राग दरबारी में स्त्री पात्रों की स्थिति - आशुतोष शुक्ल
सच्चे अर्थों
में राग
दरबारी में स्त्री पात्रों का सर्वथा अभाव है। कुछ गिने-चुने पात्रों का नामोल्लेख
भर है। लैंगिक पक्षपात का इससे बढ़कर कोई उदाहरण नहीं हो सकता कि इतने बड़े
उपन्यास में किसी भी नारी पात्र को स्वर तक प्रदान नहीं किया गया है। इस उपन्यास
में कहने भर को कहीं-कहीं 'बेला,
'मेला वाली
लड़की, 'भड़भूजे की लड़की,
'काली-कलूटी
औरत’ आदि का जिक्र हुआ है।
स्त्री का संसार बहुत से अनुभवों से अछूता रहा है। उसे जीवन के विविध राग-रंगों से एक
सोची-समझी साजिश के तहत वंचित रखा गया है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने समाज में ऐसी
संरचना का निर्माण किया जिसने नारी के शोषण को दीर्घजीवी बना दिया। यह पितृसत्ता
इतनी अधिक जटिल है कि तमाम स्त्री मुक्ति के दावों के बावजूद इसके तत्व आज भी समाज
में मौजूद है। इस पितृसत्ता की नींव पर खड़ी परिवार व्यवस्था एवं विवाह-संस्था
नारी के शोषण को सहज, स्वाभाविक एवं अनिवार्य बना देती है। पितृसत्ता के इन
उपकरणों से स्त्री का ऐसा अनुकूलन किया जाता रहा है कि वह पुरुष वर्चस्व को पुरुष
संरक्षण के रूप में देखती आई है।
इस पितृसत्ता ने स्त्री को मां,
बहन, बेटी आदि कई रूप प्रदान किए किन्तु कभी भी उसे 'इन्सान के रूप में नहीं देखा। उसकी कर्तव्य परायणता,
समर्पण, ममता की प्रशंसा की परन्तु उसे सामाजिक पहचान से वंचित रखा।
घर की चारदीवारी में कैद कर उसके अन्नपूर्णा रूप को प्रोत्साहित कर उसे समाज के
केन्द्र से हाशिए की ओर ढकेल दिया। पुरुष ने सत्ता पक्ष के सभी हथियार अपने नियंत्रण
में रखे और इन्हीं हथियारों से स्त्री को लैंगिक पक्षपात का शिकार भी बनाया। स्त्री
इन सत्ता सूत्रों को कभी हासिल नहीं कर सकी। इसीलिए पुरुष निरन्तर शक्तिशाली होता
चला गया एवं स्त्री कमजोर बनी रही। समाज ने शुरू से ही पुरुष एवं स्त्री के लिए
दोहरे मानदण्डों का प्रयोग किया है। पुरुष आरोपों के घेरे से बाहर रहा है एवं स्त्री
उन आरोपों को भी अपने सिर पर लेने के लिए बाध्य हुई जिनका उससे दूर-दूर तक कोई संबंध
भी नहीं है।
स्त्री पुरुषों के व्यंग्य की परिधि में रही है। उपहास,
आलोचना एवं छेड़छाड़ को स्वाभाविक तौर पर लेना उसके
सामाजीकरण के अनिवार्य पहलू है। उसके सौन्दर्य को उपभोक्तावादी नजरिए से देखना एवं
उसकी मांसल देह का उपभोग करना ही पुंसवादी मानसिकता का चरम लक्ष्य रहा है।
शिक्षा से दूर रख कर स्त्री के शोषण की समयावधि को बढ़ाया
गया है। जब शिक्षा दी भी गयी तब लड़का एवं लड़की में भेदभाव किया गया। लड़कों को 'साइंस पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया तो लड़कियों को 'होम साइंस। सांइस पढ़कर लड़के डाक्टर,
इंजीनियर, वैज्ञानिक बने तो 'होम सांइस पढ़कर लड़कियां भोजन बनाने तक सीमित रही और इसका
भी उन्हें कोई आर्थिक मूल्य नहीं मिला। इसके साथ स्कूलों में जो सांस्कृतिक
संस्कार दिए जाते है वे स्त्री विरोधी होते हैं। इस प्रकार स्कूली शिक्षा स्त्रियों
में हीनभावना तथा पुरुषों में श्रेष्ठता की भावना जगाने का माध्यम बनती है जिसकी
अभिव्यकित भावी जीवन में कदम-कदम पर होती है।
समाज में जितनी भी नवीन तकनीकें आई उनमें लड़कों को दीक्षित
किया गया और लड़कियां पारम्परिक शिक्षा तक ही सीमित रही। इसका प्रभाव इनकी कार्य
करने की शैली एवं कुशलता पर पड़ा। नयी तकनीक से लैस पुरुषों को नये-नये व्यवसायों
में वरीयता मिली और स्त्रियां अकुशल श्रम तक सीमित रही। स्त्रियां समाज में
प्रशासनिक, प्रबंधात्मक एवं निरीक्षणात्मक शक्तियों को अर्जित नहीं कर
सकीं।
बाजार-व्यवस्था ने स्त्री को मंच तो प्रदान किया किन्तु यहां
भी स्त्री के समग्र व्यक्तित्व के स्थान पर उसके मोहिनी रूप को ही विज्ञापित किया
गया है। यहां भी वह लैंगिक पक्षपात का शिकार होती है,
अन्तर केवल इतना है कि शोषणकर्ताओं के चेहरे बदल जाते हैं।
निर्णय की स्वतंत्रता से अभी भी स्त्री बहुत दूर है। धर्म को भी उस आवरण की तरह
प्रयोग किया गया है जिससे स्त्री का शोषण किया जा सके।[i]
'राग दरबारी उपन्यास में स्त्री पात्रों को इसी संदर्भ में
देखा जा सकता है। इस उपन्यास में स्त्रियों की स्वतंत्र सत्ता न होकर वे पुरुषों
के अधीन है।
सच्चे अर्थों में राग दरबारी में स्त्री पात्रों का सर्वथा अभाव है। कुछ
गिने-चुने पात्रों का नामोल्लेख भर है। लैंगिक पक्षपात का इससे बढ़कर कोई उदाहरण
नहीं हो सकता कि इतने बड़े उपन्यास में किसी भी नारी पात्र को स्वर तक प्रदान नहीं
किया गया है। इस उपन्यास में कहने भर को कहीं-कहीं 'बेला, 'मेला वाली लड़की, 'भड़भूजे की लड़की, 'काली-कलूटी औरत’ आदि का जिक्र हुआ है।
इस उपन्यास में शुरू से अन्त तक बेला का प्रेम और विवाह
प्रसंग चलता है। सबसे रोचक तथ्य यह है कि बेला पूरी उपन्यास यात्रा में कहीं नहीं
बोलती। उसकी खामोशी लैंगिक भेदभाव को जगजाहिर करती है। उसके जीवन के निर्धारण का
निर्णय उसके अपने हाथ में नहीं है। बेला के बारे में तमाम तरह की अफवाहें फैलायी
जाती हैं, अदालत में छोटे पहलवान 'बेला एक बदचलन लड़की है’ का
वक्तव्य भी जारी करते हैं, वैधजी बद्री पहलवान का विवाह प्रस्ताव भी उसके घर लेकर आते
हैं, लेकिन सभी जगह वह नेपथ्य में है। वह उपन्यास में होकर भी नहीं है, रचना में आकर
भी कहीं पर अपनी बात नहीं कहती। पितृसत्तात्मक संरचना में विवाह का प्रश्न बहुत
महत्त्वपूर्ण होता है क्यों कि यह निर्णय से जुड़ा प्रश्न है।[ii]
यह वस्तुत: इस बात का प्रतीक है कि समाज में स्त्रियों को
बोलने के अवसर, स्वयं निर्णय लेने का अधिकार एवं घर से बाहर निकलने के अवसर
नहीं दिये जाते हैं। उसकी ओर से उसका पिता,
पति, भाई या पुत्र प्रतिनिधित्व करता है।
इस उपन्यास में जितने भी पुरुष पात्र हैं,
वे सभी स्त्रियों को लेकर पूरी तरह से सामंती सोच में बंधे
हुए हैं। इस उपन्यास में रंगनाथ शोध छात्र के रूप में बुद्धिजीवी वर्ग का
प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन उसकी चेतना स्त्री को भोग-विलासिता से अलग कर नहीं
देख पाती। जैसे- “पर रोशनी इतनी थी कि भड़भूजे की लड़की को दुकान पर बैठा
देखकर रंगनाथ ने चुपचाप भांप लिया कि वह देखने लायक है।’’
इस प्रकार रंगनाथ में भी यह छिपी प्रतिभा है कि वह चुपचाप
भांप ले कि कौन लड़की देखने लायक है और कौन नहीं और देखने लायक क्या होता है,
यह भी उसे पता है। रंगनाथ जब वकील के बाप के साथ जा रहा था
तो उसे भी 'काली-कलूटी औरत’ के चेहरे के नीचे निगाह
डालने पर 'मैदान काफी हरा-भरा नज़र आया’ और
रंगनाथ ने पहली निगाह में ही यह प्राकृतिक दृश्य देख लिया-
“वैधजी की
वीर्यधारण की गोलियों और प्रवचन के बावजूद रंगनाथ के लिए अब इस समय के एकान्त में
बेला के बारे में उसकी जिज्ञासा शान्त करने के लिए सिर्फ कल्पना थी,
हस्तमैथुन था और कुण्ठा थी।’’
रंगनाथ की नारी चेतना यहां खुलकर सामने आ जाती है। इस उपन्यास में मेले के
दृश्य में जिस 'गेहुंए रंग की नौजवान लड़की का चित्रण किया गया है, उसके और
रंगनाथ के बीच का अशाब्दिक क्रिया-व्यापार बहुत कुछ कहता है -
“रंगनाथ
उस लड़की को बहुत दूर से देखता है - उसे जानने वाले आदमी ने उससे कुछ कहा जिस पर
लड़की मुस्कुराई। रंगनाथ को अच्छा लगा। उसने चाहा लड़की उसकी ओर भी देखे। लड़की ने
उसकी ओर भी देखा। उसने चाहा कि वह उसी तरह फिर मुस्कुराए। वह फिर मुस्कुराई।”
इसके कुछ देर बाद जब रंगनाथ ने उसकी ओर फिसलती निगाह डाली
तो पाया कि लड़की ने मुस्कुराना छोड़ दिया है। कुछ ही देर में इस लड़की को जानने
वाला आदमी रंगनाथ से कहता है कि – “अपने ही ध्रम
की लड़की है, हिन्दू है, बड़ी सीधी है, सिर्फ गाती भर है। गुनी जनों के बीच रही है। पेशा नहीं
करती।” इसप्रकार के वार्तालाप के अंत में रंगनाथ मुस्कुराया। उछलती
निगाह से उसने देखा, “लड़की की
मुस्कान कुछ और चौड़ी हो गयी है।”
इस पूरे प्रकरण से कुछ बातें साफ हो जाती है। पहली तो यह है
कि इस लड़की ने पूरे घटनाक्रम के दौरान कुछ भी बोला नहीं,
उसकी ओर से इसे जानने वाला आदमी ही बोलता रहा। दूसरी महत्वपूर्ण
बात यह है कि लड़की बोलना चाहती थी किन्तु दबाव के चलते बोल नहीं सकी और अपनी
इच्छा को मुस्कान का रूप देकर व्यक्त करती रही। इसीलिए सबसे पहले वह मुस्कुराई फिर
उसने मुस्कुराना छोड़ दिया और अन्त में उसकी मुस्कान कुछ और चौड़ी हो गयी। समाज
में स्त्री की आंगिक प्रतिक्रियाएं भी भेदभाव को उजागर करती हैं।[iii]
इसप्रकार रंगनाथ ‘भड़भूजे की लड़की’, ‘काली-कलूटी
औरत’ और बेला के साथ-साथ इस ‘मेले
वाली लड़की’ को भी उसी परिधि में समेटने की कोशिश करता है,
जो मात्रा यौन इच्छाओं से भरी है। वस्तुत: बुद्धिजीवियों के
लिए इस उपन्यास में कहा गया एक वाक्य रंगनाथ पर भी पूरी तरह लागू होता है- “वहां एक
नीम का लंबा-चौड़ा पेड़ था जो बहुत से बुद्धिजीवियों की तरह दूर-दूर तक अपने
हाथ-पाँव पैफलाये रहने पर भी तने में खोखला था।”
इस उपन्यास के अन्य पात्रों में भी यही भावनायें कसमसाती है चाहें वह सनीचर हो
जो मेले में कई औरतों के कंधों पर प्रेम से हाथ रख,
उनकी छातियों के आकार-प्रकार का हाल-चाल लेता हो अथवा
रुप्पन बाबू हो जिनके मन में आया कि- “वे लड़कियां जो झबरे बालों,
चूड़ीदार पायजामों और जिस्म को पहलवानी ढंग से तान देने वाले
कुरतों से लैस, अंग्रेजी में बात करती चली जा रही थी,
उन्हें दबोचकर कहीं भाग जाएं।” इसीप्रकार “जोगनाथ मेले में घुसकर नौजवान लड़कियों को ध्क्का देने में
व्यस्त रहता है” और “छोटे पहलवान का पटठा बांभन
की जोरू को लपेटे बैठा रहता हैं।”
वैधजी के बारे में उनके पुत्र रुप्पन बाबू का रंगनाथ से
दावा है कि “यह तो किया कायदे से और बेकायदे कितना किया,
सुनोगे वह भी?” इतना ही नहीं खन्ना
मास्टर, प्रिंसिपल साहब और स्कूल के बच्चे भी 'कलैण्डर’, 'तस्वीर’ व 'सिनेमा-साहित्य’ के माध्यम से स्त्री को
प्राकृतिक रूप में देखना चाहते हैं।
अदालत के भीतर भी इसी मानसिकता का बोलवाला था। उपन्यास में
एक औरत फर्श पर लेटी हुई एक बच्चे के मुंह में अपना स्तन ठूंसकर दूध पिला रही थी
और यह दृश्य कई उपस्थित नागरिकों के लिए बड़ा दिलचस्प बन गया था।
हैरिएट टेलर मिल एवं जान स्टुअर्ट मिल ने 1851 में प्रचारित ‘The subjection of women’(महिलाओं की अधीनता) में लिखा है कि स्त्रियों का सामाजिक
अनुकूलन उन्हें यौन वस्तुओं में तब्दील कर देता है।[iv]
इसप्रकार राग-दरबारी का समूचा परिवेश ही 'शिश्न केंद्रित विचारधरा का पोषक दिखलाई पड़ता है। उसके लिए
औरत केवल जिस्मानी रिश्तों को कायम करने की सामग्री मात्रा है। नारी की अन्नपूर्णा
और वासनालुब्ध छवि ही उसके मतलब की है एवं उसे नारी की मानवीय संवेदनाओं से कोई
सरोकार नहीं है।
संदर्भ -
[i] धर्म, नैतिकता और स्वर्ग की आड़ में चलाए गए दमन से स्त्री पर पूर्ण मनोवैज्ञानिक
नियंत्रण हर काल और हर समाज में रहा। स्त्री योनि को पापों का फल और पापों के
प्रायश्चित के लिए धर्म के सुझाए मार्ग पर चलना आवश्यक माना गया। स्त्री विरोधी
धर्म और नैतिक मापदण्डों के विरोध का अर्थ अपने ऊपर पाप चढ़ाना था। अत: धार्मिक और
सामाजिक सुधारकों के अलावा स्त्री विरोधी धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध आमतौर पर
आवाज नहीं उठी। धर्म, पुजारी तथा समाज के शासक वर्गों की आपसी मजबूत सांठ-गांठ के चलते, आम नारी तो स्त्री
विरोधी मानदण्डों का विरोध करने का साहस नहीं जुटा सकती थी। धर्म के विरोध का अर्थ
इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ना, यह बताकर धर्म की गुलामी की
मानसिकता पर मजबूती से सीमेंट लगा दिया गया, ताकि उसमें कोई दरार भी नहीं पड़ सके। - Arbind Sharma
ed. Women in World Religions, Delhi
Satguru Prakashana, Delhi,
1987
[ii] अन्तर्विवाह का सिद्धांत तथा जाति की सीमाओं को बरकरार रखने की सहवर्ती चिन्ता
युवा लड़कियों पर अनेक नियंत्रण लगाते हैं। यह समझा जाता है कि बेटी की प्रतिष्ठा
तथा नेकनामी की परख का आधर उसके कहीं जाने व घूमने-फिरने को सीमित करने के उददेश्य
से लगाई गई बनिदशें ही होती है। फिर, बात केवल विवाह पूर्व
यौन संबंध की आशंका तथा भय की ही नहीं है। अधिकतर माता-पिता चिंतित रहते हैं कि
युवा अविवाहित पुरुषों से मिलने तथा मेल-जोल के अवसर प्राप्त होने से उनकी बेटियां
अपना जीवन साथी खुद चुन सकती हैं और यदि वह किसी नीची जाति का हुआ तो क्या होगा? - लीला दुबे (अनु. वन्दना मिश्रा), लिंगभाव का मानव वैज्ञानिक अन्वेषण:प्रतिच्छेदी क्षेत्र, वाणी प्रकाशन, 2004, दिल्ली, पृ. 171
[iii] उत्तर भारत में लचक कर खड़े होना नाचने वाली के साथ इतनी मजबूती से जुड़ा
है कि किसी लड़की की इस तरह की कोई अनजाने में भी की गयी हरकत, जैसे किसी दीवार या खंभे से टिककर खड़े होने पर बड़ों से झिड़की सुनने को मिलती है। पान खाने से होंठ लाल हो जाते हैं, खुले, बिना चोटी किये बाल बेफिक्री के द्योतक हैं- ये सब आकर्षण के स्रोत हैं। भारत
के अनेक भागों में परंपरागत रूप से लड़कियों को सूर्यास्त के बाद दर्पण देखने अथवा
बाल कंघी करने की मनाही है क्योंकि ये काम अपने ग्राहकों के लिए तैयार हो रही
वेश्या के साथ जुड़े हैं।- लीला दुबे (अनु. वन्दना मिश्रा), लिंगभाव का मानव वैज्ञानिक अन्वेषण:प्रतिच्छेदी क्षेत्र, वाणी प्रकाशन, 2004, दिल्ली, पृ. 110
[iv] स्त्रियों पर आरोपित पतिव्रता, मृदुता और आज्ञाकारिता के गुण
सामाजिक अनुकूलन की उपज होते हैं, जो महिलाओं की प्राकृतिक
विशिष्टतायें होने के बजाय मुख्यत: यौन वस्तुओं के रूप में उन्हें गढ़े जाने का
नतीजा होती हैं। - सं. निवेदिता मेनन, साध्ना आर्य, जिनी लोकनीता, नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुददे, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन
निदेशालय,
2006, दिल्ली, पृ. 24
संपर्क - आशुतोष शुक्ल, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविधालय-07
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें