हिंदी का
बाज़ार
- दीपक
शर्मा
हिंदी
भाषा के लिए काफी समय से एक जुमला प्रचलित है कि ‘हिंदी गरीब की भौजाई है’ लेकिन
अब इस जुमले का अतिक्रमण करती हुई हिंदी भाषा गरीब की भौजाई ही नहीं, इस बाज़ार की मां बन बैठी है। बाज़ार को अपनी इस मां का आंचल थाम
कर ही आगे बढ़ना होगा। मीडिया के संदर्भ में अगर बात की जाए तो कहना होगा कि आज हर
चैनल या तो हिंदी में अपना प्रसारण कर रहा है या करना चाहता है। हॉलीवुड फिल्मों
का हिंदी में डब करके प्रसारण हो रहा है और अब तो दक्षिण भारतीय फिल्मों का भी
प्रसारण हिंदी में विभिन्न चैनलों पर होता रहता है जो हिंदी की बढती हुई शक्ति को
ही दर्शाता है। न केवल कंप्यूटर बल्कि मोबाइल फोन में भी हिंदी के विभिन्न
सोफ्टवेयरों का प्रयोग किया जा रहा है और हिंदी भाषा से संबंधित नये-नये
कार्यक्रमों को भी निर्मित किया जा रहा है। हर देशी और विदेशी कंपनी हिंदी भाषा
में अपना एक निजी हिंदी चैनल लाने की ताक में रहती है। साहित्य के क्षेत्र में भी
अन्य भाषाओं से सबसे ज्यादा अनुवाद हिंदी भाषा में ही किये जा रहे हैं। इस बाज़ार
आधारित अर्थव्यवस्था और इससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों ने हिंदी भाषा के संसार
को ही बदल कर रख दिया है। यह बदलाव इस गति से हो रहा है कि उसे ठीक से कुछ निश्चित
शब्दों में बांधना बहुत मुश्किल कार्य है|
भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके अभाव में संसार की हर संस्कृति
और समाज व्यर्थ है। उस समाज और संस्कृति से सम्बंधित हर नियम और संस्कार का कोई
मोल नहीं है। भाषा ही है जो हमें वि२व भर से जोड़ने का काम करती हुई लोगों को
ग्लोबल अभिव्यक्ति दिलाने में सहायक होती है। संसार से भाषा की अगर विदाई हो जाए
तो जीने का कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा। भाषा का वास्तविक अर्थ किसी भाव और विचार
का सफल सम्प्रेषण होता है फिर भले ही भाषा का स्वरुप कोई भी हो। इस बात को हिंदी
भाषा के संदर्भ में रख कर देखा जाए तो कहना होगा कि आज हिंदी भाषा भी अपने पुराने
चोले को उतारकर नयी होकर हमारे सम्मुख उपस्थित है। जिस शुद्धतावादी दृष्टिकोण की
दुहाई आमतौर पर हिंदी के लिए दी जाती रही है उसे हिंदी भाषा ने काफी पीछे छोड़ दिया
है जो आज के परिदृश्य में बहुत ज़रुरी भी था। अगर हिंदी भाषा को इसी शुद्धतावाद के
फेरे में व्यस्त रखा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी भाषा की मृत्यु पर शोक मनाने
वाला भी कोई नहीं मिलेगा और न ही कोई हिंदी पढ़ना-लिखना चाहेगा। भाषा का उद्देश्य सरल रूप में भावों और विचारों को अपने लक्षित वर्ग तक पहुंचाना होता है और आज
हिंदी यही कर रही है।
हर
वर्ष में आने वाला सितम्बर का महीना हिंदी के लिए जीवन बूटी का काम करता है जिसमें हिंदी भाषा के भविष्य को लेकर अनेक तरह के सकारात्मक पहलुओं को सबके सम्मुख
रखा जाता है। हर बार की तरह इस बार भी सितम्बर का महीना आने पर हिंदी पखवाड़े में
अनेक प्रकार की हलचले हुईं, और ऐसा होना भी लाज़मी है आख़िरकार इस महीने
की 14 तारीख को हिंदी दिवस जो आता है। हर बार की तरह इस वर्ष भी
हिंदी दिवस आया और चला भी गया। इस दौरान विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों एवं
सम्मेलनों में हिंदी की चिंता करते हुए अनेक विद्वानों द्वारा बड़े जोर शोर से लंबे-लंबे
भाषण दिये गये तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा और वि२वभाषा बनाने की घोषणाएं की गयीं।
लेकिन अगले ही पल हिंदी से सम्बंधित यह चिंताएं और बड़े बड़े दावे चारों खाने चित्त
मिलते हैं। मतलब जिस औपचारिकता के साथ हिंदी के वर्तमान एवं भविष्य की चिंताएं हम
सुनते-पढ़ते हैं, वह सब मात्र औपचारिक रूप में ही रह जाता है जिसका व्यावहारिक
प्रयोग हमें देखने को नहीं मिलता। मज़ेदार बात तो यह है कि इस प्रकार के सम्मेलनों
में हमें केवल हिंदी का अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोगों के अलावा इक्का-दुक्का
मंत्री और नेता के साथ प्रिंट मीडिया का एकाधा पत्रकार ही नज़र आता है। प्रिंट
मीडिया का पत्रकार इस दौरान पूरे तेवर लिए हुए रहता है जो गोया हिंदी से सम्बंधित
इन कार्यक्रमों को कवर करके कोई अहसान हिंदी समाज पर कर रहा हो। इसके अतिरिक्त
इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो यह अहसान करने की भी जेहमत नहीं उठता। यहां प्रश्न यह उठता
है कि हिंदी के प्रति यह जागरूकता आखिर किसके लिए है? जिस समाज में हिंदी की आवश्यकता को बताना ज़रुरी है, वही जब
इनसे नदारद रहता है तो वह कैसे हिंदी के महत्व को समझ सकेगा?
मीडिया की भूमिका भी हिंदी के प्रति उपेक्षित ही नज़र आती है जो हिंदी की खाकर भी
हिंदी के प्रति उदासीन रहता है।
वर्तमान
समय में हम देखते हैं कि जिस भारत में पहले वेलेंटाइन डे का ही चलन था और जिसकी
अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकृति के बाद मदर डे, फादर डे, फ्रेंडशिप डे, चोकलेट डे और न जाने कितनी तरह के
दिवसों को मनाने का चलन बढता जा रहा है वहीं हमारे अन्य महत्वपूर्ण दिवसों के
प्रति हमारे समाज की रूचि या तो कम हुई है या परिवर्तित हुई है। उल्लेखनीय है कि
इन अन्य दिवसों की तुलना में हिंदी दिवस या कहे तो हिंदी डे के प्रति एक बहुसंख्यक
वर्ग की कोई रूचि ही नहीं रहती। गौरतलब है कि जिन दिवसों का आज हमारे भारत में चलन
हो चला है, वे दरअसल अन्य देशों में समयाभाव के कारण उस विशेष दिन पर उस रिश्ते को
मनाने के लिए खोजे गये हैं। लेकिन क्या हम भारतीय परिवेश में ऐसा सोच सकते हैं कि
हम अपने मित्र से केवल उसी दिन मिले, जिस दिन फ्रेंडशिप दिवस हो। अपने माता पिता
को एक विशेष दिन कुछ कार्ड्स या गिफ्ट देकर खुश करें भले ही उन्हें अपने साथ रखने
में हमें तकलीफ होती हो। और क्या जिस उद्देश्य और विचारधारा के चलते इन दिवसों को
मनाया जाता है, क्या उसी दृष्टि से हमें हिंदी दिवस या कहें तो हिंदी डे को भी
मनाना चाहिए तभी जाकर हम हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार कर सकते हैं? स्पष्ट है कि यह विभिन्न प्रकार के दिवस इसलिय मनाये जाते हैं ताकि इनके
प्रति लोगों को संवेदनशील बनाये रखा जा सके। लेकिन प्र२न यहां फिर यह उठता है कि
क्या सच में हिंदी इस स्थिति में आ पहुंची है कि लोगों को हिंदी के प्रति जागरूक
करने के लिए समय-समय पर हिंदी दिवसों का आयोजन करना पड़े?
कारण, हिंदी दिवसों या अनेक अन्य अवसरों पर हिंदी की दुर्दशा
पर रोना रोया जाता है तथा हिंदी भाषा से गायब होने वाले परम आवश्यक तत्व ‘शुद्धतावाद’
के लिए छाती पीटी जाती हैं। अब अनेक हिंदी आलोचकों को तो यह भी बुरा लग जाएगा कि
लेखक ने हिंदी डे क्यों लिखा है। खैर, प्रश्न यहां यह है कि
साल भर में एक- दो दिन हिंदी भाषा से सम्बंधित समस्याओं की मात्र चर्चा करके हिंदी
भाषा का विकास किया जा सकता है।
प्रश्न
यह भी है कि आखिर ऐसे क्या कारण हो गए हैं कि हिंदी दिवस को मनाना ज़रुरी होता जा
रहा है? इसके जवाब में यह कहना होगा कि हिंदी भाषा
को हिंदी समाज की मानसिकता ने ही पीछे किया है। एक विशेष वर्ग ने हिंदी का मतलब
केवल साहित्यिक विशुद्ध हिंदी ही माना है और जब तक यह सोच हिंदी समाज में उपस्थित
रहेगी तब तक हिंदी की स्थिति को सुधारा नहीं जा सकता। सभी को पता है कि हिंदी भाषा
का हृदय बहुत विशाल है जिसके भीतर संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, फ़ारसी, अरबी, तुर्की, अंग्रेजी, फ़्रांसिसी इत्यादि भाषाओं के साथ-साथ
भारत की ही अनेक बोलियों के शब्द समाहित हैं जिन्हें हिंदी ने बहुत ही खुले मन से
अपनाया है और जो हिंदी भाषा के ही अपने शब्द प्रतीत होते हैं। अब अनेक आलोचक तो
हिंदी भाषा से अन्य भाषाओं के साथ-साथ ब्रज, अवधि, भोजपुरी, बांग्ला, खड़ीबोली
जैसी बोलियों को भी अलग करने पर जोर देते हैं। इस वर्ग की यह मान्यता है कि इन
सबसे विरक्त होकर ही हिंदी भाषा का वास्तविक स्वरुप सबके सामने आएगा और अन्य
बोलियों के अस्तित्व को भी बचाया जा सकेगा। लेकिन यहां कहना होगा कि हिंदी भाषा इन
बोलियों के अस्तित्व के लिए खतरा न होकर बल्कि उनके अस्तित्व का ही पुनर्निर्माण
है जो इन बोलियों को भी एक ग्लोबल अभिव्यक्ति दिलवाती है। इन लोगों को यह क्यों
नहीं समझ आता है कि हिंदी में समाविष्ट होकर इन बोलिओं का क्षेत्र विस्तार ही हो
रहा है। हिंदी के स्वरुप में रची-पकी यह बोलियां हिंदी से अलग होकर घाटे में ही
रहेंगीं क्योंकि जो क्रय-शक्ति एवं बाज़ार आज हिंदी भाषा के पास है वो इन बोलियों
को नहीं मिल सकता। वैश्वीकरण ने हिंदी भाषा को जो विस्तार दिया है संभवतः हिंदी को
ऐसा विस्तार पाने के लिए कई और वर्ष लगने वाले थे। इसका कारण भी स्पष्ट है कि
हिन्दी भाषा के पास एक बहुत बड़ा बाज़ार है जिसे पाने के लिए विभिन्न व्यापारिक
निगमों को इस हिंदी भाषा से ही होकर गुज़रना होगा अन्यथा यह निगम भारत में
प्रभावशाली रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं। इस भूमंडलीकरण का ही प्रभाव मानना
चाहिए कि जो हिंदी भाषा अभी तक गरीब एवं पिछड़े वर्गों की भाषा मानी जाती थी अब वह
देश और दुनिया में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवा चुकी है। आज हिंदी गरीब और
पूंजीवादी वर्ग, दोनों कि भाषा बन चुकी है। फिर भले ही
पूंजीवादी वर्ग हिंदी को मज़बूरी में ही अपना रहा हो। आज तो अनेक पूंजीवादी देशों
में हिंदी भाषा सिखायी जा रही है खुद अमेरिकन सरकार अपने देश में हिंदी भाषा को
सिखाने के लिए लाखों-करोड़ों डॉलर खर्च कर रही है। इसी क्रम में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी इत्यादि देशों का नाम भी लिया जा
सकता है।
यह
सर्वविदित है कि हिंदी भाषा बोलने और समझने की दृष्टि से मंदारिन के बाद दूसरे
नंबर पर आती है और जिस अंग्रेजी भाषा का डंका भारत में बज़ रहा है उसका स्थान तीसरा
है। अभी हालिया अनुसन्धान के अनुसार यह तथ्य भी सामने आया है कि चीन में मंदारिन
बोलने वाले सभी लोग नहीं है जबकि इसके विपरीत हिंदी भाषा केवल भारत में ही नहीं
बल्कि देश-विदेश में भी बोली-समझी जाती है जिसको बोलने और समझने वालों की संख्या
लगभग सौ करोड़ के आसपास है। कारण, आज
विभिन्न देशों में हिंदी का अध्ययन करवाया जा रहा है ताकि वह हिंदी संस्कृति को
समझकर अपने माल की अधिकाधिक खपत भारत में कर सके। इस लिहाज़ से हिंदी को वि२व में
सर्वाधिक बोली एवं समझी जाने वाली भाषा कह सकते हैं। भविष्य में हिंदी भाषा के इस
विस्तार के बढ़ने की भी अनेक घोषणाएं की जा चुकी हैं जिन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा
सकता है। हिंदी भाषा की लिपि की अगर बात की जाए तो कहना होगा कि यह विश्व की सबसे
वैज्ञानिक लिपि है। इस भाषा में जो जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा जाता है। यह
मंदारिन भाषा की लिपि की तरह कोई चित्र लिपि नहीं है कि जिसे समझने में ही सालों-साल
लग जाए। हमें यह भी ज्ञात है कि तुर्किश और इंडोनेशियन भाषा को अपने प्रसार के लिए
रोमन लिपि को अपनाना पड़ा लेकिन हिंदी भाषा न केवल भारतीय परिवेश में भावों को
अच्छी तरह से व्यक्त करने में समर्थ रही है बल्कि तकनीकी स्तर पर भी हिंदी भाषा ने
अपार सफलताएं अर्जित की है। इसी के चलते विभिन्न इन्टरनेट एक्सप्लोरर, ऑपेरा ब्राउज़र, नेटस्केप,
मौज़िला के साथ-साथ सबसे बड़ा सर्च इंज़न माने जाने वाला गूगल भी हिंदी को स्वीकार
करता है।
जिस ‘ब्लॉग’
की चर्चा अभी तक अंग्रेजी भाषा के संदर्भ में ही होती थी और जो हिंदी भाषा एवं
हिंदी भाषियों के लिए एक अजनबी दुनिया थी आज उसी ब्लॉग की दुनिया में हिंदी वालों
ने तहलका मचा दिया है। रोज़-रोज़ अनेक हिंदी ब्लोगरों का इस हिंदी ब्लोगिंग के
क्षेत्र में आना हिंदी की बढ़ती हुई शक्ति को ही बता रहा है। इस क्षेत्र में जो
सबसे क्रांतिकारी काम हुआ, वह था यूनिकोड नामक एक हिंदी भाषा से सम्बंधित ऐसा
एन्कोडिंग सिस्टम जिसने हिंदी को वही शक्ति प्रदान की जो अभी तक अंग्रेजी भाषा के
पास थी। जिस सरलता से अंग्रेजी भाषा का प्रयोग कंप्यूटर और अन्य तकनीकी क्षेत्रों
में किया जाता था अब बिलकुल वैसा ही प्रयोग हिंदी भाषा का भी होने लगा है। इस
एन्कोडिंग सिस्टम ने हिंदी की सूरत ही बदल कर रख दी जिससे हिंदी भाषा के बाज़ार में
बहुत तेज़ी से विस्तार हुआ और हिंदी विभिन्न व्यापारिक निगमों से हाथ मिलाकर उनकी
हमकदम बन गयी। यहां फिर यह बात सिद्ध हो जाती है कि हिंदी का हृदय बहुत विशाल और
तालमेल बिठाने वाला है जिसने न केवल अन्य भाषाओं बल्कि टेक्नोलॉजी के साथ भी कदम
मिलाया है। यही वह शक्ति है जिसकी बार-बार चर्चा हम यहां करना चाहते हैं जिसकी तरफ
सबका ध्यान भी आकर्षित करना चाहते हैं।
हिंदी
भाषा के लिए काफी समय से एक जुमला प्रचलित है कि ‘हिंदी गरीब की भौजाई है’ लेकिन
अब इस जुमले का अतिक्रमण करती हुई हिंदी भाषा गरीब की भौजाई ही नहीं, इस बाज़ार की मां बन बैठी है। बाज़ार को अपनी इस मां का आंचल
थाम कर ही आगे बढ़ना होगा। मीडिया के संदर्भ में अगर बात की जाए तो कहना होगा कि आज
हर चैनल या तो हिंदी में अपना प्रसारण कर रहा है या करना चाहता है। हॉलीवुड
फिल्मों का हिंदी में डब करके प्रसारण हो रहा है और अब तो दक्षिण भारतीय फिल्मों
का भी प्रसारण हिंदी में विभिन्न चैनलों पर होता रहता है जो हिंदी की बढती हुई
शक्ति को ही दर्शाता है। न केवल कंप्यूटर बल्कि मोबाइल फोन में भी हिंदी के
विभिन्न सोफ्टवेयरों का प्रयोग किया जा रहा है और हिंदी भाषा से संबंधित नये-नये
कार्यक्रमों को भी निर्मित किया जा रहा है। हर देशी और विदेशी कंपनी हिंदी भाषा
में अपना एक निजी हिंदी चैनल लाने की ताक में रहती है। साहित्य के क्षेत्र में भी
अन्य भाषाओं से सबसे ज्यादा अनुवाद हिंदी भाषा में ही किये जा रहे हैं। इस बाज़ार
आधारित अर्थव्यवस्था और इससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों ने हिंदी भाषा के
संसार को ही बदल कर रख दिया है। यह बदलाव इस गति से हो रहा है कि उसे ठीक से कुछ
निश्चित शब्दों में बांधना बहुत मुश्किल कार्य है। लेकिन इस बदलाव ने निश्चय ही
हिंदी भाषा के शब्द भंडार को समृद्ध किया है जिसके कारण हिंदी के विस्तार की गति
और भी तेज हो गयी है। इसे हम यों भी कह सकते है कि हिंदी स्वतंत्र होकर बिना किसी
सरकारी सहायता के आगे बढ़ रही है। हिंदी भाषा में यह दम और साहस इसी बाज़ार ने दिया
है जिसे हिंदी साहित्यिक समाज दिन रात कोसते रहते हैं। जिस हिंदी के विकास में
सरकारी तंत्र पिछले अनेक वर्षों से प्रयासरत रहा है और जिसने हिंदी सुधार के नाम
पर हिंदी को केवल किताबों और पुस्तकालयों तक ही सीमित कर दिया जबकि बाज़ार ने उसी
हिंदी का बहुत ही रचनात्मक और व्यावहारिक प्रयोग कर हिंदी का भूगोल ही बदल डाला है।
सरकारी कार्यालयों में एक पंक्ति अवश्य देखते हैं – ‘अगर आप हिंदी में बात करेंगे
तो हमें प्रसन्नता होगी’। लेकिन इसके अलावा कुछ भी सार्थक काम हिंदी के प्रति नहीं
किया गया है। हिंदी भाषा के प्रति जो धिक्कार बोध इसप्रकार की क्रियाओं द्वारा
विकसित हुआ है, उसी पर सबसे पहले इस नयी हिंदी ने चोट की है। उसी हिंदी ने आज इससे
अलग अपनी एक दुनिया को निर्मित किया है जिसे आज पहचानना बहुत ज़रुरी है। सही मायनों
में वही हिंदी की वास्तविक शक्ति है।
हिंदी
के लिए अनेक विद्वानों का तर्क रहा है कि हिंदी का वास्तविक अर्थ वह हिंदी है
जिसमें अनिवार्य रूप से शुद्धता का ध्यान रखा जाए, जिसमें अंग्रेजी व अन्य भाषाओं
के शब्दों का समावेश नहीं होना चाहिए और अगर ऐसा कहीं होता भी है तो उस हिंदी भाषा
से उन शब्दों को तुरंत निकाल कर बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। ऐसे लोगों का
उद्देश्य हिंदी को एक विशुद्ध भाषा के रूप में सुरक्षित रखने का होता है। किंतु ये
लोग हिंदी के शुद्धतावाद को भले ही संभाल कर रख ले मगर हिंदी को जनसमाज से काट देते
हैं। इस विशुद्ध हिंदी से केवल एक विशेष पाठक वर्ग ही जुड़ पाता है जिसका संबंध
हिंदी अध्ययन-अध्यापन से अनिवार्य रूप से रहता है। यह ऐसी हिंदी होती है जिसे पढ़कर
कोई जन, हिंदी-संस्कृति और हिंदी-व्याकरण को तो
भलीभांति समझ सकता है लेकिन हिंदी को उत्पादन एवं व्यवसाय से नहीं जोड़ पाता। हिंदी
भाषा के व्यावहारिक बोध से वंचित रहकर, हिंदी के प्रति एक
धिक्कार बोध से ग्रसित हो जाता है। अधिक से अधिक वह हिंदी भाषा और साहित्य से संबंधित
एक-दो किताबें लिखकर कुछ रूपये-पैसों का इंतजाम तो कर सकता है लेकिन हिंदी की
वास्तविक शक्ति से अपरिचित ही रहता है। ऐसी हिंदी ही हिंदी भाषियों में एक ग्लानी
बोध को जन्म देती है जिसके चलते हिंदी भाषी स्वयं को अन्यों से पिछड़े हुए मानने
लगते हैं। स्वयं को दूसरों की नज़रों से देखना प्रारंभ कर देते है जिसमें उन्हें
सिवाए उपेक्षा और कभी सहानुभूति के अलावा कुछ नहीं मिलता। जब तक हम इसी हिंदी के
दामन को पकड़कर आगे बढेंगें तब तक हिंदी भाषा और हिंदी बोलने वालों को उपेक्षा और
तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा। आज उपभोक्तावादी व्यवस्था ने हिंदी भाषियों को एक
राह सुझाई है कि कैसे हिंदी का सही इस्तेमाल हो सकता है। हिंदी की शक्ति का कैसे
रचनात्मक प्रयोग किया जाना चाहिए। कहना होगा कि इस बाजारवादी अर्थव्यवस्था में भले
ही अनेक खामियां हैं लेकिन हिंदी का भविष्य इस अर्थव्यवस्था में सुरक्षित है।
हिंदी भाषा को इसी अर्थव्यवस्था ने पुनर्जीवित किया है। हमें आज यह समझना चाहिए कि
हिंदी की शक्ति उसकी शुद्धता में नहीं, उसके व्यावहारिक
प्रयोग में हैं। हिंदी की प्राणवत्ता अधिसंख्य समुदाय से जुड़ने में हैं न कि उसे
कुछ निश्चित मानकों में समेटकर रखने में है।
संपर्क - दीपक शर्मा, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली वि२वविद्यालय,
दिल्ली, चलदूरभाष – 9811424200, ईमेल –