हीरामन पासी
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डॉ. कालीचरण ‘स्नेही’
विश्वविद्यालय
में पिछले चार-पांच माह से पीएच.डी. में प्रवेश हेतु आरक्षण को लेकर एकतरफा बहस
छिड़ी हुई है। प्रत्येक विभाग के मठाधीशनुमा
विभागाध्यक्ष, दलित और पिछड़े वर्ग के
विद्यार्थियों को पीएच.डी. में आरक्षण के प्रावधान को यू.जी.सी. का तुगलकी फरमान
मानते हुए बेहद उत्तेजित हैं। उनका तर्क (कुतर्क) है कि पीएच.डी. में आरक्षण
विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर सीधा हमला है। क्योंकि आरक्षण के स्वीकृत होते ही
द्विज जातियों का विश्वविद्यालयों के अकादमिक क्षेत्र में अघोषित आरक्षण लगभग आधा
हो जाएगा। इस प्रावधान के फलस्वरूप वे अपने साले-सालियों और निठल्ले बेटे-बेटियों,
रिश्तेदारों को पीएच.डी. की डिग्री उपहार नहीं दे सकेंगे।
राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर तथा उनके रिश्तेदार साथी
अध्यापकों का पारा इस समय सातवें आसमान पर है। वे संस्कृत तथा हिन्दी विभाग के
अपने लंगोटिया यार रह चुके आचार्यों को रोज ही आरक्षण की खामियां गिनाते हुए
उत्तेजित करते रहते हैं। राजनीतिशास्त्र के प्रो. लीलाधर मिश्र और भौतिकी विज्ञान
के प्रो. प्रयाग दत्त पाण्डेय अपने-अपने संकाय में आरक्षण के विरोध में गोलबंदी
करने का माहौल बना चुके हैं। अन्य संकायों के डीन तथा सवर्ण अध्यापक भी आरक्षण के
विरोध में कुलपति महोदय को अपनी लिखित राय जाहिर कर चुके हैं। इसी बीच यू.जी.सी.
का पीएच.डी. के सम्बन्ध में रिमाइण्डर आ जाता है, जिसमें
स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि पीएच.डी. में प्रवेश, आरक्षण
नियमों के तहत ही दिया जाए, जो विश्वविद्यालय इसमें अनावश्यक
विलम्ब करेंगे, उनकी यू.जी.सी. ग्राण्ट रोक दी जाएगी और पीएच.डी.
में आरक्षण के प्रावधान को नकारने वाले विभागाध्यक्षों तथा अध्यापकों के खिलाफ
कानूनी कार्रवाई की जाएगी। इस रिमाइण्डर आदेश में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि
जो विश्वविद्यालय अनु.जाति -जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के विद्यार्थियों को
आरक्षण दिये बगैर पीएच.डी. में प्रवेश देंगे, वह अविधिक तथा
अमान्य होगी। इस रिमाइण्डर ने सवर्ण अध्यापकों को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया।
कुलपति ने भी अपनी इच्छा एकेडमिक कौंसिल में स्पष्ट कर दी है कि जब तक आप सभी यू.जी.सी.
के आरक्षण के प्रावधानों को स्वीकार नहीं करते हैं, हम पीएच.डी.
में प्रवेश नहीं देगें। आखिरकार एक माह के गम्भीर चिंतन- मनन के बाद विश्वविद्यालय
ने पीएच.डी. प्रवेश हेतु यू.जी.सी. के सभी दिशा निर्देशों का पालन करते हुए आरक्षण
व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है। जिस दिन एकेडमिक कौंसिल में यह प्रस्ताव बेमन से
पारित हुआ, उस दिन का माहौल इतना गमगीन और मातमी था कि पूछिए
मत। सभी सवर्ण शिक्षक यू.जी.सी. को पानी पीपी कर कोस रहे थे। सौ-सवा सौ की एकेडमिक
कौंसिल में वमुश्किल तीन-चार दलित तथा सात-आठ पिछड़े वर्ग के अध्यापक रहे होंगे,
शेष सभी पंण्डित-ठाकुर और वैश्य तथा कायस्थ जातियों से सम्बन्धित
थे। विश्वविद्यालय का कुलपति भी उच्चकुलोत्पन्न था, पर यू.जी.सी.
की उत्पत्ति भारतीय संविधान से हुई और भारतीय संविधान का निर्माता एक महार दलित,
जिसे सारा राष्ट्र बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के रूप में सादर
स्मरण करता है।
अब क्या था? विश्वविद्यालय का अकादमिक क्षेत्र सवर्ण शिक्षकों के लिए बंजर भूमि की तरह
हो गया, वे अब अपने मनचाहे शार्गिदों को पीएच.डी. में प्रवेश
नहीं दिला पायेंगे। नियम के अनुसार अब पीएच.डी. में प्रवेश हेतु एक प्रवेश परीक्षा
आयोजित होगी और उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुये विद्यार्थी ही अपनी मेरिट के अनुसार
प्रवेश पा सकेंगे। सीट की सीमा रेखा अलग से परेशानी पैदा कर रही है। प्रत्येक
अध्यापक को अब आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों को नियमानुसार अपने निर्देशन में
अनिवार्य रूप से लेना ही होगा, अन्यथा कानूनी कार्रवाई की
तलवार सिर पर लटकती रहेगी, सवर्ण अध्यापक इस बदली हुई
परिस्थिति में भावी रणनीति की तैयारी में जुट गए। कानूनी दांव-पेंच जांचे-परखे जा
रहे हैं, वकीलों से सलाह ली जा रही है। इस कार्य के लिए
प्रत्येक विभाग में आरक्षण विरोधी सेल स्थापित होने लगे नई-नई जानकारियां जुटाई
जाने लगीं, पुरानी फाइलों को परखा जा रहा है, पर कुल मिलाकर बटेर हाथ नहीं लग पा रही है। एकदूजे को ऊँची टेर दे-देकर
पुकारा जा रहा है। अपने-अपने पुराने अतीत को याद किया जा रहा है। हिन्दी-विभाग में
सूर-तुलसी को छोड़कर सारी चर्चा अब इसी आरक्षण मुद्दे पर जा टिकी है। डॉ. कामेश्वर
सिंह तथा डॉ. पार्वती नन्दन पाण्डेय अन्य विभागों से निरन्तर सम्पर्क बनाए हुए हैं।
हफ्ते भर के मंथन और मनन के बाद भी आशा की कहीं कोई किरण नहीं दिखी। माहौल एकदम,
मातम में बदला हुआ है। डॉ. चतुरानन चौबे जो विद्यापति और घनानंद को
पढ़ाना भूल गए। अपने साथी डॉ. हनुमन्त लाल मिश्रा से अपना दर्द इस रूप में बयां कर
रहे हैं- मिश्राजी अब हमारी शेफाली का क्या होगा, जिसे आपने
विशेष कवि, सूर में 82 अंक दिए थे,
अब वह पीए.डी. में प्रवेश कैसे पाएगी? चौबे जी
को बीच में ही टोकते हुए डॉ. हनुमन्त लाल मिश्रा रूंधे कण्ठ से मातमी सुर में बोले
चैबे जी और मेरे साढ़ू का लड़का ‘शिवसहाय’ तो अब प्रवेश परीक्षा में शायद ही पास हो। आप तो जानते हैं, पिछले सात-आठ साल से मेरी कितनी सेवा कर रहा है। साढ़ू के घर आवारा घूमता
रहता था, वह तो कहिए कि पत्नी की जिद पर मैं साथ ले आया और
आपकी कृपा से एफ.फिल्. तक प्रथम श्रेणी आता रहा, उसको जैसे
ही पता लगा कि आरक्षण लागू हो गया, खाना-पीना छोड़ दिया है।
अपनी मौसी से चिपट कर ऐसे रोया जैसे कोई देहाती लड़की विदा होकर ससुराल जा रही हो।
मैं तो उसकी हालत देखकर परेशान हूं। इसी बीच अपना एक सेमिनारी बेग लिए आचार्य
पशुपति नाथ दुबे आ गए, वे निराला और केशव के विशेषज्ञ हैं। डॉ.
हनुमन्त लाल मिश्रा से छह साल पहले तिकड़म भिड़ाकर विभाग में नियुक्त हुये थे।
मिश्रा जी अदब के साथ खड़े हो गये और अपना आसन स्वयं आचार्य पशुपति नाथ दुबे को
देने लगे। आचार्य दुबे जी ने आसन ग्रहण करते ही अपना बेग खोला और उसमें से एक आदेश
की छायाप्रति मेज पर रखते हुए कहा कि पढ़ो इसे मिश्राजी, तुम
भी पढ़ो चौबे, हफ्ते भर पहले जो एकेडमिक कौंसिल ने निर्णय
लिया था, उसे विश्वविद्यालय ने अमली जामा पहनाने का आदेश
जारी कर दिया है। दोनों सजातीय शिक्षकों ने दुबे जी से ही उस आदेश की व्याख्या
सुननी चाही। दुबे जी ने आदेश की व्याख्या करते हुए अपनी टिप्पणी जोड़ते हुए
अत्यन्त रोचक ढंग से आदेश का पुर्नपाठ कर डाला, उन्होंने कहा
कि इस आदेश में स्पष्ट है कि अब सामान्य श्रेणी यानी जनरल कोटे में भी आरक्षित
श्रेणी का विद्यार्थी मेरिट में आने पर हमारी पीएच.डी. की सीट हड़प लेगा। जे.आर.एफ.
उत्तीर्ण छात्र बिना प्रवेश परीक्षा के ही पीएच.डी. में प्रवेश पा जाएंगे और वे
सबके सब, जे.आर.एफ. छात्र, जनरल कोटे
में गिने जायेंगे। चतुरानन चौबे ने कहा कि दुबे
जी जरा और स्पष्ट करिए। यह नई आरक्षण व्यवस्था है, एकदम
सटीक उदाहरण देकर समझाइए। रहस्यवाद पढ़ने-पढ़ाने वाले हिन्दी अध्यापकों में पीएच.डी.
में प्रवेश के समय आरक्षण प्रावधान रहस्य बना हुआ था। उसी रहस्य से पर्दा उठाया
गया है, इस आदेश में दुबे ने कहा मान लो कि हिन्दी विभाग में
कुल 14 अध्यापक हैं, जिसमें 2 प्रोफेसर, 4 रीडर तथा शेष 8
लेक्चरर हैं, प्रत्येक को यू.जी.सी. के नियमानुसार 8,
6, 4 सीट आवंटित हैं। इस तरह हिन्दी विभाग में कुल 72 सीट बनती है। इन बहत्तर सीटों में से जो पहले से भरी हैं, उन्हें छोड़कर अन्य रिक्त सीटों
की कुल संख्या जोड़कर विज्ञप्ति निकाली जाएगी। मान लो चौबे जी तुम्हारी कुल आठ सीट
में से इस वर्ष तीन सीट खाली हैं और मिश्रा जी तुम्हारी 6
सीट में केवल 2 सीट खाली हैं, इसी तरह
प्रत्येक शिक्षक की कुल रिक्त सीट जोड़कर उसकी आधी रिक्त सीटें आरक्षण से भरी
जायेंगी। जैसे कि अपने विभाग में इस समय मान लो कुल 22 रिक्त
सीटें हैं, तो इसमें से
11 सीट रिजर्व होंगीं। शेष 11
अनारक्षित मानकर भरी जायेंगी। मान लो कि छह छात्र जे.आर.एफ. वाले आ जाते हैं,
तो वे सभी अनारक्षित सीट पर काबिज हो जाएंगे, शेष
5 अनारक्षित तथा 11 आरक्षित सीटों के
लिए प्रवेश परीक्षा होगी। इस परीक्षा में भी हाई मेरिट के एस.सी.-एस.टी. या
ओ.बी.सी. के छात्र जनरल कोटे में चुन लिये जाएंगे। हो सकता है, कि जनरल मेरिट में अपनी उच्च जातियों के तीन छात्र ही सफल होते हैं,
तो चौबे जी, कुल 22 सीट
में से हमारे वंशजों को अब मात्र तीन सीट से ही संतोष करना पड़ेगा। जैसे कि अब तक
दो-तीन सेवा टहल करने वाले आज्ञाकारी अनारक्षित बच्चे, हम
लोग ले लिया करते थे, अब वैसा ही हमारे साथ होने वाला है।
चैबे और मिश्रा ने एक स्वर में इस व्यवस्था पर तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा
कि अब तो हमारा सर्वनाश समझिए। अब कल से ही अपने निर्देशन में धोबी-धानुक और
चूहडे़, चमारों के उन दलित बच्चों को पी. एच.डी. अनिवार्यतः
करानी होगी, जिन्हें हम और हमारे पूर्वज अब तक डांट-फटकार कर
इन सबको विभागों से बाहर निकाल देते थे। क्या होगा सर? क्या
अब हमें अपनी शेष नौकरी, इन्हीं चूहड़े, चमारों के बच्चों को डिग्रियां बांटने के लिए करनी होगी। आचार्य दुबे ने
भावुक होते हुए कहा अब तो ऐसे ही आसार बन रहे हैं मिसुर महाराज।
क्या कहा जाए, कुलपति ऐसा डरपोक आया है कि यू.जी.सी. के आदेशों को गीता के उपदेशों की
तरह ज्यों का त्यों मान बैठा है। इसने तो सारी स्वायत्तता यू.जी.सी. को गिरवी ही
रख दी है। यह बहस अभी चल ही रही थी कि एम.ए. के एक विद्यार्थी ने घनानंद वाले टीचर
हनुमन्त लाल मिश्रा को अपने पीरियड की याद दिलाते हुए क्लास लेने का आग्रह किया।
उस विद्यार्थी को डांटते हुए वहां जुटे सभी अध्यापकों ने एक स्वर में कहा कि आज
क्लास लेने का मूड नहीं है और सुनो, चौबे जी का पीरियड भी
नहीं लगेगा, आचार्य दुबे सर, मीटिंग
में जाने वाले हैं। बड़ा आया पढ़ने वाला। क्या नाम है रे तेरा? चौबे जी ने टोकते हुए बीच में ही कहा इसे नहीं जानते हो डॉ. अनामिका
तिवारी का भतीजा है, ‘कमल तिवारी‘।
क्यों रे कमल, कुछ अखबार बगैरा भी पढ़ता है कि घनानंद के
विरह में ही डूबा रहता है। सर आपको पता ही है, चाची को अखबार
और पत्रिकाओं से भारी चिढ़ है, कहती हैं कि जो वक्त अखबार
पढ़ने में लगेगा, उतने में निराला और अज्ञेय के नोट्स रट
लोगे। सो-सर, कभी कभार लायब्रेरी में या पड़ौस के रामदेव
चाचा के यहाँ शाम को अखबार देख पाता हूँ। अरे मूरख-आजकल सारे अखबारों में पीएच.डी.
में आरक्षण को लेकर खबरें छप रही हैं और तुम जैसे अज्ञानी, अज्ञेय-निराला
के लिए उलझे पड़े हो। क्या करोगे एम.ए. करके, जाओ वापस अपने
घर चले जाओ और जजमानी का काम संभालो। यहाँ तो अब धोबी-चमार पासी और धानुकों के
बच्चे ही पढ़ा करेंगे, क्योंकि उन्हें अब आरक्षण के कारण पी.एच.डी.
में आसानी से प्रवेश मिल जाएगा। कमल तिवारी को विद्वान मण्डली के साथ उलझा देखकर
कक्षा के अन्य विद्यार्थी भी आ जुटे। बस फिर क्या था। चौबे जी ने अपनी क्लास यहीं
लेना आरम्भ कर दी। ‘‘सुनो बेटा, ध्यान
से सुनो- अब हिन्दी विभाग में हमारे बच्चों का दबदबा खत्म होने वाला है। पीएच.डी.
में प्रवेश के लिए अब या तो तुम जे.आर.एफ. निकालो या फिर पीएच.डी. इन्ट्रेंस एग्जाम
उत्तीर्ण करो, जो कि तुम सबके लिए बहुत ही कठिन कार्य
है। रिजर्वेशन के कारण तुम्हारी सारी
सीटें अब आरक्षित कोटे के दलित -पिछड़े विद्यार्थी ही खा जाएंगे। एम.ए. में किस
लिए पढ़ रहे हो? पीएच.डी. के लिए ही न, समझ लो, अब तुम्हारे सपनों पर पानी फिरने वाला है। ’’चौबे जी का बातूनी चर्खा चल ही रहा था कि तभी संस्कृत विभाग के चोटीधारी
आचार्य विद्याधर चौबे जी आ टपके। सभी छात्रों ने लपक कर उनके चरन छू कर आशीर्वाद
लिया। उन्होंने चौबे जी से पूछा क्या चर्चा चल रही है चौबे जी। चौबे ने मातमी स्वर
में उत्तर दिया आचार्य जी आपको तो पता ही है यू.जी.सी. ने पी.एच.डी. प्रवेश के लिए
जो आरक्षण कर दिया है, उसी पर बवाल मचा हुआ है, वही हम लोग अपने इन बच्चों को अवगत करा रहे थे। आचार्य विद्याधर चौबे हवा
में अपनी चोटी लहराते हुए अपनी सफेद धोती हाथ में समेटते हुए कहने लगे अरे वही तो आपसे बताने आए हैं।
हमारे विभाग में भी आरक्षण को लेकर बवाल मचा हुआ है। विद्याधर चौबे ने चर्चा में
तैयारी का ब्यौरा देते हुए बताया कि हमारे विभागाध्यक्ष आचार्य माता अम्बर
चतुर्वेदी ने तो मन बना लिया है कि अब संस्कृत की पी.एच.डी. थीसिस केवल संस्कृत
भाषा में ही लिखी जाएगी, जो अब तक हिन्दी में प्रस्तुत की
जाती रही है। दुबे जी ने जानना चाहा, कि इससे आरक्षण पर क्या
फर्क पडे़गा चौबे जी? डॉ.साहब ने स्पष्ट करना चाहा पडे़गा
क्यों नहीं? चमार-पासी के बाप-दादों ने संस्कृत तो पढ़ी नहीं,
यह तो हमारे बाप-दादों की जुबान रही है, सो मन
मारकर चमार- पासी थीसिस लिखाने तो हमारे पास ही आएंगे। और आप जानते ही हैं कि
संस्कृत को भी हिन्दी माध्यम से हम लोग पढ़ाते हैं, इसलिए हर
कोई अध्यापक थीसिस लिख नहीं पाएगा। ले देकर वही आचार्य रामभजन दुबे और वेद के
विशेषज्ञ आचार्य रामाज्ञा शुक्ल बचते हैं। सो शुक्ला जी इसी जून में रिटायर हो रहे
हैं। बचे राम भजन आचार्य, सो आप जानते ही हैं, उन्हें जजमानी और ज्योतिषी से ही फुर्सत नहीं है। कुल मिलाकर ‘ना नौमल तेल होगा न राधा नाचेगी‘। दुबे जी ने कहा
देख लो,मिश्र यह है संस्कृत विभाग की मेधा, जो हर वक्त अपनी द्विज संस्कृति और ब्राह्मणों की महिमा पर आंच नहीं आने
देती। इतने में चौबे जी बोल पड़े। आचार्य चौबे जी हम हिन्दी वाले किस कुएं में
गिरें। है कोई ऐसी राह कि हमारे नन्हें-मुन्नें भी भविष्य में डॉक्टर लिखने का सुख
उठा सकें। चौबे जी ने बात को बिना उलझाए आगे बढ़ाते हुए कहा कि देखिए चौबे जी
हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े नवाबों और गोरे अफसरों को छकाए रखा। देश में कितनी
हुकूमते बदली? कितने राजे-महराजे आये और गये ? आप जानते ही हैं, पर यदि कोई चीज नहीं बदली, तो वह है हमारा सामाजिक वर्चस्व, हमारा पाण्डित्य,
हमारी चोटी, हमारा जनेऊ, चौबे जी ने इस बीच चुहल करते हुए इतना और जोड़ दिया कि और न ही बदली
विद्याधर की नारदी चाल, बिल्कुल सबसे अलग, सबसे तेज। विद्याधर चौबे ने अपनी बात का सिरा जोड़ते हुए कहना जारी रखा।
दुबे जी आपको पता है, सन् पचास में भारत का नया संविधान लागू
हो गया। उसके अनुसार सभी देशवासी समान और बराबरी के हैं, पर
देखो वह हमारी शास्त्रीय परम्परा और पूज्य मनु महाराज की मनुस्मृति की महिमा। आज
भी क्या मजाल कि गांव में कोई चमार-पासी, हमारी जात का बदन
छूले। ससुरे दो मील दूर से पांव लागन महाराज कह कर हाजरी बजाते हैं। और तो और,
हमारे गांव का बिना पढ़ा पण्डित भी हम जैसे आचार्यो से कहीं अधिक इस
समाज में पूजनीय है। आरक्षण के इस जंजाल से भी हमारे रामजी हमें बचा ही लेंगे। ‘‘ऐसा कहकर वे धोती हाथ में पकड़ते हुए अपनी नारदी चाल में स्टाफ क्लब की ओर
चल दिए।
इसी बीच हिन्दी विभाग के
चपरासी दीनानाथ दुबे ने विभागाध्यक्ष का एक आदेश दुबे जी के हाथों में सौंपते हुए
कहा-पण्डित जी कल दोपहर ढ़ाई बजे एक बैठक है, उसी की सूचना
लिए घूम रहा हूं। चौबे तथा मिश्रा, आदेश को पढ़ने के लिए
दुबे जी की ओर उत्सुकता से देखने लगे। दुबे जी ने लम्बी सांस लेते हुए कहा-चौबे जी कल विभागीय
अध्यापकों की बैठक है, उसमें बैठक का एकसूत्रीय एजेण्डा पीएच.डी.
में रिजर्र्वेशन ही है। चलो चले,विभागाध्यक्ष से कल की
मीटिंग का ब्यौरा जानते हैं । तीनों एक साथ अध्यक्ष के कक्ष की ओर चल पड़े। हिन्दी
विभागाध्यक्ष आचार्य चक्रपाणि चौबे अपने तिकड़मी स्वभाव के लिए सारे उत्तर भारत
में चर्चित हैं। सिलेक्शन कमेटी में जहां भी गए, अपने
सहयोगियों को ही सपोर्ट किया है। हर वक्त ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं कि विरोधी खेमा
या तो हां में हां मिलायेगा या फिर अभिमन्यु की तरह मारा जायगा। अभी पिछले महीने
ही वे अपने सगे दामाद को भारत के एक प्रख्यात विश्वविद्यालय में कैडर के पद पर
रीडर बनाकर बिठा आए। अपने सगे साढू़ के लड़के को इसी हिन्दी विभाग में प्राइमरी से
उठाकर लेक्चरर के पद पर ज्वाइन करा दिया। कल तक जो कक्षा तीन में ‘पंचपरमेश्वर’ की कहानी ठीक से नहीं पढ़ा पाता था,
अब वही इस विभाग में प्रेमचन्द का विशेषज्ञ घोषित कर दिया गया है। डॉ.
हनुमन्त लाल मिश्रा उनके सगे फूफा के लड़के हैं, जो विभाग
में नियुक्ति से पूर्व स्थानीय रामलीला में हनुमान का रोल किया करते थे। वे इस
विभाग में अध्यक्ष जी के लिए अभी भी हनुमान के रोल में ही उपस्थित रहते हैं। यह
बात अलग है कि हनुमान चालीसा के केवल सात दोहे ही उन्हें याद हैं। बिना हनुमान
चालीसा के याद किये ही हिन्दी का यह हनुमान, अध्यक्ष जी की
कलम से कहीं अधिक ताकतवर है। चक्रपणि का चक्र बेअसर होने पर इस हनुमान की गदा ही
काम आती है। जब भी विभाग में किसी भी ओर से कोई संकट उपस्थित होता है, यही हनुमान, संकट मोचन बनकर सबसे आगे खड़ा मिलता है।
लेकिन पीएच.डी. का ऐसा विकट संकट इस विभाग पर छाया हुआ है कि न तो चक्रपाणि का
चक्र काम आ रहा है और न हनुमान की हुंकार, और न दुबे की अब
तक की शिक्षा-दीक्षा, सबके हथियार कुंद पड़ गए हैं। न अर्जुन
का गाण्डीव काम आ रहा, न कृष्ण का चक्रसुदर्शन और न शिव जी
का त्रिशूल, सभी देवी-देवता और भगवान, भारतीय
संविधान के आगे अत्यन्त बौने साबित हो चले हैं। चक्रपाणि चैबे अपनी गद्दी की अकड़
में ऐसे अकड़े हुए हैं, कि बस पूछिए मत। विभागीय शिक्षकों को
अपने कमरे में आता देख वे अपनी गद्दी पर बैठे ही बैठे उछल कूद करने लगे। हनुमन्त
लाल मिश्रा-चौबे जी तथा दुबे जी ने अध्यक्ष के कमरे में प्रवेश किया। थोड़ी देर
बैठने के बाद दुबे जी ने चुप्पी तोड़ते हुए कल होने वाली मीटिंग के विषय में
अध्यक्ष जी से चर्चा छेड़ दी। अध्यक्षजी ने दुबे जी की बात अत्यन्त ध्यानपूर्वक
सुनी। चौबे तथा मिश्रा जी की भी इस विषय पर राय जानी। इस बीच विभाग के अन्य
अध्यापक भी अध्यक्ष जी के कमरे में आ जुटे। आरक्षण के मुद्दे पर विभागीय सवर्ण
अध्यापकों के बीच अनौपचारिक चर्चा-परिचर्चा होने लगी। एक-डेढ़ घण्टे तक समुद्र
मंथन होता रहा, पर इस मंथन में न तो लक्ष्मी निकली, न कोई हाथी-घोड़ा। हिन्दू पण्डितों के इस हिन्दी विभाग में पहली बार पीएच.डी.
में आरक्षण लगने जा रहा था। उन सबके लिए तो यह जहर ही था, जिसे
अब कोई भी शंकर अपने हलक में उतारने को तैयार नहीं था। करें तो क्या करें? इसी मगजमारी में शाम हो चली। अन्त्तोगत्वा डॉ. मुरलीधर उपाध्याय को एक
युक्ति सूझी जिसे वे अपने सभी सजातीय अध्यापकों को सगर्व बताते हुए कहने लगे-अध्यक्षजी,
मेरी समझ में तो यही आता है कि जो पीएच.डी. एन्ट्रेंस परीक्षा होने
जा रही है, उसके दो हिस्से हों। एक तीस अंक का लिखित प्रश्न
पत्र तथा दूसरा सत्तर अंक का साक्षात्कार लिया जाए और दोनों में पृथक-पृथक
उत्तीर्णांक रखे जाएं। उत्तीर्ण हुए अभ्यर्थियों को किसी गाइड से लिखित सहमति लेना
अनिवार्य हो, किसी भी गाइड को कोई रिसर्च स्कॉलर उसकी मर्जी
के खिलाफ न थोपा जाए। उपाध्याय जी की इस तकनीकी सलाह को सबने पसंद किया, पर दुबे जी ने अपनी शंका जाहिर करते हुए जानना चाहा कि यदि आरक्षित कोटि
के अभ्यर्थी हमारी दोनों परीक्षाओं में पास हो गए, तब क्या
होगा? इस पर हनुमन्त लाल मिश्रा ने कहा कि गुरूजी
साक्षात्कार में तो अंक हमें ही देना होंगे, जब हम उन्हें
उत्तीर्णांक न देकर तीन-चार अंक ही देंगे, तब भला वे कैसे
पास माने जाएंगे। अपने भक्त हनुमान उर्फ हनुमन्त लाल मिश्रा की तर्कपूर्ण बात
सुनकर अध्यक्षजी अपनी गद्दी पर ही फिर उछल-कूद करने लगे। कहा बस, कल की मीटिंग वैसे आज ही हो गई, हां कल इसी प्रस्ताव
को आप सभी को ज्यों का त्यों पारित करना है।
अगले दिन नियत समय पर अध्यक्ष
के कमरे में विभागीय अध्यापकों की बैठक सम्पन्न हुई और उसमें एक दिन पूर्व जो
अनौपचारिक प्रस्ताव विचारार्थ रखा गया था, उसे सभी ने ध्वनि
मत से औपचारिक रूप से स्वीकृत कर लिया।
हिन्दी
एम.फिल में अध्ययनरत हीरामन पासी, आरक्षण के विरोध में चल
रहे सवर्णो के अभियान पर पैनी नजर रखे हुए था। वह अपने दोस्त और क्लासफैलों वीरपाल
धानुक के साथ अन्य विभागों के दलित तथा पिछडे वर्ग के विद्यार्थियों में गहरी पैठ
जमा चुका था, वह हर वर्ष अम्बेडकर जयन्ती और रविदास जयन्ती
पर छात्रों की भीड़ एकत्र कर शहर के दलित चिंतकों तथा समाजसेवियों को
विश्वविद्यालय में आमंत्रित करता रहा। इन आयोजनों से विश्वविद्यालय में दलित
आंदोलन को नई ऊर्जा मिलती रहती थी। उसने अपने विभाग की आरक्षण विरोधी मुहिम का
जोरदार विरोध करना चाहा, पर उसको हर बार ही सवर्ण अध्यापकों
ने धमका कर हतोत्साहित कर दिया। हीरामन पासी अपने भविष्य को लेकर चिंतित था, आरक्षण का यह विरोध ही उसका भविष्य
चैपट करने वाला था। अगर वह एम.फिल्. कर भी लेता है, तो फिर
बिना रिजर्वेशन उसे पीएच.डी. कौन कराएगा? उसे अच्छी तरह से
पता है कि उसके सीनियर छात्र बालचन्द वाल्मीकि तथा रतन कनौजिया को किस तरह
प्रताडि़त किया गया था। वे दोनों ही पीएच.डी. में प्रवेश नहीं पा सके। उनमें से
बालचन्द वाल्मीकि राज्य परिवहन निगम में कण्डक्टरी कर रहा है और उसका दूसरा साथी
रतन कनौजिया कहीं रोजगार नहीं पा सका। वह अपने गांव वापस चला गया। बेचारा एम.ए. की
डिग्री लेकर मनरेगा में काम तलाश रहा है। जबकि उसके सवर्ण साथी रामफल दुबे ‘रामचरित मानस में दलित चेतना’ पर अपने ही जीजा,
डॉ. हनुमन्त लाल मिश्रा के निर्देशन में हिन्दी में पीएच.डी. कर रहा
है, एक अन्य साथी कमान सिंह भदौरिया आचार्य कामेश्वर सिंह के
निर्देशन में ‘मीरा की भक्तिभावना‘ पर
रजिस्टर्ड हो चुका है। आचार्य कामेश्वर सिंह, रिश्ते में
कमान सिंह के पिताजी के सगे समधी हैं। क्लास में कभी न आने वाली विष्णु प्रिया भी
औसत अंक पाकर भी गदाधर दुबे के निर्देशन में बिहारी के नख-शिख वर्णन पर शोध पूरा
कर चुकी है और इस समय गेस्ट फैकेल्टी के रूप में अज्ञेय को पढ़ा रही है। सुना है,
अध्यक्ष जी उसे लेक्चरर के स्थायी पद पर नियुक्त कराने के लिए
चक्रव्यूह रच चुके हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी विभाग की पीएच.डी.
डिग्रियाँ, गुरूजन अपने ही कुल खानदान वालों को अब तक प्रसाद
की तरह बांटते रहे हैं। इसी बन्दर बांट को रोकने के लिए यू.जी.सी. ने पीएच.डी. में
प्रवेश हेतु आरक्षण का प्रावधान सख्ती से लागू कर दिया है। इस समय सभी विभागों के
बड़े-बड़े प्रोफेसर तथा डीन आदि अपने सभी अकादमिक कार्यो को छोड़कर आरक्षण की काट
खोजने में जुटे हुए हैं। उनका तर्क है कि पीएच.डी. में आरक्षण से शोध का स्तर बहुत
नीचे गिर जाएगा। यह बात अलग है कि हिन्दी विभागों के शोध का स्तर इन पण्डितों ने
पहले ही इतना गिरा रखा है कि पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में एक भी थीसिस इस लायक
नहीं है, कि उसे मौलिक तथा स्तरीय कहा जाए। तथापि सवर्ण
अध्यापकों का यह दावा है कि आरक्षण के कारण अकादमिक क्षेत्र में भारी गिरावट आ
सकती है, यह उनकी
कोरी बकवास तथा असंगत और अतार्किक बात है।
तीन माह बाद पीएच.डी.में
प्रवेश हेतु विभागीय प्रस्ताव के अनुसार सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई। परीक्षा
परिणाम से विदित हुआ कि आरक्षित श्रेणी के मात्र तीन ही अभ्यर्थी उत्तीर्ण हो पाए,
शेष सीटों पर सभी सवर्ण अभ्यर्थी काबिज हो गए।
विभाग में द्विज अध्यापकगण
अपनी योजना को कार्यरूप में सफल होते देखकर फूले नहीं समा रहे थे। आरक्षित श्रेणी
के उत्तीर्ण छात्रों में एक अभ्यर्थी मुरलीधर उपाध्याय को अपनी मोटर साइकिल से
उनके आवास से विभाग, बिना नागा लाया करता था। शेष दो अभ्यर्थियों
के गार्जियन सचिवालय में ऊंचे ओहदों पर विद्यमान थे।
कुल तीस रिक्त सीटों में 15 पर, आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थी लिए जाने थे,
इस तरह से 12 स्थान रिक्त घोषित कर दिए गए। इस
अप्रत्याशित परिणाम की पूरे विश्वविद्यालय में चर्चा गर्म रही। हीरामन पासी नाम का
विद्यार्थी इस प्रकरण पर पैनी नजर रखे हुये था। उसने अपने तीन-चार साथियों को लेकर
विभाग में हंगामा खड़ा कर दिया। पूरी एण्ट्रेस परीक्षा को उसने सवर्ण अध्यापकों की
साजिश बताते हुए इसकी उच्च स्तरीय जांच कराए जाने की विश्वविद्यालय प्रशासन से मांग
कर डाली। इस प्रकरण पर दो दिन तक लगातार हंगामा होता रहा। कुलपति ने इस बवाल पर
चुप्पी साध ली। अन्त्तोगत्वा हीरामन पासी ने अनुसूचित जाति आयोग में इस पूरे
प्रकरण की लिखित शिकायत की। आयोग ने लिखित और साक्षात्कार परीक्षा में दिए गए
अंकों की अंकतालिका देखनी चाही, जिसे अगले दिन रजिस्ट्रार ने
आयोग में प्रस्तुत किया। जाँच करने पर अत्यन्त चौकाने वाले तथ्य उजागर हुए।
आरक्षित श्रेणी के अधिकांश अभ्यर्थियों को साक्षात्कार में तीन से सात अंक ही दिए
गए थे, जबकि लिखित परीक्षा में उन्होंने 30 में कम से कम 22 अंक तक प्राप्त किये थे। आयोग ने
इसका संज्ञान लेते हुए विश्वविद्यालय की उक्त प्रवेश परीक्षा की केवल लिखित
परीक्षा कराए जाने की सलाह दी। साथ ही जिन अध्यापकों ने साक्षात्कार बोर्ड के
माध्यम से तीन से सात अंक दिए थे, उन्हें भविष्य में परीक्षा
जैसे पवित्र कार्य से पृथक रखने की सिफारिश की। आयोग के इस कदम से .हिन्दी विभाग
के तीन-अध्यापक परीक्षा कार्य से सात वर्षां के लिए विरत कर दिए गए। इन अध्यापकों
में मुरलीधर उपाध्याय, हनुमन्त लाल मिश्रा तथा दुबे तीनों
दोषी पाए गए। विभागाध्यक्ष आचार्य चक्रपाणि चौबे को अध्यक्ष पद के कर्तव्य निर्वहन
में अयोग्य पाए जाने पर अध्यक्ष पद से विश्वविद्यालय द्वारा बर्खास्त कर दिया गया।
हीरामन पासी और वीरपाल धानुक
की हिम्मत से हिन्दी विभाग के जातिवादी, अध्यापकों को ‘आयोग‘ ने सबक सिखा कर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का
निर्वाह किया। विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के इस प्रकरण पर कई दिनों तक
क्रिया-प्रतिक्रिया होती रही। कुलपति ने अगले सत्र में पीएच.डी. में प्रवेश
परीक्षा के लिए पारदर्शी नीति बनाए जाने के नए दिशा निर्देश जारी कर दिए तथा
साक्षात्कार नीति को अवैध घोषित कर तत्काल बन्द कर दिया गया। इस बीच खबर मिली है
कि बर्खास्त किए गए विभागाध्यक्ष आचार्य चक्रपाणि चौबे ने इस घटना से मर्माहत होकर
पंखे से लटक कर आत्महत्या करनी चाही, पर उनका पुश्तैनी भवन
इतना जर्जर था कि उनके पंखे से लटकते ही पंखा लोहे के कुण्डे के साथ ही नीचे आ
गिरा, इस कारण उनकी जान बच गई। सुना है पुलिस उनके घर पर
आत्महत्या प्रकरण को लेकर चक्कर काटती रहती है। आचार्य पशुपति नाथ दुबे की इस बीच
डाइबिटीज़ बढ़ गई, इस कारण वे अस्पताल में 10 दिन से भर्ती हैं। हनुमन्त लाल मिश्रा इसी तनाव में स्कूटर से गिर पड़े
और उनकी दाएं हाथ की उंगली कट गई, अब वे कलम पकड़ने में
असमर्थ हो गए हैं। हिन्दी विभाग पर आरक्षण की ऐसी मार पड़ी कि अध्यक्ष के पद पर
कोई सीनियर बैठने को तैयार नहीं हो रहा है। इसलिए फिलहाल अध्यक्ष का दायित्व कला
संकाय के डीन प्रो. उमानाथ मिश्रा ने संभाल रखा है।
हीरामन पासी हिन्दी विभाग में
दलित तथा पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों में हीरो के रूप में प्रसिद्ध हो गया है।
संपर्क -डॉ.
कालीचरण ‘स्नेही,‘प्रोफेसर,हिन्दी विभाग, लखनऊ
विश्वविद्यालय, नालन्दा 45 शिवम सिटी,सेक्टर - 6, जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ -226021,मों. 09415548256
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