गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

लोकगीतों में स्त्री एवं आदिवासी प्रश्न - बिजेन्द्र सिंह मीणा



लोकगीतों में स्त्री एवं आदिवासी प्रश्न 
-    बिजेन्द्र सिंह मीणा
आदिवासी समुदाय की जनसंख्या पूरे देश की जनसंख्या में आठ प्रतिशत आंकी गई हैं। पूर्वोत्तर भारत में इनकी जनसंख्या तीस प्रतिशत मानी जाती हैं । देश में प्रचलित आर्य, द्रविड़, चीनी-तिब्बती और आस्ट्रोएशियाटिक आदि सभी भाषा परिवारों में कुछ भाषाएं ऐसी हैं जो आदिवासी समुदायों में ही व्यवहृत हैं। ये भाषाएं आदिवासियों या जनजातियों की भाषाएं कहीं जाती हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में सत्तर आदिवासी भाषाओं में पढ़ाई की जाती हैं और लगभग चालीस भाषाओं में लिखित साहित्य उपलब्ध हैं। अधिसंख्य आदिवासी भाषाएं रोमन और देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं तो कुछ बंगला, गुजराती और तिब्बती में अंकित की जाती हैं। हिन्दी में प्रस्तुत कुछ आदिवासी भाषाओं के साहित्य के दूसरी आदिवासी भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई है। समकालीन लोकगीतों में आदिवासी स्त्री की स्थिति देखी जाए तो मार्मिक पक्ष सामने आते हैं। इन लोकगीतों में इन वर्गों का चित्रण बहुत कम देखने को मिलता है। वर्तमान समय में देखा जाए तो समकालीन लेखक भारतीय समाज की वास्तविक संस्कृति का प्रतीक चिह्न आदिवासी नारी की स्थिति पर कम लिखते हैं । यदि यही चलन में रहा तो भारतीय समाज की युवा पीढ़ी अपनी मूल भारतीय संस्कृति को छोड़कर पश्चिमि संस्कृति को अपनाएगी जिससे हिन्दी भाषा पर बहुत प्रभाव पड़ेंगा। आने वाले समय में बच्चें कविताओं को पोईम नाम देंगे और सभी लेखक इस बात से बहुत ही बेहतरीन तरीके से अवगत हैं कि कविता की कविता की तरह पढ़ा जाता है और पोइम को पोइम की भाषा में पढा जाता हैं। वर्तमान समय की वास्तविकता यह है कि आदिवासी स्त्री की स्थिति बहुत ही चिंतनीय है। आज सम्पूर्ण भारत की जनसंख्या का लगभग साठ प्रतिशत ग्रामीण-आदिवासी क्षत्रों में निवास करता है। आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाली भारतीय नारी को देखा जाए तो उनका आज तक पूंजीपति वर्गों ने शोषण ही किया । दिकुओं ने आवश्यकता पूर्ण होने पर इन्हें इनके ही क्षेत्रों से या तो भगा दिया या उनको मौत के घाट उतार दिया। आज विश्वविख्यात ताजमहल का विश्व के अजूबों में नाम आता है जिसे शांहजहां ने अपनी बेगम की याद में बनवाया था। लेकिन शांहजहां ने  भी क्या किया कि ताजमहल का पूरा निर्माण होने पर कारीगरों और मजदूरaa के हाथ-पैरaaaaa को कटवा दिया या फिर उनको आगरा से भगा दिया ताकि ऐसा ताजमहल पूरे विश्व में कहीं दुबारा नहीं बन सके ।
 वर्तमान समय में समकालीन कवियों या लेखकों की ज्यादातर कविताओं को पढ़ा जाएं तो इनमें समाज की समस्याओं के निवारण पर कम कविताएं पढ़ने को मिलती हैं। भक्तिकालीन कवि लोग गरीबी में जीते थे पर अपने समय का यथार्थ उन्होने कभी ओझल नहीं होने दिया। पुराने कवि ना तो पढ़ें लिखे थे और उन्हें तन पर ढंग से कपड़ें भी पहनने को नहीं मिलते थे। रामायण की रचना करते-करते वाल्मिकी जी के तो शरीर पर चीटिंयों का पहाड़ बन गया था। आज वर्तमान समय में हमें ना तो हमें जंगलों में जाकर तपस्या करनी हैं और ना ही कोई हथियार उठाकर किसी से युद्ध करना है। आज हमारे पास सारी सुविधाएं हैं। अत: हमारे भारत देश के सभी लेखकों से मैं निवेदन करना चाहूंगा कि समकालीन कविताओं में ग्रामीण स्त्री और आदिवासियों की समस्याओं के निवारण के बारे में लिखें ताकि वर्तमान में शहरी, ग्रामीण, पूंजीपति वर्ग और युवा पीढ़ी उन कविताओं को पढ़ें जिनसे उनके विस्थापन की समस्याओं, शिक्षा, घर, रोटी, कपड़ा आदि का निवारण किया जा सके । लेखक को इस वर्ग को मात्र अपनी कलम के शब्दों का प्रयोग करके ही बचाना हैं। अभी कुछ सालों पहले जयपुर जिले में मिहिर अपहरण काण्ड बहुत लोकप्रिय हुआ था। सारे राजस्थान में मिहिर को खोजा गया । आखिर में वह मिल गया लेकिन आज किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में या आदिवासी क्षत्रों में किसी स्त्री या बच्चें का अपहरण हो जाता हैं तो कोई भी उनकी आवाज नहीं सुनता। यदि सारे भारतवासी मिलकर आकलन करकर देखे तो सभी आदिवासी क्षेत्रों की जनता एक छोटे से बच्चें से लेकर स्त्री-पुरूषबुजुर्ग खाद्य पदार्थों का उत्पादन करते हैं और शहरी क्षेत्रों में पहुंचाए जाते हैं । ये लोग इतनी मेहनत करके हमारा पेट भरते हैं फिर भी गालियां या अत्याचार के अलावा इनको क्या मिलता हैं। आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोग एक तरह से हमारे माता-पिता ही हैं किंतु ये ही आज रोटी, कपड़ा, मकान और कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं।
ईश्वर ने हमें आंखे तो दे दी हैं लेकिन ये आंखे एक अंधे व्यक्ति की आंखों के समान हैं । हम कहते हैं कि सर्दियों में सरसों का साग और बाजरे की रोटी होनी चाहिए । ये चीजें अभी तक तो सरल तरीके से हमें उपलब्ध हो जाती हैं लेकिन वो इसलिए की ग्रामीण क्षत्रों और आदिवासी क्षेत्रों की जनता मेहनत करके हम तक पहुंचा देती हैं। यदि एव ही न रहेंगे  तो कहां से आयेगी ये खाद्य सामग्री । यदि ऐसा होता रहा तो हम अपनी सामान्य जरूरतों के लिए भी बड़ें-बड़ें बाजारों में भागे-भागे फिरेंगे । आदिवासी समाज की स्त्रियों की पीड़ा-वेदना गौर करें तो सवर्ण स्त्री की पीड़ा व दर्द जो हैं, वे बहुत ही उथले लगेंगे। आज स्त्रीवादी साहित्य सभी भाषाओं मे अभिव्यक्ति पा रहा है । किंतु आदिवासी स्त्री की स्थिति सवर्ण स्त्री की तुलना मे बदतर है। अभी मैं पाठकों को एक उदाहरण देना चाहूंगा । राजस्थान मे पाई जाने वाली कालबेलिया जनजाति की गुलाबो नाम की महिला जानी-मानी राजस्थानी लोक नृत्यांगना है। कालबेलिया जाति मे गाया जाने वाला गीत प्रत्येक राजस्थानी के मुख पर रहता है जो यहां आपके सामने प्रस्तुत है -
काल्यो कूद पड़ो मेला में
साइकल पंचर कर लायो .............
कालबेलिया जाति मे पुरूषों द्वारा यह गीत गाया जाता हैं और महिलाएं नृत्य करती हैं। गुलाबो नाम की आदिवासी महिला को विश्व के सबसे उंचे मंच संयुक्त राष्ट्र संघ में अतिथियों के मनोरंजन के लिए राजस्थानी लोक संस्कृति की झलक दिखाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। गुलाबो संयुक्त राष्ट्र संघ में अतिथियों का मनोरंजन करके लौटती है तो उसे अपनी प्रस्तुति के रूपये नहीं दिए जाते तो आखिर मे उसे भी मुख्यमंत्री आवास पर धरने पर बैठना पड़ता है । और तब जाकर उसकी मांगे सुनी गईं । यह बड़ी सोचनीय बात है कि राजस्थानी लोक नृत्यांगना गुलाबो हमारी राजस्थानी संस्कृति की मूल धरोहर है । यदि ऐसा होता रहा तो आदिवासी नारियों की भी अपनी मूल संस्कृति से बिछुड़ने की शुरूआत होती चली जाएगी ।
       स्त्री विमर्श के नाम से साहित्य जगत में नए विचार सामने आए हैं। स्त्रीवादियों का मानना है कि पुरूषाधिपत्य से लाखों स्त्रियां दबी पड़ी हैं । इनको केन्द्र में रखकर इनकी विमुक्ति के लिए जो कविताएं लिखी जाती हैं वे स्त्रीवादी कविताएं है । लिंग विभेद अर्थात समाज में पुरूष का सम्मान और स्त्री का अपमान, पुरूषों की भूमिका को श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण और स्त्री की भूमिका को हीन व महत्वहीन आंका जाना आज नहीं चलने वाला है। राजस्थान राज्य में करौली जिले को डांग क्षेत्र के नाम से भारतीय इतिहास में जाना जाता है। इसी जिले में तहसील नादौती ग्राम रायसना का क्षेत्र माड़ क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है । इस क्षेत्र में ज्यादातर आदिवासी समुदाय निवास करता है जिनका मुख्य कार्य कृषि उत्पादन हैं । यहां भी नारी दशा पर लोकगीत का प्रखर पक्ष सामने आता है -
ओंरी जीजी, हम्बें जीजी................
भायों खेंवे थ्हारी जीजी सु कह दिज्यों
बथुओं रांदै, सैके मक्का रोटी
और खेंवे घोड़-घाड़छाछ राबड़ी लाज्यों
जीजी भागै बथुआ काटन, बेटी सैकें रोटी
जीजी खेंवे रोटी खालेजा खेत में बेटी
बेटी खेवे हम्बें जीजी, लागै भूख पेटी
बेटी खावैं रोटी- तो जीजी बांधै रोटी
जीजी खैवें बेटी खाली तूने रोटी
तो जीजी खैंवे उठा ढकोलों जा खेत में बेटी
बेटी जावैं उठा ढकोलों भाया की रोटी
भायों देखें जोत में कब आवैं बेटी
बेटी पहुंचे खेत में हैल्यों भायों पावैं
अब भायों धाम-धूम रोटी खाबा आवैं
बेटी घालें रोटी भायौं खावें रोटी
बेटी खेंवे भायों कैसी लागै बथुआ मक्का रोटी
भायों खैंवे या जून मे आछी बथुआं मक्का रोटी
बेटी घालैं छाछ राबड़ी जब भाया ने खाई रोटी
भायों खावैं छाछ राबड़ी आंख्या ओंग आती
बेटी खैंवे भाया खाली तूने रोटी
भायौं खैंवे हम्बे बेटी खाली मैंने रोटी
बेटी खैंवे भाया अब करले खाट खटौटी ।
इन पंक्तियों में आदिवासी नारियों की दशाओं से अवगत हो सकते हैं । इस गीत में एक ग्रामीण परिवार की नारी और पुरूष की दशा का हमें पता चल जाता हैं जब एक किसान पुरूष जून के महीने में खेत में कार्य करने के लिए जाता है तो पत्नी और बेटी भी साथ में जाती हैं । दोपहर होने लगती हैं, भूख लगने लगती हैं तो किसान जब पत्नी से कहता हैं कि भूख लगने लगी हैं तो पत्नी दौड़कर घर जाती हैं और मवेशियों को पानी पिलाकर बेटी का इंतजार करती है । बेटी जब घर पहुंचती हैं तो मां और बेटी का संवाद देखने को मिलता हैं । माड़ क्षेत्र में किसान परिवार को खेत में काम करते समय जब भूख लगती है तो वह किसान परिवार इस लोकगीत को गुनगुनाकर अपने पेट की भूख को शांत कर लेता है। इस उदाहरण से हम आदिवासी महिलाओं के द्वारा गाए जाने वाले लोकगीतों का महत्व आसानी से समझ सकते हैं । इससे सिद्ध हो जाता है कि आदिवासी नारी का ग्रामीण क्षेत्र के पुरूषों के जीवन में कितना महत्व होता हैं ।
भारतीय समाज में बाल विवाह बहुत अधिक होते हैं जबकि यह हमारे भारतीय कानून के खिलाफ हैं । आदिवासियों बच्चियों को भी बाल विवाह से जूझना पड़ता है। उसके विरोध में गाया जाना वाला लोकगीत भी पाठकों के लिए प्रस्तुत है -
नौड़ो-नौड़ो ब्याहखाज्यां पांवड़ा पूड़ी
छोट्यां बाड़क मत परणाओं छोड़ों पाछली रोड़ी
पहलै पढ़ा लिख्यांकर द्यों पैरों पे खड़ा
म्हांरी मन की बात बता दूकौने मार रे पौड़ा.........
इन पंक्तियों से हम अवगत हो जाते है कि आदिवसासी नारी अपने द्वारा गाये जाने वाले लोकगीतों के द्वारा भारतीय समाज में हो रहे बाल विवाह के खिलाफ अपनी व्यथा को प्रकट कर रही हैं ।
इस क्षेत्र की आदिवासी महिला ईश्वर के प्रति भी पूर्ण रूप से समर्पित हैं। श्रद्धा भाव से गाया जाने वाले इस लोकगीत में आदिवासी नारियों के द्वारा भगवान कृष्ण का नाम लिया गया है -  
कृष्ण जन्म्यों जी कि खूंचू म्हांरी मान जावैं तो
भरी रै सभा में शैसो ज्ञान गावैं तो ...............
इन पंक्तियों से हमें यह पता चल जाता हैं आदिवासी नारी को ईश्वर का भी ज्ञान हैं और लोकगीतों के माध्यम से आदिवासी महिलाओं द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को याद किया जाता है । आगे मैं बताना चाहूंगा कि जब आदिवासी समुदाय में जब विवाह होता है तब भात के समय आदिवासी नारी अपने पिता को अपने मन की बात लोकगीत द्वारा कह रही है -  
लाख लाख की चूनड़ी कि खोलगो घड़ी
बाबुल एक बेस कैम्यारैं बोली राखगों खड़ी..............
इन पंक्तियों से साबित हो जाता हैं कि आदिवासी नारी के सामाजिक संस्कारों को ध्यान में रखते हुए पिता बेटी के रिश्तों पर बनाए हुए लोकगीत के माध्यम से आदिवासी नारियों के संस्कारों की भी झलक देखने और सुनने को मिलती है। वर्तमान में भारतीय समाज में कोई भी शादी पार्टियां होती रहती हैं तो भारतीय नागरिक शराब पिये बिना शादी पार्टियों का मजा नहीं ले पाता हैं । किंतु आदिवासी सुमदाय में विवाह के समय में शराब पीकर आने वाले अतिथियों को संबोधित करते हुए शराब से होने वाली हानि को व्यंग्यात्मक ढंग से लोकगीत में गाया गया है -
धोड़ी-धोड़ी बोतलदुबा राखीं दारू
पीवंगा रै बड़ की छाया में कैद भिलाईं म्हांरी हो जावैं .................
इन पंक्तियों के माध्यम से करौली जिले की तहसील नादौती ग्राम रायसना माड़ क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं शराब पीने वाले अतिथियों (पावणां) को व्यंग्यात्मक लोकगीत गाकर शराब से होने वाले दुष्परिणामों को याद दिलाती है । इस तरह आदिवासी महिलाएं भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए आदिवासी क्षेत्रों में निवास करने वाले पुरूषों को सचेत करती रहती हैं । इसलिए यह क्षेत्र शराब का सेवन करने वाले क्षेत्रों से अछूता क्षेत्र माना जाता है। आगे मैं बताना चाहूंगा जब विवाह के बाद वर पक्ष दुल्हन को लेने जाता है, तो यह परम्परा गौना कहलाती है । उस समय भोजन में चावल, दाल, बूरा और घी चारों खाद्य सामग्री उपलब्ध कराई जाती है । वधू पक्ष में महिलाओं द्वारा मेहमानों के लिए पेट भर खाने के लिए प्रोत्साहन दिलाने के लिए कुछ पंक्तियां  हैं -
धोड़ा-धोड़ा चावड़ रांद दियों भात जीं
खाया जारैं म्हांरा बियाई जी मजा सूं ..........
इसलिए हम कह सकते हैं आदिवासी महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले लोकगीतों में बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ हैं । यदि पाठक इनको पढ़ें-गाये तो आधुनिक समाज में रहने वाले नागरिकों के लिए इन लोकगीतों का महत्व आधुनिक समाज के लिए जड़ीबूंटी साबित होगी। इनको नहीं अपनाया गया तो धीरे-धीरे हमारे भारतीय समाज की लोक संस्कृति जर-जर अवस्था में आने लगेगी और भारतीय समाज की मूल संस्कृति का विनाश होता चला जाएगा और पश्चिमी संस्कृतियों का प्रभाव यहां पर देखने को मिलेगा जब हम हमारी संस्कृति को याद करेंगे तो हमें एक मुहावरा ही याद आयेगा अब पछताए होत क्या जब चिङिया चुग गई खेत।
सम्पर्क – बिजेन्द्र सिंह मीणा, व्याख्याता,एस. एफ. एस. हिन्द राजकीय महाविद्यालय देवली (टोंक), राजस्थान

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