नस्लीय भेद के अभेद्य दुर्ग को तोड़कर निकली है:
- ‘पिता से मिले सपने’
पिता से मिले सपने (ड्रीम्स फ्रॉम माई फादर)
अश्वेत (नीग्रो) जीवन पर केन्द्रित अमेरिकी अश्वत राजनेता बराक ओबामा के संस्मरणों
की एक उल्लेखनीय पुस्तक है। इस पुस्तक में बराक ओबामा द्वारा पिता के जीवन के सच
को जानने एवं विभाजित विरासत को समझने-बूझने का संकल्प मौजूद है। इसे अब तक के
अमेरिकी राजनेता का सर्वेश्रेष्ठ आत्मकथात्मक संस्मरण कहा जा सकता है। प्रसिद्ध
युवा दलित चिंतक डा. यशवन्त वीरोदय ने 15 जून, 2011 के इण्डिया
टुडे में ‘दलित बचपन की
विपन्नता’ शीर्षक से
तुलसीराम की आत्मकथा की समीक्षा करते हुए लिखा कि ‘‘इक्कीसवीं सदी
की यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि इसके प्रथम दशक में ही अश्वेत एवं दलित जीवन पर
केन्द्रित तीन महत्वपूर्ण आत्मकथाएं आ चुकी हैं-बराक ओबामा की ‘पिता से मिले सपने’, प्रो. श्यौराज सिंह
बैचेन की ‘मेरा बचपन मेरे
कन्धों पर’ और प्रो. तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’। ओबामा की
आत्मकथा ‘श्वेत अमेरिका
में अश्वेत बचपन’ को दिखाती है, प्रो. बैचेन और प्रो. तुलसीराम की
आत्मकथा में ‘सवर्ण भारत में
दलित बचपन’ मौजूद है।’’[i]इस प्रकार
सही मायने में ‘श्वेत अमेरिका में अश्वेत बचपन’ को समझने-बूझने
की कड़ी में यह महत्वपूर्ण आत्मकथात्मक संस्मरण हमारे सामने है, जो ले जाएगी
हमको उस दुनिया में, जहां नस्लीय अपमान और वैमनश्यता मौजूद है और
जिससे उबरने की परिणति में यह आत्मकथा हमारे सामने है।
एक तरह से देखा जाए तो बराक ओबामा की इस आत्मकथा
में एक ‘‘आन्तरिक यात्रा
का ब्यौरा है-एक लड़के की अपने पिता की तलाश और उस तलाश के जरिए एक अश्वेत अमेरिकी
के रूप में अपने जीवन का उपयुक्त अर्थ पाना। नतीजे के तौर पर यह आत्मकथात्मक वृत्त
प्रस्तुत है.................... एक आत्मकथा में ऐसी उपलब्धियों को दर्ज किया जाता
है जो रिकार्ड की जाने लायक होती हैं, मशहूर लोगों के साथ
वार्ताओं को शामिल किया जाता है, महत्वपूर्ण घटनाओं में अपनी केन्द्रीय भूमिका का
उल्लेख किया जाता है। यहां इनमें से कुछ भी नहीं किया गया है।’’[ii]
वंचितों की पृष्ठभूमि से आई हुई आत्मकथाएं केवल
निज कथाएं नहीं हुआ करती हैं, वरन् वे समाज-कथाएं हुआ करती हैं। बकौल बराक
ओबामा- ‘‘वास्तव में यह
पुस्तक इस विशेष सच को स्वीकार करने की कोशिश है कि इस देश में हों या अफ्रीका में, मैं अपने अश्वेत
भाई-बहनों को गले लगाकर अपनी साझा नियति का दावा कर सकता हूं, बिना यह दिखलाए कि
मैं हमारे तमाम संघर्षों के लिए या उनकी खातिर बोल रहा हूं।’’[iii]
हाशिए के समाज से जो आत्मकथाएं आ रही हैं, उसमें मौजूद सच
का सामना सवर्ण समाज या श्वेत समाज नहीं कर सकता और न ही वह इतना बड़ा सच उजागर कर
सकता है। एक तरह से देखा जाए तो दलित और अश्वेत आत्मकथाएं उस सच को उजागर कर रही
हैं, जिसे पेश करने
का माद्दा सवर्ण और श्वेत समाज के पास है ही नहीं। प्रसिद्ध मराठी दलित साहित्यकार
‘शरण कुमार लिम्बाले’
से जब उनकी आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ के बारे में ‘गोपाल
प्रधान’ ने सवाल किया तो ‘लिम्बाले’ ने निर्भिकतापूर्वक जवाब दिया कि ‘‘अक्करमाशी मेरी
आत्मकथा है, इसने बहुत सवाल
खड़े कर दिए। मेरे पिता सवर्ण हैं, मेरी माँ अछूत है, मेरे नाना
मुसलमान हैं। फिर मैं कौन हूं? क्या सवर्ण हूं? क्या अछूत हूं? हिन्दू हूं कि मुसलमान
हूं? यह पहली आत्मकथा
आई है दलित साहित्य में। मराठी में सोचा भी नहीं गया था कि एक सवर्ण जो दलित
महिलाओं को रखैल बना कर रखे हुए था, उसका बेटा साहित्य में
प्रवेश करेगा और इस तरह से लिखेगा.............। मेरी मां को उसने अपनी पत्नी नहीं
बनाया, एक रखैल बनाकर
रखा और मैं एक रखैल का बेटा हूं। मैं देखने लगा कि गांव-गांव में ऐसे पटेल हैं, जो हरिजन
लड़कियों को रखैल बनाकर रखते हैं। इन रखैलों की सन्ताने हैं और इन सन्तानों के भी
कुछ सवाल हैं, उनकी वेदनाएं
हैं। इन सवालों और इस वेदना को लोगों के सामने लाना जरूरी है-इसीलिए मैंने यह
आत्मकथा लिखा।’’[iv]
बराक ओबामा के जीवन का भी एक अलग यथार्थ है, जिसे पढ़ने के
बाद सम्पूर्ण अश्वेत समाज की त्रासदी का पता चलता है। बकौल ओबामा ‘‘मेरे माता-पिता, अश्वेत पुरुष और
श्वेत महिला, एक अफ्रीकी और
दूसरी अमेरिकी के अल्पकालिक मेल को जस का तस स्वीकार कर सकें............। श्वेत
हों या अश्वेत, जो लोग मुझे
अच्छी तरह नहीं जानते, उन्हें जब मेरी पृष्ठभूमि का पता चलता है
............. तो मैं देखता हूं, कि उन्हें सहज होने में एक क्षण लग जाता है, .............. मिश्रित खून, विभाजित आत्मा, दो दुनिया के बीच
फंसे हुए दुःखी मुलाटों-श्वेत- अश्वेत माता-पिता की सन्तान की प्रेत छवि। अगर मुझे
यह समझना हो कि नहीं, यह त्रासदी मेरी नहीं है......................
बल्कि यह तुम्हारी है।[v]
सही मायने में देखा जाए तो भारतीय दलित समाज की
त्रासदी नहीं है बल्कि वह सम्पूर्ण भारतीय समाज की त्रासदी है। इसी तरह से अश्वेत
जीवन की त्रासदी केवल अश्वेत समाज की नहीं है बल्कि वह सम्पूर्ण सम्य अमेरिकी समाज
की त्रासदी है, जिसे पेश करने
में बराक ओबामा को जबर्दस्ती प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है।
‘‘मैं पुस्तक में अपने अतीत को पेश करने के विचार
का जबर्दस्त प्रतिरोध करता रहा, उस अतीत को जो मुझमें बेपरदा होने और कुछ
शर्मसार होने का भाव भर देता था, इसलिए नहीं कि वह मेरे उन पहलुओं को उभारता था
जो सचेत निर्णय का प्रतिरोध करते थे और कम से कम ऊपरी तौर पर उस दुनिया का खण्डन
करते थे, जिसमें आज मैं
हूं । आज मैं तैंतीस साल का हूँ, मैं एक वकील हूं और शिकागो के सामाजिक और
राजनीतिक जीवन में सक्रिय हूं- उस शहर में जो नस्लीय घावों का आदी हो चुका है और
भावना के एक तरह के अभाव पर गर्व करता है। अगर मैं स्वार्थवाद से लड़ सका हूं तो
भी मैं खुद को दुनिया भर से बुद्धिमान नहीं मानता और बहुत अपेक्षाएं न रखने की
सावधानी बरतता हूं।[vi]
बराम ओबामा की आत्मकथा में केवल श्वेत और अश्वेत
जीवन का द्वन्द्व ही समाहित नहीं है बल्कि यह दो दुनियाओं के बीच का संवाद भी है।
विविधताओं से निजात पाने की तलाश का तत्व पूरी आत्मकथा में मौजूद है। बकौल बराक
ओबामा-
‘‘सम्पन्नता की दुनियाओं और अभाव की दुनियाओं के
बीचः आधुनिक और प्राचीन के बीचः हमारी प्रचुर, आपस में टकराती, खिझाती विविधता
उन मूल्यों के प्रति आग्रह के साथ अपनाने वालों, जो हमें एकता के
सूत्र में बांधते हैं और उन लोगों के बीच जो किसी झण्डे या नारे या पवित्र पाठ के
तहत उस आश्वस्ति और तर्क को स्वीकार करते हैं, जो हमसे भिन्न लोगों के
प्रति क्रूरता को जायज ठहराता है, जो टकराव है, उसे लघु रूप में इस पुस्तक
में भी प्रस्तुत किया गया है।’’[vii]
बराक ओबामा के अश्वेत जीवन का संघर्ष आज सामाजिक
विमर्श के केन्द्र में है, जिससे उनकी आगे आने वाली पीढ़ी को नई दिशा मिलने
की सम्भावना बलवती होती है। बकौल ओबामा-
‘‘इस संघर्ष को समझने और उसमें अपनी जगह ढूंढने का
जो मेरा अधिक आन्तरिक, सघन प्रयास था, वह व्यापक, सार्वजनिक
विमर्श से जुड़ गया है, उस विमर्श से जिसमें मैं पेशेगत् तौर पर शरीक
हूँ, उससे जो हमारे
जीवन और आने वाले कई वर्षों तक हमारे बच्चों के जीवन को दिशा देगा।[viii]
अश्वेत जीवन की अभावों से भरी जिन्दगी, सामाजिक
वैमनस्यता और दास्ता से ग्रस्त जीवन की झलक इस पूरी आत्मकथा में मौजूद है। बराक
ओबामा का जीवन इससे अछूता नहीं है। उन्होंने भी अभावों से अरी जिन्दगी को बहुत
नजदीक से देखा और महसूस किया है। बकौल बराक ओबामा-
‘‘उस समय मैं न्यूयार्क में ईस्ट हार्लेम और शेष
मैनहट्टन के बची की बदलती सीमा पर, उस अनाम क्षेत्र की दूसरी
और पहली गली के बीच, 94 वें ब्लॉक में रह रहा था। यह उजाड़ बिना पेड़ों
वाला अनाकर्षक ब्लाक था, जिसकी कालिका भरी सीढि़यां दिन भर बोझिल साए
डालती रहती थीं। अपार्टमेण्ट छोटा था और फर्श ढलवा थी। यह गरम रहता था। नीचे घण्टी
लगी थी जो बजती नहीं थी, इसलिए आगन्तुकों को मोड़ पर गैस स्टेशन से पहले
फोन करके आना पड़ता था।’’[ix]
अमेरिका में नीग्रो या अश्वेतों के मुहल्ले
बहिस्कृत भारत में दलित जीवन की त्रासदी को उजागर करते हैं। जिस प्रकार भारत में
दलित बस्तियों का अपना एक समाजशास्त्र होता है, उसी प्रकार अमेरिकी अश्वेत
बस्तियों का भी अपना एक समाजशास्त्र है, जिसमें जीना दूभर है और
जिसका कारण वह श्वेत समाज है जो अपने को सभ्य कहता है। इस आत्मकथा में इसी सुबूत
श्वेत समाज की हकीकत का पर्दाफाश करते हुए ओबामा ने लिखा है- ‘‘जब मौसम अच्छा
होता तो मैं अपने कमरे के साथी के साथ बैठकर सिगरेट पीता और शहर पर उतरती नीली शाम
को देखा करता था या पड़ोस के अमीर इलाके के श्वेतों को अपने कुत्तों को टहलाते
देखता। कुत्ते हमारी पगडण्डियों पर मलत्याग करते और मेरा साथी उनके मालिकों पर
गुस्से से चीखता, ‘ओ हरामजादों/ मल को उठा लो’ और हम कुत्ते और
उसके मालिक के चेहरे को देखकर हंसते।’’[x]
पूरी आत्मकथा ‘पिता’ के इर्द-गिर्द
घूमती नजर आती है। एक तरह से बराक ओबामा के ‘पिता’ उस आत्मकथा के
केन्द्र में हैं। दो साल की उम्र में ही पिता से बिछुड़ने का गम और उनसे मिलने की
परिणति के साथ उनके सपनों को साकार करने की कुव्वत के रूप में यह आत्मकथा आज
वंचितों के इतिहास में मील के पत्थर के रूप में विराजमान है। पिता से बिछुड़ने का
असह्य दुःख ओबामा को अन्दर तक व्यथित कर डालता है। बकौल ओबामा-
‘‘मृत्यु के समय तक, पिता मेरे लिए
एक मिथक ही रहे, एक मनुष्य से
ज्यादा भी और कम भी। 1963 में ही वे हवाई से चले गए थे, तब मैं केवल दो
साल का था। सो, एक बच्चे के तौर
पर मैंने उन्हें सिर्फ उन कहानियों की मार्फत जाना जो मेरी माँ और मेरे नाना-नानी
सुनाते थे।’’[xi]
.............
वे एक अफ्रीकी थे, लुओं जनजाति के केन्याई, एलेगो नामक जगह
पर लेक विक्टोरिया के किनारे पैदा हुए थे। उनका गांव गरीब था मगर उनके पिता, मेरे दादा हुसैन
ओन्यांगो ओबामा एक बड़े किसान थे, अपनी जनजाति के बुजुर्ग जो एक चिकित्सक भी थे, जिनके हाथों में
उपचार की अद्भुत शक्ति थी। ............... केन्या की आजादी के समय केन्याई नेताओं
और अमेरिकी प्रायोजकों ने उन्हें अमेरिकी विश्वविद्यालय में बढ़ाने के लिए चुना।
इस तरह वे पश्चिमी प्रोद्यौगिकी में महारत हाशिल करके उसे नए आधुनिक अफ्रीका में
लाने के लिए भेजे गए अफ्रीकियों की पहली जमात में शामिल हुए। तेइस साल की उम्र में
1959 में वे हवाई
विश्वविद्यालय में पहले अफ्रीकी छात्र के रूप में शामिल हुए। उन्होंने
इकोनोमेट्रिक्टस की पढ़ाई की, पूरी एकाग्रता से अध्ययन करके वे तीन साल में
अपने क्लास में अव्वल आते हुए स्नातक बने। उनके दोस्तों की भरी-पूरी जमात थी, उन्होंने
इण्टरनेशनल स्टूडेण्ट एसोसिएशन की स्थापना की और उसके पहले अध्यक्ष बने।[xii]
आत्मकथा में मौजूद यह तथ्य उल्लेखनीय है कि बराक
ओबामा के पिता ने इण्टरनेशनल स्टूडेण्ट्स एसोसिएशन की स्थापना की और उसके पहले
अध्यक्ष बने। बराम ओबामा ने अपने पिता से प्रेरणा ली और ‘हावर्ड ला
रिव्यू’ के पहले
अफ्रीकी-अमेरिकी अध्यक्ष चुने गए। यह वही समय था, जब बराक ओबामा
ने यह आत्मकथा लिखने की शुरुआत की थी-
‘‘मैंने इस
विश्वास के साथ इस पुस्तक पर काम शुरू किया था कि मेरे परिवार की कहानी, उस कहानी को
समझने-बूझने के मेरे ये प्रयास, अमेरिकी जन-जीवन में नस्लीय विभेद का कुछ खुलासा
करेंगे। साथ ही, ये हमारे आधुनिक
जीवन में पहचान से जुड़ी अनिश्चितता, समय के साथ बदलावों और
संस्कृतियों के टकराव की भी व्याख्या करेंगे।’’[xiii]
यहां जिस सांस्कृतिक टकराहट और बदलाव की बात की
जा रही है, उसके मूल में
अश्वेतों का बलिदान छिपा है। आज अमेरिका पूंजीवादी देश और महाशक्ति बन कर खड़ा है, जिसकी नीचे
अश्वेतों के खून से सींची गई है, फिर भी भेदभाव का दंश अश्वेतों के हिस्से ही
आया। इस विषय में नस्लीय पहलू पर गौर करने लायक एक संस्मरण सुनाते हुए बराक ओबामा
कहते हैं-
‘‘घण्टों पढ़ाई करने के बाद मेरे पिता स्थानीय
वैकिकि बार में, मेरे नाना और कई
अन्य मित्रों के साथ जा बैठे थे। हर कोई मौज-मस्ती के मूड में था। गिटार की धुन के
साथ खाना-पीना चल रहा था, तभी एक श्वेत व्यक्ति ने बार के साकी से अचानक
इतनी जोर से कहा कि सब लोग सुन सकें, कि वह नीग्रो के बगल में
बैठकर अच्छी शराब नहीं पीना चाहता। कमरे में सन्नाटा छा गया, लोग मेरे पिता
की ओर देखने लगे, उन्हें लगा कि अब झगड़ा होगा लेकिन मेरे पिता
उठे, उसे शख्स के पास
गए, मुस्करा कर उसे
कट्टरवाद, अमेरिकी सपने और
मनुष्य के सार्वभौमिक अधिकार पर भाषण सुनाने लगे। गैंप्स कहते हैंबराक ने जब बोलना
बन्द किया, तब तक वह आदमी
इतना शर्मसार हो गया कि उसने तुरन्त पॉकेट से सौ डालर निकाल कर बराक को थमा दिए।
उसने हम सबके लिए रात भर की शराब के पैसे दिए और तुम्हारे पिता का महीने का बाकी
किराया भी दिया।’’[xiv]
एक समय में मराठी के प्रसिद्ध दलित साहित्यकार
शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा के उनवान ’अक्करमाशी‘ शब्द पर भयानक
तूफान मचा था। इस दोगली विरासत को साहित्य से बाहर रखने के लिए साहित्यिक मठाधीश
चिंतित थे लेकिन लिंबाले ने अपना और अपने समाज का सच ’अक्करमाशी‘ में अभिव्यक्त
किया। इसी तरह का एक शब्द ’मिसिजेनेशन‘ है, जिसका प्रयोग
बराक ओबामा ने अपनी आत्मकथा ’पिता से मिले सपने‘ में किया है। इस
शब्द को लेकर भी अमेरिका में बवाल मच चुका है। बकौल बराक ओबामा ’’मिसिजेनेशन-नस्लों
का संगम-एक बदनुमा-कुबड़नुमा शब्द है, जिसका परिणाम भयावह है: ‘एन्टीबेल्लम‘ या युद्ध के
पहले के दौर और ’ओक्टोरून‘ या दोगला की तरह, यह एक अलग ही
सुदूर दुनिया का एहसास कराता है,.............जब तक मैं छह साल का नहीं
हो गया, 1967 में-जब जिमी
हेंड्रिक्स ने मांटेरी में कार्यक्रम पेश किया था, जब अमेरिका
अश्वेतों की समानता की मांग से ऊब चुका था, जब भेदभाव को समाप्त मान
लिया गया था............1960 में जब मेरे माता-पिता जी ने शादी की थ, तब ’मिशिजेनेशन‘ अमेरिका के करीब
आधे राज्यों में एक अपराध माना जाता था। दक्षिण के कई हिस्सों में तो मेरे पिता को
मेरी मां पर गलत नजर डालने भर के लिए पेड़ से बांध दिया
जाताः...............कानाफूसियों ने मेरी मां की तरह दुविधा में पड़ी किसी औरत को
गर्भपात करा लेने पर बाध्य कर दिया होता।’’[xv]
आत्मकथा में मौजूद ये तथ्य बोलते हैं कि अस्पृश्य
या अश्वेत जीवन की पीड़ा में कोई श्वेत या सवर्ण नहीं लिख सकता। यह माद्दा केवल
शरण कुमार लिंबाले और बराक ओबामा में ही है कि वे ’मिसिजेनेशन‘ और ’अक्करमाशी‘ के सत्य को
स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं। यह अश्वेत लेखक बराक ओबामा ही हैं जिन्होंने अपने
स्वेत नाना-नानी को कटघरे में खड़ा कर दिया है यह पूछकर कि- ’’क्या वे अपनी
बेटी को उससे (बराक के अश्वेत पिता से) शादी करने की इजाजत देंगे?‘‘ 16 बेटी किसी
अश्वेत के घर चली जाए यह गंवारा नहीं है बकौल ओबामा ’’ सच्चाई यह है कि
उस समय के अधिकतर श्वेत अमेरिकियों की तरह वे भी अश्वेतों को वास्तव में ज्यादा
तवज्जो नहीं देते थे।’’[xvi]
मानवता पर लगे बदनुमा दाग को धोने के लिए ’टूट‘ (बराक ओबामा की
नानी) जैसी कितनी महिलाएं आगे पाती हैं? और उनके इस कदम से उनको
क्या-क्या सहना पड़ता है इसकी झलक भी इस आत्मकथा में मौजूद है।
टूट जिस बैंक में काम करती थीं, वहां उनका परिचय
द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व सैनिक, लम्बे और शालीन अश्वेत
दरबान से हुआ जिन्हें वे मिस्टर रीड के नाम से याद रख पाई।
इसके कुछी ही दिनों बाद टूट ने मिस्टर रीड को इमारत के एक
कोने में अकेले खामोशी से रोते हुए पाया। जब उन्होंने उनसे वजह पूछी तो वे आखें
पोछते हुए सीधे होकर बैठे और एक सवाल किया। ’’हमने ऐसा क्या किया है जो
हमारे साथ ऐसा बरताव किया जाता है।?‘‘
श्वेत समाज में सबसे बड़ा अपराध यही माना जाता है कि आखिर
कैसे कोई किसी नीग्रो से प्रेम कर सकता है?
बकौल ओबामा ’‘जब टूट घर लौंटी तो पाया कि
मकान के बाहर बाड़ के पास कई बच्चे खड़े थे‘‘। जब वे नजदीक आईं तो
उन्हें उपेक्षापूर्ण ठहाके सुनाई दिये ’’नीग्रो की प्रेमिका‘‘! ’’गंदी अमेरिकी‘‘! ’’नीग्रो की
प्रेमिका‘‘!
टूट को देखते ही बच्चे बिखर गये लेकिन इससे पहले एक लड़के
ने अपने हाथ का पत्थर बाड़ के पार उछाल दिया।..................मेरी मां और उन्हीं
की उम्र की एक अश्वेत लड़की घास पर साथ-साथ पेट के बल लेटी हुयी थी।..................दूर
से वे दोनों पेड़ की छाया में लेटी भोली सहेलियों जैसी दिख रहीं थी। टूट ने फाटक
खोला तभी उन्हें एहसास हुआ कि वह अश्वेत लड़की कांप रही थी और मेरी मां की आंखों
में आंसू भरे थे। दोनों डर से एकदम जड़ हो गयीं थी। टूट ने झुककर दोनों के सिर पर
हाथ रख दिया।
एक तरह से श्वेत-अश्वेत संक्रमण के दौर से
गुजरती जिन्दगियों की संवेदनाओं को उकेरने में बराक ओबामा ने कामयाबी हासिल की है
लेकिन प्रश्न यह है कि श्वेत समाज में से ’टूट‘ की तरह आगे
बढ़ने का साहस आज कितनों के पास है? लेकिन ‘टूट’ और ग्रैंप्स
(बराक ओबामा के नानी-नाना) ने साहस दिखाया और वे अपनी बेटी का हाथ एक अश्वेत के
हाथ में देने को राजी हो गए। इसका उन्होंने खामियाजा भी भुगतना पड़ा। बकौल ओबामा- ‘‘शादी, केक, अंगूठी, दुल्हन की विदाई
वगैरह किसी चीज का कोई रिकार्ड नहीं है। कोई परिवार इसमें शरीक नहीं हुआ। यह भी
स्पष्ट नहीं है कि कन्सास में लोगों को पूरी सूचना दी गई या नहीं। केवल छोटी सी
कानूनी रस्म हुई, मजिस्ट्रेट के सामने। जब पीछे देखने पर वह सब
काफी मामूली, अस्तव्यस्तता भरा
लगता है। शायद मेरे नाना-नानी ऐसा ही चाहते थे। मानों कुछ ही समय की बात थी और
संकट जल्द खत्म होगा।’’[xviii]
इसके बाद ऐसे ही माहौल में बराक ओबामा का जन्म
हुआ। बकौल बराक ओबामा- ‘‘मेरा नस्लीय रूप मेरे नाना-नानी के लिए कुछ
समस्याएं पैदा करता था और उन्होंने शीघ्र ही वह तिरस्कार भाव अपना लिया था जो
स्थानीय लोग ऐसी बातें करने वाले आगन्तुकों के प्रति अपनाते थे। कभी-कभी, जब गै्रंप्स
देखते कि सैलानी लोग मुझे बालू में खेलते हुए गौर से देख रहे हैं तो वे उनकी बगल
में खड़े होकर फुसफुसाने लगते कि मैं हवाई के प्रथम सम्राट किंग कामेहामेहा का
पड़पोता हूँ।’’[xix]
नस्ल भेद की समस्या का समाधान क्या है? इसको विचार करने
की जरूरत है। नस्ल भेद का त्रासद रूप समाज के विघटन का कारण होता है। एक छोटा सा
उदाहरण बराक ओबामा की आत्मकथा में मिलता है। एक आदमी बरसाती पहने और काला चश्मा
लगाए सड़क पर चला जा रहा है। यह एक तस्वीर है, जिसको बराक ओबामा देखते
हैं- ‘‘उसी आदमी के
हाथों की बड़ी सी फोटो थी, उन हाथों में अजीब अस्वाभाविक पीलापन था मानो
उनमें से खून निकाल लिया गया हो। उसकी पहली फोटो पलट कर देखी तो उस आदमी के उलझे
बालों, मोटे होठों और चौड़ी
तथा मोटी नाक, सबमें एक
भुतहापन था।.......... जब मैंने फोटो के साथ छपे शब्द पढ़े तो पता चला कि ऐसा कुछ
नहीं था। उस आदमी का रसायनिक उपचार किया गया था क्योंकि वह अपना रंग साफ करवाना
चाहता था। इसके लिए उसने पैसे दिए थे। उसे अफसोस था कि श्वेत दिखने की कोशिश में
यह गति हो गई थी।’’[xx]
इस प्रकरण पर क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है? इसके जैसे
हजारों अश्वेत स्त्री-पुरुष थे अमेरिका में, जिन्होंने उन विज्ञापनों के
झांसे में अपना उपचार करवाया था। यह सब सोच कर बराक ओबामा का चेहरा और गर्दन गर्म
होने लगती है। वास्तव में यह त्रासदी जिसका भुक्तभोगी सम्पूर्ण अश्वेत समाज है, का निदान हमें
ही खोजना है। क्या अमेरिका में ऐसी पीढ़ी का निर्माण हो सकेगा जो बिना नस्ल भेद
किए एक सम्यक् राष्ट्र के निर्माण में सहयोग दे सके।
बराक ओबामा के पिता के स्वदेश लौट जाने के बाद
उनकी माता ने लोलो नामक इण्डोनेशियाई से शादी कर ली। लोलो छोटे कद के भूरे और
खूबसूरत आदमी थे, अच्छे टेनिस खिलाड़ी थे। लोलो के कारण बराक को
इण्डोनेशिया देखने का भी मौका मिला। इण्डोनेशिया की भाषा, उसके रीति-रिवाज, कथाएं सीखने में
बराक को छह महीने लगे। बराक ने इण्डोनेशिया में कुत्ते का मांस (सख्त), सांप का मांस और
भुना हुआ टिड्डा भी खाया। खाते समय बराक को सिखाया जाता कि मनुष्य जो कुछ भी खाता
है, उसकी ताकत उसमें
आ जाती है। बराक ने इण्डोनेशियाई समाज की त्रासदी का भी चित्रण किया है- ‘‘जिस साल बारिश
नहीं हुई, किसानों के
चेहरे भावशून्य हो गए, बंजर खेतों की फटी हुई धरती पर चलते हुए उनके
कन्धे झुके होते, वे उंगलियों से मिट्टी फोड़ने के लिए बार-बार
झुकते, फिर अगले साल जब
एक महीने तक बारिश होती रही तो नदियों और खेतों में पानी भर गया, गलियों में मेरी
कमर तक ऊँचा पानी चढ़ आया और लोगों की झोपडि़यां बहने लगीं तो वे अपनी बकरियों और
मुर्गियों को बचाने में जुट गए............ मुझे समझ में आ रहा था कि दुनिया हिंसक
और प्रायः क्रूर थी।’’[xxi]
बराक ने अपने अल्प जीवन में ही यह सीख लिया था कि दुनिया, हिंसक और क्रूर
है। उन्होंने लोलो से प्रश्न पूछाः-
‘‘क्या आपने कभी किसी आदमी को मारा जाते हुए देखा
है?’’
वे बोले ‘‘हां’’
‘‘क्या काफी खून बहा था?’’
‘‘हां’’
‘‘वह आदमी क्यों मारा गया, जिसे आपने देखा
था?’’
‘‘क्योंकि वह कमजोर था।’’
लोलो ने बालक बराक को समझाया, ‘‘आम तौर पर यही
वजह होती है, लोग दूसरों की
कमजोरी का फायदा उठाते हैं। यह ऐसा ही है, जैसा देशों के बीच होता है।
ताकतवर लोग कमजोर की जमीन हड़प लेते हैं, वे कमजोर लोगों से अपने
खेतों पर काम करवाते हैं। अगर कमजोर आदमी की बीबी सुन्दर है तो वे उसे ले जाते
हैं।’’ लोलो ने बराक से
रुक कर पूछा- ‘‘तुम क्या बनोगे?........ अगर ताकतवर नहीं
बन सकते तो चतुर बनो और ताकतवर के साथ दोस्ती कर लो लेकिन ताकतवर ही बनना सबसे
अच्छा है।’’[xxii]
इण्डोनेशिया के इतिहास पर चर्चा करते हुए बराक
को यह जानकारी हुई कि ‘‘आबादी के मामले में दुनिया का यह पांचव देश था, जहां सैकड़ो
जनजातियां थीं और कई बोलियां बोली जाती थीं। वह एक उपनिवेश रह चुका था। पहले 300 साल तक डचों का
उपनिवेश रहा, फिर युद्ध के
दौरान जापान के अधीन रहा जो तेल, धातु, लकड़ी के उसके विशाल भण्डार
पर कब्जा करना चाहता था। युद्ध के बाद स्वतन्त्रता आन्दोलन चला और सुकर्णों उसके
नायक बन कर उभरे जो उसके प्रथम राष्ट्रपति बने।’’[xxiii]
इस तरह देखा जाए तो इस आत्मकथा में सिर्फ केन्या
का ही इतिहास-भूगोल दर्ज नहीं है बल्कि इण्डोनेशियाई संस्कृति पर भी व्यापक रूप से
चर्चा है। श्वेत जगत की मीडिया हो या टीवी चैनल, कहीं भी इतनी
गम्भीर चर्चा नहीं मिलती। लेकिन बराक का नजरिया केन्या और इण्डोनेशिया की यात्रा
करने के पश्चात् पूरी तरह बदल गया। दुनिया को सोचने-समझने की दृष्टि बदल गई। बकौल
बराक ओबामा- ‘‘मेरा नजरिया
हमेशा के लिए बदल गया था। शाम के समय आने वाले नए आयातित टीवी कार्यक्रमों में
मैंने गौर किया कि ‘‘आई स्पाई’’ में, कोस्बी कभी
लड़को को पकड़ नहीं पाता था; कि ‘मिशन इम्पाशिबल’ में अश्वेत
व्यक्ति पूरे समय भूमिगत् ही रहता था। मैंने पाया कि स्कार्स, टूट और ग्रैंप्स
द्वारा भेजे गए सिअर्स, रीबॅक क्रिसमस के कैटलॉग में मेरे जैसा कोई नहीं
था, कि शांता श्वेत
था।’’[xxiv]
इसके बाद नस्ल भेद की त्रासदी से उबरने की परिणति में
श्वेतों से अश्वेतों की स्वतन्त्रता की मांग उठी और इस स्वतन्त्रता को बराक ओबामा
ने अपने बाहर और भीतर महसूस किया। बकौल बराक ओबामा- ‘‘अपनी मां, नाना-नानी से
अलग, मैं एक बेचैनी
भरे आन्तरिक संघर्ष में जुटा था। मैं खुद को अमेरिका में एक अश्वेत पुरुष के तौर
पर तैयार कर रहा था और मेरे लिए बाह्य रूप के इतर मेरे इर्द-गिर्द कोई भी नहीं
जानता था कि इसका क्या अर्थ था?’’[xxv]
और इस तरह बराक ओबामा ने आन्तरिक उथल-पुथल के दौर से गुजरते
हुए इस दुनिया का महत्वपूर्ण हिस्सा बनने का फैसला किया। बकौल ओबामा- ‘‘मैं अश्वेत और
श्वेत दुनिया के बीच जीना सीख रहा था। यह समझ रहा था कि दोनों की अपनी-अपनी भाषा, रीति-रिवाज और
चीजों के अपने-अपने अर्थ थे। मुझे विश्वास था कि मेरी तरफ से थोड़ा तालमेल बैठाने
से दोनों दुनिया के बीच अन्ततः निकटता आ सकती थी। फिर भी, मुझे यह बोध बना
रहता कि कुछ गड़बड़ था। जब भी कोई गोरी लड़की बातचीत के बीच में कहती कि उसे
स्टीवी वण्डर कितना पसन्द था या सुपर मार्केट में कोई महिला मुझसे पूछ बैठती कि
क्या मैं बास्केट बाल खेलता था या स्कूल के प्रिसपल कहते कि मैं अच्छा लड़का था तो
लगता कि कोई चेतावनी दी जा रही थी। मुझे स्टीवी वण्डर पसन्द थे। मुझे बास्केट-बाल
अच्छा लगता था और मैं हमेशा अच्छा लड़का बनने की पूरी कोशिश करता रहता था तो फिर
इस तरह की टिप्पणियां मुझे परेशान क्यों करती थीं? कहीं कोई चाल
जरूर थी। यद्यपि मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि चाल क्या थी? कौन चाल चल रहा
था और किस पर चाल चली जा रही थी?’’[xxvi]
तमाम मन्थन के उपरान्त बराक ओबामा को दुनिया का
दूसरा नक्शा दिखने लगा था जो अपनी सरलता में डरावना था और जिसके प्रभाव दमघोटू लग
रहे थे। बकौल ओबामा- ‘‘इस तर्क के बाद एक ही विकल्प बचता था कि आप
आक्रोश के वृत्त में घिर जाएं या यह मान लें कि अश्वेत होने का मतलब था, आपकी शक्तिहीनता, आपकी पराजय और
अन्तिम विडम्बना यह कि अगर आप हार मानने से इन्कार करते और कैद करने वालों पर
आक्रोश प्रकट करते तो उनके पास इसके लिए एक विशेषण होता जो आपको वैसे ही पिंजरे
में कैद कर सकता। असुरक्षा बोध से ग्रस्त उग्रवादी, हिंसक नीग्रो।’’[xxvii]
असुरक्षा बोध की स्थिति में व्यक्ति
मनोवैज्ञानिक तौर पर टूट जाता है और वह कुछ कर नहीं पाता है। इस असुरक्षा बोध से
उबरने की परिणति में लिखी गई यह आत्मकथा और इस आत्मकथा का लेखक सामाजिक परिवर्तन
के लिए अपने समाज को संगठित करने का निर्णय लेता है। बकौल बराक ओबामा- ‘‘1983 में मैंने
कम्युनिटी आर्गनाइजर (सामुदायिक संगठनकर्ता) बनने का फैसला किया ............ मैं
परिवर्तन की जरूरत के बारे में बताने लगा। व्हाइट हाउस में परिवर्तन के बारे में, जहां रीगन और
उसके कारिन्दे अपने गन्दे काम कर रहे थे। कांगे्रस में परिवर्तन के बारे में, जो पिछलग्गू और
भ्रष्ट हो गई थी। देश के मूड में परिवर्तन के बारे, जो उन्मादी और
आत्मलिप्त हो रहा था। मैं कहता कि परिर्वन ऊपर से नहीं आएगा, यह जमीन के स्तर
पर लोगों को सक्रिय करने से आएगा................ और मैं यही करूंगा। मैं अश्वेतों
को संगठित करूंगा निचले स्तर पर परिवर्तन के लिए।’’[xxviii]
इसके बाद बराक ओबामा शिकागो पंहुचते हैं जो
अमेरिका का सबसे अलग-थलग पड़ा शहर है। दुनिया के लिए सुअर का कसाई है। एक अश्वेत
हेरोल्ड वाशिंगटन, जहां कुछ दिन पहले मेयर चुने गए और श्वेतों ने
इसे पसन्द नहीं किया। हेरोल्ड, वरिष्ठ डाले की मृत्यु के तुरन्त बाद, एक बार पहले
मेयर का चुनाव लड़ चुके थे लेकिन हार गए थे। लोगों ने बताया, वह अपमानजनक था।
अश्वेत समुदाय में एकता की कमी थी। कुछ सन्देहों का निवारण होना था लेकिन हेरोल्ड
ने फिर कोशिश की और लोग इस बार तैयार थे। प्रेस ने उनपर आयकर न जमा करने के आरोपों
को उछाला लेकिन लोग उनके साथ जुड़े रहे। जब श्वेत डेमोक्रेटिक कमेटी वाले
वर्दोल्याक और दूसरों ने यह कहते हुए रिपब्लिकन उम्मीदवार को समर्थन दिया कि
अश्वेत मेयर हुआ तो शहर नरक बन जाएगा, तब लोग हेरोल्ड के पीछे
एकजुट हो गए।’’[xxix]
बराक ओबामा ने अपने ओजस्वी भाषण द्वारा व्यक्तिगत मुक्ति की
राह में आए प्रश्नों को उखाड़ फेंका। उन्होंने बकायदा अश्वेत राजनीति का आधार
तैयार किया। ईमानदारी से आत्म विवेचना करते हुए इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि ‘‘श्वेत इतने
निष्ठुर और घाघ है कि उनसे हम कोई अपेक्षा नहीं कर सकते।’’[xxx]
उन्होंने नशाखोरी और चोरी की प्रवृत्ति के खिलाफ
आन्दोलन चलाया और हताशापूर्ण दौर में आत्मसम्मान बहाल करने हेतु कई महत्वपूर्ण कदम
उठाए। उनके भाषण लोगों के बीच उथल-पुथल मचा देते थे। बराम ओबामा ने अश्वेत समाज को
ललकारते हुए कहा कि ‘‘गुलामी को अपने दिमाग से निकाल दो और अपनी असली
शक्ति को मुक्त कर लो। जागो, उठो, ओ शक्तिशाली कौम!’’
इस प्रकार बराक ओबामा की यह आत्मकथा न सिर्फ
नस्लीय भेद की त्रासदी को उजागर करती है, वरन् नस्लीय भेद के अभेद्य
दुर्ग को तोड़ते हुए उससे उबरने की परिणति के रूप में आई है। बराक ओबामा की इस
आत्मकथा के माध्यम से सारा विश्व अश्वेत समाज की समस्याओं से परिचित हुआ और अश्वेत
समाज की समस्या सामाजिक विमर्श का केन्द्र बन गया। यह आत्मकथा बराक ओबामा के जीवन
संघर्ष और आन्दोलन से उपजी है जिसके कारण व्हाइट हाउस में ब्लैक ओबामा का प्रवेश
सम्भव हो सका। निश्चय ही यह कृति समाज की उन स्वार्थ प्रेरित दलीलों को आइना दिखाने
में कामयाब होगी, जो वर्चस्ववादी सामाजिक व्यवस्था की आड़ में
स्वार्थ की रोटी सेंक रहे हैं।
संदर्भः
[ii]बराक ओबामा, पिता से मिले
सपने, प्रकाशक-अरविन्द
कुमार पब्लिशर्स, सी-1/324, पालम विहार, गुड़गांव-122017, संस्करण 2009 पृष्ठ सं.-xvi
[iv]अपनी किताब को
मैं हथियार समझता हूं- शरण कुामर लिम्बाले, उत्तर प्रदेश, दलित साहित्य विशेषांक, सम्पादक विजय राय, सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, पार्क रोड, लखनऊ-सितम्बर-अक्टूबर, 2002, पृष्ठ-160
[v]बराक ओबामा, पिता से मिले
सपने, प्रकाशक-अरविन्द
कुमार पब्लिशर्स, सी-1/324, पालम विहार, गुड़गांव-122017, संस्करण 2009 पृष्ठ सं.-xvi
सम्पर्क -मृदुला खुराना शोध
छात्रा, मानव भारती विश्वविद्यालय,सिलोन, हिमाचल प्रदेश
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