https://doc-10-48-docs.googleusercontent.com/docs/securesc/ha0ro937gcuc7l7deffksulhg5h7mbp1/l7vvnpvg76assb2blaquuaptcmf3qerr/1382443200000/13222916952004818089/*/0Bwvi_WaL_v3GTXhBTHloTnpFRlU?h=16653014193614665626&e=download
-आशुतोष पार्थेश्वर
(लिंक - https://doc-10-48-docs.googleusercontent.com/docs/securesc/ha0ro937gcuc7l7deffksulhg5h7mbp1/l7vvnpvg76assb2blaquuaptcmf3qerr/1382443200000/13222916952004818089/*/0Bwvi_WaL_v3GTXhBTHloTnpFRlU?h=16653014193614665626&e=download)
मनोहर पोथी से लेकर बच्चों के कंधें को झुका देनेवाले
भारी-भरकम बस्ते तक में विचारों की कैसी दुनिया समायी हुई है, इसका लेखा-जोखा आसान नहीं है,
परंतु इसकी पड़ताल बेहद आवश्यक है। बच्चे इन किताबों में बसे ‘ज्ञान’ के साथ बड़े होते हैं, उनकी
समझ और सामाजिक भूमिका के निर्माण में ये किताबें खाद-पानी का काम करती हैं। ये
केवल स्मृतियों का नहीं, बल्कि सोच और व्यवहार का हिस्सा बन
जाती हैं। कहना न होगा, बच्चों की किताबों में भाषा की
पुस्तकें उनकी ‘सोच’ और ‘व्यवहार’ के निर्धरण में सबसे असरदार भूमिका निभाती
हैं।
भाषायी पाठ्यपुस्तकें हमारी सामाजिक संरचना, उसकी
जटिलताओं और अनेक किस्म के छलावों की कलई खोलने में उपयोगी साबित होती हैं। ये
पुस्तकें इस बात को दुहराती हैं कि अन्य सामाजिक अवयवों की तरह किताबों की दुनिया
से भी अवर्णों, दलितों, आदिवासियों और
स्त्रियों को दूर रखा गया है। आजादी के वर्षों बाद भी किताबों में उनकी उपस्थिति
नगण्य है। भारतीय संविधन उन्हें बराबरी से जीने का अधिकार, स्कूलों
में आने का अधिकार भले देता हो पर हमारी सामाजिक सचाइयों की भांति किताबों की
दुनिया में अभी भी गैरबराबरी कायम है। किताबों की दुनिया अभी भी इतनी ‘पवित्र’ है कि पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों के
निर्माताओं को डर सताता है कि उनके आने भर से सबकुछ ‘कलुषित’
न हो जाए। उनके यानी दलितों के और केवल दलितों के ही नहीं, आदिवासियों और स्त्रियों के भी।
यहां हम दलित यथार्थ पर केंद्रित होंगे। हमारी पाठ्यपुस्तकें दलित-यथार्थ
के साथ न्याय नहीं करतीं, प्रतिनिध्त्वि तो बहुत दूर की बात
है। इनका निर्माण किसी भोली समझ के साथ नहीं होता, बल्कि
सदियों से चली आ रही उस मानसिकता के साथ होता है जो दलितों को सम्मान और उनका हक
देने में आत्मिक कष्ट का अनुभव करती रही है। इन किताबों की दुनिया में सब कुछ ‘अच्छा-अच्छा’ होता है., शालीन,
शोभन, तृप्त और सुंदर! वहां किसी भूखे,
अभावग्रस्त, बीमार और सदियों से बहिष्कृत
जीवनानुभवों के लिए कोई स्थान नहीं हेाता। ये किताबें यह नहीं बताती हैं कि हमारे
समाज का इतना बड़ा हिस्सा किन असम्मानजनक परिस्थितियों में जिंदगी बसर कर रहा है,
और यह सब कोई सौ-दो सौ सालों से नहीं, बल्कि
हजारों वर्षों से हो रहा है। हमारी किताबें यह नहीं बताती हैं कि उनकी ऐसी स्थिति
के लिए कौन जवाबदेह है। हमारी किताबें चुप रहती हैं। तब, यह
मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि ये किताबें जितना ‘सच’
बताती हैं, उससे कई गुना छुपाती हैं।
भाषायी पाठ्यपुस्तकें की दुनिया अभी भी सवर्ण केंद्रित है। इस दुनिया में
लोकतंत्रा अभी नहीं आया है। भारतीय संविधन की भावनाओं से ये किताबें अभी बहुत दूर
हैं। उदाहरण के लिए हम बिहार के सरकारी स्कूलों में सातवीं कक्षा की हिंदी की
किताब का उल्लेख कर सकते हैं। इस किताब को बनानेवाली पाठ्यपुस्तक विकास समिति और
समीक्षक सदस्यों की कुल संख्या दस है, इनमें से एक भी सदस्य
के इस वंचित समुदाय से होने का अता-पता
नहीं मिलता। हैरत में डालनेवाली यह स्थिति एक सरकारी किताब की है। क्या सरकारी
स्तर पर ये विचार तत्त्व अभी भी मौजूद हैं कि इस तबके के पास पाठ्यपुस्तकें बनाने
की सलाहियत नहीं आई है। क्या यह संयोग भर है कि इस किताब में दलित-यथार्थ से संब(
कुछ भी नहीं है। इस किताब में देश-प्रेम, आत्मबलिदान,
राजपूती वीरता, सदाचार आदि की बड़ी-बड़ी बातें
हैं पर दलित जीवन पर कुछ भी नहीं क्या दलित-यथार्थ इतना बौना है कि इसके किसी एक
पक्ष के लिए इसमें कोई जगह न निकले।[i] यह
स्थिति केवल एक पुस्तक या बिहार की विभिन्न कक्षाओं में चल रही हिंदी की
पाठ्यपुस्तकों की ही नहीं है, बल्कि एन सी ई आर टी की कई
कक्षाओं की हिंदी की किताबों की भी यही स्थिति है।[ii]
किताबों की कभी विदाई नहीं होती., वे स्मृतियों में
घुल जाती हैं और ताउम्र साथ रहती हैं। स्कूलों में पढ़ी हुई किताबों की बातें
जिंदगी में सबसे कम भुलाई जानेवाली चीजें होती हैं। इन किताबों का असर केवल एक साल
या एक कक्षा तक ही नहीं रहता, बल्कि इनसे अधिक संचरणशील और
संक्रमणशील चीज समूचे शैक्षिक परिवेश में कोई दूसरी नहीं। इसलिए इनके निर्माण की
प्रक्रिया बेहद चुनौतीपूर्ण और जवाबदेहियों से भरी होती है। यह बैठे-ठाले का काम
नहीं है। पर, दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस कार्य की न
गंभीरता समझी जाती है और न ही इसके लिए अपेक्षित संवेदनशीलता का परिचय दिया जाता
है।
पाठ्यपुस्तकों पर विचार करते समय मुख्यतः दो बिंदुओं को ध्यान में रखना
चाहिए, पहला यह कि इन किताबों में ‘क्या’
है और दूसरा यह कि वह ‘क्या’ ‘किस तरह’ है दूसरा यह कि किताबों में ‘क्या’ नहीं है और उसके न होने के क्या कारण हैं। इसे
एक उदाहरण से समझ सकते हैं। कबीर स्कूली पाठ्यपुस्तकों में अनिवार्यतः पढ़ाए जाते
हैं। अपने स्कूली जीवन में एक छात्रा पाठ्यपुस्तकों में कम-से-कम दो बार ‘कबीर’ को अवश्य पढ़ता है।[iii] अब प्रश्न यह है कि वह किस ‘कबीर’ को पढ़ता है। कबीर की कैसी छवि उसके सामने
प्रस्तुत की जाती है, उनके संश्लिष्ट व्यक्तित्व की कितनी
पहचान एक छात्रा कर पाता है। मस्तमौला, अक्खड़, विनम्र, संतोषी, भक्त और
प्रगतिशील कबीर से छात्रों का कितना परिचय हो पाता है। सच्चाई यह है कि
पाठ्यपुस्तकों में कबीर जिस रूप में शामिल किए जाते हैं, उसमें
वे जितने उपस्थित होते हैं, उससे अधिक वे छिपा लिए जाते हैं।
यह सही है कि हम एक पाठ में किसी रचनाकार की समूची पहचान उपस्थित नहीं कर
सकते, और यह भी सही है कि शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति के
लिए पाठ्यपुस्तकें ही एकमात्र आधार नहीं हैं लेकिन जब कबीर के दस दोहे एक पाठ में
संकलित किए जाते हैं तो क्या इसकी अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि उन दोहों से कबीर
का भक्तरूप सामने आए साथ ही बाह्याचार, धार्मिक पाखंड और
जाति-प्रथा पर बेधड़क चोट करनेवाला रूप भी सामने आए। लेकिन ऐसा नहीं होता।
पाठ्यपुस्तकों में भक्त कबीर हैं, प्रेम और संतोष की बात
करनेवाले कबीर हैं, परब्रह्म के लिए आतुर कबीर हैं पर
पंडितों और मुल्लाओं को पफटकारनेवाले कबीर नहीं हैं। छात्रों को अभ्यास-कार्य दिया
जाता है उसमें कबीर के दोहे ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ के आधर पर ‘कस्तूरी’ के विषय
में जानकारी एकत्रिात करने के लिए कहा जाता., कबीर की साखियों
को याद करने और अंत्याक्षरी में उनका उपयोग करने के लिए कहा जाता है पर पूरे पाठ
से इस बात की हल्की झलक भी नहीं मिलती कि पाठ्यपुस्तक निर्माता यह भी चाहते हैं कि
बच्चे कबीर के विद्रोही और स्वप्नद्रष्टा रूप से परिचित हो सकें।[iv] ये ‘कबीर’ सुबह-सुबह घरों और मंदिरों से सुनाई पड़नेवाले
ऑडियो कैसेटों के ‘कबीर’ हैं निष्क्रिय,
अपनी ‘लाठी’ गंवा चुके
और पूजा की थाली में सजे निर्जीव पफूल की तरह। तलवार को गायब कर म्यान संभालने और
उसे महत्त्व देने का उद्योग हिंदी की पाठ्यपुस्तकों में अधिक होता है। स्कूली
पाठ्यपुस्तकों में ‘कबीर’ को पढ़ते हुए
यही महसूस होता है। इसका कारण भी स्पष्ट है, म्यान से किसी
का कोई नुकसान नहीं होता! ऐसी स्थिति में केवल पाठ्यपुस्तकें ही नहीं समूचे
शैक्षिक उद्देश्यों को पिफर से परखने की जरूरत पैदा हो जाती है।
कुछ पाठ बेहद मासूम जान पड़ते हैं सामाजिक सद्भाव, नैतिकता,
मानवीयता आदि गुणों की बातें उनमें भरी होती हैं। लेकिन यह देखना
जरूरी है कि इस आख्यान में सच का कौन सा चेहरा अप्रकट रह गया। या, उसे जान-बूझकर अनदेखा कर दिया गया। इसकी राजनीति समझने के लिए एन सी ई आर
टी की दसवीं कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ (‘अ’ पाठ्यक्रम) में संकलित रामवृक्ष बेनीपुरी की रचना ‘बालगोबिन
भगत’ को लेंगे। यह एक रेखाचित्र है। यदि इस पाठ और इसके
अभ्यास से गुजरें तो यह कतई स्पष्ट नहीं हो पाता कि इसे संकलित करने का उद्देश्य
क्या है। इस रेखाचित्रा के पात्रा बालगोबिन भगत एक कबीरपंथी भक्त हैं, जो अपने पुत्रा की मृत्यु का शोक नहीं मनाते, पतोहू
का पुनः विवाह कर देने की अनुमति के साथ मायके भेज देते हैं, अपनी खंजरी के साथ रमे रहते हैं, और अंत में इस
दुनिया से विदा ले लेते हैं। लेखक ने बालगोबिन भगत का परिचय कुछ इस तरह दिया है।बालगोबिन
भगत मंझोले कद के गोरे-चिट्टे आदमी थे। साठके ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढ़ी
या जटाजूट तो नहीं खते थे, किंतु हमेशा उनका चेहरा सफेद
बालों से ही जगमग किए रहता। कपड़े बिलकुल कम पहनते। कमर में एक लंगोटी मात्रऔर सिर
में कबीरपंथियों की सी कनफटी टोपी। .......... थोड़ी खेतीबारी भी थी, एक अच्छा साफ-सुथरा मकान भी था।[v]
इस पाठ के आरंभ में दर्ज टिप्पणी में यह कहा गया ह।इस रेखाचित्र की एक
विशेषता यह है कि बालगोबिन भगत के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सजीव झांकि देखने को
मिलती है।[vi] अब
वह कोई ‘भोला’ ही होगा जो ‘झांकि’ को पूरा ‘सच’ मान ले। हालांकि पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति की अपेक्षा यही है। इस पाठ में
और ऐसे अन्य पाठों में ‘देखना’ प्रमुख
होता है। किसी लेखक की दृष्टि की पहचान ऐसे पाठों से आसानी से की जा सकती है। ‘बालगोबिन भगत’ को देखते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी और
पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति दोनों के ‘देखने’ से परिचय हो जाता है। बालगोबिन भगत के प्रति दोनों की दृष्टि में सम्मान
का भाव है। पर यह सम्मान भाव ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है’
पर ही टिका है। बेनीपुरी यह नहीं देखते या देखना नहीं चाहते हैं कि
बालगोबिन भगत के मरने के बाद उनकी ‘थोड़ी खेतीबारी’ और ‘एक अच्छा साफ-सुथरा मकान’ का
क्या हुआ होगा, वह किसके कब्जे में गया होगा। इस प्रश्न से
मुठभेड़ की चिंता इसे लिखते समय बेनीपुरी को न थी और न ही पाठ्यपुस्तक में संकलित
करते समय संपादकों को। इसके अभ्यास में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो
छात्रों को यह सोचने के लिए प्रेरित करे कि आखिर बालगोगिन भगत की संपत्ति का क्या
हुआ होगा, क्या उनकी पतोहू लौट आई होगी! इस प्रश्न को व्यर्थ
की खींचतान कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है, पर बच्चों की
कल्पना को सच्चाइयों की खुरदुरी दुनिया से दूर रखने में कौन सी समझदारी है! यदि
उन्हें अपने समाज के ऐसे तिकड़मों, जोड़-तोड़ और राजनीति से दूर
रखा जाएगा, तो यकीन जानिए राजनीतिशास्त्र की मोटी-मोटी
किताबें भी उनकी समझ को ठोस नहीं बना पाएंगी और उन्हें राजनीति का ककहरा भी नहीं
सिखा पाएंगी। इस पाठ से गुजरने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके लेखक और संपादक की
वर्गीय दृष्टि मूलतः एक ही है। ये दोनों यह मानकर चलते हैं कि कबीरपंथी बहुत कुछ ‘एलियंश’ की तरह होते हैं।
‘एन सी ई आर टी’ की कक्षा छह की हिंदी की पाठ्यपुस्तक
‘वसंत’ (भाग-1)
शीर्षक से प्रकाशित है। इस पुस्तक में सुभद्राकुमारी चौहान की प्रसिध (कविता ‘झांसी की रानी’ संकलित है। हिंदी पट्टी की न जाने
कितनी पीढ़ियां इस कविता को पढ़कर-कंठस्थ कर बड़ी हुई है। इस कविता ने भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। हिंदी की शायद ही कोई दूसरी
अकेली कविता लोकप्रियता में इसे टक्कर दे सकती है।[vii]
लेकिन इस कविता की चमक अब नए शोध और विमर्शों ने फीकी कर दी है। समकालीन विमर्श
लक्ष्मी बाई के समानांतर झलकारी बाई को
उपस्थित कर रहा है। लक्ष्मी बाई की वीरता का पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है
और इस समूचे बहस में यदि कोई एक चीज सबसे अधिक सवालों का सामना कर रही है तो वह
सुभद्राकुमारी चौहान की यह कविता ही है। लक्ष्मी बाई की प्रतिमा को इतना भव्य
बनाने का श्रेय इस रचना को है स्वभावतः आक्षेप भी इसे ही झेलने पड़ रहे हैं। इस पर
आरोप है कि इसने झलकारी बाई की पहचान को ओझल कर दिया, उसकी
वीरता और तेजस्विता को लक्ष्मी बाई के हिस्से में डाल दिया। झलकारी लक्ष्मी बाई की
सेना की प्रमुख वीरांगना थी और कहते हैं कि अंग्रेजों के साथ निर्णायक लड़ाई में
लक्ष्मी बाई के भेस में वही लड़ी। इतिहास इस विषय में लंबे समय तक मौन रहा। या कहें
कि, इस कविता की गूंज के सामने उसकी आवाज को सुनने की जरूरत
ही नहीं महसूस की गई। सुभद्राकुमारी चौहान की यह कविता वीरता, समर्पण और त्याग का पॉपुलर पाठ प्रस्तुत करती है। इसके सामने दूसरी सभी
आवाजें गौण हो जाती हैं।
इस पाठ के प्रश्न अभ्यास में एक प्रश्न इस तरह से पूछा गया है, वीर महिला की इस कहानी में कौन-कौन से पुरषों के नाम आए हैं? इतिहास की कुछ अन्य वीर स्त्रियों की कहानियां खोजो।[viii]
‘पुरषों के नाम’ से तुरंत ‘वीर महिलाओं’ पर चले आने की यह उछल-कूद निहायत
बचकानी तस्वीर हमारे सामने उपस्थित करती है। अब यदि कहीं से झलकारी बाई का नाम
सामने आ जाए, तो छठी कक्षा का छात्रा किसे स्वीकारेगा! एक
प्रश्न यह भी है कि आखिरकार वह किस इतिहास की खोज करे। हमारा इतिहास और विशेषकर
स्कूली पाठ्यपुस्तकों में सांस ले रहा इतिहास सवालों की ऐसी दुनिया में चहलकदमी के
लिए प्रेरित करना तो दूर, उसके आस-पास पटकने की भी अनुमति
नहीं देता। प्रसंगवश, यह उल्लेख अनुचित न होगा, कि ‘झाँसी की रानी’ का परिचय
इस कविता में ‘खूब लड़ी मर्दानी’[ix] कहकर दिया गया है। एक समय था जब, वीर होने और पुरष
होने में अनिवार्य संबंध् देखा जाता था, पर क्या हम आज भी
इसी समझ के साथ अपनी दुनिया और अपने पाठ्यपुस्तकों को बनाना चाहते हैं! या,
ऐसी किसी भी समझ से अपनी दुनिया और अपनी पाठ्यपुस्तकों को दूर रखना
चाहते हैं।
बच्चों की ये किताबें उन्हें एक वायवीय दुनिया में रखती हैं। संस्कृत की
किताबों का इसमें कोई सानी नहीं है। एक भाषा जिसका नाम लेते ही एक विशेष जाति का
नाम उभर आता है, वह भाषा जो हजारों वर्षों से एक जाति की
मिल्कियत की तरह रही है, उस भाषा के व्याकरण की पुस्तकों
में ‘देव’, ‘राजा’, ‘मुनि’ आदि शब्दरूप तो
मिलते हैं‘दलित’ शब्दरूप नहीं मिलता।
आजादी के इतने वर्षों के बाद भी संस्कृत की पुस्तक और और पाठ्यक्रम निर्माताओं ने
इसकी कोई आवश्यकता नहीं समझी। इस भाषा की पुस्तकें अभी भी ‘देवलोक’
में ही टिकी हैं। ऐतिहासिक तथ्यों और सत्यों से कैसे खिलवाड़ और उन्हें
वि किया जाता है इसे समझने के लिए राज्य शिक्षा शोध् एवं प्रशिक्षण परिषद, बिहार के सौजन्य से निर्मित सातवीं कक्षा की संस्कृत की पाठ्यपुस्तक ‘अमृता’ में ‘डॉ.भीमराव अम्बेडकर:’
शीर्षक से संकलित पाठ को देखना चाहिए। पाठ के अंत में ‘योग्यता विस्तारः’ में डॉ.अम्बेडकर के विषय में लिखा
गया है।उन्होंने दलित वर्ग का नेतृत्व किया तथा नारा दिया।शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संघटित रहो। उन्होंने अपने जीवन में गांधी
दर्शन से प्रभावित होकर अनेक सत्याग्रह किए। सार्वजनिक जलाशयों का दलितों द्वारा
प्रयोग, मंदिरों में प्रवेश तथा भारतीय संविधान में उनके
आरक्षित अधिकार के लिए डॉ.अम्बेडकर के सत्याग्रह बहुत प्रसिद्ध हैं।[x] इससे
यह भ्रम पैदा होता है किअम्बेडकर एक मंदिरगामी भक्त थे, और
मंदिरों में प्रवेश उनके लिए बहुत बड़ा सपना था। अम्बेडकर के जीवन से मामूली परिचय
रखनेवाला भी इससे तीखे रूप से असहमत होगा तब आखिरकार इतना भ्रम, ऐसे असत्य पुस्तकों में कैसे टिका है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस पाठ
मेंअम्बेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की कोई चर्चा नहीं है।
डॉ.अम्बेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की चर्चा छठी कक्षा की हिंदी
पाठ्यपुस्तक ‘किसलय’ में संकलित पाठ डॉ.
‘भीमराव अम्बेडकर’ में हुई है। यह पाठ
पुस्तक निर्माण समिति के द्वारा विकसित है। लेकिन गड़बड़झाला यहां भी है।दलित यथार्थ
से अपरिचय और महज लोकतांत्रिक आवश्यकताओं से विवश होकर पाठों का निर्माण या संकलन
किया जाएगा तो दुर्घटनाएं तो होंगी ही। पाठ के अंत से एक अंश द्रष्टव्य है।दुर्भाय
से अछूतों का यह नेता अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा।......... डॉ.अम्बेडकर इसलिए
महान हैं क्योंकि उन्होंने छुआछूत के पाप को नष्ट करने का प्रयत्न किया। उनके
प्रयत्नों से अछूतों को कानून में समानता का अधिकार मिला। आज अछूत बालक विद्यालयों
में सामान्य बालकों के साथ बैठकर पढ़ते हैं, खाते-पीते और
खेलते-कूदते हैं। गाड़ियों, होटलों, तीर्थां,
मंदिरों आदि सभी जगह उन्हें समानता का अधिकार प्राप्त है। हजारों
वर्षों के भारतीय इतिहास की यह बहुत बड़ी घटना है। एक बहुत बड़े वर्ग को छुआछूत के
पाप से डॉ.अम्बेडकर ने छुटकारा दिलाया।[xi] अगर
सचेत होकर न पढ़ें तो यह अंश पूरी तरह निर्दोष जान पड़ेगा। लेकिन इस अंश के शब्द-चयन
पर ध्यान देने से इसकी कलई खुल जाती है। डॉ.अम्बेडकर को इसमें ‘अछूतों का नेता’ के रूप में याद किया गया है। क्या
उनकी पहचान इतनी भर है? क्या उनकी संघर्ष-यात्रा को केवल इस
तरह ही देखा जाना चाहिए। डॉ.अम्बेडकर का संघर्ष दलित जनों के लिए था, उनकेअधिकारऔर सम्मान के लिए था, वह मानवता और मनुष्य
मात्रा के लिए था, वह श्रम के महत्त्व के लिए था., पर एक पाठ्यपुस्तक जिसे लाखों बच्चे पढ़ेंगे और उससे मिली समझ के साथ
भारतीय नागरिक कहलाएंगे, वह अम्बेडकर के दाय को इस तरह सीमित
कर देगी! इस अंश में कथित है।आज अछूत बालक विद्यालयों में सामान्य बालकों के साथ
बैठकर पढ़ते हैं, खाते-पीते और खेलते-कूदते हैं। यह सवाल उठता
है कि क्या भारतीय संविधन इस बात की अनुमति देता है कि किसी बच्चे को ‘अछूत’ कहा जाए? अपनी किताबों
में इन पंक्तियों को बच्चे पढ़ेंगे तो उनका सामना इसी सवाल से होगा कि ‘अछूत’ कौन? यहां कहा जा रहा है
कि वे ‘सामान्य’ बच्चों के साथ हिलमिल
सकते हैं, तो क्या वे बच्चे ‘असामान्य’
हैं? अगर पाठ्यपुस्तकों में शब्दों का चुनाव
सही तरीके से नहीं किया जाएगा[xii] तो
इसकी उम्मीद फिर किससे की जाए! कहना न होगा, ऐसी विसंगतियाँ
पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति के वर्गीय और वर्णीय संस्कारों के कारण ही होती हैं।
क्या यह अकारण है कि यहाँ गाड़ियों, होटलों के साथ-साथ
तीर्थां और मंदिरों का भी उल्लेख कर दिया गया है। जबकि डॉ.अम्बेडकर के लिए तीर्थों
और मंदिरों की दुनिया से अलग थे। इस उल्लेख से पहले इसी पाठ में डॉ.अम्बेडकर के बौद्ध
धर्म स्वीकारने की चर्चा करते हुए बताया गया है कि बौद्ध धर्म को वे इसलिए पसंद
करते थे कि वह समानता पर आधरित है। वे कहा करते थे कि वेद, शास्त्रा,
स्मृति, पुराण आदि को कुछ लोगों ने छुआछूत का
हथियार बना लिया है।[xiii] अब
यह विरोधाभासी स्थिति है कि किसे सच माना जाए,अम्बेडकर के
कहे को हालांकि वह भी विरफपित है या पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति के विचार को।
मंदिरों और तीर्थों के साथ वर्णाश्रम व्यवस्था अनिवार्यतः जुड़ी हुई है, जिसके खिलाफ अम्बेडकर ने हमेशा श्रम किया। उन्हीं अम्बेडकर को इस पाठ में
यह कहते हुए याद किया जा रहा है कि उन्होंने मंदिरों में बराबरी का अधिकार दिलाया।
यह एक बड़ा सवाल है कि क्या डॉ.अम्बेडकर की याद इसीलिए की जाएगी?
किताबें सोचना सिखाती हैं। लेकिन, यदि किताबें ऐसी
हों, और ऐसी ही बनती रहें तो मानना पड़ेगा कि किताबें सच्चाई
से मुंह छिपाना भी सिखाती हैं। इन किताबों में पला-पुसा ज्ञान दलित यथार्थ से दूर
है, बहुत दूर।
संदर्भ
औरटिप्पणियां-
[i]किसलय, भाग-2, राज्य शिक्षा शोध् एवं प्रशिक्षण परिषद,
बिहार, पटना। इस पुस्तक में ‘वीर कुंवर सिंह’ शीर्षक से एक पाठ संकलित है। यह पाठ
संपादकों द्वारा विकसित है। पुस्तक में ‘कुंभा का आत्मबलिदान’
शीर्षक से एक कहानी भी संकलित है। इसके लेखक का नामोल्लेख नहीं है।
सापफ है कि ये दोनों रचनाएं पाठ्यपुस्तक विकास समिति की रचि और गहन विचार के बाद
ही संकलित हुई होंगी। समिति को इसके लिए अतिरिक्त श्रम भी करना पड़ा होगा। ऐसे में
यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं है कि यही सूझबूझ और मेहनत दलित जीवन संदर्भ से जुड़ी
रचना को संकलित करने के लिए क्यों नहीं दिखाई गई। ठीक यही बात कक्षा सात के लिए एन
सी ई आर टी की पाठ्यपुस्तक ‘वसंत’(भाग-2) के लिए भी कही जा सकती है। दिलचस्प बात यह है कि वीर कुंवर सिंह पर एक
पाठ इस पुस्तक में भी है।
[ii]एन सी ई
आर टी द्वारा छठी कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक ‘वसंत’ (भाग-1), सातवीं कक्षा की
पुस्तक ‘वसंत’ (भाग-2) या आठवीं कक्षा की पुस्तक ‘वसंत’ (भाग-3) में दलित जीवन से संब( कोई प्रसंग नहीं है।
[iii]राज्य
शिक्षा शोध् प्रशिक्षण परिषद, बिहार द्वारा विकसित सातवीं कक्षाकी हिंदी
पाठ्यपुस्तक ‘किसलय’ (भाग-2)और ग्यारहवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक ‘दिगंत’ (भाग-1) में कबीर संकलित हैं। विभिन्न कक्षाओं की एन
सी ई आर टी की पुस्तकों में भी कबीर संकलित हैं। आठवीं कक्षा की पुस्तक ‘वसंत’ (भाग-3), नवीं कक्षा की
पुस्तक ‘क्षितिज’ (भाग-1), दसवीं कक्षा की द्वितीय भाषा की पुस्तक ‘स्पर्श’
(भाग-2), ग्यारहवीं
कक्षा की पुस्तक ‘आरोह’ (भाग-1) में कबीर संकलित हैं।
[iv]स्पर्श, (भाग-2), कक्षा 10 के लिए हिंदी
(द्वितीय भाषा) की पाठ्यपुस्तक,
एन सी ई आर टी, 2007, पृ. 6
[vii]ऐसी
लोकप्रियता में पाठ्यपुस्तकों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है।
[xii]यह पाठ
भी पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति द्वारा विकसित किया गया है।
संपर्क - आशुतोष पार्थेश्वर,हिंदी विभाग, ओरियंटल कॉलेज पटना सिटी, मो. 0993426023
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें