दलित संवेदना की कविता
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विजेंद्र प्रताप
तेवरी काव्यांदोलन के प्रणेता ऋषभदेव शर्मा की
कविताओं में वैसे तो राजनीतिक, समाजिक, धार्मिक, ग्रामीण परिवेश आदि को पर्याप्त अभिव्यक्ति मिली है।
इसके साथ ही उनकी कुछ कविताओं में भारतीय समाज को आदिकाल से वर्तमान काल तक प्रभावित
करने वाली वर्णभेद व्यवस्था का पुट देखने को भी मिलता है। लेकिन उन्होंने दलित
शीर्षक से कोई कविता नहीं लिखी पर उनकी कविताओं में इसकी चेतना अवश्य झलकती है।
(तेवरी कविता के कवि – ऋषभदेव
शर्मा)
भारतीय समाज मुख्यतः दो वर्गों में
विभाजित रहा है, एक उच्च वर्ग सवर्णों का और दूसरा
निम्नवर्ग दलित, दास और हरिजनों का। यह कटु सत्य है
कि दलितों के प्रति भारत के उच्च वर्गीय समाज का व्यवहार अत्यंत अमानवीय और पाशविक
रहा है। हरिजनों, चमारों की बस्ती सवर्णों से अलग
रहती थी और आज भी है। गांवों में दलितों को गांव के एक ओर रखा जाता है, कस्बों, शहरों में दलित मुहल्ला, हरिजन मुहल्ला अलग ही होते हैं।
विगत कुछ वर्षों से दलित, दलित चेतना, दलित आंदोलन और
दलित साहित्य ने विचारकों, सामाजिक चिंतकों, साहित्यकारों और आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया है।
इधर हिंदी में भी दलित साहित्य एक स्थापित धारा बन चुकी है। दलित साहित्य आंदोलन
के प्रमुख धारा बनने के बावजूद दलित और दलित चेतना पर बहस अभी पूरी तरह से खत्म
नहीं हुई है, खासतौर से इस बात पर विवाद बना हुआ
है कि दलित कौन है? दलित चेतना का स्वरूप क्या है? और दलित साहित्य को कैसे परिभाषित किया जाए। जिसका
दलन किया गया हो वही दलित है, यदि इस अवधारणा को माना जाए तो दलित शब्द के अंतर्गत
आर्थिक रूप से निम्न सभी वर्णों के लोगों को समाहित कर लिया जाना चाहिए। लेकिन
यहाँ स्पष्ट कर देना उचित होगा कि आर्थिक रूप से सभी वंचित लोगों की सामाजिक
प्रस्थिति समान नहीं होती। यदि कोई ब्राह्मण, ठाकुर या वैश्य आर्थिक रूप से विपन्न है तो उसे लोग गरीब कहकर सहानुभूति प्रकट
कर देते हैं परंतु पूर्व से घोषित अस्पृश्य दलित समाज तो आज भी आर्थिक दृष्टि से
पूरी तरह दलित है और आज भी समाजिक रूप से उसका दलन हो ही रहा है किंतु कोई उसके
प्रति उस तरह से सहानुभूति नहीं प्रकट करता है जिस तरह से एक सवर्ण गरीब के साथ।
यदि आर्थिक रूप कमजोर व्यक्ति को दलित माना जाए तो हमारे समाज में एक गरीब
ब्राह्मण की सामाजिक प्रस्थिति वह नहीं होगी जो कि एक गरीब अछूत जाति के व्यक्ति
की। परंपरागत रूप से धन, शक्ति, यश एवं गुण से हीन ब्राह्मण भी धनवान, शक्तिशाली, गुणवान अछूत से सामाजिक स्तर पर उच्च माना जाता है। यहां तक कि एक अनपढ़, निरक्षर सवर्ण किसी बुद्धिमान, शिक्षित शूद्र को अपने बराबर मानने को तैयार नहीं
होता है। तुलसीदास की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं – ‘पूजिय विप्रासील गुन
हीनासूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।’ आज के आधुनिक समाज में जातीय विभाजन एक दम
निरर्थक है। बल्कि बदलते हुए समय में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था और पूंजीवादी दैत्य
ने अपने पाँव चारों तरफ पसारन लिये हैं उसमें जातिविरोधी समतामूलक दृष्टिकोण की उपयोगिता
और सार्थकता निश्चित रूप से बढ़ जाती है।
समकालीन कविता का कैनवास काफी
विस्तृत है। समकालीन कवियों ने अपनी कविता में केवल प्रेम, सौंदर्य और प्रकृति को ही महत्त्व नहीं दिया है, बल्कि उन्होंने समय के अनुरूप आम आदमी की स्थिति को भी परखने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया है। आज के कवियों
द्वारा आज की हिंदी कविता में स्त्री की संवेदना, दलितों पर किये गये अत्याचार एवं आदिवासी जन-जीवन को महत्त्व दिया जा रहा है। सत्य है कि काल एवं समय के
अनुरूप समकालीन काव्य लेखन के संदर्भ भी परिवर्तित हो रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि
साहित्य समाज का दर्पण होता है। लेकिन मेरी दृष्टि से साहित्य केवल विशिष्ट वर्ग
का ही प्रतिनिधित्त्व कर रहा है। इसलिए साहित्य के अन्तर्गत दलित यथार्थ का सत्य, आदिवासी का जीवन और वनों-जंगलों में घुमकर अपना जीवन बिताने
वाली घुमंतू जैसी जनजातियों का चित्रण
उस मात्रा में नहीं है जितना होना चाहिए। यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो ये चीजें
उस दर्पण में नहीं के बराबर क्यों हैं, यह विचारणीय है। लेकिन आज के दौर दलित एवं आदिवासी पर लेखन किया जा रहा है ।
उसी प्रकार घुमंतू जनजातियों पर भी लेखन किया जाना आवश्यक है।
प्राचीन काल से ही उच्चवर्गीय समाज
द्वारा दलित एवं पिछड़े हुए समाज का शोषण होता आया है। मराठी एवं हिंदी के कुछ कवियों
ने अपनी लेखनी के माध्यम से छुआछूत एवं अस्पृश्यता की जड़ों को उखाड़ने का प्रयास किया है। मराठी के कुछ कवियों ने
दलित और बंजारा, कैकाड़ी, वडर आदि जनजातियों की स्थितियों का चित्रण किया है।
प्राचीन कवियों ने भी अपने काव्य में जातियता एवं अस्पृश्यता को मिटाने के लिए समाज में जनजागृति का कार्य किया।
मराठी में तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नामदेव,चोखामेळा, एकनाथ समर्थ रामदास आदि संत कवि
मराठी दलित साहित्य के आदर्श माने जाते हैं। उसी प्रकार हिंदी में कबीर, रविदास, मीराबाई, रैदास आदि भक्त कवि हिंदी दलित
साहित्य के प्रेरणा स्रोत बने। इन कवियों ने तत्कालीन सामाजिक उँच-नीच के भेदभाव को मिटाने का संदेश जनसमान्य को दिया। कबीर का साहित्य
जाति-पाती एवं अन्याय के खिलाफ हस्तक्षेप करके सभी समाज के वर्गों का नेतृत्व करता
है। कबीर ने जातीय व्यवस्था व सामन्तवाद का विरोध किया है। इसलिए उनके काव्य में
हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मणों और शूद्रों आदि के
उल्लेख के रूप में वर्ण व्यवस्था के विरोध के संकेत मिलते हैं -
“जन्मत शूद्र, भये पुनि शूद्रा ।
कृत्रिम जनेउ, घालि जंग दुंद्रा ।।
तथा
जाति-पाँति पूछे न कोई
हरि का भजे से हरि का होई ।”
डॉ. सुमन सिंह कबीर के योगदान को रेखांकित करते हुए कहती हैं
कि, “मराठी एवं हिंदी के संत साहित्य में सभी संत कवियों
ने वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाँति, ब्राह्मण-शूद्र, मूर्ति पूजा और पाखंड का विरोध किया है। इन्होंने अपनी बात अपनी भाषा, भजन और दोहों के माध्यम से कही है । संत नामदेव, संत कबीर, नाभादास, दादू दयाल, सुंदरदास आदि सभी संत कवियों की वाणी में दलित चेतना
के स्वर देखे जा सकते हैं ।”[1]
दलित कविता का आरंभ आधुनिक काल से माना
जा सकता है। महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ पत्रिका में ‘हीराडोम’ नाम की भोजपूरी कविता ‘अछूत की शिकायत’ नाम से छपी थी। यह हिंदी कविता में प्रथम दलित कविता मानी जाती है। उसके
पश्चात् हिंदी के कुछ कवियों ने अपनी कविता में दलित चेतना का स्पर्श करने का
प्रयास किया। लेकिन उससे विमर्श प्रारंभ नहीं हो पाया क्योंकि उनकी दृष्टि सीमित
ही रही है। उन्होंने केवल दलितों को ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के रूप में ही देखा। नागार्जुन, निराला जैसे कवियों ने दलितों एवं पिछड़े हुए समाज के
शोषितों के विविध रूपों को चित्रित किया है। निराला ने ‘शिवाजी का पत्र’ कविता में शूद्रों की दयनीय स्थिति पर चिंता व्यक्त की है। निराला की दृष्टि
से भारत में जब तक शूद्रों की स्थिति दयनीय रहेगी, तब तक भारत देश का भविष्य अंधकारपूर्ण ही बना रहेगा।
इक्कीसवीं सदी के दौर में दलितों
के जीवन-परिवर्तन को लेकर कविताएँ लिखी जा रही है। इन
कविताओं में दलितों का संघर्ष, मुक्ति आंदोलन, अज्ञानता, दरिद्रता, सामाजिक गुलामी से मुक्ति, अछूतों के लिए आजादी, दलितों की पीड़ा औरव्यथा आदि को महत्त्व दिया जा रहा है। बहुत से दलित
साहित्यकार न सिर्फ गद्य बल्कि पद्य में भी अपनी उत्तम से उत्तम रचनाएं प्रस्तुत
कर इस विमर्श को आगे बढ़ा रहे हैं।
दो-तीन दशकों से समाज का काफी हद
तक कुछ अलग तरह का सांप्रदायीकरण और जातिवादीकरण हुआ है जो कि परंपरागत जातिवाद से
कुछ अलग प्रतीत होता है। समाज का जातिवादीकरण वैसे कुछ नया नहीं है इसकी जड़े तो
भारतीय संस्कृति में सदियों से हैं परंतु विगत दशक में इसका मुखौटा परिवर्तित सा
हो चला है, जहां एक ओर सवर्ण समानता के नाम पर
दलित समुदाय के लोगों के साथ मित्रता कर रहे हैं, वहीं कहीं न कहीं उनके प्राचीन
संस्कार भी जोर मारते रहते हैं। ऊपर से दिखावा अवश्य किया जाता है कि आपस में हम
भाई-भाई हैं परंतु कथनी और करनी में बहुत अंतर होता है। राजनीतिक पार्टियाँ वोट के
लिए जातिवादी भावनाओं का ही सहारा लेती हैं। उत्तर प्रदेश तो प्रमुख उदाहरण है।
कभी दलित समर्थित बहुजनसमाज पार्टी को प्रमुखता मिल जाती है तो कभी यादव समर्थित
समाजवादी पार्टी को। ऐसा ही हाल लगभग भारत के सभी राज्यों का है। विकास और प्रगति
कोई विशेष मुद्दा नहीं बन पाया है हमारे देश में। जातिवाद ही हावी रहता है। देश का
सवर्ण नेतृत्व इस अलगाववादी भावना को संपोषित करने के लिए अन्य लोगों की तुलना में
ज्यादा जिम्मेदार है। लेकिन हिंदी की कविता इस पूरे दौर में सांप्रदायिकता के
खिलाफ खड़ी रही। हिंदी कविता ने सांप्रदायिकता के विरुद्ध सिर्फ नारा नहीं लगाया
बल्कि हिंदी के कवियों ने इस दौर को पूरी जटिलताओं के साथ सांप्रदायिकता के विविध
रूपों को अपनी पूरी रचनात्मक समझ से साथ देखा, परखा और जांचा। हिंदी कविता का संसार कितना बड़ा है, इसका अनुमान इस बात से
लगाया जा सकता है कि अगर किसी एक विषय को लेकर हिंदी की श्रेष्ठतम समकालीन कविता का
चयन किया जाए तो उसके लिए कविताओं का एक संचयन काफी नहीं होगा। इसी तरह हम देखते
हैं कि स्त्रियों को लेकर पुरुषों ने और खुद कवयित्रियों ने जो कविताएं लिखी हैं, वे अपने आप में एक सामाजिक, राजनीतिक दस्तावेज तो हैं ही, वह हिंदी की श्रेष्ठतम
कविता का उदाहरण भी है। इसी तरह पिछले वर्षों में वैश्वीकरण का पूरे समाज पर
किन-किन रूपों में प्रभाव पड़ा है, उसका जो रचनात्मक आकलन हमारे हिंदी के कवियों
ने किया है, वह हमारे अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों द्वारा किए गए आकलनों से
कहीं आगे का है और उसके दुष्प्रभाव की एक संपूर्ण रपट भी है जो शायद अन्य कहीं न
मिले। वर्तमान दौर में जिस तरह गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों की अनदेखी हो रही है, जिस तरह उनकी आवाज को कहीं भी दर्ज न करने देने की
जबर्दस्त कोशिशें हो रही हैं। किंतु इन लोगों के संघर्षों, दुखों, पीड़ाओं, अकेलेपन की अनेक तस्वीरें हिंदी
कविता ने दर्ज की हैं। यानी हमारे समय के भारत की जिस सच्चाई की उपेक्षा हमारे
अकादमीशियन, हमारे विचारक, हमारे पत्रकार, हमारे नेता, हमारा मीडिया कर रहा है, वे हिंदी की कविता में दर्ज मिलेंगी। इसीलिए ऐसी
कविता जो अपने समाज के पूरे ढांचे को बारीकी से देखने-समझने का प्रयास कर रही है, उसमें अंतनिर्हित यातना और पीड़ाओं को दर्ज कर रही है, उसकी आशाओं-आकांक्षाओं को रेखांकित कर रही है, वह
निश्चय ही दुनिया की श्रेष्ठ कविताओं में गिने जाने योग्य है।
तेवरी काव्यांदोलन के प्रणेता ऋषभदेव
शर्मा की कविताओं में वैसे तो राजनीतिक, समाजिक, धार्मिक, ग्रामीण परिवेश आदि को पर्याप्त अभिव्यक्ति मिली है।
इसके साथ ही उनकी कुछ कविताओं में भारतीय समाज को आदिकाल से वर्तमान काल तक
प्रभावित करने वाली वर्णभेद व्यवस्था का पुट देखने को भी मिलता है। लेकिन उन्होंने
दलित शीर्षक से कोई कविता नहीं लिखी पर उनकी कविताओं में इसकी चेतना अवश्य झलकती
है। प्रस्तुत विवेचन में इसी को रेखांकित करने का प्रयत्न किया जा रहा है -
सवर्ण बीती अनगिनत पीढि़यों से
दलितों के रक्त से अपने हितों का सिंचन करते आए हैं। शोषकों के जीवन का हर तथ्य
किसी न किसी रूप में किसी न किसी दलित की गाढ़ी मेहनत, गुलामी, शोषण और उसकी आंतरिक वेदना का चिट्ठा होता है जिसका लेखा जोखा किसी के पास
नहीं क्योंकि शोषक को दलितों पर किए गए अपने जुल्म याद रखने की कोई जरूरत ही नहीं
और दलित किसी लायक रहा ही नहीं। उसे तो न पढ़ने दिया गया, न सुनने दिया गया और उसने अपने निजी कौशल से कुछ सीख
लिया तो उसका अंगूठा कटवा लिया गया। एक दलित का अंगूठा कटवा लिया जाना भले ही
उदाहरण बन गया परंतु असंख्य दलितों की आवाज तो कभी भी ठाकुर, ब्राह्मणों के घरों की चार-दीवारों से बाहर ही नहीं आ
पाई। दलित सवर्णों के हाथों का खिलौना बना रहा और खुद को मिटाकर दूसरों को जीवन
देता रहा है-
“रक्त पीकर पल रही है रक्तजीवी एक पीढ़ी
जबकि अपनी देह की हम आप हड़डी काटते हैं।”[3]
सवर्ण अपनी शक्ति एवं इच्छा से दलितों के आदेशदाता एवं
कर्णहार बन गए, उन्हें किसी से इजाजत लेने या
पूछने की जरूरत थी ही नहीं और दलित उसी को अपना भाग्य मानते रहे हैं। अत्याचार के
विरूद्ध आवाज उठाने तक की इजाजत नहीं दी गई। धर्मशास्त्रों को सुनकर उनसे ज्ञान
लेने की कोशिश तो दूर, यदि कभी गलती से किसी दलित के कान में इनका कोई वाक्य पड़
गया तो उसके कानों में गर्म तेल डलवा दिया गया। जुवान खोलने की कोशिश की तो उसे
तकुए से छेद दिया गया या जीभ ही काट ली गई। अपने ही पीडि़तों की आवाज सुनने से भी
प्रतिबंधित कर दिया गया ताकि उनकी आवाज सुनकर मन में दर्द या पीड़ा न हो और आवाज
उठाने का प्रयास ही न किया जा सके -
“जो पिता की भूमिका में/ मंच पर
उतरे/ विधाता हो गए वे/जीभ में तकुए पिरोए/आंख कस दी पट्टियों से/कान में जयघोष
डाला/आह सुनने पर लगे प्रतिबंध/पीडि़तों से कट गए संबंध/चीख के होठों पड़ा ताला”[4]
सवर्ण होली दीवाली तथा अन्य
त्योहारों पर सकुटुंब खुशियां मनाते हैं पर गरीब, दलित, शोषित जनों का न तो कभी कोई त्योहारा होता है और न ही
कोई खुशी वो तो हर मौसम में हर रोज एक कार्य में डूबे रहते हैं सवर्णों की बेगार
में। वे तो बस दूसरों को देखकर ही मन मसोस कर रहे जाते हैं अपने जीवन और उसमें
नीहित कमियों के भंवरजाल को मन ही मन कोसते हुए।
“हो गए है आप तो ऋतुराज होली में
वे तरसते रंगी को भी आज होली में”[5]
दलित दबा रहता है और दलन उसकी नीयति बन चुकी है, वह जब भी
अपनी आवाज उठाना चाहता है तो उसका बड़ी ही निर्दयता के साथ दमन कर दिया जाता है।
यहां तक उसे अपने जख्मों में हो रहे दर्द पर कराहने का भी हक नहीं होता, वह कराहता
भी है तो उस पर और अधिक अत्याचार होता है पर उसकी अंतरआत्मा कह उठती है -
“मौन हम निर्दोष कब तक मार कोड़ों की सहेंगे
जबकि दबती आह पर वे शोषितों को डांटते हैं।”[6]
पूंजीपति, ठाकुर, जागीरदार, ब्राह्मण, वैश्य ने सदा से ही दलितों को दबाए
रखा और जरा सा अनाज या कोई सामान दे एक दलित को न जाने कितनी पीढि़यों के लिए
गुलाम बनाया जाता रहा है। इतिहास साक्षी है भारत में बहुजुठाई जैसी प्रथा भी रही
है। इस प्रथा में किसी भी दलित की स्त्री को सर्वप्रथम उस गांव का मुखिया, जमींदार या ठाकुर जूठा करता था उसके बाद जब ठाकुर का
मन भर जाता था तब दलित को उसकी स्त्री दया के रूप में लौटा दी जाती थी। यदि उस
दौरान दलित स्त्री यदि गर्भवती हो जाती थी उसका दलित पति उस रसूखदार ठाकुर के
बच्चे को आजन्म अपना कर पालता था। इसप्रकार पैदा हआ बच्चा क्योंकि वह दलित कोख में पलता था, दलित ही रहता था ।
बड़ी विडंबनात्मक स्थिति रही है दलित समाज की। दलित स्त्रियों को आज भी उच्च वर्ग
के लोग अपनी बपौती समझते हैं। दलित पैसे से गरीब तो होते ही हैं और जिसके पास
पूंजी होती है उसके समक्ष अनादिकाल से अन्य लोग झुकते आए हैं। दलित भी कर्ज लेते
है और बदले में उनकी स्त्रियां समाज में सूदखोरों और तथाकथित समाज के सभ्य
ठेकेदारों का शोषण झेलने के लिए सबसे नरम चारा बनती आई हैं। भूखे, नंगे और मजबूर दलित घर की औरत को वैसे तो ये सभ्य
समाज के ठेकेदार कभी देखना भी पसंद नहीं करते परंतु जैसे ही इनकी नजर उसके शारीरिक
कटाव-छटांव पर जाती है वह गंदी नहीं रह जाती है और उस स्त्री का परिवार कर्जे में
डूबा हो तो वह सूदखोर, जमींदार या फिर उसका मुनीम गरीब के घर की इज्जत को अपने पैरों
की दासी और सबसे आसानी से उपलब्ध हो सकने वाले जिंदा मांस की दृष्टि से ही देखता
है। और यह तक नहीं सोचता कि जिस गरीब स्त्री के उरोजों पर उसकी गंदी निगाहें टकटकी
बांधे हुए हैं उन्हें देखकर उसके मजबूर पति, भाई या पिता के ह्रदय पर क्या गुजरती होगी। वे बेचारे
तो सिर्फ मन में ही घुटकर रह जाते हैं परंतु उनका ह्रदय कह उठता है -
“भूख के उरोज पर सेठ या मुनीम
औेर ना धरें नजर भूमि की पुकार”[7]
दलित अपने जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए सुबह से शाम तक
शरीर तोड़ मेहनत करता है परंतु ठेकेदार उतने पर भी खुश नहीं होता है। दलित को
बीच-बीच में सुस्ताने का भी हक नहीं । जरा सा बैठ जाए तो उसका स्वागत गालियों एवं
हंटरों, कोड़ों से होता है। यदि वेदना उजागर करती हैं
निम्नलिखित पंक्तियां –
“पीठ पर नीले निशानों की उगी है बस्तियां
बोझ कितने ही गधों का ढो गया मेरा शहर।”[8]
दलितों की माली हालत कभी भी ठीक नहीं रहती है। आज कमा लिया
तो खा लिया नहीं तो फांके। यहाँ तक कि ओढ़ने के लिए उनके गुदड़े भी नहीं होते है
और जब गुदड़ी फटने लगती है तो चिंतातुल गरीब मां जहां तहां से मिल जाने वाले
चिथड़ों से उस गुदड़ी की मरम्मत करती है ताकि सर्दी के मौसम में उसे अपने बच्चों
को ओढ़ सके। गरीब दलित और उसका परिवार दिल्ली की सड़कों पर बदहाल जिंदगी जी रहा
होता है तो उसके गांव, मोहल्ले वाले तथा रिश्तेदार यही
सोचते हैं कि फलाना तो दिल्ली में कमाने गया है और उसकी जिंदगी वहां बड़े मजे से
गुजर रही होगी। परंतु उसका वहां क्या हाल है, वह तो सिर्फ वही जानता है –
“रग्घू की मां तो चिथड़ों से गुदड़ी सीती
शोषण की साड़ी में दिल्ली रानी है।”[9]
जहां पुराने जमाने में ठाकुरों, जमींदारों, साहूकारों द्वारा जी भरकर दलितों का शोषण किया गया, वहीं वर्तमान राजनीति
साहूकार जो कल तक उन्हीं के बीच का इंसान होता था, वह भी खुद को जिताने के लिए
जातिवादी भावनाओं को भड़काता है और लोगों को अपने पक्ष में कर जीत भी जाता है। वह चुनावी
दंगल जीत जाता है, उसे कुर्सी मिल जाती है परंतु जो दलित पहले से भूखे थे और
बेहतरी की आस में छले गए उनकी हालत सदियों पुरानी अवस्था में रहती है। उसे तो कल
भी रक्त बहाना पड़ता था जिंदा रहने के लिए और चुनाव के बाद भी रक्त ही बहाना पड़ता
है। चुनाव के दौरान अपनी जातिगत भावनाओं के चलते जब भी दलित अपने समर्थक के लिए
लहुलुहान होता है तो वह यही सोचता है अपना आदमी जब नेता बन जाएगा तब उसके और उसके
समाज के दिन फिरेंगे पर ऐसा कुछ भी नहीं होता है। उसके रक्त से सनी कुर्सी पर उनका
ही आदमी जब बैठ जाता है तो वह सवर्ण बन जाता है और दलित दलित ही बना रहता है ।
“सूखी आंतों, भूखे पेटों को रोटी तो मिल न सकी,पर
रक्त आदमी का कुर्सी के होठों का सिंगार हो गया।”[10]
दलितों के जीवन में राजनीति भी अहम
हिस्सा होती है क्योंकि वह चाहे-अनचाहे राजनीति का शिकार होता हैं। स्वतंत्र भारत
में भी दलितों की चारों ओर से घेराबंदी की जा रही है। आजादी के साठ साल बाद भी
दलितों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है। अपने अधिकारों की प्राप्ति के
लिए संघर्ष करनेवाले दलितों को पोलिंग बूथ तक भी जाने नहीं दिया जाता है। उनको
डरा-धमकाकर अपने पक्ष में मतदान करने के लिए मजबूर किया जाता है। उनके लिए राजनीति
एक बेईमानी से ज्यादा कुछ नहीं है। मुखिया नाम का प्राणी जो हम में से ही एक होता
तो है परंतु मुखियागिरी आते ही वह जिनके कारण मुखिया है, उन्हें ही सबसे पहले भूल
जाता है और उसे यह भी याद नहीं रहता कि वह जिन पर अत्याचार कर रहा है, वे तो उसी
के अपने हैं और आज वह जो कुछ भी है, उन्हीं की बदौलत है। वह आदमखोरी करता है और
स्वयं के द्वारा किए गए गलत कार्यों को अशिक्षित, अनपढ़, अनगढ़ भोले-भाले दलितों के सिर पर
मढ़ देता है, चूंकि वह रसूखदार हो चुका होता है
लोग और प्रशासन उसी पर विश्वास करते हुए और बहुत हद तक मिलीभगत के कारण निर्दोष
लोगों को फंसा देता है -
“मुखिया आदिमखोरों का
कब तक करता संतोश पलंग
साफ बरी होता मढ़कर
औरों के सिर दोश पलंग”[11]
सवर्ण हमेंशा दलितों को हिकारत की नजर से देखते रहे हैं।
उन्हें कभी इंसान माना ही नहीं, यहां तक कोई दलित किसी कारण से
सवर्ण के दरवाजे पर पहुँच गया तो उसे दुत्कार के अलावा और कुछ नहीं मिला और कभी
कुछ मिला भी तो उसे उससे ज्यादा चुकाना पड़ा -
“आपकी डयोढ़ी रही, दुत्कारती जिनको
बलपूवर्क सवर्णों ने दलितों पर शासन किया क्योंकि वे निर्धन
और निर्बल थे। भूखे पेट बल आ भी कहां से सकता है और जिस समुदाय की नसों में भूख और
गरीबी समाई हो उससे उम्मीद भी कितनी की जा सकती है परंतु सवर्णों के अत्याचार कभी
भी रूके ही नहीं। परंतु किसी भी अत्याचार की हद होती है। किसी न किसी दिन प्रतिरोध
के स्वर सुनाई देने लगते हैं और जब दलित सजग होने लगत है तो वह भूख और गरीबी से समझौता करने से इंकार कर
देता है। और तब उसकी हालत कम से कम बेगारों वाली तो नहीं रह जाती। मजदूरी तो वे
पहले भी करते रहे पर बिना पारिश्रिमिक के। जब दलितों ने ठाकुरों और अत्याचारियों
की गुलामी छोड़कर पारिश्रमिक पर मजदूरी मांगनी आरंभ की तो अत्याचारियों की भौंहे
तन गई। और उसे प्रताड़ित करने के नए तरीके
अपनाए जाने लगे, ऐसे में दलित कह उठा -
“बन गए मालिक उठा, तुम हाथ में हंटर
* *
*
“धर्म भाषा जाति दल का आजकल आतंक है
इन सभी का दुर्ग टूटे एक ऐसा युद्ध हो।
रंग के या नस्ल के हित, जो कि नक्शा नोंच दे
पेट की आग व्यक्ति से क्या न करवाती है। अनगिनत वर्षों तक
दलितों के शोषण का मुख्य कारण ये पेट ही तो रहा। वैसे भी सर्वमान्य सत्य है कि पेट
ही सारी समस्याओं की जड़ है। यदि पेट न होता तो व्यक्ति संभवतः किसी के आगे न
झुकता। दो वक्त की रोटियां ही शोषण का कारण बनती रही हैं, यही कवि कहता है –
“शक्ति का अवतार हैं ये रोटियां
शिव स्वयं साकार है ये रोटियां।
भूख में होता भजन, यारो नहीं
भक्ति का आधार है ये रोटियां।”[15]
भूखा व्यक्ति जब कभी किस्मत से
रोटी के दर्शन कर पाता है तो उसे विश्वास ही नहीं होता है। उसे लगता है जैसे उसने
दुनिया की सबसे नायाब वस्तु के दर्शन कर लिए हों। परंतु जब अति हो जाती है तो वह
उसकी शक्ल तक भूल जाता है। गरीब की जिह्वा उसका स्वाद कभी का भूल चुकी होती है -
“भूख ने इतना तपाया भीड़ को
हो गया पत्थर निवाला देख लो।”[16]
दलितों को हमेंशा झूठे व लुभावने वादे कर छला गया। कभी
पुचकार कर तो कभी दुत्कार कर। पुचकार और दुत्कार ही दलितों की नियति रही है, लेकिन आज का दलित समझ चुका है वह पुचकार झूठी है और
उसे अब उनके फरेब में नहीं आना है –
“कुल गालियां देकर कभी, कुछ बांट गोलियां
जीने का हक सभी को होता है। जो जीव दुनियां में परमपिता
परमेश्वर के प्रताप से इस संसार में अवतरित हुआ है उसे सभी के समान जीने का हक है
परंतु दलितों से सवर्णों ने जीने का हक छीन लिया और उन्हें इसका भान भी जाता रहा
कि उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व भी है परंतु प्रकृति तो अपना रंग हर व्यक्ति के
अंदर जोर मारती ही है और उसी के फलस्वरूप दलित के अंदर से भी पुकार उठती है जीने
की, उसके कुछ होने की -
“घुलते चले जाते हैं..../घुलते चले
जाते हैं..../हमारे अस्तित्व के रंग/और फिर/हौले से /आ जाते हैं सपनों में!/सताते
हैं प्राणों को/हो जाते हैं विलीन/छूने का बढ़ते ही/टूटते हैं स्वप्न/कलपती हैं
उंगलियां/तरसते हैं पोर-पोर/छूने को रंग/सपनों के रंग।”[18]
दलितों ने भी समाज के उत्थान में
सदा ही सकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया।
उन्होंने भी हर संघर्ष को अपना मानते हुए उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया परंतु
सवर्णों ने उनके बलिदानों को कभी आकलित करने का प्रयास तो दूर की बात है, उसका
ग्रंथों में उल्लेख करना तक मुनासिब नहीं समझा -
“तुम्हारे अंधे इतिहास में/तुम्हारी सभ्यता के विकास
में/मेरा गला जला जा रहा है/मेरी पीठ सुलग रही है/ तेरी आंखों में चिंगारी धधक रही
है/मेरे कानो में जलन भर रही है/और मेरी जीभ में चुभन हो रही है/ तुम्हारे अंधे
इतिहास में/ अंकित हे/ मेरी हत्या का षडयंत्र।”[19]
दलित समुदाय के लोगों को भेदभाव बचपन
से ही झेलना पड़ता है भले ही आज समाज ये कहे कि अब पहले जैसी स्थिति नहीं रही है
परंतु मानसिकता में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है और यदि आया भी है तो बस इतना कि
किसी दलित के सामने न कह कर लोग उसके मुंह फेरते ही अपनी भावनाओं को प्रकट करने से
नहीं रोक पाते हैं। महानगरों में भले ही स्थिति कुछ बदली हो परंतु छोटे शहरों, कस्बों तथा गांवों में अभी भी स्थिति पहले जैसी ही
है। बचपन में दलित को उसके वर्ण का अहसास दिला दिया जाता है -
“बचपन......./सपनों से भरा तुम्हारा बचपन/निर्दोष
भोलाभाला तुम्हारा बचपन/स्पर्शवर्जित कुंआरा तुम्हारा बचपन/दुधमुहां श्वेतवर्ण
तुम्हारा बचपन।”[20]
भारतीय समाज तो जातिवाद का उदाहरण
है। अपराधियों, राजनीतिक माफियाओं, देश के गुप्त
दस्तावेजों को बेचने वालों घोटालेबाजों और मक्कारों के साथ-साथ गंदे पशुओं और
पक्षियों तक को मंदिरों में प्रवेश प्राप्त है, पर ईमानदार, कर्मठ और शान्ति प्रेमी दलित को
नहीं। आज संपूर्ण देश भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी की समस्याओं से ग्रस्त है। छोटे-से
छोटे काम से लेकर बड़े से बडे काम पैसे के सिवाय पूर्ण नहीं हो रहे है। चुनाव के
लिए करोडों रुपये खर्च करनेवाला उम्मीदवार जीतने के बाद शासन तथा जनता को लूट रहा
है। गरीब और दलित जनता उनकी जीत के लिए मतदान करती है। लेकिन जीत कर आने के बाद
नेता उनकी बस्तियों में कदम तक नहीं रखता है। वैसे विश्व में ऐसा कोई देश नहीं
जहां जातिवाद हावी न रहा हो परंतु हमारे देश का जातिवाद बहुत खंडों में विभाजित
है। प्राचीन काल से वर्तमान तक इसके अनगनित उदाहरणों से हम सब अच्छी तरह से परिचित
हैं इसलिए विशेष रूप से उन्हें उल्लेखित करने के स्थान पर विषयानुसार हम यदि हिंदी
कविता की बात करें तो ज्यादा समीचीन होगा। दलित आंदोलन से संबंधित साहित्य में
जहां दलित लेखकों का पूरा-पूरा योगदान है वहीं गैर दलित लेखकों का बहुत योगदान है।
यहां वही चिरपरित प्रश्न आता है कि क्या गैरदलित साहित्यकारों के साहित्य को दलित
साहित्य माना जाए तो इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्णतः दलित साहित्य न भी
मानें तो इसे दलित संवदेना का साहित्य को कहा ही जा सकता है। हिंदी में एक कहावत
है कि ‘जा के पांव फटी न बिबाई वो क्या जाने पीर पराई।’ यह सत्य है कि जिसे दर्द
होता है, वही उसकी सघनता को ज्यादा अच्छी तरह से जानता है परंतु अन्य लोग भी उसके
हाव-भाव से उसकी पीड़ा का कुछ अहसास अवश्य कर सकते हैं। ऐसे ही अहसास के फलस्वरूप
गैर दलित सवर्ण लेखकों की लेखनी से जो साहित्य निस्रित होता है, उसे दलित संवेदना
का साहित्य तो कहा ही जा सकता है, वह दलित साहित्य भले ही न हो। ऋषभदेव शर्मा
मूलतः ग्रामीण परिवेश से संबंधित हैं और उन्होंने भी दलित, गरीब लोगों का शोषण होते देखा है। ऐसे में एक सहृदय
लेखक होने के नाते उनका मन भी द्रवित होता है, और उसी द्रवण के कारण उनकी कविताओं
में हमें गरीबों, दलितों, स्त्रियों का दुख दर्द झकलता है।
संपर्क - - विजेंद्र प्रताप, ईमेल पता - vickysingh4675@gmail.com
संदर्भ -
1.
डॉ. सुमन सिंह, समकालीन हिंदी कविता में दलित चेतना, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
2.
निराला, राग-विराग (काव्य-संकलन)
3.
ऋषभदेव शर्मा, तेवरी,1982, तेवरी प्रकाशन, खतौली
4.
ऋषभदेव शर्मा, ताकि सनद रहे, 2002,तेवरी प्रकाशन,हैदराबाद
5.
ऋषभदेव शर्मा, तरकश,1996, तेवरी प्रकाशन, खतौली
(ऋषभदेव शर्मा के चर्चित काव्य संग्रह)
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