकी यह बोलियां हिंदी से अलग होकर घाटे में ही
रहेंगीं क्योंकि जो क्रय-शक्ति एवं बाज़ार आज हिंदी भाषा के पास है वो इन बोलियों
को नहीं मिल सकता। वैश्वीकरण ने हिंदी भाषा को जो विस्तार दिया है संभवतः हिंदी को
ऐसा विस्तार पाने के लिए कई और वर्ष लगने वाले थे। इसका कारण भी स्पष्ट है कि
हिन्दी भाषा के पास एक बहुत बड़ा बाज़ार है जिसे पाने के लिए विभिन्न व्यापारिक
निगमों को इस हिंदी भाषा से ही होकर गुज़रना होगा अन्यथा यह निगम भारत में
प्रभावशाली रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं। इस भूमंडलीकरण का ही प्रभाव मानना
चाहिए कि जो हिंदी भाषा अभी तक गरीब एवं पिछड़े वर्गों की भाषा मानी जाती थी अब वह
देश और दुनिया में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है। आज हिंदी गरीब और
पूंजीवादी वर्ग, दोनों कि भाषा बन चुकी है। फिर भले ही
पूंजीवादी वर्ग हिंदी को मज़बूरी में ही अपना रहा हो। आज तो अनेक पूंजीवादी देशों
में हिंदी भाषा सिखायी जा रही है खुद अमेरिकन सरकार अपने देश में हिंदी भाषा को
सिखाने के लिए लाखों-करोड़ों डॉलर खर्च कर रही है। इसी क्रम में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी इत्यादि देशों का नाम भी लिया जा
सकता है।
यह
सर्वविदित है कि हिंदी भाषा बोलने और समझने की दृष्टि से मंदारिन के बाद दूसरे
नंबर पर आती है और जिस अंग्रेजी भाषा का डंका भारत में बज़ रहा है उसका स्थान तीसरा
है। अभी हालिया अनुसन्धान के अनुसार यह तथ्य भी सामने आया है कि चीन में मंदारिन
बोलने वाले सभी लोग नहीं है जबकि इसके विपरीत हिंदी भाषा केवल भारत में ही नहीं
बल्कि देश-विदेश में भी बोली-समझी जाती है जिसको बोलने और समझने वालों की संख्या
लगभग सौ करोड़ के आसपास है। कारण, आज
विभिन्न देशों में हिंदी का अध्ययन करवाया जा रहा है ताकि वह हिंदी संस्कृति को
समझकर अपने माल की अधिकाधिक खपत भारत में कर सके। इस लिहाज़ से हिंदी को वि२व में
सर्वाधिक बोली एवं समझी जाने वाली भाषा कह सकते हैं। भविष्य में हिंदी भाषा के इस
विस्तार के बढ़ने की भी अनेक घोषणाएं की जा चुकी हैं जिन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा
सकता है। हिंदी भाषा की लिपि की अगर बात की जाए तो कहना होगा कि यह विश्व की सबसे
वैज्ञानिक लिपि है। इस भाषा में जो जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा जाता है। यह
मंदारिन भाषा की लिपि की तरह कोई चित्र लिपि नहीं है कि जिसे समझने में ही सालों-साल
लग जाए। हमें यह भी ज्ञात है कि तुर्किश और इंडोनेशियन भाषा को अपने प्रसार के लिए
रोमन लिपि को अपनाना पड़ा लेकिन हिंदी भाषा न केवल भारतीय परिवेश में भावों को
अच्छी तरह से व्यक्त करने में समर्थ रही है बल्कि तकनीकी स्तर पर भी हिंदी भाषा ने
अपार सफलताएं अर्जित की है। इसी के चलते विभिन्न इन्टरनेट एक्सप्लोरर, ऑपेरा ब्राउज़र, नेटस्केप,
मौज़िला के साथ-साथ सबसे बड़ा सर्च इंज़न माने जाने वाला गूगल भी हिंदी को स्वीकार
करता है।
जिस ‘ब्लॉग’
की चर्चा अभी तक अंग्रेजी भाषा के संदर्भ में ही होती थी और जो हिंदी भाषा एवं
हिंदी भाषियों के लिए एक अजनबी दुनिया थी आज उसी ब्लॉग की दुनिया में हिंदी वालों
ने तहलका मचा दिया है। रोज़-रोज़ अनेक हिंदी ब्लोगरों का इस हिंदी ब्लोगिंग के
क्षेत्र में आना हिंदी की बढ़ती हुई शक्ति को ही बता रहा है। इस क्षेत्र में जो
सबसे क्रांतिकारी काम हुआ, वह था यूनिकोड नामक एक हिंदी भाषा से सम्बंधित ऐसा
एन्कोडिंग सिस्टम जिसने हिंदी को वही शक्ति प्रदान की जो अभी तक अंग्रेजी भाषा के
पास थी। जिस सरलता से अंग्रेजी भाषा का प्रयोग कंप्यूटर और अन्य तकनीकी क्षेत्रों
में किया जाता था अब बिलकुल वैसा ही प्रयोग हिंदी भाषा का भी होने लगा है। इस
एन्कोडिंग सिस्टम ने हिंदी की सूरत ही बदल कर रख दी जिससे हिंदी भाषा के बाज़ार में
बहुत तेज़ी से विस्तार हुआ और हिंदी विभिन्न व्यापारिक निगमों से हाथ मिलाकर उनकी
हमकदम बन गयी। यहां फिर यह बात सिद्ध हो जाती है कि हिंदी का हृदय बहुत विशाल और
तालमेल बिठाने वाला है जिसने न केवल अन्य भाषाओं बल्कि टेक्नोलॉजी के साथ भी कदम
मिलाया है। यही वह शक्ति है जिसकी बार-बार चर्चा हम यहां करना चाहते हैं जिसकी तरफ
सबका ध्यान भी आकर्षित करना चाहते हैं।
हिंदी
भाषा के लिए काफी समय से एक जुमला प्रचलित है कि ‘हिंदी गरीब की भौजाई है’ लेकिन
अब इस जुमले का अतिक्रमण करती हुई हिंदी भाषा गरीब की भौजाई ही नहीं, इस बाज़ार की मां बन बैठी है। बाज़ार को अपनी इस मां का आंचल
थाम कर ही आगे बढ़ना होगा। मीडिया के संदर्भ में अगर बात की जाए तो कहना होगा कि आज
हर चैनल या तो हिंदी में अपना प्रसारण कर रहा है या करना चाहता है। हॉलीवुड
फिल्मों का हिंदी में डब करके प्रसारण हो रहा है और अब तो दक्षिण भारतीय फिल्मों
का भी प्रसारण हिंदी में विभिन्न चैनलों पर होता रहता है जो हिंदी की बढती हुई
शक्ति को ही दर्शाता है। न केवल कंप्यूटर बल्कि मोबाइल फोन में भी हिंदी के
विभिन्न सोफ्टवेयरों का प्रयोग किया जा रहा है और हिंदी भाषा से संबंधित नये-नये
कार्यक्रमों को भी निर्मित किया जा रहा है। हर देशी और विदेशी कंपनी हिंदी भाषा
में अपना एक निजी हिंदी चैनल लाने की ताक में रहती है। साहित्य के क्षेत्र में भी
अन्य भाषाओं से सबसे ज्यादा अनुवाद हिंदी भाषा में ही किये जा रहे हैं। इस बाज़ार
आधारित अर्थव्यवस्था और इससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों ने हिंदी भाषा के
संसार को ही बदल कर रख दिया है। यह बदलाव इस गति से हो रहा है कि उसे ठीक से कुछ
निश्चित शब्दों में बांधना बहुत मुश्किल कार्य है। लेकिन इस बदलाव ने निश्चय ही
हिंदी भाषा के शब्द भंडार को समृद्ध किया है जिसके कारण हिंदी के विस्तार की गति
और भी तेज हो गयी है। इसे हम यों भी कह सकते है कि हिंदी स्वतंत्र होकर बिना किसी
सरकारी सहायता के आगे बढ़ रही है। हिंदी भाषा में यह दम और साहस इसी बाज़ार ने दिया
है जिसे हिंदी साहित्यिक समाज दिन रात कोसते रहते हैं। जिस हिंदी के विकास में
सरकारी तंत्र पिछले अनेक वर्षों से प्रयासरत रहा है और जिसने हिंदी सुधार के नाम
पर हिंदी को केवल किताबों और पुस्तकालयों तक ही सीमित कर दिया जबकि बाज़ार ने उसी
हिंदी का बहुत ही रचनात्मक और व्यावहारिक प्रयोग कर हिंदी का भूगोल ही बदल डाला है।
सरकारी कार्यालयों में एक पंक्ति अवश्य देखते हैं – ‘अगर आप हिंदी में बात करेंगे
तो हमें प्रसन्नता होगी’। लेकिन इसके अलावा कुछ भी सार्थक काम हिंदी के प्रति नहीं
किया गया है। हिंदी भाषा के प्रति जो धिक्कार बोध इसप्रकार की क्रियाओं द्वारा
विकसित हुआ है, उसी पर सबसे पहले इस नयी हिंदी ने चोट की है। उसी हिंदी ने आज इससे
अलग अपनी एक दुनिया को निर्मित किया है जिसे आज पहचानना बहुत ज़रुरी है। सही मायनों
में वही हिंदी की वास्तविक शक्ति है।
हिंदी
के लिए अनेक विद्वानों का तर्क रहा है कि हिंदी का वास्तविक अर्थ वह हिंदी है
जिसमें अनिवार्य रूप से शुद्धता का ध्यान रखा जाए, जिसमें अंग्रेजी व अन्य भाषाओं
के शब्दों का समावेश नहीं होना चाहिए और अगर ऐसा कहीं होता भी है तो उस हिंदी भाषा
से उन शब्दों को तुरंत निकाल कर बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। ऐसे लोगों का
उद्देश्य हिंदी को एक विशुद्ध भाषा के रूप में सुरक्षित रखने का होता है। किंतु ये
लोग हिंदी के शुद्धतावाद को भले ही संभाल कर रख ले मगर हिंदी को जनसमाज से काट देते
हैं। इस विशुद्ध हिंदी से केवल एक विशेष पाठक वर्ग ही जुड़ पाता है जिसका संबंध
हिंदी अध्ययन-अध्यापन से अनिवार्य रूप से रहता है। यह ऐसी हिंदी होती है जिसे पढ़कर
कोई जन, हिंदी-संस्कृति और हिंदी-व्याकरण को तो
भलीभांति समझ सकता है लेकिन हिंदी को उत्पादन एवं व्यवसाय से नहीं जोड़ पाता। हिंदी
भाषा के व्यावहारिक बोध से वंचित रहकर, हिंदी के प्रति एक
धिक्कार बोध से ग्रसित हो जाता है। अधिक से अधिक वह हिंदी भाषा और साहित्य से संबंधित
एक-दो किताबें लिखकर कुछ रूपये-पैसों का इंतजाम तो कर सकता है लेकिन हिंदी की
वास्तविक शक्ति से अपरिचित ही रहता है। ऐसी हिंदी ही हिंदी भाषियों में एक ग्लानी
बोध को जन्म देती है जिसके चलते हिंदी भाषी स्वयं को अन्यों से पिछड़े हुए मानने
लगते हैं। स्वयं को दूसरों की नज़रों से देखना प्रारंभ कर देते है जिसमें उन्हें
सिवाए उपेक्षा और कभी सहानुभूति के अलावा कुछ नहीं मिलता। जब तक हम इसी हिंदी के
दामन को पकड़कर आगे बढेंगें तब तक हिंदी भाषा और हिंदी बोलने वालों को उपेक्षा और
तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा। आज उपभोक्तावादी व्यवस्था ने हिंदी भाषियों को एक
राह सुझाई है कि कैसे हिंदी का सही इस्तेमाल हो सकता है। हिंदी की शक्ति का कैसे
रचनात्मक प्रयोग किया जाना चाहिए। कहना होगा कि इस बाजारवादी अर्थव्यवस्था में भले
ही अनेक खामियां हैं लेकिन हिंदी का भविष्य इस अर्थव्यवस्था में सुरक्षित है।
हिंदी भाषा को इसी अर्थव्यवस्था ने पुनर्जीवित किया है। हमें आज यह समझना चाहिए कि
हिंदी की शक्ति उसकी शुद्धता में नहीं, उसके व्यावहारिक
प्रयोग में हैं। हिंदी की प्राणवत्ता अधिसंख्य समुदाय से जुड़ने में हैं न कि उसे
कुछ निश्चित मानकों में समेटकर रखने में है।
संपर्क - दीपक शर्मा, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली वि२वविद्यालय,
दिल्ली, चलदूरभाष – 9811424200, ईमेल –
उच्च शिक्षा संस्थानों में मूल्य आधारित शिक्षा - जयराम कुमार पासवान
उच्च शिक्षा संस्थानों में मूल्य आधारित शिक्षा:-
-जयराम कुमार पासवान
शिक्षा एक यात्रा
है जो आदमी के मस्तिष्क को खोलने और उसे एक दायरे तक बांधे रखती है। उसे कहां
रूकना हैं यह शिक्षा के माध्यम से ही निर्धारित करते है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद आदि
विद्वानों ने शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझाते हुए बताया है कि -‘‘शिक्षा मानव को
मुक्ति का रास्ता दिखलाती है, मानव को बौद्धिक और भावात्मक रूप से इतना मजबूत और दृष्टिवान
बनाती है कि वह स्वंय आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढने के योग्य हो जाता है।’’[i]
मूल्य आधारित
शिक्षा उतनी ही पुरानी है जितना कि मानव सभ्यता। भारत में शिक्षा वैदिक युग से
लेकर आज तक शिक्षा प्रकाश का श्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा
सच्चा पथ-प्रदर्शन करती है। इस संबंध में एक विद्वान का कथन है- ‘‘ज्ञान मनुष्य का
तीसरा नेत्र है, जो उसे
समस्त तत्वों के मूल को समझने की क्षमता प्रदान करता है एंव उसे उचित व्यवहार करने
में प्रवृत्त करता है।’’[ii] प्राचीन
भारतीयों का दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा कल्पलता के समान हमारे मनोरथों को सिद्ध
करती है। भर्तृहरि ने ‘नीतिशास्त्र’ में लिखा है - ‘‘विद्याहीन मनुष्य
पशु समान है।’’[iii] कहने का
अर्थ है कि शिक्षा ही हमें मनुष्य बनाती है और शिक्षा से रहित हमारा जीवन व्यर्थ
है। वैदिक काल में शिक्षा को जीविका का साधन नहीं माना गया । शिक्षा उदर-पूर्ति की
समस्या को अवश्य हल करती है। पहले शिक्षक और छात्र का संबंध पिता और पुत्र के समान
हुआ करता था। और छात्र भी गुरू को ईश्वर से बढ़कर मानते थे। गुरू और शिष्य की
महत्ता को संत कबीर ने इस प्रकार परिभाषित किया है-
‘‘गरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लागु पाऊ
बलिहारी गुरू आपनी, गोविन्द दिओ बताए।’’
गुरू की महत्ता
क्या थी प्राचीन समय में कबीर की पंक्ति में चरितार्थ होती थी। शिक्षक का दायित्व
छात्र को समाज के प्रति उत्तरदायित्व और सुसभ्य बनाना था। वैदिक काल में शिक्षक का
उद्देश्य छात्रों में रोजगार प्राप्त करवाना नहीं था। वैदिक काल में शिक्षा में
उद्देश्यों का विवेचन करते हुए ‘अलतेकर’ ने लिखा है- ‘‘ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र-निर्माण, व्यक्तित्व का
विकास, नागरिक तथा
सामाजिक कत्वयों का पालन,
सामाजिक
कुशलता की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार-प्राचीन भारत में
शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों एंव आदर्श थे।’’[iv] जिस
प्रकार पिता अपना अध्ययन,
यश, ज्ञान आदि सब कुछ
पुत्र को सौंप देता है उसी प्रकार गुरू अपना सम्पूर्ण तप एंव ज्ञान शिष्य के समक्ष
रख देता था। गुरू के उपदेशों को भावी जीवन में पालन करना, गुरू की गौरव की
महिमा का वर्णन निम्न शब्दों में बताया गया है-
‘‘गुरूब्र्रहमा
गुरू विष्णुः गुरूदेवों महेश्वरः।
गुरू साक्षात परब्रहम तस्मै श्री गुरवे नमः।।’’[v]
मूल्य-सामाजिक
मूल्यों के द्वारा व्यक्ति के कार्यकलापों से उसके व्यवहार को मापा जा सकता है।
प्रत्येक समाज के अपने-अपने मूल्य होते है। अतः समाज का प्रत्येक व्यक्ति इनके
प्रति जागरूक होता है। उसी के अनुरूप उसके मूल्य रहन-सहन आदर्श, रीति-रिवाज तथा
परम्पराएं होती है। भारत की संस्कृति काफी पुरानी है। वर्तमान समाज का परम्परागत
स्वरूप काफी हद तक बदल गया है। उसके मूल्य, आचार, विचार,
रीति-रिवाज
और परम्पराएं नवीनता की ओर अग्रसर हो रहे है।
व्यक्तियों के लिए
सामाजिक मूल्य महत्वपूर्ण है। मूल्य व्यक्तित्व को प्रभावित करते है। कोई व्यक्ति
समाज से कितनी आसानी से सामंजस्य कर पाएगा, यह इस बात पर निर्भर है कि उसके व्यक्तित्व में मूल्यों
का प्रवेश कितना व्यवस्थित रहा है। समाज को जीवित रखने के लिए व्यक्तित्व के
सर्वोच्च मूल्यों की पूर्णता का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके अभाव में सभ्यताओं
का शीघ्र अन्त होता है। मूल्यों के अभाव में जीवित सभ्यताओं का उत्थान और पतन बहुत
उसके द्वारा व्यक्ति के विकास पर दिए जाने वाले बल पर निर्भर करता है। मूल्य के
संबंध में विभिन्न विद्वानों ने परिभाषाएं दी है-
‘जॉनसन’ के अनुसार - ‘‘मूल्यों को एक धारणा या मानक के रूप में परिभाषित किया
जा सकता है, जो कि
सांस्कृतिक हो सकता है या केवल व्यक्तिगत और जिसके द्वारा वस्तुओं की एक साथ तुलना
की जाती है और वे एक दूसरे के संदर्भ में स्वीकार या अस्वीकार की जाती है। वांछित
या अवांछित अच्छी या बुरी अधिक या कम उचित मानी जाती है इससे स्पष्ट होता है कि
मूल्यों के द्वारा सभी प्रकार की वस्तुएं, भावनाएं, विचार, गुण,
क्रिया
पदार्थ व्यक्ति, समूह तथा
तथ्यों आदि का मूल्यांकन किया जाता है।’’[vi]
‘काने’ के अनुसार- ‘‘मूल्य वे आदर्श हैं, जिन्हें समाज के अधिकांश सदस्यों ने अपना लिया है।’’[vii]
अन्तर्राष्ट्रीय विश्वकोष के अनुसार -‘‘मूल्य का अर्थ नियमों के उस समुच्चय से लिया जाता है
जहां चरित्र को व्यक्ति तथा सामाजिक दलों के लिए नियंत्रित किया जाता है।’’[viii]
प्राचीन समय में
भारतीय संस्कृति का चार मूल्यों- अर्थ, काम, मोक्ष और धर्म पर ही अधिक जोर रहा है। प्राचीन संस्कृति का
उद्देश्य आध्यात्मिक स्तर पर पहुंचकर मोक्ष प्राप्त करना था। मनुष्य के जीवन का
अन्तिम उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति तथा आध्यात्मिकता को पाना था। भारतीय
संस्कृति में अर्थ का अभिप्राय भौतिक सम्पन्नता, काम का अर्थ आनन्द, धर्म का अर्थ नीति
परायणता तथा मानवता की सेवा तथा मोक्ष का अर्थ मुक्ति है। इन चारों मूल्यों की
प्राप्ति के पश्चात् ही मानव पूर्ण बनता है। परंतु वर्तमान युग में भारतीय सामाजिक
संरचना में परिर्वतन आने के कारण भारतीयों की प्राचीन मूल्यों के प्रति लगाव
विकसित होने लगा। शिक्षाक्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है जिससे सामाजिक और नैतिक
मूल्यों के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके। शिक्षा के द्वारा उन सार्वजनिक
और शाश्वत मूल्यों का विकास होना चाहिए जो हमारे लोगों को एकता की ओर ले जा सकें।
इन मूल्यों से धार्मिक अंधविश्वास, कट्टरता असहिष्णुता, हिंसा और भाग्यवाद का अंत करने में सहायता मिलनी चाहिए।
1990 के बाद शिक्षा का
व्यवसायीकरण होने लगा। जिस कारण शिक्षा का स्वरूप बदल गया। वहीं उच्च शिक्षा महंगी
और निम्न और मध्य वर्ग के हाथों से दूर होती जा रही है। किसी भी राष्ट्र या समाज
की सर्वागीण उन्नति में उच्च शिक्षा का सबसे अहम् योगदान है। दुनिया में आज युवाओं
की संख्या किसी भी अन्य देष के मुकाबले भारत में सबसे ज्यादा है। लेकिन इस वर्ग के
लगभग 12.9 फीसदी
लोंगों को ही यहाँ उच्च शिक्षा नसीब है, जबकि संसार के सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन में यह
अनुपात 27 प्रतिशत
है। वर्तमान में देश की उच्च शिक्षा प्रणाली में 504 विश्वविद्यालय और
विश्वविद्यालय की संस्थाएं शामिल हैं, इनमें 243 राज्य विश्वविद्यालय, 53 राज्यों केनिजी
विश्वविद्यालय, 40केन्द्रीय
विश्वविद्यालय 130 डीम्ड
विश्वविद्यालय। इनके अलावा देशभर में 2,565 महिला विश्वविद्यालय सहित 25,951महाविद्यालय भी
संचलित है। 11 वीं
पंचवर्षीय योजना के दौरान तकनीकी और उच्च शिक्षा में अनेक संस्थान स्थापित किए गए
हैं। परन्तु रिर्पोट कुछ और ही बताती है। फिर भी सच्चाई यह है कि उच्च शिक्षा के
संदर्भ में भारत अब भी विकसित देशों से काफी पीछे है। ‘‘यूनेस्कों की एक
ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 70 फीसदी व्यस्क निरक्षर नौ देशों में रहतें
है, जिनसे
सर्वाधिक 24.74 प्रतिशत
भारत में है।’’[ix] तीव्रगति
से बढ़तें वैश्वीकरण ने शिक्षा के क्षेत्र
में निजीकरण, स्तरीकरण, बाजारवाद जैसे अनेक
चुनौतियों को सामने ला खड़ा किया है। आज के समय में शिक्षा एंव व्यापार की भांति
उपयोग की जाने लगी है। आधुनिक समय में शिक्षा के प्रचार प्रसार और हर बच्चे की
शिक्षा तक पहुंच की बातें तो बहुत की जा रही है, किंतु वास्तव में शिक्षा पर जनतंत्र या
लोकतंत्र का अधिकार न होकर उन्हीं सामंतों व पूंजीपतियों, व उच्च साधन वर्ग
के हाथों की कठपुतली बन गया है। प्राचीन समय में जहां शिक्षा का मूल्य लगाना पाप
समझा जाता था, वहीं आज
शिक्षा एक व्यापारिक वस्तु बन गई है। जबकि आज के समय में शिक्षा का उद्देश्य
राष्ट्र निर्माण व व्यक्तित्व निर्माण की बजाय अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। आज
की शिक्षा बच्चों को नैतिकता, धर्म,
सामाजिक
मूल्यों के प्रति आदर आदि के बजाय अधिक से अधिक वेतन कमाने योग्य बनाने पर झुकाव
देती है। आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य नैतिक गुणों का विकास करना न होकर उच्च
स्तर का वेतन प्राप्त करना होता है। वहीं शिक्षा का बढ़ता हुआ व्यवसायीकरण और
निजीकरण बच्चों को प्रदान की जाने वाली शिक्षा में असफलता लाता है। शिक्षा का
व्यवसाय करने वालों के लिए शिक्षा प्रणाली में शिक्षक एक ऐसा विशेषज्ञ होता है
जिसके ज्ञान का उपयोग अध्यापन कार्य पाठ्यसाम्रगी का निर्माण में किया जाता है, और जिनके विक्रय
मूल्य के रूप में उसे मोटी धनराशि अदा की जाती हैं। आज उच्च शिक्षण संस्थानों में
विद्यार्थी दाखिला इसलिए लेते है ताकि उन्हें साल भर में जो अनेक बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों विभिन्न नामी गिरामी इंजीनियरिंग महाविद्यालय, प्रबंधकीय
संस्थानों में कैम्पस सलेक्शन करवाया जाता है जिनका सालाना पैकेज लाखों की राशि
में होता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया किसी वस्तु के व्यापारी की भांति प्रतीत होती
है। आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य नैतिक गुणों का विकास करना न होकर उच्च स्तर
का वेतन कराना होता है।
आधुनिक युग में
बढ़ते वैश्वीकरण ने शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण, बाजारवाद जैसे अनेक चुनौतियों को सामने ला
खड़ा किया है। आज शिक्षा को एक उत्पात की दृष्टि से देखा जाता है। उच्च शिक्षण
संस्थाओं द्वारा विद्यार्थियों को यह प्रलोभन दिया जाता है कि हमारे संस्थान में
उसे दूसरे संस्थान की अपेक्षा बेहतर उत्पाद एंव शिक्षा मिलेंगी। जिसके माध्यम से
उसे दूसरों की तुलना में अघिक वेतन प्राप्त करने में सफलता मिलेंगी। विद्यार्थी
उच्च शिक्षण संस्थाओं के लिए उपभोंक्ता के रूप में देखा जाने लगा। इससे शिक्षण
संस्थाओं और विद्यार्थियों का संबंध मात्र एक उपभोक्ता और विक्रेता तक ही सीमित रह
गया है। ऐसा होने से आम विद्यार्थियों/गरीब तबके के
विद्यार्थियों की पहुंच इन संस्थाओं तक नहीं पहुंच पाते है जिससे उनकी कौशलता का
ह्रास तो होता ही है साथ ही साथ सामाजिक, आर्थिक विषमता भी बढ़ती जाती है। जो समाज को दों खाई में
बॉटतें है। इसका परिणाम यह होगा कि एक समाज दूसरे समाज से विमुख होता चला जाएगा।
और भावी समय में देश की अखंडता खतरे में पड़ सकती है।
हमारा देश भारत
जिसमें भ्रष्टाचार का प्रचलन अपने चरम सीमा पर है। हर क्षेत्रों में पूंजी और
भाई-भतीजावाद ने स्थान पा लिया है इससे काबिल व्यक्ति छंटते जा रहे है और पूजीं के
दम पर और भाई-भतीजावाद के कारण अकौशल व्यक्ति उच्च संस्थानों में प्रवेश पा रहे है
जिससे शैक्षणिक स्तर पर गिरावट आया है साथ ही साथ एक ऐसे वर्ग का उद्भव भी हुआ है
जो बड़े-बड़े संस्थानों को अपनी मुठ्ठी में कैद करके रखे हुए है। इस कारण
विद्यार्थियों के प्रतिभा पर गलत प्रभाव पड़ता है। और यहाँ सत्यम्,शिवम, सुन्दरम’ की परिभाषा भी
डगमगाने लगती है। भारतीय छात्रों की प्रतिभा को दुनिया भी मानती है। अभी हाल में
आये अमेरिकी राष्ट्रपति ‘बराक ओबमा’
ने भी भारतीय छात्रों के प्रतिभा और गणित के क्षेत्र में उनकी
योग्यता की भी तारीफ कर चुके है। आई-आई टी कम्पनी इंफोसिस के सहसंस्थापक एंव चेयरमैन
‘नारायणमूर्ति’ ने पिछलें दिनों दो
टूक में कहा -‘‘ देश में
प्रतिष्ठित आई.आई.टी तक में शिक्षा की गुणवता लगातार गिर रही है समस्या के कारण इन
संस्थानों में प्रवेश के मापदंड भी है जो प्रर्याप्त सक्त नहीं है।’’[x] अर्थात्
पैसे वाले लोग पैसे के बल पर दाखिला तो पा जाते है और मध्य वर्ग के विद्यार्थियों
के पहुंच से दूर हो जाती है। इस कारण प्रतिभाशाली छात्रों का दाखिला न होने पर देश
को बड़ी हानि होती है। ‘टाइम्स
हाइयर एजुकेशन’ मैंगजीन के
इस सर्वें में बताया गया है- ‘‘विश्व के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सालाना सूची
में भारत की एक भी यूनिवर्सिटी को जगह नहीं मिल पायी है।’’[xi]
अभियांत्रिकी एंव तकनीकी शिक्षा भारत के अत्यंत प्रतिष्ठित संस्थान ‘द इंडियन इस्टीटयूट
ऑफ टेक्नोलॉजी मुबंई को सूची में जगह दी गई है लेकिन वह श्रेष्ठ200स्थानों में शुमार
नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है-‘‘उच्च शिक्षा क गुणवता में गिरावट की मुख्य वजहों में नौकरशाही
की दखल के साथ विश्लेषणात्मक कौशल की जगह रखने पर ज्यादा देना शामिल है।’’[xii]
भारतीय उच्च शिक्षा
भी माध्यमिक शिक्षा के समान उद्देश्य विहीन है। इस प्रकार की शिक्षा विद्यार्थियों
को जीवीकोपार्जन के लिए तैयार नहीं करती । उच्च शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान देने
के कारण बी.ए, एम.ए पास
करने के उपरान्त भी बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थी बेकार रहते है, इस कारण उच्च
शिक्षा कौशल परख हो ताकि छात्र स्वावलंबी बन सके। इसके लिए भारतीय शिक्षा पद्धति
में सुधार की आवश्यकता है जैसे -
ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में सामंजस्य एंव
अंर्तसम्बंध होना परम आवश्यक है। अतः विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में
विज्ञान तथा कला के साथ सामान्य शिक्षा की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। उच्च शिक्षण
संस्थाओं में ऐसा पाठ्यक्रम नहीं तैयार करना चाहिए जो जातिय, जनजातीय विरोधी हो।
जिससे छुआ-छूत की भावना या जाति भेद भाव उत्पन्न हो और साथ ही उच्च शिक्षा
संस्थाओं में अनुभवी प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा छात्रों का पथ प्रदर्शन करने
एंव परामर्श देने की व्यवस्था करना भी अत्यंत अनिवार्य है। जिससे विद्यार्थी अपनी
शिक्षा सम्पति के उपरान्त अपनी अभिरूचियों एंव क्षमताओं के अनुसार कोई न कोई
व्यवसाय ग्रहण कर सके।
किसीभी देश के
विकास या व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक होता है, उसकी शिक्षा का माध्यम उनके अपनी देश की
भाषा बने। जिससे वह आसानी से समझ सके। इसलिए यह जरूरी है कि उच्च शिक्षा का माध्यम
प्रादेशिक भाषा या संघिय भाषा हिंदी को बनाया जाए।
सामान्य शिक्षा प्रगति
के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों द्वारा शोध कार्यों का विकास किया जाना चाहिए। अतः
शोध कार्य को प्रत्येक भारतीय विश्वविद्यालय के द्वारा प्रोत्साहित करना चाहिए।
शोधार्थी छात्रों को शोधकार्य के लिए वही विषय निर्वाचित करे जिसका वह कार्य विशेष
मौलिकता तथा योग्यता का प्रदर्शन करे। जिस से उनका किया गया शोध कार्य देश के लिए
उपयोगी सिद्ध हो सके।
अधिकतर शिक्षण
संस्थानों में शिक्षा का ध्येय परीक्षा पास करना होता है ज्यादातर विद्यार्थी अपनी बौद्धिक, कौशलता का इस्तेमाल
कर नहीं पाते और रट कर किसी तरह से परीक्षा पास तो कर लेते है लेकिन उनका
मनोवैज्ञानिक, बौद्धिक
तथा पारिश्रमिक कौशल उजागर नहीं हो पाता है। इस प्रकार शिक्षा का स्तर ऊंचा नहीं
उठ पाता। इसके लिए आवश्यक है कि दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली प्रश्नों को निबंध रूप
में रखने के साथ ऐसे प्रश्न भी रखे जाए जो वस्तुगत हो।
उपसंहार-इस प्रकार हम
देखते है कि भारतीय शिक्षा पद्धति में आज काफी बदलाव आया है, प्राचीन भारत में
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व का समुचित विकास करना ताकि वह राष्ट्रीय संस्कृति
का संरक्षण एंव उन्हें उन्नति के शिखर तक ले जाने का दायित्व संभाल सके। किंतु
आधुनिक युग की शिक्षा इन सब से परे, व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन के स्वार्थ सिद्धि
और अधिक से अधिक लाभ कमाने की ओर उनका ध्यान आकर्षित करता है और आज परिवार से लेकर
उच्च शिक्षण संस्थान व्यक्ति के मौलिक रूचियों को प्राथमिकता देने के बजाय उनको
पूंजी कमाने के प्रत्येक रास्तों का गमन कराती है। मूल्यों के हा्रस के लिए भारतीय
समाज का जातिगत भेदभाव होना भी महत्वपूर्ण रूप से उत्तरदायी है जिसने समाज में
अलगाव को व्यापक स्थान दिया है जिसका प्रभाव उच्च संस्थानों इत्यादि आदि में भी
दृष्टिगत होता है जहॉ आम विद्यार्थी इस जातिगत राजनीति के फेर में जकड़ लिए जाते है
और बर्बाद कर दिए जाते है। इस प्रकार की खबरें कई बार पत्र-पत्रिकाओं में या
दूरदशर्न में देखने को मिल जाती है।
इस प्रकार से
शिक्षा संस्थाओं का व्यवसायीकरण और निजीकरण ने भी राष्ट्रीय उन्नति के मार्ग को भी
काफी हद तक प्रभावित किया है जिससे शिक्षण संस्थायें चंद लोगों के हाथों का खिलौना
बन गया है जिसने अनेकों कौशल और प्रतिभाशाली युवाओं का जीवन बदल दिया है तथा
राष्ट्र उन्नति और व्यक्ति के विकास के मार्ग को अवरूद्ध किया है। इसलिए यह जरूरी
है कि संस्थाओं का निजीकरण के साथ-साथ उसका सरकारीकरण भी किया जाना आवयश्क है
दोनों के सहभागिता से व्यक्तित्व वा राष्ट्र का सम्पूर्ण विकास हो पाएगा।
संदर्भ -
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