लेखकों की यह पीढ़ी साहित्यिकता और लोकप्रियता के दोनों स्तरों पर तो खरी उतरती ही है, उनकी रचनाएं उस समय के कटु यथार्थ को भी उतनी ही तल्खी से पेश करती है। पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ऐसे ही लेखकों में एक हैं। बाद के लेखकों ने प्रायः लोकप्रियता को एक गाली के रूप में देखा और उससे किनारा करना शुरू कर लिया। लोकप्रियता को व्यावसायिकता से जोड़कर देखा जाने लगा। इस समझ ने साहित्य औक साहित्यकारों को दो खेमों में बांटने का काम किया। इससे सर्वाधिक नुकसान साहित्य के उद्देश्य को लेकर हुआ। साहित्य के केन्द्र में जो गरीब किसान, मजदूर या पददलित थे, वे उसके वाचन से महरूम होने लगे। इससे साहित्य का आभिजात्य स्वरूप सामने आया। प्रेमचन्द अंतिम बड़े लेखक हैं जिंहोने किसान-मजदूरों की समस्याओं को उन्हीं की भाषा में कहा है। बाद के तमाम बड़े लेखक मध्यवर्गीय समस्याओं को उठाने वाले लेखकों के रूप में ही सामने आये। जाहिर है इन्हें पढ़ने वाले भी वही मध्यवर्गीय लोग थे। यह सही है कि साहित्य पहले भी निम्नवर्ग के लिए सर्वसुलभ न था लेकिन उसकी स्वीकार्यता ने जो मौखिक रूप धारण किया, उस तक उस निम्नवर्ग की पहुंच अवश्य थी। इस विभाजन से उपजे रिक्त स्थान ने साहित्य के एक बिल्कुल ही नये रूप को जन्म दिया, जिसे हम आज लोकप्रिय साहित्य के नाम से जानते हैं।
लोकप्रिय संस्कृति,
साहित्य
और सिनेमा से निकलने वाले कुछ विचार-सूत्र साहित्य,
संस्कृति
और सिनेमा के माध्यम से सीधे समाज से संवाद करते है, उसमें
हलचल पैदा करते है। ‘लोकप्रियता’
का
यह अंश इसी संदर्भ में समाज से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर हमारा ध्यान आकृष्ट
करता है,
आखिर
वह साहित्य जिसे हमारा ‘लोकवृत’
(पब्लिक
स्फीयर)
लोकप्रिय,
बाजारू,
घटिया,
घासलेटी,
सड़क
या पटरी,
सतही
या चवन्नी छाप साहित्य कहकर प्रायः बड़ी ही आसानी से नकार देता
है,
समाज के किस हिस्से का नेतृत्व करता है, कौनसी संस्कृति का निर्माण करता है?
और
वह सिनेमा से किस रूप में
प्रभावित होती है?
फिर
भारत में टेलीविजन के आगमन ने तो इसे गहरे रूप में प्रभावित किया ही है। पहले जहां इनका स्वरूप
सामूहिक था, बाद में वह एकल होता चला गया। आज उसके वर्चुअल रूप भी सामने आ रहे हैं,
जिनके माध्यम से इसने हमारे सामूहिक और दृश्यमान लोकप्रिय रूपों का स्थानांतरण भी किया
है। ऐसे में लोकप्रिय संस्कृति, साहित्य,
सिनेमा
और समाज पर इसके प्रभाव को समझना निहायत जरूरी हो जाता है।
‘लोकप्रिय
संस्कृति’ अंग्रेजी
के ‘पापुलर
कल्चर’ शब्द
का हिंदी
अनुवाद है।
‘सांस्कृतिक अध्ययन’
(कल्चरल स्टडीज)
के क्षेत्र
में संस्कृति
के लोकप्रिय
रूपों के
अध्ययन करने
पर जोर
दिया जाता है ताकि
जनसमुदाय में
बड़े पैमाने
पर विकसित
हो रही
‘नयी आकांक्षाओं’
को ‘नये
बाजार’ के
रूप में
समझा जा
सके। यह
नया बाजार
जैसी उपभोक्तावादी संस्कृति निर्मित
कर रहा
है, और यही
संस्कृति प्रायः हमारी
नयी पीढ़ी
को तथाकथित
रूप से
संस्कारित करने
का काम
करती है।
समाज में
मौजूद सभी
लोकप्रिय रूपों,
चाहे वे
पर्व या
त्यौहार होने
के नाते
धर्म से
जुड़े हों
या फिर
लोक कला,
नाटक एवं
संगीत आदि
से संबंधित
होने के
कारण हमारे
समाज के
विभिन्न क्षेत्रों
से, हमें
सीधे प्रभावित
करते हैं।
इसलिए ‘लोकप्रिय संस्कृति’
के इन
नये रूपों
से मुंह
मोड़कर चलना
आज संभव
ही नहीं
है। सुधीश
पचौरी ने
अपने प्रसिद्व
निबन्ध ‘पापुलर
कल्चर’ में
लिखा है
कि ‘‘रामलीला,
रासलीला गरबा,
डांडिया, तमाशा,
स्वांग, नौटंकी,
आदि तमाम
सांस्कृतिक रूप,
शादी-ब्याह, संगीत
आदि तमाम
लोककलाएं, लोकनाट्य,
लोकगीत, लोकसंगीत
सब लोकप्रिय
संस्कृति के
वर्ग में
रखे जा
सकते हैं।
उनमें पापुलर
होने का
तत्व होता
है। वे
एक समाज
में पापुलर
होते हैं।
एक समूह
में होते
हैं और
उसके जीवन
से गहरे
जुड़े होते
हैं। ‘लोकप्रिय’
के अर्थ
में पापुलर
होने का
एक बड़ा
कारण उन
रूपों का
आनंददायक मनोरंजक
होना होता
है।”[i]
उक्त संदर्भ में लोकप्रिय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण
तत्व के रूप में ‘लोकप्रिय साहित्य’ को भी आसानी से देखा-समझा जा सकता है। ‘लोकप्रिय संस्कृति’ तेजी से विकसित हो रही समाज की जनअभिरूचियों
के आधार पर अपना रूप परिवर्तित करती है और कर रही है। समाज और संस्कृति के बहुत से
सत्ता-प्रतिष्ठानों को सीधे प्रभावित करती है। प्रेस की स्थापना के बाद से और विशेष
रूप से प्रेस के लोकतांत्रिक रूप से प्रयोग के बाद से साहित्यिक प्रकाशन भी इसमें अपनी
एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करते आये हैं। आज संस्कृति एक विशाल औद्यागिक संरचना का रूप ग्रहण कर
चुकी है और संस्कृति के प्रायः सभी लोकप्रिय तत्वों
को एक विराट संस्कृति उद्योग का रूप देने में आधुनिक संचार साधनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण
रही है। जैसा कि ‘संस्कृति उद्योग’ में थियोडोर अदोर्नो ने लिखा है कि- ‘‘आधुनिक संचार माध्यमों के पाठक या श्रोता जितना भी
अस्पष्ट और असंगठित प्रतीत होते हैं उन्हें एकताबद्ध करने का उतना ही ज्यादा प्रयास जन संचार माध्यम
करते हैं। लोकप्रिय उपन्यासों में अनुकूलता या परंपरावाद के आदर्श शुरू से ही अंतरनिहित थे। फिर भी, इन आदर्शों को अब बिल्कुल ही स्पष्ट नुस्खे
के रूप में बदला गया है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है।’’[ii] अदोर्नो का यह कथन स्पष्ट रूप से हमें लोकप्रिय संस्कृति के,
विशेषकर लोकप्रिय उपन्यासों के उन लोकप्रिय तत्वों को समझने की ओर प्रेरित करता है जो पाठकीय रूचि को बदलते या निर्धरित करते हैं। लेकिन इससे पहले यह जानना जरूरी है
कि हिंदी में एक विधा के रूप में उपन्यासों की लोकप्रियता
की शुरूआत कब से और किस रूप में होती है?
हिंदी उपन्यायों
के शुरूआती दौर में बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों ने व्यापक स्तर पर हिंदी की किताबों को पढ़ने की संस्कृति को जन्म किया। उन्हीं
के समानान्तर गोपालराम गहमरी ने यही काम अपनी मासिक पत्रिका
‘जासूस’
के
माध्यम से अनेकानेक जासूसी उपन्यासों के अनुवाद द्वारा किया था। उल्लेखनीय
है कि अनुवाद की इस संस्कृति का पुस्तकों की लोकप्रियता से बड़ा गहरा संबंध होता है,
जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि ‘‘द्वितीय
उत्थान के आरंभ में हमें बाबू
गोपालराम
‘गहमरी’ बंगभाषा के
ग्राहर्स्थ उपन्यासों के अनुवाद में तत्पर मिलते है... भाषा
चटपटी और वक्रतापूर्ण... लिखने का ढंग बहुत ही मनोरंजक
है...।’’[iii] अर्थात् समाज सुधारपरक या उपदेशात्मक
प्रवृति के जिन उपन्यासों (‘देवरानी जेठानी की कहानी’, ‘भाग्यवती’, ‘परीक्षा गुरु’ आदि) के लेखन से हिंदी में उपन्यास-लेखन की शुरूआत होती है, ये उपन्यास
अपनी विषयवस्तु में उनसे बहुत अलग नहीं हैं। अगर ये उनसे अलग हैं भी तो अपनी शैली,
भाषा और बात को कहने के आधार पर उनसे अलग है। प्रारंभिक रूप में हमारे ये कथाकार मौलिक
रूप से बहुत अधिक कृतियां न दे पाने के बावजूद अनुवाद के माध्यम से अपनी भाषा में पढ़ने-लिखने और समझने वाली पाठकीय
संस्कृति को जन्म दे रहे थे। अगर उनकी ‘चटपटी और वक्रतापूर्ण’ या ‘मनोरंजक’ भाषा को दोष न माना जाए तो वे हिंदी में पुस्तक-संस्कृति के निर्माण के महत्त्व और आमजन की भाषा के महत्त्व
को समझते हुए लगातार उसके लिए प्रयासरत थे। स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों
में जिनकी भाषा ‘चटपटी और वक्रतापूर्ण’ या ‘मनोरंजक’ जरूर थी लेकिन उन्होंने ‘हिंदी की पाठकीय संस्कृति’ के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया
है। कालांतर में ‘‘दानीराम प्रेम, जी.पी. श्रीवास्तव और पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ जैसे हिंदी के कई प्रसिद्ध लेखकों ने सनसनीखेज रूमानी उपन्यास लेखन में
खूब हाथ आजमाया। इसी वजह से 1920 के दशक की यही सबसे लोकप्रिय विधा
थी। उनकी कहानियों और उपन्यासों में राष्ट्रवादी और नैतिक चिंताओ के बीच खींचतान और
एक तरफ समाज सुधार तथा दूसरी तरफ व्यावसायिक हितों, मनोरंजन, भावनात्मक फंतासियो और रोमांस के बीच तनाव
दिखाई देते थे।’’ इतिहासकार चारू गुप्ता का उक्त कथन तत्कालीन
समाज में मनोरंजन के तत्वों की पहचान को उभारने में उक्त साहित्यकारों की महत्त्वपूर्ण
भूमिका पर जोर देता है। उस समय जिन रचनाकारों की रचनाएं हिंदी पाठकों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय रही, उन्हें उस
समय हिकारत भरी निगाहों से देखा गया, उनकी रचनाओं को प्रतिबंधित भी किया गया। यह अलग बात है कि आज वही रचनाकार
प्रथम श्रेणी के यथार्थवादी लेखक माने जाते हैं।
लेखकों की यह पीढ़ी साहित्यिकता और लोकप्रियता के दोनों स्तरों पर तो खरी उतरती ही है, उनकी रचनाएं उस समय के कटु यथार्थ को भी उतनी ही तल्खी से पेश करती है। पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ऐसे ही लेखकों में एक हैं। बाद के लेखकों ने प्रायः लोकप्रियता को एक गाली के रूप में देखा और उससे किनारा करना शुरू कर लिया। लोकप्रियता को व्यावसायिकता से जोड़कर देखा जाने लगा। इस समझ ने साहित्य औक साहित्यकारों को दो खेमों में बांटने का काम किया। इससे सर्वाधिक नुकसान साहित्य के उद्देश्य को लेकर हुआ। साहित्य के केन्द्र में जो गरीब किसान, मजदूर या पददलित थे, वे उसके वाचन से महरूम होने लगे। इससे साहित्य का आभिजात्य स्वरूप सामने आया। प्रेमचन्द अंतिम बड़े लेखक हैं जिंहोने किसान-मजदूरों की समस्याओं को उन्हीं की भाषा में कहा है। बाद के तमाम बड़े लेखक मध्यवर्गीय समस्याओं को उठाने वाले लेखकों के रूप में ही सामने आये। जाहिर है इन्हें पढ़ने वाले भी वही मध्यवर्गीय लोग थे। यह सही है कि साहित्य पहले भी निम्नवर्ग के लिए सर्वसुलभ न था लेकिन उसकी स्वीकार्यता ने जो मौखिक रूप धारण किया, उस तक उस निम्नवर्ग की पहुंच अवश्य थी। इस विभाजन से उपजे रिक्त स्थान ने साहित्य के एक बिल्कुल ही नये रूप को जन्म दिया, जिसे हम आज लोकप्रिय साहित्य के नाम से जानते हैं।
हिंदी में
विशुद्ध रूप से लोकप्रिय उपन्यासों की पुर्नस्थापना का प्रयास इब्ने सफी,
गुलशन
नंदा और गुरूदत्त के जासूसी उपन्यासों से प्रारम्भ होता है। इसकी पुनःशुरूआत
जासूसी उपन्यासों से ही इसलिए होती है कि यही वह विधा थी जो उस समय के मुख्यधारा
के साहित्य से बिल्कुल नकार दी गयी थी। ‘झील के उस पार’
उपन्यास
(गुलशन
नंदा)
की
विराट लोकप्रियता ने इसे जनसंचार माध्यमों से जुड़ने का अवसर प्रदान किया। इस
उपन्यास पर एक फिल्म का निर्माण हुआ जो अत्यन्त लोकप्रिय रही। इस उपन्यास की
लोकप्रियता और सिनेमा से उसके जुड़ाव से ‘लोकप्रियता’
की
एक नयी परिभाषा बनी कि पुस्तकें भी इतनी लोकप्रिय हो सकती हैं
कि
उनका पहला संस्करण ही पांच लाख प्रतियों
का हो, लेकिन इसका नकारात्मक पहलू यह था कि इसे पूरी तरह से व्यवसायिक सफलता से
जोड़कर देखा जाना लगा। बाद की पीढ़ी
के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा का लोकप्रिय उपन्यास
‘वर्दी
वाला गुंडा’
अपनी
विषय वस्तु के साथ-साथ अपने नामकरण की प्रासंगिकता
और सार्थकता के चलते अधिक पसंद किया गया। ‘वर्दी
वाला गुंडा’
का
पहला संस्करण ही 10 लाख प्रतियों का निकला। ऐसे में
उसकी
‘लोकप्रियता’
तत्कालीन
समय की पाठकविहीन होती दुनिया की बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इसी समय के मुख्यधारा के
साहित्य में पाठकों का रोना साहित्यिक बैठकों-गोष्ठियों से बाहर जनसंचार माध्यमों
तक में देखा गया। यहां तक की उस समय के व्यवसायिक घरानों
से निकलने वाली कई लोकप्रिय हिंदी पत्रिकाएं भी बंद
होने लगी थीं और इन सबके मूल में भी पाठकों की
कम होती दिलचस्पी को एक बड़े कारण के रूप में देखा गया। इन सबके बावजूद ‘वर्दी
वाला गुंडा’
की
लोकप्रियता की कहानी कुछ तो कहती ही है! असल में वर्दी वाला गुंडा’ की लोकप्रियता हमें उन तत्वों को जानने के लिए प्रेरित
करती है जिनका अभाव उस समय के मुख्यधारा के साहित्य में मिलता है। इसके अलावा हमारी विडंबना यह भी है कि हमारे यहां लोकप्रिय फिल्मों की ही तरह लोकप्रिय कथाओं को पढ़ने की, उसकी आलोचना की कोई परंपरा ही नहीं है। हिंदी में लोकप्रिय हिंदी सिनेमा पर जैसा गंभीर काम जवरीमल्ल पारख ने किया है, वैसा लोकप्रिय साहित्य को लेकर नहीं हुआ। हिंदी में ऐसी कोई किताब नहीं है जो ऐसा प्रयास करती हो जबकि अन्य विकसित भाषाओं में ऐसी स्थिति नहीं है।
‘वर्दी वाला
गुंडा’ की
प्रारंभिक सफलता
और लोकप्रियता
के पीछे
उसके नामकरण
का आकर्षण
और उसकी
सार्थकता जुड़ी
है। आज
के समय
और समाज
में न
चाहकर भी
व्यक्ति का
सामना कहीं-न-कहीं,
किसी-न-किसी रूप
में वर्दी
वाले पुलिसए
गुंडे या
खादी वाले
गुंडे से
हो ही
जाता है।
उपन्यास का
शीर्षक का
आम जन
से जुड़ाव
इसकी लोकप्रिय
का सबसे
बड़ा कारण
है। ‘वर्दी
वाला गुंडा’
जितनी आसानी
से बाजार
में उपलब्ध
होता है,
उतनी आसान
इसकी कथा-संरचना है
नहीं। आम-फहम-भाषा
के बावजूद
उसका कथानक
इतना कसा
हुआ है
कि आप
उसके मूल्यांकन
में धोखा
खा सकते
हैं। कथा
की शुरूआत
असलम की
हत्या से
जुड़ी घटनाओं
से होती
है तो
पाठक बड़ी
ही आसानी
से सोच
लेता है
कि मुजरिम
दयाचंद ही
होगा लेकिन
जब इंस्पेक्टर
देशराज के
माध्यम से
उस क्षेत्र
का सबसे
बड़ा माफिया
‘ब्लैकस्टार’ उस
केस को
बंद करवाता
है तो
यह कृति
सामान्य नहीं
रह जाती
बल्कि विशिष्ट
हो जाती
है। हमारे
समय में
ऐसे हजारों
लोकप्रिय घटनाक्रम
हो सकते
है, उनके
अलग-अलग
अर्थ हो
सकते हैं
लेकिन इसके
बावजूद हमारे
यहां उन्हें
समझने की
अपेक्षा नकारने
का प्रयास
अधिक होता
है, क्यों?
इसका सबसे
बड़ा कारण
यह है
कि लोकप्रियता
प्रतिक्रियावादियों और
वर्चस्ववादियों के
लिए कड़ी
चुनौती प्रस्तुत
करती है।
वे ‘लोकप्रियता’
से डरते
हैं क्योंकि
इन कथानकों
की ‘लोकप्रियता’ में
साधारणता में
असाधारणता निहित
होती है।
जैसा कि बॉब ऐशले लिखते हैं कि “पापुलर अपने असर में आसान दिखता है लेकिन उसकी प्रभाव की
प्रक्रिया बेहद जटिल होती है।’’[iv]
वेद प्रकाश शर्मा के ‘वर्दी वाला गुंडा’, ‘कारीगर’, ‘केशव पंडित’ और ‘दहकते शहर’ जैसे अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास कथा-संरचनाओं की दृष्टि से बहुत ही जटिल कृतियां है। इसलिए केवल सस्ती या सर्वसुलभ होने के कारण उनके प्रति हमें पहले से ही पूर्वधारणाएं नहीं बना लेनी चाहिए। वेद प्रकाश शर्मा का ‘कारीगर’ उपन्यास हमारी सामाजिक संरचनाओं में पैसे की भूख (संपन्नता के दिवास्वप्न) को लेकर रची गयी तमाम आपराधिक गतिविधियों को चित्रित करता है। यह मूलतः सिनेमाई शैली में लिखा गया थ्रिलर उपन्यास है जिसके मूल में दो प्रेमियों के माध्यम से अपनी बच्ची के भविष्य की सुरक्षा के लिए अपने पति के विरुद्ध खड़ी एक स्त्री के संघर्ष की कहानी है। कृति आमजन से जुड़े कुछ सामाजिक सवाल भी उठाती है। बाल मनोविज्ञान पर पकड़ इसकी एक अन्य विशेषता है। प्रेमकथा और थ्रिलर का अद्भुत मिश्रण और इसकी भाषा इसे प्रभावी बनाती है तो सिनेमाई शैली का अत्यधिक प्रयोग इसे कमजोर बनाता है। अगर पाठक को फिल्म ही देखनी हो तो वह उपन्यास क्यों पढ़ेगा? लेकिन इसके बावजूद इन उपन्यासों में उपन्यासकार की दृश्य बाँधने की क्षमचा से इंकार नहीं किया जा सकता। साहित्य में जिसे हम चेतना प्रवाह शैली कहते है, वह इन उपन्यासों में खूब मिलती है। इसी तरह वेद प्रकाश शर्मा का ‘केशव
पंडित’ उपन्यास कानून और व्यवस्था की यंत्रणादायी चक्की
में पीसते
एक बालक
की कहानी
है जो
सच बोलने
के बावजूद
अपने परिवार
को खो
देता है।
उपन्यास कानून
के जाल
में फंसे
गरीब और
हाशिए के
व्यक्ति की
भयावह जीवन-स्थितियों से
हमारा साक्षात्कार
कराता है।
समाज में
अपराधीकरण की
गहरी हो
चुकी जड़ों
को हमारे
समक्ष प्रस्तुत
करता है।
‘दहकते शहर’
का कथानक भी
केवल सस्ते
मनोरंजन तक
सीमित नहीं
है बल्कि
जिन पात्रों
की अपनी
जिंदगी कथानक
का सीधा
हिस्सा बनती
है, वे
कोई ओर
नहीं वरन्
हमारे ही
साथी और
संसारी पात्र
हैं। उपन्यास
में इनका
चित्रण साम्राज्यावादी ताकतों के रूप
में हुआ
है, ऐसा
कहा जा
सकता है।
यह उपन्यास
आमभाषा में
वैज्ञानिक उपन्यास
की संभावनाओं
को दिखाता
है। कहने
को इसे
लोकप्रिय हॉलीवुड
सिनेमा का
सस्ता संस्करण
कहा जा
सकता है,
लेकिन इसकी
कथा संरचना
देशी मिजाज
में बुनी
होने के
कारण अधिक
प्रभावी सिद्ध
होती है।
मुख्यधारा के
साहित्य से
दूर किया
गया पाठक
इसे बड़े
चाव से
पढ़ता है।
इसका एक
बड़ा कारण
यह भी
है कि
इसमें कहीं-कहीं उसे
अपने आसपास
की भी
कहानी मिल
जाती है
और वह
उन पात्रों
में खुद
को खोजने
की कोशिश
करता है।
अधिकांश लोकप्रिय
उपन्यासों के
कथानक किसी-न-किसी
लोकप्रिय तात्कालिक
घटनाओं के
की इर्द-गिर्द घूमते
नजर आते
है। ऐसे
में कई
बार वह
छला भी
जाता है।
बहुत से
लोकप्रिय उपन्यासकार
पाठकों के
मनोरंजन के
नाम पर
उनका गलत
फायदा भी
उठाते हैं।
सेक्स, हिंसा
केवल सिनेमा
और टेलीविजन
की ही
बीमारी नहीं
है, वह
इन उपन्यासों
में भी
खूब परोसी
जाती है।
स्त्री सशक्तीकरण
के जैसे
विकृत संस्करण
यहां मिलते
हैं, वैसे
अन्यत्र कम
ही मिलेंगे।
लेकिन इन
सबके बावजूद
कई उपन्यासकारों
में यह
सब खोजने से
भी नहीं
मिलता। वेद
प्रकाश शर्मा
और सुरेन्द्र
मोहन पाठक
ऐसे ही
लोकप्रिय उपन्यासकार
हैं।
वेद प्रकाश शर्मा लिखित
‘वर्दी
वाला गुंडा’
के
दोनों भाग क्रमशः ‘वर्दी वाला गुंडा-1’
व
‘वर्दी
वाला गुंडा-2’
लेखक
के सबसे लोकप्रिय उपन्यास होने के साथ-साथ समकालीन
व्यवस्था का जीवंत मगर दर्दनाक दस्तावेज हैं।
व्यवस्थागत खामियों के चलते असामाजिक तत्त्वों को सिर उठाने का अवसर मिलता है और
वे धड़ल्ले से आपराधिक गतिविधियों को संचालित करते हैं। इस उपन्यास का कथानक
राजनीति की लोकप्रिय छद्मनीतियों (पॉपुलर पोलिटिक्स)
पर केन्द्रित है। नये राज्यों और राष्ट्रों के निर्माण का सपना संजोती विखण्डनकारी
ताकतें भारतीय समाज के लिए हमेंशा
त्रासद परिस्थितियां उत्पन्न
करती रही हैं। हमारे दो लोकप्रिय प्रधानमन्त्री
तक इनकी भेंट चढ़
चुके पर इसके बावजूद यह सिलसिल है कि थमने का नाम ही नहीं लेता। उपन्यास मुख्यतः खलनायक ब्लैकस्टार और इंस्पेक्टर
तेजस्वी द्वारा एक नवोदित राष्ट्र की स्थापना की संकल्पना पर आधृत है, लेकिन इसके बावजूद
यह राष्ट्र विखंडनकारी मूल्यों का सृजन नहीं करता। हालांकि कदम-कदम
पर राष्ट्रप्रेम और हिंसा के द्वंद्व से पाठक में भटकाव अवश्य आता है किंतु अंतिम निष्कर्ष
ऐसा नहीं है। हालांकि राष्ट्रभक्ति, हिंसा और
सेक्स का द्वंद्व इसकी एक कमजोरी रहा है। पर इन सबके बावजूद उपन्यास की लोकप्रियता
हमारे समाज की इस हकीकत को
तो बयां करती ही है कि लोगों में पुस्तकें पढ़ने
की चाह अभी समाप्त नहीं हुई है। ऐसे उपन्यास लोकप्रियता का एक नया मानक गढ़ते हैं तो इसलिए कि हमारे यहां सबके लिए न तो बेहतर शिक्षा को
प्राथमिकता दी गयी है और न ऐसी कोई रणनीति ही है जो
लोगों को बेहतर साहित्य पढ़ने
के लिए प्रेरित कर सके। भारत में टीवी और सिनेमा की दुनिया के बावजूद और वह भी हिंदी में एक लोकप्रिय
उपन्यास का अपने पहले ही संस्करण में 10 लाख
प्रतियों में छपना हमारी
किताबों की दुनिया का एक नया इतिहास था? वास्तव में
जिस समाज में किताबों की प्रकाशित प्रतियों को सैंकड़ा पार करते
बरसों गुजर जाते हैं वहां लाखों में बिकना
एक स्वप्न ही होगा।
जनता में उपजी निराशाजनक परिस्थितियों
के भीतर सिनेमा की तरह लोकप्रिय साहित्य भी उसकी सुख प्राप्त करने या सुख के
निर्माण की उसकी आकांक्षाओं को मानसिक स्तर पर
भुनाने का काम करता है। इसका सीधा संबंध
उस मौजूदा बाजार व्यवस्था से भी है जो सब कुछ
को उत्पाद में तब्दील कर देना चाहती है। इसीलिए बाजार और साहित्य का यह संबंध कई बार डराता भी है क्योंकि यह
लेखन जैसे एक बेहद ही रचनात्मक कर्म को मशीनी
उत्पाद का रूप देने लगता है। बाजार में विशिष्ट प्रकार की रचनाओं की मांग वैसे ढेर सारे उत्पादों की भीड़ खड़ी करने के लिए प्रेरित करने लगती है। जिस
प्रकार लोकप्रिय हिंदी सिनेमा विशिष्ट प्रकार की फिल्मों
की सफलता को फॉर्मूलों में बाँध उनकी सफलता का अधिकाधिक दोहन करता है, लोकप्रिय
साहित्य भी ठीक उसी शैली में लिखा जाने लगता है। यह सही है कि
‘‘अधिक
लिखना और अधिक बिकना ‘पापुलर’
का
एक बड़ा मानक है। इसका अर्थ है कि ज्यों-ज्यों बाजार
बढ़ता है
‘पापुलर’
कहानी
का विकास होता है।’’[v] अर्थात यहां बाजार और साहित्य का सीधा संबंध उनके लोकप्रिय होने की क्षमता को तो दर्शाता है, लेकिन इस
क्षमता की सफलता कथानक भिन्नता और अन्यों से भिन्नता में भी है। फिर प्रत्येक
उपन्यास के कथाचरित्रों और उनकी भाषा शैली के प्रभावों और परिवेश-निर्माण का भी
अपना महत्त्व है, जिसके लिए उपन्यासकार को हमेंशा सजग रहना होता है।
साहित्यिकता और लोकप्रियता का जो विरल सम्मिश्रण प्रेमचन्द और प्रेमचन्द पूर्व के
कुछेक विशिष्ट उपन्यासकारों में मिलता था, बाद में मुख्यधारा के साहित्य में वैसा
प्रयास प्राय: मनोहर श्याम जोशी के अलावा किसी ने न किया। नरेन्द्र कोहली अपनी
कथाओं को ऐसा रूप देने में काफी हद तक सफल रहे लेकिन बाद में वे भी मिथकीय कथाओं के निर्माण में अधिक व्यस्त हो
गये। ये दोनों उदाहरण हिंदी साहित्येतिहास की
शुरूआती आलोचना की याद दिलाते हैं जिसमें
बहुत सी श्रेष्ठतर काव्य परम्पराओं को धार्मिक और अश्लील कहकर नकार दिया गया था। बहरहाल
लोकप्रिय उपन्यासकार अपने पाठकों की रूचि और उनकी मांग का विशेष ख्याल रखते हैं और समय-समय पर अपने उपन्यासों
में इसका दावा भी करते हैं (ऐसे प्रयास मुख्यधारा के साहित्य में भी मिलते
हैं लेकिन उनकी भाषा जरा अलग होती है)।
वेद प्रकाश शर्मा ने अपने एक उपन्यास के बारे में
लिखा है कि ‘‘ ‘दूर की कौड़ी’ मेरा एक ऐसा उपन्यास है, जिसकी मूल थीम आपके (पाठकों
के) पत्रों से ही निकलकर मेरी कलम की नोक तक पहुंची... क्या यह दूर की कौड़ी नहीं है कि किसी और को आपके द्वारा किए गए कृत्य
अपने द्वारा किए गए लगे? अगर आप ऐसे अनोखे एलान से रूबरू होना चाहते हैं तो इस उपन्यास को जरूर पढ़े और मुझे अपनी राय से अवगत कराएं।’’[vi] यह अद्यतन रहने की उपन्यासकार की विवशता के अतिरिक्त एक तरह का बाजारवादी छद्म
भी है। बाजार में बने रहने के लिए लोकप्रिय लेखक स्वयं अपनी बात पाठक तक पहुंचाता है- अलग-अलग शीर्षकों से, अलग-अलग मुद्दों और उद्देश्यों को लेकर। लेकिन
दिक्कत यह है कि क्या हमारा पाठक इस ओर इतना जागरूक और सचेत रह पाता है कि रचनाओं
के कथानकों को प्रभावित कर सके, जिसका दावा लोकप्रिय लेखक करते हैं! या फिर वे भी बाजारवादी शक्तियों की ही तरह मनोरंजन के नाम पर अपना ही उल्लू सीधा करते है।
पाठकों को एक उपभोक्ता मात्र समझ उसे विशिष्ट
प्रकार के उत्पाद के लिए विवश करने लगते हैं, अपने लेखन को वस्तु के रूप में परिवर्तित करने लगते हैं। बाजारवादी प्रबंधन हमें एक उपभोक्ता के रूप में देखता है। इस
दृष्टि से उसके लिए हमारी मांग नहीं, उसके अपने वैयक्तिक हित अधिक महत्त्वपूर्ण होते
हैं। पर यह सब इतनी बारीकी से होता है कि प्रायः उपभोक्ता इसे समझ नहीं पाता।
लोकप्रिय उपन्यास भी अपनी संरचना में इतने जटिल होते हैं कि उनमें बाजारविरोधी चेतना को
खोजना दूर की कौड़ी ही अधिक लगती है और फिर ऐसी किताबों का तो नितांत अभाव ही है जो इनकी अच्छी आलोचना
प्रस्तुत करती हों। नतीजतन हम एक तार्किक
मनुष्य बनने की अपेक्षा मनोरंजन मात्र तक सीमित रहने वाले उपभोक्ता मात्र बनकर रह जाते हैं। हमारी संवेदनशीलता अतार्किक
और आभासी बनकर रह जाती है। ऐसे कथानकों में हम जिन चरित्रों से जुड़ते है, उनमें
से बहुत कम ऐसे होते हैं जो हमारी चेतना को लंबे समय तक प्रभावित कर पाते हैं। ऐसे साहित्य की
तात्कालिक सफलता सर्वकालिकता में रूपान्तरित नहीं हो पाती। ‘गोदान’ के होरी-धनिया या मेहता-मालती तो हमेंशा हमारे साथ बने रहते हैं लेकिन देशराज-तेजस्वी-ब्लैकस्टार लंबे समय तक हमारे साथ बने नहीं रह पाते। इसके बावजूद
उनकी प्रभावकारिता से इंकार
नहीं किया जा सकता। ऐसे में जरूरत इस बात की भी है कि लोकप्रिय साहित्य के लोकप्रिय
अंशों को हम स्वीकारें लेकिन वस्तु बन कर नहीं चेतन रूप में। लोकप्रिय
रूपों के उन्हीं तत्वों को प्राथमिकता दी जाए जो अनिवार्य जीवन मूल्यों का सृजन करे
क्योंकि ये रूप सिर्फ जनता के मनोरंजन का माध्यम मात्र न होकर, उनके आचार-विचार को
प्रभावित करने वाला एक माध्यम भी है।
लोकप्रिय उपन्यास पढ़कर जो दृष्टि वे पाते हैं, उसकी सकारात्मक और नकारात्मक भूमिका को एक चुनौती की तरह लेना बेहद जरूरी है। लोकप्रिय साहित्य की लोकप्रियता उसके अधिकाधिक पाठकों पर निर्भर करती है, इसलिए ऐसे में यह और भी अधिक चुनौतिपूर्ण हो जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकप्रिय साहित्य का सीधा संबंध
व्यापक स्तर पर अधिकतम जनसमुदाय तक अपनी विराट पहुंच
का होना
है और
इसी के
चलते यह आज
सबसे सस्ता,
सबसे आसान
और सबसे
सरल माध्यम
बन गया
है। ये उपन्यास
हमें आनंद
तो प्रदान
करते है,
लेकिन दृष्टि
नहीं। उनका
आकर्षण पाठकों
को अपनी
ओर खींचता
है और
बाजार इस
खेल में
उनका साथ
देता है।
ऐसे में
लोकप्रिय साहित्य
का सिनेमा
के परदे
पर आना
काफी महत्त्वपूर्ण
हो जाता
है। जनमानस
पर सिनेमा
के असीमित
प्रभाव से
लोकप्रिय उपन्यासकार
भी बच
नहीं सके
और न
ही यह
संभव था।
किसी बड़े
लोकप्रिय उपन्यास
पर बनी
पहली लोकप्रिय
हिंदी फिल्म
गुलशन नंदा
के उपन्यास
‘झील के
उस पार’
पर बनी फिल्म थी।
माध्यम परिवर्तन
के बावजूद
फिल्म सफल
रही और
उसकी सफलता
का सबसे
बड़ा कारण
रहा सिनेमाई
माध्यम के
अनुरूप उसमें
किये गये
परिवर्तन। इन
उपन्यासों की
दृश्यात्मक शैली
इन्हें परदे
के अनुकूल
बनाती है।
खुद वेद
प्रकाश शर्मा
के चार
उपन्यासों, यथा
-
1. ‘बहू
मांगे इंसाफ’
(1983), 2. ‘विधवा
का पति’
(1987), 3. ‘लल्लू’
(1993) 4. ‘सुहाग
से बड़ा’
(1995) पर
क्रमशः चार लोकप्रिय फिल्मों 1. ‘बहू की आवाज’
(1985), 2. ‘अनाम’
(1989), 3. ‘सबसे
बड़ा खिलाड़ी’
(1995) और 4. ‘इंटरनेशनल खिलाड़ी’
(2000) का
निर्माण हुआ है। इन सबमें दहेज प्रथा पर आधारित लोकप्रिय उपन्यास
‘बहू
मांगे इंसाफ’
(1983)
उपन्यास पर शशिलाल नायर निर्देशित फिल्म ‘बहू की आवाज’
(1985) खासी
चर्चित रही। अभिनेता ओमपुरी, नसरूद्दीन शाह
और सुप्रिया पाठक ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई। इसी तरह उनके लोकप्रिय उपन्यासों
‘लल्लू’
(1993) और
‘सुहाग
से बड़ा’
(1995) पर
‘सबसे
बड़ा खिलाड़ी’
(1995) और
‘इंटरनेशनल
खिलाड़ी’
(2000) जैसी
लोकप्रिय फिल्मों का निर्माण हुआ और दोनों ही फिल्मों
के
संवाद
(डायलॉग्स)
व
पटकथा
(स्क्रीनप्ले)
खुद वेद प्रकाश शर्मा ने लिखे।
‘बहू की आवाज’
फिल्म
दहेज की समस्या पर आधारित थी। इसमें एक ऐसे दहेजलोभी परिवार की कहानी है जो दहेज
के लिए अपनी बहू को मार देता है। फिल्म निर्माण के दौरान मूल कृति को फिल्म माध्यम
के अनुरूप बनाने के लिए उसमें परिवर्तन किये
गये।
इसका परिणाम सकारात्मक रहा और फिल्म अच्छी चली। इसने आलोचकों का भी ध्यान खींचा। परदे
पर आने के बाद लोगों ने इसे काफी पसन्द किया। यह उपन्यास भी
काफी पढ़ा गया लेकिन तब इसका प्रभाव सीमित
था। परदे पर आने के बाद इसके प्रभावक्षेत्र में विस्तार हुआ। लोग मानने को भी
तैयार न थे कि यह फिल्म एक लोकप्रिय उपन्यास पर आधारित है।
बहरहाल, इस तरह लोकप्रियता का संबंध माध्यम
से भी है, जो यह बताता है कि किसी साहित्यिक
कृति का महत्त्व फिल्म के रूप में आने पर बढ़ जाता है और यह प्रभाव एकतरफा न होकर
दोतरफा होता है पर इसकी सीमा यह है कि इनमें अधिकांशतः जिन समस्याओं को उठाया जाता
है, उनका लोकतान्त्रिक जवाब इनमें नहीं मिलता। तमाम लोकप्रिय उपन्यास या लोकप्रिय
फिल्में हिंसा का रास्ता अख्तियार करने पर बल देती हैं,
जो सही नहीं है। ऐसे उपन्यासों का एक केन्द्र शीघ्रातिशीघ्र अमीर बनने की
ख्वाहिशें रखने वाला खलनायक होता है। यही बात वेद
प्रकाश शर्मा के अधिकांश उपन्यासों में भी मिलती है। उनके कथापात्र काफी जद्दोजहजद
के बाद धन-सम्पदा प्राप्त करते हैं,
लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन कथानकों के अंत
में
वह सम्पत्ति उनकी होकर भी उनकी हो नहीं पाती। उदाहरण के लिए
‘तीन
तिलंगे’
उपन्यास
के तीनों प्रमुख पात्र बूंदे, चंचक और शंकर
अंततः गलत तरीके से दौलत पाने की कोशिश
में मारे जाते है। ‘तीन तिलंगे’
उपन्यास
के दूसरे भाग का तो नाम ही ‘आग लगे दौलत
को’
है।
इसलिए कहानी शीघ्रातिशीघ्र धन-सम्पदा प्राप्त करने पर आधारित होकर भी वैसी रह नहीं
पाती। इसी तरह
‘सभी
दीवाने दौलत के’
उपन्यास
एक बैंक डकैती पर आधारित है लेकिन उसमें भी अंततः
सभी मारे जाते है। उपन्यास का अंतिम वाक्य अंतिम बचे व्यक्ति की चीख के साथ समाप्त
होता है-
‘‘जिम
के कंठ से चीख और हाथ से रिवॉल्वर साथ ही निकले।’’[vii]
‘वर्दी वाला गुंडा’ और ‘वो साला खद्दरवाला’ के कथानक भी इसी तरह के हैं। एक ही कथा
को दो भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत करते ये दोनों
उपन्यास वेद प्रकाश शर्मा के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों में गिने
जाते हैं और इनके प्रमुख खलपात्र भी अंततः मृत्यु को ही प्राप्त होते
है। उदाहरण के लिए- ‘‘पांडूराम उसके पैरों की तरफ झुका
ही था कि तेजस्वी की जाने किस इंद्री ने खतरे का आभास पाया - जीप से उछलता हुआ हलक फाड़कर चिल्ला
उठा वह- ‘‘ ‘अरे...... रोको इसे!’ ‘धड़ाम’ भयंकर विस्फोट हो चुका था इंसानी खून और
गोश्त के लोथड़े दूर-दूर तक बिखर गए।’’[viii] हिंसा का कारोबार करने वाले हिंसक जानवार का अंत भी वैसा ही है। किसी भी रूप में हिंसा का समर्थन
सही नहीं है पर वेद प्रकाश शर्मा के लोकप्रिय उपन्यासों की अच्छी बात यह है कि
इनमें जीत खलपात्र की या बुरी आदतों की नहीं बल्कि सकारात्मक दृष्टि रखने वाले
संघर्षशील पात्रों की होती है। इनके उपन्यासों की सबसे बड़ी सीमा यह है कि अधिकांशतः
इनका प्रारम्भ डकैती, हत्या, लूट आदि से होती है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि इनका अंत वैसा नहीं होता। तात्कालिकता लोकप्रियता के लिए
किये गये ऐसे प्रयासों के बावजूद सच्चाई के इस दूसरे पहलू को नजरअंदाज करना इनके
साथ ज्यादती होगी। नकारात्मक दृष्टिकोण इनके कथानक का हिस्सा अवश्य है और वह इनकी सीमा भी जरूर है पर वह उनका अंतिम फलार्थ नहीं है।
वेद प्रकाश शर्मा के शुरूआती उपन्यासों के
चित्रण प्रायः अस्सी के
दशक की मसाला फिल्मों से मिलते-जुलते हैं।
उदाहरण के लिए उनके ‘तीन तिलंगे’
उपन्यास
के गुंडे-मवाली
शंकर को देख सकते हैं - “उसी पल...
हवा
में सन्नाता हुआ एक चाकू आया और सीधे नोटों को क्रॉस
करता हुआ मेज के बीचों बीच गढ़ गया। सब एक साथ चौंक
गये। झटके के साथ सबकी निगाह उस ओर घूम
गई। सामने एक सात फीट लंबा इंसान खड़ा था, गोरा रंग,
जिस्म
पहाड़ जैसा चौड़ा,
उसके
पैरों में लंबे,
चमड़े
के जूते थे। टांगों में चिपकी एक स्याह पतलून और ऊपरी भाग पर एक दूध जैसा चमकता हुआ
जालीदार बनियान। गले में एक रूमाल बंधा हुआ था। दाएं हाथ के गट्टे पर एक चौड़ा चमड़े
का पट्टा बंधा था...।”[ix] ऐसी दृश्यात्मकता जहां सनसनी पैदा करती है, वहीं हिंसा (सात फीट लंबा पहाड़ जैसा इंसान और उसके हाथ में पड़ा चाकू) और महत्त्वाकांक्षा (धनपशु बनने की उसकी अदम्य इच्छा) के संबंध को भी दर्शाती है। शंकर की शारीरिक संरचना और उसका हिंसक स्वरूप (डरावनापन) हमें प्रत्यक्ष नजर आता है। सारा घटनाक्रम एक कड़वे सच की तरह हमारे सामने से होकर गुजर जाता है। ऐसा चित्रण यथार्थ न होकर, भाषा के माध्यम से निर्मित यथार्थ का आभासी पुनरुत्पादन मात्र होता है। ऐसे उपन्यासों की दृश्यात्मकता और घटनाप्रधान शैली दर्शक को आकृष्ट करती हैं। लोकप्रिय साहित्य की ये विशेषताएं समाज में उसकी व्यापक उपस्थिति और लोकप्रियता को और पुख्ता करती हैं। प्रायः लोकप्रिय साहित्य के पाठक सभी वर्गों से संबद्ध होते हैं, लेकिन इनमें अधिकता मध्यवर्ग की होती है और मध्यवर्ग में भी उच्चमध्य एवं मध्यम मध्यवर्ग की अपेक्षा सर्वाधिक संख्या निम्न मध्यवर्ग और निम्नवर्ग की ही होती है, जिनकी साहित्यिक आवश्यकताएं उनकी शिक्षा की समस्याओं के साथ जुड़ी होती हैं। इसलिए जिस स्तर की उनकी शिक्षा होती है, उसी स्तर को ध्यान में रखकर यह साहित्य लिखा जाता है। इसका पाठक वर्ग मध्यवर्ग के अंतिम हिस्से पर बसने वाला समुदाय है जो दिन भर की कड़ी दौड़-धूप के पश्चात कुछ आरामदायक मनोरंजन चाहता है।
ऐसा साहित्य जिससे उनकी साहित्यिक आवश्यकताएं भी संतुष्ट हो और उनकी थकान भी दूर हो। ऐसे में यही लोकप्रिय
साहित्य उनकी साहित्यिक और मानसिक
आवश्यकताएं पूरी करता है। आमफहम भाषा, रोचक कथाप्रवाह और क्रयशक्ति के भीतर
सहज उपलब्धता इसकी लोकप्रियता का मूल कारण है। देवकी नन्दन खत्री के शब्दों में
कहें तो इसे बिना किसी कोशग्रंथ की सहायता लिए आसानी से पढ़ा और समझा जा सकता है। ध्यान देने वाली बात यह है
कि कालांतर में यही पाठक वर्ग धीरे-धीरे मुख्यधारा के शिष्ट साहित्य की ओर प्रेरित होता है क्योंकि समय के साथ-साथ उसकी साहित्यिक जरूरतें
भी विकसित होती जाती हैं, जो लोकप्रिय साहित्य से पूरी नहीं हो पातीं पर विडम्बना यह है कि इसके इस पहलू पर बात नहीं
की जाती और न ही इसे आलोचना की वस्तु माना जाता है। इस साहित्य के आधार कई तरह के
हैं। बचपन में चित्रकथाएँ,
किशोरावस्था में कॉमिक्स और जवानी की दहलीज पर लोकप्रिय उपन्यासों से होते हुए
मुख्यधारा का शिष्ट साहित्य। सभी अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाकर हमारे भीतर अंतर्धान हो जाते है। अपनी
परिपक्वता के दौर में हमारा व्यक्तित्व समय के साथ-साथ जिन-जिन चीजों को झुठलाता जाता है, उनमें से एक
लोकप्रिय साहित्य और लोकप्रिय फिल्में भी है। यह अलग बात है पूछने पर हम ‘गोदान’ और ‘तीसरी कसम’ का ही नाम लेते हैं ‘वर्दी वाला गुण्डा’ या ‘बहू मांगे इंसाफ’ नहीं। अब आप ही तय कीजिए कि आखिर सच बोलना कौन
चाहता है?
[i]
माम्मन मात्यु (संपा.), मनोरमा ईयर बुक-2006, मलयाला मनोरमा प्रेस, कोट्टयम, संस्करण-1992,
पृष्ठ-115
[ii]
टी. डब्ल्यू.
एडर्नो (अनुवाद-
रामकवींद्र सिंह), संस्कृति उद्योग, हिंदी संस्करण-2006,
ग्रंथशिल्पी (इंडिया)
प्रा.लि.,
नयी दिल्ली,
पृष्ठ-174
[iii]
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, संस्करण-2003,
पृष्ठ-356
संपर्क - पुखराज जांगिड़, शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-67