गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

ब्लूमफिल्ड का भाषा चिंतन - सुश्री चारु गोयल



ब्लूमफिल्ड का भाषा चिंतन
- सुश्री चारु गोयल
              19 वीं शती के अंत और 20 वीं शती के  आरम्भिक वर्षौं में जब सस्यूर यूरोप में अपने विचारों को प्रस्तुत कर रहे थे, उसी समय अमेरिका में नतृत्वशास्त्री फ्रेंज बोआस के नेतृत्व में एककालिक भाषा विज्ञान (जो कि सस्यूर की ही देन है) स्वतंत्र और एक अलग अंदाज में फल-फूल रहा था। संरचनात्मक भाषाविज्ञान की यह धारा सपीर व ब्लूतफिल्ड से होती हुई हॉकिट एवं हैरिस आदि में समृद्ध होती हुई वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के रूप में अपने चरम पर पहुंचती है। इसी के समांतर व्यवहारवाद (behaviorism) की परम्परा चली आ रही थी,जिसने वर्णनात्मक भाषाविज्ञान को दूर तक प्रभावित किया। रूसी वैज्ञानिक पावलव,वाटसन व बी.एफ.स्किनर का प्रभाव व्यवहारवाद के चिंतन पर पड़ा है। ब्लूमफिल्ड इसी चिंतनधारा की उपज है।
       शिकागो में जन्में (1887-1949) लियोनार्डो ब्लूमफील्ड पढने में सामान्य थे। स्नातकीय शिक्षा के लिए ब्लूमफील्ड ने विस्कॉन्सिन वश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और वहां जर्मन भाषा के विद्वान और भाषा विज्ञान के प्राध्यापक प्रोकोश (E.Prokosh) से उनकी भेंट हुई। उन्हीं के प्रभाव से ब्लूमफील्ड की संसक्ति भाषाविज्ञान से हुई। यों तो इन्होंने भाषा विश्लेषण की बड़ी प्रभावी पद्धति का सूत्रपात किया किंतु इनकी भाषाविज्ञान के क्षेत्र में जो सबसे बड़ी देन है, वह है भाषा के अध्ययन को वैज्ञानिक आधार देना। बर्नड ब्लॉक के शब्दों में - "इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि ब्लूमफील्ड का सर्वोच्च योगदान यह था कि उन्होंने भाषिक अध्ययन को विज्ञान बना दिया।''
    ब्लूमफील्ड ने विचारों की निष्पत्ति में पूर्वापर विद्वानों की मान्यताओं से प्रभाव ग्रहण किया है। जहां एक ओर प्राचीन भारतीय चिंतन की उन्होने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है,वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य विद्वानों सस्यूर, बोआज और प्रोकोश के अतिरिक्त मनोविज्ञानवेत्ता कुंडट, वाटसन और वीज के नाम विशेष रूप से उल्लेख्य है। पाणिनीय व्याकरण के बारे में आपने लिखा है - "यह व्याकरण मानव बुद्धि के कीर्ति स्तंभों में से एक है।''
वस्तुत: ब्लूमफील्ड उन अमेरिकी वैज्ञानिकों की परम्परा के शिखर पुरुष हैं जो नृतत्व विज्ञान की नयी धारा के संदर्भ में अज्ञात संस्कृतियों और भाषाओं के अध्ययन के लिए एक नयी पद्धति की खोज में थे। मनोविज्ञान का व्यवहारवाद और दर्शन का प्रत्यक्षवाद इस नये अध्ययन का आधार बना ।जो प्रत्यक्षत: सामने है,उसी को अध्ययन का आधार मानना तथा उसी के संदर्भ में वर्णन प्रस्तुत करना इस पद्धजि का लक्ष्य है
इस मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक आधार पर भाषाओं और समाजविज्ञान आदि क्षेत्रों में अध्ययन की एक नयी शाखा खुली जो प्रत्यक्ष तथ्यों का ही विश्लेषण करती है और प्रप्त सामग्री के आधार पर वर्णन प्रस्तुत करती है। ब्लूमफील्ड इसी वर्णनात्मक भाषाविज्ञान की शाखा के प्रमुख सिद्धांतकार हैं।
ब्लूमफील्ड की पहली पुस्तक "भाषा के अध्ययन की भूमिका' (an introduction to the study of language) सन् 1914 में प्रकाशित हुई। सन् 1933 में इन्होंने बहुचर्चित "भाषा'(language) नामक पुस्तक का प्रणयन किया ।पांच सौ से कुछ अधिक पृष्ठों की यह पुस्तक एक वृहद ग्रंथ है। इसमें ब्लूमफील्ड ने मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक आधार पर प्राप्त तथ्यों को प्रस्तुत किया है।यह सिद्धांत पूर्ववर्ती भाषावैज्ञानिक चिंतन से कितना भिन्न और नया है, इसका अंदाज इसी से हो जाता है कि इस चिंतन का लगभग पच्चीस वर्षौं तक निरंतर विकास होता रहा ।
    "लैंग्विज'’ पुस्तक को तो विद्वाने ने भाषाविज्ञान की बाइबिल का दर्जा दिया है। मेरे इस लेख में ब्लूमफील्ड के भाषा विश्लेषण का आधार भी यही पुस्तक है। यहां उसके कुछ प्रमुख बिंदुओं पर प्रकाश डाला जा रहा है। ब्लूमफील्ड का भाषा विश्लेषण इस उक्ति से प्रारम्भ होता है कि भाषा हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हमसे इसप्रकार जुड़ी है जैसे सांस लेना और चलना। भाषा का यह रूपमूलत: उच्चरित है, लिखित नहीं। लिखित रूप तो उच्चरित भाषा को दृश्य रूप प्रदान करने का एक जरिया मात्र होता है।
''Writing is not language but merely a way of recording language by means of visible marks''
-    Language, page 21
अत: भाषा विज्ञान के अध्ययन की वस्तु उच्चरित भाषा ही होती है। भाषा का मानक या सभ्य समाज में व्यवह्मत रूप किन्हीं सामाजिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न स्थितियां हैं। वही एकमात्र भाषा नहीं है। सामान्य परिस्थितियों में होने वाला कोई भी वाक् व्यवहार भाषा के अध्ययन का विषय हो सकता है। ये तो हम सभी जानते हैं कि भाषा एक सामाजिक व्यवहार है जो समाज में विचारों के आदान प्रदान का एक सशक्त माध्यम है। भाषा से इतर व्यवहार भी सम्प्रेषण के काम आता है। जैसे प्यास लगने पर "पानी चाहिए' कह सकते हैं अथवा इशारा भी कर सकते हैं। इस प्रकार हम व्यवहार के रूप में भाषा को देख सकते हैं और अध्ययन कर सकते हैं।
ब्लूमफील्ड का मानना है कि भाषा का पूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन तभी सम्भव है जब भाषाविज्ञान मात्र अपने पैरों पर खड़ा हो तथा भाषा वक्ता के मानसिक पक्ष से न जोड़ी जाकर प्रतिक्रिया स्वरूप मौखिक व्यवहार के रूप में ली जाये। उनके अनुसार भाषा के अध्ययन के लिए मन में अंकित अर्थ को जानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम नहीं जानते कि मन में क्या होता है। मनोवादियों के विपरीत यांत्रिक दृष्टिकाण (mechanistic view) की स्थापना करते हुए ब्लूमफील्ड ने भाषा को उद्दीपक (stimulus) की अनुक्रिया (response) कहा है।
''The mental processes or internal bodily processes of other people are known to each one of us only from speech - utternces and other observable actions"
                                                                                   -language,page143
     उन्होंने माना कि मन की प्रक्रिया पता भी हमें वाक् व्यवहार से चलता है। इसीलिए वे प्रत्यक्ष भाषा वस्तु को ही अपने अध्ययन की वस्तु मानते हैं।
"Language enables one person to make a reaction(R) when another  person has the stimulus(S)"
                                                                                         -language, page24
     सामान्य व्यवहार में दो घटनाएं एक घटनाक्रम में देखी जा सकती हैं। पानी के लिए इशारा करना,पहली घटना/व्यापार है। दूसरे व्यक्ति का पानी ला देना प्रभावित व्यापार है। पहला व्यापार प्रेरणा है, दूसरी प्रतिक्रिया है। जैसे -
 क. इस कमीज का रंग क्या है?
 ख. इस कमीज का रंग सफेद है।
      इसमें पहली उक्ति प्रेरण है, दूसरी प्रतिक्रिया है। दूसरे कथन से प्रभावित एक और उक्ति हो सकती है-
     "यह कमीज किसकी है?'
यहां दूसरे वक्ता की अनुक्रिया पहले वक्ता के लिए उद्दीपक का कार्य कर रही है। इस तरह का एक लम्बा वार्तालाप उद्दीपक और अनुक्रिया की श्रृंखाला के रूप में देखा जा सकता है-ब्लूमफिल्ड के भाषाई-विश्लेषण की सबसे बड़ी खासियत से जो मैं रूबरू हुई, वह यह है कि इन्होंने भाषा के जिन भी तत्वों का विश्लेषण किया, उसके उदाहरण सामान्य जीवन की घटनाओं से उठाये और एक भाषिक इकाई की बात करते-करते उससे जुड़े अन्य पहलुओं में भी अपने विचारों को संक्रमित किया। यहां उद्दीपन और अनुक्रिया पर चर्चा करते-करते वाक् उच्चारण में ध्वनी उच्चारण, ध्वनी प्रसरण और ध्वनी श्रवण की ओर संकेत किया गया है। ब्लूमफिल्ड की लेखन शैली और अभिव्यक्ति इतनी परिशुद्ध तथा प्रभावशाली थी कि अधिकांश व्याख्यात्मक प्रयासों में मूल ग्रंथ से ही उद्धरण लिये गये हैं।
व्यवहारवाद के मूल सिद्धांत "अनुकरण' की बात करते हुए ब्लूमफील्ड ने कहा कि बालक सही स्थिति में सही प्रतिक्रिया को देखता है,उसका अनुकरण करता है और भाषा सीखता है। हालांकि आज ब्लूमफील्ड की स्थापना को अंशत: ही सही माना जाता है। समाजभाषाविज्ञान के रूप में भाषा के अलग अध्ययन की नींव तो बाद में पड़ी,किंतु ब्लूमफील्ड "भाषा' पुस्तक के तीसरे अध्याय "भाषायी समाज' (Speech Community) में भाषा के समाज सापेक्ष अध्ययन की ओर इशारा कर चुके थे -  "A speech community is a group of people who interact by means of speech"
- Language,page42
भाषायी समाज किसी ऐसे समाज को कहते हैं जिसके सदस्य विचारों की अभिव्यक्ति करने तथा भाषिक अभिव्यक्ति के माध्यम से एक-दूसरे को समझने की दृष्टि से आपस में बंधे होते हैं। इस तरह समाज भाषाविज्ञान में प्राय: प्रयुक्त हाने वाली यह अत्यंत महत्वपूर्ण संकल्पना-"भाषायी समाज'
 समाजभाषाविज्ञान को ब्लूमफील्ड की प्रत्यक्ष देन होकर इस अपेक्षाकृत नये विषय से उन्हें कितना जोड़ देती है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।
भाषा की प्रकृति की इस महत्वपूर्ण और युग प्रवर्तक चर्चा के बाद ब्लूमफील्ड का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान है-भाषा की संरचना और व्यवस्था की चर्चा। मिनॉमिनी भाषा को लेकर किसी भाषा के ध्वनी,शब्द,रूप तथा वाक्य तीनों स्तरों पर पर विश्लेषण करने का सफल प्रयास सर्वप्रथम ब्लूमफील्ड ने ही किया। उन्होंने ध्वनियों से लेकर वाक्य तक संरचना का एक अधिक्रम स्थापित किया और उसे व्यतिरेक (Contrast) व प्रतिस्थापन (Substition) की सहायता से संक्रियात्मक आधार दिया। इस अधिक्रम को हम निम्नलिखित आरेख द्वारा स्थापित कर सकते हैं:-
    उद्दीपक       अनुक्रिया उद्दीपक
                                                                                       
                              अनुक्रिया उद्दीपक          अनुक्रिया      अधिक्रम
                                                      
    ब्लूमफिल्ड के भाषाई-विश्लेषण की सबसे बड़ी खासियत से जो मैं रूबरू हुई,वह यह है कि इन्हाने भाषाके जिन भी तत्वों का विश्लेषण किया ,उसके उदाहरण सामान्य जीवन की घटनाओं से उठाये और एक भाषिक इकाई की बात करते-करते उससे जुड़े अन्य पहलुओं में भी अपने विचारों को संक्रमित किया। यहां उद्दीपन और अनुक्रिया पर चर्चा करते-करते वाक् उच्चारण में ध्वनि उच्चारण, ध्वनी प्रसरण और ध्वनी श्रवण की ओर संकेत किया गया है।
ब्लूमफिल्ड की लेखन शैली और अभिव्यक्ति इतनी परिशुद्ध तथा प्रभावशाली थी कि अधिकांश व्याख्यात्मक प्रयासों में मूल ग्रंथ से ही उद्धरण लिये गये हैं।
       व्यवहारवाद के मूल सिद्धांत "अनुकरण' की बात करते हुए ब्लूमफील्ड ने कहा कि बालक सही स्थिति में सही प्रतिक्रिया को देखता है,उसका अनुकरण करता है और भाषा सीखता है। हालाकि आज ब्लूमफील्ड की स्थापना को अंशत: ही सही माना जाता है।
समाजभाषाविज्ञान के रूप में भाषा के अलग अध्ययन की नींव तो बाद में पड़ी,किंतु ब्लूमफील्ड "भाषा' पुस्तक के तीसरे अध्याय "भाषायी समाज' (Speech Community) में भाषा के समाज सापेक्ष अध्ययन की ओर इशारा कर चुके थे।
"A speech community is a group of people who interact by means of speech"
-    Language, page42
भाषायी समाज किसी ऐसे समाज को कहते हैं जिसके सदस्य विचारों की अभिव्यक्ति करने तथा भाषिक अभिव्यक्ति के माध्यम से एक-दूसरे को समझने की दृष्टि से आपस में बंधे होते हैं। इस तरह समाजभाषाविज्ञान में प्राय: प्रयुक्त हाने वाली यह अत्यंत महत्वपूर्ण संकल्पना - "भाषायी समाज' समाज भाषाविज्ञान को ब्लूमफील्ड की प्रत्यक्ष देन होकर इस अपेक्षाकृत नये विषय से उन्हें कितना जोड़ देती है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। भाषा की प्रकृति की इस महत्वपूर्ण और युग प्रवर्तक चर्चा के बाद ब्लूमफील्ड का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान है-भाषा की संरचना और व्यवस्था की चर्चा। मिनॉमिनी भाषा को लेकर किसी भाषा के ध्वनी,शब्द,रूप तथा वाक्य तीनों स्तरों पर पर विश्लेषण करने का सफल प्रयास सर्वप्रथम ब्लूमफील्ड ने ही किया। उन्होंने ध्वनियों से लेकर वाक्य तक संरचना का एक अधिक्रम स्थापित किया और उसे व्यतिरेक (Contrast) व प्रतिस्थापन (Substition) की सहायता से संक्रियात्मक आधार दिया। इस अधिक्रम को हम निम्नलिखित आरेख द्वारा स्थापित कर सकते हैं:-
 
         


ब्लूमफील्ड के भाषा सम्बंधी यांत्रिक विचार उनके ध्वनि विषयक विचारों में भी दृष्टिगत होते हैं। यथा स्वनिम की परिभाषा ब्लूमफील्ड ने एकाधिक स्थानों पर दी है। अपनी पुस्तक "भाषा' में आपने "प्रभेदक ध्वनी लक्षणों की लघुत्तम'' इकाई के रूप में स्वनिम को परिभाषित किया है - “A minimum unit of distinctive sound feature” स्वनिम के उन्होने मूलत: दो भेद किये हैं-मुख्य( स्वर,व्यंजन) तथा गौण(बलाघात,अनुतान आदि) । आगे मुख्य को मूल तथा संयुक्त (संयुक्त स्वर) दो उपभेद किये हैं।उन्होने एक महत्वपूर्ण बात कही कि किसी भाषा के स्वनिमों की पहचान तुलना के आधार पर हो सकती है। ब्लूमफील्ड  ने स्वनिमों को अविभाज्य कहा। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है - जैसे शब्द 'Pin'में तीन स्वनिम हैं। इनमें से पहला Pet,Pack,Push  और अन्य शब्दों से बना है।दूसरा Fig,Hit,Miss आदि अनेक शब्दों से बना है एवं तीसरा Tan,Run,Hen आदि से। किंतु इन सभी शब्दों में क्रमश: P,I,N तीन स्वनिम होते हुए भी ध्वनी उच्चारण में भिन्नता हैं। अत: कहा जा सकता है कि - "ये परिच्छेदक अभिलक्षण समूह में मिलते हैं और प्रत्येक एक स्वनिम कहलाता है'' -भाषा, पृष्ठ 87
रूप प्रक्रिया पर भी ब्लूमफील्ड ने सविस्तार चर्चा की है। उन्होंने लिखा है-
"By the Morphology of a language we mean the construction in witch bound forms appear among the constituents_ _ _ _ _ _ the resultant forms are either bound forms or words, but never phrase"
- Language, page207
अर्थात किसी भाषा की रूप-प्रक्रिया के अंतर्गत हम उन संरचनाओं पर बात करते हैं जहां आबद्ध रूप संरचक बन कर तो आयेंगे कितुं पदसंहति कभी नहीं होंगे।यही कारण है कि रूप-प्रक्रिया और वाक्य-प्रक्रिया में अंतर किया जाता है।रूप-प्रक्रिया में शब्द तथा शब्दांश की संरचनाओं पर विचार करते हैं तो वाक्य-प्रक्रिया में वाक्यांशों की संरचना पर। व्याकरणिक संरचना में निहित होती है। व्याकारणिक व्यवस्था को ही ब्लूमफील्ड ने "पदिम' (Taxem) कहा है। रूपिम के अर्थ को अर्थिम (Sememe) तथा किसी भाषा के रूपिम भंडार को रूपिम कोश (Texicon) कहा है। इसी प्रसंग में ब्लूमफील्ड ने परिवर्तों की चर्चा की है,जिनमें ध्वन्यात्मक परिवर्त,अनियमित परिवर्तश्शून्य परिवर्त व प्रतिस्थापन परिवर्त आदि मुख्य हैं।
वाक्य पर विचार करते हुए ब्लूमफील्ड कहते हैं कि - "प्रत्येक वाक्य एक स्वतंत्र भाषिक रूप है और वह किसी व्याकरणिक रचना द्वारा अपने से महत्तररूप में अंतर्विष्ट नहीं है।'' (भाषा,पृष्ठ-199)  इसका अर्थ यह हुआ कि  उनके अनुसार वाक्य भाषा की वृहत्तम इकाई है। अमरीकी संरचनात्मक भाषाविज्ञान में मुख्यत:ध्वनी व रूप के अध्ययन पर ही ध्यान केन्द्रित किया गया है। वाक्य के क्षेत्र में उनकी मुख्य देन निकटस्थ अवयव (Immediate Constitued) की दृष्टि से विश्लेषण है। "Immediate Constitued'' उन्हीं का बनाया शब्द है।
"वाक्य' एक भाषिक संरचना है जो रूपिमों से बनती है। वाक्य को बनाने वाले ये रूपिम ही वाक्य के अवयव (Constituent) कहलाते हैं और जो अवयव सन्निकट होते हैं,वे निकटस्थ अवयव कहलाते हैं। यह निकटता स्थान की न होकर सम्बंधों की होती है।जैसै - "बेचारा मोहन मारा गया'' इसमें दो निकटस्थ अवयव हैं-"बेचारा मोहन' तथा 'मारा गया'।फिर इन दोनों में क्रमश: दो-दो निकटस्थ अवयव हैं- ‘बेचारा' और ‘मोहन' तथा ‘मारा' और ‘गया'। यह विश्लेषण द्विचर ú(Binary) विश्लेषण है। किंतु कभी-कभी त्रिचर और चतुश्चर विश्लेषण भी हो सकता है।
      निकटस्थ अवयव विश्लेषण में दो प्रकार की रचनाएं देखने में मिलती हैं- अंत:केंद्रित (Endocentric) और कहिष्केंद्रित (Excocentric) इन दोनों में स्पष्ट अंतर सर्वप्रथम ब्लूमफील्ड ने किया।अंत:केंद्रित रचना वहाँ होती है जहाँ रचना का एक अवयव पूरी रचना के स्थान पर आ सकता है।जैसे- "अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र राम वन को गये',में 'अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र राम' अंत:केंद्रित रचना है क्योंकि इसके स्थान पर वाक्य में इसी रचना का एक अवयव ‘राम' भी आ सकता है-"राम वन को गये'। इसके विपरीत बहिष्केंद्रित रचना है- " राम वन को गये'। इसमें न तो ‘राम', ‘राम वन को गये' के स्थान पर आ सकता है और न ही ‘वन को गये' ‘राम' के स्थान पर आ सकता है।
      ब्लूमफील्ड पर प्राय: यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने भाषा के अर्थ पक्ष पर सार्थक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत नहीं किसे । वास्तव में ब्लूमफील्ड का मानना था कि बोलना अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है,यदि उसका अर्थ न हो। ब्लूमफील्ड कहते हैं कि किसी भाषिक रूप का अर्थ "वह स्थिति जिसमें वक्ता उसका इस्तेमाल करता है' तथा ‘वह अनुक्रिया जो उससे श्रोता में उत्पन्न होती है' में निहित होता है।
ऐसी स्थिति में किसी भाषिक रूप के अर्थ कोक ठीक-ठीक तभी बतलाया जा सकता है जब उसका सम्बंध किसी ऐसी चीज से हो,जिसकी हमें वैज्ञानिक जानकारी हो। वे कहते हैं कि - "भाषा के प्रत्येक रूप के अर्थ की वैज्ञानिक एवं यर्थाथ परिभाषा देने के लिए हमें वक्ता के संसार में प्रत्येक वस्तु का वैज्ञानिक एवं यर्थाथ ज्ञान आवश्यक है। इसकी तुलना में मानवीय ज्ञान की वास्तविक परिधि अत्यंत छोटी और सीमित है''। इसलिए अर्थ के ठीक अध्ययन में भाषाविज्ञान बहुत समर्थ नहीं है तथा यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि हम उपर्युक्त बातों का वस्तुपरक अध्ययन करने की स्थिति में न आ जाएं।
     इसी आधार पर ब्लूमफील्ड के परवर्तियों - हैरिस, ग्लीसन, हॉकिट आदि ने भाषा के अन्य पक्षों को तो लिया लेकिन अर्थ पर विचार प्रकट नहीं किये। लेकिन वास्तविक सत्य तो यह है कि ब्लूमफील्ड ने अपने विश्लेषण में स्वनिमविज्ञान तथा रूपिमविज्ञान दोनों में ही अर्थ की सहायता ली है।इस प्रकार कहा जा सकता है कि ब्लूमफील्ड का भाषायी विश्लेषण अर्थ पक्ष से नितांत अछूता नहीं है।इन विषयों के अतिरिक्त ऐतिहासिक भाषाविज्ञान तथा बोली-भूगोल आदि पर भी ब्लूमफील्ड ने विचार किया है। इस प्रकार भाषाविज्ञान के बहुत से क्षेत्र उनके चिंतन से लाभान्वित हुए हैं।
वास्तव में ब्लूमफील्ड का सिद्धांत अपने मनोवैज्ञानिक आधार के कारण नहीं,बल्कि भाषा की रचना के विश्लेषण की सूक्ष्तता और निश्चितता के कारण बहुत प्रचलित हुआ। इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि चॉमस्की को भी अपने भाषायी चिंतन को स्थापित करने के लिए ब्लूमफील्ड से बार-बार दो चार होना पड़ा था। बर्नड ब्लॉक के शब्दों में - " यदि आज हमारी प्रणालियां किसी सीमा तक उनकी प्रणालियों से श्रेष्ठतर हैं,यदि संरचना के उन पक्षों को जिन्हें सर्वप्रथम उन्होंने प्रकट किया था,हम उनकी अपेक्षा अधिक स्पष्टा से देखते हैं तो इसका एकमात्र कारण है कि हम उनकी विद्वता के उत्तराधिकारी हैं'' (आधुनिक भाषाविज्ञानकी भूमिका से)
                                              
 संदर्भ ग्रंथ सूची
1. ब्लूमफील्ड, अनुवादक-डॉ विश्वनाथ प्रसाद, भाषा (ब्लूमफील्ड की लैंग्वेज का अनुवाद), प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1968
2. गुप्त व भटनागर, आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका, प्रकाशक-राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी,जयपंर, प्रथम संस्करण 1974
3. डॉ रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव (संपादक), भाषाशास्त्र के सूत्रधार, प्रकाशक - मयूर पेपरबैक्स, नौएडा प्रथम संस्करण -2002
4. Leeonard Bloomfield,Language, Publisher - The University of Chigo press, Chigo and London, first edition-1933


सम्पर्क – सुश्री चारु गोयल, शोधार्थिनी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्याल्य, दिल्ली 

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