शनिवार, 23 अगस्त 2014

हिंदी का भविष्य - राहुल देव




वर्तमान में भाषाओं के मरने का मुख्य कारण मनुष्य द्वारा उनकी उपेक्षा है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने बच्चों को ही मातृभाषा से दूर ले जा रहे हैं। कई भारतीय स्कूलों में क्षेत्रीय भाषाओं की बात छोड़िये, हिंदी बोलने तक पर भी प्रतिबंध है। इस नियम को तोड़ने वाले बच्चों पर फाइन लगाया जाता है या उन्हें कक्षा में पीछे खड़ा कर दिया जाता है। इस संदर्भ में बात करें तो बिहार से दिल्ली आये लोग शायद ही यह चाहते हों कि उनके बच्चे भोजपुरी, मगही या मैथिली में बात करें। एक दो पीढ़ियों बाद ऐसे परिवारों के बच्चे अपनी सरल, निश्चल और मीठी बोली को किसी दूसरे ग्रह की बोली समझने लगते हैं। भारतीय समाज में अब बहुभाषी होना भी गौरव की बात नहीं रही। कुछ वर्ष पहले तक दिल्ली के निवासी पंजाबी, हिंदी और उर्दू जानते थे। हिंदी भाषियों को राजस्थानी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी और छत्तीसगढ़ी आना सामान्य सी बात थी परंतु अब सारा कौशल इस बात पर सिमट गया है कि आप अंग्रेजी में बतिया लेते हैं या नहीं। हिंदी फिल्मों के कलाकार बड़ी निर्लज्जतापूर्वक अपने इंटरव्यू में बताते हैं कि यू नो माई हिंदी इज वेरी पुअर। यह एक छोटा सा उदाहरण है कि आम भारतीय लोकभाषा तो क्या, राष्ट्रभाषा बोलने में भी कितनी हीनभावना महसूस करता है।

भाषा भावों की अभिव्यक्ति है, विचारों का परिधान है। कल्पनाएं अपना रंग भाषा के धरातल पर ही रंगती है| अव्यक्त इसी से प्राणवान हो व्यक्त होता है। धर्म, संस्कृति, इतिहास, साहित्य सभी अपना आकार भाषा के द्वारा लेते हैं। प्रत्येक की अपनी भाषा होती है। जिसका विकास उसकी उपयोगिता के आधार पर होता है। भाषारुपी इस सांस्कृतिक विरासत को नज़रंदाज़ करने से यह निरंतर ह्रास होती जाती है।
भाषा शब्द संस्कृत की भाषधातु से बना है, जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात भाषा वह है जिसे बोला जाए। प्लेटो सोफिस्ट में वर्णन करते हुए कहता है- विचार आत्मा का मूक या अध्वन्यात्मक संकेत है यही जब ध्वन्यात्मक होकर शब्दों द्वारा प्रकट होता है तो इसे भाषा की संज्ञा दी जाती है।दूसरी ओर कॉलरिज़ के अनुसार- भाषा मानव मस्तिष्क की वह शास्त्रशाला है जिसमें अतीत की सफलताओं के जयस्मारक और भावी विकास के लिए अस्त्र-शस्त्र एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह साथ रहते हैं।
हमारी प्राचीनतम भाषा संस्कृत है। मान्यता है कि शेष सारी भाषाओं की उत्पत्ति इसी से हुई है। अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी है। यह विश्व की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। अपने देश में तक़रीबन पैंसठ करोड़ लोग इसका प्रयोग करते हैं। अपने देश की यह लोकप्रिय भाषा है। अहिन्दी क्षेत्र के रूप में माने जाने वाले आंध्र प्रदेश में 1418358 लोग हिंदी बोलते हैं। केरल में इनकी संख्या 164667 है। पश्चिम बंगाल में 3626720 लोग इसका प्रयोग करते हैं। बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा हिमाचल की तो यह राजभाषा है। यों भाषा के दृष्टिकोण से सर्वाधिक विविधता अपने ही देश में है। विविधता ही भाषा की शोभा है। यह भौगोलिक परिवेश तथा मानव की जनसंख्या के घनत्व पर भी निर्भर करती है। लोकमान्य तिलक ने कहा है- भाषा की समृद्धि स्वतंत्रता का बीज है। जब भी भाषा के प्रचलन में आज़ादी मिली, उसका विकास हुआ।
भाषा की स्थिति का वर्तमान दौर बड़ा ही निराशाजनक है। सूचना तकनीक के वर्चस्व ने आज चंद भाषाओं का ही दबदबा बढ़ाया है जिसके नतीजे में तीसरी दुनिया की क्षेत्रीय भाषाएं मरती जा रही हैं। बड़े पैमाने पर विस्थापन का दर्द झेल रहे हमारे गांवों की मौलिक बोलियां भी खो रहीं हैं। आगे भविष्य में इसी तरह भाषाओं और बोलियों के खोने से मानव जीवन की महत्त्वपूर्ण कड़ियां विलुप्त हों जायेंगी। सुरीले गीत और धुनें, खेती की विधियां, चिड़ियों की बोली समझने की कला, देशज खगोल विज्ञान, पहेलियां और जीवनचर्या की तमाम वैज्ञानिक जानकारियां। अगर हम अपने अतीत में झांककर देखें तो इतिहास में जो भाषाएं नष्ट हुईं, उनके अवशेषों, जहां-तहां पड़े शिलालेखों को अभी तक कोई नहीं पढ़ सका। कोई नहीं जानता कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में मिले अवशेषों में कौन सी भाषा थी। भविष्य में हिंदी को बचाने/बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम हमें उसकी उपभाषाओं, राज्यों की मातृभाषाओं/बोलियों को बचाना/बढ़ाना होगा। वास्तव में इनकी प्रगति में ही हिंदी की प्रगति सन्निहित है। इसके लिए अब आज अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग अलापने से कोई फायदा मिलने वाला नहीं रहा।
यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवसघोषित किया है। यूनेस्को के विश्वभाषाओं को खतरे में बताने वाले एटलस में यह बताया गया है कि किसी समुदाय की भाषा तब खतरे में होती है, जब समुदाय के 30 प्रतिशत बच्चे उसे नहीं सीखते। यदि हमारे यहां बच्चों की पढ़ाई की बात करें तो कई प्रान्तों में तो पहली कक्षा से अंग्रेजी ज़रूरी है ही और गांवों तक में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की कुकुरमुत्तों-सी फसल लहलहा रही है। घरों में मॉम’, ‘डैडऔर गुडमोर्निंग’, ‘गुडनाईटकी संस्कृति मतृभाषा के घुटने तोड़कर बैठी है। इस चकाचौंध में हम अपने घरों में, भारत में और भारत के बाहर के भारतीय घरों में भी पल रहे, बढ़ रहे देवनागरी हिंदी के इस यथार्थ को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं।
वर्तमान में भाषाओं के मरने का मुख्य कारण मनुष्य द्वारा उनकी उपेक्षा है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने बच्चों को ही मातृभाषा से दूर ले जा रहे हैं। कई भारतीय स्कूलों में क्षेत्रीय भाषाओं की बात छोड़िये, हिंदी बोलने तक पर भी प्रतिबंध है। इस नियम को तोड़ने वाले बच्चों पर फाइन लगाया जाता है या उन्हें कक्षा में पीछे खड़ा कर दिया जाता है। इस संदर्भ में बात करें तो बिहार से दिल्ली आये लोग शायद ही यह चाहते हों कि उनके बच्चे भोजपुरी, मगही या मैथिली में बात करें। एक दो पीढ़ियों बाद ऐसे परिवारों के बच्चे अपनी सरल, निश्चल और मीठी बोली को किसी दूसरे ग्रह की बोली समझने लगते हैं। भारतीय समाज में अब बहुभाषी होना भी गौरव की बात नहीं रही। कुछ वर्ष पहले तक दिल्ली के निवासी पंजाबी, हिंदी और उर्दू जानते थे। हिंदी भाषियों को राजस्थानी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी और छत्तीसगढ़ी आना सामान्य सी बात थी परंतु अब सारा कौशल इस बात पर सिमट गया है कि आप अंग्रेजी में बतिया लेते हैं या नहीं। हिंदी फिल्मों के कलाकार बड़ी निर्लज्जतापूर्वक अपने इंटरव्यू में बताते हैं कि यू नो माई हिंदी इज वेरी पुअर। यह एक छोटा सा उदाहरण है कि आम भारतीय लोकभाषा तो क्या, राष्ट्रभाषा बोलने में भी कितनी हीनभावना महसूस करता है। अपने देश में लगातार ऐसी घटनाएं सुनने को मिलीं, जिसमें कान्वेंट स्कूलों में बच्चों को हिंदी बोलने के कारण बेंतों से पीटा गया। देश में ऐसे स्कूलों की अच्छी-खासी संख्या है जहां हिंदी बोलने पर अनाधिकृत रूप से पाबंदी लगी हुई है। जब यही बच्चे अपने घर से दूर कहीं हास्टल में रहते हैं तो बड़े होकर लोकभाषा बोलने वाले अपने  ही लोगों को बड़ी भौचक्क नज़रों से देखते हैं। जहां शर्मसार होना चाहिए वहां पर अब तथाकथित आधुनिक लोग यह कहते हुए गर्व करते हैं कि उनकी हिंदी अच्छी नहीं है। इस स्थिति पर प्रसिद्ध कवि गणपतिचन्द्र भंडारी की एक व्यंग्य कविता दृष्टव्य है-
जाहन बुल जब गए देश से छोड़ गए औलाद
जाते जाते नेताओं से कर गए यह फ़रियाद
छोड़े जाता हूँ भारत में निज अंग्रेजी नर्स
मेरे मुन्नों को पालेगी रहने दो कुछ वर्ष,
आज़ादी के मतवालों ने किया उसे स्वीकार
राजघराने में रहने को मिला उसे अधिकार
बड़ी घाघ थी यह बुढ़िया ऐसी माया फैलायी
मां हमको आया दिखती है, आया दिखती माई
स्नेहमयी मां हिंदी ने जब बच्चों को पुचकारा
मान पराई उसे लाडले लालों ने दुत्कारा
लिपट रहे हैं उसी नर्स से, कहते हैं मत जाओ
तुम्ही हमारी मम्मी हो, बस तुम्हीं हमें दुलराओ !
नवीनतम सर्वेक्षणों से स्पष्ट होता है कि विश्व में मूलभाषाओं को नयी पीढ़ी उपेक्षित कर देती है। नयी पीढ़ी प्रचलित भाषा का ज्यादा प्रयोग करती है जिससे मूलभाषा क्रमशः पतन की ओर अग्रसर होती जाती है। अगर ऐसी ही स्थिति बनी रही तो निकट भविष्य में कुछ सौ की संख्या में ही भाषाएं बची रह पाएंगी। इनके पतन के मुख्य कारणों को खोजने के लिए हमें इनके धरातल का विश्लेषण करना होगा जिससे पता चलता है कि वैचारिक विभिन्नता, अवरोध तथा बड़े पैमाने पर हो रही उपेक्षा इसका मूल कारण हैं।
किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा, संस्कृति और सभ्यता से होती है। स्वतंत्रता के पूर्व भारत में भाषा और संस्कृति के प्रति प्रेम जुनून की तरह था। स्वतंत्रता के बाद जब अनंतकाल के लिए अंग्रेजी सहराजभाषा के रूप में मान ली गयी तो हिंदी के प्रति आग्रह भी लगभग समाप्त हो गया। स्वतंत्रता के बाद जन्मी पीढ़ी के लिए तो अपनी भाषा जैसा कुछ है ही नहीं। आज की युवा पीढ़ी तो सभी प्रकार के आग्रहों से मुक्त है। भाषा में मिश्रण, संस्कृति में पाश्चात्य अतिक्रमण सर्वत्र दिखलाई पड़ता है। राष्ट्र के प्रति ममत्व या उसके लिए गौरव की अनुभूति कहीं दिखलायी नहीं पड़ती। भविष्य के लिए इसे कतई अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। हालांकि अंग्रेजी पढ़ने-पढ़ाने और सीखने-सिखाने के प्रति हमारा कोई ठाना हुआ बैर नहीं है परंतु अपनी पहचान और शान हिंदी के मूल्य पर अंग्रेजी को स्थान देना कतई न्यायसंगत नहीं। अंग्रेजी का स्थान अपनी जगह पर है लेकिन राष्ट्रभाषा हिंदी का स्थान हमारे लिए सर्वोपरि होना चाहिए।
इस डिजिटल युग में जब औद्योगिक राष्ट्रों और विकासशील देशों के बीच दूरियां बहुत बढ़ गयीं हैं, भाषाओं का संरक्षण अत्यावश्यक है। इस लिहाज से हम चीन से बहुत कुछ सीख सकते हैं जिसने अपनी तमाम ठोस कार्ययोजनाओं के माध्यम से अपनी मातृ/राष्ट्र भाषा चीनी का वर्चस्व निरंतर कायम कर रखा है। आज हिंदी सहित सभी भाषाओं को सरलीकरण के नाम पर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। पर जैसे-जैसे लोग अपनी सुविधा के अनुसार भाषाओं को तोड़ते-मरोड़ते गये हैं, भाषाओं की असल तासीर खत्म हो गयी है। यह प्रयोग 18वीं सदी के बाद से जबरदस्त तरीके से बढ़ा। इसका सबसे सामान्य उदहारण है- OK शब्द। All Correct शब्द के लिए कम पढ़े-लिखों का उपहास उड़ाने के लिए अंग्रेजी भाषाविदों ने यह शब्द प्रयोग में लाना आरम्भ किया। इन्टरनेट चैटिंग ने तो जैसे भाषा के आधार को झकझोर ही डाला है। YOU के U का प्रयोग, Love के लिए दिल की तस्वीर का प्रयोग, Because के लिए Bcoz का प्रयोग, Friends के लिए Frnds का प्रयोग, Good night, good morning या good evening के लिए Gnyt, Gm तथा Gev का प्रयोग आदि कुछ उदहारण हैं जो आम प्रयोग में आ गये हैं। कोई आश्चर्य नहीं जब यह हमारी भाषा को भी प्रभावित कर दे। इसी तरह हिंदी की गिनतियां १, , , , ,.........तथा कुछ विशेष लिपि चिन्हों का प्रयोग भी लुप्तप्राय है। यह भाषा के मूल स्वरुप को बिगाड़ रहा है। इस संबंध में हिंदी पर कठिन व क्लिष्ट होने के आरोप भी लगते रहे हैं। यह सब आधार के कमज़ोर होने का परिणाम है।
स्वतंत्रता मिलने के पश्चात हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने देश में लागू होने जा रही जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप देश में सामाजिक एवं आर्थिक समानता, राष्ट्रीय एकता, गरीबों व मजदूरों, पिछड़े एवं मध्यम वर्ग के लोगों को न्यायसंगत समाज देने की व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए हिंदी को संघ शासन एवं प्रादेशिक भाषाओं को प्रदेशों की राजभाषा बनाने की व्यवस्था की। यह पुण्य कार्य संविधान सभा ने 14 सितम्बर सन् 1949 में किया, इसलिए यह दिन देश की आम जनता के लिए भाषाई स्वतंत्रता प्राप्त करने का संकल्प दिवस है। सन 1961 में देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने एकमत से यह प्रस्ताव पारित किया कि देश की सभी भाषाओं के लिए देवनागरी स्वीकार की जाये जैसे कि यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं। उनका तर्क था कि यह राष्ट्रीय एकत्व की दिशा में समुचित कदम होगा। किन्तु जब यह प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास गया तो उन्होंने इसे ठंडे बस्ते में डालकर ख़त्म कर दिया। इस प्रकार देश ने राष्ट्रीय एकत्व का एक बड़ा अवसर खो दिया।
देश का सामंतवादी, बुर्जुआ वर्ग तभी से इस संवैधानिक व्यवस्था को विफल बनाने हेतु आज तक कुचक्र चलाता आ रहा है और देश की 98% जनता पर जबरदस्ती अंग्रेजी लादकर 2% अभिजात्य वर्ग के हितों को पूरा संरक्षण दे रहा है। कुछ नवधनाढ्य अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों ने भी समाज में स्थान व महत्ता पाने के लिए इस सामंतवादी, बुर्जुआ वर्ग का साथ देना शुरू कर दिया और हिंदी भाषियों तथा अहिन्दी भाषियों के बीच एक काल्पनिक भय पैदा कर प्रचार कर कर के भाषाविवाद जैसी समस्या पैदा की और उसकी आड़ लेकर उन लोगों ने नौकरी/शिक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य बनाकर देश के गरीब मजदूरों, पिछड़ों, दलितों व मध्यम वर्ग के प्रतिभाशाली लोगों को नौकरी, पदोन्नति तथा शिक्षा पाने से वंचित किया जा रहा है, ताकि देश की प्रगति से ये लोग दूर रहें। इस अमानवीय एवं अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर मानवाधिकारवादी, सामाजिक न्याय के पक्षधर, गरीबों-मजदूरों के अधिकांश नेता, दलितों के मसीहा चुप रहते हैं या अंग्रेजी परस्तों का साथ देते रहते हैं। इस संबंध में संवैधानिक व्यवस्थाओं, संसदीय संकल्पों, संसदीय राजभाषा समिति की सिफारिशों की लगातार अवहेलना उन लोगों द्वारा की जा रही है जो संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक व उच्च पदों पर बैठे हैं। ये लोग देश के आम युवा वर्ग को अंग्रेजी की वैशाखी लगाकर दौड़ने के लिए बाध्य करते हैं, जिसके वे अभ्यस्त नहीं हैं। इस संबंध में सिर्फ हिंदी के भविष्य पर सिर्फ ऊपरी तौर पर चिंताएं व्यक्त कर देने से कुछ नहीं होगा। भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के व्यवसाय को पानी पी-पीकर विरोध करने वाले कुछ लोग, उनका मार्ग प्रशस्त करने के लिए देश भर में अंग्रेजी की रेल बिछा रहे हैं। स्वदेशी का ढोंग करने वाले भी स्वभाषा की बात नहीं करते बल्कि देशी कंपनियों द्वारा उत्पादों पर अंग्रेजी में विवरण छापकर देश की जनता को बेवकूफ बनाकर लूटने व ठगने पर चुप करते हैं।
इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जनता के दबाव से हिंदी तथा प्रादेशिक भाषाओं की जो प्रगति हुई है, वह निराशाजनक बिल्कुल नहीं है। इंग्लैंड की राजभाषा इंग्लिश के साथ इससे भी बदतर व्यवहार किया गया था, क्योंकि अंग्रेजी वहां की जनभाषा थी। इस देश में ऊपर के लोगों विशेषकर राजसमाज के धृतराष्ट्रों, भीष्म पितामहों एवं द्रोणाचार्यों से किसी आदर्श एवं न्याय की आशा/अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए; अपवादस्वरूप कुछ लोगों को छोड़कर हिंदी को ओढ़ने, बिछाने और खाने वाले, राजभाषा के भस्मासुरों से भी आशा नहीं की जानी चाहिए; क्योंकि इनमें अनेक लोग अंग्रेजीपरस्तों का साथ दे रहे हैं। जनता को आर्थिक एवं सामजिक न्याय प्राप्त करने के लिए राजभाषा का रथ/ राजभाषा का संघर्ष अपने हाथ में लेना चाहिए, क्योंकि सामाजिक क्रांतियां हमेशा नीचे से होतीं हैं। इस क्षेत्र में शांतिक्रांति चलाने की आवश्यकता है। हिंदी का भविष्य उज्जवल है लेकिन इसे और बेहतर बनाने के लिए उसके व्यवहारिक पक्ष को मजबूत बनाये जाने का अभियान चलाया जाये और भ्रामक स्थिति को दूर किया जाये तो काफी सफलता मिल सकती है। आज इस दिशा में किसी बड़े एवं सम्मिलित प्रयास की नितांत आवश्यकता है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में पैंसठ करोड़ से अधिक लोगों की संपर्क भाषा हिंदी है। साथ ही हिंदीतर क्षेत्रों में भी ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या है जो हिंदी को बहुत अच्छी तरह बोलते और समझते हैं। अब तो सोवियत संघ, यूरोप के अनेक देशों व अमरीका आदि में भी हिंदी सीखने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। मारीशस, सूरीनाम, त्रिनिडाड, फिजी, बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में हिंदी भाषियों की बहुत बड़ी संख्या है। इन देशों में हिंदी की पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी बड़ी संख्या में हो रहा है। दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी का दूसरा स्थान है अतः संयुक्त राष्ट्र संघ की एक भाषा के रूप में भी उसे मान्यता पाने का पूरा अधिकार है।
हिंदी सदियों से राजकाज और भारतीय जन-जन के बीच संपर्क की भाषा रही है। पुराने जमाने में भी देशी रियासतों के राजा-महाराजाओं का राजकाज और अदालती कार्यवाही हिंदी में होती थी। मराठा शासकों के दरबारों में हिंदी का प्रचलन था। ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में भी हिंदी का शासकीय कार्यों के लिए व्यवहार होता रहा। अंग्रेजों के शासनकाल में देश के कोने-कोने ने इसे अपनाया तब जाकर हिंदी को राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा प्रदान की गयी। देश के विभिन्न अभिलेखागारों में उपलब्ध प्रलेखों से यह तथ्य प्रमाणित हैं।
हिंदी को भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा में रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने से बहुत-बहुर पहले भारत के समाज सुधारकों, अहिन्दी भाषी विद्वानों, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों और दूरदर्शी देशभक्तों ने भारतवासियों में स्वदेशाभिमान जाग्रत करने और राष्ट्रीय एकता अक्षुण्ण रखने का माध्यम के रूप में हिंदी भाषा को ही चुना था। उनके सम्मिलित और दूरदर्शी प्रयासों ने हिंदी का प्रचार-प्रसार किया और उसे राष्ट्रभाषा बनाये जाने का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने माना कि विभिन्न भाषाओं और विश्वासों से परिपूर्ण भारत में हिंदी के द्वारा ही सामाजिक एकता और राष्ट्रीय अखंडता सुरक्षित रह सकती है। वैसे इसके संकीर्ण मनोवृत्ति के स्वार्थसाधकों ने प्रारंभ से ही हिंदी के प्रगति पंथ में नाना प्रकार के अवरोध आये दिन खड़े करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। किन्तु अपनी विशिष्टताओं के बल पर हिंदी सभी अवरोधों को पार करती हुई अप्रतिहत गति से अपने पथ पर निरंतर अग्रसर ही होती रही। वह दिन दूर नहीं जब वह संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुंचकर विश्वभाषा का स्वर प्राप्त करेगी। विश्व के शताधिक विश्वविद्यालयों में तो वह पठन-पाठन और शिक्षण की भाषा है ही।
भाषा को लेकर नज़रिया दरअसल जनता के प्रति हमारे नज़रिए का हिस्सा है। नवसाक्षरों के लिए तैयार सामग्री और  स्कूली पाठ्यपुस्तकें इस दृष्टि के उदाहरण प्रस्तुत करतीं हैं। अक्सर यह देखने को मिलता है कि इस कार्य का नियंत्रण करने वाले भाषा की सरलता का बहुत संकीर्ण अर्थ अपने जेहन में जमाये बैठे हैं, वे उससे एक कदम भी आगे जाने को तैयार नहीं हैं। भाषा की सरलता का सीधा हिस्सा उसकी उपयोगिता से है। भाषा की इतनी पूंजी हमारे पास हो कि हम हर चीज़-वस्तु खरीद सकें और जीवन के न्यूनतम स्तर पर बने रह सकें? या हमारे अंदर भाषा के जादुई लोक में विचरण करने की इच्छा भी जागे? इन दोनों प्रश्नों का क्या एक उत्तर संभव है? शिक्षाशास्त्री और भाषाविद् भी इसका कोई सर्वमान्य उत्तर नहीं खोज पाए हैं।
हम हिंदी की बात करें, जिसे जानने का हमारा दावा है। उन्नीसवीं सदी से लेकर आज तक स्कूल की किताबों में ऐसी हिंदी का निर्माण करने की कोशिश की गयी जिसमें तुर्की, अरबी, फ़ारसी आदि के लफ्ज़/मुहावरें न हों। देशी और विदेशी, मूल और मिश्रित के भेद पर आधारित इस भाषा दृष्टि के चलते हिंदी का वृक्ष तो पल्लवित हुआ पर जमीनी दरख़्त कट गए। मामूलीकी जगह साधारणकी प्रतिष्ठा की गयी, ‘आसानकी जगह सरलका विकल्प लिया गया। स्नातक और स्नातकोत्तर हिंदी कक्षाओं में ऐसे दिशाहारा छात्र-छात्राओं की बेचैनी, घबराहट और छटपटाहट से किसी पत्थर दिल को ही शायद तकलीफ न हो। स्कूली हिंदी अक्सर दो छोरों पर रही है। एक छोर अतिशय संस्कृतनिष्ठ, तथाकथित शुद्ध भाषा है तो दूसरा छोर सिर्फ सतह पर मिलने वाली भाषा का है, जिसमें अर्थों की पर्ते नहीं हैं, न वे पेचोखम जिनसे भाषा खूबसूरती हासिल करती है।
स्कूली हिंदी के अलावा नवसाक्षर पाठकों के लिए तैयार की जा रही पाठ्यसामग्री और अखबार हिंदी के अन्य स्रोत हैं। इनसे किस प्रकार की भाषा से पाठकों के इस वर्ग का परिचय होगा, इसे तय करने वाले वे लोग हैं जो इन संरचनाओं के शीर्ष पर बैठे हैं। हिंदी के अखबार में जब अखबारशब्द ही अजनबी हो जाए या संपादक को यह बताया जाये कि पाठकों की समझ में पाठ्यपुस्तकशब्द नहीं आएगा तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि यह स्वाभाविक तौर पर भाषा के स्वरुप में आ रही तब्दीली है। उसी प्रकार मधुप’, ‘कपोलअथवा अनिमेषजैसे शब्दों को देखकर वे अभिजात्यके आक्रमण की आशंका से भर उठते हैं। इसका परिणाम यह है कि अत्यंत ही सीमित शब्द भण्डार से वे अपना काम चलाते रहते हैं। अपने चयन के पक्ष में वे अपेक्षा यह करते पाए जाते हैं कि जनता इस प्रकार के शब्दों और प्रयोगों को नहीं समझेगी इसलिए हमें उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। अब प्रश्न यह है कि क्या भाषा के बारे में निर्णय हमेशा सरलीकरण के सिद्धांत पर होगा? क्या भाषा में कुछ चुनौती के स्थान, कुछ अपरिचय के क्षेत्र बनाना ज़रूरी नहीं। यह प्रश्न अपने परिचय के दायरे को निरंतर विस्तृत करते जाने से भी जुड़ा है। क्या भाषा सिर्फ अक्षरों को जोड़कर पहचान लेने और रोजमर्रा को सहज, सरल बना लेने का ज़रिया भर है !
जब जनता के बड़े हिस्से को जीवन के न्यूनतम स्तर पर बने रहने की व्यवस्थाओं से हम संतुष्ट हो जाते हैं तब हम भाषा के प्रति सरलतावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं। इसके आगे जब हम एक भरे-पूरे समृद्ध जीवन की मांग करते हैं तो यह कहते हैं कि हमसे कम की बात न करिए, हमें तो सारा जीवन चाहिए; यह दूसरा पक्ष है। हिंदी के प्रति तीन प्रकार के आग्रहों से संपर्क करके उसे एक लोकतांत्रिक अधिकार की तरह उपलब्ध किया जा सकता है। इनमें पहली संकीर्ण राष्ट्रवादी दृष्टि है, जो स्कूली हिंदी का स्वरुप निर्धारित करती है, दूसरी पूंजी को संकेंद्रित करने और उसकी अभिवृद्धि करने वाली दृष्टि है जो सांस्कृतिक पूंजी पर अधिकार के प्रश्न से जुड़ती है, तीसरे शिक्षित समाज के दिमागी और सांस्कृतिक आलस्य के कारण पैदा होने वाला दुराग्रह है।
देश की आज़ादी के साठ वर्ष बीत जाने के बाद भी हम राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका उचित स्थान नहीं दिला पाएं हैं। हम हिंदी को अंग्रेजी के सामने आज भी दूसरे दर्जे पर मानते हैं। राजकाज में तो अंग्रेजी का ही बोलबाला है। इधर हाल ही में गठित राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने सिफारिश की है कि अंग्रेजी भाषा को पहली कक्षा से ही पढ़ाया जाना चाहिए। इस सिफारिश के संबंध में मेरी मान्यता है कि राष्ट्रीय अस्मिता और भारतीय लोकतंत्रीय व्यवस्था विरोधी जो कार्य गुलामी के दिनों में अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजियत को भारत पर थोपने वाले मैकाले तथा अन्य शासक नहीं कर सके वह दुष्कर्म स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों के मानस पुत्र भारतवासी अब स्वयं करने जा रहे हैं।
भारतीय संविधान में अंग्रेजी को पंद्रह वर्ष की अवधि के लिए अर्थात 26 जनवरी 1965 तक ही हिंदी के साथ देश की सह राजभाषा रखे जाने का प्रावधान तत्कालीन देशभक्त राष्ट्रनायकों ने किया था किन्तु सत्ताकामी राजनेताओं और भ्रष्ट अकर्मण्य नौकरशाहों की सांठ-गांठ के फलस्वरूप संविधान के इस प्रावधान को लागू नहीं किया गया और मूल संविधान में संशोधन कर अंग्रेजी भाषा को अनंतकाल तक शासन-प्रशासन और राजकाज की भाषा बनाये रखा गया। ज्ञान आयोग की इस सिफारिश का भी यही निष्कर्ष निकलता है। यदि संविधान में निर्धारित अवधि में हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर पूरी तरह प्रतिष्ठित कर दिया जाता तो अंग्रेजीदां लोग आम जनता के साथ वैसी धोखाधड़ी नहीं कर पाते जैसी आज़ादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी की जा रही है। भारत की अधिसंख्य जनता की भाषा हिंदी है, हिंदी में शासन-प्रशासन का कार्य चलते रहने की स्थिति में शोषण मुक्त, पारदर्शितापूर्ण समाज की संरचना का मार्ग प्रशस्त होता और जनप्रतिनिधियों व नौकरशाहों के भ्रष्टाचार व उनकी अपराधवृत्ति पर भी काफी हद तक अंकुश लग गया होता। निश्चय ही आज भविष्य में हिंदी की स्थिति सुधारने के लिए हमें उसके अतीत-वर्तमान का भी मंथन करना होगा।
सबसे पहले वर्ष 1968 में केन्द्रीय हिंदी समिति की बैठक में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की एक आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का प्रस्ताव पारित किया गया था। उसके बाद विदेश मंत्री की अध्यक्षता में ग्यारह सदस्यों की समिति भी इस प्रस्ताव को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए गठित की गयी। 10 जनवरी 1975 में नागपुर में आयोजित हुए विश्व हिंदी सम्मलेन और उसके पश्चात विभिन्न देशों में संपन्न अब तक के आठों विश्व हिंदी सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों में भी हिंदी को विश्वभाषा और संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य भाषा बनाने का प्रस्ताव लिया गया। 4 जनवरी 2007 को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में संपन्न केन्द्रीय हिंदी समिति की बैठक में भी हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का संकल्प दोहराया गया था, किन्तु इस दिशा में राजनयिक पहल, राजनीतिक इच्छाशक्ति और राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति आंतरिक लगाव का अभाव बहुत बड़ी बाधाएं हैं।
स्वभाव से सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय एकता की पोषक और सद्ज्ञान का साधन हैं। महात्मा गांधी के अनुसार- मातृभाषा तो मां के दूध जैसी मीठी होती है, राष्ट्रभाषा का मनोरथ प्रांतीय भाषाओं को ख़त्म करना नहीं, बल्कि उनकी रक्षा करना है; उन्हें एक दूसरे के निकट लाना और प्रेम के सूत्र में पिरोना है।इसलिए मूलतः सभी भारतीय भाषाओं में बहनापा है। देश के किसी भी कोने के संगीत को हम पहचान लेते हैं कि यह अपना है (भले ही हम संगीत का क ख ग न जानते हों) क्योंकि उसके स्वरों में एक भारतीय आत्मतत्व की झंकार सुनाई देती है। यही तत्व हमारी भारतीय भाषाओं में निरंतर प्रवाहमान है। अक्षरों के आकारों से लेकर सभी भारतीय भाषाओं के स्वर, व्यंजन, संयुक्ताक्षर, मात्राएं, संधि के नियम एवं उच्चारण एक ही हैं। इतना ही नहीं अधिकांशतः मूल शब्द भी वही हैं। इस साम्य के कारण कोई भाषा किसी भी भाषा-भाषी के लिए सुगम है। नागरी लिपि की उपादेयता व वैज्ञानिकता स्वयंसिद्ध है।
भारत की राष्ट्रभाषा समस्या के समाधानार्थ एक मात्र विकल्प है - भारतीय भाषाओं का समन्वय करना अथवा यह कहें कि हिंदी को राष्ट्रीय स्वरुप प्रदान करना। हज़ार वर्ष पूर्व हिंदी के प्रादुर्भाव के समय प्रचलित भाषाओं के समन्वय से हिंदी अस्तित्व में आयी। अब तक अनेक भाषाओं के शब्द इसमें आ मिलें हैं। मेज, कुर्सी, फर्श, छत, दीवार, कुर्ता, कमीज़, बनियान जैसे असंख्य शब्दों ने हिंदी को आकार दिया, उसकी सामर्थ्य बढ़ाई है। जब विदेशी शब्दों से हिंदी का हाज़मा नहीं बिगड़ा तब भारतीय भाषाओं के शब्दों से परहेज क्यों? भाषा के विकास की यही प्रक्रिया है। विदेशी भाषा के शब्दों की भरमार से हिंदी का रूप विकृत होगा, भारतीय भाषाओं के शब्दों से हिंदी लावण्यमयी होगी।
वास्तव में हिंदी की स्थिति के प्रति और भाषा सीखने के प्रति दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है। भाषा सीखना, सिखाना, भाषा सम्बन्धी कार्य करना अथवा साहित्य रचना करना शब्दब्रह्म की उपासना है। गंगा मइया, भारत माता, गौ माता, दुर्गा माता की भांति हिंदी भाषा हमारी माता है। भाषा ही हमें मनुष्य का रूप प्रदान करती है अन्यथा हम भी पशु हैं। भाषा प्यार की भूखी है, सम्मान की अधिकारिणी है। यह उपभोक्ता सामग्री नहीं है जो हम बिकाऊ माल की तरह उसकी गुणवत्ता का बखान करने में लगे रहते हैं। मां किन्हीं गुणों के कारण न श्रेष्ठ है न सम्माननीया वह तो केवल इसलिए पूजनीया है क्योंकि वह मां है। दृष्टिकोण में दूसरा यह परिवर्तन करना है कि जैसे भारत की धरती पर जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है, हिंदुस्तानी है। हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी के साथ मेरा अपनत्व का नाता है, सहोदर का नाता है। उसीतरह इस धरती की हर भाषा हिंदी है, हिंदुस्तानी है अथवा भारती है। जैसे अवधी, बृजभाषा, मैथिली, कुमाऊनी, गढ़वाली, नेपाली, हरियाणवी, राजस्थानी आदि हिंदी के रूप हैं वैसे ही बंग्ला, ओड़िया, मराठी, पंजाबी, गुजराती, मलयालम, तमिल, कन्नड़ और तेलुगु भी इसी हिंदी के रूप हैं। इनमें ऐसा कोई तत्व नहीं है जो इनको अलग कर सके। लिपि रूपी परदा ही इसे रहस्यमय बनाये है। दृष्टिकोण में तीसरा मौलिक परिवर्तन यह करना है कि कोई किसी से यह न कहे कि हिंदी मेरी है, तेलुगु तुम्हारी है अथवा कन्नड़ मेरी है, बंग्ला तुम्हारी है आदि-आदि। यहां कोई भाषा तुम्हारी नहीं है सभी मेरी हैं । मैं कश्मीरी, बंग्ला, कन्नड़ नहीं जानता तो इससे क्या हुआ, जब तमिलनाडु, गुजरात, केरल, पंजाब और हरियाणा सब मेरे हैं तो तमिल, गुजराती, मलयाल और पंजाबी मेरी क्यों नहीं। जब पूरा भारत मेरा है तो इसकी सब भाषाएं मेरी हैं। यह मामला अंदर का है, दिल का है, रोमांच का है। जिस प्रकार स्त्री को उपभोग की वस्तु बनाया गया, उसी स्तर का व्यवहार भाषा के साथ किया गया। दोनों पाप हैं।
राष्ट्र को जिस सूत्र से बांधा जा सकता है, वह भाषा रुपी सूत्र ही है। इसका कोई विकल्प नहीं है। किसी बंगाली को मलयालम बोलते देखकर एक केरलीय के हृदय में आत्मीयता का निर्बाध उद्रेक होता है, वैसा ही अन्य भाषियों में भी होता है। इसलिए राष्ट्रभाषा अनुष्ठान में सरकारों तथा अन्य संस्थाओं को भी अपने हिस्से का दायित्व वहन करना चाहिए। इस बारे में कवि दर्शनसिंह रावत की कुछ पंक्तियां यहां उदृत करना प्रासंगिक होगा,
एकता के लिए हिंदी जरूरी, बिना इसके प्रगति अधूरी
हमें संकल्प करना होगा, हिंदी भाषा को अपनाएं,
xx                     xx                     xx
जय हिंदी-जय हिंदी, यही है हमारी पहचान की बिंदी
जितनी जाति-उतनी भाषा, लेकिन हिंदी सबकी भाषा
हिंदी हो सबकी पहचान, मिलकर बोलो एक जबान !
जिस दिन हमारे भाव में यह परिवर्तन आ जाएगा उस दिन पूरा भारत हिन्दीमय हो जाएगा।
आचार्य शुक्ल ने भाषा को ही जातीय विचारों का रक्षक माना है। भाषा केवल विचारों के प्रेषण का माध्यम ही नहीं है अपितु यह सभ्यता और संस्कृति की वाहक भी है। भाषा की अस्मिता की चिंता राष्ट्रीयता का ही एक पक्ष है। अपने निबंध भाषा और समाजमें अज्ञेय ने इस बात को व्यक्त करते हुए लिखा है, ‘भाषा अपने आप को पहचानने का साधन है। भाषा के बिना अस्मिता की पहचान नहीं होती और भाषा उसके साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। आज अगर किसी समाज को उसकी भाषा से काट दिया जाय तो इतना ही नहीं है कि उससे एक भाषा छीनकर हम उसको कोई दूसरी भाषा देते हैं, बल्कि हम उसकी अस्मिता को भी खंडित कर देते हैं....भाषा संस्कृति की बुनियाद होती है, एक समग्र अस्मिता का, एक आत्मभाव का उपकरण या साधन भी होती है। इसी कारण पन्त जी विदेशी भाषा का गुणगान करने वाले लोगों की भत्सर्ना करते हुए साहित्यकार का यह कर्तव्य मानते हैं कि वह भाषा के ज्वलंत प्रश्न को राजनीति से ऊपर उठाकर उसे सांस्कृतिक व्यक्तित्व प्रदान करे और शांति, धैर्य एवं आत्मत्याग के साथ भारतीय भाषाओं के प्रेम की प्रतिष्ठा लोक के मन में करे।
आज हमारा मीडिया भी अंग्रेजी शब्दों का बहुत अधिक घालमेल हिंदी में करने लगा है जिसके बीच सुविधा के नाम पर हिंदी-इंग्लिश का मिलाजुला विकृत रूप हिंग्लिशहमारे सामने आ रहा है। इस तरफ से मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
वास्तव में भाषा मनुष्य के अस्तित्व का एक जटिल उत्पाद है। हर एक भाषा आपस में एक-दूसरे से भिन्नता लिए हुए होती है। इसकी ध्वनि संरचना तथा विचारों की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में भी विविधता होती है। यह मनुष्य के हजारों वर्षों के कठिन शोध के फलस्वरूप प्राप्त होती है। भाषा किसी राष्ट्र या समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक तत्वों का प्रतिनिधित्व करती है। भाषा में वह शक्ति व क्षमता निहित है जिससे कि मूर्छित राष्ट्र को जीवंत और जाग्रत किया जा सकता है। वर्तमान समय के अश्लील और विषाक्त वातावरण के परिष्कार के लिए भाषा की पवित्रता तथा विचारों की उत्कृष्टता ही एकमात्र निदान है। हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी के बेहतर कल के लिए तथा उसे सुरक्षित और विकसित करने के संकल्पबद्ध प्रयास होने चाहिए।
भाषाओं के विकास में ही राष्ट्रों और संस्कृतियों का विकास सन्निहित है अतः विविध भाषाओं को समुचित सम्मान देकर विश्व शांति और सद्भावना की ओर कदम बढ़ाये जा सकते हैं। 21वीं सदी में एक विश्वभाषा की कल्पना की जा रही है। यह परिकल्पना सुखद है, पर इसका स्वरुप अवश्य ऐसा होना चाहिए कि भावी विश्वभाषा के आंचल में विश्वभर की सभी भाषाएं अपना सुखमय विकास कर सकें। विश्व के तमाम देशों में रहने वाले सभी भारतीय कहीं न कहीं आपस में अपनी विशिष्ट शैली को बनाये रखते हैं, इस दृष्टिकोण से ताकि वे अपनी संस्कृति और परम्पराओं से विभेद रख सकें। भारत में मातृभाषाशब्द शायद ऐसे ही आया होगा। मातृभाषा का अर्थ है- वह भाषा जो मां बोलती है। हाल के दशक को यदि अपवाद मान लिया जाए तो एक लड़की भले ही कितनी दूर ब्याही गयी हो लेकिन अपने परिवार में वह अपने गांव वाली भाषा जीवित रखती है। इसी भाषा में वह अपने बच्चे को लोरी सुनाती है, दुलारती है और पढ़ाती-लिखाती है। इसलिए तमाम दौरों से गुज़रकर भी भाषाएं अपना वजूद बनाए रखतीं हैं लेकिन यह परंपरा भी लगभग लुप्त हो रही है जिसका सीधा प्रभाव हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी के वर्तमान स्वरुप पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
हिंदी के विस्तार को बढ़ावा देने में उसके अपने आकार का भी बहुत बड़ा हाथ है। देश में आधे से ज्यादा लोग हिंदी बोलते-समझते हैं और यही बड़ी संख्या उसे सबसे बढ़िया लिंक लैंग्वेज बना देती है। आज ज्ञान का विस्फोट इतना विस्तृत हो गया है कि इसे प्राप्त करने के लिए पढ़े-लिखे अथवा बिन पढ़े-लिखे सभी को पढ़ते रहना आवश्यक है। समग्र समाज को अध्ययनशील समाज बनना होगा। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ अपनी माटी की भाषा में अनौपचारिक जीवन-अनुभवों का आदान-प्रदान भी करना होगा। हम अपनी विरासत में तभी अपनी आने वाली पीढ़ियों के जीवन को सही दिशा दे पायेंगें। आज के नेताओं को भी इस तरफ से अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हमें देश की एकता, सम्मान एवं गौरव की रक्षा के लिए हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को समदृष्टि से प्रोत्साहित करना चाहिए। हम सबको इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि हिंदी की उन्नति असंभव नहीं है। मातृभाषा में पढ़कर ही छात्रों का सर्वांगीण विकास संभव है। भूमंडलीकरण, बाजारवाद एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के इस युग में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व का सामना करने के लिए हम में दृढसंकल्प की आवश्यकता है। एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अंग्रेजी के सीखने एवं सिखाने का विरोध हमें नहीं करना है। हमें तो भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाना है। बहुभाषी भारत देश में हिंदी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के लिए भी हमें प्रयत्न करना होगा। इसी से हम अपनी अस्मिता की परिरक्षा कर सकते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र की भांति हम सब यह मानें कि निज भाषा की उन्नति ही हमारी सम्पूर्ण उन्नति का आधार है। तभी भविष्य में हिंदी पुनः अपने खोये हुए गौरव को प्राप्त कर राष्ट्रभाषा के सच्चे एवं वास्तविक स्वरुप को प्राप्त करने में सफल हो सकेगी।
विभिन्न प्रांतीय सरकारों का यह कर्तव्य है कि हिंदी के साथ-साथ संविधान में मान्यता प्राप्त अन्य सभी भारतीय भाषाओं के विकास के लिए प्रयत्न करें। हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में काम करने वाले अधिकारियों को प्रोत्साहित करें। इसके लिए अपूर्व इच्छाशक्ति, भाषा प्रेम एवं निष्ठा की महती आवश्यकता है, तभी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का समग्र विकास हो पायेगा। सरकार की दोहरी नीति के कारण आज दोहरी शिक्षा प्रणाली विकसित हो रही है और इसलिए यदि हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन करना है और अपने नौजवानों को अच्छा भविष्य देना है तो हमें बच्चों से सीखना पड़ेगा कि उन्हें क्या सिखाया जाये लेकिन जब हम उन्हें वही सिखाते हैं जिसे हम सही मानते हैं तो हम बच्चों की सृजनात्मकता की हत्या करते हैं। यह कार्य अंग्रेजी को थोपकर नहीं बल्कि अपनी हिंदी भाषा में ही सबसे अच्छे तरीके से हो सकता है। इसप्रकार हम दूसरों की मौलिकता व पहचान पर निर्भर न रहकर अपनी खुद की मौलिकता व नयी पहचान कायम करते हैं। भविष्य में यदि हिंदुस्तान के अंदर ही मातृभाषा पर प्रहार होने लगेंगे तो अन्य देशों में हम कैसे स्थापित हो सकते हैं।
हिंदी के सुंदर भविष्य एवं भावी विकास के लिए कोरे आश्वासनों की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए जनसमर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत है। इसके उत्थान के लिए दृढ़संकल्प और लगन तथा निष्ठा की जरुरत है। ऐसी स्थिति में राष्ट्र, राष्ट्रीय संस्कृति और राष्ट्रभाषा के प्रेमियों से अपेक्षा है कि वे अविलम्ब जागें और संगठित होकर हिंदी के मार्गविरोधकों को हटाने के सार्थक और सशक्त प्रयास करें। हम हिंदी पढ़ें-पढ़ायें, हिन्दी लिखें, हिंदी बोलें तथा हिंदी के प्रति गर्व की भावना रखकर उसका सम्मान करें तो निश्चय ही हिंदी का आने वाला कल सत्यम, शिवं और सुंदरममय होगा और हिंदी जो अपनी अच्छाइयों के आधार पर निरंतर गतिशील है, के प्रति तत्परता कृतकार्य होगी और हम हिंदी के उज्ज्वल भविष्य के प्रति पूर्ण विश्वास के साथ आशान्वित हो सकेंगें।
संपर्क -   राहुल देव, 9/48 साहित्य-सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203, चलदूरभाष 09454112975, ईमेल पता - rahuldev.bly@gmail.com



मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014)     ISSN   2320 – 835X
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें