राग-रंग और जीवन के कवि चंद्रकांत देवताले
-पुखराज जांगिड़
7 नवंबर 1936 को जौलखेड़ा, बैतुल (मध्यप्रदेश)
में जन्मे कवि चंद्रकांत देवताले ने मध्यप्रदेश के बड़वाह और इंदौर में पढे और
1984 में उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से मुक्तिबोध पर पी.एचडी. की तथा 1996 तक
उच्चशिक्षा विभाग मध्यप्रदेश के कई राजकीय कॉलेजों में अध्यापन किया। देवी
अहिल्याबाई विश्वविद्यालय से सेवानिवृति के बाद से लेखन और पत्रकारिता में लगातार
सक्रिय रहे है। ‘मुक्तिबोध : कविता और जीवन-विवेक’ (2003) के नाम से प्रकाशित उनकी
शोधकृति ईलाकाई अपनापन और समानधर्मा सरोकारों के चलते मुक्तिबोध को समझने की एक
अनिवार्य शर्त-सी बन गई है। वे दिलीप चित्रे की कविताओं के अनुवाद और ब्रेख्त की
कहानी ‘सुकरात का घाव’ के नाट्य
रूपांतरण के लिए भी जाने गए। लेकिन मूलतः वे कवि है और उनका पहला कविता-संकलन 1973
में ‘हड्ड्यों में छिपा जहर’ नाम से आया। 1987 तक उनके क्रमशः छह कविता-संग्रह आ चुके थे- ‘दीवारों पर, खून से’ (1975),‘लकड़बग्घा हंस रहा है’ (1980),‘रोशनी के मैदान की तरफ’ (1982),‘भूखंड तप रहा है’ (1982) और ‘आग हर चीज में बताई गई थी’ (1987)। उसके बाद के
संग्रहों में लंबा अंतराल तो आया लेकिन कविताओं के तेवर में कोई कमी नहीं आई वरन
वे भाषा और शिल्प के स्तर पर अधिक परिपक्व ही हुई। ‘बदला बेहद महंगा सौदा’ (1995),‘पत्थर की बेंच’ (1996),‘इतनी पत्थर रोशनी’ (2002) और ‘उजाड़ में संग्रहालय’ (2003) उनके बाद के संग्रह है। इस
बीच विष्णु खरे व चंद्रकांत पाटिल द्वारा संकलित ‘उसके सपने’ (1997) और आलोक श्रीवास्तव द्वारा चयनित ‘जहां थोड़ा-सा सूर्योदय होगा’ (2008) दो संकलन भी
आए। हाल ही में आपको ‘पत्थर फैंक रहा हूं’ (कविता संग्रह) के लिए 2012 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया
गया।)
“यदि मेरी कविता साधारण है
तो साधारण लोगों के लिए भी
इसमें बुरा क्या, मैं कौन ख़ास...।”
“लिखूंगा यह दुनिया का सबसे
बड़ा चमकदार लोकतंत्र है
जिसमें सिर्फ़ जनता ही का नामोनिशान नहीं।”
“जबड़े जो आदमी के मांस में
गड़ा रहे है दांत
यदि उन पर चोट होती है कविता
तो मैं कविता का अहसानमंद हूं।”
“उन फीतों को में कुड़ेदान में फेंक चुका हूं
जिनसे भद्रलोग जिंदगी और कविता की नापजोख करते है।”
“बागड़ तो पेट भर सकती है
बहस करके खेत खा सकती है
पर खेत, खेत को कभी नहीं खाता…।”
और
“यह वक़्त वक़्त नहीं
एक मुकदमा है या तो गवाही दो
या हो जाओ गूंगे
हमेशा-हमेशा के वास्ते...”
चंद्रकांत देवताले की कविताओं की ये कुछ चुनिंदा काव्य-पंक्तियाँ बताती है कि
उनके लेखन के सरोकार और शिल्प किससे संबद्ध और संबोधित है। दरअसल उनकी कविताएं
जनसरोकारी कविताएं है। कविताएं उनके लिए अमूर्तन का व्यापार न होकर जीवन को समझने
का एक संवेदनशील माध्यम है। इसीलिए अपनी कविताओं में वो जीवन के तमाम रंगों को
उनकी संपूर्णता में उकेर पाने में सफल हो पाए है। उसमें राग-विराग, रंग-गंध, स्पर्श आदि सभी कुछ है। पाठक से वे कुछ भी नहीं छिपाते।
उनके लिए पाठक ही अंतिम लक्ष्य है, जहां उन्हें और
उनकी कविताओं को पहुंचना है, उनसे जुड़ना है। तो
राग-विराग की इसी संपूर्णता के उकेरने के कारण ही वे राग-रंग के कवि माने जा सकते
है।
चंद्रकांत देवताले स्पष्ट कहते है कि “मैं समुद्र से
बहुत दूर/आदमियों के उस भूखंड पर जिंदा हूं/जहां लोगों ने समुद्र का चिंघाड़ना कभी नहीं जाना...” और इसीलिए वे स्त्री-पुरूष संबंधों को मनुष्य के प्रकृति से संबंधों के रूप
में देखते है यानी एक-दूसरे के अनिवार्य पूरक, जिसमें सौंदर्य
भी है और खुरदापन भी। उनके यहां ये दोनों अपनी विविधता में मौजूद है जो
समरसतापूर्ण समाज के निर्माण में सीढियों का काम करते है। चूंकि कवि के अनुभवों का
खजाना पठारी जीवन से समृद्धता पाता है इसलिए वे उसकी एक-एक नब्ज को बड़ी ही बारिकी
से टटोलने में समर्थ सिद्ध हुए है। इस संदर्भ में वेदेसी राग-रंग और जीवन से भरे
पठारी-खुरदरेपन और सौंदर्यबोध के कवि है क्योंकि पठार और पठारी जीवनबोध उनकी
ऊर्जस्वित-चेतना का शक्तिपुंज है तो है ही वह उनकी अदम्य जिजीविषा का
केंद्रीय-स्त्रोत भी है।
पठार और पठारी जीवनबोध से गहरे में जुड़े कवि चंद्रकांत देवताले प्रतिरोध और
संघर्ष को वक़्त की अनिवार्य शर्त मानते है और स्पष्ट कहते है कि “निमंत्रण देने से नहीं आएगी रोटी/फंसी रहेगी डोंगियां आंखों की किचड़ में/प्रसन्न राग नहीं छोड़ेगा इकतारा/आपसे बात हमारी बस्ती में।” उनकी कविताओं में ‘रोटी’ और ‘संघर्ष’ एक-दूसरे के
पर्याय है और वही उनकी कविताओं का प्रस्थान बिंदु भी है। बाद में तमाम अस्मिताएं
उससे खुद-ब-खुद जुड़ती चली जाती है। इस संदर्भ में एक असहाय विधवा पर लिखी कविता
पंक्तियां हमें भीतर तक झंझोड़ जाती है - “बस एक विधवा/अपनी बेटियों को जीवित नहीं बचा पा
रही थी तो/मारकर बचा लिया और मर गई...।” इन सब पीड़ाओं के बीच जैसे इंसान और इंसानियत खो सी गई हो, अपमान, अवज्ञा और झूठ के खेल में।
असल में चंद्रकांत देवताले के लिए उनकी कविताएं, कविता की परिभाषा, उसकी समकालीनता या
उसकी प्रासंगिकता अमानवीय होते मानव को पुनः मानव बनाने में है - “जबड़े जो आदमी के मांस में/गड़ा रहे है दांत/यदि उन पर चोट होती है
कविता/तो मैं कविता का अहसानमंद हूं।” यानी कविताओं में जीवन और जीवन में कविताएं, यही उनकी सृजन-प्रक्रिया का मूल उत्स है। महत्त्वपूर्ण यह है कि आप अपनी
परंपरा या विरासत की सीपी से क्या हासिल करते है, उससे अर्जित ज्ञान को किस तरह संजोते है। चंद्रकांत देवताले ‘धरती पर नाचती दरद दिवानी मीरा’ की तनम्यता को
पत्थर तोड़ने, अन्न उगाने वाले ‘अपनों’ से जोड़ते है। यह परंपरा का सार्थक मिलन है और
पुनर्मुल्यांकन की सही दृष्टि भी। दरअसल उनकी कविताएं हाशिए की अस्मिताओं के साथ
खड़ी जनसरोकारी कविताएं है। इन्हें हाशिए की अस्मिताओं का कविताई इतिहास भी कहा जा
सकता है।
औरत के कई रूप उनकी कविताएं दर्ज करती है लेकिन मां पर कविता लिखने में वे
असमर्थ है क्योंकि “मैं जब भी सोचना शुरू
करता हूं/यह किस तरह होता होगा/घट्टी पीसने की आवाज/घेरने लगती है/और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ।”‘औरत’,‘तुम्हारी हथेलियों पर’,‘मां जब खाना परोसता थी’,‘बेटी के घर से लौटना’,‘बाई ! दरद ले’,‘गिरती चट्टान सन्नाटे की’,‘उस औरत का दुःख’,‘कोई नहीं उसके साथ’,‘यमराज की दिशा’,‘बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियां’,‘चूर-चूर बिखर रहा मां का कलेजा’ ओर ‘तुम मरे हुए बाप या कोई और’ कविताओं में औरत का
दुख, उसकी वेदना और उसका संघर्ष महत्ती विषय है। आज के
हमारे भयावह समय और समाज में सबसे मुश्किल है घर की ख्वाहिश। एक परिवार की इन्हीं
ख्वाहिशों का बिंब उनकी कविताओं में कुछ इस तरह आया है - “घट्टी पीसती घरवाली/और छत ढूंढते मर्द के
बीच/हत्यारों के धृणित चेहरे/भद्र बाजीगरी के करतब/धुंएं का सैलाब छोड़ती
तरक्की/फ़ोटो छापते अखबार/नंगा अंधेरा भी कांटेदार।”
एक ओर ‘घट्टी पीसती औरत’ के बिंब की
मौजूदगी उनकी कविताओं को ताकत देती है तो दूसरी ओर भीतर तक हिला देने वाली हमारे
समय की सबसे बड़ी त्रासदी ‘चूर-चूर बिखर रहे मां के कलेजो’ और ‘बाई के दरद’
को भी उजागर करती है - “बस एक विधवा/अपनी बेटियों को जीवित
नहीं बचा पा रही थी तो/मारकर बचा लिया और मर गई/अखबारों में इसे जगह मिली/एक कॉलम डेढ इंच/कोई झंडा, सिर नहीं झुका.../इन चारों को शहीद कौन
कहेगा?/इनकी मौत में देशभक्ति या धंधा करने
जैसा भी तो कुछ नहीं”। विडंबना देखिए कि
किसी ने भी यह नहीं सोचा या बताया कि “अधेड़ होने तक जीवित रहने के अपने दुर्दांत साहस के सामने/आखिर कैसे किया होगा उसने आत्मसमर्पण”। दरअसल यह घटना हमारे समय की एक क्रूरतम सच्चाई बयान करती है और बताती है कि “सीता ने कहा था- फट जा धरती/न जाने कब से चल रही है ये कहानी/फिर भी रूकी नहीं है दुनिया”।
इसी तरह चंद्रकांत देवताले जब निराला की इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती
स्त्री-छवि को हमारे वर्तमान के बरक्स रखते है तो हम पाते है कि इतने बड़े
समयांतराल के बावजूद उस स्त्री के लिए तो कुछ भी नहीं बदला। अभी तो उसका पसीना भी
नहीं सूखा है- “कविता का शब्द/टंकार और झंकार को तोड़कर/अड़ा है करूणाग्राम में नहीं/सड़क पर पत्थर तोड़ती उस औरत के पास/जो गिट्टियों के बीच बैठी थी एक दिन निराला की कविता में/आज तक उसका पसीना सूखा नहीं/आज तक उसकी वह दृष्टि/आकाश में छाई हुई।” एक ओर तो ‘मौका देशोत्थान की नींव पर करोड़पति बनने का’ जिसे कोई छोड़ता ही नहीं, दूसरी ओर ‘जख्मी-इतिहास और नंगे वर्तमान’ में जीती
स्त्री, दलित और ‘जंगल के जन
जरायम पेशा पूर्वजों की संताने’-“विपदा के सिवा कोई नहीं है/फिलवक्त उस औरत के साथ/जबकि पूरा देश है चारों तरफ/हजारों शब्द हैं आंसू पोंछने/और कमजोरों के साथ खड़े होने के बारे में/पर एक भी शब्द उसके साथ/ऐसा कुछ नहीं कर रहा।”
चंद्रकांत देवताले की कविता ‘उस औरत का दुःख’ हमें प्रतिरोध का एक नया रूप ‘ईश अवज्ञा’ प्रदान करती है और बताती है कि धर्म लोगों से दोतरफा व्यवहार करता है। एक के
लिए यह ताकत है तो दूसरे के लिए कमजोरी। तो फिर ऐसे धर्म और ईश्वर का जीवन में
क्या काम जो सबको समान नहीं रख सकता या जिसकी आस्था हमें कमजोर या कमतर बनाती है-“कैंसर पीड़ित उस जवान औरत को/लतियाकर ससम्मान ज़िलाबदर कर दिया लफंगों के न्याय ने/और न्यायमूर्तियों ने भरी सभा में इसे प्रक्रिया कहा/उसकी बूढी मां का खून जमकर पत्थर हो गया/फिर बहता क्या सबूत के वास्ते/दमाग्रस्त बूढे बाप ने शाप दिया ईश्वर को/कुएँ में फेंक दी पीतल की मूर्त्तियां/महाजनों द्वारा निंदित हुई यह ईश अवज्ञा.../और ज़िलाबदर उस औरत का दुःख/नेपथ्य में पड़ा रहा/किसी टूटे साज की तरह।” नाउम्मीदी के ऐसे त्रासदिक समय में भी उनकी कविताएं उम्मीद की एक ऐसी किरण
छोड़ जाती है जो वंचितों के सुखद भविष्य की आशाओं से संबद्ध है। वहीं उनके लिए
सबसे मुश्किल है ‘बेटी के घर से लौटना’ जैसे ‘भीतर कंठ रूंध जाता थके कबूतर का’ और ‘सदियों से बेटियां रोकती होंगी पिता को/एक दिन और/और एक दिन डूब जाता
होगा पिता का जहाज.../दुनिया में सबसे कठिन
है शायद/बेटी के घर से लौटना’।
अपने काव्यसृजन के माध्यम से वे आदमीयत और आदमीविहिन इस समाज में ‘वक़्त की नब्ज’ को बड़े करीने से पकड़ते है और ‘थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे’ कविता में
हाशिए की अस्मिताओं का भविष्य और मुट्टीभर लोगों के षड़यंत्र का अंतर्संबंध स्पष्ट
करते हुए कहते है कि एक तरफ तो “एक मेज है/सिर्फ छह बच्चों के
बीच/और उनके सामने/उतने ही अंडे और उतने ही सेब है”तो दूसरी तरफ“एक कटोरदान है सौ
बच्चों के लिए/और हजारों बच्चे/एक हाथ में रखी आधी रोटी को/दूसरे से तोड़ रहे है”। वे हमें समानता के
नाम पर हो रहे असमानता के इस खुले खेल के प्रति आगाह करते है- “उनके पास आवाजों का महासागर है/जो छोटे-से गुब्बारे की तरह फोड़ सकता है किसी भी वक्त/अंधेरे के सबसे बड़े बोगदे को”। हाशिए की अस्मिताओं के संघर्ष और स्वप्न को, उनकी स्वप्नशील आशाओं-भावनाओं को उन्होंने जब भी शब्दों में उकेरा है, उसने स्मृति के सबसे सुखद पलों को जिलाने का, मनुष्य बनाने का काम किया है।
कविता के साथ की आश हर कवि करता है पर उसे पूरी तरह निभाने का साहस कितने कवि
करते है और कितने उसे अंत तक निभा पाते है, यह देखने की
बात है, और चंद्रकांत देवताले की कविताएँ ऐसा करती है। वो
हमसे सवाल करती है, संवाद करती और पूछती
है कि “समुद्र को टुकड़ों में बांटने वालों/मनुष्य की विपदा के मलबे को/अखबारों से ढाँपने वालों/…लहूलुहान माथे को नोंचती/पूछ रही है माई-/आकाश की जात बता भइया?/धरती का धरम बता?/धुएं के पहाड़ में
पथराई आंखों की/चुप्पी के ईश्वर का
नाम बता?”। कोई कह सकता है कि यथार्थ इतना खुरदरा
क्यों? उनकी कविताओं में यथार्थ इतना खुरदरा इसलिए है ताकि
हम सच का सामना कर सकें। न केवल सामना वरन् उसकी वास्तविकता को जान अपना सशक्त विरोध
भी दर्ज कर सकें। कविताओं में विरोध का यही सामर्थ्य उन्हें अपने समकालीनों से अलग
धरातल पर आमजन के साथ खड़ा करता है, उसकी संवेदना
से जोड़ता है। उनकी कविता बने-बनाए सांचों में फिट नहीं होती वरन आस्वादन का नया
और विविधआयामी धरातल तैयार करती है जिसमें सबसे ऊपर वाली सीढी पर आमपाठक है। ‘मुंहबंद परछाइयों’ से इतर वह केवल सहृदय की संवेदना
का ही विकास नहीं करती वरन वह उस अनाम पाठक की संवेदना का भी विकास करना चाहती है
जिसे अब तक उससे दूर रखा गया है और जिसके लिए वह लिखी गई है, और वह यह करती है। इसीलिए उनकी कविताएं पढने के बाद हम वैसे रह ही नहीं पाते
जैसे कि उससे पूर्व थे।
चंद्रकांत देवताले की कविताएं पाठक को संवेदनात्मक स्तर पर झकझोरती है, वह उसकी समझ के धरातल का विस्तार करती चलती है, उसे जीवन-संग्राम में संघर्ष के लिए तैयार करती है। नए बिंबों और रूपकों को
जीवन से जोड़ने का सामर्थ्य उनकी कविता को महाकाव्यात्मक संस्पर्श देता है। इसीलिए
उनकी कविताएं घनीभूत पीड़ा का महाकाव्य रचती है। वह अमूर्तन की, अर्थ का अनर्थ करने की, मनमानी की इजाजत तो
बिल्कुल भी नहीं देती। शायद इसीलिए उनकी कविताएं अभी तक अपना आलोचक नहीं खोज सकी।
वह बड़ी इसलिए है क्योंकि उनके सरोकार बड़े है। मानवीय संबंधों की जीवंतता उनमें
समाकर विकास पाती है। उनकी कविता यह सब बड़ी ही सहजता से कर लेती है, कविता के लिए क्या यह कम बड़ी उपलब्धि है? उसकी साफगोई
देखने लायक है-“जो नहीं होते धरती पर/अन्न उगाने-पत्थर तोड़ने वाले अपने/तो मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमी”। इनमें ‘अन्न उगाने-पत्थर तोड़ने वाले अपने’ में ‘अपने’ शब्द का
अपनापन हमारे वक़्त और परिवेश की बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति है। वह ‘धरती पर नाचती दरद दिवानी मीरा’ की तनम्यता को
पत्थर तोड़ने, अन्न उगाने वाले ‘अपनों’ से जोड़ती है और बताती है कि ‘शब्दों के सत् की नींव पर ही तो टिका-खड़ा/समुद्र भी ढाई आखर का प्रवेश करता है आंखों से’। यही तो है अपनी परंपरा या विरासत की सीपी से हासिल सत्व या पुनर्मुल्याँकन
की सही दृष्टि।
बहरहाल ‘खटाक् से खुलते चाक़ू की तरह’ शीर्षकीय-भूमिका में चंद्रकांत देवताले ने अपनी काव्य-यात्रा (1973-2010) को
अपनी ही नौ चुनिंदा काव्य-पंक्तियों में पिरोया है। इन्हें उनकी संवेदना के विकास
की नौ कविताई सीढियां माना जा सकता है। जो स्पष्टतः कहती-बतलाती है कि ‘मुखौटे खरीदती भद्रजनों’की भीड़ में ‘भले लोग रात की छाती
में सिर छिपा रहे’है और‘कुत्ते गुर्रा रहे/और अलंकृत वाणी में छप
रही उनकी गुर्राहट’वाला “यह वक़्त वक़्त नहीं/एक मुकदमा है या तो
गवाही दो/या हो जाओ गूंगे/हमेशा-हमेशा के वास्ते...”। खुशामदी-दोमुँहापन उन्हें कतई स्वीकार नहीं, न कविता में न जीवन में। बिना किसी लाग-लपेट का दोटूकपन-बेबाकपन उनकी कविताओं
और जीवन की विशेषता है। वो स्पष्ट कहते है “ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे/जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहें/मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूं/मेरे दुश्मन न हों/और इसे मैं अपने हक
में सबसे बड़ी बात मानूं...” या “सोचता बैठा हूँ/थके हुए पत्थर की तरह/क्या हमारा समय पहुँच
गया है/उस कगार तक/कि दस किलो जुआर के लिए/बाप इस तरह दांव पर लगा दे अपनी बेटी।”।
चंद्रकांत देवताले की कविताएं‘लस्तपस्त
मुर्दनी’ की कविताएं नहीं है, वह हमें बताती है कि व्यवस्था की दोमुंही क्रूरता में भूखा-प्यासा-जन ‘जान नहीं पाया गुणगान के/हथियार से हुई उसकी मौत’। ‘विशेषणों का सांड युद्ध’ की इन पंक्तियों के साथ ‘थोड़ी-सी दिक्कत थी हम
दोनों के बीच’,‘ठंडी पड़ गई आग’,‘थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे’,‘प्याज के विषय में’ और ‘पत्थर फेंक रहा हूं’ की कविताएं भी आलोचनात्मक-विवेक
की कविताएं है। उनकी नापसंदगी की सूची में “शामिल इसी में मेरे दुश्मन/चापलूसी करने वाले केंचूए/आत्मा और सार्वजनिक फसलों के चोर/तस्कर, धंधेबाज, ईश्वर, भूख या बेबसी के/हरामखोर आत्मा ने जिनके कभी नहीं धिक्कारा...।’’ भाषायी संप्रेषणीयता और उसकी सामाजिक व्यावहार्यता के प्रति
कनकटिया-चौकन्नापन, दोटूक बेबाकपन और
जमीनी रचनात्मक-ऊर्जस्विता उन्हें समकालीनों से अलग करती है। यानी जितने पाठक उतने
जीवनानुभवी अर्थ।
चंद्रकांत देवताले के लए कविता बेहतर जीवन के लिए किया सततप्रवाही-संवाद है।
उनकी कविता ‘फिलवक़्त इतना ही’ हमारे ‘पत्थर के देवताओं’ (तथाकथित राष्ट्र-निर्माताओं) को संबोधित है जिसमें वे बिना किसी लाग-लपेट के
सीधी चुनौति देते हुए कहते है कि ‘सावधान! चरित्र के शो-रूम/ और खासकर तहखाने के मामले में/कोई बेजा तहलका-तूफान न उठ जाए बेवक़्त’। वे आमजन के जीवन की विडम्बनाओं को, उसकी समस्याओं
को अपनी कविताओं में बेहद सहजता के साथ उसे समग्रता में गुंथते है। यह कविताओं में
उनकी अगाध-आस्था ही है जिनमें सामान्य जन-जीवन विस्तार पाता है, पुष्पित-पल्लवित होता है। वे हिंदी के अकेले ऐसे कवि है जिन्होंने मजदूर-किसान
के साथ-साथ स्त्री-दलित-आदिवासी अस्मिताओं से खुद को फैशन या सैद्धांतिक बहस के
लिए नहीं वरन जीने-मरने के प्रश्न के रूप में रचनात्मक-स्तर पर जीया है। उनकी
कविताओं की आस्वादन-प्रक्रिया में एक बेहतर दुनिया की तलाश का ‘विजन’ संगुफित है। यह उनकी कविताओं की ताकत ही है जो
अनायास हमें अपनी ओर खिंचती है और उनके पठन-पाठन के साथ हम भी उसी विजन के हमराही
बनते चले जाते है। सिनेमाई भाषा में कहूं तो ‘जीवन से भरी
तेरी कविताएँ, मजबूर करे जीने के लिए...’।
चंद्रकांत देवताले की कविताएं समकालीन कविता का प्रतिनिधित्त्व करती है, सामाजिक यथार्थ से सीधी मुटभेड़ करती है और प्रचलित सौंदर्यबोध के उलट नए
सौंदर्यशास्त्र का निर्माण कर उसे नई-भाषा और नया-शिल्प प्रदान करती है और बताती
है कि ‘भूख से पैदा हो सकता है एक मुकदमा’।भाषा-शिल्प और संवेदना के तीनों स्तरों पर रेगिस्तान के बंजरपन और पठार के
सूनेपन को एकसाथ साधती उनकी कविताएं‘अन्न के
दाने के भीतर छिपे/अंधेरे के भय की परछाई’, ‘बालवृंदों
के समक्ष कुछ चारे जैसा डाल रहे’ शिक्षकगण,‘लोगों के पैरों में पड़ी असंख्य दरारों’,‘अमराई के नीचे का कुएं का ठंडा पानी’,‘आंसू पोंछता बिज्जु मामा का गमछा’,बच्चों की
मासूमियत में छिपी सच्चाई, ‘अंधेरी दिशाओं में
डगमग आगे बढते/ रोशनी के पदचिह्नों को/ उमंग और उम्मीदों से निहारते’ लोगों,‘मेमनों की तरह दयनीय चेहरों’,‘दीवारों पर गालियां
लिखते और बीड़ी के अद्धे ढूंढते बच्चों’ में भविष्य
खोजती है। उनकी नजर में ‘सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते
ही होते है’ और ‘सोई स्त्रियों
के चेहरों’ पर ‘थके संगीत का
विश्राम’ देखा-पढा-समझा जा सकता है। एक तरफ ‘वक़्त के शिकायती पहाड़ खोदता, भीगे लबादों की
तरह भारी हमारा दुःख’ है तो दूसरी ओर भूमंडलीय बाजार
जिसमें परिवर्तन और जीवन एक-दूसरे के पर्याय बन चुके है, बावजूद इसके उनके सरोकार ‘लोक’ (गांव-गुवाड़) और ‘जन’ (सामान्य-मध्यवर्ग) से जुड़े है। रोजमर्रा की मांगादेही का एक दृश्य-‘वहां मांगा-देही का रिवाज नहीं/ समझाया था पहले ही/ फिर भी तुम बाज नहीं
आए/ आदत से अपनी/ वहां इंदौर में नींबू मांगकर तुमने/ यहां उज्जैन में मेरी नाक ही कटवा दी’पर यह कितना‘अजीब लगता है कि घरू
जरूरतों के मामले में/सबके सब आत्मनिर्भर और
बढिया प्रबंधक हो गए है’।
रोजमर्रा के जीवनानुभवों का रचनात्मक-संस्पर्श इनमें देखने की बात है। तिसपर
कभी न टूटने वाली निरंतरता माने अंतःस्फूर्त चेतना का काव्यात्मक प्रस्फुटन-‘और उनके हाथों की चमड़ी/हाथ और पांव का साथ छोड़ रही है।’जैसे कविता और जीवन एक-दूसरे में रस-बस गए है। इनमें परिवेशगत-यथार्थ का जीवंत
रूप अपने खुरदरेपन के साथ हर कहीं मौजूद है। चंद्रकांत देवताले की कविताएं हमें
चैन से जीने नहीं देती। भद्रवर्ग की अवधारणा ही यहाँ आपको उलटी मिलेगी-‘उन फीतों को में कुड़ेदान में फेंक चुका हूं/ जिनसे भद्रलोग जिंदगी और कविता की नापजोख करते है’। यथार्थवादी दृश्य-बिंब उन्हें किताबों से इतर जीवन-संग्राम का कवि बनाते है।
यह इसलिए भी सुखदायी है क्योंकि इस बहाने कविताओं में वास्तविक भारतीय-लोकजीवन की
वापसी हुई है। दरअसल यह समय कविता में लोकजीवन के उभार का है, नींबू, ककड़ी और प्याज (कांदा) पर कविताओं और घट्टी-पीसना, जीमना, धनी-धोरी, पहुनचारी, अबूझमाड़, बागड़, साइत, उमच जैसे ठेठ लोक शब्दों की वापसी का है। आखिर कब तक हम नकलची दुनिया के गुण
गाएँगे जबकि “नाम मेरे लिए पेड़ से
टूटा एक पत्ता/ हवा उसकी परवाह करे/ मेरे भीतर गड़ी दूसरी ही चीजें/ पृथ्वी की गंध और/ पुरखों की अस्थियां
उनकी आंखों समेत/ मेरे मस्तिष्क में
तैनात/ संकेत नक्षत्रों के बताते जो नहीं की जा
सकती सपनों की हत्या...”।
कविता की लोकधर्मिता या लोकजीवन की अनुभव-व्यापकता से ऊपजे सामाजिक-यथार्थ को
सहज-संप्रेषणीय कविताई-शिल्प देना चंद्रकांत देवताले की विशेषता है। उनकी कविताएं
समूहबोध की कविताएँ है इसलिए संवाद चाहती है और कविता की सार्थकता/प्रासंगिकता पर बात करती है “जबड़े जो आदमी के मांस में/ गड़ा रहे है दांत/यदि उन पर चोट होती है
कविता/तो मैं कविता का अहसानमंद हूं।” तिसपर कविता, कविता की भाषा-शिल्प-सरोकार
किसके लिए “यदि मेरी कविता साधारण है/तो साधारण लोगों के लिए भी/इसमें बुरा क्या,मैं कौन ख़ास...।”उनकी कविता और कविताई सरोकार किसके लिए है, यहां स्पष्ट
है। उनका मानना है कि ‘समय की मुटभेड़ों ने
ईजाद किया है मुझको/मैं चाकू हूं आंसुओं
में तैरता हुआ...’ इसमें ‘आंसुओं में तैरता चाकू’ शोषण के अतिरेक से उपजे प्रतिरोध
का,
जनसंघर्ष का सृजनात्मक और सर्वथा नया बिंब है। ‘बंदूक’ नहीं ‘चाकू’ और वह भी ‘आंसुओं में तैरता’। साधारण-दृश्यों और बिंबो की असाधारण-प्रस्तुति। राजपथ से दूर लोकपथ की, प्रचलित-मान्यताओं से इतर आख्यान-परंपरा को उलटती, नई राहें तलाशती रचनात्मक-आवेग की आम-आदमी की स्वाभविक-कविताएं। इनसे गुजरना
दरअसल इंसानियत की राहों का अन्वेंषण है क्योंकि ‘बागड़ तो पेट भर सकती है/बहस करके खेत खा सकती है/पर खेत, खेत को कभी नहीं खाता’(पृ.77)।
‘चुप्पी में दहकती भट्टियों’ और ‘खयालों में खदबदाते ज्वालामुखी’,‘जनपद के जीवन की घास पचाता’ लोक और ‘गडरिए की तरह हांकते शब्दों’ की अदम्य-जिजीविषा, जीवनगत-जटिलताओं और विडंबनाओं को उकेरता, समकालीनता को
जीता, जनोन्मुखता और कलात्मकता का अनगढा लेकिन गढा सहज-शिल्प प्रभवित करता है। ‘रात की छाती में सिर
छिपाती कविताएं’ जैसे मानवीय-संबंध और उनकी गंध हर कहीं मौजूद है
जिनके रूपक कवि ने प्रकृति और जीवन से उठाए है जोकि अलौकिक-अमूर्त नहीं वरन
लौकिक-मूर्त और जमीनी है। उसी तरह ‘जो आदिवासी बच्चों के नसीब में होना होता बाघ-बच्चों जैसा/ तो इनका नंबर भी आता/…इनका भी तो कोई
धनी-धोरी होना चाहिए महाराज’। ऐसे विकट समय में ‘धरती के बांझ बनाने की
साजिशों को सूंघ.../रंभाती गाएं.../धरती की दीवारों से झांकती अनगिनत आंखें/पर बछड़ों का विकल हेरना’ कवि के लिए ‘जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है’। उनकी सबसे बड़ी चिंता भी यही है कि ‘अंधेरी की आग में कबसे/जल रही है भूख/फिर भी नहीं उबल रहा/गुस्से का समुद्र.../कब? कब?? समझ में आएगा/धुंआती धरती का विलाप?’,‘कब तक?.../विभिन्न भाषाओं और
हथियारों से/हत्यारे करते रहेंगे
आदमियत का रक्तरंजित अनुवाद’ और ‘हम सुनते-पढते-लिखते रहेंगे/स्वतंत्रता की परिभाषा’।
आजादी के बाद के जनता और जनतंत्र के बनते-बिगड़ते संबंध को रेखांकित करते हुए
कवि चंद्रकांत देवताले जनप्रतिनिधियों और जनता दोनों की भूमिका को संदेह की नजर से
देखते हुए हमारा ध्यान इस ओर दिलाते है कि हमारे पत्थर के देवताओं-आकाओं की नजर
में सच बोलने वाली ‘ये नहीं है
जनता...फर्जी लोग…/विरोधी पार्टी के
भाड़े पर...’ यानी ‘लिखूंगा यह दुनिया का सबसे/बड़ा चमकदार लोकतंत्र है/जिसमें सिर्फ़ जनता ही का नामोनिशान नहीं’(पृ.85)। उनकी कविताएं इसकी शिनाख्त करती है और स्पष्ट कहती है कि “मैं समुद्र से बहुत दूर/आदमियों के उस भूखंड पर जिंदा हूं/जहां लोगों ने समुद्र का चिंघाड़ना कभी नहीं जाना/समुद्र के फेन में दांत की तरह टूटते हुए घर/बहते हुए ढोर-डंगर और स्त्री-पुरूषों की देह का/हाहाकार किसी ने नहीं देखा...”।
असल में चंद्रकांत देवताले की कविताएं दोगली व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक रूख
अख्तियार करती चलती है और उनकी चिंता का केंद्र बिजली के तार पर ‘फ़क़त भयभीत चिड़ियों-सी’ देखती, ग्राहक के इंतजार में बैठी ‘बालम ककड़ी बेचने वाली
लड़कियां’ है-“सोचता हूं बैठी रह सकेंगी क्या/ये अंतिम ककड़ी बिकने तक भी/ये भेड़ों-सी खदेड़ी जायेंगी/थोड़ा-सा दिन ढलने के बाद/फूकट में ले जायेगा ककड़ी/संतरी एक से एक नहीं/सातों से एक-एक कुल
सात/फिर पहुंचा देगा कहीं-कहीं कुल पांच/बीवी खायेगी/थानेदार की हंसते हुए
ककड़ी/छोटे थानेदार खुद काटेंगे/फूकट की ककड़ी/कितना रौब गांठेंगी/घर-भर में/अड़ोस-पड़ोस तक/महकेगा सैलाना की ककड़ी का स्वाद/याद नहीं आयेंगी/किसी को लड़कियाँ सात/कित्ते अंधेरे उठी होंगी/चली होंगी कितने कोस/ये ही ककड़ियाँ पहुंचती
होंगी/संभाग से भी आगे रजधानी तक भूपाल”। विविधआयामी सत्ता का पूरा विमर्श भरा पड़ा है इन पंक्तियों में। हालांकि ये
लड़कियां भी उनकी लंबी कविताओं ‘उसके सपने’ और ‘भूखंड तप रहा है’ की तरह जानती
है कि ‘जहर की गांठ कहां है/यद्यपि उसने नहीं जाना शेर के मूंछ के बाल का जहर’ और यह भी की ‘नहीं बताएगा वैसा भाट पुराण/वंशावली का ब्यौरा हर किसी को/कि पूर्वज
तुम्हारा राजा था गोंडों की बस्ती का’।
संपर्क :- पुखराज जांगिड़ (PukhrajJangid),शोधार्थी,भारतीय भाषा केंद्र,213-एक्सटेंशन, ब्रह्मपुत्र छात्रावास, पूर्वांचल,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-67. ईमेल-pukhraj.jnu@gmail.com,मोबाइल-09968636833.
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