एक नई
समाज संहिता की प्रस्तावना है: मेरी पत्नी और भेडि़या
-डॉ.
यशवन्त वीरोदय
दलितों के खोए हुए
सामाजिक-सांस्कृतिक-आधार की शिनाख्त करते हुए इस युग के सबसे बड़े समाज दार्शनिक डॉ.
धर्मवीर ने हमें इतिहास के उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ से बौद्धिक विमर्श की दिशा बदल गई है। भारतीय दर्शन और पाश्चात्य
दर्शन के इतिहास में इसे ‘टर्निंग प्वाइंट’ कहा जा सकता है क्योंकि डॉ. धर्मवीर के चिन्तन के मूल में कोई ईश्वर,
अनिश्वर, कैवल्य, मोक्ष,
निर्वाण या पुनर्जन्म नहीं है। उनके चिन्तन के मूल में द्वैत,
अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, प्लेटो
का प्रत्यय और काण्ट के ‘अतिन्द्रीय समन्वयात्मक अद्वय
विशुद्ध अपरोक्षानुभूति’ भी नहीं है बल्कि उनके चिन्तन के
मूल में है- घर-परिवार, राष्ट्र की रक्षा और मजबूती और उससे
जुड़ा है, उनका आजीवक धर्म चिन्तन और पारिवारिक स्वतन्त्रता।
जो ले जाती है हमें जार-मुक्त भारत की ओर। डॉ. धर्मवीर के चिन्तन में जारों,
निठल्लों, सन्यासियों, भिक्षुओं
के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि वे श्रमिक संस्कृति से जुड़े हैं। यह रैदास की ‘हत्थन सौं कर कार’ और कबीर की ‘जो-जो करूं सो पूजा’ की संस्कृति है। तभी तो वे सारे
समाज के सामने घोषणा करते हुए कहते हैं-
‘‘मैं मक्खलि गोसाल के आजीवक धर्म का अनुयायी हूं।
भिक्षापात्र फिंकवा कर मैं तो बुद्ध के हाथों में रैदास का रांपा थमाना चाहूंगा,
महाबीर को महाअभिनिष्क्रमण से वापस लाकर कबीर के करघे पर बैठाऊंगा
और शंकर को नामदेव दर्जी की सुई दूंगा कि अपनी गुजर के लिए काम करो।’’ (पृष्ठ-866)
डॉ. धर्मवीर का ‘गृहस्थ चिन्तन’ भिक्षु संध, मुनि
समाज, सन्यासी जमात और ‘प्लेटो के
आदर्श राज्य’ को भी कठघरे में खड़ा करता है-
‘‘भिक्षु संघ, मुनि समाज और
सन्यासी जमात-मुझे इसलिए नापसन्द है क्योंकि इनमें पुरुष और स्त्री पति-पत्नी के
रूप में नहीं रहते.......... भिक्षु संघ, मेरे हिसाब से बांझ
वैकल्पिक समाज है, जबकि हमें गोद भरा अच्छा समाज चाहिए। मुझे
कृष्ण भक्ति में गले फाड़ कर राधे-राधे डकारने वाले वे साधु-सन्यासी भी नहीं चाहिए
जो भक्ति को गंदा करते हैं। मेरे लिए रजनीश की ‘संभोग से
समाधि’ तक की साधना बांझ है क्योंकि उसमें औलाद पैदा नहीं
होती। इन सबको मैं बिगड़ी हुई साधनों में शुमार करता हूं।..... ऐसी हानिकारक सोच
प्राचीन पश्चिमी जगत में भी चली थी कि राजा को दार्शनिक के रूप में बेऔलाद होना
चाहिए। इस मामले में प्लेटो के ख्याली पुलाव किसी काम के नहीं हैं।’’ (पृष्ठ-865)
अंग्रेजी में ब्रिटेन के प्रो.
आर. जी. कोलिंगवुड की पुस्तक ‘न्यू लेवियथन’ का उद्धरण देते हुए डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि शासक और शासित के दोनों
वर्गों में परिवर्तन होता है। शासक वर्ग में कमजोर लोग पैदा हो जाते हैं और शासित
वर्ग में मजबूत लोग पैदा हो जाते हैं। मूल समस्या दोनों ओर से, इन्हीं पैदा हुए लोगों के समायोजन को लेकर होती है। शासक वर्ग अपनी नालायक
औलाद को लायक बताता है तथा शासित वर्ग की लायक औलाद को भी लायक नहीं मानता। यदि
शासक वर्ग की नालायक औलाद को शासित वर्ग में धकेल दिया जाए तथा शासित वर्ग की लायक
औलाद को शासक वर्ग में सम्मिलित कर लिया जाए तो किसी क्रान्ति की आवश्यकता नहीं
रहती। जब इन दोनों वर्गों में आने-जाने की यह प्रक्रिया बन्द कर दी जाती है,
तभी क्रान्ति की आवश्यकता पड़ती है। तुलसीदास जी ने जो ‘पूजिअ विप्र सील गुन हीना, सूद न गुन गन ग्यान
प्रवीना’ की चैपाई लिखी है, उसमें यही
बुराई की बात है। (पृष्ठ-833)
बापू
मेरे आरम्भिक प्रेरणा स्रोत-
डॉ. धर्मवीर अपने आरम्भिक दिनों के
प्रेरणा स्रोत के रूप में अपने पिता को याद करते हैं। उनके अनुसार ‘‘बापू ने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए थे। हमारा घर किसानों
वाले हलवाहे का था, जमींदार से थोड़ी जमीन लेकर उसे
जोतते-बोते थे, बापू ने उस काम को त्याग दिया और अपना पैतृक
गांव छोड़ दिया। उन्होंने अपने कुटुम्ब में बिल्कुल नई परम्परा डालकर दर्जी का काम
सीखा। उससे पहले वे अंग्रेजों को पोलो खेलने में उनकी मदद करते थे। बापू ने शहर
में दर्जी की अपनी दुकान खोली जो उस समय एक बेहद साहसपूर्ण कदम था, वहीं से एक मुसलमान अफसर के कपड़े सीकर अपनी सरकारी नौकरी लगवा ली।’’
(पृष्ठ-340)
बापू की पढ़ाई के प्रति लालसा को डॉ.
धर्मवीर ने रेखांकित करते हुए लिखा है- ‘‘बापू
के कोई मामा लगते थे, वे ब्रिटिश सेना में रह चुके थे,
उन्होंने सेना में हिन्दी-अंग्रेजी का थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर लिया
था। बापू ने अपने भाइयों से मिलकर उन मामा को अपने गांव बुला लिया.......... तय यह
हुआ कि मामा इन्हें रात को चोरी से पढ़ाया करेंगे क्योंकि दिन में पढ़ाने में
जमींदार को पता लग सकता था।’’ (पृष्ठ-472)
बापू की राजनैतिक चेतना हमारे कुटुम्ब में
सबसे अधिक थी, बापू के हाथ में मैंने राजनैतिक झण्डे देखे हैं। वे
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के बारे में बहुत जागरुक थे, उन्होंने
मेरठ के भैंसाली ग्राउण्ड में उनका भाषण सुना था। बापू गांधी जी को हमारी कौम के
लिए झूठा और बेइमान मानते हैं .............. जब बाबा साहेब का निधन हुआ था तो
बापू उस दुःख की खबर को गांव में लाए थे। (पृष्ठ-479)
विजय
पुजारी द्वारा लिखित बाबा साहेब के जीवन पर पहली पुस्तक जो मुझे पढ़ने को मिली, उसे बापू ने ही अपने वर्कशाप से लाकर मुझे दिया था। बापू जबानी अंग्रेजी
बोल लेते थे, वे अंग्रेजों में रहे थे। मैं यह भी बताना चाहूंगा
कि हिन्दी मुझे बापू ने घर पर सिखाई थी पर अंग्रेजी भी मुझे उन्होंने ही सिखाई थी।
(पृष्ठ-480)
एक तरह से बापू के सम्पूर्ण जीवन से डॉ.
धर्मवीर ने प्रेरणा ली और अपने जीवन में उनके विचारों को अपनाया। टेश्न एक्सीडेण्ट
में डॉ. धर्मवीर के घायल हो जाने के पश्चात् यह अन्दर से टूट गए थे। जिसको याद
करते हुए डॉ. धर्मवीर लिखते हैं कि ‘टेश्न
एक्सीडेण्ट में मेरा दाहिना पैर घुटने के नीचे कट गया तो बापू ने खुद को सम्हाला
और मुझे भी हिम्मत दी।’’ (पृष्ठ-481)
जार
सत्ताः
आलोचक राजेन्द्र यादव कहते
हैं कि डॉ. धर्मवीर के चिन्तन के केन्द्र में ‘जार सिद्धान्त’
है, जिसे वे कार्ल मार्क्स के ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ की तरह अपना विशिष्ट दर्शन
मानते हैं। यहां एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या कारण है कि डॉ. धर्मवीर का
चिन्तन जार-सत्ता और निठल्लों के खिलाफ है? मुझे कहना यह है कि डॉ. धर्मवीर
का ‘जार सिद्धान्त’ सामाजिक रूप से
दुर्घटनाग्रस्त हुए उनके जीवन और ‘सामाजिक चिन्तन’ से उपजा है। एक तरह से देखा जाए तो यह जार-समस्या केवल डॉ. धर्मवीर के
जीवन से जुड़ी समस्या नहीं है बल्कि पूरे समाज, पूरे राष्ट्र,
धर्म और संस्कृति से जुड़ी समस्या है, जिसके
समाधान के रूप में यह पुस्तक ‘मेरी पत्नी और भेडि़याहमारे
सामने है। यह विशालकाय ग्रन्थ केवल डॉ. धर्मवीर की आत्मकथा ही नहीं है बल्कि एक नई
समाज संहिता की प्रस्तावना भी है।
वाणी प्रकाश, 4695,
21-ए, दरियागंज, नई
दिल्ली-110002 से प्रकाशित 1087
पृष्ठों के इस विशालकाय समाजशास्त्रीय ग्रन्थ/आत्मकथा की विधिवत् शुरुआत पृ.सं.-15 से होती है, जिसमें डॉ. धर्मवीर को मित्र से सूचना
मिलती है कि-
‘‘कंकर खेड़े, मेरठ में मेरे घर पर भेङिए का एक बच्चा
पाला जा रहा है’’
‘‘येस, देयर इज ए वुल्फ इन माई हाउस’’ (पृ.सं.-15)
और इसके
बाद डॉ. धर्मवीर निर्णय लेते हैं-
‘‘इस घर में भेङिया रहेगा या मैं रहूंगा। मेरे रहते घर में भेडि़या नहीं रह
सकता’’ (पृ.सं.-18)
भेडि़ए की इस कहानी के बाद डॉ.
धर्मवीर का अपने परिवार पर से विश्वास उठ जाता है। जहाँ तक साहित्य की बात है तो
भेङिए के प्रतीक को लेकर साहित्य लिखा जा सकता है तो खुद भेङिए को लेकर कैसा
साहित्य लिखा जा सकता है- यह किताब उसकी मिसाल है। इस किताब में भेडि़या ‘प्रतीक’ भी है और ‘यथार्थ’
भी है। यह भेङिया वही जार है जो हिन्दुओं के घर-घर में घुसा हुआ है
जिसे वे पाल रहे हैं, पोस रहे हैं और यह भेडि़या उनका खून पी
रहा है, जान से मार रहा है। इस दृष्टि से डॉ. धर्मवीर का यह
कथन महत्वपूर्ण हो उठता है कि ‘‘मेरे रहते घर में भेङिया
नहीं रह सकता’’ (पृ.सं.-18) डॉ.
धर्मवीर का सारा चिन्तन इसी जार रूपी भेङिए को घरों से बाहर निकालने के लिए है-
तभी हम एक सुदृढ़ समाज और राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं।
बकौल डॉ. धर्मवीर ‘‘मैंने जो खोजा है, वह सामी धर्मों का शैतान नहीं है
बल्कि हिन्दू धर्मों का जार है। हिन्दू धर्म में धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों में काम एक पुरुषार्थ माना गया है
और इसके लिए सूत्र साहित्य में ‘कामसूत्र’ नाम से एक धर्मग्रन्थ लिखा गया है। उसमें यही बताया गया है कि
पर-स्त्रियों को कैसे-कैसे और क्यों-क्यों वश में किया जाता है। एक दूसरी शब्दावली
में इस ‘जार’ को ‘मार’ कहा गया है, पर उनका
उद्देश्य भी अपने भीतर के ‘मार’ को
मारने का है। बाहर के ‘मार’ को मारने
का नहीं। मसलन बुद्ध अपने भीतर के मार पर विजय पाते हैं, पर
बाहर के मारों को बिना विजित किए ही छोड़ देते हैं। इस में ‘जार’
को मारने का मतलब होता है कि अपने भीतर सेक्स भावना को ही मिटा
देना। पर इस में एक दूसरी बुराई पैदा हो जाती है। हमारे कबीर ने इस बुराई की पहचान
बहुत अच्छे ढंग से की है। वे गाते हैं-
जंगल जाए
जोगी धुनिया रमौले।
काम जराय
जोगी होयगै हिजरा।। (पृ.सं.-996)
यह इनके योगियों, वैरागियों, तपस्वियों, सन्ंयासियों
का जीवन है जिस की कबीर ने ठीक ही मजाक फोड़ी है। या तो दुनिया की सारी औरतों को
भोगूंगा नहीं तो अपने भीतर सेक्स को ही खत्म कर दूंगा़- यह हिन्दू धर्मों का
रास्ता है। इन के पास गृहस्थ जीवन में नैतिकता का रास्ता नहीं है। इन की नैतिकता
पेट में मुक्के मार कर सेक्स खत्म करने की है अन्यथा गृहस्थ में ये केवल ऐब ही
करते हैं। गृहस्थ जीवन में इनके पास सदाचार नाम की कोई चीज नहीं है। सदाचार को
इन्होंने जंगलों के संन्यासियों में निर्वासित कर दिया है जो मेरे हिसाब से बांझ
सदाचार है। (पृ.सं.-997)
डॉ. धर्मवीर को इसी प्रकरण में ‘बाबरनामा’ याद आ जाता है। वे कहते हैं कि ‘इस समय यदि मुझे कोई किताब याद आ रही है तो वह बाबर की बाबरनामा है। फर्क
केवल इतना है कि उस का विषय ‘राजसत्ता’ को प्राप्त करने का था जबकि मेरा उद्देश्य ‘जार-सत्ता’
को मिटाने का है। बाबर ने अपने बाबरनामा में ऐसी औरतों का जिक्र
किया है जो गलत थीं-
‘‘जने-बद दर-सराये मर्द नकू, हम दरीं आलम स्त
दोज़ख़े-ऊ’’
‘‘नेक इन्सान के घर
बद न चाहिए औरत,
वरना यह
दुनिया ही होती है जहन्नुम उसको।’’
सन्ंयासः
संसार में सर्वश्रेष्ठ की प्राप्ति में
घर-परिवार को छोड़ना पड़ता है। यह भारत में एक विषाक्त विचार फैला हुआ है। इसी
विषाक्त विचार की वजह से मोक्ष, निर्वाण और कैवल्य के शब्द
अस्तित्व में आते हैं। मोक्ष, निर्वाण और कैवल्य हमारी फर्जी
स्वतन्त्रतायें हैं। मैं यह कह रहा हूं कि मोक्ष, निर्वाण और
कैवल्य के भारी-भरकम शब्दों की फर्जी स्वतन्त्रताओं के बजाए मुझे तलाक लेने की
सच्ची और वास्तविक स्वतन्त्रता चाहिए। मुझे हिन्दू कानून में हिन्दू संन्यासी,
बौद्ध भिक्षु और जैन मुनि बनाकर मोक्ष, निर्वाण
और कैवल्य दिए जा रहे हैं, पर तलाक नहीं दिया जा रहा है- यही
मेरा हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन से विद्रोह है। (पृ.सं.-864)
डॉ. धर्मवीर के अनुसार सन्यास में एक प्रकार का निठल्लापन
ही है जिससे घर-परिवार, समाज और राष्ट्र की
समस्याओं का समाधान नहीं होता। बकौल डॉ. धर्मवीर ‘‘निर्वाण,
कैवल्य और मोक्ष के दर्शन में एक और दूसरी कमी न कमाने की है।
राजकुमार बुद्ध के हाथ में भिक्षा पात्र
अच्छा नहीं लगता। विदेशियों से देशवासियों की सुरक्षा के लिए उनके हाथ में
धनुष-बाण ही होने चाहिए थे। समाज के भीतरी अपराधियों को दण्ड देने के लिए हाथ में
तलवार ही काम देती है।’’ (पृ.सं.-866)
इस सम्बन्ध में डॉ. धर्मवीर अपनी पुत्री अनिता को सुभाष चन्द्र बोस की
भतीजी ललिता बोस की कहानी सुनाते हुए कहते हैं ‘‘वे सुभाष चन्द्र बोस की भतीजी हैं। उन्होंने शादी नहीं की और आजीवन साध्वी
रही हैं, उनसे मेरी मुलाकात हुई है। उन्होंने मुझसे अपने
साध्वी जीवन के बारे में बताया है। उन्होंने कहा है कि हिन्दुस्तान के कुछ साधुओं
का सैक्सी जीवन यहां के गृहस्थ लोगों से भी ज्यादा खराब है।’’ (पृ.सं.-194)
हिन्दुस्तान का मनुष्य परिवार और समाज से
डर कर भाग जाता है और संन्यास धारण कर लेता है। वह राजाओं से समझौता करता है और
उनसे बड़े-बड़े राज्याश्रय पाता है। वह सेठों से दान पाता है लेकिन सुकरात और ईसा
का उद्देश्य दूसरा था। वे अपने घर में और घर से बाहर समाज से लड़े हैं। उन्होंने
राजाओं से टक्कर ली है और सेठों के सामने दान के लिए हाथ नहीं फैलाया है। बल्कि
उनकी भत्र्सना की है। यदि संन्यास मेरा आदर्श होता तो मैं कभी का संन्यासी बन जाता
लेकिन उल्टे मेरी लड़ाई खुद संन्यास से है............. मुझे परिवार और समाज के झूठ
से भी टकराना है। यह अन्तर समझौता बनाम सरकार का हो सकता है। इतना कहते हुए डॉ.
धर्मवीर अन्त में इस निष्कर्ष पर पंहुचते
हैं-
‘‘मैं जीवन भर गृहस्थ के सुख के लिए तड़पता रह सकता हूं
लेकिन बुद्ध और शंकर के संन्यास की प्रशंसा कभी नहीं करुंगा। (पृ.सं.-651)
निठल्लाः
निठल्ले लोगों की क्या पहचान होती है? उनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता। निरुद्देश्य भटकने वाला और श्रम से
भागने वाला, कमा कर न खाने वाला और दूसरों पर आश्रित रहने
वाला व्यक्ति निठल्ला होता है। इस संदर्भ में डॉ. धर्मवीर के मित्र श्याम लाल
मक्करवाल और उनके निठल्ले भाई महीपाल के बीच 5अप्रैल,
1992 को हुआ संवाद महत्वपूर्ण है जिसको डॉ. धर्मवीर ने अपनी पुस्तक
के पृष्ट सं.-70 पर दिया है, उस संवाद
के अंश यहां दिए जा रहे हैं-
मक्करवाल- आपने अपने जीवन में क्या तय कर रखा है?
महीपाल- कुछ
नहीं।
मक्करवाल- आपके जीवन का उद्देश्य क्या है?
महीपाल- मुझे
अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में कुछ पता नहीं।
मक्करवाल- आपने इस वर्ष में करने के लिए क्या सोच रखा है?
महीपाल- कुछ
नहीं।
मक्करवाल- आपको इस महीने में क्या-क्या काम करने हैं?
महीपाल- कुछ
नहीं।
मक्करवाल- इस हफ्ते का आपका कोई कार्यक्रम बना है?
महीपाल- कोई
नहीं।
मक्करवाल- खुद आज आप को क्या करना है?
महीपाल- कुछ
नहीं।
मक्करवाल- ठीक इस समय आप क्या सोच रहे हैं?
महीपाल- मैं
कुछ नहीं सोच रहा, मेरे जीवन का कोई
उद्देश्य नहीं है।
इस संवाद से निरुद्देश्य जीवन
जी रहे महीपाल और उन जैसे अन्य निठल्लों की दिनचर्या का पता चलता है। ऐसे लोगों के
लिए मक्करवाल का यह कथन कितना महत्वपूर्ण है-
‘‘एक मनुष्य को अपने जीवन में इस प्रकार जीना शोभा नहीं
देता। आपको अपने जीवन का कोई मकसद ढूंढना चाहिए। ऐसे ही जीते रहने से कोई लाभ
नहीं।’’ (पृष्ठ-71)
डॉ. धर्मवीर ने अपने चिन्तन में इसी
निठल्ले व्यक्ति को पकड़ा है। हमारे घरों में कोई न कोई और कहीं न कहीं एक निठल्ला
व्यक्ति जरूर टपक पड़ता है। वह निठल्ला व्यक्ति घरों में बैठ कर बेहद बकवास करता
है। कमाने वालों की बेइज्जती करता है और बच्चों को बिगाड़ता है।
बकौल डॉ. धर्मवीर ‘‘महीपाल के रूप में भारत के हिन्दू समाज का ब्राह्मण पकड़ा है। ब्राह्मण ने
भी अपने शास्त्रों में यह कसम खा रखी है कि वह काम नहीं करेगा- अर्थात् कमा कर
नहीं खाएगा। वह मानता है कि हल की मूठ पर हाथ रखते ही उसका ब्राह्मणत्व नष्ट हो
जाएगा। लेकिन उसने धर्म के कर्मकाण्ड रूप को पकड़ रखा है। अपनी पुस्तकों में उसने
संस्कृत के श्लोक रच-रच कर दान की महिमा भर रखी है। सबसे अन्तिम रूप में उसने खुद
को भिखारी बना रखा है- बाम्मन को धन केवल भिच्छा।’’(पृष्ठ-986)
डॉ.
धर्मवीर के अनुसार भारत में माक्र्सवाद की असफलता के पीछे भी यही निठल्लापन है-
‘एक दिन माक्र्सवाद पर बहस हो रही थी, यह मेरे दफ्तर की बात थी। मेरे ब्राह्मण अधीनस्थ अधिकारी ने कहा कि जब
आदमी गरीब हो जाता है तो वह मजबूरी में भिखारी हो जाता है। वहां मेरे अधीनस्थ एक
दूसरे जाट जाति के अफसर थे, उन्होंने कहा कि यह सिद्धान्त
गलत है कि मजबूरी में आदमी भिखारी बन जाता है। उन्होंने कहा कि जाट का लड़का गरीब
होने पर कन्धे पर बन्दूक ठा कर डकैत बनता है, भिखारी कभी
नहीं। ब्राह्मण अपनी नालायक औलाद की बगल में पतरा-पोथा थमा कर उससे कहता है कि जा,
दुनिया को ठग कर खा, और घर से निकल। इधर
चमारों के इस निठल्ले को देखो कि घर से नहीं निकलता....... यहाँ माकर्स दर्शन ब्राह्मणों के, जाटों के और चमारों के- तीनों घरों में फेल है। माकर्सवाद वहां लागू होता
है, जहां लोग कमाने में लगे हुए हों और रोटी न मिल रही हो,
पर निठल्लों के लिए कोई माक्र्सवाद कारगर नहीं है......... एम.एन.
राय से शुरू होकर भारत में माक्र्सवाद की इतनी कम सफलता के कारण इन कौमों के
भिखारी, निठल्ले और डकैत ही हैं। (पृ.सं.-986-987)
एक बार डॉ. धर्मवीर की पुत्री अनिता ने डॉ.
धर्मवीर से गुस्से में कहा था कि दूसरे लोगों की बेटियाँ भी तो क्या ठाली बैठ कर
नहीं खा रही हैं, तुम मुझे ही निठल्ली या
नाकामयाब क्या कहते हो? डॉ. धर्मवीर ने अपनी पुत्री को
समझाते हुए कहा- ‘‘मैं अपनी बेटियों को कमजोर नहीं देखना
चाहता, उल्टे यह अच्छी बात है कि मैं तुम्हें खाने कमाने की
कला सीखने के लिए मजबूर करके तुम्हारी वास्तविक सहायता कर रहा हूं। (पृ.सं.-196)
जो लोग खाली बैठ कर केवल सोचते रहते हैं, उनके लिए डॉ. धर्मवीर की सलाह है कि सन्तगुरू रैदास और कबीर की तरह काम
करते हुए सोचने की आदत डाली जाए। तुलसी की तरह ठाली बैठकर की गई सोच गलत धारा में
भी जा सकती है। बकौल डॉ. धर्मवीर ‘‘मैं सोचने का मालिक हूं,
मैं कुछ भी निरर्थक नहीं सोचता। मुझे सोचते समय अपने परिवार का
भरण-पोषण पूरा करने के लिए अपने दफ्तर भी जाना होता है इसलिए अपने ऐसे कमाने वाले
पापा का अनुकरण करो तो कोई ठोस नतीजा निकलेगा। मेरी हर सोच या निरर्थक मानकर छोड़
देने के लिए होती है या फिर किसी निर्णय पर पँहुचती है।’’ (पृ.सं.-198)
डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन की
असफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि उनके समय के अधिकांश दलित नेता बिकाऊ हो
गए थे। कांशीराम ने इसीलिए ‘चमचा युग’ लिखा
और कहा कि हमें न बिकने वाला समाज बनाना है। मांगने वाला नहीं वरन् देने वाला समाज
बनाना है। डॉ. धर्मवीर भी दलित नेताओं को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि-
‘‘जो व्यक्ति अपनी कमाई आप
नहीं करता, वह कभी भी बिक सकता है। वह समाज कार्य में जनता
का चन्दा खाएगा और राजनीति में दलाली कर सकता है। किसी भी क्षेत्र में हुनर से
कमाओ और समाज सेवा और राजनीति का काम करो। समाज सेवा और राजनीति से कमाने की मत
सोचो। इन्हें अपना पेशा मत बनाओ। आपका पेशा अलग होना चाहिए।’’(पृ.सं.-447)
और अन्ततः डॉ. धर्मवीर अपने
जीवन के इस निष्कर्ष पर पंहुचते हैं कि ‘‘उम्र कितनी भी हो,
बस, जीने की एक शर्त है कि हमें किसी पर
आश्रित होकर जीना न पड़ जाए।’’ (पृ.सं.-660) एक तरह से देखा जाए तो एक मेहनत से भरे-पूरे ओर्गेनाइज्ड जीवन को निठल्ले
और कामचोर जीवन के अन-ओर्गैनाइज्ड लोग कैसे रोकते और बर्बाद करते हैं- इस पुस्तक
में इसी बात का चित्रण हुआ है।
पर्सनल
कानून-
दलित चिन्तक दिनेश राम के
अनुसार ‘‘किसी आन्दोलन का इतिहास उसकी सफलताओं और असफलताओं
का ही रिकार्ड होता है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के पहले के दलित आन्दोलन का
रिकार्ड हमारे पास नहीं है। हम अपने आन्दोलन की रीढ़- ‘धर्म’
और ‘पर्सनल कानून’ को
बचाने में असफल रहे हैं......... आन्दोलन जितना बाहरी आक्रमणों से नहीं पिटा करते,
उतना अपनी आन्तरिक कमजोरियों से पिटा करते हैं............. कौम की
आन्तरिक कमजोरियों से बाबा साहेब परिचित थे व कदम-कदम पर उनसे दो-चार हुए थे।
हमारे समय के मान्यवर कांशीराम इस समस्या से बखूबी जूझे थे। उन्होंने ‘चमचा युग’ के नाम से एक किताब लिखी थी, पर अपनी राजनैतिक व्यवस्तताओं के चलते लिखने की अपनी इस परम्परा को आगे
नहीं ले जा पाए। इस की व्यवस्थित शुरुआत डॉ. धर्मवीर ने अपनी पुस्तक ‘मेरी पत्नी और भेङिया’ से लिख कर की है। आन्तरिक
कमजोरियों को रिकार्ड करने की परम्परा की यह एक व्यवस्थित शुरुआत है। इतिहास में
इसका श्रेय डॉ. धर्मवीर को जाता है।
(बहुरि नहिं आवना, अप्रैल-जून, 2010
पृष्ठ-7 व 8)
राजा राम मोहन राय ने इस देश में सती
प्रथा रुकवाई थी, ईश्वर चन्द्र विद्या सागर
ने हिन्दुओं में विधवा विवाह की शुरुआत करवाई थी, और शारदा
एक्ट ने बाल विवाह को रोका था। इस सबसे आगे बढ़़ कर डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू कोड
बिल पास कराना चाहा था लेकिन वह पास नहीं हो सका था और डॉ. अम्बेडकर को हारना पड़ा
था। डॉ. धर्मवीर, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर उसी अधूरे काम को
लेकर आगे बढ़ रहे हैं। बकौल डॉ. धर्मवीर ‘‘मैं विश्व के
लिखित सिविल कोड में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन लाना चाहता हूँ कि ‘नंग पत्नी’ और ‘निठल्ले पुरुष’
की धर पकड़ हो जाए............ मैं चाहता हूं कि मेरे केस के बाद
हमारे गरीब समाज के दूसरे चिन्तक इस सिविल कोड में और भी नया कुछ जोड़े।’’
(पृ.सं.-189)
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने देश की
स्वतन्त्रता के आरम्भिक वर्षों में इस विषय पर हिन्दू कोड बिल की बहुत सही बहस
उठाई थी लेकिन वे फेल इसलिए हो गए थे क्योंकि उनके पास कोई उदाहरण नहीं था। डॉ.
धर्मवीर ने इस पुस्तक में तमाम उदाहरण देकर उनकी मदद की है। वे अब किसी के सामने
हार नहीं सकेंगे।
दलितों
के लिए एक नई सिविल संहिता की प्रस्तावना के रूप में यह पुस्तक प्रस्तुत करते हुए
डॉ. धर्मवीर कहते हैं-
‘‘पुस्तक के इस मुकाम पर आकर अब मुझे यह भी कहना है कि
कोई पाठक इस कथा के पात्रों में शैतान को, खलनायक को और
खलनायिका को न ढूंढे। यह व्यक्ति की नहीं, व्यवस्था की चीज
है। मैं अपनी आजीवक व्यवस्था में खड़ा होकर कह रहा हूं कि यदि इस कहानी में किसी
शैतान को ढूंढना है तो वह ‘हिन्दू विवाह अधिनियम,
1955’ है और यदि खलनायक ढूंढना है तो वह ‘कुटुम्ब
न्यायालय अधिनियम, 1984’ है और इस मामले में मेरा संवाद केवल
हिन्दुओं से है कि हिन्दू कानून के नाम पर उन्होंने ये क्या कानून बनवाए हैं। ये
राष्ट्र और परिवार के किसी काम के नहीं हैं, उल्टे नुकसानदायक
और उनके लिए भारी रूप से घातक हैं। हिन्दुओं का यही पर्सनल कानून इस देश की लम्बी
और ऐतिहासिक गुलामी का एकमात्र मूल कारण रहा है। (पृ.सं.-1048)
डॉ. धर्मवीर की मान्यता है कि हिन्दुओं के
पर्सनल कानून में सब कुछ छिपाया जाता है। उनका कानून ब्राह्म विवाह से उपजा है
जिसमें तलाक का शब्द नहीं है......... सारा अन्धेरा पर्सनल कानून में सिमटा हुआ
है। बकौल डॉ. धर्मवीर ‘‘मैं इसी घुप अन्धेरे को
उजाले में लाया हूं और हिन्दुओं को उन्हीं का चेहरा दिखा रहा हूं।
मजा तब
है, तस्वीर बन के तुम्हारी,
तुम्हारी
ही सूरत तुम्हीं को दिखाऊँ।’’ (पृ.सं.-1049)
इतिहास भर में अब तक दार्शनिक लोग संसार
में मनुष्य की स्वतन्त्रताओं के लिए युद्ध लड़ रहे हैं। यह स्वतन्त्रतायें
राष्ट्रीय, सामाजिक और आर्थिक प्रकार की हैं। किसी ने ध्यान नहीं
दिया कि मनुष्य घर में भी गुलाम है। इस स्वतन्त्रता के बारे में अब तक विचार के
स्तर पर कोई काम नहीं हुआ। खास कर भारत में इस स्वतन्त्रता के लिए कुछ नहीं किया
गया। घरों में इस स्वतन्त्रता को न पाने की वजह से यहाँ मोक्ष, निर्वाण और कैवल्य प्राप्त करने की फर्जी स्वतन्त्रतायें कल्पित की गई
हैं। न कमाने वाले लोगों से तंग आकर एक कमाने वाला व्यक्ति को कमाना छोड़ कर हाथ
में कटोरा लेकर दर-दर का भिखारी बनना पड़ा है। इसलिए घर में स्वतन्त्रता प्राप्त
करना- यह मनुष्य की आखिरी स्वतन्त्रता की लड़ाई है। बकौल डॉ. धर्मवीर ‘‘गांधी जी देश की अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ रहे थे।
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर अछूतों की हिन्दुओं से सामाजिक आजादी की लड़ाई लड़ रहे
थे। मैं घरों में लोगों की जारों से और निठल्लों से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहा हूँ।
आजादी की सभी लड़ाइयां सही हैं, पर मेरी लड़ाई आजादी की मूल
लड़ाई है। यह सभी स्वतन्त्रताओं की जड़ है। सारी स्वतन्त्रतायें यहीं से शुरू होती
हैं।’’ (पृ.सं.-1050)
स्वतन्त्र
एवं आत्मनिर्भर स्त्री चिन्तनः
इस सामन्ती समाज ने स्त्री को
चार वर्गों में विभक्त कर रखा है। पत्नी, सौतन, रखैल और वेश्या। डॉ. धर्मवीर इनमें से केवल स्त्री को पत्नी के रूप में
स्वीकार करते हैं। सौतन, रखैल या वेश्या के रूप में नहीं। जब
औरत को संरक्षण यानि रोटी, कपड़ा और मकान देने के साथ पुरुष
अपना नाम देकर सामाजिक स्वीकृति प्रदान करता है तो वह पत्नी होती है लेकिन जब वह
संरक्षण देकर अपना नाम नहीं देता है तो वह केवल रखैल होती है। पर जहां न संरक्षण
देता है और न ही सामाजिक स्वीकृति तो वह वेश्या होती है क्योंकि संरक्षण के लिए
उसे बहुतों पर निर्भर रहना पड़ता है। बकौल डॉ. धर्मवीर हमारे समाज में सौतन और
रखैल के दो शब्द प्रचलित हैं, ये नए ईजाद किए हुए शब्द नहीं
हैं बल्कि पुराने शब्द हैं। सौतन पुराने जमाने की खराब पत्नियों का बुरा इलाज था।
औरत, सौतन से सदा डरी है। सौतन पति की दूसरी बहू होती थी।
उसे सारे हक मिलते थे और बकायदा उससे पैदा बच्चे समाज में सम्मानित होते थे। रखैल
को उतने अधिकार नहीं हैं लेकिन मुझे ये दोनों परम्परायें नापसन्द हैं। मेरे विचार
में एक पति की केवल एक पत्नी हो सकती है, दो नहीं। एक घर में
दो पत्नियों की कोई तुक नहीं बैठती। (पृ.सं.-436) और अन्त
में डॉ. धर्मवीर घोषणा करते हैं कि ‘मैं किसी का पति बन कर
रहना चाहता हूँ। मैं नारी को वेश्या या रखैल नहीं बनने दूंगा। जब मैंने (डॉ.
यशवन्त वीरोदय) डा. धर्मवीर से प्रश्न किया कि ‘‘आपने ‘मातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता’ नाम से एक चिन्तन श्रृंखला शुरू की है, यदि हिन्दू
जारसत्ता को छोड़ दिया जाए तो मातृसत्ता और पितृसत्ता में आप किसे अच्छा मानते हैं?
इस प्रश्न के जवाब में डॉ. धर्मवीर ने जो उत्तर दिए, उससे उनके स्त्री सम्बन्धी चिन्तन का पता चलता है जो सूत्र रूप में इस
प्रकार समझा जा सकता है-
1. स्त्री वेश्या न बनें- अर्थात्
उसे वेश्या बनाया न जा सके। स्त्री किसी की रखैल भी न बने। स्त्री पत्नी बने और
सम्मानजनक धन कमाए।
2. कोई अवैध सन्तान पैदा न की जाए-
अर्थात् परपुरुष और परनारी के जार साहित्य की भत्र्सना की जाए, उन भगवानों और भगवानियों की भी, भक्ति के नाम पर,
जिनसे ये शब्द जुड़े हुए हैं।
3. प्रेम और सदाचार एक दूसरे के
विलोम अर्थ वाले शब्द नहीं हैं। प्रेमी को सदाचार की शिक्षा देने की जरूरत नहीं
रहती। अनन्यता में व्यभिचार कहां? इसमें जारकर्म और बलात्कार
दोनों दण्डनीय अपराध ठहरा दिए जाएं-स्त्री पुरुष दोनों के लिए।
4. इतिहास मातृसत्ता की ओर नहीं
लौटेगा, आगे बढ़ेगा। इतिहास पितृसत्ता पर भी ठहरकर नहीं रह
जाएगा। स्त्री का छीना गया हर अधिकार देकर उसे उसकी प्रत्येक करनी के लिए
जिम्मेदार ठहराया जाए।
5. ‘मातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता’ को मिटाकर ‘मातृसत्ता, पितृसत्ता और बालसत्ता’ खड़ी की जानी है। मनुष्य का सामाजिक विकास इस बात में निहित है कि ‘पति, पत्नी और वो’ के बजाए ‘पति, पत्नी और बालक’ की
त्रिवेणी बहे।
6. जैसे रोटी की भूख की सन्तुष्टि
के लिए कमाई से बाहर चोर और डकैत को पकड़ा जाता है, वैसे ही
सेक्स की भूख की सन्तुष्टि के लिए विवाह से बाहर जार और बलात्कारी को पकड़ा जाना
है। जो रोटी के मामले में पूँजी है, वही सैक्स के मामले में
विवाह है। पूंजी को पूंजीपति और मजदूर द्वारा नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए,
ऐसे ही विवाह को मातृसत्ता और पितृसत्ता द्वारा नुकसान नहीं पहुंचाया
जाना चाहिए।
अभी तक हमारी गरीब कौमों ने
अपना सामाजिक चिन्तन पूरा नहीं किया है। हमारे लोग हजारों वर्षों से इन समस्याओं
से जूझते रहे हैं, पर उन्होंने कभी इन्हें अपने मस्तिष्क के
स्तर पर नहीं गुजरने दिया था। वे सब कुछ सह गए पर उन्होंने हमें लिखित रूप में कुछ
नहीं बताया। यही कारण है कि हमारा सामाजिक विकास नहीं हो पाया जबकि हमारी
प्रतिद्वन्द्वी दूसरी कौमों ने अपने इन सामाजिक यात्राओं को दो-तीन हजार साल पहले
तय कर लिया था। बकौल डॉ. धर्मवीर- ‘‘डॉ. अम्बेडकर ने अपने
जीवन में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया था कि उन्होंने अपनी वृद्धावस्था में, हिन्दुस्तान की उनके प्रति खुली विद्रोही पत्रकारिता के होते हुए, डंके की चोट पर एक सारस्वत ब्राह्मणी से शादी की थी। मैं इस चिन्तन में
थोड़ा योगदान इस रूप में कर पा रहा हूं कि अपने नंग पत्नी से तलाक मांग रहा हूं।’’
(पृ.सं.-189)
डॉ. धर्मवीर कहते हैं कि ‘‘मैं नारियों के खिलाफ नहीं हूं.......... मेरी परम्परा के बुजुर्गों में
कोई भी नारी जाति के खिलाफ नहीं गया था। (पृ.सं.-184) टालस्टाय
ने मरते समय अपनी बेटी को देखने के लिए बुलाया था और कह दिया था कि उनकी पत्नी
उनके सामने न आ जाए। जान मिल्टन की लड़कियां अपनी मां को छोड़कर अपने पापा के पास
रही थीं। कबीर ने अपने बेटे कमाल को त्याग दिया था और अपनी बेटी कमाली को धार्मिक
परम्परा दी थी......... मैंने भी अपने फण्ड, गे्रच्युटी और
बीमे का नामिनेशन अपनी बेटी बिन्टू के नाम कर दी है। मैं अपने घर की जायदाद भी शीघ्र
ही बिन्टू के नाम वसीयत कर दूंगा। मैं अपना पुस्तकालय और अपनी रायल्टी के अधिकार
भी बिन्टू के नाम वसीयत में देने की सोच रहा हूं। मुझे अपने बेटों संजय और क्षितिज
पर भरोसा नहीं है।’’ (पृ.सं.-185) इन
उद्धरणों से समझा जा सकता है कि डॉ. धर्मवीर को स्त्री विरोधी बताने वाले लोगों की
मंशा ठीक नहीं है। जिस व्यक्ति ने आजीवन परिवार के लिए संघर्ष किया है और अपनी
सारी सम्पत्ति को अपनी पुत्री के नाम कर दिया है, ऐसा
व्यक्ति स्त्री विरोधी नहीं हो सकता।
प्रेमचन्द की एक कहानी है ‘अलग्योझा’, जिसमें पन्ना नाम की एक दलित जाति की
विधवा औरत का जिक्र है, जिसके बारे में प्रेमचन्द लिखते हैं-
‘वह सुन्दर थी, अवस्था भी कुछ ऐसी
ज्यादा न थी, पन्ना तो पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा
घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग
हंसेंगे। बला से। उसकी बिरादरी में क्या ऐसा होता नहीं। ब्राह्मण-ठाकुर थोड़े ही
थी कि नाक कट जाएगी। यह तो ऊंची जातों में होता है कि घर चाहे जो करो, बाहर पर्दा ढका रहे। वह तो संसार को दिखा कर दूसरा घर कर सकती है’। प्रेमचन्द की इस कहानी की समीक्षा करते हुए आलोचक डॉ. धर्मवीर कहते हैं
कि ‘‘देखा जा सकता है कि इस एक उद्धरण में प्रेमचन्द ने अपने
समय का सारा सच कह दिया है। यह भी कह दिया है कि दलित जातियों में विधवा का
पुनर्विवाह होता है तथा यह भी कह दिया है कि ब्राह्मण-ठाकुरों में विधवा विवाह
नहीं होता। उन्होंने यह भी कह दिया है कि ऊंची जातों की विधवाएं बाहर पर्दा ढक कर
घर में जारकर्म करती हैं। इससे यही पता लगता है कि जिस कौम में तलाक पर जितनी
पाबन्दियां हैं, उसमें उतनी ही सैक्स की चोरी है।’’ (पृ.सं.-930)
पूछा जा सकता है कि वैवाहिक मामलों की
बातों को छुपा कर रखने के लिए क्यों कहा जाता है? द्विज हिन्दू पर जोर पड़ता है, जब इसके घर की बातें
बाहर आती हैं। यह घर में हजार पेचीदगियां भुगतता रहेगा लेकिन बाहर लोगों की जुबान
नहीं खुलने देगा।
इस युग में वैवाहिक मामलों की विश्व में
दो सबसे अधिक चर्चित कहानियां चल रही हैं। इन में से अमेरिका के राष्ट्रपति
क्लिन्टन और उनकी पत्नी हिलेरी की है तथा दूसरी ब्रिटेन के राजकुमार चाल्र्स और
उनकी पत्नी डायना की है। इनमें से तीसरी कहानी भारत के डॉ. धर्मवीर और उनकी पत्नी
रमेश की भी है। एक तरह से देखा जाए तो डॉ. धर्मवीर ने अपनी इस कहानी को अमेरिका के
राष्ट्रपति क्लिन्टन और ब्रिटेन के राजकुमार चाल्र्स की कहानी से नीचे नहीं गिरने
दिया है।
एक तरह से देखा जाए तो दलित समाज और
हिन्दू समाज के घालमेल से उत्पन्न हुई है- ‘मेरी
पत्नी और भेडि़या’। यह दो समाजों का विरोधाभास है। यह पुस्तक
की अनिवार्य मांग है कि स्त्री अधिकार के नाम पर जार सम्बन्धों को बढ़ावा देने
वाली भरण-पोषण को व्यवस्था को बन्द किया जाए और जारकर्म पर स्त्री-पुरुष को तलाक
का अधिकार दिया जाए। सही मायने में यह पुस्तक एक नई समाज संहिता की पृष्ठभूमि है
जिसमें भविष्य में समाज चिन्तकों द्वारा और भी नया कुछ जुड़ेगा और तैयार होगा,
वह रास्ता जो ले जाएगा हमको, हम सबको जारमुक्त
भारत की ओर।
सम्पर्क - डॉ.
यशवन्त वीरोदय,असिस्टेण्ट प्रोफेसर, हिन्दी
विभाग, उ.प्र. विकलांग उद्धार, डॉ.
शकुन्तला मिश्रा वि.वि.,लखनऊ
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