उच्च शिक्षा संस्थानों में मूल्य आधारित शिक्षा:-
-जयराम कुमार पासवान
शिक्षा एक यात्रा
है जो आदमी के मस्तिष्क को खोलने और उसे एक दायरे तक बांधे रखती है। उसे कहां
रूकना हैं यह शिक्षा के माध्यम से ही निर्धारित करते है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद आदि
विद्वानों ने शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझाते हुए बताया है कि -‘‘शिक्षा मानव को
मुक्ति का रास्ता दिखलाती है, मानव को बौद्धिक और भावात्मक रूप से इतना मजबूत और दृष्टिवान
बनाती है कि वह स्वंय आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढने के योग्य हो जाता है।’’[i]
मूल्य आधारित
शिक्षा उतनी ही पुरानी है जितना कि मानव सभ्यता। भारत में शिक्षा वैदिक युग से
लेकर आज तक शिक्षा प्रकाश का श्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा
सच्चा पथ-प्रदर्शन करती है। इस संबंध में एक विद्वान का कथन है- ‘‘ज्ञान मनुष्य का
तीसरा नेत्र है, जो उसे
समस्त तत्वों के मूल को समझने की क्षमता प्रदान करता है एंव उसे उचित व्यवहार करने
में प्रवृत्त करता है।’’[ii] प्राचीन
भारतीयों का दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा कल्पलता के समान हमारे मनोरथों को सिद्ध
करती है। भर्तृहरि ने ‘नीतिशास्त्र’ में लिखा है - ‘‘विद्याहीन मनुष्य
पशु समान है।’’[iii] कहने का
अर्थ है कि शिक्षा ही हमें मनुष्य बनाती है और शिक्षा से रहित हमारा जीवन व्यर्थ
है। वैदिक काल में शिक्षा को जीविका का साधन नहीं माना गया । शिक्षा उदर-पूर्ति की
समस्या को अवश्य हल करती है। पहले शिक्षक और छात्र का संबंध पिता और पुत्र के समान
हुआ करता था। और छात्र भी गुरू को ईश्वर से बढ़कर मानते थे। गुरू और शिष्य की
महत्ता को संत कबीर ने इस प्रकार परिभाषित किया है-
‘‘गरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लागु पाऊ
बलिहारी गुरू आपनी, गोविन्द दिओ बताए।’’
गुरू की महत्ता
क्या थी प्राचीन समय में कबीर की पंक्ति में चरितार्थ होती थी। शिक्षक का दायित्व
छात्र को समाज के प्रति उत्तरदायित्व और सुसभ्य बनाना था। वैदिक काल में शिक्षक का
उद्देश्य छात्रों में रोजगार प्राप्त करवाना नहीं था। वैदिक काल में शिक्षा में
उद्देश्यों का विवेचन करते हुए ‘अलतेकर’ ने लिखा है- ‘‘ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता की भावना, चरित्र-निर्माण, व्यक्तित्व का
विकास, नागरिक तथा
सामाजिक कत्वयों का पालन,
सामाजिक
कुशलता की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार-प्राचीन भारत में
शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों एंव आदर्श थे।’’[iv] जिस
प्रकार पिता अपना अध्ययन,
यश, ज्ञान आदि सब कुछ
पुत्र को सौंप देता है उसी प्रकार गुरू अपना सम्पूर्ण तप एंव ज्ञान शिष्य के समक्ष
रख देता था। गुरू के उपदेशों को भावी जीवन में पालन करना, गुरू की गौरव की
महिमा का वर्णन निम्न शब्दों में बताया गया है-
‘‘गुरूब्र्रहमा
गुरू विष्णुः गुरूदेवों महेश्वरः।
गुरू साक्षात परब्रहम तस्मै श्री गुरवे नमः।।’’[v]
मूल्य-सामाजिक
मूल्यों के द्वारा व्यक्ति के कार्यकलापों से उसके व्यवहार को मापा जा सकता है।
प्रत्येक समाज के अपने-अपने मूल्य होते है। अतः समाज का प्रत्येक व्यक्ति इनके
प्रति जागरूक होता है। उसी के अनुरूप उसके मूल्य रहन-सहन आदर्श, रीति-रिवाज तथा
परम्पराएं होती है। भारत की संस्कृति काफी पुरानी है। वर्तमान समाज का परम्परागत
स्वरूप काफी हद तक बदल गया है। उसके मूल्य, आचार, विचार,
रीति-रिवाज
और परम्पराएं नवीनता की ओर अग्रसर हो रहे है।
व्यक्तियों के लिए
सामाजिक मूल्य महत्वपूर्ण है। मूल्य व्यक्तित्व को प्रभावित करते है। कोई व्यक्ति
समाज से कितनी आसानी से सामंजस्य कर पाएगा, यह इस बात पर निर्भर है कि उसके व्यक्तित्व में मूल्यों
का प्रवेश कितना व्यवस्थित रहा है। समाज को जीवित रखने के लिए व्यक्तित्व के
सर्वोच्च मूल्यों की पूर्णता का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके अभाव में सभ्यताओं
का शीघ्र अन्त होता है। मूल्यों के अभाव में जीवित सभ्यताओं का उत्थान और पतन बहुत
उसके द्वारा व्यक्ति के विकास पर दिए जाने वाले बल पर निर्भर करता है। मूल्य के
संबंध में विभिन्न विद्वानों ने परिभाषाएं दी है-
‘जॉनसन’ के अनुसार - ‘‘मूल्यों को एक धारणा या मानक के रूप में परिभाषित किया
जा सकता है, जो कि
सांस्कृतिक हो सकता है या केवल व्यक्तिगत और जिसके द्वारा वस्तुओं की एक साथ तुलना
की जाती है और वे एक दूसरे के संदर्भ में स्वीकार या अस्वीकार की जाती है। वांछित
या अवांछित अच्छी या बुरी अधिक या कम उचित मानी जाती है इससे स्पष्ट होता है कि
मूल्यों के द्वारा सभी प्रकार की वस्तुएं, भावनाएं, विचार, गुण,
क्रिया
पदार्थ व्यक्ति, समूह तथा
तथ्यों आदि का मूल्यांकन किया जाता है।’’[vi]
‘काने’ के अनुसार- ‘‘मूल्य वे आदर्श हैं, जिन्हें समाज के अधिकांश सदस्यों ने अपना लिया है।’’[vii]
अन्तर्राष्ट्रीय विश्वकोष के अनुसार -‘‘मूल्य का अर्थ नियमों के उस समुच्चय से लिया जाता है
जहां चरित्र को व्यक्ति तथा सामाजिक दलों के लिए नियंत्रित किया जाता है।’’[viii]
प्राचीन समय में
भारतीय संस्कृति का चार मूल्यों- अर्थ, काम, मोक्ष और धर्म पर ही अधिक जोर रहा है। प्राचीन संस्कृति का
उद्देश्य आध्यात्मिक स्तर पर पहुंचकर मोक्ष प्राप्त करना था। मनुष्य के जीवन का
अन्तिम उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति तथा आध्यात्मिकता को पाना था। भारतीय
संस्कृति में अर्थ का अभिप्राय भौतिक सम्पन्नता, काम का अर्थ आनन्द, धर्म का अर्थ नीति
परायणता तथा मानवता की सेवा तथा मोक्ष का अर्थ मुक्ति है। इन चारों मूल्यों की
प्राप्ति के पश्चात् ही मानव पूर्ण बनता है। परंतु वर्तमान युग में भारतीय सामाजिक
संरचना में परिर्वतन आने के कारण भारतीयों की प्राचीन मूल्यों के प्रति लगाव
विकसित होने लगा। शिक्षाक्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है जिससे सामाजिक और नैतिक
मूल्यों के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके। शिक्षा के द्वारा उन सार्वजनिक
और शाश्वत मूल्यों का विकास होना चाहिए जो हमारे लोगों को एकता की ओर ले जा सकें।
इन मूल्यों से धार्मिक अंधविश्वास, कट्टरता असहिष्णुता, हिंसा और भाग्यवाद का अंत करने में सहायता मिलनी चाहिए।
1990 के बाद शिक्षा का
व्यवसायीकरण होने लगा। जिस कारण शिक्षा का स्वरूप बदल गया। वहीं उच्च शिक्षा महंगी
और निम्न और मध्य वर्ग के हाथों से दूर होती जा रही है। किसी भी राष्ट्र या समाज
की सर्वागीण उन्नति में उच्च शिक्षा का सबसे अहम् योगदान है। दुनिया में आज युवाओं
की संख्या किसी भी अन्य देष के मुकाबले भारत में सबसे ज्यादा है। लेकिन इस वर्ग के
लगभग 12.9 फीसदी
लोंगों को ही यहाँ उच्च शिक्षा नसीब है, जबकि संसार के सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन में यह
अनुपात 27 प्रतिशत
है। वर्तमान में देश की उच्च शिक्षा प्रणाली में 504 विश्वविद्यालय और
विश्वविद्यालय की संस्थाएं शामिल हैं, इनमें 243 राज्य विश्वविद्यालय, 53 राज्यों केनिजी
विश्वविद्यालय, 40केन्द्रीय
विश्वविद्यालय 130 डीम्ड
विश्वविद्यालय। इनके अलावा देशभर में 2,565 महिला विश्वविद्यालय सहित 25,951महाविद्यालय भी
संचलित है। 11 वीं
पंचवर्षीय योजना के दौरान तकनीकी और उच्च शिक्षा में अनेक संस्थान स्थापित किए गए
हैं। परन्तु रिर्पोट कुछ और ही बताती है। फिर भी सच्चाई यह है कि उच्च शिक्षा के
संदर्भ में भारत अब भी विकसित देशों से काफी पीछे है। ‘‘यूनेस्कों की एक
ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 70 फीसदी व्यस्क निरक्षर नौ देशों में रहतें
है, जिनसे
सर्वाधिक 24.74 प्रतिशत
भारत में है।’’[ix] तीव्रगति
से बढ़तें वैश्वीकरण ने शिक्षा के क्षेत्र
में निजीकरण, स्तरीकरण, बाजारवाद जैसे अनेक
चुनौतियों को सामने ला खड़ा किया है। आज के समय में शिक्षा एंव व्यापार की भांति
उपयोग की जाने लगी है। आधुनिक समय में शिक्षा के प्रचार प्रसार और हर बच्चे की
शिक्षा तक पहुंच की बातें तो बहुत की जा रही है, किंतु वास्तव में शिक्षा पर जनतंत्र या
लोकतंत्र का अधिकार न होकर उन्हीं सामंतों व पूंजीपतियों, व उच्च साधन वर्ग
के हाथों की कठपुतली बन गया है। प्राचीन समय में जहां शिक्षा का मूल्य लगाना पाप
समझा जाता था, वहीं आज
शिक्षा एक व्यापारिक वस्तु बन गई है। जबकि आज के समय में शिक्षा का उद्देश्य
राष्ट्र निर्माण व व्यक्तित्व निर्माण की बजाय अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। आज
की शिक्षा बच्चों को नैतिकता, धर्म,
सामाजिक
मूल्यों के प्रति आदर आदि के बजाय अधिक से अधिक वेतन कमाने योग्य बनाने पर झुकाव
देती है। आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य नैतिक गुणों का विकास करना न होकर उच्च
स्तर का वेतन प्राप्त करना होता है। वहीं शिक्षा का बढ़ता हुआ व्यवसायीकरण और
निजीकरण बच्चों को प्रदान की जाने वाली शिक्षा में असफलता लाता है। शिक्षा का
व्यवसाय करने वालों के लिए शिक्षा प्रणाली में शिक्षक एक ऐसा विशेषज्ञ होता है
जिसके ज्ञान का उपयोग अध्यापन कार्य पाठ्यसाम्रगी का निर्माण में किया जाता है, और जिनके विक्रय
मूल्य के रूप में उसे मोटी धनराशि अदा की जाती हैं। आज उच्च शिक्षण संस्थानों में
विद्यार्थी दाखिला इसलिए लेते है ताकि उन्हें साल भर में जो अनेक बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों विभिन्न नामी गिरामी इंजीनियरिंग महाविद्यालय, प्रबंधकीय
संस्थानों में कैम्पस सलेक्शन करवाया जाता है जिनका सालाना पैकेज लाखों की राशि
में होता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया किसी वस्तु के व्यापारी की भांति प्रतीत होती
है। आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य नैतिक गुणों का विकास करना न होकर उच्च स्तर
का वेतन कराना होता है।
आधुनिक युग में
बढ़ते वैश्वीकरण ने शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण, बाजारवाद जैसे अनेक चुनौतियों को सामने ला
खड़ा किया है। आज शिक्षा को एक उत्पात की दृष्टि से देखा जाता है। उच्च शिक्षण
संस्थाओं द्वारा विद्यार्थियों को यह प्रलोभन दिया जाता है कि हमारे संस्थान में
उसे दूसरे संस्थान की अपेक्षा बेहतर उत्पाद एंव शिक्षा मिलेंगी। जिसके माध्यम से
उसे दूसरों की तुलना में अघिक वेतन प्राप्त करने में सफलता मिलेंगी। विद्यार्थी
उच्च शिक्षण संस्थाओं के लिए उपभोंक्ता के रूप में देखा जाने लगा। इससे शिक्षण
संस्थाओं और विद्यार्थियों का संबंध मात्र एक उपभोक्ता और विक्रेता तक ही सीमित रह
गया है। ऐसा होने से आम विद्यार्थियों/गरीब तबके के
विद्यार्थियों की पहुंच इन संस्थाओं तक नहीं पहुंच पाते है जिससे उनकी कौशलता का
ह्रास तो होता ही है साथ ही साथ सामाजिक, आर्थिक विषमता भी बढ़ती जाती है। जो समाज को दों खाई में
बॉटतें है। इसका परिणाम यह होगा कि एक समाज दूसरे समाज से विमुख होता चला जाएगा।
और भावी समय में देश की अखंडता खतरे में पड़ सकती है।
हमारा देश भारत
जिसमें भ्रष्टाचार का प्रचलन अपने चरम सीमा पर है। हर क्षेत्रों में पूंजी और
भाई-भतीजावाद ने स्थान पा लिया है इससे काबिल व्यक्ति छंटते जा रहे है और पूजीं के
दम पर और भाई-भतीजावाद के कारण अकौशल व्यक्ति उच्च संस्थानों में प्रवेश पा रहे है
जिससे शैक्षणिक स्तर पर गिरावट आया है साथ ही साथ एक ऐसे वर्ग का उद्भव भी हुआ है
जो बड़े-बड़े संस्थानों को अपनी मुठ्ठी में कैद करके रखे हुए है। इस कारण
विद्यार्थियों के प्रतिभा पर गलत प्रभाव पड़ता है। और यहाँ सत्यम्,शिवम, सुन्दरम’ की परिभाषा भी
डगमगाने लगती है। भारतीय छात्रों की प्रतिभा को दुनिया भी मानती है। अभी हाल में
आये अमेरिकी राष्ट्रपति ‘बराक ओबमा’
ने भी भारतीय छात्रों के प्रतिभा और गणित के क्षेत्र में उनकी
योग्यता की भी तारीफ कर चुके है। आई-आई टी कम्पनी इंफोसिस के सहसंस्थापक एंव चेयरमैन
‘नारायणमूर्ति’ ने पिछलें दिनों दो
टूक में कहा -‘‘ देश में
प्रतिष्ठित आई.आई.टी तक में शिक्षा की गुणवता लगातार गिर रही है समस्या के कारण इन
संस्थानों में प्रवेश के मापदंड भी है जो प्रर्याप्त सक्त नहीं है।’’[x] अर्थात्
पैसे वाले लोग पैसे के बल पर दाखिला तो पा जाते है और मध्य वर्ग के विद्यार्थियों
के पहुंच से दूर हो जाती है। इस कारण प्रतिभाशाली छात्रों का दाखिला न होने पर देश
को बड़ी हानि होती है। ‘टाइम्स
हाइयर एजुकेशन’ मैंगजीन के
इस सर्वें में बताया गया है- ‘‘विश्व के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सालाना सूची
में भारत की एक भी यूनिवर्सिटी को जगह नहीं मिल पायी है।’’[xi]
अभियांत्रिकी एंव तकनीकी शिक्षा भारत के अत्यंत प्रतिष्ठित संस्थान ‘द इंडियन इस्टीटयूट
ऑफ टेक्नोलॉजी मुबंई को सूची में जगह दी गई है लेकिन वह श्रेष्ठ200स्थानों में शुमार
नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है-‘‘उच्च शिक्षा क गुणवता में गिरावट की मुख्य वजहों में नौकरशाही
की दखल के साथ विश्लेषणात्मक कौशल की जगह रखने पर ज्यादा देना शामिल है।’’[xii]
भारतीय उच्च शिक्षा
भी माध्यमिक शिक्षा के समान उद्देश्य विहीन है। इस प्रकार की शिक्षा विद्यार्थियों
को जीवीकोपार्जन के लिए तैयार नहीं करती । उच्च शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान देने
के कारण बी.ए, एम.ए पास
करने के उपरान्त भी बहुत बड़ी संख्या में विद्यार्थी बेकार रहते है, इस कारण उच्च
शिक्षा कौशल परख हो ताकि छात्र स्वावलंबी बन सके। इसके लिए भारतीय शिक्षा पद्धति
में सुधार की आवश्यकता है जैसे -
ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में सामंजस्य एंव
अंर्तसम्बंध होना परम आवश्यक है। अतः विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में
विज्ञान तथा कला के साथ सामान्य शिक्षा की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। उच्च शिक्षण
संस्थाओं में ऐसा पाठ्यक्रम नहीं तैयार करना चाहिए जो जातिय, जनजातीय विरोधी हो।
जिससे छुआ-छूत की भावना या जाति भेद भाव उत्पन्न हो और साथ ही उच्च शिक्षा
संस्थाओं में अनुभवी प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा छात्रों का पथ प्रदर्शन करने
एंव परामर्श देने की व्यवस्था करना भी अत्यंत अनिवार्य है। जिससे विद्यार्थी अपनी
शिक्षा सम्पति के उपरान्त अपनी अभिरूचियों एंव क्षमताओं के अनुसार कोई न कोई
व्यवसाय ग्रहण कर सके।
किसीभी देश के
विकास या व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक होता है, उसकी शिक्षा का माध्यम उनके अपनी देश की
भाषा बने। जिससे वह आसानी से समझ सके। इसलिए यह जरूरी है कि उच्च शिक्षा का माध्यम
प्रादेशिक भाषा या संघिय भाषा हिंदी को बनाया जाए।
सामान्य शिक्षा प्रगति
के लिए उच्च शिक्षा संस्थानों द्वारा शोध कार्यों का विकास किया जाना चाहिए। अतः
शोध कार्य को प्रत्येक भारतीय विश्वविद्यालय के द्वारा प्रोत्साहित करना चाहिए।
शोधार्थी छात्रों को शोधकार्य के लिए वही विषय निर्वाचित करे जिसका वह कार्य विशेष
मौलिकता तथा योग्यता का प्रदर्शन करे। जिस से उनका किया गया शोध कार्य देश के लिए
उपयोगी सिद्ध हो सके।
अधिकतर शिक्षण
संस्थानों में शिक्षा का ध्येय परीक्षा पास करना होता है ज्यादातर विद्यार्थी अपनी बौद्धिक, कौशलता का इस्तेमाल
कर नहीं पाते और रट कर किसी तरह से परीक्षा पास तो कर लेते है लेकिन उनका
मनोवैज्ञानिक, बौद्धिक
तथा पारिश्रमिक कौशल उजागर नहीं हो पाता है। इस प्रकार शिक्षा का स्तर ऊंचा नहीं
उठ पाता। इसके लिए आवश्यक है कि दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली प्रश्नों को निबंध रूप
में रखने के साथ ऐसे प्रश्न भी रखे जाए जो वस्तुगत हो।
उपसंहार-इस प्रकार हम
देखते है कि भारतीय शिक्षा पद्धति में आज काफी बदलाव आया है, प्राचीन भारत में
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व का समुचित विकास करना ताकि वह राष्ट्रीय संस्कृति
का संरक्षण एंव उन्हें उन्नति के शिखर तक ले जाने का दायित्व संभाल सके। किंतु
आधुनिक युग की शिक्षा इन सब से परे, व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन के स्वार्थ सिद्धि
और अधिक से अधिक लाभ कमाने की ओर उनका ध्यान आकर्षित करता है और आज परिवार से लेकर
उच्च शिक्षण संस्थान व्यक्ति के मौलिक रूचियों को प्राथमिकता देने के बजाय उनको
पूंजी कमाने के प्रत्येक रास्तों का गमन कराती है। मूल्यों के हा्रस के लिए भारतीय
समाज का जातिगत भेदभाव होना भी महत्वपूर्ण रूप से उत्तरदायी है जिसने समाज में
अलगाव को व्यापक स्थान दिया है जिसका प्रभाव उच्च संस्थानों इत्यादि आदि में भी
दृष्टिगत होता है जहॉ आम विद्यार्थी इस जातिगत राजनीति के फेर में जकड़ लिए जाते है
और बर्बाद कर दिए जाते है। इस प्रकार की खबरें कई बार पत्र-पत्रिकाओं में या
दूरदशर्न में देखने को मिल जाती है।
इस प्रकार से
शिक्षा संस्थाओं का व्यवसायीकरण और निजीकरण ने भी राष्ट्रीय उन्नति के मार्ग को भी
काफी हद तक प्रभावित किया है जिससे शिक्षण संस्थायें चंद लोगों के हाथों का खिलौना
बन गया है जिसने अनेकों कौशल और प्रतिभाशाली युवाओं का जीवन बदल दिया है तथा
राष्ट्र उन्नति और व्यक्ति के विकास के मार्ग को अवरूद्ध किया है। इसलिए यह जरूरी
है कि संस्थाओं का निजीकरण के साथ-साथ उसका सरकारीकरण भी किया जाना आवयश्क है
दोनों के सहभागिता से व्यक्तित्व वा राष्ट्र का सम्पूर्ण विकास हो पाएगा।
संदर्भ -
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