आज स्त्री विमर्श के रूप में महिला
रचनाकार जिस रूप में अपनी आत्माभिव्यक्ति कर रहीं हैं, नमिता सिंह ने उससे अलग हट
कर देश की बुनियादी समस्याओं को अपनी कहानियों का विषय बनाया है। इसका आशय यह
कदापि नहीं है कि स्त्री के मुद्दों से उन्होंने स्वयं को अलग कर लिया है। उनके
लेखन में स्त्रियों की बुनियादी समस्याएँ, जैसे निरंतर हो रहे मजदूरों का शोषण और मजदूर आंदोलनों को
कमजोर करते उनके अपने ही लोग, हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य के मूल
कारणों की गहन पड़ताल आदि सभी कलात्मक ढ़ंग से मिलते हैं। ‘राजा का चौक’ संग्रह की सम्पूर्ण कहानियाँ साम्प्रदायिक दंगों में जलते शहर, कराहती मानवता और मजदूर वर्ग की समस्याओं को बड़े ही
बेबाक अंदाज में बयाँ करती हैं। पूँजीपति मजदूरों को आपस में लड़ाकर किस प्रकार
अपना उल्लू सीधा करते हैं, यह भी देखने को मिलता है। इस संग्रह में ‘राजा का चौक’, ‘समाधान’, ‘बसंती काकी’, ‘यह नहीं’, ‘सैलाब’, ‘क्रासिंग’, ‘रक्षक’ और ‘अपने लोग’ कहानियाँ संकलित हैं। ‘राजा का चौक’ में नमिता जी ने दिखाया है कि किस प्रकार भोले-भाले
मजदूरों को आपस में लड़ाकर उसे दंगे के रूप में प्रचारित कर अत्यंत भयानक शक्ल में
बदल दिया जाता है। कहानी के पात्र छोटका और बड़का इसी के उदाहरण हैं। छोटका नौकरी
के लिए बच्चू खाँ बन जाता है और होटल की चैकीदारी में बड़का के हाथों मारा जाता
है। दुर्गासरन इसे साम्प्रदायिक दंगा कहकर पूरा फायदा उठाने का प्रयास करता है और
सफल भी होता है। कहानी के मूल में यह है कि पूँजीपतियों के स्वार्थों के समक्ष
गरीब हमेशा से सताया और मारा जाता रहा है।
‘समाधान’ कहानी मजदूरों की संघर्षरत जीवन शैली को प्रस्तुत करने वाली है। मजदूर अपनी
जायज मांगों को लेकर हड़ताल करते हैं लेकिन स्वार्थी मजदूर नेता कालीचरण सेठ से
मिलकर पूरे आंदोलन की दिशा ही मोड़ देता हैं। अल्लाबक्श और उसके मजदूर साथी एक ऐसे
अस्पताल की माँग सेठ के समक्ष रखते हैं जिससे मजदूरों का अच्छा इलाज और उनकी जीवन
शैली में सुधार हो सके- ‘‘हम बेहतर हालात चाहते हैं। हमारे
मालिक बहुत बड़े सेठ लोग हैं। हजारों रूपये दान देते हैं, लाखों का चंदा देते हैं सरकार को। एक साल की ही चंदा
रोक दें। उससे अच्छा-बड़ा हस्पताल बन जायेगा। लेकिन नहीं। इससे क्या फायदा होगा? मजदूर बिना इलाज के मर जायेगा तो दूसरा मजदूर आ जायेगा
बल्कि और सस्ता मिलेगा।’’(राजा का चौक, पृष्ठ-30) मजदूरों की इस जायज माँग के आगे सेठ अपनी
चाल चलता है। सेठ के कहने पर कालीचरण अस्पताल की जगह एक मंदिर की माँग रख देता है
और अनपढ़-भोले मजदूर धर्म के नाम पर दो भागों फाड़ में बँट जाते हैं। अस्पाताल की
माँग पीछे रह जाती है और उसकी जगह मंदिर बनाने का निर्णय लिया जाता है। मजदूरों की
स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी समस्या जस-की-तस बनी रह जाती है।
आज
के समय में निरंतर ह्रास होती मानवीय संवेदना, टूटते-बिखरते परिवार, स्वार्थी बेटों के द्वारा
बुजुर्गों की दुर्दशा आदि सभी विषयों को ‘बसंती काकी’ के माध्यम से उठाया गया है जो निरंतर
अपने बेटे की प्रताड़ना का शिकार होती है। इस कहानी में स्त्री जीवन के मर्म को
उद्घाटित किया गया है। समय के साथ-साथ माँ, बाप और बेटे के रिश्तों में स्वार्थपन आ जाता है, इसका रेखांकन उक्त कहानी में किया गया है। वीरपाल
अपने माँ और बाप को शहर यह कहते हुए बुला लेता है कि गाँव में क्या रखा है? जरूरत पड़ी तो जमीन बेच देगें। उसके यह कहने पर
माँ-बाप दोनों शहर में आकर रहने लगते हैं लेकिन समय के साथ वीरपाल का मन भी बदल
जाता है। उम्र बढ़ने के साथ ही पिता जी बीमार रहने लगते हैं और उनकी दवा का खर्च
बढ़ने पर माँ को अकेले ही खेती करवाने के लिए गाँव भिजवा देता है। उसकी माँ का मन
गाँव मे इसलिए नहीं लगता क्योंकि शहर में बेटे वीरपाल के पास उसका पति सदैव ही
बीमार बिस्तर पर पड़ा रहता है। ऐसे दंपति जो जीवन भर साथ रहते हैं और एक बेटे को
जन्म देकर न जाने कितने कष्ट उठाते हुए उनकी परवरिश के साथ-साथ पढ़ाते-लिखाते हैं, वही बेटा बड़ा होने पर स्वार्थ के वशीभूत होकर उन्हें
अलग कर देता है। वीरपाल उन बच्चों का प्रतीक है जो अपने स्वार्थ के लिए अपने
माँ-बाप की भावनाओं को नहीं समझते और उन्हें मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना देते
हैं।
‘यह नहीं’ के माध्यम नमिता जी ने यह बताने का प्रयास किया है कि शोषक की न तो कोई जाति
होती है और न ही कोई धर्म। हाजी साहब अपने ही धर्म के शकूर को मजदूरी के पश्चात्
मेहनताना नहीं देते जबकि काम देते समय धर्म के नाम पर ही उसे काम पर रखते हैं।
शंकर की हत्या एक हिंदू द्वारा भरे बाजार में सबके सामने कर दी जाती है और उसे
जबरन मुस्लिम घोषित कर शहर में दंगा भड़का दिया जाता है। शंकर से सब डरते हैं और
धर्म के नाम पर इस कुख्यात अपराधी का साथ भी देते हैं। पूरा शहर एक गलत अफवाह से
दहक उठता है और सभी धर्म के नाम पर अपनी मूक सहमति प्रदान करते हैं। शहर में जब भी
दंगा भड़कता है तो लोग भले-से-भले आदमी को भी शंका की दृष्टि से देखना शुरू कर
देते हैं। कहानी का नायक रिक्शा चालक शकूर भी इसी का शिकार होता है जिसकी दंगों के
दिनों में रोजी-रोटी तक बंद हो जाती है। बबली की माँ इसलिए अपनी बच्ची को उसके साथ
नहीं भेजती क्योंकि वह मुसलमान है। कारखाने में काम करने वाला बशीरा भी काम पर
जाना सिर्फ इसलिए बंद कर देता है क्योंकि कारखाने में ज्यादातर हिंदू मजदूर काम
करते हैं। स्त्रियाँ हमेशा ही उत्पीड़न और हिंसा का शिकार होती रही हैं। नमिता जी
इस मुद्दे से भली-भाँति परिचित हैं और कहानी के माध्यम से इसे स्वर प्रदान करती
हैं। रज्जों उनके द्वारा गढ़ा गया ऐसा ही स्त्री चरित्र है जो अपना एक छोटा सा घर
चाहती है जिसमें पति नाम के देवता का वास हो। उसका बचपन बहुत ही डरावना था क्योंकि
उसका सौतेला शराबी बाप उसकी जब चाहे तब पिटाई कर देता था और माँ भी बात-बात पर
गालियाँ दिया करती थी। शकूरा ही उसे इस नरक से निकालकर बाहर लाता है।
‘सैलाब’ मजदूरों की दिनचर्या की सशक्त अभिव्यक्ति है। गज्जू दादा कहानी के मुख्य और
सोमनाथ सहायक पात्र हैं। कहानी में दैनिक यात्रियों को होने वाली असुविधाओं एवं
मजदूरों की समस्याओं को उठाया गया है। काम की तलाश में वे घर से दूर जाते हैं और
एकता का अभाव होने के कारण पूँजीपतियों द्वारा उनका निरंतर शोषण होता है। सोमनाथ
उन्हें संगठित होने का गुरुमंत्र देता है। जीवन यापन के लिए युवा मजदूर दैनिक
मजदूरी की तलाश में बिना टिकट ही ट्रेनों के आरक्षित डिब्बे में सवार होकर शहर
जाते हैं और शाम को वापस लौटते हैं। यात्री इन मजदूरों को घृणा और तिरस्कार भरी
नजरों से देखते हैं। नमिता जी ने उनके सैलाब पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि- ‘‘वे लड़के उस समय सबकी नजरों में बहुत खतरनाक जीव थे।
जितनी जल्दी उतर जायें उतना ही अच्छा हो- सब यही मान रहे थे।’’( राजा का चौक, पृ0-72) गज्जू दादा और सोमनाथ के
माध्यम से कथा को विस्तार दिया गया है। एक दिन गज्जू दादा की एक यात्री से सीट को लेकर
बहस हो जाती है और वह अपने साथियों के साथ मिलकर यात्री की जमकर पिटाई कर देता है।
इसी दौरान महादेवा मौके का फायदा उठाते हुए यात्रियों की अंगूठी और घडि़याँ छीन
लेता है। महादेवा का यह कृत्य यात्रियों के दिल में मजदूरों के प्रति घृणा पैदा
करता है।
‘क्रासिंग’ शहर की भाग-दौड़ भरी जीवन-शैली को रेखांकित करने वाली महत्त्वपूर्ण कहानी है।
शहर के मध्य पड़ने वाली रेलवे क्रासिंग से स्कूली बच्चे, शिक्षक, मजदूर आदि सभी को दिन में कई बार गुजरना पड़ता है। सुबह स्कूल और ऑफिस जाते
समय अक्सर वहाँ कोई न कोई दुर्घटना हो जाती है जिसमें बेगुनाह लोग मारे जाते हैं।
क्रासिंग पर पुल न बनने का मुख्य कारण पुल के दायरे में आने वाली अमीरों और
पूंजीपतियों की दुकानें हैं। पूंजीपतियों की राजनीतिक पकड़ हर बार पुल बनने के
प्रयास पर पानी फेर देती है। दिनोंदिन कमजोर होती मानवीय संवेदना को यह कहानी गहरे
से उद्घाटित करती है। ढकेल वाले खान बहादुर की रेलवे ट्रक पर कटकर मौत के पश्चात्
अध्यापिका और स्कूली बच्चों के वक्तव्य इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है-
‘‘मेरी समझ में नहीं आता, क्यों इन ढकेल वालों को सबसे जल्दी पड़ती है लाइन पार करने की। अरे न दफ्तर
जाना है तुम्हें, न कॉलेज। काहे की जल्दी है।... और क्या? खुद लापरवाही करो और फिर सरकार को गालियाँ दो।’’(राजा का चौक, पृ0-85) अमीर घराने की लड़की की मौत के बाद पुल बनने की उम्मीद बनी लेकिन उसी
समय शहर में दंगा भड़क जाने के कारण जनता और सरकार का दिमाग वहाँ से हट गया या यह
भी हो सकता है कि पुल बनने की माँग से जनता का ध्यान हटाने के लिए शहर में दंगा
भड़का दिया गया। कहानी में दिखाया गया है कि अमीरों के स्वार्थ देश की प्रगति में
बाधा उत्पन्न करते हैं और सरकार उनके सम्मुख घुटने टेके पड़ी रहती है।
‘रक्षक’ कहानी शहर में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों की आंतरिक संरचना का प्रभावशाली ढंग
से चित्रांकन करती है। इन दंगों का मूल कारण गलत सूचनाएँ और अफवाह है। मास्टर साहब
कहानी के मुख्य पात्र हैं या यूं भी कह सकते हैं कि कहानी के मुख्य वक्ता हैं। कर्फ्यू
की वजह से नगरवासियों की दैनिक दिनचर्या बुरी तरह से प्रभावित होती है और
खाने-पीने की वस्तुओं की कीमत में भारी बढ़ोत्तरी हो जाती है जिससे गरीबों का जीना
दूभर हो जाता है। कहानी में कादिर, बदरू और भगत एक व्यापारी की हत्या कर उसके पैसे की थैली छीन ले जाते हैं। इस
कृत्य में शहर का पुलिस-प्रशासन भी बराबर का हिस्सेदार है जिसे 50 हजार रूपये देकर
मामला शान्त कर दिया जाता है। दंगे में पुलिस द्वारा न ही कोई आरोपी पकड़ा जाता है
और न ही किसी को सजा मिलती है। कहानी में स्त्रियों की मूल समस्या को भी नमिता जी
ने उठाता है। स्त्री को बच्चा न होने से उसे घर-समाज में तिरस्कृत एवं अपमानित
किया जाता है, चाहे कमी पुरुष में ही क्यों न हो। कहानी का यह वक्तव्य इस बात की
पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है- ‘‘मेरी सास अपने लड़का की दूसरी शादी करने की बात कह रही हैं। हमने तो सास से
कहा कि लड़का तुम्हारा घर में पैर न रखे, बहू का मुंह न देखे तो बच्चा कहाँ से होवेगा? लेकिन तुम जानो अब उसे अपने लड़का की गलती थोड़े ही दिखेगी। सारी कमी बहू में
ही दिखेगी। कहे, बहू समझदार होती तो लड़का को
बांधकर रख सकती थी।’’(96)
संग्रह
की अन्तिम कहानी ‘अपने लोग’ शहरों में काम करने वाले मजदूरों की जीवंत तस्वीर
प्रस्तुत करती है। दलित आंदोलन को अपने ही दलित नेता किस प्रकार विपक्ष से मिलकर
कमजोर कर रहे हैं, इसे नमिता जी ने बड़े ही बेबाकी से
उठाया है। शहरी जीवन में आम लोगों को नित-प्रति होने वाली समस्याएँ कहानी के
केन्द्र में हैं। कहानी के नामकरण के लिए नमिता जी विशेष रूप से धन्यवाद की पात्र
हैं। कहानी का नाम इससे बेहतर हो ही नहीं सकता। पैसे की भूख हर किसी को है। दलित
अधिकारी और नेता पैसा लेकर अपने वर्ग के साथ अन्याय करते हैं और उनकी लड़ाई को
कमजोर बनाते हैं। गिरधारी बाबू, उमेश, जगतराम आदि पात्रों के माध्यम से ‘अपने लोग’ कहानी कथ्य की अभिव्यक्ति में पूर्णतः सफल सिद्ध हुई है।
निष्कर्षतः
कहा जा सकता है कि नमिता सिंह ने ‘राजा का चौक’ कहानी संग्रह में शहरी जीवन का
रेशा-रेशा उधेड़ कर रख दिया है। हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, मजदूर जीवन की समस्या, स्त्री के माँ न बन पाने की पीड़ा और सामाजिक दंश, पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार आदि सभी
‘राजा का चौक’ की कहानियों के केन्द्र में हैं और इसी के आधार पर कथा को विस्तार दिया गया
है। नमिता सिंह की कहानियाँ पाठकों के अंतर्मन को उद्वेलित करती हुई समाज के सभी
वर्ग को एकता के सूत्र में पिरोने का सार्थक प्रयास है।
संपर्क - डॉ. धर्मेन्द्र प्रताप
सिंह, शोध सहायक, हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ, मोबाइल-09453476741
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