शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

मलयालम का आदिवासी साहित्य : चुनौतियां और राहें - रम्या बालन के.




मलयालम का आदिवासी साहित्य : चुनौतियां और राहें - रम्या बालन के.

मलयालम के आदिवासी साहित्य की मुख्य समस्या यही है कि वहां आदिवासी  रचनाकरों की कमी है। इसीलिए आदिवासियों के जीवन का सही चित्रण पाठक तक नहीं आ पा रहा है। गैर आदिवासी लेखन में अनुभव की कमी रहती है। वहां एक हद तक कल्पना का प्रभाव होता है और साथ ही दृष्टि भेद होता है। अशिक्षा इस समाज की एक बड़ी समस्या है।









        
दिवासियों का जीवन ही उनका साहित्य हैं। यहां हर प्रकार की भावनाएं गीत और कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त होती आयी हैं। इस अभिव्यक्ति में संघर्ष, विचार और प्रतिरोध की गाथाएं कई शताब्दियों से स्थान पाती रही हैं। प्रकृति और उसके तमाम अंगों की उपस्थिति आदिवासी साहित्य के केन्द्र में रही है। कई पीढ़ियों से चला आता अधिकतर आदिवासी साहित्य अभी भी मौखिक रूप में ही मौजूद है। जहां वर्तमान समय में आदिवासियों को केन्द्र में रखकर कहानी, उपन्यास आदि लिखे जा रहे हैं, वहीं आदिवासी समाज से भी साहित्यिक अभिव्यक्ति हो रही है। हिंदी की तरह मलयालम में आदिवासियों के जीवन संघर्ष और संस्कृति को केन्द्र में रखकर लिखा गया साहित्य अधिक नहीं हैं किंतु केरल में आदिवासियों की साहित्यिक एवं रचनात्मकत अभिव्यक्ति को अधिकतर राजनीति का रूप देने का प्रयास लगातार किया गया है। इसके बरअक्स आदिवासियों की जीवन पद्धति और कुछेक सांस्कृतिक पक्षों को लेकर नृविज्ञान संबधी किताबें प्रकाशित होती रही हैं, जो अपूर्ण तथ्य संग्रह एवं संवेदना-विचार शून्य हैं। केरल के कालीकट जिले में किरटाड्स नामक आदिवासी शोध केन्द्र आदिवासी जीवन-संस्कति संबंधी शोध कार्यों को प्रोत्साहन दे रहा है। केरल में अधिकांश आदिवासी कबीलें वयनाड जिले में पाये जाते हैं। इसलिए मलयालम का उपलब्ध अधिकांश आदिवासी साहित्य इसी क्षेत्र को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। मलयालम आदिवासी साहित्य के इस साहित्यिक परिदृश्य को उसी प्रकार समझा जा सकता है जैसे भारत भर में आदिवासी बिखरे हैं किन्तु हिंदी में अधिकांश आदिवासी साहित्य झारखंड या मध्य भारत के आदिवासियों को लेकर लिखा जा रहा है। हिंदी में जिस रूप में आदिवासी लेखन को देखा जाता है, ठीक उसी रूप में मलयालम आदिवासी साहित्य को नहीं देखा जा सकता क्योंकि यहां अधिकांश उपन्यास किसानी समस्या को लेकर लिखे गये हैं। इस अर्थ में मलयालम आदिवासी उपन्यास लेखन का विषय हिंदी की अपेक्षा सीमित नजर आता है। मलयालम में आदिवासी केन्द्रित लेखन की शुरुआत कहानी के माध्यम से हुई। तकषी शिवशंकर पिल्लै के कयर, रंडिडंगषी, चेम्मीन आदि को मलयालम का आरंभिक आदिवासी लेखन कहा जा सकता है । चेम्मीन अर्थात मछुआरे को ज्यादातर जगह आदिवासियों में ही गिना जाता है। लेकिन केरल में मछुआरे अनुसूचित जातियों के अंतर्गत आते हैं। इसलिए मछुआरे को केरल के परिप्रेक्ष्य में आदिवासी उपन्यासों की श्रेणी में रखा जाए या नहीं यह दृष्टिकोण पर निर्भर है।
मलयालम साहित्य में आदिवासी समस्या को लेकर प्रमुख रूप से उरूब, मलयाटूर रामकृष्णन, पी.वत्सला, के.जे. बेबी, टी. सी. जॉन, श्रीकण्ठन नायर, नारायन आदि लोग लिख रहे हैं। शुरुआत में मलयालम में आदिवासियों को केन्द्र बिंदु बनाकर कहानियां लिखी गयीं, जैसे पीण्सी कुट्टिकृष्णन  की नीलमला (नीला पहाड) सबसे पहली आदिवासी कहानी मानी जा सकती है। इस कहानी में नीलगिरी पर्वत की तराइयों में रहनेवाले आदिवासियों के जीवन और संस्कृति का चित्रण किया गया है। नीलगिरी तमिलनाडु राज्य में स्थित है। इसलिए इस कहानी को वर्तमान केरल के आदिवासियों के परिप्रेक्ष्य के अंतर्गत आनेवाला लेखन नहीं कहा जा सकता है। लेकिन मलयालम साहित्य में लिखी गयी पहली आदिवासी केन्द्रित रचना कहा जा सकता है। इस कहानी में शहर से आए हुए युवक का नीलमला के जंगल में फंस जाना एवं एक आदिवासी द्वारा उसकी रक्षा करना आदि घटनाओं का वर्णन है। साथ ही यथास्थान आदिवासी संस्कृति के महत्व को दिखाया गया है। इस कहानी का एक पात्र जब मदद के लिए एक धनिक के पास जाता है किंतु वह सेठ उसका  अपमान करता हैं । अंत में बेहोश हालत में पड़े हुए युवक को एक आदिवासी उठाकर अपने निवास पर ले जाता है और सुबह उसे शहर का रास्ता दिखाकर विदा करता है। इस कहानी में आदिवासियों की सहृदयता तथा उनकी संवेदनशीलता को दिखाया गया है। वर्तमान समाज में कोई भी अपने स्वार्थ के बगैर किसी की मदद नहीं करता, परंतु आदिवासी अभी भी उसी संवेदनशीलता और हृदयगत विशालता को बनाये हुये हैं। जब वह युवक उस जंगल से विदा लेता है तब उसके अंतर् मन में यह गूंज उठती है कि नीलमला के सही हकदार यहां पर सोए हुए हैं। इनको जंगलों में खदेड दिया गया है। फिर भी वे इस मिट्टी के हृदय में सोए हुए हैं । इस कहानी में आए आदिवासी नीलगिरी की तराइयों में रहने वाले तोतवा आदिवासी हैं।
            पी.सी. कुट्टीकृष्णन की दूसरी कहानी वित्तुम मण्णुम (बीज और मिट्टी) में वडुका आदिवासियों का चित्रण किया गया है। ये आदिवासी कबीले भी तमिलनाडु के जंगलों में रहते हैं। इसमें आदिवासी संस्कारों को बचाये रखने के लिए संघर्ष करती स्त्रियों की संघर्ष गाथा  हैं। मिट्टी और प्रकृति के साथ आदिवासियों के गहरे संबध को रचानाकार ने इस कहानी में दिखाया है। आदिवासी समाज में भी स्त्री किस तरह संघर्ष करती है, इसका चित्रण किया गया है। स्त्री अगर विवाह के छह महीने बाद संतानोत्पत्ति करने की योग्य न हो तो उसे समाज से निष्कासित कर देने की प्रथा का उल्लेख हुआ है। छह महीने के अंतर्गत मां बनने की योग्यता का प्रमाण देना इनके परंपरागत संस्कारों का हिस्सा है। इसी के प्रतिरोध में कालियम्मा नामक पात्र यहां संघर्ष करती हुई दिखाई देती है।
             नारायन मलयालम के पहले आदिवासी साहित्यकार कहे जा सकते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से आदिवासियों के जीवन, संस्कार एवं उनकी समस्याओं को अनुभव के धरातल पर अभिव्यक्त किया हैं। इन्होंने आदिवासी समस्याओं को कहानी और उपन्यासों के माध्यम से  प्रस्तुत किया। नारायन के निस्सहायन्टे निलाविली (निराश्रयों का रोदन) कहानी संग्रह में आदिवासियों के शोषण और संघर्ष का चित्रण हैं। इनकी कहानियों में आदिवासियों के उस अंतःसंघर्ष का चित्रण है जो शायद एक आदिवासी लेखक ही अनुभव कर सकता है। इसमें तेनवरिक्का (मीठा कटहल) नामक कहानी में नारायन ने मिट्टी और वन के साथ आदिवासियों के लगाव  को पूरी संवेदना के साथ अभिव्यक्त किया हैं। इसमें अय्यप्पन नामक पात्र का कटहल के पेड़ के साथ लगाव एवं उसको काटने से उसके परिवार में गरीबी का आना आदि घटनाओं के साथ ही वर्तमान पीढ़ी की लाचारी एवं प्रकृति के साथ टूटते संबधों का भी चित्रण किया गया है। इस कहानी में कई तरह के संघर्ष आते हैं।
         ईनाम चक्कियुडे कोडा  (काले कुकुरमुत्ते की छतरी) कहानी में नारायन ने आदिवासी लड़कियों के सामाजिक एवं मानसिक संघर्ष का चित्रण किया है। इसके साथ ही यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शिक्षा प्राप्त होने पर भी वह शोषण से बच नहीं पाती हैं। इस तरह समाज के आभ्यंतर और बाह्य में शोषित और अपमानित आदिवासियों का दर्दनाक चित्रण हमें दिखाई देता है। इस कहानी की मुख्य पात्र गोमती एक आदिवासी है। वह आदिवासी छात्रावास में रहकर पढ़ाई करती है। छात्रावास अधिकारी लड़कियों का शारीरिक शोषण करते हैं। गोमती का भी कुछ बाहरी काम करवाने के बहाने शारीरिक शोषण करने का प्रयास किया जाता है। उस दिन के बाद वह अपने कपड़े और किताबों के साथ हंसिया भी रखती है। स्पष्टतः यहां लेखक ने पूरी संवेदना के साथ यह दिखाने का सफल प्रयास किया है कि किताबों और कपड़ों के साथ हंसिया भी रखने के लिए गोमती जैसी लडकियां किस प्रकार मज़बूर होती हैं।
मलयालम साहित्य में आदिवासियों के जीवन और संस्कृति को एक बृहद् केनवास पर चित्रित करने का श्रेय मलयाटूर रामकृष्णन को है। इन्होंने ही पहली बार आदिवासियों को केन्द्र बिंदु बनाकर मलयालम में उपन्यास लिखा। उनका पोन्नी शीर्षक उपन्यास आदिवासियों के जीवन, संस्कार और संघर्ष को आधार बनाकर लिखा गया पहला मलयालम उपन्यास हैं। इस उपन्यास का प्रकाशन 1967 में हुआ था। बाद में इसका सिनेमाई रूपांतरण 1976 में  मलयालम के मशहूर फिल्म निर्देशक तोप्पिल भासी ने किया। केरल के परिप्रेक्ष्य में न होने के बावजूद भी इस उपन्यास ने मलयालम साहित्य एवं पाठकों में काफी प्रसिद्धि पायी। पोन्नी उपन्यास की पृष्ठभूमि में तमिलनाडु के जंगलों में रहनेवाले मुडुगा और इरुला आदिवासियों के जीवन संघर्ष का वास्तविक अंकन है। पोन्नी इस उपन्यास का प्रतिनिधि पात्र है जिसके द्वारा  लेखक ने आदिवासी नारियों के जीवन संघर्ष की ओर पाठक का ध्यान खींचा है। इस उपन्यास में कथाकार ने केरल और तमिलनाडु के बीच उपस्थित मल्लेश्वरम पहाडियों में रहने वाले आदिवासियों के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन को अभिव्यक्ति दी है। इस कृति में अंधविश्वासों के भंवर में फंसा और उनकी भीषणता में विनष्ट होता समाज है। पोन्नी इन अंधविश्वासों को तोड़कर एक खुले समाज की ओर कदम रखना चाहता है, किन्तु उसका वही कदम उसको मौत के मुंह में ले जाता है। उपन्यास का अंत आदिवासी जीवन की तरह ही त्रासद है। अंधविश्वास और रीति रिवाज पोन्नी के परिश्रम को त्रासदी में बदल देते हैं। उपन्यास का दुखांत होना वर्तमान आदिवासी जीवन की त्रासदियों को अभिव्यक्त करता है।
इस उपन्यास ने मामूली पाठकों को ही नहीं बल्कि साहित्यकारों को भी प्रभावित किया। मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका पी.वत्सला ने पोन्नी से आदिवासी साहित्य की शुरुआत मानते हुए लिखा है  1967 में जब पोन्नी का प्रकाशन हुआ वह एक अनुभव का आरंभ था। आई. ए. एस. की उपाधी से सम्मानित मलयाटूर द्वारा अट्टपाडि के आदिवासियों को देखने के बाद लिखा हुआ पहला उपन्यास जिसमें काल्पनिकता का सौन्दर्य झलकता है। लेकिन उस समय मैंने सोचा कि मिट्टी और पानी के गंध से बने हुए जिन आदिवासियों के बारे में मैंने सुना, वह बात पोन्नी में नहीं हैं। कुछ कहना बाकी है। वह जानना है, लिखना बाद में होगा। ऐसे ही मैं सी. के. जानु के गांव की ओर चल पड़ी। उस समय जानु का जनम भी नहीं हुआ था। लेकिन जानु को क्रांतिकारी बनानेवाली मिट्टी तब तक पकना आरंभ हो गई थी। मैं बहुत सालों से कहानी लिख रही थी। लेकिन उस समय मुझे अनुभूतियों की घुटन महसूस कर रही थी। फिर वह एहसास  मुझे कभी नहीं हुआ। एक प्रकर से पोन्नी के आगमन ने मुझे आदिवासियों के बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया। एक बार मैंने यह बात मलयाटूर को भी बतायी। उसके उत्तर के रूप में उन्होंने मुझे अपने घर के आंगन में लगा हुआ एक पुराना पेड़ दिखाया। जड़े न होकर भी जिन्दा रहने के लिए संघर्ष करते हुए एक आदिम वृक्ष का अंश। वह अभी भी वहीं होगा।
             के.जे.बेबी ने मलयालम साहित्य में केवल आदिवासियों के लिए कलम ही नहीं चलायी बल्कि आप उनके आंदोलन के भागीदार भी बनकर रहे। नाडु गद्दिका के. जे. बेबी की आंदोलन से ओतप्रोत रचना हैं। इस कृति में उन्होंने आदिवासी संघर्ष को आंदोलन के रूप में चित्रित किया है। के.जे.बेबी के मावेली मंट्रम में वयनाडु के अडिया और पणिया आदिवासियों के मिथक को आधार बनाकर उनको मुक्ति का रास्ता दिखाने का प्रयास  है।
टी.सी. जॉन मलयालम के प्रमुख आदिवासी केन्द्रित रचनाकारों में एक हैं। उराट्टि उनका बहुचर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास में उन्होंने वयनाडु के प्रमुख आदिवासी गोत्र पणिया जनजाति के शोषण और उनकी पीड़ा का चित्रण किया है।  उराट्टीके मुख्य पात्र कुरुक्कन के जीवन में आये परिवर्तनों से कहानी आगे बढती हैं। बाहरी दुनिया के प्रभाव में आने के बाद कुरुक्कन की सोच में भी बदलाव आता है। मार्क्सवाद के प्रभाव में आकर वह शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए अपने लोगों को प्रेरित करता हैं। अपने गांव में घर-घर जाकर वह जन जागरण का काम शुरू करता है। जमींदारी शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए वह आदिवासी समाज को संगठित और लामबंद करता है। इस तरह यह उपन्यास आदिवासी संघर्ष और उनके आंदोलन की महागाथा है।      
         टी.सी. जॉन के दूसरे उपन्यास नेल्ला में आदिवासी समस्याओं के साथ ही बाहर से आकर बसे हुए किसानों के संघर्ष का भी चित्रण  है, जिन्हें दिकू भी कहा जा सकता है। इस उपन्यास में चिंगन मोतली नामक आदिवासी और मत्तायी के बीच के भावात्मक मानवीय संबध को दिखाया गया है। जब चिंगन मोतली का देहांत हो जाता है तो उनकी बेटी नेल्ला को मत्तायी अपना लेता है। बाहरी समाज के व्यंग्य बाण मत्तायी को परेशान करते हैं। लोग कहते हैं कि कोई भी पणिया आदिवासी स्त्री को पत्नी नहीं बनाते हैं। आदिवासी स्त्रियों के बारे में बाहरी समाज की यही सोच है कि ये दिकू लोगोंकी रखैल ही हो सकती हैं, पत्नी नहीं। यह उसी सभ्य समाज की सोच है जो स्वयं को शिक्षित और सभ्य समझता है। लेकिन मत्तायी इन सारी बातों पर कभी ध्यान नहीं देता। उनके मन में चिंगन मोतली के लिए आदर था।  मत्तायी को पूरा विश्वास है कि आदिवासी अपनी भूख, प्यास और कठिनाईयों में भी प्यार और भरोसे को नहीं तोड़ते हैं। इस तरह टी.सी. जॉन ने यहां दिकू और आदिवासियों के सकारात्मक संबध को चित्रित किया है।
            पी.वत्सला ने मलयालम में आदिवासी साहित्य को कई आयामों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। इसलिए मलयालम साहित्य जगत में इन्होंने एक अलग पहचान बनायी। आदिवासी समस्याओं को केन्द्र में रखकर इन्होंने तीन उपन्यासों की रचना की – ‘नेल्लु’, ‘कूमन कोल्ली’, ‘आग्नेयमनेल्लु उपन्यास का प्रकाशन 1972 में हुआ। प्रस्तुत उपन्यास का सिनेमाई रूपांतरण 1974 में हुआ। नेल्लु में जमींदारों से पीड़ित बंधुआ आदिवासी मज़दूरों की कहानी है। वल्लियूर के उत्सव के दिन आदिवासियों को जमींदार  खरीदते हैं। मल्लन इस उपन्यास का मुख्य आदिवासी पात्र हैं। राघवन नायर जमींदार हैं। लेकिन राघवन नायर आदिवासी कल्याण चाहता है। इसलिए वह अपने बलबूते पर आदिवासियों की मदद करता है। यहां राघवन नायर और अरुमुखम आदिवासी कल्याण का प्रबंध करते हैं। लेकिन कोई भी योजना सफल नहीं होती है। मल्लन अपने जीवन के साथ संघर्ष करते हुए दम तोड़ देता है। उसकी पत्नी को राघवन नायर स्वीकार कर लेता है। लेकिन इस उपन्यास में क्रांतिकारी आदिवासी पात्र बहुत कम दिखाई देते हैं। स्वयं राघवन नायर भी कभी-कभार अपनी ज़मीनदारी सोच से बाहर नहीं निकल पाता । उनका मानना है कि शिक्षा,घर या आर्थिक सुरक्षा, इन सबसे पहले आदिवासियों की मुख्य समस्या भूख है, अन्न की समस्या है। यही आदिवासियों की सारी समस्याओं की आधार है।
कूमनकोल्लीपी.वत्सला का दूसरा उपन्यास है। इस उपन्यास में इन्होंने आदिवासियों में प्रचलित धर्मांतरण की समस्या पर विचार किया है। इसी तरह एस.श्रीकण्ठन नायर के काणीउपन्यास में आदिवासियों की संस्कृति का चित्रण है। मलयालम में लिखे गये अधिकतर आदिवासी केन्द्रित उपन्यास वयनाड प्रांत से संबधित हैं। लेकिन काणी उपन्यास केरल के तिरुवनंतपुरम जिले के पोनमुडी पर्वत के आस-पास के आदिवासी क्षेत्र काणिक्कार को केंद्र में रखकर लिखा गया है। इस उपन्यास में आदिवासियों की संस्कृति के महत्व को तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में रखकर दर्शाने का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त आदिवासी कबीलों में ही स्वहित के लिए आदिवासियों के सामूहिक हित के विरुद्ध काम करनेवाले लोगों को भी उपन्यास में बेनकाब किया गया है। आदिवासी संस्कृति को नष्ट करने वाले लोग आदिवासियों में ही हैं, यह धारणा उपन्यास की कथा की परतों में बार-बार गूंजती पायी जा सकती है। माधवन नामक पात्र लेखक ने इसी उद्देश्य के लिए रखा है अथवा गढ़ा है।
मलयालम साहित्य में पहली बार एक आदिवासी दर्शक के स्थान पर से उपर उठकर स्वानुभूत लेखन के रूप में लिखा हुआ उपन्यास है कोच्तरेत्ति। इस उपन्यास में मलअरया आदिवासियों के जीवन, संस्कार, संघर्ष, प्रेम संबध एवं मिट्टी की भीनी महक है। मलअरया का प्रमुख पारंपारिक व्यापार खेती है। खेती से संबंधित इनके रीति-रिवाजों का भी चित्रण यहां मिलता है। धर्मांतरण की समस्या और जाति के नाम पर सरकारी कार्यालयों में हो रहे घपले एवं आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आदिवासी युवा पीढियों में हो रहे बदलावों को भी लेखक ने दिखाया है। इसके साथ ही  अशिक्षा  किस प्रकार एक पिछ्ड़े समाज को निगल लेती  है, के चित्रण द्वारा उपन्यास का अंत होता है। उपन्यास का मुख्य पात्र कोच्चुरामन बीमार हो जाता है। शहर के अस्पताल में वह इलाज के लिए आता है। लेकिन वहां शल्य क्रिया के बारे में प्राप्त जानकारी उसे आतंकित करती है। इसलिए कोच्चुपेण्णु अपने बीमार पति को लेकर अस्पताल से भाग जाती है। आदिवासी समाज में छायी अशिक्षा ही कोच्चुपेण्णु और कोच्चुरामन को इस तरह के कदम उठाने के लिए उकसाती है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक ने कथाक्षेत्र के आदिवासियों की हर समस्या को रेखांकित करने का सफल प्रयास किया है।
ऊरालीक्कुडी नारायन का दूसरा उपन्यास है। इस उपन्यास में नारायन ने केरल के प्रमुख आदिवासी वर्ग उरालियों के जीवन संघर्ष को दिखाया है। इस समुदाय का मुख्य व्यवसाय भी खेती है। लेकिन अंग्रेज़ी शासन के आगमन के बाद आदिवासियों का वन पर अधिकार पूरी तरह समाप्त हो गया है। ऊरालियों का इतिहास और उनके सांस्कृतिक जीवन की मार्मिक अभिव्यंजना  इस उपन्यास में है। इसीतरह नारायन के चेंगारुम कुट्टालुम नामक रचना में भी केरल के आदिवासियों का जीवन है। नारायन  मलायलम के आदिवासी समाज  से प्रकाश में आए एक मात्र प्रतिनिधि रचनाकार हैं। कोच्चरेत्ति को  1998 में केरल साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया है। नारायन अपने रचनाओं के द्वारा केरल के आदिवासियों की समस्याओं और उनके संघर्ष को समाज के सामने प्रस्तुत करने की दिशा में लेखनरत एवं कार्यरत हैं। साहित्य के क्षेत्र में नारायन अकेले ही अपने समाज के लिए लिख रहे हैं। हम आशा करते हैं कि साहित्य के क्षेत्र में नारायन  और राजनीति में सी.के. जानु जैसे लोग उभरकर आयें।
          मलयालम के आदिवासी साहित्य की मुख्य समस्या यही है कि वहां आदिवासी  रचनाकरों की कमी है। इसीलिए आदिवासियों के जीवन का सही चित्रण पाठक तक नहीं आ पा रहा है। गैर आदिवासी लेखन में अनुभव की कमी रहती है। वहां एक हद तक कल्पना का प्रभाव होता है और साथ ही दृष्टि भेद होता है। अशिक्षा इस समाज की एक बड़ी समस्या है। वयनाड में अभी भी दसवीं कक्षा तक पास होने वाले आदिवासी विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम है। कई अभावों के चलते आदिवासी मुश्किल से ही पढ़ पाता है। इन्हीं प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच में भी छोटे-मोटे कामों द्वारा जीवन आगे बढ़ता है। अगर किसी आदिवासी का सरकारी नौकरी में प्रवेश होत भी है तो तो अपने गांव और समाज के साथ उसके संबंध का तार हमेशा के लिए टूट जाता है । वयनाड में आदिवासी साहित्य, कला और संस्कृति को बचाये रखने के सिलसिले में कनव नामक एक सांस्कृतिक संस्था काम कर रही है। केरल के विशिष्ट सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक के.जे. बेबी ने इस संस्था की स्थापना की है। अभी यह विद्यालय के रूप में उभरकर आ रही है। यहां शिक्षा के साथ कला और पारंपरिक विद्याओं का भी प्रशिक्षण दिया जाता है।  फिर भी यहां के लोग अभी भी मुख्यधारा से संपर्क करने में झिझकते हैं। के.के.कोच्चु, कालन आदि सामाजिक कार्यकर्ता आदिवासी समस्याओं को साहित्य और समाज के सामने लाने के लिए भरपूर कोशिश कर रहे हैं। पी.के. कालन ने अपना पूरा जीवन वयनाड के आदिवासियों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। वयनाड में साहित्य से हटकर आदिवासी आंदोलन को नया मोड़ देने में सी.के. जानु का श्रेय महत्त्वपूर्ण हैं। चेंगरा और मुत्तंगा भू-आंदोलनों ने केरल के आदिवासी जीवन संघर्ष को एक नया आयाम दिया है। अभी भी वयनाड में भू-आंदोलन हो रहे हैं। इस तरह यहां के आदिवासी राजनीति में अपनी पहचान  बनाने में सफल रहे हैं। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में यह लोग अभी भी बहुत कदम पीछे हैं। जब तक यहां के आदिवासी शिक्षित नहीं होते, वे अपने साहित्य और कलाओं के प्रति जागरूक नहीं होंगे। उचित शिक्षा के अभाव में अपनी पहचान बनाना आदिवासियों के लिए मुश्किल हो गया है, उनका शोषण सतत् जारी है।।
शिक्षा अभी भी आदिवासियों के सामने की एक बड़ी चुनौति है। शिक्षा के अभाव में साहित्य में अपने आपको स्थापित करना मुश्किल ही है। केरल में आज भी ऐसे बहुत सारे आदिवासी कबीले हैं जिनके बारे में मलयालम साहित्य में अभी तक जिक्र ही नहीं हुआ है।  नारायन के कोच्चरेत्ति उपन्यास द्वारा  मलयालम उपन्यास जगत में आदिवासी साहित्यिक धारा का आगाज़ हुआ है। अब इस धारा के प्रवाहमान होने का मार्ग खुल रहा है। आशा है कि यह धारा एक दिन उस स्रोतस्विनी का रूप ले लेगी, जिसके दोनों छोरों पर वन के प्राकृतिक वातावरण में पक्षियों और मनुष्यों का सहअस्तित्व होगा। और बॉक्साइट के लिए हत्याएं करने वाले भी इस लोक धारा का महत्व समझेंगे। पानी को बोतलों में पीनेवाले इसी स्रोतस्विनी में अपनी ही छाया देखने के लायक बनेंगे।
सहायक ग्रन्थ -
1. पी.वत्सला, नेल्लु, डी. सी. बुक्स, कोट्टयम 686001
2. नारायन, कोच्चरेत्ति, डी.सी. बुक्स, कोट्टयम 686001
3. मलयाटूर रामकृष्णन,पोन्नी, डी.सी. बुक्स, कोट्टयम 686001
4. पी.वत्सला, कूमन कोल्ली, डी.सी. बुक्स, कोट्टयम 686001
5. नारायन, ऊरालीक्कुडी, साहित्य प्रवर्तक कोपेरेटिव लिमिटेड नेशनल बुक स्टॉल,कोट्टयम 686001
6. के. जे. बेबी, मावेली मन्ट्रम, कालीकट युनिवर्सिटी प्रेस
7. उराट्टी  टी.सी. जॉन करन्ट बुक्स कोट्टयम 686001
8. डॉ. पी. ए. पुष्पलता, पीण्वत्सलयुडे स्वंतं वयनाडु, केरला साहित्य अकादमी 680620
संपर्क - रम्या बालन के., शोधार्थी, हैदराबाद विश्वविद्यालय, ईमेल - ramyamhere@gmail.com






मूक आवाज़ हिंदी जॉर्नल
अंक-4                                                                                                                                                                                                                                                                                                    ISSN   2320 – 835X
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें