हिंदी कवयित्रियों की लेखन
प्रवृत्तियों के माध्यम से स्पष्ट है कि यह आधी आबादी की आधी आबादी के लिए चुनौती
है। इस कविता की ‘मैं’ शैली में आधी आबादी स्वतः ही
एकसूत्र में बंध जाती है। कवयित्रियाँ समता, स्वतंत्रता और
सद्भभावना आदि प्रजातांत्रिक मूल्यों की माँग के साथ-साथ अपनी अस्मिता स्थापित
करना चाहती हैं, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो वे अपने
पैरों के नीचे की ज़मीन के साथ-साथ अपनी पहचान चाहती हैं। अब वे अन्या और
उपेक्षिता शब्द को खारिज करते हुए सत्ता के रणक्षेत्र में उतर आयी हैं अथवा
कुरूक्षेत्र के युद्ध में बिना हथियार उठाये लड़ रही हैं तथा पुरूष मानसिकता को
बदलने का निरंतर प्रयास कर रही हैं।
“अब औरत किसी आदमी के नाम से
जुड़ी जमीन नहीं,
उसकी जिन्दगी
सिर्फ उसकी है – यही उसके जीवन
का मूलमंत्र है
हथियार के बल
पर और कब तक होगी सभ्यता की खरीद-बिक्री।
असमानता की जटा
उधेड़कर नारी खोज रही है समता का सूत,
अब वह समझ गयी
है कि उसका जीवन सिर्फ उसी का है,
स्त्री
के विषय में उसके सुख-सुविधाओं से लेकर प्रत्येक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में
ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म से सूक्ष्मतम्
चिंतन-मनन कर अस्वस्थ दृष्टिकोणों को स्वस्थता प्रदान करना ही स्त्री-विमर्श है।
स्त्री-विमर्श
एक ज्वलंत मुद्दा है, किंतु हिन्दी
साहित्य के इतिहास में स्त्री-लेखन की चुप्पी ने सुमन राजे को आधी आबादी के लिए ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’ लिखने हेतु विवश कर दिया। तब सामने आया कि स्त्री-लेखन की
एक अविच्छिन्न धारा निरंतर प्रवाहित होती रही है, किंतु पुरूषवर्चस्ववादी इतिहास में उसे अपना स्थान प्राप्त ही नहीं हुआ।
स्त्री-विमर्श के मुद्दे ने 60-70 के दशक में एक आंदोलन का रूप ले लिया। स्त्री-विमर्श ने उदारवादी, कट्टरपंथी, मनोविश्लेषणवादी, समाजशास्त्रीय एवं मार्क्सवादी आदि धाराओं से गुजरते हुए
उत्तरआधुनिक युग में एक नया ही रूख ले लिया है। उसने अपनी पूर्ववर्ती धाराओं की
विचारधारा से सीख लेकर स्वयं को परिमार्जित एवं परिष्कृत किया तथा जो अवधारणाएँ
स्त्री-हित में थीं, उन्हें खुले मन से अपनाया है।
सिमोन द
बोउवार की मान्यता - “स्त्री स्त्री
पैदा नहीं होती, स्त्री बना दी
जाती है” को उत्तर आधुनिक नारीवाद ने समझा
तथा उदारवादी नारीवाद की जीवशास्त्रीय समानताओं एवं विषमताओं को समझते हुए अपना
कदम आगे बढ़ाया। उग्र या कट्टरपंथी नारीवाद के ‘इमेजेज ऑफ विमेन’ के सिद्धांत अर्थात्
विवाह और मातृत्व से मुक्ति से उत्तर-आधुनिक नारीवाद सहमत नहीं है। शुलमिथ
फायरस्टोन के ‘गर्भ जैसे फिजूल अंग को
काटकर फेंकने’ जैसे विचारों
का यह घोर विरोधी है। यह मानता है कि स्त्री-पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए
विवाह, मातृत्व और परिवार सृष्टि के विकास
में सहायक हैं, न कि बाधक। मनोविश्लेषणवादी नारीवाद के अंतर्गत यह नारीवाद लिंग की
अवधारणाओं को तोड़ता है तथा स्त्री की निष्क्रियता को खारिज करता है तथा इरिगेरे
के सेक्स संबंधी सिद्धांतों से सहमती रखता है, मार्क्सवादी और समाजवादी नारीवाद के श्रम तथा अर्थ के सिद्धांतों का यह हृदय
से स्वागत करता है और अपनी अनुभूतियों को ठोस तथा स्थिर रूप प्रदान करता है।
उत्तर-आधुनिक प्रमुख कवयित्रियाँ तथा
काव्य कृतियां निम्नलिखित हैं –
अनामिका – बीजाक्षर, अनुष्टुप, खुरदुरी हथेलियाँ। अनीता वर्मा – एक जन्म में सब। कविता वाचक्नवी – मैं चल तो दूँ। कात्यायनी – सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरूषपूर्ण
समय में, जादू नहीं कविता। निर्मला गर्ग – कबाड़ी का तराजू। नीलेश रघुवंशी – घर निकासी, पानी का स्वाद।
नेहा शरद – ख़ुदा से ख़ुदा तक। प्रभा खेतान – सीढ़ियाँ चढ़ती हुई मैं, कृष्णधर्मा मैं, अहल्या। रमणिका
गुप्ता – खूंटे, मैं आज़ाद हुई
हूँ। स्नेहमयी चौधरी – पूरा गलत पाठ, अपने खिलाफ। सविता सिंह – अपने जैसा जीवन, नींद थी और रात थी। सुनीता जैन – हो जाने दो
मुक्त, कौन सा आकाश। सुनीता बुद्धिराजा – अनुत्तर। सुमन
राजे – उगे हुए हाथों के जंगल। सुशीला
टाकभौरे – यह तुम भी जानो, तुमने उसे कब पहचाना आदि।
इन कवयित्रियों के काव्य का अध्ययन करने के
पश्चात् निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ स्पष्ट होती हैं
–
1. अस्तित्व-बोध, अस्मिता की तलाश एवं स्थापना -
“यदि ‘अस्मिता’ का अर्थ ‘आत्म-प्रतिष्ठा’ को लें, अपनी जागृत
चेतना में प्रतिष्ठा, स्वयं विचार
सकने की योग्यता और उसके अनुसार जीवनयापन करने की सामर्थ्य, तो कहा जा सकता है कि समाज में लगभग हम सभी
अनात्म-प्रतिष्ठा, अस्मिता-विहीन
ही अधिकांश होते हैं- ‘अन्धेन नीयमाना
यथांधा’”।[2]
किंतु
कवयित्रियों ने अस्तित्व-बोध की सजगता के कारण काव्य में महत्वपूर्ण स्थान बनाया
है। वे पुरूषवर्चस्ववादी सत्ता से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवनयापन की इच्छुक हैं।
अस्मिता बोध से ज्ञान और ज्ञान से आत्मविश्वास में वृद्धि के साथ वे घर, समाज और साहित्य में अपनी अस्मिता की तलाश करती हुई दिखाई
देती हैं।
“अपने-आप से
पूछा है
मैंने
बार-बार
क्यों मैं
हमेशा
अपने होने का
प्रमाण
ढ़ूँढ़ती हूँ ?”[3]
X X X
X X
“मैं अपनी पहचान
तक जाना चाहती हूँ
अपनी आत्मा तक
स्त्री
का न तो कोई अपना घर है, न ही ज़मीन।
उसकी पहचान उसके पिता, पति और पुत्र
से होती है। सदियों से बनी ऐसी पहचान की नियति को कवयित्रियाँ तोड़ देना चाहती हैं
–
“अपनी कल्पना में हर रोज/एक ही समय में स्वयं को/हर बेचैन स्त्री तलाशती है/घर
प्रेम और जाति से अलग/अपनी एक ऐसी जमीन/जो सिर्फ उसकी अपनी हो/एक उन्मुक्त आकाश/जो
शब्द से परे हो/एक हाथ/जो हाथ नहीं/उसके होने का आभास हो”।[5]
डॉ. दर्शन
पांडेय के अनुसार “अस्मिता वह
नहीं जो अतीत को नकार कर केवल वर्तमान में जीने की प्रेरणा देती है। जहाँ गुजरा
हुआ क्षण ‘मैं’ की सत्ता को जगाता है और आने वाले क्षण उसे पैनाते हैं, इसके विपरीत अस्मिता वह है जो मानव संबंधों की पहचान कराती
है, पुरातन को जीर्ण-शिर्ण मानकर उसके
त्याग को ही आधुनिक-बोध कहने में गर्व में नहीं तनती और प्रकृति के आनन्त्य में
एकता के सूत्र खोजती है”।[6]
कवयित्रियाँ
घर के चूल्हे-चौके तथा पुरूषों द्वारा मूल्यांकित ‘माल’ जैसे संकुचित दृष्टिकोणों का विरोध
कर पुरूषवर्चस्ववादी सत्ता से संघर्ष करती हुई दिखाई देती हैं तथा वे प्रमाणित
करती हैं कि उनकी लड़ाई पुरूष वर्ग से नहीं बल्कि पुरूषवर्चस्ववादी मानसिकता से है।
‘ब्रा बर्निंग’ जैसी घटना पुरूष जैसा बनने के लिए नहीं बल्कि उनकी सत्ता के
प्रति गहरे आक्रोश के कारण घटी। एडलर के शब्दों में ‘अधिकार भावना’ के कारण घटी। वे पुरूषों की नकल करके नहीं बल्कि अपने गुणों
तथा आत्मविश्वास के बल पर अपनी अस्मिता स्थापित करना चाहती हैं - “अस्मिता में अस्तित्व बोध प्रधान रहता है। जबकि अस्तित्व
में विद्यमानता का भाव स्पष्ट रूप से अनिवार्य है, जो वस्तु अथवा प्राणी इस दृष्टि में विद्यमान है, उसी का अस्तित्व स्वीकारा जा सकता है, और जिसका अस्तित्व होगा उसकी अपनी एक पहचान अवश्य होगी”।[7]
“आज गंगा को
अवतरित करने के लिए
शंकर की दरकार
नहीं है।
2. प्रजातांत्रिक मूल्यों
की माँग –
कवयित्रियों
ने प्रत्येक प्राणी के हित में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा की स्थापना करने की दृष्टि से समाज से निःसंकोच इन
प्रजातांत्रिक अधिकारों की माँग की है। “स्वतंत्रता और अस्मिता की जरूरत को यदि मुख्य माना जाएगा तो स्वतंत्रता की
पहली अनिवार्यता होगी आत्म-संपन्नता और दायित्वबोध, स्वतंत्रता जीवन में मिले या पन्नों पर उसका एहसास जगाया जाए... इसका एक यही
अर्थ निकलता है। आत्मसंपन्न व्यक्ति अपना अधिकार स्वयं कमा लेता है और दायित्व के
प्रति सजग होता है”।[9]
कमल
कुमार ‘हिंसा का सार्वभौम समाजशास्त्र और
मानवाधिकारों का स्त्री लेखन’ नामक लेख में
लिखती हैं – “किसी भी
सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति की प्रतिष्ठा की पहली शर्त होती है – उसकी स्वतंत्रता। स्वतंत्रता प्रतिफलित होती है आत्मसंपन्नता
और भीतरी मूल्यवत्ता से”।[10] परंतु स्त्री की भीतरी
मूल्यवत्ता का कभी मूल्यांकन नहीं हुआ। इसलिए ममता कालिया कहती हैं –
“क्या ये कभी
अपनी तरह जीने की
आज़ादी पायेंगी
या इसी तरह
आदर्शों के पुराने लत्ते
सीने-पिरोने
में खप जायेंगी” ![11]
कवयित्रियों
ने श्रम, शिक्षा, अर्थ, समाज, राजनीति एवं लेखन स्तर पर पुरूषों से समानता की इच्छा
व्यक्त की है -“उसका मृत्युदिवस अज्ञात है मेरे
लिए/जैसा मेरा जन्मदिवस अज्ञात है”।[12]
ऐसी
अज्ञानता के अंधकार में इन्होंने स्त्री-सशक्तिकरण का दीप प्रज्वलित किया है। डॉ.
ऋषभदेव शर्मा के अनुसार, “स्त्री
सशक्तीकरण का यह अभियान इस आकांक्षा से संचालित है कि समाज के सभी क्षेत्रों में
स्त्री के अस्तित्व को मनुष्य के रूप में स्वीकृति प्राप्त हो। स्त्री और पुरूष की
ऐसी समानता की व्यावहारिक प्रतिष्ठा आवश्यक है जिसमें स्त्री अन्या, द्वितीयक गौण, उपेक्षिता, अनुगामिनी या
अनुचर नहीं, अनिवार्य और
सहचर की भूमिका में हो”।[13]
किंतु
सहचर की भूमिका से दूर चारपाई के चौसठ इंच पर पड़े-पड़े वह सोचती है –
“एक समय हम/अंतहीन आकाश लिए बाँहों में/सोचा करते/कितना
थोड़ा है यह भी बंधने को/आज चारपाई के चौसठ इंच/हमारे जीवन की गति/बाँध गये हैं
बंदीगृह से”।[14]
स्त्री
के भाग्य-विधाताओं की सत्ता लोलुपता अनेक रोक-टोक के साथ मानसिक शोषण के साथ-साथ
शारीरिक शोषण करना नहीं भूलती। वे तो इस शोषण को प्रेम अथवा अपना अधिकार समझते हैं
किंतु स्त्री की विवशता और मानसिक स्थिति अत्यंत दयनीय होती है। अधिकृतता के पीछे
छिपी निर्दयता को बड़े ही मार्मिक ढ़ंग से व्यक्त करते हुए नेहा शरद कहती हैं –
“बँधा-बँधाया-सा
हिसाब है ज़िन्दगी का
मन मिले ना
मिले
रोटी के लिए
ये तन तो देना
होगा
इच्छा हो या ना
हो
साथ सोना
मजबूरी है
यहाँ से निकलूँगी
तो पता नहीं
फिर कहाँ जाऊँ
हर नये दिन के
डर से
हर रात की बात
माननी ही है
स्त्रियों
ने ऐसी जिन्दगी को अपना भाग्य तथा शोषक पुरूषों को अपना भाग्य-विधाता मान लिया तथा
उसी में अपनी खुशियाँ ढ़ूँढ़ने लगीं। लेकिन जब उन्हें अत्याचारों और अपमानों की
सच्चाई का पता चला तब उन्होंने मात्र अपने पति या पिता से ही नहीं बल्कि आधी
दुनियाँ की हकीकत पुरूष-सत्ता से भी प्रश्न पूछा –
“इस घर में/एक सर्वहारा का जीवन जीते हुए/मैंने परिश्रम को ही माना पारिश्रमिक/तुम
मेरी जगह होते/क्या करते सातों दिन श्रम/सुबह शाम के अनवरत क्रम/बिना अवकाश/बिना
वेतन”।[16]
अतः
कवयित्रियों ने सहना बंद कर बोलना शुरू किया। इनके काव्य की सबसे अच्छी विशेषता यह
रही कि वे मात्र नारी समाज के लिए ही नहीं बल्कि समाज के प्रत्येक शोषित-पीड़ित
वर्ग के लिए चिंतित हैं तथा प्रत्येक के लिए मानवीय अधिकारों की माँग के साथ समता, स्वतंत्रता तथा सद्भभावना आदि मूल्यों की स्थापना करना
चाहती हैं। सविता सिंह के अनुसार –
“बनाओ वैसा एक मकान/जिसमें हम सब रह सकें साथ/कोई भी न रहे अलग अकेले/छूटे किसी
मामूली वजह से/छोटेपन से अपने/या फिर/बचने के लिए किसी फसाद से/कोई हो अपंग इस वजह
से/या फिर कमज़ोर इसलिए भी”।[18]
3. स्वानुभूति एवं मानवीय
संवेदना की अभिव्यक्ति –
कवयित्रियों
ने अपने काव्य में स्वानुभूति के माध्यम से स्त्री की व्यथा कथा को सहज ही कह दिया
है। चूँकि इनकी सीमा-रेखा घर की चौखट तक रही, घर के अंदर चौका-बर्तन से लेकर परिवार का पालन-पोषण ही इनका संसार रहा, इसलिए अधिकतर
अनुभूतियाँ घर से जुड़ी हैं तथा जिन कवयित्रियों ने घर से बाहर कदम रखा उन्होंने
नए मूल्यों एवं पुराने मूल्यों के बीच घर, बाहर एवं भीतरी संसार को रचने का प्रयास किया हैं। इनकी अपनी स्वानुभूति समस्त
नारी जगत की अनुभूति का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनकी पीड़ा और संवेदना समस्त
नारियों की पीड़ा और संवेदना की छूती हैं। ये प्रबुद्ध कवयित्रियाँ “जिन समस्याओं का उल्लेख करती हैं वे अधिकतर सांस्कृतिक
संदर्भ की है जिनसे जीवन यथार्थ प्रभावित होता ही है। लेकिन अब से व्यापक संदर्भ
की, मेहनतकश और कामगार नारियों के
आर्थिक सामाजिक और इनसे भी गहरे यौन-शोषण की समस्याओं के संबंध में अपनी रचनाओं
में संवेदनशीलता के नए आयाम रच रही हैं”।[19]
यौन-शोषण
जैसे घृणित अपराध के पश्चात् स्त्री की व्यथा का प्रतिनिधित्व करते हुए निर्मला
पुतुल अपराधियों से प्रश्न पूछते हुए कहती हैं –
“कैसे मिटा पाओगे/मेरी यातनामय गूंगी चीत्कार/क्या करोगे
क्रूर नजरों और नजरानों का/निपट अकेले जूझ रही हूँ जिनसे/मेरी नाभी में उठते शूल
को? मन सिंहासन पर विराजमान/इंसाफ
मांगती स्त्री के उठते/बलात्कारिक सवालों को/कैसे मिटा पाओगे?”[20]
इनकी
संवेदना प्रत्येक शोषित, पीड़ित, बच्चे, बूढ़ों और
भिखारियों से भी जुड़ती हैं। ये कवयित्रियाँ जानती हैं कि स्त्रियाँ मूक होकर अपने
कर्तव्य में रत् रहती हैं, लेकिन इनकी
चुप्पी के पीछे शोषण के विरूद्ध आग जलती है। एक कामगार स्त्री की शक्ति का परिचय
देते हुए ‘स्त्री-शक्ति’ में सुनीता जैन लिखती हैं –
“औरतें जब चढ़ती
हैं एक-एक सीढ़ी,/सर पर छह ईंटे
रख,/गर्भ में पलते शिशु को/सँभालती, सँभल-सँभल/वे नारा लगा रही होती हैं/शोषण के प्रतिपक्ष में
निस्वर।
औरतें लड़ती
हैं अपनी लड़ाई/प्रतिदिन अपने-अपने स्तर पर,/वे नहीं बाँचती स्त्री शक्ति का/एक भी आखर !”[21]
स्त्री
पुरूष के अत्याचार से पीड़ित पति के अतिरिक्त एक मात्र सहारा वह अपने पुत्र में
ढ़ूढ़ती है। वह भूल जाती है कि पुरूष सत्ता में पलने-बढ़ने के कारण उसका पुत्र भी
सत्ता की मानसिकता लिए बढ़ेगा। उसके पास पुत्र एकमात्र ऐसा हथियार होता है जिसके
माध्यम से वह अपने समस्त अत्याचार का बदला ले लेना चाहती है। वह सोचती है कि पुत्र
ही उसे न्याय प्रदान करवायेगा तथा उसकी देख-रेख के साथ उसे समाज में ससम्मान
स्थापित करने का प्रयास करेगा। किंतु पुत्र अपनी आकांक्षाओं की उड़ान में मां के
साथ सामंजस्य न स्थापित कर पाने के कारण माँ को प्रताड़ित करने लगता है। माँ की
रोक-टोक उसे अपनी प्रगति में बाधक दिखायी देने लगती है। किंतु माँ की ममता की डोर
खुशी-खुशी हर व्यथा सह लेने को तैयार होती है।
“तुम्हें हक़ है
कि मुझे सताओ
तुम्हें हक़ है
कि मुझे तड़पाओ
तुम्हारी वजह
से मैं चीखी हूँ, चिल्लाई हूँ
रात-रात जगी
हूँ, करवट भी न लेने पायी हूँ
तुम्हें हक़ है
मेरे बच्चे
सिर्फ इसीलिए
कि मैं तुम्हारी माँ हूँ” ?[22]
कवयित्रियों
की चीख और संवेदनाएँ संपूर्ण साहित्य जगत् में मौन बनकर पसरी रहीं, परंतु उत्तरशती में आकर उनकी चीख शब्दजाल को तोड़कर सहज ही
काव्य में व्याप्त हो गई। उन्हें आशा है कि भविष्य में मौन और चीख, दोनों को सही
स्थान प्राप्त होगा तथा उनकी संवेदनाओं का सहृदय स्वागत होगा, आज भले ही ये चीख बेवस टहल रही हैं लेकिन इनका अपना महत्व
हैं, इन्हें अवश्य अधिकार प्राप्त होगा
-
“ये किसकी चीख की तरह पसरे हैं जंगल ?/एक चीख मेरे भी भीतर दबी है!/उसका बस चले अगर तो/मेरी
पसलियाँ तोड़ती निकल आए बाहर!/ये चीख मेरी आदिवासी रूप सी की तरह/अब तक किले के
तहखाने में/टहल रही है बेबस।”[23]
4. व्यक्ति-सत्य एवं
समष्टि-सत्य –
“शांति का रूप विशाल है.../और ये चुप्पी/लघुता का अहसास लिए
है/बिन बोले सब बयान करती है/बंद मुँह से/सारे भेद खोलती है/ये वो खामोशी भी नहीं/जो
अपने में भाव भरे हैं/सिर्फ एक बन्द जुबान है/जिसे शर्म आती है/अपनी ही बात फ़ाश
करने में”।[24]
जीवन
में व्यक्ति तभी तक लघुता का एहसास लिए जीवित रह सकता है जब तक वह व्यक्ति सत्य को
हीन भावना से देखे। किंतु जब लघुता का एहसास अधिकार भावना से जुड़ जाता है तब
व्यक्ति-सत्य एक अहम् मुद्दा बन जाता है। व्यक्ति-सत्य अहम् मुद्दा बनने के
पश्चात् ही स्त्रियों ने चुप्पी तोड़ी उसे मूल्यों से जोड़कर अपनी पीड़ा, छटपटाहट को सर्वजन हिताय में समाहित कर दिया।
“दूर तक सदियों से चली आ रही परंपरा में/उल्लास नहीं है मेरे
लिए/कविता नहीं/शब्द नहीं/शब्द भले ही हो रोशनी के पर्याय रहे हों औरों के लिए/जिन्होंने
नगर बसाये हों/सभ्यताएँ बनायी हों/युद्ध लड़े हों/शब्द लेकिन छिपकर/मेरी आँखों में
धुँधलका ही बोते रहे हैं/और कविता रही है गुमसुम/अपनी अपरिचित असहायता में/छल-छद्म
से बुने जा रहे शब्दों के तंत्र में/इन नगरों के साथ निर्मित की गयी एक स्त्री भी-
जिसकी आत्मा बदल गयी उसकी देह में”[25]
देह से
ऊपर उठकर स्त्री अपनी देह की प्राकृतिक संरचना से पुरूष वर्ग को चुनौती देने लगी।
पुरूष सत्ता के पाखण्डी स्त्रियों को निष्क्रिय समझते रहे, किंतु स्त्रियों ने अपनी देह और गुणों के नैसिर्गिक बल से
पुरूषों के षड़यंत्र को निष्फल किया। उन्होंने मात्र अपना दृष्टिकोण बदलने के बजाय
पूरे समाज का दृष्टिकोण बदलना अधिक श्रेयस्कर समझा। ‘व्यक्ति सत्य ही समष्टि सत्य है’ को महत्व देते
हुए भी ‘व्यक्ति सत्य’ के अतिरिक्त ‘समष्टि-सत्य’ भी कुछ है, इसे
भी समझा तथा दोनों को अपनाया। किसी भी आंदोलन की सफलता समष्टि-सत्य को समझे बिना
नहीं हो सकती। कवयित्रियों ने समष्टि-सत्य में से खामियों को बिलगाते हुए
अच्छाइयों में व्यक्ति-सत्य को समाहित कर आंदोलन को एक नया रूप दिया है, साथ ही स्त्री-पुरूष सहित समस्त समाज को समता के धरातल पर
एक साथ रखकर सृष्टि के विकास में सहायक बनना ही सर्वोपरि सत्य माना। ‘पहचान’ नामक कविता में
सुनिता बुद्धिराजा कहती हैं –
“मैं तुम्हारा
सत्य हूँ
तुम्हारी ही
आभा
पहचान कर देखो
मैं तुम्हारा
नाम हूँ
अस्तित्व
तुम्हारा
मानकर देखो
मैं, तुम हूँ
तुम, मैं हो
5. रूढ़ि-विरोध और धर्म, नैतिकता, परंपरा व इतिहास का नई दृष्टि से मूल्यांकन –
“महापुरूषों के
महाजाल में
मेरा बौना
व्यक्तित्व फँसा था
अस्तित्व के कै
टके
प्रत्येक
कवयित्रियों ने रूढ़ि-विरोध के साथ-साथ धर्म, नैतिकता, परंपरा और
इतिहास में छिपे बुराइयों का विरोध किया है। पुरूषों द्वारा सृजित धर्म, नैतिकता आदि ने स्त्री के पैरों में स्वर्ग-नरक तथा
पाप-पुण्य की बेड़ियाँ लगा दीं, जिसके कारण
स्त्री का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। इसलिए ममता कालिया कहती हैं –
“तुमने मिथक का इतिहास मिलाया/उसमें धर्म का छौंका लगाया/और
चूहा मार दवा सा मेरे गले के नीचे उतार दिया।/मैं जीने लगी वेद, पुराण और मनुस्मृति।/मुझे सीता, सावित्री, उमा और अनुसूया
की तरह बनना अधिक भाया।/मैंने शकुंतला जितना जोखिम भी नहीं उठाया,/लक्ष्मीबाई को मैंने चेतना से हकाल दिया।/विरोध का विचार तक
जेहन से निकाल दिया।/मैं परम्परा के सुरक्षाचक्र में समा गई/नेतृत्व की जगह मैंने
समर्थन चुना/और केन्द्र की जगह नेपथ्य।/संवाद की जगह सहमति ने ले ली।/सत्या की जगह
मैं प्रियंवदा बन गई।/मैं सीता की तरह सताई जाने को सौभाग्य समझने लगी/पार्वती की
तरह/मैं बौड़म पुरूषों को परमेश्वर मान बैठी/गुमनामी और गुलामी/मुझे गले गले
डुबोती गई/मैं फिर भी नहीं चेती/जड़ता के आनंद में जी भर कर लेटी”। कालिया, ममता खाँटी
घरेलू औरत पृ. 88
धर्म, नैतिकता, इतिहास एवं
परंपरा के विरोधी स्वरों में ममता कालिया, रमणिका गुप्ता, सुशीला टाकभौरे
का स्वर बुलंद हुआ, किंतु सुनीता
जैन जैसी कवयित्रियों ने धर्म, नैतिकता आदि को
स्त्री की पराधीनता में साधक नहीं माना। इसके अतिरिक्त अनामिका और कात्यायनी आदि
कवयित्रियों ने समन्वयवादी मार्ग को प्रश्रय दिया कि साहित्य सदैव कई-कई धाराओं को
साथ लेकर चलता है। इसलिए जो बुरा है उसे अलग कर अच्छाई को अपना लेना चाहिए।
रमणिका
गुप्ता और सुशीला टाकभौरे के मन में धार्मिक ग्रंथ जैसे वेद, पुराण, मनुस्मृति, महाभारत, रामायण के
प्रति गहरा आक्रोश है कि देवी कहे जाने वाली पौराणिक स्त्रियों का अस्तित्व
देवताओं के कारण खतरे में रहा, इसलिए किस
प्रकार इन धर्मग्रंथों को महत्व दिया जाय? ‘खुंटे’ नामक काव्य
संकलन में रमणिका गुप्ता लिखती है –
“कहते हैं
मेरे पिता
ब्रह्मा ने
मेरे रूप-यौवना
से आकर्षित हो
मुझी से ब्याह
रचा लिया था।
बस
शास्त्र मुझे ‘माया’ कहने लगे
और पिता चूँकि
पुरूष था
सीता
जीवनपर्यंत परीक्षा देती रहीं, अहिल्या के साथ
कुकर्म इन्द्र ने किया परंतु श्राप अहिल्या को मिला। पतिव्रता, त्याग, बलिदान के नाम
पर उन्हीं धर्म ग्रंथों के सहारे स्त्री को उन्हीं जैसा बनने की सलाह दी जाती है।
अतः सदियों से चली आ रही परंपरा स्त्री की जकड़न बन गई।
दूसरी
ओर सुनीता जैन, कात्यायनी और
अनामिका आदि कवयित्रियों ने सीता, सति, सावित्री, दुर्गा आदि
देवियों को स्त्री-विमर्श की प्रथम नायिका माना है। क्योंकि दुर्गा ने दुष्टों का
संहार किया, सति ने अपने
पिता का विरोधकर यज्ञकुण्ड में स्वयं को भस्म कर दिया, सीता ने राम का विरोध कर धरती में समा जाना उचित समझा तो
सावित्री ने यमराज से अपने पति को छीन लिया। इसलिए ये नारियाँ शक्ति की परिचायक
हैं। स्त्रियों को चाहिए कि जो चीजें उन्हें पराधीन बनाए उसे तोड़ दें तथा जिनसे
वे प्रगति कर सकती हैं उन्हें अपना लें। सत्य, शील, सेवा-शुश्रुषा, कर्तव्य-परायणता आदि का सम्मान करते हुए अपने लिए बने घातक
बन्धनों का खण्डन कर दे। सुशीला टाकभौरे के अनुसार –
“कब मिलेगा
पशुतुल्य मानव को
अधिकार
कब बदलेंगे
कर्मकाण्ड
कब मिलेगा
सामाजिक न्याय
पूछो उससे
अन्यथा
6. पितृसत्ता एवं लैंगिक
वर्चस्व का विरोध –
“पैदा होते ही/मेरी ‘मैं’ मर जाती है। और रह जाती है एक लाश/एक
नारी।/पुत्री से बहन और बहू तक की यात्रा तय कर/माँ की मंजिल पर पहुँचते-पहुँचते/मैं
कई बार मर लेती हूँ /और किसी न किसी के कंधे पर/ढ़ोयी जाती रही हूँ”।[30]
पितृसत्ता
में स्त्री संपत्ति की भाँति किसी न किसी पुरूष के नाम से जीवित होती है। पुत्री, बहन, पत्नी और माँ
के रूप में उसकी पहचान तो होती है किंतु वह स्वयं कौन है अथवा उसका अपना नाम क्या
है ? इसका पहचान उसे स्वयं नहीं हो पाता।
किंतु संपत्ति की अवधारणा समझ में आने के पश्चात् उसका अदृश्य अस्तित्व समाज के
पटल पर प्रत्यक्ष आने के लिए तड़फड़ा उठा। अतः सुनीता बुद्धिराजा ‘उच्छ्वास’ प्रकट करते हुए
कहती हैं –
“क्योंकि तुम
मुझे नाम नहीं
दे सकते
हे पिता !
मैं आकाश के इस
अनंत विरान में
घनदामिनी-सी
पिता से
अपनी पहचान न मिलने का कष्ट तब और बढ़ जाता है, जब माता-पिता अपनी ही संतानों में भेद-भाव करने लगते हैं। खान-पान, घर का कामकाज, शिक्षा, नौकरी आदि में
पुत्र सफलता के शिखर पर पहुँच जाता है, परंतु पुत्री असफलता के उच्च शिखर को
टटोलती कहीं दूर से आ रहे भाइयों के प्रकास को टुकुर-टुकुर देखती रहती है।
“कैसा बना ये
अपना, बेगाना-सा
दिल पर अपना
हाथ रखकर मुझको ये समझाना
साथ खेले, साथ पढ़े
साथ बढ़े
ये क्यूं कर
हुआ कि मैं हुई ‘अलग’
माता-पिता
से अपने बच्चों को सबसे अधिक न्याय की आशा होती है किंतु आशा टूट जाने पर जीवन का
प्रत्येक मोड़ नीरस लगने लगता है। वह विवाहोपरांत पति में भी पिता का भय देखने
लगती है तथा पति भी उसी सत्ता का प्रतिनिधि होने के कारण पत्नी से प्रेम करने के
नाम पर जोर-जबरदस्ती करने में नहीं चूकता। मैरो वेश्या और विवाहिता में
समानता-असमानता दर्शाते हुए कहती हैं – “एक वेश्या और एक विवाहिता में सिर्फ एक ही अंतर है, वैसे दोनों ही अपने को पुरूष के हाथों बेच देती हैं। अंतर
केवल क़ीमत और समझौते की अवधि का है। दोनों के लिए रति-क्रीड़ा एक प्रकार की सेवा
है”।[33]
“बंधा-बँधाया-सा हिसाब है ज़िन्दगी का/मन मिले ना मिले/नये
दिन के डर से/हर रात की बात माननी है/यहाँ से निकलूंगी तो पता नहीं/फिर कहाँ जाऊँ/इच्छा
हो या न हो ये सब मैं करूँगी/संग डोर जो बँधी है/सुनूँगी, सहूँगी और वहीं पर रहूँगी/क्या करूँ/बेमन खूँटें से बँधी
ब्याहता जो हूँ”।[34]
वैवाहिक
जीवन में यौन-शोषण को समाज अपराध की भावना से नहीं देखता तथा पुरूष को ऐसे शोषण की
खुली वैधानिक छूट प्राप्त हो जाती है। जिसका लाभ पति पत्नी के ऊपर हाथ-लात चलाकर
भी उठा लेता है तथा पत्नी उस गहरे एकांत क्षण में भी प्रेम की एक बूँद तलाश करने
की इच्छा से प्रत्येक वार को अपना कर्तव्य और धर्म समझ कर सह जाती है। ऐसी
प्रताड़ना से उत्पन्न मार्मिक वेदना का चित्रण ममता कालिया करती है –
“कोई उनसे पूछे/क्यों किया करते थे वे प्रहार/बात से नहीं/हाथ
से नहीं/लात से/बगैर सूचना/घात से/खास उस दिन जब लीला सोचती/कि उसने सब्जी
स्वादिष्ट बनाई है/साम्यवाद के समर्थक थे वे/क्यों नहीं कहा उन्होंने,/किसी घनिष्ठ क्षण,/‘इधर आओ तुम्हारी लात की मार देखूँ’।/वे तो आजीवन चूसते रहे उसे/बोटी की तरह/मिलती रही जो उन्हें/दाल-रोटी की तरह”।[35]
निरंतर
यंत्रणा भोगते रहने से भावशून्य हो जाना स्वाभाविक है तथा संतानोत्पत्ति उसकी
विवशता। “हैप्पिनेस एण्ड हैल्थ इन
वुमनहुड” में ‘सायरन फुलर्टन’ लिखते हैं – “...विवाह के करार
पर दस्तखत उस सबसे महत्वपूर्ण सौदे पर दस्तखत है जिसमें आपकी हिस्सेदारी होगी...
दो में से एक मुखिया को गृहस्थी के व्यवस्थापक निदेशक का काम करना होगा – बेहतर हो कि यह काम पति करे; हालाँकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पशुशक्ति इसके लिए उसकी एकमात्र अर्हता
होती है।... बच्चे कम्पनी के नए निवेश
होते है; और निदेशकों को इस बात का ध्यान
रखना चाहिए कि निवेशों पर बढ़िया लाभ मिले”।[36]
यह लाभ
पुत्र-प्राप्ति से ही समझा जाता है तथा पुत्रियाँ निष्क्रिय एवं बोझ। नेहा शरद की
कड़वाहट और दुःख उनकी कविता से स्पष्ट होता है –
“मैं एक मशीन
हूँ
सिर से पाँव तक
ढकी
एक लाश हूँ
उत्तरशती
में बदलते समय के साथ संतानोपत्ति की वर्जना के प्रति दृष्टिकोण भी बदला। अतः अब
कवयित्रियाँ पुत्रियों को स्वेच्छा से तथा पति की इच्छा के विरूद्ध भी जन्म देने
के लिए तैयार हैं तथा उनका पालन इस प्रकार कर रही है कि वे समाज में हिम्मत के साथ
सभी समस्याओं का सामना कर सकें।
7. यौन वर्जनाओं का स्खलन
तथा सच्चे प्रेम की तलाश –
उत्तरशती
के हाहाकार में धर्म, नैतिकता के
साथ-साथ एकनिष्ठता, पतिपरमेश्वर से
भी कवयित्रियों का विश्वास टूट गया। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की अपने देह से
कुछ भावनाएँ जुड़ी होती हैं। गगन गिल स्त्री देह को एक भाव मानती है। अतः देह मात्र पर स्त्री का ही अधिकार
होना चाहिए। स्त्री-पुरूष दोनों की काम इच्छा समान होती है, जो एक नितांत निजी अनुभव है, इसलिए इसमें प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार होना
चाहिए। रमणिका गुप्ता स्त्री को स्वेच्छा से पुरूष की सहचरी बनने की सलाह देती है, न कि बलपूर्वक।
निर्मला
गर्ग तो पुरूष में प्रेम का अभाव देखकर प्यासी ही लौट आती हैं, तो ममता कालिया के लिए प्यार घिसते-घिसते चपटा हो गया है –
“तालाब पर उगी
है हरी हरी
काई जल हमें नहीं
दिखता
X X X
X X
“प्यार शब्द
घिसते घिसते
चपटा हो गया है,
अब हमारी समझ
में
कवयित्रियों
ने कामेच्छा को शरीर की जरूरत माना है तथा उसे चरित्र से अलग कर निःसंकोच अपनी
बातें प्रस्तुत की हैं। वे सरल एवं सहज शब्दों में अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करने
लगी हैं। वे पुरूष के छद्मी व्यवहार से स्वयं को अलग करते हुए मन और आत्मा से
प्रेम पियूष को पीना चाहती हैं।
“मैंने तुम्हें
चाहा
पर पाया नहीं
तुमने मुझे
पाया
X X X
X X
“कितने तो पास आ
जाते हो
तुम मेरे
उस वक्त
जब तुम मुझसे
बहुत दूर
चले जाते हो
पास होते हुए
भी
कभी
मेरे समीप आओ न
!”[41]
उत्तरशती
की कवयित्रियाँ दिवास्वप्न नहीं देखना चाहतीं, वे यथार्थ के धरातल पर प्रेम की बूँदों को तलाश करती दिखाई पड़ती हैं। यदि
प्रेम है तो वे प्रेमी की आत्मा, सहचरी, भार्या सबकुछ बनने के लिए तैयार हैं अन्यथा उधर मुड़कर
देखना भी पसंद नहीं करतीं।
8. स्त्री समस्याओं का
सूक्ष्मतम् यथार्थ-चित्रण -
जहाँ
स्त्रियों को माहवारी, सहवास, प्रेम आदि विषय पर बात करने में संकोच होता था, वहीं
उत्तरशती की कवयित्रियों ने अपने काव्य में इन्हीं विषयों को सूक्ष्मता से उकेरा
है। क्योंकि स्त्री एक मानव है तथा मानव की सच्चाई छुपाकर उसे मानव श्रेणी में
गिना ही नहीं जा सकता तथा सच्चाई से मुँह मोड़कर किसी भी आंदोलन को सफल नहीं बनाया
जा सकता।
प्रथम
स्राव एक लड़की के लिए बहुत बड़ी सच्चाई है जब विभिन्न हलचलों और पीड़ाओं को झेलते
हुए शारीरिक परिवर्तन के साथ उसमें यौवनावस्था की कोपलें फूटती हैं। अनामिका ‘प्रथम स्राव’ नामक कविता में लड़की की मानसिक ऊहा-पोह, पीड़ा तथा परिवर्तन को एक साथ बहुत ही प्रशंसनीय ढ़ंग से प्रस्तुत करती हैं –
“उसकी
सफेद फ्रॉक/और जाँघिए पर/किस परी माँ ने काढ़ दिए हैं/कत्थई गुलाब रात-भर में ?/और कहानी के वे सात बौने/क्यों गुत्थम-गुत्थी/मचा रहे हैं/उसके
पेट में ?/अनहद-सी बज रही
है लड़की/काँपती हुई।/लगातार झंकृत हैं/उसकी जंघाओं में इकतारे।/चक्रों-सी नाच रही
है वह/एक महीयसी मुद्रा में/गोद में छुपाए हुए/सृष्टि के प्रथम सूर्य-सा/लाल-लाल
तकिया”।[42]
यौवनावस्था
की हलचलें, मधुर-मधुर
स्वप्नों में खोना, अनजाने प्रेम
के प्रति आकर्षण, प्रेम होना आदि
विषय पर भी कवयित्रियों ने विचार किया है। कात्यायनी की लड़कियाँ हॉकी खेलती पायी
जाती हैं तो रमणिका गुप्ता की स्त्रियाँ हिम्मत के साथ कोलियरी खदानों में खटने के
पश्चात् घर पर अपने मलकट्टा की प्रतीक्षा करती हैं। अनामिका की स्त्रियाँ घर की
साफ सफाई का, पूरे घर का
खयाल रखती हैं, तो निर्मला
पुतुल की औरतें अपने हाथों दोना-पत्तल बनाकर अपना गुजारा करती हैं। किंतु सभी कवयित्रियों का सबसे सशक्त
मुद्दा ‘देह’ है। दैहिक शोषण के प्रति कड़वाहट उनके काव्य में प्रत्येक स्थान पर दिखाई देता
है। पुष्पिता ‘देह का निर्गुण और सगुण’ नामक कविता में लिखती हैं –
“देह के/अंतर्मन की भीत्ति पर/टांग देता है/कई स्वप्न
कैलेंडर/कैलेंडर की छाती पर/होते हैं – प्रणय के जीवन्त छाया चित्र/गतिशील चलचित्र/पग-तल में होता है जिनके/वर्ष-चक्र-तिथियाँ, दिवस, मास”।[43] ममता कालिया के अनुसार – “तेरी यह पाँच फुटी देह तेरी है दुश्मन फैसला हर बात का
बिस्तर पे ही होना है”।[44] यद्यपि स्त्रियों के लिए
सौंदर्य का विशेष महत्व है किंतु कवयित्रियों ने दैहिक सौंदर्य से अधिक मानसिक
सौंदर्य को महत्व दिया है। मानसिक कलह के कारण उन्हें सजना-संवरना व्यर्थ लगता है –
“अंदर से बाहर तक/प्रश्नों से भरी मैं/लगातार एक गुस्सा जीती
हूँ/वैसे तो मुझे/हँसने और बाल सँवारने के कई ढ़ंग आते हैं/और हाल ही, मैं/जिमखाना क्लब की सदस्य भी बनी हूँ,/पर अब/अपने अंदर खलबलाती खीझ को रोक पाना/मुश्किल है।/और वह
अक्सर/चेहरे में एक हिस्सा रेत मिला जाती है”।[45]
स्त्री
की अपनी प्राकृतिक संरचना के साथ-साथ समाज से जुड़ी समस्या उसके लिए अत्यंत घातक
होती है। दहेज प्रथा, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह जैसी समस्याओं ने उसकी रीढ़ तोड़ दी है। दहेज
प्रथा से चिंतित माँ की समस्या को दर्शाते हुए नेहा शरद कहती हैं –
“बिचारी बीसवीं सदी/पैबन्द लगी लाल साड़ी में/सपने हजार लिये
बैठी है/भगवान करे/तो सपने साकार हों/वर्ना अपनी बेटी के/दहेज के लिए भला ये/क्या
जुटा पायेगी” ?[46]
स्त्रियों
की समस्याओं को महत्व न देना अथवा छोटी-मोटी कहकर नज़रअन्दाज कर देना आदि विषयों
पर ही कवयित्रियों ने गम्भीरता से चिंतन किया है।
9. मानवीय अधिकारों की माँग
एवं क्रांति-भावना –
“वे चिल्ला रही
हैं पूरे ज़ोर से
सड़क पर, संसद में, सभाओं में,
उनसे नहीं होगी
भूल।
वे बदल देंगी
सारी व्यवस्था समूल।
उनकी माँग है
बराबर का हक़
बराबर का नाम
बराबर की
शिक्षा
बराबर का काम।
वे मेरे सीमित
सपनों में संशोधन लाएंगी।
स्त्री
को संविधान में अधिकार प्राप्त हो गया है लेकिन समाज में वह अभी भी मानवीय श्रेणी
से नीचे हैं। जब तक उसने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी थी तब तक उसे कोई भी अधिकार
प्राप्त नहीं था परंतु उसकी आवाज़ परिवर्तित होते ही अनेक पुरूषों ने उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलानी शुरू कर
दी। पुरूष षड्यन्त्र को समझते हुए निर्मला गर्ग कहती हैं –
“उन्हें चाहिए
युद्ध
शीर्ष पर रहने
के लिए
वे करते हैं
शांति-यात्राएँ
पुरूषसत्ता
के पराधीन रहकर उन्हीं के विरूद्ध लड़ना नारी के लिए अत्यंत दुष्कर कार्य था। किंतु
नारी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में कभी डर-डरके तो कभी
निर्भीक होकर आगे बढ़ती रहीं तथा आज सफल हो रही है। समता, स्वतंत्रता तथा सद्भावना आदि मूल्यों के माध्यम से वे एक
सुखी संसार की स्थापना करना चाहती हैं, जिसमें उन्हें न तो पुरूष द्वारा सृजित हानिकारक पुराने मूल्य चाहिए और न ही
उनकी सहानुभूति। उन्हें चाहिए – बस आज़ादी...
और आज़ादी। वे कहती हैं -
“समझ में नहीं आता/जो चीज़ सबको बड़ी आसानी से मिल जाती है/मेरे
लिए इतनी दुर्लभ क्यों है।/क्या मैं कुछ कम मनुष्य हूँ/या, वे/कुछ ज्यादा/क्या मुझे हमेशा मोहलत की तरह मिलेगी जिन्दगी/या
बख्शीश में/जाओ,/उनसे कह दो/मैं
न कैदी हूँ न भिखारी/मेरा हक़ है/एक समूची साबुत आज़ादी”।[49]
10. भाषा-शैली –
कवयित्रियों
की भाषा जातीय स्मृति से संपन्न सरल, संस्लिष्ट एवं क्षेत्रीय शैली पर आधारित रहती है। वे गूढ़ से गूढ़ रहस्य को
बनावटीपन से दूर सीधे सरल शब्दों में सहज ही कह जाती हैं। उदाहरण के लिए अनामिका
की कविता –
“मेरा ब्लाउज/मेरे बच्चे का गुल्लक है।/कहीं से भी
घूमता-टहलता हुआ आता है/और बड़े निश्चित भाव से/पोस्ट वहाँ कर जाता है/चकमक पत्थर,/सीपी,/सिगरेट की
पन्नियाँ,/खिलौनों के
नट-बोल्ट/सारे अखोर-बखोर”।[50]
अनामिका
की कविता में बिहारी पुट, मैथिली बोली का
हरापन और अंग्रेजी के सहज शब्द दिखाई देते हैं। रमणिका गुप्ता के काव्य में
झारखण्ड में मजदूरों के साथ अधिक समय बिताने के कारण मजदूरों की भाषा का मेल-जोल
भी मिल जाता है, जैसे कामिन, कचनार। तो निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी शब्दों का सामृध्य है ।
कवयित्रियों
की अधिकतर शब्द-संपदा घरेलू वस्तुओं से जुड़ी हैं, जैसे – रोटी, बेलन, चौका, बर्तन, कलछुल, सिन्दुर, फूलदान आदि।
माया प्रसाद लड़की की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखती हैं –
“पतीली में
सींझते चावलों-सी
खदबदा लेना
उफनना मुनासिब
नहीं है
आटे-सी गूंथी
जाना
रोटी-सी सिकती
रहना...
औरत होना ?”[51]
स्त्रियों
की सीमा घर की चारदीवारी तक ही रही, इसलिए इनकी भाषा पतीली, रोटी, आटा आदि से समृद्ध हुई तथा अब यदि घर के बाहर निकली हैं, तो
ब्यूटी पार्लर, बीयर, पब, सिगरेट आदि तक
पहुँच पायी है।
इनकी
भाषा बिना लाग लपेट, स्त्रियोचित्त
बिम्बों-प्रतीकों के साथ प्रहारक होती है, जिससे विरोधी वर्ग कम से कम एक बार अवश्य तिलमिला उठता है। इन्होंने
स्वानुभूति एवं शोषकों के प्रति आक्रोश को गद्यात्मक कविता एवं पद्य दोनों रूपों
में अत्यंत सराहनीय ढ़ंग से अभिव्यक्ति किया है।
निष्कर्ष
– हिंदी कवयित्रियों की लेखन
प्रवृत्तियों के माध्यम से स्पष्ट है कि यह आधी आबादी की आधी आबादी के लिए चुनौती
है। इस कविता की ‘मैं’ शैली में आधी आबादी स्वतः ही एकसूत्र में बंध जाती है।
कवयित्रियाँ समता, स्वतंत्रता और
सद्भभावना आदि प्रजातांत्रिक मूल्यों की माँग के साथ-साथ अपनी अस्मिता स्थापित
करना चाहती हैं, अथवा दूसरे
शब्दों में कहें तो वे अपने पैरों के नीचे की ज़मीन के साथ-साथ अपनी पहचान चाहती
हैं। अब वे अन्या और उपेक्षिता शब्द को खारिज करते हुए सत्ता के रणक्षेत्र में उतर
आयी हैं अथवा कुरूक्षेत्र के युद्ध में बिना हथियार उठाये लड़ रही हैं तथा पुरूष
मानसिकता को बदलने का निरंतर प्रयास कर रही हैं। अनामिका के शब्दों में कहें तो वे
अपने काव्य के माध्यम से ‘पुरूषवर्चस्ववादी-मानसिकता
को मांझने की प्रक्रिया’ में सफल हो रही
हैं, तथा सदियों से चले आ रहे सत्ताधारी
इतिहास में अपनी जगह बना रही हैं।
संपर्क
- डॉ. रेनू यादव, रिसर्च/फेकल्टी
असोसिएट, भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग
(हिन्दी, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, यमुना
एक्प्रेस-वे, कासना के पास, गौतम बुद्ध
नगर, ग्रेटर नोएडा (उ.प्र.)– 201312, दूरभाष – 09560406181, 09395343511,
[2] यशदेव
शल्य - भारतीय परम्परा में नारी अस्मिता, संपा.
बी.बी.कुमार - चिंतन-सृजन, अक्टू.-दिस.,
2004. पृ.-18
[6] डॉ. दर्शन पाण्डेय - नारी अस्मिता की
परख, सं. सुरेश चन्द्र गुप्त, प्रसाद के नाटक और भारतीय अस्मिता, पृ.12
[7] डॉ.
दर्शन पाण्डेय - नारी अस्मिता की परख, सं. सुरेश चन्द्र गुप्त, प्रसाद के नाटक और भारतीय अस्मिता, पृ.12
[10] कमल कुमार - हिंसा का सार्वभौम
समाजशास्त्र और मानवाधिकारों का स्त्री लेखन,
संपा. डॉ. राजकमल राय
और डॉ. यतीन्द्र तिवारी, हिन्दी-अनुशीलन,
पृ. 35
[36] जर्मेन ग्रीयर, बधिया स्त्री, अनु. मधु बी.
जोशी पृ. 212 (‘हैप्पीनेस एंड हैल्थ इन वुमनहुड’, 1937, पृ. 40-41)
3 Mukhi Rudraksha is one of the most auspicious and divine Rudraksha beads.
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