मीडिया का आपसी टी.आर.पी. युद्ध उसकी रणनीति को तय
करता है। रणनीति ने उसे जनता से अधिक दो संघटकों का गुलाम बनाया है। एक तो है उसके
पूर्णकालिक पोषक ‘धनपतराय’ और दूसरे उसके संरक्षक ‘मानवेन्द्र मंत्री’ जी। इन दोनों की ही लगाम मीडिया पर कसी हुई है। इसी नियंत्रण ने मीडिया की उस
संस्कृति को जन्म दिया है जो अधिक-से-अधिक विज्ञापन बटोरकर टी.आर.पी. की जंग जीतना
ही अपना मूलमंत्र मानती है। उसके लिए चाहिए सनसनीख़ेज। वह मनोरंजन हो या संस्कृति,
खेल हो या राजनीति, मीडिया सबको बिकाऊ माल
बनाने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ता।
‘हम तो पूरा का पूरा लेंगे’ कहनेवाला साहित्य तथा अपने में सारी चीज़ों को
गिनानेवाली संस्कृति के हिस्से में मीडिया से क्या आया? मीडिया ने उसे कितना बनाये रखा और कितना प्रभावित किया और वे इसे कितना
प्रभावित करते रहे हैं? इनमें कहीं सह-अस्तित्व संभव हुआ है? ये कोई नये प्रश्न
नहीं लेकिन यहां उनके उत्तर नये लग सकते हैं क्योंकि यहां इनकी तह तक पहुंचने का
प्रयास मीडिया के अर्थशास्त्र के माध्यम से किया गया है।
‘संघटन में शक्ति है’ का अघोषित प्रण लेकर संस्कृति को ताक पर रखनेवाले बाबा हो या घूस के गोदाम में
बैठकर आग से खेलनेवाले नेता-अधिकारी। इनके द्वारा निर्मित संस्कृति का मीडिया और
साहित्य ने हमेंशा से प्रतिरोध किया। लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ? मीडिया
निरुत्पादित कहकर सामान्य जन, साहित्य और संस्कृति को एक हिकारत की नज़र से देखता
है। मीडिया का ताल्लुख़ एक ख़ास साहित्य-संस्कृति से है जिसे पेज-थ्री संस्कृति और
लोकप्रिय साहित्य कहा जाता है। जहां मीडिया मजबूरी में इनका प्रतिनिधित्व करता है,
वहीं उनकी बखिया उधेड़ने के मौकों को भी नहीं छोड़ता। लेकिन ऐसा अपवादस्वरूप ही हो
पाता है। कोई अपने पोषक से कैसे विद्रोह कर सकता और मीडिया तो अस्तित्व की लड़ाई मीडिया
के खिलाफ़ ही लड़ रहा है। ऐसे में कैसा कर्तव्य और कैसा जनता से जुड़ाव? भारतीय अंग्रेज़ी मीडिया का अघोषित किन्तु स्पष्ट दिखनेवाला अभिजात्य ‘भीषण सुन्दर’ है। इसने भारतीय साहित्य-संस्कृति के उस हेय रूप
को दुनिया के आगे परोसने में अति कर दी जिसके तहत भारत अभी भी एक बर्बर राष्ट्र ही
है। त्योहारों की या कुंभ मेलों की लाईव रिपोर्टिंग में सबसे अधिक होड़ इन्हीं में
लगी रहती है। हिन्दी मीडिया इस मामले मे दूध का धुला नहीं है। भारतीय
पर्व-त्योहारों की ख़बरें हिन्दी मीडिया के लिए किसी विज्ञापन से ज्यादा नहीं होती
है। उतनी ही संक्षेप किन्तु उनकी भाषा में निरुत्पादक। सबसे अधिक अंधश्रद्धाओं को
प्रसारित करनेवाले कार्यक्रम यदि हिन्दी मीडिया दिखाता है और हमारी एक ग़लत तस्वीर
भी पेश कर रहा होता है। जन में व्याप्त उसके किसी भी सकारात्मक पहलू को उजागर करने
के लिए वह उतना तत्पर नहीं दिखाई देता। सनसनीख़ेज स्टोरी के चक्कर में उनकी नज़र
में उनकी नज़र में मृत्यु की केवल घोषणा करनेवाला नत्था तो आता है लेकिन उसके ही
बगल में अघोषित संघर्ष से बलि चढ़नेवाला होरी अभी भी छुटा हुआ है। और इस तरह उसका
ही हेय रूप दुनिया के आगे प्रस्तुत है।
‘जनता जो चाहती है हम
वो दिखाते हैं’ का नारा लगानेवाला आज के संपूर्ण मीडिया ने क्या जनता
से कभी पूछा है कि वह क्या चाहती है? शायद ही ऐसा कोई
सर्वे हुआ हो जिससे पता चलता है कि जनता मीडिया से क्या चाहती है। किस आधार पर
जनता के चाहने को मीडिया मनमुताबिक तथ्यों को मरोड़र प्रस्तुत करती है? लेकिन तथ्य
एक बार रोशनी में आने के बाद वे अपने खोज निकालने वाले से भी आज़ाद हो जाते हैं। वे
सबकी सम्पत्ति हो जाते हैं, जनता के आगे पेश हो
जाते हैं। लेकिन उतना मौका मीडिया जनता को नहीं देता है। उसके समक्ष वह उतना ही
उजागर करता है, जितना उसके लिए उपयोगी होता है। सधे कदम रखकर ही मीडिया हर तथ्य को
प्रस्तुत करता है और अपने अर्थशास्त्र को सुरक्षित बनाये रखकर ही व्याख्यायित करता
है।
मीडिया का आपसी टी.आर.पी. युद्ध उसकी रणनीति को तय करता है।
रणनीति ने उसे जनता से अधिक दो संघटकों का गुलाम बनाया है। एक तो है उसके
पूर्णकालिक पोषक ‘धनपतराय’ और दूसरे उसके
संरक्षक ‘मानवेन्द्र मंत्री’ जी। इन दोनों की ही लगाम मीडिया पर
कसी हुई है। इसी नियंत्रण ने मीडिया की उस संस्कृति को जन्म दिया है जो
अधिक-से-अधिक विज्ञापन बटोरकर टी.आर.पी. की जंग जीतना ही अपना मूलमंत्र मानती है। उसके
लिए चाहिए सनसनीख़ेज। वह मनोरंजन हो या संस्कृति, खेल हो या राजनीति, मीडिया सबको बिकाऊ माल बनाने में कोई कसर बाक़ी
नहीं छोड़ता। लेकिन उसका पूर्ण दोष मीडिया पर थोप देना कुछ-कुछ अनुचित जान पड़ता
है क्योंकि अब हम उसके अर्थशास्त्र से अंशतः परिचित हो चुके हैं। यही अर्थशास्त्र मीडिया
का समाजशास्त्र निर्मित करता है। जहां उसे जबरन पेज-थ्री संस्कृति और मनोरंजन की
रणनीति से समझौता करना पड़ता है। जहां उसे अपने विवेक को स्वार्थों के तेल में
बघार डालने पर विवश होना पड़ता है। उसके स्समने अपने रक्षणार्थ किन्हीं
मानवेन्द्रों और धनपतरायों के शरण में जाने के अलावा क्या उपाय रह जाता है? और इस प्रकार ग.मा. मुक्तिबोध
के शद्बों का सहारा लेकर कहा जाये तो मीडिया “स्वार्थों के
टेरियार कुत्तों को पाल लिए, / भावना के
कर्तव्य...दिग दिए, / हृदय के मंतव्य...मार डाले ! / बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया, / तर्कों के हाथ उखाड़ दिए, / जम गए, जाम हुए, फंस गए, / अपने ही किचड़ में घंस गए !! / विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में / आदर्श खा गए।” की स्थिति में जा पहुंचता
है।
मीडिया का अर्थशास्त्र ही है जो उसे लोक से यह कहने के लिए
मजबूर करता है कि “लोगों के दुःख को अपना मानने की बहुत कोशिश की पर
नहीं हुआ” (वैसे श्रीकान्त वर्मा ने यह पंक्तियाँ किसी अन्तर्विरोधों से जुझते
व्यक्ति-रचनाकार के संदर्भ में कही थी)। नतीजन मीडिया ने संस्कृति के ऐसे रूप को
सामने रखा है जहां ग्रीन हंट नहीं बल्कि सिर्फ टैलेन्ट हंट ही दिखाई देता है। ‘तोड़ती पत्थर’ नहीं बल्कि रैंप वॉक - ‘जुही की कली’करती ही दिखाई देती है। किसी भी होरी का संघर्ष
नहीं बल्कि किसी अभिनेता का किसी अभिनेत्री के प्रति बेवफ़ा हो जाना ही दिखता है।
मीडिया की राजनीति के प्रति वफ़ादारी का सबूत किसान
आत्महत्याओं के प्रसंग में बखूबी देखा जा सकता है। महाराष्ट्र के किसान आत्महत्या
के लिए विवश क्यों हैं? इस प्रश्न के उत्तर मीडिया की पार्टिबाज़ी से तय होते हैं। चूंकि राजनीतिक पक्षों की विचारधारा दोगले किस्म की
होती जा रही है, और इसका प्रभाव मीडिया पर भी हुआ है। जहां तत्कालीन विरोधी पक्ष
के तमाम मीडिया का कहना किंवा तथ्यात्मक मत था कि इस सारे प्रकरण के लिए सरकार एवं
उसकी नीतियां कुसूरवार हैं, वहीं सरकारख़ोर मीडिया ने इस तथ्य की ठीक इसके विपरित व्याख्या
की, जो काफ़ी चिढ़ानेवाली है। उसके तमाम मतों में से एक खेदजनक मत यह था कि किसान
आत्महत्या इसलिए करता है कि वह आलस्य का शिकार है। इसी कारण वह साहूकारों से लिया
धन वापस नहीं लौटा पाता। इसे कहते हैं तथ्यों का सत्यान्वेषण! ये अपने अनुसार तथ्यों में से सत्य निकालने में इसीलिए
माहिर हो जाते हैं। वास्तव में वे अपने विवेक से नहीं अपितु अपने पोषकों और
रक्षकों के अनुसार सत्यान्वेषण करते हैं। उन्हें उनके क्षुद्र स्वार्थ ऐसा करने पर
विवश करते हैं। तेलंगाना आन्दोलन के प्रसंग में मीडिया के रवैये को
इसी संदर्भ में व्याख्यायित किया जा सकता है।
मीडिया एक व्यवसाय के रूप में उभरकर सामने आया। वह ज़माना
लद गया, जब वह किसी सामाजिक उद्देश्य के लिए किसी अनुदान पर चला करता था। अब उसे ‘अनु’ नहीं बड़ी पूंजी चाहिए। वह भी ‘दान’ के रूप में नहीं, ‘निवेश’ के रूप में।
लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल का एक स्पोक चैनल होता है और
प्रत्येक चैनल या समाचार पत्र का एक पूंजीवादी निवेशक। इनके अतिरिक्त इस मीडिया का
एक ऐसा भी चालक होता है जो हर काम में एक सीमित क्षेत्र तक बाधा उत्पन्न करता है।
यह है विज्ञापनदाता व्यवसायिओं का दल। ये विज्ञापनदाता एक प्रकार से सम्मिलित रूप
से मीडिया का अर्थशास्त्रीकरण करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। विज्ञापन पाने या उनका
बढ़ा-चढ़ाकर दाम लेने के चक्कर में मीडिया में टी.आर.पी. का युद्ध छिड़ गया है।
इसी का नतीजा है कि मीडिया में विज्ञापन को एक ख़बर की तरह पेश किया जाता है। वह
ख़बरें देने के बजाए नई उपभोग आवश्यकता पैदा करने का एक साधन हो गया है। किसी
अभिनेता से अगर पूछा जाए कि वह जिस वस्तु का विज्ञापन कर रहा है, उसे क्या उसने
खुद कभी इस्तेमाल किया है तो इसका उत्तर सकारात्मक आने की बहुत कम संभावना है। उसे
उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन हेतु भुगतान किया जा जाता है। इस तरह वह बेईमानी करता
है, उन जिज्ञासुओं से जो कुछ सही ख़बर के इन्तजार में
टी.वी. के सामने बैठे हैं या जिन्होंने अख़बार ख़रीदा है। इसका जिम्मेदार मीडिया
का वही अर्थशास्त्र है, जो उसके सामाजिक सरोकारों को भी प्रभावित करता है। इसमें
दिखाए जानेवाले विज्ञापन एक ख़ास किस्म के वर्ग को प्रभावित करते हैं, जिसे
मध्यवर्ग कहा जाता है। और यह वर्ग इनसे प्रभावित भी होता है। व्यक्ति की औसतन आय से अधिक उसमें उम्मिदें
जगाई जाती हैं, और उसे एक प्रकार से ख़बरों का मृगजाल दिखाकर विज्ञापन के बाद
विज्ञापन परोसा जाता है। यहां विज्ञापित वस्तु व्यक्ति की जरूरत नहीं होती, वह तो
जरूरत निर्माण करने का एक ज़रिया होती है। इसप्रकार से विज्ञापन ख़बरिया चैनलों और
पत्रों की अर्थनीती के माध्यम से उसकी नीयति तय करते हैं।
रघुवीर सहाय की कविता मीडिया के अपूर्ण होने का साक्ष्य
देती है। मीडिया में सच्चाई से कार्य करनेवाले एक सच्चे मीडियाकर्मी का अपने
माध्यम की अपूर्णता को लक्षित करके अपनी प्रामाणिक अनुभूति को इतर माध्यम से
व्यक्त करने की बेचैनी के रूप में उनकी कविताओं को देखना मीडिया के कटु यथार्थ से
हमारा साक्षात्कार कराता है। लेकिन उनकी कविता को ‘ख़बर के पीछे की ख़बर’ कहना प्रकारांतर से
मीडिया पर कसी बाज़ार की नकेल की व्यंजना ही है। रामदास की मृत्यु का मीडिया के लिए
कोई महत्व न था, बावनदास के मोहभंग से मीडिया को कोई विक्षोभ न था, फांसी चढ़ती
स्त्री से उन्हें क्या लेना-देना... किंतु इन सबको रघुवीर सहाय ने अपनी कविता में
स्थान दिया। क्या ये भी सबाल्टर्न की अभिव्यक्ति नहीं है? गायत्री स्पिवाक जब पूछती है कि ‘can subaltern speak?’ तो उनके इस सवाल का जवाब सामान्य जन के इस मुहावरे
में दिया जा सकता है – ‘सामान्य आदमी के
फ़ेफ़ड़ों में जब तक हवा है तब तक ही वह चिल्ला सकता है’। इसका सीधा अर्थ है कि जिसके पास माध्यम है वह किसी भी बात को अपने अनुसार मोड़
सकता है और वह अपनी बात कहां तक भी पहुंचा सकता है। प्रकान्तर से ‘नो वन किल्ड जेसिका’ फिल्म भी इस सत्य
को प्रकाश में लाती है कि मीडिया किसी भी सत्य को प्रकाश में ला सकता है, बशर्ते
उसका ‘इन्टरेस्ट’ हो। ‘मोहनदास’ फिल्म का अनिल
मोहनदास की ‘स्टोरी’ में इसलिए भी ‘इन्टरेस्ट’ लेता है कि उसे सनसनीख़ेज स्टोरी मिले और उसके चमत्कार
के माध्यम से वह पत्रकारिता में अपना कैरियर (भविष्य) बना सके। ये पात्र समाज को
बदलने का माद्दा तो रखते हैं, लेकिन उसी भंवर के शिकार हो जाते हैं, जिसने मीडिया
को घेर रखा है।
ये कुछ बातें हैं, जो मीडिया के प्रति हमें नाराज़ करती हैं।
लेकिन सिर्फ ‘अर्द्धसत्य’ को जानकर ही बात पूर्ण नहीं हो जाती। कुछ ऐसे भी मीडियाकर्मी रहे हैं, जो
मीडिया के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को भी ठेंगा दिखाते आये हैं, जिनकी आय औसतन
है, जिन्होंने निचले ओहदे से मीडिया में शुरुआत की, जो अकेले चने के उदाहरण हैं। इन्ही
में आते हैं - शतपा देब, संपद महापात्र, राधिका बारिया, महुया चौधरी आदि। इनकी सन्
1996 से 2007 तक की चुनिंदा रिपोर्टें देखने के बाद मीडिया पर विश्वास बनाये रखने
में सहायता मिलती है। इन टी.वी. पत्रकारों ने “HUNGER-Unacceptable
India” – Reporters Account (20 Years of NDTV) शीर्षक से 96 से 07 तक ‘Voice Of
Villages’ कार्यक्रम के तहत राजस्थान, छत्तीसगढ़, उड़ीसा,
आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि से रिपोर्टों का संकलन किया है, वह आज तक की सरकारों
तथा आज के अधिकतर रिपोर्टरों को शर्मानेवाला है। इन पत्रकारों ने दिखा दिया है कि
– “Look This Is Unacceptable India”। इस संकलन में संबंधित
पत्रकारों के साक्षात्कार भी दिये गये हैं। इन रिपोर्टों में एक जगह उड़ीसा तत्कालीन
मुख्यमंत्री जे. बी. पटनायक का 5-6 सेकंड का साक्षात्कार भी शामिल है, जिसमें वह
कहते हैं कि ‘यहां किसी की भी मौत नहीं हुई है... ’। लेकिन इसके ठीक पहले मीडियाकर्मी महुया चौधरी एक आदमी की
मौत का नज़ारा देखने-दिखाने के लिए विवश हैं। इस रिपोर्ट के कैमरामैन अजमल जानी का
कहना है कि, ‘तो वहां पे...उस टाइम में किसी एक आदमी के घर गये...तो
वो आदमी का कुछ भी नहीं था। तो वहाँ... वहाँ पे उसके घर में एन्ट्री किये, वो वहाँ
पे सो रहा था।...तो इन्टर्व्यू करके हम आगे के गाँव के तरफ़ चले गए...गाँव के तरफ़
जाने के बाद...वहाँ पहुँचे...शुटिंग-उटिंग करके वापस शाम को तब उस टाइम वहाँ पे,
उस आदमी के घर के सामने बहुत भीड़ थी। हमने बोला भाई ... क्या बात है, अभी तक तो
सुबह तक तो हम शुटिंग करके गए थे। वापस आकर देखा तो, वो आदमी मर गया था....मतलब वह
जिन्दा नहीं था...।’ यह व्यक्ति वहीं की रिपोर्टिंग की बात कर रहा है जिसके बारे
में ऊपर जे. बी. पटनायक कह रहे थे। इसीकारण एक मीडियाकर्मी संपद महापात्रा ने ‘मीडिया सरकार की दृष्टि के साथ जा सकती है’ की संभावना जताई है। प्रतिवर्ष 300 करोड़ रुपये जिन आदिवासियों के विकास पर
खर्च करने का दावा जो महाराष्ट्र सरकार करती है, उसकी पोल खोलने का काम यह रिपोर्ट
करती है। एक तरफ जयपुर की विलासताएं और उनकी टोह में आनेवाले टूरिस्ट और दूसरी तरफ
3 महिनों में तकरीबन 500 बच्चों की कुपोषण और अन्न के अभाव में मौत! राजस्थान की यह तस्वीर पेश की है राधिका बोर्डिया ने। ऐसे
कई मीडियाकर्मी हैं जो एक जगह काम नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें वह स्वतंत्रता नहीं
मिल पाती जो पत्रकारिता की जान है।
अन्त में इब्ने इंशा के शद्बों में एक ही बात कहना चाहूंगा –
‘‘इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्जा हैं
कहीं बादल घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं उँचे महल अटरिया है
कहीं महफ़िल है, कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाज़ार सजे
यह रेशम है , यह दीबा है
कहीं गल्ले के अंबार लगे
सब गेहूं धान मुहय्या है
कहीं दौलत के संदूक़ भरे हैं
हां तांब़ा, सोना , रूपा है
तुम जो मांगो सो हाज़िर है
तुम जो चाहो सो मिलता है
इस भूख की दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सपना है?
वह किस धरती के टुकड़े हैं
यह किस दुनिया का हिस्सा है? ”
इन विरोधों को अपने में समोये हुए जग के तमाम विरोधों को
हमारे सामने प्रस्तुत करने की उम्मीद क्या हम मीडिया से कर सकते हैं। क्या मीडिया
बेहतर मानवी संस्कृति के निर्माण में सहायक होगी?
संपर्क - मोबिन जहोरोद्दीन, शोध छात्र, हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
-46.
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