गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

जो इतिहास में नहीं है’ उपन्यास में संथाल आदिवासियों की समस्याएं और उनका संघर्ष - प्रवीण बसंती



जो इतिहास में नहीं हैउपन्यास में संथाल आदिवासियों की समस्याएं और उनका संघर्ष
प्रवीण बसंती
संथाल आदिवासी झारखंड ही नहीं बल्कि भारत की भी एक प्रमुख आदिवासी समुदाय है। झारखंड के संथाल परगना में इनकी अधिकता के कारण ही इस क्षेत्र का नाम संथाल परगना पड़ा। ‘‘अतीत में संथाल अपने आप को होड़ कहते थे। होड़ का अर्थ मनुष्य है। संथाल अपने को खेरवाल के वंशज मानते है यानि पक्षियों से पैदा हुआ संथालों का वंश। संथाली अपनी भाषा को होड़ पारसी, यानी मनुष्यों की भाषा कहते हैं। होड़ का संथाल नाम बहुत बाद में पड़ा। संथाली भाषा इनकी मातृभाषा हैं।’’[i] जो आस्ट्रिक भाषा समूह की एक शाखा है। आस्ट्रिक शाखा भारत के आदिवासियों की सबसे बड़ी भाषा शाखा है - संथाली, मुंडारी हो, खड़िया, जुवाड़, शबर रेमो गेत, निकोबारी, खासी आदि भाषाएं आस्ट्रिक शाखा के अंर्तगत आती हैं। इसकी भाषा को पढ़ने लिखने का कार्य रोमन, देवनागरी, बंगला और उड़िया लिपि में किया जाता है। परन्तु वर्तमान में संथाली भाषा के लिए ओलचिकीलिपि का प्रयोग किया जा रहा हैं।
वर्तमान में यह जनजाति झारखंड के अलावा भारत के अन्य क्षेत्रों जैसे बंगाल, बिहार, उड़ीसा, पंजाब और असम में बहुल संख्या में निवास कर रही है। झारखंड के इतिहास के पन्नों को पलटे तो यह दृष्टव्य होता है कि यहां का आदिवासी समाज आरंभ से ही संघर्षरत रहा है। स्वतंत्र जीवन जीने वाले आदिवासी क्षेत्र में जब बहिरागतों का हस्तक्षेप बढ़ने लगा तो इनमें आरंभ में टकराव की स्थिति को देखा गया है लेकिन कालांतर में यह स्थिति सौहार्द्र में परिवर्तित होती भी जान पड़ती है। किंतु जब भारत में अंग्रेजों का आगमन हुआ और भारत का अदिवासी समाज अनवरत अंगरेजी राज तथा अंग्रेजों द्वारा शोषित जमींदारों और साहूकारों से संघर्ष करता रहा और प्रतिरोध में कई सारे आंदोलन उभर कर सामने आये। लेकिन उनका यह मुक्तिकामी संघर्ष इतिहास के पन्नों में मात्र विद्रोह नाम से दर्ज है।
संथालों का हूल कोई विद्रोह मात्र नहीं था वरन् अपनी अस्मिता, स्वायत्ता और संस्कृति के लिए वनपुत्रों का मुक्तिकामी संघर्ष था। संथालों की यह क्रांति अंग्रेजों को भारत से भगाने की प्रथम जनक्रांति थी और इस व्यापक जनक्रांति में नेतृत्व भले संथालों ने किया था परन्तु सक्रिय भूमिका समस्त वनवासी जातियों-गोत्रों के साथ-साथ गैर आदिवासी समाज ने भी निभायी थी। अंग्रेजों की सत्ता को तीरों पर तौलने वाले वनचरों ने निर्णायक न सही, परन्तु अनेक अवसरों पर अंग्रेजों को करारी मात भी दी थी। संथालों के इस महान हूल में हारिल जैसे सैकडों गुप्तचर रहें है जो हूल के शुरूआत से लेकर अंत तक बने रहे थें और उससे प्रेरित होकर तीर धनुष उठाये और शहीद भी हुये। राकेश कुमार सिंह का उपन्यास जो इतिहास में नहीं है का केन्द्र पात्र हारिल जैसे उन सैकड़ों युवाओं को श्रद्धाजंलि देता है जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं है।
निसंदेह यह उपन्यास सिदो-कान्हों द्वारा संथाल हूल को आधार बना कर लिखा गया उपन्यास है। आदिवासियों की पहचान उनके जल, जंगल और जमीन से जुड़ी हुई है। अंग्रेजों के आगमन से संथाल आदिवासियों का राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृति और आर्थिक जीवन किस प्रकार प्रभावित होता है और किन-किन समस्याओं से जूझता हुआ और अपने जीवन से संघर्ष करता हुआ आदिवासी समाज जीवन व्यतीत करता है, इस स्थिति को हारिल मुरमू तथा अन्य पात्रों के माध्यम से देखा जा सकता है। जो केवल संथाल ही नहीं बल्कि झारखंड के उन समस्त आदिवासियों का नेतृत्व करता है जिससे आदिवासी समुदाय आज भी जूझ रहा है।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र हारिल मुरमु एक कृषक संथाल आदिवासी है जिसके पास गर्व करने लायक खेत है ‘‘अपने खेत में ऐसी लहराती फसल उगाने या खेत की माटी को जगाने के निमित्त हारिल मुरमू ने किया ही क्या था? भेड़वा नदी से पानी को भर-भर पटाया ही भर था। हारिल मुरमू के पुरखों ने तो इस माटी पर अपना ढेरों रक्त बहाया था। बरसों बरस पठारी भूमि के इस कंकरीले टुकड़े पर सड़े-पत्तों और खूब सारी बकरी की लेड़ियों की खाद बिखेरी थी। भेड़वा नदी से पोखरा भर पानी ढोकर पिलाया था तब कहीं जागी थी यह धरती।’’[ii] अपने जीवन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए संथाल आदिवासियों ने जंगल साफ कर जमीन को कड़ी मेहनत कर खेती योग्य और रहने योग्य बनाया था। अपने इसी पुरखों की खेती को जिंदा रखने के लिए बहुत मेहनत करता था हारिल मुरमू का पिता जादिक मुरमू जिससे उनके कंधो पर डोल-बहंगी का भार ढोते-ढोते गड्ढे उग आये थे। वैसे तो गांव का जमींदार राजा गोमके पहले से ही उस जमीन पर नजर रखता था। लेकिन जबसे ललमुंहा साहब ने बताया था कि यहां की जमीन में अभ्रक है जिससे यहां अभ्रक की खान बनायी जा सकेगी तो यह रूपये की खान में परिवर्तित हो जायेगी, तभी से उनकी नजर जादिक मुरमू के जमीन पर गढ़ गयी थी । लेकिन आदिवासियों के लिए जमीन मात्र जमीन नहीं होती उनके पुरूखों की निशानी और उनका अस्तिव होता है क्योंकि बिना जमीन के आदिवासी, आदिवासी नहीं कहलाता है। इसी जमीन के लिए हारिल भी संघर्ष करता है जिसे राजा गोमके अपने नाम करके खनिज खनन के रूप में परिवर्तित कर देता है। हारिल मात्र यहां संथाल हूल के लड़ाकों का एक गुप्तचर ही नहीं है बल्कि वह उन आदिवासियों का प्रतिनधित्व करता है, जो विभिन्न समस्याओं से जूझते हुए जीवन से संघर्ष करते हैं।
इस उपन्यास में बंधुआ मजदूरी की समस्या को भी देखा जा सकता है। जादिक मुरमू और बाघामुण्डी के कई संथाल आदिवासी गोमके के घर बैठ-बेगारी करते है। एक बार यदि कोई आदिवासी कर्ज लेता था तो वह उस कर्ज से मुक्त नहीं हो पाता था और पीढ़ी दर पीढ़ी यह बैठ-बेगारी चलती रहती है। अंग्रेजों के हस्तक्षेप से कम्पनी सरकार ने खूंटकट्टी और झूम खेती पर प्रतिबंध लगा दिया इससे पहले आदिवासियों की खेती करने की अपनी स्वतंत्र व्यवस्था थी। ‘‘स्थायी बंदोबस्त के साथ कंपनी सरकार ने जंगल के साथ आदिवासियों के संबंध को भी बदल डाला था। जंगल की भूमि और वनोपज ही नहीं गांव की गैरमजरूआ भूमि के उपयोग पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। कम्पनी सरकार की नयी व्यवस्था मुद्रा निवेश, संचय तथा उत्पादन के साधनों के स्वामित्व पर आधारित व्यवस्था थी। औपनिवेशिक मुद्रा पर आधारित व्यवस्था थी।’’[iii]  जंगल के परम्परागत ढांचे और ग्राम स्वावलम्बन की वन्य सामाजिक संरचना को कम्पनी सरकार के हितों के अनुरूप ढालने के उद्देश्य से ई.सन् 1786 में कम्पनी के जनरल लार्ड कार्नवालिस ने पूरी वन्य-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर डाले । भू राजस्व की वसूली सुनिश्चित करने हेतु कम्पनी सरकार ने जंगल में एक नया वर्ग उत्पन्न किया। बिचौलियों का वर्ग। साहू, बाबू और बंदूक का प्रशासनिक तंत्र।’’[iv] इन्हीं कम्पनी सरकार की देन था बाघामुण्डी का राजा गोमके राजेश्वर दयाल सिंह सहदेवजो सरकार के लिए बिचौलियों के रूप में काम किया करते थे। कम्पनी सरकार के लिए भू-राजस्व की सुचारू और समयबद्ध वसूली सुनिश्चित करता था राजा का गुमाश्ता भैरव भगत जो कि स्वयं एक आदिवासी था और उनकी ताकत के दम पे खूब उछलता था। यह सारी व्यवस्था आदिवासी के लिए बिल्कुल नई थी, इससे वे बहुत क्षुब्ध थे। वे नहीं जानते थे कि किस अधिकार से उनसे पैसा वसूला जाता था। इस तथ्य पर विचार करते हुये लेखक लिखता है आदिवासियों ने अपने पराक्रम से जंगल को जोता था। वन्य आपदाओं, हिसंक पशुओं और प्राकृतिक विपदाओं को झेला था। जंगल काटकर अपने खेत गढ़े थे। ललमुंहों (अंग्रेज) की कम्पनी सरकार ने न उन्हें खेत दिये थे, न हल बैल और न ही बीज...! फिर किस बात का रूपया वसूलते थे।[v] स्थिति यह हो गई कि आदिवासी कर्ज के बोझ में डूबे रहते थे। उनका सारा अन्न-धन्न वसूल लिया जाता था और उनके पास बचता क्या था सिवाय मजदूरी करने के। अंग्रेजों को अपना लाभ कमाना था और अपने लूट के साम्राज्य का विस्तार करना था। अतः इनके शोषण की सीमा का भी कोई अंत नहीं था।
      कम्पनी के इस साम्राज्यवादी विकास नीति के तहत ‘‘गुलाम क्षेत्र के इन सस्ते मजदूरों के कारण कम पूंजी लागत में अधिकतम लाभ की योजना कार्यान्वित की जा रही थी। राजमहल में मिट्टी काटी जा रही थी । पठार समतल किये जा रहे थे, रेलपथ के योग्य मार्ग प्रशस्त किया जा रहा था। पहाड़ खोदकर सुरंगों और नदी नालों पर पुल-पुलिया का निर्माण कार्य चल रहा था। ईस्ट इंडिया रेलवे की इस परियोजना में लाखों वनवासी श्रमिक कार्यरत थे। पुरूष, स्त्रियां, किशोर तथा अधेड़ आदिवासियों के बडे़-बड़े दल स्थानीय ठेकेदारों के लिए रात-दिन काम करते थे।’’[vi] कम पैसों में हाड़ तोड़ मेहनत लिया करते थे। ठेकेदार इनका खूब शोषण किया करते थे । यदि इतना तक होता तो भी ठीक था क्योंकि आदिवासी के पास भूख थी,  गरीबी थी जो उन्हें दिन रात मेहनत करने को मजबूर करती थी लेकिन रेल विभाग में ठेके चलाने वाले ठेकेदार के पास न मनुष्यता थी और न ही सभ्यता, नरभक्षी थे सारे के सारे - ‘‘आदिवासी किशोरियों-युवतियों को प्रायः अपने तम्बू में खींच ले जाते थे। कभी अकेली, कभी दसियों आदिवासिनें मद्यप ठेकेदार और वर्षों से स्त्री सुख को तरसते रेल अधिकारियों की वासनापूर्ति हेतु उठा ली जाती थीं। राजमहल क्षेत्र के रेल मजदूरों की स्थिति टुकटुक ताकती रहने वाली उस बकरी की भांति थी जिसकी आंखों के सामने से उसके छौने को उठा ले जाता है कसाई। रिरियाती-गिड़गिड़ाती आदिवासिनी को खींचती देख माथे पर हाथ रखे मूक ताकते रहते थे निर्बल वनवासी। प्रातः घायल स्तनों खरोचों से भरे चेहरों और रक्त के थक्कों से लिथड़े योनिकोषों के साथ तम्बुओं से बाहर फेंक दी जाती थी आदिवासी बेटियां, बहुएं, बहनें, नातिनें, पोतियां ....सामूहिक बलात्कार की शिकार बनती आदिवासिनों की चीखें, क्रंदन और कराहे पिघले रांगे की भांति पुरूषों के कानों में गिरती और बहती उतर जाती भीतर। जल जाती आत्मा। जल जाता प्रतिरोध भी। पेश रह जाती थी हड्डियों की चलती फिरती ठठरियां जिन पर मानों मांस मज्जा प्रत्यारोपित था।’’[vii] इस तरह के भयानक दृश्यों का सामना करना पड़ता था आदिवासियों को।
रेल श्रमिकों के रूप में इन संथाल आदिवासियों से काम कराने के मायने थे उन्हें उनके परम्परागत कार्य अर्थात आखेट और खेती की परम्परा से उनको हटा देना और उन्हें जबरदस्ती मजदूरों की जमात में लाकर खड़ा कर देना क्योंकि इसी स्थिति में कम्पनी सरकार को फायदा दिखता था। यह फायदा था - सस्ते दामों में ही भारत में मजदूर मिल जाना। आदिवासी समाज में किसी भी समस्या के लिए परहा-पंचायत की व्यवस्था थीं लेकिन अंग्रेंजों के आने से यहां पुलिस व्यवस्था लागू हो गई और दारोगा अपने शक्ति का गलत इस्तेमाल करने लगें। इसीप्रकार का दारेागा था जैभवान पांडे ‘‘जो अपना पदभार संभालते ही प्रत्येक गांव से एक रुपया सलामी वसूलता था। हुंडार की तरह किसी की खस्सी मुर्गी उठा ले जाता था दरोगा। चें-पे करने पर मार सोंटा चूतर लाल कर देता था। सब नमक बेचने वालों से दस रूपया सालाना-सलामी वसूलता था। ना-नुकुर करते ही जेल-जरीमाना का डर कोरट कचहरी का डर । जैभवान पाण्डेके सामने जोर से सांस लेने का साहस नहीं करता था कोई ।’’[viii]
आदिवासियों की सामाजिक संरचना सामूहिक संतुलन पर निर्भर है कोई भी व्यक्ति विशेष के लाभ की बात नहीं करता है लेकिन अग्रेजों के इस राज में आदिवासी समुदाय अपने फायदे और नुकसान के बारे में सोच भी नहीं सकता था और अपनी मर्जी से खेती भी नहीं कर सकता था। स्वतंत्र जीवन यापन करने वाले वनपुत्रों का जीवन गुलामों से भी बदतर हो गया था। उन पर सब कुछ थोपा जाने लगा था। इसी प्रकार कोढ़ में खाज की तरह आयी थी नयी खेती की व्यवस्था भी । नील की खेती! नील उपजाने के लालच ने भी जंगल तराई के आदिवासियों को पानी पिला-पिलाकर मारा था। जंगल में घोड़ो पर सवार होकर आये थे नील वाले ललमुंहे साहब! जमींदारों के प्रिय थे लाल मुंह वाले अंग्रेज अधिकारी...आदिवासियों के ललमुंहे साहब। नील उपजाकर ढेर सारा रूपया कमाने के सपने दिखाने लगे थे नील वाले साहब लोग। प्रारम्भ में जब आदिवासियों ने अपने खेतों में अनाज के बदले नील की खेती की तो सचमुच लाभ भी मिला। लाभ के लोभ में अनाज उपजाना बंद कर आदिवासियों ने मात्र नील की खेती करनी चाही तो नीलहे साहबों ने नील का क्रय मूल्य एकदम घटा दिया। मजदूरी की दर भी घटा डाली। आदिवासियों ने घाटे वाली नील की खेती बंद कर पुनः पारम्परिक धान, सांवा, कोदो या कुलथी की खेती शुरू की तो तैयार खड़ी फसलों पर सरकारी अमले ने घोड़े दौड़ा दिये। पहले नीलहे साहबों की नील की कोठियां भरों, फिर खाने योग्य अन्न उपजाओ।जिस किसी आदिवासी ने नीलहे साहबों के आदेश का उल्लघंन किया, पीटा गया। अंग भंग किया गया। नील की खेती न करने के अपराध में अनेक वनवासी नीलहे साहबों की नील कोठियों के तहखानों में सड़-सड़ मरे। अनगिनत वनजाएं नील गोदामों में सामूहिक बलात्कार का शिकार बनकर नीली पड़ गयीं । कुछ ने फांसी लगा ली, कुछ नदी- ढोंढा में फांद गयीं...कुछ ने बच्चे भी जने। जंगली जानों के आने जाने का लेखा कम्पनी राज के इतिहास में नहीं है, क्योंकि वनमानुषों के जीवन-मरण का लेखा मनुष्य नहीं रखते।[ix]
हर तरफ से आदिवासियों को मजबूर किया जाता रहा था, डरा धमका के शांत किये जाने तक तो बात ठीक थी लेकिन मार पीट, हत्या और बलात्कार जैसे कुकृत्य पर उतर आते थे ये लोग जिससे लोगों के मन में इनके प्रति भय उत्पन्न हो गया था। कहां और किससे शिकायत करता आदिवासी, ना तो कोर्ट कचहरी का ज्ञान और न ही अक्षर का ज्ञान और बाकी वहां सब दीकू लोग, कोई समझने और सुनने वाला नहीं था आदिवासियों की समस्या को। अपने ही देश में उनको पराया कर दिया गया था और उनके समस्त अधिकारों को छीन लिया गया था। इससे इनका मन अत्यंत क्षुब्ध हो चुका था और यही सब शोषण का तंत्र था जो रह-रह कर आदिवासियों के मन में धधकता रहा ईधन की तरह। आदिवासियों का जीवन प्रारंभ से ही संघर्ष भरा है। पहले तो इन्होंने प्रकृति के साथ संघर्ष किया था और एक तादात्म्य संबंध स्थापित कर लिया था। लेखक लिखता है ‘‘पिलचू हड़ाम और पिलचू बूढ़ी से सिदो के जन्मदाताओं तक आदिवासी संथालों ने प्रकृति से संघर्ष किया था। अपने मन के भीतर बैठे भय को मारा था जंगल को जीता था। तो उनकी संताने क्यों सहती जा रही थी पहाड़ से भी बड़े-बड़े दु:? जमींदारों की लाठियां और नीलहे साहबों के कोड़ों की मार?’’[x] लम्बे समय से सहते नाना प्रकार की समस्याओं और जीवन के अथक संघर्षों से मुक्ति पाने का एक ही निधान पाया गया हूल। भोगनाडीह निवासी सिदो, कान्हू के नेतृत्व में महान संथाल हूल लड़ा गया।
           ‘‘19 वीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजी राज से मुक्ति की पहली भारतीय आवाज आदिवासियों ने उठाई थी ।’’[xi] इस तथ्य की पुष्टि करते हुए प्रो. दिगम्बर हांसदा ने कहा है कि ‘‘सिदो, कानू, चांद, भैरव भारतीय स्वतंत्रता के जनक थे।’’[xii] निसंदेह यह उपन्यास 1855 के संथाल हूल में घटित घटनाओं को आधार बना कर लिखा गया है लेकिन यहां लेखक का उद्देश्य ना तो संथाल हूल के इतिहास को दोहरा कर उनको महिमामंडित करना नहीं है । बल्कि इतिहास के झरोखे से हमारे आज को दिखलाना है। संथाल हूल हुए आज लगभग 155 वर्ष से भी ऊपर हो गया है। लेकिन आदिवासियों की समस्याएं और उनके संघर्षों का कोई अंत नहीं हैं।
हारिल मुरमू संथाल आदिवासी युवक भी उन अनेक आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करता जिनके जीवन में अनेक समस्याएं आती है, उसे अपने खेत को राजा गोमके द्वारा हथियाने का भय होने लगता है। और वह भविष्य में पिता के बाद गोमको के घर में बैठ बेगारी करने की परम्परा को भी न मानने के लिए विद्रोही रूख अख्तियार करता है लेकिन व्यवस्था के आगे कमजोर पड़ जाता है। जब उसका पिता जादिक मुरमू उससे कहता है ‘‘राजा गोमके से रार पसार कर कौन जीत सकता है रे ? दारोगा राजा गोमके के घर मांस भात खाता है। गुरमेण्ट राजा गोमके जैसे दीकू लोगों की है। खूंटे की ताकत से बछड़ा उछलता है... हमारा कौन है रे?’’[xiii] यहां इस दर्द को समझा जा सकता है कि कंपनी राज में आदिवासी का भला सोचने वाला कोई नहीं था। संथाल आदिवासी प्रायः शांतिप्रिय होते हैं लेकिन इनके हृदय में जल रही चिंगारी को हवा उस समय लगी जब कंपनी के अधिकारी गण आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार कर उनका तन-मन नोच डालने लगे। वन अधिकारियों द्वारा हारिल के मित्र गंगवा मुरमू की बहन चम्पिया के साथ बलात्कार किए जाने और उसकी अधनंगी लाश को देख हारिल के तनमन में भी आग लग जाती है और हारिल इसके प्रतिरोध में डाक बंगला फूंक डालता है और चार पांच अधिकारी उसी में स्वाहा हो जाते हैं। लेकिन राजा गोमके और दारोगा के डर से वह भाग निकलता है। और संथाल हूल में शामिल हो जाता है। सुलतानाबाद में संथाल हूल को मिली विफलता और सिदो- कान्हू के पकड़े जाने के बाद हारिल मरमू अपने गांव वापस पहुंच जाता है। वहां देखता है कि उसके खेत को कोढ़-कोढ़ कर कुंआ खोदा गया है और उनका घर ढहा दिया गया। राजा गोमके ने उसकी जमीन को अपने कब्जे में कर लिया है। और हारिल के खेत को अभ्रक की खान में बदल कर उसका दोहन करने के लिए कम्पनी सरकार के हाथों सौंप दिया गया है। आज भी आदिवासियों की जमीनों की लूट और कब्जे का सिलसिला जारी है। और स्वयं झारखंड सरकार राजा गोमके की तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रस्ताव स्वीकार कर और उनको खुला निमंत्रण देकर आदिवासियों की जमीनों का दोहन कर रही है और परिणामतः ‘‘आजादी के बाद से लेकर अभी तक विकास की विभिन्न योजनाओं के लिए झारखंड के लगभग 65 लाख आदिवासी अपनी जमीन से विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से सिर्फ एक चैथाई को मुश्किल से पुनर्वास नसीब हुआ, बाकी आदिवासी आज कहां भटक रहे हैं, इसका कोई हिसाब नहीं।’’[xiv] हारिल मुरमू की तरह यहां के आदिवासियों की स्थिति भी उन भूमिहीन आदिवासियों की तरह हो जाती है जिनकी जमीन पर सरकार ने कब्जा कर लिया है। यदि इन सब गलत नीतियों के खिलाफ किसी प्रकार का विरोध जताया जाता है तो उन्हें विकास विरोधी बता दिया जाता है या सत्ता के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए दंडित किया जाता है। इस प्रकार से इनके अधिकारों का हनन किया जाता है। कहां जाए, क्या करें आदिवासी? अंग्रेज चले गए और भारत को आजाद हुए साठ वर्ष से ऊपर हो आया है लेकिन सरकार न इनके अधिकारों के प्रति सचेत है और न ही समस्याओं को सुनने को तैयार। ऐसे में क्या करे ये आदिवासी ?
हारिल भी अपने पुरखों की जमीन जिस पर उसका अधिकार है, को पाने का भरसक प्रयास करता है। राजा गोमके से इस सम्बन्ध में बात करने जाता है और खेत में कूईया खोदे जाने पर विरोध भी जताता है, लेकिन राजा गोमके का गुमाश्ता भैरों भगत उससे कहता है कि ‘‘अगलगी के बाद तेरे टोले में दारोगा आया था। आदमी गिनकर गया। कागज में लिखा कि कई आदमी जंगलबाबू की गोली खा के भागे। जंगल में गिर मरे,...जैसे गंगवा। सियार-हुंडार कुछ लाश खींच ले गये। तेरी ल्हास भी। सब लिखा है गोरमिण्टिया कागज में। नायब वही कागज ले के आया। तेरे खेत का लगान गोमके के नाम पर काट के ले गया रे फिर कौन सुनेगा बात कि तू जी रहा है?’’ [xv] हारिल को राजा की तरफ से कोई जबाव तो नहीं मिलता है, इसके बजाय उसे भैरो भगत से गोली से मार दिए जाने की धमकी व पुलिस का डर दिखाया जाता है। अतः हारिल कानून का सहारा लेने वकील के पास जाता है किंतु ठगा जाता है और बचा खुचा पैसा भी चला जाता है। वकील की फीस के लिए उसके पास उतने पैसे नहीं होते है, काम की तलाश में शहर जाता है, वहां भी काम नहीं मिलता और वहां से निराश लौटता है तो आते वक्त दारोगा उसे ठेकेदार सौदागर सिंह के कत्ल के संदेह में पकड़कर थाना ले जाते है, क्योंकि उस समय संथालों के हूल से माहौल गरमाया हुआ था और संथाल गिन-गिन कर अपने ऊपर हुये जुल्म और अपनी स्त्रियों के साथ हुए बलात्कार जैसे कुकृत्यों का बदला लेने के लिए शोषक वर्गो को सबक सिखा रहे थे। रास्ते से गुजरते हारिल को धर दबोचते हैं ये दारोगा लोग और बिना किसी कसूर के अधमरा होने तक मारते हैं। सब कुछ व्यर्थ है, ये जान जाता है हारिल और उसका रह-रह कर खून खौलने लगता है। और वह  खुलकर विद्रोह करने पर उतारू हो जाता है ‘‘जन्म-जन्मांतर से जिस जंगली के पुरखे राजा गोमके के जल-भरे लोटे को भी साक्षात् राजा गोमके जैसा मान देते रहे थे, उन विवेकहीन पशुओं जैसा जीवन जीनेवाला संथालों का वंशज हारिल मुरमू आज अपने राजा गोमके को अपमानित कर चुका था।[xvi] यह भली-भांति जानते हुए कि इसका अंजाम क्या होगा। अंततः विद्रोह कर बैठता है हारिल मुरमू व्यवस्था के खिलाफ। यही स्थिति आज भी देखी जा सकती है। सरकार की व्यवस्था को चुनौती दे रहा है आज आदिवासियों का ही एक वर्ग जो आदिवासियों के खिलाफ हो रहे गलत नीतियों का विरोध कर रहा है। लेकिन उनकी समस्याओं को अनदेखा कर दिया जाता है। और इस कारण आदिवासियों का विद्रोह खत्म नहीं होता है और चलता ही रहता है। इसका संकेत भी आज के संदर्भ में इस उपन्साय में दृष्टव्य है।
संथाल हूल की विफलता के पश्चात्  अंग्रेजों द्वारा उभर रहे आंदोलन और भविष्य में होने वाले विद्रोहों को दबाने व निष्क्रिय करने के लिये कई प्रकार के कूटनीति हत्थकंडे अपनाये जाने लगे जिसका उल्लेख, होरिल जो संथाल हूल का एक लड़का व हारिल का मित्र है, के कथन में मिलता है। होरिल, हारिल से  कहता है ‘‘सुने हैं कि कोपनी गुरमेण्ट हूल-गदर के डर से ....माने ठाकंराई बीसनाथ, भिखारी और पाण्डे गनपत से लड़ने के खातिर होर (संथाल) पलटैन खड़ी कर रही है। एक होर लड़ाका को पांच रुपया महीना मिलेगा कंपनी सरकार के लिए लड़ने पर । अब बन्दूक चलाना सीखेगा होर। अपने देस के लोगन अपने जंगल के लोगन की छाती पर गोली ठोंकने के लिए दो सैकड़ा होर कोपनी की पलटैन में भरती भी हो गये हैं।’’[xvii] इस तथ्य को आज के संदर्भ में भी देखा जा सकता है जिसका अच्छा संकेत लेखक ने इस पंक्तियों द्वारा दिया है। आज भी सरकार आदिवासियों की समस्याओं से निपटने व उनके समाधान के लिए कोई ठोस कदम तो नहीं उठा रही है लेकिन आदिवासियों को आदिवासियों के खिलाफ, खड़ा कर रही है वह भी कम वेतन भोगी बनाकर।
उसन्यास में उपन्यासकार ने आदिवासी समाज में मौजूद दोषों का भी संकेत किया है जैसे डायन आदि पर विश्वास जिसे हंसुली माई के संदर्भ में इस उपन्यास में देखा जा सकता है और यह आज का बहुत भयानक यथार्थ है कि झारखंड राज्य के आदिवासियों के इसी विश्वास के कारण कई महिलायों को शोषित और उत्पीडि़त किया जाता है। इस मामले में झारखंड  भारत देश में पहले स्थान पर है। इसप्रकार आदिवासी समाज में महिलायें जितनी भी स्वतंत्रत क्यों न हो लेकिन उनकी स्थिति समाज में दोयम दर्जे की है। इसका संकेत भी उपन्साय में मिलता है जहां ‘‘हारिल मुरमू को लगा था व्यर्थ ही लोर ढरका रही थी लाली। शंख जैसा उरांव जो अपने अंहकार और पुरुष ग्रंथि के कारण अपने को अपनी ब्याहता से श्रेष्ठ समझता था उसके लिए काहे को रोना धोना? औरत को दूसरे के साथ भेजने को तैयार था शंख रुण्डा। नहीं जानता था कि औरत लाली ही नहीं होती। कइली दई, सिनगी दई, चम्पू दई, फूलो और झानो भी होती है औरत।’’[xviii] इसमें जहां औरत की शोषित स्थिति को दिखाया जाता है वहीं लेखक ने आदिवासी औरतों का उनके खिलाफ हो रहे शोषण के विरुद्ध भी उठ खड़े होने का संकेत दिया है। आदिवासी औरतें भी दलित औरतों की तरह तीहरे शोषण का शिकार होती है और हो रही है। इसीप्रकार संथाल हूल की विफलता के कारण और आदिवासी समुदाय के एक और महत्वपूर्ण समस्या पर भी लेखक प्रकाश डालता है। जब हारिल को लगने लगता है कि ‘‘दो प्रकार के आदिवासी न होते तो हूलजरूर जीता गया होता । एक प्रकार के वे लोग जो अपने अधिकारों का उपयोग करने का भी साहस नहीं रखते। अपनी शक्ति को संशय और परम्परा के बोझ के नीचे स्वयं दबाये रखते हैं और दूसरे वे वनवासी जिनके लिए भरा पेट और हंडिया के बाद दुनिया खत्म हैं।’’[xix] इस समस्या को भी आज के संदर्भ में देखा जा सकता है जिसके मुक्ति के लिए आदिवासियों को अपने अधिकारों के प्रति सतत् सचेत रहना है। और हंडिया का सेवन भी आदिवासी समाज में अधिक पाया जाता है जिससे इन्हें निजात पाना होगा।
संथाल हूल को हुए आज डेढ़ सौ साल से अधिक हो चुका है लेकिन आज भी आजाद भारत में संथालों की तथा अन्य आदिवासियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं है। आज भी उनका शोषण और उत्पीड़न खत्म नहीं हुआ है। संथाल हूल के कारण सरकार ने आदिवासियों की जमीन की रक्षा के लिए संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम तथा संथाल आबादी वाले इलाके को एकत्रित करके संथाल परगना निर्माण किया था किंतु ‘‘उस संथाल परगना के विकास के लिए आज भी संथाल परगना के लोग इंतजार कर रहे हैं कि सरकार संथाल आदिवासियों को विकास का अवसर प्रदान करे। पंचायत विस्तार अधिनियम (41/1996)  को यथाशीघ्र लागू किया जाये। संथाल परगना में शिक्षा के विकास के लिए इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेज की स्थापना, किसानों द्वारा लिये गये ऋण को माफ कराना, ग्रामीण विद्युतीकरण के माध्यम से प्रत्येक गांव में बिजली की व्यवस्था करना, सिंचाई की समुचित व्यवस्था करना, पलायन रोकने के लिए रोजगार की गांरटी, आदिम जनजातियों को विलुप्त होने से बचाना, संथाल परगना क्षेत्रीय विकास प्राधिकार की स्थापना करना, मसानजोर डैम से विस्थापितों को मुआवजा एंव पुर्नवास की स्थापना करवाना, रेडियो स्टेशन की स्थापना, दूरदर्शन केंद्र की स्थापना इत्यादि मुद्दों को हल किया जाना ग्रामीणों की आकांक्षा है। लेकिन यहां तो राज्य सरकार द्वारा सिदो-कानू एंव अन्य शहीदों के नाम स्मृति भवन भी आज तक नहीं बनाया गया जहां उनके इतिहास को सुरक्षित रखा जा सके।’’[xx]
अतः यह कहा जा सकता है कि समुचति विकास व्यवस्था से इनकी समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है अन्यथा हारिल जैसे अनेकों आदिवासी उभरते रहेंगे और विद्रोह की आग यूं ही धधकती रहेगी। इस उपन्यास में हारिल मुरमू, होरिल से प्रश्न करता है कि संथाल हूल सिदों और कानू के शहीद होने से खत्म हो गया है क्या? तो इसका जवाब यहां इस प्रकार से दिया जा सकता है - ना संथाल हूल मर सकता है और ना ही सिदों, कानू, चांद, भैरव और हारिल जैसे उन हजारों लड़कों का बलिदान। जब तक भारतीय समाज में आदिवासी उपेक्षित हैं, शोषित हैं, और जब तक उत्पीिड़त किए जाते रहेगें तब तक उनके हृदय में हूल की आग जलती रहेगी।
 संदर्भ


[i] झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा, सितम्बर- नवंबर 2011
[ii] जो इतिहास में नहीं है, पृष्ठ 35
[iii] वही, पृष्ठ 38-39
[iv] वही, पृष्ठ 40
[v] वही, पृष्ठ 39
[vi] वही, पृष्ठ 51
[vii] वही, पृष्ठ 51-52
[viii] वही, पृष्ठ 86
[ix] वही, पृष्ठ 127-128
[x] वही, पृष्ठ 129
[xi] वही, पृष्ठ 184
[xii] संथाल हूलः आदिवासी प्रतिरोध संस्कृति, प्रो. दिसम्बर हांसदा पृष्ठ 76
[xiii]जो इतिहास में नही हैं पृष्ठ 37
[xiv] झारखंड के आदिवासियों के बीच, पृष्ठ-678-679
[xv] जो इतिहास में नहीं है, पृष्ठ 361-362
[xvi] वही, पृष्ठ 480
[xvii] वही, पृष्ठ 429
[xviii] वही, पृष्ठ 399
[xix] वही, पृष्ठ 445
[xx] संथाल हूलःआदिवासी प्रतिरोध संस्कृति, स्टीफन मरांडी, पृष्ठ 94

 पुस्तक एंव पत्र-पत्रिका
1 झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा, सितम्बर- नवंबर 2011
2. जो इतिहास में नहीं है - राकेश कुमार सिंह
3. झारखंड के आदिवासियों के बीच -वीरभारत तलवार
4. स्ंताल हूल आदिवासी प्रतिरोध की संस्कृति- संपादक हरिवंध- फैसल अनुराग।
 संपर्क - प्रवीण बसंती, पांडिचेरी विश्वविधालय, पुदुचेरी- 605014 दूरभा -948786689, ईमेल – pravi07 here @yahoo.co.in

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें