उन्माद से जन्मा प्रेम-चितरंजनकुमार
‘‘सांप्रदायिक उन्माद को उन्माद की ही एक किस्म के रूप में पकड़ने के कोशिशें
हिन्दी में बहुत कम हुई हैं - उंगलियों के पोरों पर भी नहीं, सिर्फ उंगलियों पर गिनने लायक । भगवान सिंह का यह उपन्यास शायद पहली बार इतने
सारे मानवीय ब्यौरों में जाकर यह काम कर रहा है । एक सहज, प्यारी-सी प्रेमकथा हमारे असहज समाज में इतने सारे टकवारों का केन्द्र बन जाती
है और यह अकेली गुत्थी सुलझाने के क्रम में इतने सारी उलझी गुत्थियां
रफ्रता-रफ्रता सुलझती जाती हैं कि ताज्जुब होता है ।’’
(‘उन्माद’उपन्यास से उद्धृत)
‘उन्माद’ समाज के असहज पहलुओं को नये सिरे से समझने की चुनौती देता है । ये असहत
गुत्थियां आपस में इतने उलझे हैं कि इसे सुलझाने के लिए इंसान को किसी भी कीमत पर
इंसान होना पड़ेगा। अनजाने में यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो हम अपने बनाये समाज को
स्व्यं ही छल रहे हैं । जिसमें कौम नामक मकड़जाल अपने जाले को इतना विस्तृत करता जा
रहा है कि धरनिरपेक्ष व्यक्ति के लिए कहीं जगह नहीं है । सांप्रदायिकता की गहरी
समझ विकसित करता यह उपन्यास हमारे सामने एक ऐसे मुस्लिम समाज को व्यक्त करता है, जिसे किसी भी शहर में किसी भी गली में आसानी से देखा जा सकता है । आबिदा, बेहिस साहब, जब्बार अली, नन्हें मियां आदि ‘उन्माद’ के प्रमुख मुस्लिम पात्रा हैं । बेहिस साहब अपनी बेटी आबिदा को हर प्रकार की
आजादी देते हैं, आबिदा परिधियों से बाहर अपना चाहती है कि जब्बार अली और नन्हें मियाँ मौका
मिलने ही अपने धर्म का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं । रतन और आबिदा की
प्रेमकथा के माध्यम से उपन्यासकार हिन्दू-मुस्लिम समाज में उत्पन्न होने वाले
अन्तर्विरोधों को गहराई से विश्लेषण करते हैं । हिन्दू-मुस्लिम, एक दूसरे से अपने को श्रेष्ठ करने के लिए जिन तर्कों का सहारा लेते हैं, वह उपन्यास की विशेषता है । मंजू कहती है ‘‘हम लोग तो सांप और चींटी और चेचक
की भी पूजा कर लेते हैं और उसमें हमें देवता दिखाई देता है । हमें किसी चीज से कोई
फर्क नहीं पड़ता ।’’[i] आबिदा को इस बात का दुःख है कि मुसलमान पिछड़े हैं क्योंकि वह भी एक मुसलमान
है ।
आबिदा के लिए उसके अब्बा उसके आदर्श हैं । इंसानी उंचाइयों की मिसाल हैं ।
आबिदा ने उन्हें कभी नमाज अदा करते नहीं देखा । जबकि ‘‘अम्मी बिना नागा किये नमाज अदा करती थीं । वह उन्हें रोकते नहीं थे । हां, बात-बेबात अल्लाह और खुदा को तकिया कलाम की तरह इस्तेमाल करते थे ।’’[ii] आबिदा धर्म को आडम्बर से अधिक कुछ नहीं मानती थी, क्योंकि कोई भी धर्म इंसान से उसकी इंसानियत छिनने की
सीख नहीं देता है। एक मुस्लिम समाज हिन्दू-मुस्लिम प्रेम संबंध् के विषय में क्या
सोचता है, इसे स्पष्ट करते हुए आबिदा कहती है, ‘‘तुम्हें दोस्ती से आगे वाले रिश्ते
की बात किसी हिन्दू लड़की के साथ सोचनी चाहिए, रतन । अगर तुमने किसी हिन्दू लड़की
से शादी करने का इरदा किया तो हवनकुंड पहले जलेगा, आग के फेरे पहले होंगे
और शादी के मंडप में ही । यदि तुमने किसी मुसलमान लड़की से शादी की तो हवनकुंड बाद
में जलेंगे, किसी एक घर तक सीमित नहीं रहेंगे, आग के फेरे बाद में लगेंगे और इनकी
लपटों से पूरा शहर जल उठेगा । शहर के शहर लाल हो जायेंगे । मैं इतनी धूमधम वाली शादी
न तो तुम्हें करने की सलाह दूंगी न ही खुद ऐसा सोचूंगी ।’’[iii] जिन बिन्दुओं पर हिन्दू-मुस्लिम में फर्क उत्पन्न होता है उसे उपन्यासकार ने
ठोस तरीके से उठाया है ।
मुसलमानों में पर्दा-प्रथा आम है । इसे एक परम्परा की तरह अपनाया जाता है ।
उपन्यास में आबिदा कहीं भी इस परम्परा का निर्वाह करती हुई नहीं दिखाई गई है । इस
प्रथा का विरोध् करती हुई आबिदा कहती है, ‘‘लड़कियां बड़ी होने के साथ ही खुद भी
बुरके का रियाज शुरू कर देती हैं । पहले बहुत अच्छा लगता है । जवान होने का अहसास
। अपने कुछ होने का और कुछ खास तरह से दूसरों की निगाह में आने का अहसास । बुरके
का नाम लेने पर भीतर गुदगुदी-सी होती है । और पिफर जब इसकी घुटन का अहसास होने
लगता है तो इसकी कसर चुहलबाजियों से पूरी होने लगती है । ऐसी-ऐसी कि सुन लो कान के
परदे ताउम्र पफड़कते हैं । परदे के साथ बेहिजाबी का पुराना रिश्ता है ।’’[iv] आबिदा का पालन-पोषण हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित माहौल में हुआ था । आबिदा जहाँ
रहती थी, वह एक बड़ी-सी हवेली थी,
लेकिन उसे स्लम घोषित किया गया था । हवेली के एक हिस्से में
दालान, आंगन, कमरे, गुसल, बावर्चीखाना था, इसी में आबिदा और उसकी अम्मी रहती थी । बेहिस साहब दंगे में मारे जाते हैं ।
आबिदा की अम्मी से बात करता हुआ शोधार्थी यह समझ नहीं पाता कि यह किस प्रकार दूसरी
औरतों से भिन्न है । उसे अपनत्व का एहसास होता है । ‘‘पहले सोचा चपातियां ही सेंक लूं, पिफर सोचा, तुम्हारा नाम तो पूछा नहीं । कौन जाने तुम परहेज करते हो ।’’ आगे कहती हैं, ‘‘हैरानी मुझे इस बात पर थी कि चालाक लोगों ने मजहब को जिन्दगी में इस तरह घुसा
रखा है कि वाक्य पूरा हुआ नहीं कि यह पता लगते देर नहीं लगती कि कौन हिन्दू है, कौन मुसलमान, और कौन नास्तिक ।’’[v] आबिदा को दौरे आते हैं इसीलिए वह विवाह नहीं करना चाहती । उसे डर है कि कहीं
निकाह के बाद उसका शौहर तलाक-तलाक-तलाक न कह दें । इस मामले पर उसकी अम्मी समझाते
हुए कहती है, ‘‘बुरे लोग किस जमात में नहीं होते और बुराई किस जमात में नहीं होती । दूसरी जमात
की नजर सबसे पहले बुराई पर ही जाती है । उसी से वे उसे तोलना चाहते हैं इसलिए समझ
नहीं पाते । कोई जमात जिंदा है तो उसके भीतर कुछ अच्छाईयां भी होंगी, नहीं तो वह कभी की मिट चुकी होती ।’’[vi]
भगवान सिंह ‘उन्माद’ में एक ऐसे मुस्लिम समाज को व्यक्त करते हैं, जो अपनी सभी हलचलों के
साथ व्यक्त हुआ है । शिक्षित, सभ्य मुसलमान भारत में अपने अस्तित्व को
बनाये रखने के लिए किसी शाखा या संघ से नहीं डरती है । रतन शाखा के सच्चाई को जान
जाता है, इसलिए वह शाखा जाना छोड़ देता है । दूसरे धर्म की लड़की से विवाह करने के कारण
रतन अपने परिवार से कट जाता है । पूरे उपन्यास में हिन्दू-मुस्लिम कथा इस प्रकार
बुनी गयी है कि हिन्दू-मुस्लिम में से कोई भी धर्म किसी के उपर हावी नहीं होता है
।
‘उन्माद’ एक क्रान्ति है, ऐसी क्रान्ति जिसमें परम्परागत रीति-रिवाजों को बदल डालने की जद्दोजहद है ।
रंजना अपने पिता को मुखाग्नि देने को तैयार है, सभी लोग अवाक् थे लेकिन रंजना अपने
पिता द्वारा दिए गए पुत्रा की परिभाषा को यथार्थ रूप देती है । आबिदा परम्परागत
मुस्लिम लड़कियों से अलग है,
आबिदा रतन को अपनाकर धर्म के ठेकेदारों को अंगूठा दिखाती है
। आबिदा आधुनिक है, अपने वालिद के मान्यताओं को समझनेवाली है, परन्तु परिस्थितियों ने जिस राह पर
आबिदा को डाला है, वहाँ से आबिदा अपने लिए एक नए रास्ते की तलाश करती है । उपन्यास में आबिदा के
चरित्रा को इस प्रकार व्यक्त किया गया है, ‘‘वह एक अगल किस्म की लड़की है । निडर
और आत्मविश्वास से भरी हुई । यह अपनी उदासी में इतनी पवित्रा लग रही थी, इतनी पवित्रा कि ...मैं उपमा तलाशने लगा और उपमा ही नहीं मिल रही थी । तभी
मुझे यमुना की याद आई । प्रयाग के निकट की यमुना, जिसका कालिंदी होना
संगम पर सापफ दिखाई देता है । मैंने सोचा काली नदी को किसी हरियाणवी संस्कृत
प्रेमी ने कालिंदी बना दिया होगा ।’’[vii] आबिदा जिन दिनों रतन के नजदीक आई थीं, वे मस्ती के दिन थे । न कोई चिंता, न कोई फक्र केवल पढ़ना और हंसी-मजाक । गुजरे हुए पलों को याद करती हुई आबिदा
कहती है, ‘‘जिंदगी उन्हीं सपनों के साथ खत्म हो जाती है । उसके बाद तो लोग अपने मकबरे
तैयार करके उसी में बैठ जाते हैं और जिंदगी भर अपनी समाध् लेख लिखते रहते हैं । सच
कहो तो बेवकूपफी के उन क्षणों में ही हम होशहवास में रहते हैं । उसके बाद जो अधिक
चालाक होते हैं वे गुबरैलों की जिन्दगी जीते हैं और जो ऐसा बनना नहीं चाहते उन पर
वक्त इतना भारी पड़ता है कि वे पागल हो जाते हैं ।’’[viii] रतन मानसिक संतुलन खो बैठता है, आबिदा के अब्बा दंगे में मारे जाते
हैं । आबिदा अब बड़ी-सी हवेली में अकेली रहती है, अपनी अम्मी के साथ ।
वक्त के साथ जिंदगी की शक्त इतनी बदल जाती है कि उसे पहचान पाना मुश्किल हो
जाता है । आबिदा के विवाह को लेकर मम्मी चिन्तित रहती है । आबिदा को दौरे आते हैं, इसलिए वह डरती है कि उसका शौहर विवाह के बाद उसे तलाक दे सकता है । इस पर
अम्मी का विचार है कि, ‘‘बेटे निबाहनेवाले सभी जमातों में निबाहते ही हैं । लाखों-करोड़ों में कोई एक ही
सिरफिरा होता जो इस तरह तलाक-तलाक-तलाक करता होगा । इस तरह तो कई लोग अपनी जोरू को
जान से मार देते हैं । दूसरी शादियां कर लेते हैं । रखैलें रख लेते हैं बुरे लोग किस जमात में नहीं होते और बुराई किस
जमात में नहीं होती ।’’[ix] आबिदा बिखर जाने के बावजूद टूटती नहीं है, अपने अब्बा के आदर्शों को अपने
अंदर जीवित रखती है । अपने अब्बा के मृत्यु पर टिप्पणी करती हुई कहती है, ‘‘अब्बा और शास्त्री अंकल के लिए एक मुसलमान और एक हिन्दू का इस्तेमाल देखकर
मुझे ऐसा लगा कि अखबारवालों ने दोनों को दूसरी बार हलाक किया है । वे पैदा जिस
खानदान में हुए थे, वे भला कहां के हिन्दू और कहां के मुसलमान ।’’[x] जिस प्रकार बेहिस साहब की मौत हुई, उससे आबिदा धर्म की सच्चाईयों को
जान जाती है ।
आबिदा दृढ़ निश्चयी थी । वह रतन को चाहती थी, उसके लिए किसी प्रकार
का बंधन उसे मंजूर नहीं था । रतन की मां को पागल रतन मंजूर है लेकिन रतन मुसलमान
हो जायेगा यह मंजूर नहीं है । आबिदा धर्म के संकुचित दायरे से निकलकर रतन के
मानसिक बीमारी को ठीक करना चाहती है । अन्ततः आबिदा यह घोषणा करती है, ‘‘इसलिए मैंने ही जिद ठान रखी है कि हम विवाह नहीं करेंगे । साथ रहेंगे ।
विश्वास है कि हम एक-दूसरे को धोखा नहीं देंगे । और जिस दिन विश्वास ही टूट जायेगा
उसके बार घिसटते हुए जीने का क्या मतलब है ?’’[xi] इस प्रकार आबिदा की सहज प्रेम कथा सामाजिक कारणों से कितना असहज हो जाता है, कितने टकरावों का केन्द्र बन जाती है । आबिदा अपने विवेक से इन उलझी गुत्थियों
को सुलझाने का काम करती है ।
‘उन्माद’ में प्रेम की एक नयी परिभाषा गढ़ी गई है । जिसमें धर्म, जाति के भेद टूटते हैं और इंसानियत की जीत होती है । स्त्री सशक्तीकरण का एक
नवीन रूप सामने आता है । अब रंजना जैसी लड़कियां अपने बाबूजी को मुखाग्नि देने का
काम करती हैं । देश को और समाज को बदलने के लिए यह उपन्यास एक आवश्यक हस्तक्षेप
कहा जा सकता है । शायद यह हिन्दी का पहला उपन्यास होगा जिसमें उन्माद पफैलने वालों
का भी शुक्रिया अदा किया जाता है । आबिदा के पिता घोषणा करते हैं, ‘‘जिंदगी में तो न हिंदू रहा न मुसलमान और अब दोनों एकसाथ होकर मरने जा रहा हूं
। हिन्दू मरते हैं तो उन्हें दपफनाया जाता है, मुझे तो अपनों ने ही जलाया भी और
यह सांस चंद घंटों या दिनों में साथ छोड़ देगी तो, वे ही दपफनाएंगे भी ।
मेरी तो समझ में नहीं आता कि उनका शुक्रिया किन लफ्जों में अदा करूं ।’’[xii] भगवान सिंह इस उपन्यास के माध्य से यह प्रयास करते हैं कि इंसानियत का कद बढ़े
न बढ़े न कि हिंदू या मुसलमान का ।
संदर्भ -
[ii]वही पृ. सं.179
संम्पर्क -चितरंजन कुमार,व्याख्याता, S2, बी.बी. कॉलेजिए, मुजफ्फरपुर, उत्तरप्रदेश, चलदूरभाष –9939205909, ईमेल- thittran.ran@gmail.com
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