आज विभिन्न जनमाध्यमों पर इन
भूतिया प्रसारणों को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इन भूतों का बहुत
बड़ा और विशाल बाजार इन जनमाध्यमों की दुनिया में विद्यमान है जिसे इन माध्यमों के
नियंताओं ने ही एक निश्चित वर्ग की स्वार्थपूर्ति हेतु खड़ा किया है। एक ऐसी दुनिया
के अस्तित्व को इन जनमाध्यमों में बनाये रखा है जिस पर हमेशा से ही संदेह बना रहा
है। यह सच है कि टेलीविजन ने इन भूतिया कार्यक्रमों को घर घर तक पहुँचाया है। लोगो
के भीतर भूतों के होने की ज़मीन को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
लेकिन बताना होगा कि भूतों का इतना विस्तृत बाजार भारत में बहुत पहले ही सिनेमा
द्वारा खड़ा किया जा चुका था, टेलीविजन ने तो उसे सहज और सुलभ बनाकर घर घर तक प्रेषित किया है।
इन प्रसारणों के इतिहास पर दृष्टि
डालें तो पता चलता है कि बीसवीं सदी के मध्य में रेडियो पर नेशनल ब्रॉडकास्टिंग
कंपनी (NBC) द्वारा ‘Lights Out’ हॉरर शो का प्रसारण 1946 से 1952 तक किया गया, जो बहुत ही लोकप्रिय रहा। हालात यह थे कि रेडियो पर इसके प्रसारण के दौरान इसे
अकेले नहीं सुना जाता था। लोग समूह में एकत्रित होकर इस कार्यक्रम को सुनते थे। कहना होगा कि लोगों के भीतर डर और खौफ का
प्रचार-प्रसार इस रेडियो हॉरर शो ने बहुत पहले ही कर दिया था। इसके बाद तो लगातार अनेक भूतिया कार्यक्रमों का
प्रसारण किया जाने लगा। इसी क्रम में टेलीविजन माध्यम की
चर्चा करें तो सबसे पहले 1959 में ‘The Twilight Zone’ नामक कार्यक्रम प्रसारित किया गया जिसमें पहली बार
एलियंस, टाइम जोन का बदलना एवं भयानक कल्पनाओं के संसार को
अभिव्यक्ति दी गयी। इसी के साथ 1963 में ‘The Outer Limits’ और 1966 में NBC पर प्रसारित अमेरिकन टेलीविजन का सर्वाधिक प्रचलित और
असामान्य विशेषताओं से युक्त कार्यक्रम ‘Dark Shadow’ प्रसारित हुआ जिसका प्रसारण 1971 तक हुआ। इस कार्यक्रम में डर, खौफ, भय से भरपूर कथानक को आधार बनाकर दो सौ साल पुरानी
बूढ़ी महिला ‘वेम्पायर’ को केन्द्र में रख कर कथा-निर्माण किया गया जिसने
अपनी एक विशाल दर्शक संख्या का निर्माण किया। परिणामस्वरूप भविष्य में टेलीविजन के इस भूतिया
स्वरुप को एक सुगम मार्ग मिला। इसी क्रम में ‘Night
Gallery’ का नाम भी लिया जा सकता है जिसका
प्रसारण भी इसी Dark
Shadow के समकालीन था।
एक अन्य हॉरर शो - Tales From The Dark side (1983-1988) की यहाँ पर चर्चा करना
ज़रुरी हो जाता है, जिसका प्रसारण HBO पर रात में किया जाता था। इस कार्यक्रम के बारे में बताना होगा कि इसने न केवल
भय और खौफ का प्रसारण किया बल्कि नग्नता का भी भौंडा प्रदर्शन इसके द्वारा किया
गया। इस कार्यक्रम को देखते हुए यह
महसूस होता था कि इसके निर्माणकर्ताओं का उद्देश्य बस किसी न किसी बहाने से भय के
साथ, नग्नता को भी अपने दर्शकों के सम्मुख परोसना था जिससे
दर्शकों को अधिकाधिक अपनी तरफ खींचा जा सके। जिसमें यह कार्यक्रम काफी हद तक सफल भी रहा। इसी कड़ी में एक बड़ा नाम ‘Masters Of Horror’ (2005-2007) का भी जुड़ता है जिसने
अपने प्रसारण के साथ ही दर्शक-संख्या के पिछले सारे कीर्तिमान तोड़ डाले। जिसका एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण था इसके
निर्माताओं में बड़े-बड़े फ़िल्म निर्माताओं का शामिल होना। इन बड़े नामों में जॉन
कारपेंटर, टॉब हूपर, डेरियो अर्जेंतो इत्यादि का नाम शामिल था। साथ ही 2010
में प्रसारित कार्यक्रम ‘The
Walking Dead’ का नाम भी यहाँ लेना ज़रुरी हो जाता है जिसने अपने प्रसारण के प्रारंभ में ही
लगभग छह मिलियन दर्शकों को बटोरकर एक नया कीर्तिमान बनाया था।
भारतीय टेलीविजन पर इन हॉरर/भूतिया
कार्यक्रमों के प्रसारण परिदृश्य का अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि दो हॉरर
प्रसारणों का नाम सबसे पहले लिया जाना चाहिए – ‘ज़ी हॉरर शो’ और ‘आहट ’। इन दोनों ही धारावाहिकों को अगर भारतीय हॉरर शो के मार्गदर्शक या प्रवर्तक कहा
जाए तो कुछ गलत न होगा। ‘ज़ी हॉरर शो’ का प्रसारण 1993
से 1998 तक लगभग पाँच सालों तक ज़ी
टीवी पर होता था। वहीं ‘आहट’ का प्रसारण फायरवर्क्स प्रोडक्शन
एवं वी.पी. सिंह द्वारा पाँच अलग-अलग सीजनों में 1996 से लेकर 2010 तक सोनी
टेलीविजन पर होता रहा। इस प्रकार हमें ‘आहट’ को भारतीय टेलीविजन का सबसे लंबा
चलने वाला हॉरर शो कहना चाहिये। ‘आहट’ का पहला सीज़न (सत्र) 1996 से 2001
तक चला, तो दूसरा सीज़न 2004 से
2005 तक चला। तीसरा सीज़न 2007 तथा
चौथा सीज़न 2009 से 2010 तक चला जबकि इसका अंतिम एवं पांचवा सीज़न
जून 2010 से नवम्बर 2010 तक चलकर समाप्त हुआ। बताना होगा कि ‘आहट’ का प्रसारण सर्वप्रथम हर शुक्रवार को रात दस बजे होता
था जो बाद में चौथे सीज़न से हर शुक्रवार-शनिवार को रात ग्यारह बजे होने लगा। अपने अंतिम सीज़न में तो ‘आहट’ का प्रसारण सोमवार से बृहस्पतिवार
तक होने लगा लेकिन अच्छी टीआरपी न मिलने के कारण इसे ज़ल्दी ही बंद कर दिया गया।
उल्लेखनीय है कि ‘ज़ी हॉरर शो’ एक ऐसा कार्यक्रम था जिसका प्रसारण आधी रात को ग्यारह
से बारह बजे के बीच में होता था जिसके निर्माताओं में भारतीय हॉरर फिल्मों के जाने
माने निर्माता तुलसी और श्याम रामसे थे। इन्होने ‘दरवाज़ा’, ‘वीराना’ जैसी सफल हॉरर फिल्मों का निर्माण किया था। इसके पहले एपिसोड ‘दस्तक’ में पंकज धीर और अर्चना पूर्ण सिंह
ने बहुत ही अच्छा अभिनय किया था। इस कार्यक्रम ने अपने प्रसारण के साथ ही भारतीय जनता के मन में बैठे भूत नामक
डर को और अधिक सुदृढ़ किया। इसके बाद तो अनेक प्रकार के हॉरर प्रसारणों की टेलीविजन पर बाढ़ सी आने लगी। ‘ज़ी हॉरर शो’ की बढती लोकप्रियता को देखते हुए तथा इसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए ज़ी टीवी ने एक और हॉरर कार्यक्रम ‘मानो या ना मानो’ का प्रसारण 1995 में बालाजी
टेलीफिल्म्स के सहयोग से किया जिसके कुल 68 एपिसोडों (कड़ियों) का प्रसारण हुआ। इसके साथ ही ज़ी टीवी ने प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक
आशुतोष गोवारीकर के द्वारा निर्मित हॉरर शो ‘वो’ (1998) का प्रसारण ‘ज़ी हॉरर शो’ के अंतिम दिनों के दौरान ही कर
डाला था जिसमे युवाओं को कथा का केन्द्र बनाकर उन्हें ‘वो’ नामक आत्मा से लड़ते हुए दिखाया गया।
ज़ी टीवी के बाद सोनी टेलीविजन ने
भी अनेक हॉरर कार्यक्रमों का प्रसारण कर डाला। 2002 से 2005
तक चलने वाला लोकप्रिय कार्यक्रम ‘अचानक 37 साल बाद’ और बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा
निर्मित ‘क्या हादसा क्या हकीकत’ का प्रसारण 2002 से 2004 तक किया गया। इसके बाद तो सभी चैनलों ने मुनाफा कमाने के लिए
तरह-तरह के ऊल-जुलूल विषयों को कथानक का मूलाधार बनाकर, उन्हें सत्य घटनाओं पर आधारित कहकर प्रसारित किया। इसमें ‘रात होने को है’ (2004) सहारा मनोरंजन, ‘क्या कहें’ (2004-2005) ज़ूम टेलीविजन, ‘शऽऽऽ..कोई है’ (2001) स्टार प्लस, ‘शऽऽऽ..फिर कोई है’ (2006) स्टार वन, ‘काला साया’ (2011) सहारा वन, ‘अनहोनियों का अँधेरा’ (2011) कलर्स टीवी – इत्यादि भूतिया कार्यक्रमों की बाढ़
टेलीविजन मनोरंजन चैनलों पर आ गयी और हर कोई चैनल स्वयं को सर्वाधिक विश्वसनीय
घोषित करने के लिए अनेक वक्तव्यों, व्यक्तियों के अनुभवों का प्रयोग अपने धारावाहिकों में इस प्रकार करते हुए नज़र
आते थे मानों वह व्यक्ति-विशेष किसी भगवान का अवतार हो और उसके मुख से निकला हुआ
एक एक शब्द वेद-वाक्य के समकक्ष हो। उसके समस्त अनुभव यथार्थ हों।
अगर आज टेलीविजन पर प्रसारित होने
वाले भूतिया कार्यक्रमों की बात हो तो इनमे सर्वप्रमुख ज़ी टीवी पर प्रसारित होने
वाले हॉरर शो ‘फीयर फाइल्स’ (Fear Files) का नाम लेना होगा जिसका प्रसारण ज़ी टीवी पर 2012 से
हर शनिवार और रविवार देर रात में एक घंटे का हो रहा है। इस कार्यक्रम की एक टैग लाइन है – ‘डर की सच्ची तसवीरें’। इस टैग लाइन का बार बार इसके
प्रोमों में प्रयोग कर इस कार्यक्रम की विश्वसनीयता का प्रचार-प्रसार दर्शकों के
मध्य किया जाता है। ध्यान देने की बात है कि इस
कार्यक्रम की शुरुआत में, हर कहानी के प्रसारण से पूर्व किसी
भुक्तभोगी व्यक्ति या परिवार के मुख द्वारा प्रसारित होने वाली कहानी की पृष्ठभूमि
की मौखिक अभिव्यक्ति करवायी जाती है जिससे दर्शकों का उस व्यक्ति/परिवार विशेष के
साथ एक भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित हो सके। कार्यक्रम के बीच-बीच में तथाकथित भुक्तभोगियों के अनुभवों को उन्ही की जुबानी
दर्शकों तक पहुँचाया जाता है और प्रस्तुतीकरण के अंत में एक पैरानॉमी विशेषज्ञ
द्वारा प्रसारित कथा पर प्रमाणिकता का ठप्पा लगाया जाता है। साथ ही बहुत ही अजीबों-गरीब नुस्खों को करने की सलाह
दर्शकों को दी जाती है। इन सबका लाभ यह होता है कि दर्शक
प्रसारित कहानी को सच समझ कर देखते हुए उसे अपनी ही कहानी समझता है। साथ ही इस कार्यक्रम को देखते हुए बचपन की कहानियों
के कल्पना लोक में विचरने लगता है। कहानियो के कल्पना लोक को ऐसे कार्यक्रमों में दर्शक साकार होते हुए पाते हैं
और तुरंत उस कहानी से जुड़ जाते हैं।
आज विभिन्न जनमाध्यमों पर इन
भूतिया प्रसारणों को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इन भूतों का बहुत
बड़ा और विशाल बाजार इन जनमाध्यमों की दुनिया में विद्यमान है जिसे इन माध्यमों के
नियंताओं ने ही एक निश्चित वर्ग की स्वार्थपूर्ति हेतु खड़ा किया है। एक ऐसी दुनिया के अस्तित्व को इन जनमाध्यमों में
बनाये रखा है जिस पर हमेशा से ही संदेह बना रहा है। यह सच है कि टेलीविजन ने इन भूतिया कार्यक्रमों को घर
घर तक पहुँचाया है। लोगो के भीतर भूतों के होने की
ज़मीन को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन बताना होगा कि भूतों का इतना विस्तृत बाजार
भारत में बहुत पहले ही सिनेमा द्वारा खड़ा किया जा चुका था, टेलीविजन ने तो उसे सहज और सुलभ बनाकर घर घर तक
प्रेषित किया है। जिस प्रकार टेलीविजन विभिन्न
खण्डों में अनेक भूतिया कहानियों का प्रसारण करता है उसी प्रकार सिनेमा भी अनेक
फिल्मों के द्वारा भूतों के संसार के होने का प्रमाण देता हुआ प्रतीत होता है।
उल्लेखनीय है कि टेलीविजन के
अधिकतर हॉरर शो में स्त्रियों को ही चुड़ैल और वैम्प के रूप में दिखाया जाता है
जिसका मुख्य उद्देश्य अपनी या अपने परिवार की हत्या का बदला लेना होता है। दरअसल यह तथ्य टेलीविजन माध्यम का स्त्री-पक्ष भी
सबके सम्मुख लाने का माध्यम बनता है जिसमें जो स्त्री जीते जी पुरुषों का कुछ नहीं
बिगाड़ सकती, वह मरने के बाद अपना प्रतिशोध लेती
है। ऐसे प्रसारण सिद्ध करते हैं कि मरने
के उपरांत ही स्त्रियाँ पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दे सकती हैं। यद्यपि यहाँ भी कोई तथाकथित पुरुष तांत्रिक/बाबा उसे
फिर से अपने अधीन कर लेता है और उससे मनचाहा कार्य करवाता है अर्थात् जीते जी और
मरने के बाद भी स्त्री की नियति पुरुष के इशारों पर नाचने की होती है। ध्यान देने की बात तो यह है कि महिला भूतों का लक्ष्य
जहाँ अपने पति, बेटे और परिवार का बदला लेना होता
है वहीँ पुरुष भूतों का उद्देश्य नयी नवेली दुल्हनों को उठा लेना, स्त्रियों के साथ बलात्कार करना, उन्हें नहाते हुए परेशान करना, उन्हें घर के बाहर और भीतर डराते रहना होता है। मतलब स्त्री भूत बनकर भी एक आदर्श भारतीय स्त्री बनी
रहती है जिसका लक्ष्य केवल उसका पति और परिवार रहता है जबकि पुरुष काम भावना के
चलते भूत बनता है। एक स्त्री भूत बनकर भी आदर्श बनी
रहती है और एक पुरुष भूत बनकर भी कामुक तथा स्त्री-शरीर का भूखा बना रहता है।
ऐसे प्रसारणों के माध्यम से
तार्किकता और विवेक को कुंए में धकेलकर बस ऐसा मनोरंजक मसाला तैयार किया जाता है
कि बस दर्शक उस कहानी से किसी भी तरह चिपक जाएँ। दरअसल यह प्रसारण ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं
जिसमें तेज संगीत, डरावनी आवाजें और चीख-पुकार, डरावने चेहरे, मन्त्रों का भय उत्पन्न करने वाली शैली में लगातार उच्चारण, हिंसा, बदले की भावना को बार-बार दिखाया जाता है। यह काफी हद तक वैसा ही होता है जैसा कि टेलीविजन पर
प्रसारित पारिवारिक धारावाहिकों से दर्शकों का तादात्म्य स्थापित करने की प्रक्रिया
में किया जाता है। इन धारावाहिकों में जिस प्रकार एक
पारिवारिक कथानक केन्द्र में रहता है, उसी प्रकार इन भूतिया कार्यक्रमों में भी एक
डरावनी कथा को आधार बनाया जाता है। जैसे भावनात्मक संगीत, फ़िल्मी गानों एवं ध्वनियों के
द्वारा दर्शकों को भावनात्मक स्तर पर जोड़ा जाता है वैसे ही इन भूतिया धारावाहिकों
में डरावने संगीत, खौफनाक आवाजों के द्वारा एक
जिज्ञासात्मक भय को दर्शकों के भीतर पैदा किया जाता है। इनमें अंतर सिर्फ इतना होता है कि पारिवारिक
धारावाहिकों में जहाँ पात्र-चरित्रों की संख्या अधिक होती है वहीँ इन हॉरर शो में
इनकी संख्या निश्चित और सीमित रहती है। साथ ही हिंसा के क्रूरतम रूप अर्थात ‘हत्या’ का इन हॉरर शो में अपने चरम पर
प्रसारण होता है जबकि इन पारिवारिक प्रसारणों में शारीरिक हिंसा ही बहुत कम देखने
को मिलती है। इन कार्यक्रमों में तो हिंसा का
केवल मानसिक स्वरुप ही प्रबल रहता है। हर पात्र मन में अनेक प्रकार की कुचालों द्वारा मानसिक हिंसा में ही जीता-मरता
रहता है। हर कहानी में एक बदले की भावना
निहित रहती है जिसका लगातार प्रसारण करना हिंसा की सामाजिक स्वीकृति के पक्ष में
ही वातावरण को निर्मित करना होता है। परिणामस्वरूप हिंसा एक सामाजिक मूल्य बनकर सबके लिए अनिवार्य हो जाता है। समाज द्वारा हिंसा को सभी समस्याओं का समाधान के रूप
में देखा जाने लगता है। युवाओं में तो यह भावना सर्वाधिक
बलवती होती चली जा रही है जिसमें इस मीडिया का मुख्य योगदान रहा है।
गौरतलब है कि जब सभी जगह इन भूतिया
प्रसारणों को अपार सफलता मिलने लगी और ये अपने निर्माणकर्ताओं की झोलियों को पैसों
से भरने लगे तो सूचना एवं शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने वाले समाचार चैनल भी इस
भूतिया-सागर में गोते खाने लगे। जिन समाचार चैनलों का प्रारंभ देश और दुनिया में चेतना, तार्किकता और शिक्षा का प्रसार करते हुए समाज में
व्याप्त अंधविश्वासों और रूढ़ियों का खात्मा करने के उद्देश्य से हुआ था, वे सभी टीआरपी नामक भूत के चक्कर में पड़कर इन भूतिया
प्रसारणों को दिखाने में व्यस्त हो गए जो इनके चरित्र के बिल्कुल विपरीत था। कहना होगा कि भूतों और उनसे संबंधित मुद्दों की तुलना
में अभूतों (मनुष्यों) के सारवान मुद्दों को हाशिए पर रखा जाता है। ‘काल कपाल महाकाल’, ‘भूतों के गढ़ में एक रात’, ‘भूत बंगला’ जैसे अनेक विशेष प्रस्तुतियों का
प्रसारण नियमित रूप से होने लगा जिससे इनकी आमदनी में तो बहुत इजाफा हुआ लेकिन
इनकी चौतरफा आलोचना होने लगी। मगर इन आलोचनाओं की परवाह किए बिना इन भूतिया प्रसारणों का ग्राफ इन समाचार
चैनलों में लगातार बढता गया जो आज थोडा नीचे आ गया है। मतलब जिस मनोरंजन के लिए हमारे यहाँ सैंकड़ो चैनल
मौजूद हैं, उसी मनोरंजन का प्रसारण इन समाचार
चैनलों द्वारा होने लगा। इससे समाज को कोई लाभ मिला हो या
नहीं लेकिन सामाजिक रूढ़िवादिता को और अधिक मजबूती मिली है।
अंत में तनिक इन हॉरर शो के
प्रसारण समय का भी विश्लेषण कर लेना चाहिए। इन भूतिया कार्यक्रमों का प्रसारण दोनों प्रकार के चैनलों (मनोरंजन और समाचार
चैनल) में देर रात को दस से बारह बजे के बीच में ही होता है जो हमारी इस मान्यता
को भी पुष्ट करते हुए चलते है कि भूतों का संसार रात में ही सक्रिय होता है। दिन के उजाले में भूतों को डर लगता है। देर रात में इनका प्रसारण होने का एक बहुत बड़ा कारण
यह भी है कि देर रात में घर के अधिकतर सदस्य अपने दैनिक कार्यों को निपटा कर आराम
से बैठकर टेलीविजन देखना चाहते हैं। रात में टीवी देखने के दौरान उनके डिस्टर्ब होने की संभावना भी कम रहती है। हमने पीछे बताया था कि यह भूतिया कार्यक्रम एक डरावने
वातावरण का निर्माण करते है जिसके लिए दर्शकों की एकाग्रता और एकांत का होना
आवश्यक है। और यह एकाग्रता एवं एकांत रात को
ही मिल सकता है जिसमे इन भूतिया प्रसारणों का प्रभाव कई गुणा बढ़ जाता है। दिन में यह कार्यक्रम अपना वह प्रभाव दर्शकों पर नहीं
छोड़ सकते जो रात में छोड़ते हैं। भारतीय टेलीविजन प्रसारण के इतिहास इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए काफी है
जिसमे आज तक कोई भी हॉरर प्रसारण दिन में प्रसारित नहीं हुआ है। अगर ऐसा हुआ भी है तो वह उस कार्यक्रम की पुनरावृति
ही होती है जिसका पुनः प्रसारण टेलीविजन या समाचार चैनल अपने खाली समय को भरने के
लिए करते हैं। अभिप्रेत है कि यह प्रसारण इन
भूतों के द्वारा एक ऐसा विशाल बाजार निर्मित करते हैं जिसमे आकार जीवित लोग स्वयं
को भूतों की तुलना में बहुत हीन और कमतर समझते हुए इस बाज़ार के अभिन्न हिस्से बने
रहते हैं। जिनके पास कोई अन्य विकल्प ही नहीं
बचता है।
संपर्क - डॉ० दीपक शर्मा, दूरभाष – 09811424200, दिल्ली विश्वविद्यालय, ईमेल पता– dr.deepaksharmadu@gmail.com
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