बुधवार, 27 अगस्त 2014

कुलपति की नाक! - प्रमोद मीणा







दिल्ली विश्विद्यालय के पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम की बर्बादी के बाद परास्नातक पाठ्यक्रम की बर्बादी के मूल में भी पूँजीपतियों, निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों की भविष्यगामी समृद्धि में निहित है, जिसके संकेत भारत-अमरीकी संवाद में बराबर मिलते रहे हैं। इस तरह ये पाठ्यक्रम उच्च शिक्षा से गरीबों, दलितो, आदिवासियों और पिछड़ों को दूर कर पूँजीपतियों के एकाधिकार के लिए रास्ता साफ करने की दूरगामी साजिश का हिस्सा है। क्योंकि वे जानते है कि अगर वे दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने में कामयाब हो गए तो भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पाँव पसारना और भी आसान हो जाएगा। आज पूरे वैश्विक परिदृश्य में पूँजीपतियों के लिए स्वास्थ्य के बाद शिक्षा दूसरा सबसे बड़ा मूनाफे का क्षेत्र सिद्ध हो रहा है।


    खिरकार दिल्ली विश्विद्यालय के कुलपति और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बीच चल रही मूंछों की लड़ाई कुलपति के घुटने टेकने के साथ तात्कालिक रूप से थम गयी है किंतु विश्विद्यालय की स्वायत्ता और हठधर्मिता के इस पूरे कांड की तह में कई अनसुलझे-अनदेखें पहलू छिपे हैं जिन पर चर्चा जरूरी है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, छात्र संगठनों और शिक्षक संगठनों द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय के विवादित चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम (एफ.वाई.यू.पी.) के विरोध और विवाद का मुख्य कारण गरीब बच्चों पर एक वर्ष का अतिरिक्त भार, निम्न-स्तरीय पाठ्यक्रम और नियमों की अवहेलना है। आयोग के नियमों के अन्तर्गत किसी भी किसी भी विश्वविद्यालय को उच्च स्तरीय शिक्षा से सम्बन्धित बदलाव से छह महिने पहले उसे सूचित करना अनिवार्य होता है, जबकि डीयू ने इस सन्दर्भ में आयोग को कोई सूचना नहीं दी। पूछे जाने पर डीयू ने कहा कि निश्चित अवधि में बदलाव को लागू करने की जानकारी देना हमारे लिए बाध्य नहीं है (प्रत्येक मामले में डीयू अपने संविधान की व्याख्या कुछ इस तरह करता हैं, जैसे वह भारतीय संविधान से भी सर्वोच्च हो। इसे विश्वविद्यालयीय और महाविद्यालयीय नियुक्तियों में आजादी के बाद से अब तक के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बैकलॉग और 2007 से अब तक के अन्य पिछड़ा वर्ग के बैकलॉग को देने से कुलपति के साफ इंकार करने में भी देखा जा सकता है। फिलहाल मामला न्यायालय में विचाराधीन है)। उसका कहना था कि डीयू विजिटर (राष्ट्रपति) पाठ्यक्रम को मंजूरी न देने की दशा में ही वापस पत्र लिखकर जवाब देते हैं। अगर वे एक माह तक पत्र नहीं लिखते हैं तो प्रस्ताव स्वीकृत मान लिया जाता है और यह पाठ्यक्रम इसी नियम के अनुरूप लागू किया गया था। आयोग का कहना था कि इसमें न तो आयोग के नियमों का पालन किया गया है और न पाठ्यक्रम की स्वीकृति पर विजिटर (राष्ट्रपति) के हस्ताक्षर है, जिसके अभाव में यह पाठ्यक्रम ही गैरकानूनी हो जाता है। तिस पर डीयू का कहना था कि चार साला पाठ्यक्रम के लिए पहले खुद आयोग ने स्वीकृति दी और अब वही ऐन प्रवेश के वक्त इसे वापस लेने के निर्देश दे रही है। इस सन्दर्भ में गलती आयोग से यह हुई कि उसने विश्वविद्यायलीय छात्रों/शिक्षकों द्वारा बार-बार आगाह किए जाने पर भी पहले कोई निर्णय नहीं लिया, लेकिन अब जब उसने अपनी भूल सुधारते हुए विवादित चार साला पाठ्यक्रम के दूसरे सत्र में दाखिले से ठीक पहले उसे वापस लेने के स्पष्ट निर्देश दिए तो इसका स्वागत होना चाहिए था, क्योंकि ऐसा करके उसने पहले के और अब के, दोनों सत्रों के छात्रों के भविष्य को बचाने की अभूतपूर्व पहल की है, जिसे कुलपति समर्थक विश्वविद्यालयीय स्वायत्तता पर हुए हमले के रूप में देखते हैं।
छात्र असमंजस में रहे कि अब उन्हें दाखिला तीन साला पाठ्यक्रम में मिलेगा या चार साला पाठ्यक्रम में। डीयू उन्हें चार साला पाठ्यक्रम में प्रवेश देने के लिए अड़ा था तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तीन साला पाठ्यक्रम पर और बिना किसी आधिकारिक विश्वविद्यालयीय सूचना के सभी 64 महाविद्यालय प्रवेश-सूची जारी नहीं कर सकते थे। डीयू प्रशासन द्वारा साधी लम्बी चुप्पी के कारण जब 24/06/2014 से शुरू होने वाली प्रवेश-प्रक्रिया अब अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गयी तो डॉ. एस.के. गर्ग की अध्यक्षता में डीयू प्राचार्य संघ की आपात बैठक हुई, जिसमें प्राचार्य संघ ने एकमत से सत्र 2014-15 के लिए डीयू-युजीसी मामला सूलझने के बाद प्राप्त आधिकारिक सूचना तक प्रवेश-प्रक्रिया पर रोक लगा दी। दरअसल डीयू के चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम को अपने निर्माण की प्रक्रिया के समय से ही शिक्षकों और छात्रों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है। सत्र 2013-14 में इसके लागू होने के बाद से तो छात्र और शिक्षक दोनों ही सड़कों पर हैं। डीयू कुलपति, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मन्त्री और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष के इस विवादित चार साला पाठ्यक्रम (जिसे उसी समय देश के तमाम चोटी के शिक्षाविदों के विरोध का सामना करना पड़ा) का खामियाजा डीयू के छात्रों को भले ही अपना एक साल बर्बाद कर भुगतना पड़ा हो, लेकिन डीयू कुलपति प्रो. दिनेश सिंह को उनके इस अभूतपूर्व योगदान के लिए पद्मश्रीसे नवाजा गया, जिसे कुलपति ने खूब भुनाया। उन्हें सिर्फ चार साला पाठ्यक्रम के लिए पद्मश्री से नहीं नवाजा गया, बल्कि इसके मूल में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को धूमिल कर उसकी नायाब पाठ्यक्रम संरचना को बर्बाद कर भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बड़े स्तर पर पूँजीपतियों, निजी विश्वविद्यालयों और विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए मार्ग प्रशस्त करने में उनका अतुलनीय योगदान है!
कुलपति ने डीयू में इसकी शुरूआत सत्र 2011-12 में पूर्वस्नातक स्तर पर सेमेस्टर व्यवस्था लागू करके की, जिसका पूरजोर विरोध तत्कालीन छात्र/शिक्षक संगठनों ने किया, लेकिन उन्होंने किसी की न सुनी। असल में जिस दिन डीयू में पूर्वस्नातक स्तर पर डीयू की राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के आधार रहे तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम के वार्षिक स्वरूप के स्थान पर सेमेस्टर (छमाही सत्रांक) व्यवस्था लागू हुई, उसी दिन से डीयू के इतिहास के सबसे बुरे दिनों की, उसके काले अध्याय की शुरूआत हो गयी थी (जिसका आधार पूर्व कुलपतिद्वय प्रो. दीपक नैयर और प्रो. दीपक पैण्टल तैयार कर चुके थे)। तत्कालीन शिक्षकों के आक्रामक विरोध को देखते हुए कुलपति ने दूसरा सबसे बड़ा काम विश्वविद्यालय में स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया को ठण्डे बस्ते में डालने का किया। इस बीच उन्होंने लिखित और अलिखति रूप से महाविद्यालयीय शिक्षकों की सेवा-शर्तों पर भी मनमानी की। इससे उन्हें दो सीधे लाभ हुए। एक तो छमाही सेमेस्टर व्यवस्था में पढ़ाई और काम के अतिरिक्त दबाव में छात्रों और शिक्षकों का विरोधी आन्दोलन कमजोर पड़ गया। शिक्षकों में सीधे-सीधे दो फाड़ हो गए। एक स्थायी शिक्षक और दूसरे तदर्थ/अस्थायी शिक्षक। डीयू में स्थायी शिक्षकों और तदर्थ/अस्थायी शिक्षकों का क्रमशः अनुपात लगभग 40% और 60% का है। इससे स्थायी शिक्षकों पर काम का अतिरिक्त बोझ पड़ना स्वाभाविक था और स्वाभाविक यह भी था कि वे अपने अतिरिक्त काम का बोझ तदर्थ/अस्थायी शिक्षकों पर डाले, जो पहले से काम के बोझ से लदे पड़े थे। काम के अतिरिक्त बोझ ने शिक्षकों को लिपिकों में तब्दील कर दिया। ऐसी स्थिति में न तो स्थायी शिक्षकों के पास आन्दोलन के लिए समय बचा और न ही तदर्थ/अस्थायी शिक्षकों के पास। डीयू में तदर्थ/अस्थायी शिक्षक ऐसा जीभ रहित जीव होता है, जिसका वजूद सिर्फ खानापूर्ति/हस्ताक्षर अभियान/अहंकार की तुष्टि/अतिरिक्त कार्य का बोझा ढोने तक सीमित होता है। उसकी कृपा आधारित नियुक्ति का आधार चुप्पी और चापलूसी की संस्कृति है न कि प्रतिभा। इससे शिक्षकों के दोनों धड़ों के रिश्ते आन्तरिक उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का रूप लेते गये, जिसका सीधा लाभ कुलपति को हुआ और उन्होंने मनमाफिक नियमों को थोपना शुरू कर दिया। पर सबकुछ इतना आसान न था। इसलिए उन्होंने सबसे पहले येन-केन प्रकारेण विश्वविद्यालय के कला/वाणिज्य/विज्ञान के शक्तिशाली शिक्षकों और नेताओं को अपने पक्ष में लिया। जैसे - मीडिया को अपने पक्ष में करने के लिए उन्होंने विश्वविद्यालय के सबसे बड़े मीडियाकर्मी को अपने साथ लिया। परिणामतः शिक्षकों के विरोध के स्वर मन्द पड़ने लगे। सही मौका देख उन्होंने छात्रों को अपने पक्ष में लेने की रणनीति की शुरूआत की, क्योंकि मीडिया युग मे छात्रों के विरोध को दबाना शिक्षकों की अपेक्षतया अधिक कठिन था। चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम की पूर्वपीठिका के रूप में उन्होंने राष्ट्रमण्डल खेलों के समय निर्मित विश्वविद्यालयीय खेल परिसर में लगभग सभी महाविद्यालयों के चुनिन्दा छात्रों को कुलपति से संवाद शृंखला में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया। उन्होंने न केवल चार साला पाठ्यक्रम के पक्ष में विभिन्न तथ्यों को तोड़ मरोकर पेश किया बल्कि बिना किसी चर्चा-संवाद के उसे ऐतिहासिक समयावधि (40 घण्टे) में अकादमिक परिषद (एकेडमिक कौंसिल) और विद्वत परिषद (एक्ज्युकेटिव कौंसिल) से पास भी करा लिया (विवाद ए.सी. और ई.सी. की संरचना पर भी है)। इसके खिलाफ काफी उग्र विरोध हुए पर दबा दिए गए।
कुलपति ने विरोधों को कुचलने का एक नायाब तरीका निकाला। शुरू-शुरू में जहाँ-जहाँ विरोध होते, वहाँ-वहाँ उन्होंने अपने समर्थकों की भारी संख्या को सुनिश्चित किया पर हर समय यह सम्भव न था। ऐसे में उन्होंने विरोध-प्रदर्शन-स्थलों पर विरोधियों की फोटोग्राफी और विडियोग्राफी करवानी शुरू की, जिससे वे शिक्षक समुदाय में गहरा भय व्याप्त करने में सफल रहे। जब अधिकांश स्थायी शिक्षक महाविद्यालयों और घरों तक सीमित हो गए तो फिर तदर्थ/अस्थायी शिक्षकों की हैसियत ही क्या थी! आवाजें तब भी आती रही पर दबे स्वर में। परेशान शिक्षकों ने जब आर-पार की लड़ाई की सोची तो कुलपति ने शिक्षकों के आन्दोलन को तोड़ने के उद्देश्य से तमाम विश्वविद्यालयीय विभागों और महाविद्यालयों में कई सर्कूलर भेजे, जिसमें उन्होंने विरोध प्रदर्शन के लिए नियत दिन और समय विश्वविद्यालय/महाविद्यालय परिसर में (किसी भी कारणवश) अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों के वेतन में कटौती करना शुरू कर दिया। कई विभागीय और महाविद्यालयीय शिक्षकों द्वारा अपने दायित्वों की पूर्ति और कक्षाओं को लेने के बाद परिसर छोड़ने पर उनके वेतन काटे गए। स्वायत्तता के नाम पर कुलपति ने अपने समर्थकों के माध्यम से इस तरह की कई अनैतिक और तानीशाही कार्यवाहियों को अंजाम दिया। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के पदाधिकारियों को भी चार साला पाठ्यक्रम के विरोध से अलग करने के कई उपक्रम किए, जो अब भी जारी है। जब कहीं उम्मीद न दिखाई दी तो लोगों की सारी उम्मीदें लोकसभा चुनावों पर टिक गयी। डीयू के चार साला पाठ्यक्रम की वापसी को भाजपा के घोषणापत्र में भी स्थान मिला। सरकार बदली। मानव संसाधन विकास मन्त्रालय बदला। यूजीसी को भी राहत मिली। नतीजनतन उसने पहले डीयू से अपने चार साला पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार के लिए कहा, जिसे डीयू ने ठुकरा दिया। इस पर यूजीसी ने कड़ा रूख अपनाया और इसे गैरकानूनी बताते हुए, तुरन्त वापस लेने और पूर्ववर्ती तीन साला पाठ्यक्रम को फिर से लागू करने का आदेश दिया। आदेश की अवहेलना पर आयोग ने डीयू के चार साला पाठ्यक्रम लागू करने वाले सभी 64 महाविद्यालयों को मिलने वाली आर्थिक मदद बन्द करने के साथ-साथ चार साला उपाधि की मान्यता रद्द करने की चेतावनी दी। आयोग ने स्पष्ट कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय या इसके तहत आने वाला कोई महाविद्यालय, अकादमिक सत्र 2014-15 के लिए चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम में छात्रों को किसी भी सूरत में दाखिला नहीं देगा। और अगर वह ऐसा करता है तो इसे यूजीसी अधिनियम 1956 का उल्लंघन माना जाएगा और उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाएगी। (इस बीच डीयू के चार साला पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में यूजीसी ने 21 जून 2014 को एक 10 सदस्यीय स्थायी समिति गठित की, जिसने अपनी रिपोर्ट में चार साला पाठ्यक्रम को तीन साला पाठ्यक्रम में बदलने के सुझाव दिए हैं। उन्होंने चार साला पाठ्यक्रम में भाग ले चुके छात्रों को भी तीन साला पाठ्यक्रम के तहत समायोजित करने और उन्हें पूराने पाठ्यक्रम के तहत उपाधि प्रदान करने के साथ-साथ पाठ्यक्रम को बेहतर बनाने के सुझाव भी दिए। समिति ने तीन साल तक पढाई करने वाले बी.टेक. (कम्प्युटर विज्ञान) के छात्रों को बीएस.सी.(विशेष) की उपाधि देने तथा चार साल तक पढाई पूरे करने वाले छात्रों को बी.टेक. की उपाधि देने का सुझाव दिया है।) लेकिन कुलपति पर इसका कोई असर नहीं हुआ और वे न केवल अपने रुख़ पर अड़े रहे, बल्कि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने का ऐलान करके एक विवादास्पद पत्रकार/मानवाधिकार कार्यकर्ता के मार्फत अपने समर्थकों के अनुरोध में उसे वापस लेने तथा यूजीसी के अध्यक्ष पर धमकाने व पद से हटने का दबाव बनाने का आरोप भी लगाया। इस पर तमाम शिक्षक/छात्र संगठनों का कहना है कि अगर ऐसा है तो कुलपति को खुलकर अपना पक्ष रखना चाहिए था न कि चुप्पी साध लेनी चाहिए थी। उन्होंने इसे स्वायत्ता और सरकारी दखल की आड़ में विश्वविद्यालयीय समुदाय की सहानुभूति हासिल करने की एक निन्दनीय और अनैतिक कोशिश मानते हुए कुलपति के इस्तीफे की माँग को और तेज कर दिया है।
इस बीच विश्वविद्यालय स्वायत्तता और उच्च शिक्षण संस्थानों की शैक्षणिक स्वतन्त्रता पर हमले के विरोध की आड़ में डीयू के जो 10-15 शिक्षक (न कि डीयू की पूरी शिक्षक बिरादरी) 24 जून को 24 घण्टे की भूख हड़ताल पर बैठे, वे कोई और नहीं बल्कि कुलपति के अन्ध-समर्थक शिक्षक है, जिनके मुखिया डूटाके पूर्व अध्यक्ष डॉ. आदित्य नारायण मिश्रा (अरबिन्दो महाविद्यालय) है, जिन्हें कुलपति-समर्थन देने का पूरा लाभ मिलता रहा है। उन्होंने कुलपति के बचाव/समर्थन में आयोग द्वारा डीयू को चार साल के पूर्वस्नातक पाठयक्रम को समाप्त कर पूर्ववर्ती तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठयक्रम लागू करने के लिए 20, 21 एवं 22 जून 2014 को दिए गए निर्देशों को रद्द करने की माँग में भारत के उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका’ (पी.आई.एल.) दायर की, जिस पर न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन एवं न्यायमूर्ति शिवकीर्ति सिंह की खण्डपीठ ने उन्हें पहले दिल्ली उच्च न्यायालय की शरण में जाने के लिए कहा ताकि उच्चतम न्यायालय में आने पर उनके पास उच्च न्यायालय द्वारा दिए तर्क भी मौजूद हों। बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय में भी इस मामले के पक्ष और विपक्ष (दोनों) में दायर जनहित याचिका पर स्थिति को गम्भीरता को देखते हुए उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी और न्यायमूर्ति वी. कामेश्वर राव की अवकाशकालीन पीठ ने जुलाई में मामले की सुनवाई की बात कही। जहाँ तक विश्वविद्यालय की स्वायत्तता और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भूमिका का सवाल है तो एक सांविधिक निकाय के रूप में आयोग भारतीय विश्वविद्यालयों को धन उपलब्ध कराने के साथ-साथ उच्च शिक्षण संस्थानों में समन्वय स्थापित करने और उनकी शिक्षा के स्तर पर ध्यान देता है। जब उसने यह पाया कि दिल्ली विश्वविद्यालय का चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम न केवल आयोग के नियमों की अवहेलना करता है बल्कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 की 10+2+3 व्यवस्था का भी उल्लंघन करता है, तब उसने डीयू को इसे वापस लेने के निर्देश दिए। यह सही है कि विश्वविद्यालय कोई भी स्वतन्त्र पाठ्यक्रम चला सकता है पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए। विश्वविद्यालय एकीकृत पाठ्यक्रम भी चला सकते और देश के कई विश्वविद्यालयों में स्नातक+स्नातकोत्तर के पाँच वर्षीय एकीकृत पाठ्यक्रम की सुविधा पहले से उपलब्ध है। यहाँ तक की जेएनयू शोध के क्षेत्र में पाँच वर्षीय एम.फिल.+पीएच.डी. एकीकृत पाठ्यक्रम चला रहा है, जबकि डीयू में दोनों में प्रवेश के लिए अलग-अलग प्रक्रिया का प्रावधान है। पंजाब विश्वविद्यालय तो उच्च माध्यमिक (बारहवीं) के बाद सात वर्षीय एकीकृत पाठ्क्रम पर विचार कर रहा है, जिसमें छात्र को स्नातक-विशेष+स्नातकोत्तर+पीएच.डी. की सुविधा दी जाएगी। इन सब में से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्देशों का पूरा ध्यान रखा गया है। असल में देश के सभी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में एक-सी पाठ्यचर्या और समयावधि होनी चाहिए, अन्यथा छात्रों को एक विश्वविद्यालय से दूसरे विद्यालय में प्रवज्जन में तकनीकी दिक्कतें आएगी। पाठ्यक्रम’ (सैलेबस) अलग हो सकता है पर पाठ्यचर्या’ (करीकुलम) नहीं। पाठ्यक्रम निर्माण विश्वविद्यालय का स्वायत्त मामला है पर पाठ्यचर्या नहीं। इस तरह स्वायत्तता का मतलब न तो प्रशासनिक मनमानी होता है और न ही कुलपति का एकाधिकार।
विशेषज्ञों के अनुसार चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम पूरी तरह से अस्तरीय, बचकाना और हास्यास्पद है और वह विभिन्न कौशलों के विकास (स्किल डेवलपमेण्ट) के नाम पर छात्रों को गुमराह करता है। प्रारम्भिक स्तर पर इसकी अन्तरानुशासनिक प्रकृति ने भले ही सबको प्रभावित किया हो, लेकिन एक साल की प्रयोगधर्मिता के बाद जो परिणाम सामने आए, उनमें छात्रों ने कुछेक अपवादों को छोड़कर ऐसा कोई बड़ा अन्तरानुशासनिक विकल्प नहीं चुना, जिससे इसे पहले के तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रमों से अलगाया जा सके (जबकि आधार पाठ्यक्रमों की अधिक बेहतर वैकल्पिक सुविधा पूर्ववर्ती तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम में पहले से मौजूद थी)। विज्ञान के छात्रों ने जहाँ कला या वाणिज्य के विषयों से दूरी बनाए रखी, वहीं कला और वाणिज्य के छात्रों ने विज्ञान के विषयों से दूरी बनाए रखी। छात्रों को लैपटॉप वितरित कर उनका ध्यान इसकी मूल प्रकृति से हटाने की कोशिश की गयी और बार-बार यह कहा गया कि छात्रों ने लैपटॉप और प्रोजेक्टर के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करना सीखा, लेकिन इस पर कोई बात नहीं की गयी कि उन्होंने सीखा क्या? जिन 12 आधार पाठ्यक्रमों (फाउण्डेशन कोर्स) को चार साला पाठ्यक्रम की आत्मा बताया जाता है, वह कक्षा 8 और 10 दर्जे के नितान्त अस्तरीय, बचकाने और हास्यास्पद पाठ्यक्रम है। 75 अंकों के प्रत्येक आधार पाठयक्रम की अंक योजना में 55 अंकीय (परियोजना(25अंक)+ प्रस्तुति(15अंक)+ समूह-परिचर्चा(15अंक) आन्तरिक मूल्यांकन और 20 अंकों की विश्वविद्यालय द्वारा ली जाने वाली सैद्धान्तिक प्रश्नपत्र-परीक्षा की योजना समाहित है। चूँकि विश्वविद्यालय पहले से ही इसकी सफलता-असफलता को शिक्षक की सफलता-असफलता के रूप में व्याख्यायित करता रहा है, इसलिए आन्तरिक मूल्यांकन में किसी छात्र का अनुतीर्ण होना प्रायः नामुमकिन हो जाता है। सामान्यतः 20 अंकों के विश्वविद्यालयीय सैद्धान्तिक प्रश्नपत्र में छात्र को एक घण्टे में सामान्य जागरूकता सम्बन्धी कई विकल्पों में से सिर्फ 10-10 अंकों के दो प्रश्न करने अनिवार्य होते हैं, जिसमें अनुतीर्ण होने की तो सम्भावना ही नहीं बचती। फिर आन्तरिक मूल्यांकन में तो वह पहले से उत्तीर्ण हैं। इसमें सिर्फ एक-दो छात्रों द्वारा तैयार 25 अंकीय परियोजना-कार्य जबरन 5-10 साथियों के साथ मिलकर प्रस्तुत किया जाता है ताकि एक-दो छात्रों की मेहनत का लाभ अन्य सभी छात्रों को समान रूप से मिले (इससे कुछ भिन्न अर्थीय दोहराव दृश्य-श्रव्य-प्रस्तुतिकरण में भी होता है), इनमें अधिकांशतः वे छात्र भी शामिल हैं, जो पूरे सत्रांक के दौरान सिर्फ ऐसी प्रस्तुतियों के दौरान ही कक्षाओं में उपस्थित होते हैं। छात्रों की अनुपस्थिति का कारण एक ओर डीयू प्रशासन द्वारा बाकायदा अपनी वेबसाइट पर अधिसूचना डालकर कक्षाओं में छात्रों की उपस्थिति को अनावश्यक घोषित करना रहा तो दूसरी ओर 25 अंकीय सामूहिक परियोजना-कार्य में एक-दो छात्रों की मेहनत का लाभ को अनिवार्यतः साझा करना रहा। आमतौर एक कक्षा में 30-40 छात्र होते हैं, लेकिन आधार पाठ्यक्रम की कक्षाओं में सामान्यतः 80 से 120 छात्र होते हैं (इसमें शिक्षक-छात्र-अनुपात पर कोई बात नहीं की गयी)। ऐसे में किसी भी प्रतिभाशाली शिक्षक के लिए वैयक्तिक स्तर पर सिर्फ चार महिनों (100-120 दिनों) में प्रत्येक छात्र के कौशलों के विकास को, उसकी स्वतन्त्र प्रस्तुति को पड़तालना आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा है। कायदे से 55 मिनट की एक कक्षा में तो सिर्फ दो-तीन प्रस्तुतियां ही हो सकती है, फिर चर्चा-परिचर्चा-संवाद के लिए अलग से समय चाहिए।
यह सवाल कि जब सभी भारतीय विश्वविद्यालय राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 के अनुरूप (एकीकृत और पेशेवर पाठ्यक्रमों को छोड़कर) तीन वर्ष में स्नातक विशेष (ऑनर्स) की उपाधि प्रदान कर रहें है तो फिर दिल्ली विश्वविद्यालय अपने 12 वाहियात आधार पाठ्यक्रमों के नाम पर अपने पूर्ववर्ती तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम को पूर्णतः बदलकर उसमें जबरन एक साल जोड़कर चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम में विशिष्ट स्नातक की उपाधि देने पर आमादा क्यों है? और फिर चार साला पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में बार-बार यह दावा कि हम राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 के अनुरूप स्नातक उपाधि प्रदान कर रहे हैं, तथ्यों को तोड़-मरोड़कर उसकी गलत व्याख्या प्रस्तुत कर गुमराह करने वाला है। मामला अकादमिक धोखाधड़ी का भी है। वह तीन साल की पढ़ाईपर्यन्त ड्रॉपआउट निकासी पर की गयी व्यवस्था को स्नातक उपाधि बता रहा है, जिसके लिए कोई अलग से पाठ्यक्रम निश्चित नहीं किया गया है।) ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इसमें जोड़े गए एक अतिरिक्त वर्ष (3+1) से लाभ किसे होगा और किसे इसका खामियाजा भुगतना होगा? दरअसल लाभ और हानि दोनों का सम्बन्ध इस पाठ्यक्रम की संरचना से है। इसमें दो साल, तीन साल और चार साल की पढ़ाईपर्यन्त निकासी की स्पष्ट व्यवस्था है। दो साल की पढ़ाई के बाद निकासी पर डिप्लोमा, तीन साल की पढ़ाई के बाद निकासी पर स्नातक और चार साल की पढ़ाई के बाद निकासी पर विशिष्ट स्नातक की स्वतन्त्र उपाधि का प्रावधान किया गया है, लेकिन ध्यान में देने की बात यह है कि इन तीन अलग-अलग उपाधियों के लिए पाठ्यक्रम की संरचना तीन अलग-अलग उपाधियों के हिसाब से नहीं बल्कि एकमात्र चार वर्षीय विशिष्ट स्नातक उपाधि के हिसाब से तैयार की गयी है। यानी यह पाठ्यक्रम सीधे-सीधे ड्रॉपआउट व्यवस्था को बढावा देता है। दो वर्ष और तीन वर्ष के ड्रॉपआउट के बाद जिन छात्रों को सम्बद्ध उपाधियां दी जाएगी, वे कौन होंगे? वे सीधे-सीधे दलित, आदिवासी, पिछड़े और गरीब लड़के-लड़कियां ही होंगे। वास्तविकता तो यह है कि चार साला पाठ्यक्रम के बाद डीयू की योजना परास्तानक उपाधि पाठ्यक्रम को एक साल का कर उसे भी बर्बाद करने की है और वह भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (10+2+3) का उल्लंघन होगा। पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम की बर्बादी के बाद परास्नातक पाठ्यक्रम की बर्बादी के मूल में भी पूँजीपतियों, निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों की भविष्यगामी समृद्धि में निहित है, जिसके संकेत भारत-अमरीकी संवाद में बराबर मिलते रहे हैं। इस तरह ये पाठ्यक्रम उच्च शिक्षा से गरीबों, दलितो, आदिवासियों और पिछड़ों को दूर कर पूँजीपतियों के एकाधिकार के लिए रास्ता साफ करने की दूरगामी साजिश का हिस्सा है। क्योंकि वे जानते है कि अगर वे दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने में कामयाब हो गए तो भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पाँव पसारना और भी आसान हो जाएगा। आज पूरे वैश्विक परिदृश्य में पूँजीपतियों के लिए स्वास्थ्य के बाद शिक्षा दूसरा सबसे बड़ा मूनाफे का क्षेत्र सिद्ध हो रहा है। इसीलिए इस चार साला पाठ्यक्रम की रूपरेखा का निर्माण 99% छात्रों (जिनमें अधिकांश गरीब और कमजोर तबके के छात्र शामिल होते हैं) के हितों को दरकिनार करते हुए, उन 1% धनाठ्य छात्रों के भविष्य को ध्यान में रखकर किया गया जो हर साल विदेशों में रोजगार/रोजगारोन्न्मुखी अध्ययन के लिए विदेश जाते हैं (और प्रायः वहीं बस जाते हैं) और जिन्हें वहाँ की शिक्षा पद्धति के अनुरूप एक साल का अतिरिक्त पाठ्यक्रम करना पड़ता है। यह बात चार साला पाठ्यक्रम के तथाकथित समर्थकों द्वारा बार-बार दिए जाने वाले अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों के उदाहरणों से भी समझी जा सकती है। मामला प्रतिभा पलायन (ब्रेन-ड्रेन) के अन्ध-समर्थन का भी है। कुल मिलाकर इसका उद्देश्य उच्च शिक्षा पर पूँजीपतियों, महंगे निजी विश्वविद्यालयों और विदेशी विश्वविद्यालयों के एकाधिकार के लिए रास्ता साफ करना है। कई छात्र/शिक्षक संगठन इसमें कुलपति की भूमिका की जाँच की भी माँग कर रहे हैं। माँगे और भी है, जिनमें पद का दुरूपयोग, अन्य पिछड़ा वर्ग की अनुदान राशि का दुरूपयोग और संसाधन मुहैया कराने के नाम पर भ्रष्टाचार (विशेषकर लैटटॉप खरीद मामला) प्रमुख है।
इसी तरह बी.टेक. (कम्प्युटर विज्ञान) को बचाने के नाम पर चार साला पाठ्यक्रम का अन्ध समर्थन सही नहीं है, क्योंकि बी.टेक. और अन्य कला/वाणिज्य/विज्ञान स्नातक विशिष्ट पाठ्यक्रमों की प्रकृति एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। बी.टेक. एक पेशेवर/व्यावसायिक पाठ्यक्रम है और डीयू के किसी भी छात्र/शिक्षक संगठन ने इसे तीन साला करने की बात नहीं की, सभी इसके चार साला स्वरूप को बनाए रखने के पक्ष में हैं। विवाद इसके पाठ्यक्रम की संरचना को लेकर है, जो फिलहाल बीएस.सी. (कम्प्युटर विज्ञान) के स्तर का भी नहीं है। जिस तरह कुलपति और उनके पूरे दल ने चार साला पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में गलत तथ्य जुटाकर छात्रों को अपने पक्ष में किया, यह एक तरह की अकादमिक बेईमानी है। इस सन्दर्भ में कुलपति ने शिक्षकों और उनके एसोसिएशन के साथ संवाद की कोई जरूरत ही नहीं समझी। अक्टूबर 2010 में अपनी नियुक्ति के बाद से उन्होंने सिर्फ एक बार और वह भी मानव संसाधन मन्त्रालय के दखल के कारण जून 2014 में उनसे मुलाकात की। जबकि शिक्षक और छात्र न सिर्फ इस चार साला पाठ्यक्रम के थोपे जाने के समय से बल्कि उससे भी पहले तीन साला पाठ्यक्रम में जबरन सेमेस्टर व्यवस्था लागू करने के समय से सड़कों पर हैं (जिसका पहला बैच इसी सत्र 2013-14 में पासआउट हुआ है)। चार साला पाठ्यक्रम के नाम पर डीयू ने अपने लोकप्रिय व्यावसायिक पाठ्यक्रमों बी.बी.ए., बी.बी.एस. और बी.बी.ई. (इनमें दाखिले प्रवेश-परीक्षा के आधार पर होते थे) को तो समाप्त किया ही, उसने बी.ए. प्रोग्राम, बी.कॉम. प्रोग्राम, बीएस.सी. जीवन विज्ञान और बीएस.सी. भौतिक विज्ञान जैसे अत्यन्त लोकप्रिय तीन साला स्नातक पाठ्यक्रम भी समाप्त कर दिए। तीन साला बी.ए. पत्रकारिता और जनसंचार में पहले प्रवेश-परीक्षा के आधार पर दाखिला होता था, डीयू ने उसे समाप्त कर इसे भी चार साला कर दिया। कुलपति और उनका दल पूर्वस्नातक पाठ्यक्रमों में किसी भी तरह की जनतान्त्रिक प्रवेश-परीक्षा के सख्त खिलाफ रहा है, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें उन प्रतिभाशाली छात्रों को भी मौका देना होगा, जो किसी कारणवश बारहवीं में अच्छे अंक प्राप्त न कर सके। शैक्षिक जनतन्त्र, नवाचार और स्वायत्तता की बात करने वालों के लिए ऐसे छात्रों को मौका देना पचता ही नहीं है (हालांकि पूर्वस्नातक पाठ्यक्रमों की ही तरह परास्नातक पाठ्यक्रमों में भी डीयू की कोई समान प्रवेश-प्रक्रिया व्यवस्था नहीं होने से सभी विभाग अपनी मनमानी करते हैं।)
अपने तथाकथित श्रेष्ठतादम्भ के कारण डीयू हमेशा से आयोग द्वारा जारी निर्देशों की अवहेलना करने में अव्वल रहा है। नौवें दशक में जब आयोग ने अन्य विश्वविद्यालयों के साथ डीयू को शिक्षकों की नियुक्ति में कुछेक अपवादों को छोड़कर नेटको अनिवार्य करने के निर्देश दिए तो डीयू ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया था। ऐसा न करने पर एक छात्र उच्च न्यायालय में गया, जहाँ डीयू हारा। डीयू इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय गया और वहाँ भी वह हारा। ऐसे अनेकों उदाहरण है जहाँ वह छात्र/शिक्षक हितों से सम्बद्द यूजीसी के निर्देशों के पालन में मनमानी कर अपने पक्ष में उसकी गलत और अतार्किक व्याख्या करता रहा है। छात्र/शिक्षक हितों में डीयू ने जो भी निर्णय लिए हैं, वे तमाम निर्णय प्रायः उसने आयोग के हस्तक्षेप के बाद लिए हैं। इसलिए डीयू की मनमानी कोई नयी बात नहीं है, नयी है वर्तमान कुलपति की हठधर्मिता और उसका अड़ियल रवैया। नतीतजन डीयू द्वारा आयोग के निर्णयों की अवहेलना में उन्होंने सीधे डीयू के उन 64 महाविद्यालयों (जहाँ चार सारा पाठ्यक्रम में प्रवेश हुए) को भी निर्देश जारी किए, जिनमें से 57 ने आयोग के निर्देशानुसार दाखिले पर अपनी सहमति दी और 7 तब भी कुलपति के निर्णय पर अड़े रहे।
जिस चार साला पाठ्यक्रम को कुलपति और उनके साथी छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास से जोड़कर देखते हैं, वह उनके भविष्य और उनके व्यक्तित्व के साथ खिलवाड़ करता है। कुलपति की हठधर्मिता ने इसे अपनी नाक की लड़ाई बना ली। देखना यह है कि जरूरी क्या है - कुलपति की नाक या देश की शिक्षा का भविष्य, जिसके साथ वे और उनके साथी लगातार खिलवाड़ करते रहे हैं। मुद्दा छात्रों के हित में सही पाठ्यक्रम-निर्धारण का और उनके एक साल को बचाने का रहा है। दूसरा मुख्य मुद्दा देखो, छुओ और भागोकी नीति पर आधारित सेमेस्टर (सत्रांक) व्यवस्था में छात्रों के निम्नतर बुद्धिमत्ता स्तर का है, जो चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम में तो समाप्त होता दिखता रहा है। डीयू के सैकड़ों पूर्व छात्रों और शिक्षकों से संवाद से यह बात सामने आती है कि वार्षिक स्वरूप वाला तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम अब तक का सर्वश्रेष्ठ पाठ्यक्रम है, जिसमें छात्रों को अध्ययन का भरपूर अवसर मिला और जिसने विश्वविद्यालय को प्रसिद्धि प्रदान की। यूपीए सरकार के मानव संसाधन मंत्री के निर्देश पर दिल्ली विश्विद्यालय में अफरा-तफरी में लागू किये गये चार वर्षीय पाठ्यक्रम को रद्द करवाकर वर्तमान एनडीए सरकार की मानव संसाधन मंत्री अपनी जीत का दावा कर सकती हैं लेकिन दुर्भाग्यवश इस समय वार्षिक स्वरूप वाले तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम पर कोई चर्चा ही नहीं हो रही है, क्या यह अपने आप में कुलपति की बड़ी जीत नहीं है?



मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून2014) ISSN   2320 – 835X
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