सुधा अरोड़ा का उपन्यास ’यहीं कहीं था घर’
में व्यक्ति
के मानसिक तनावों और उलझनों का चित्रण है। उपन्यास में सामाजिक विश्वासों,
रूढ़ियों के
कारण पात्रों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है,
कभी वे उन
समस्याओं से संघर्ष करते हैं और कभी-कभी उनमें उलझते जाते हैं। उपन्यास की स्त्री
पात्र सुजाता खुद मानसिक रूप से तैयार नहीं कि वह पढ़ाई छोड़कर शादी कर ले लेकिन
मां-बाप के कहने पर और परिवार के धार्मिक गुरू स्वामीजी के कहने पर सुजाता चुपचाप
शादी कर लेती है। सुजाता के माध्यम से लेखिका ने यहां परिवार की बड़ी लड़की की
स्थिति और दशा को दर्शाया है जिसमें अक्सर बड़ी बेटी को सारी मुश्किलों का सामना करना
पड़ता है। सुजाता की छोटी बहन विशाखा भी मानसिक उलझनों में पड़ी एक स्त्री पात्र का
उदाहरण है जो समकालीन पुरुषसत्तात्मक समाज और मानसिकता पर आक्रोश प्रकट करती है।
व्यक्ति समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है, किन्तु जिस समाज में वह रहता है,
वहां कई तरह की विसंगतियां,
रूढियां और परंपराएं प्रचलित हैं। इन्हीं विसंगतियों के
प्रति व्यक्ति विरोध करना चाहता है। यदि वह विरोध कर पाता है तो कई तरह की
समस्याओं से संघर्ष करना पड़ता है और यदि विरोध सफल न हुआ तो मानसिक तनाव उत्पन्न
होने लगता है। नब्बे के बाद नवउदारीकरण के अंतर्विरोधों ने व्यक्ति को घर और बाज़ार
के बीच, आत्मा और दुनियादार बौद्धिकता के बीच और ज्यादा बांटकर रख दिया है।
उपभोक्तावाद और येन-केन-प्रकारेण प्रतिस्पर्धियों से आगे निकलने की भागदौड़ में
उसकी अस्मिता और निजी संमंध कहीं बहुत पीछे छूटते जा रहे हैं। 21 वीं सदी के इस
आधुनिक घुटनभरे जीवन की तमाम उलझनों, तनावों को इस दौर के हिंदी उपन्यासों में भी
साफ पकड़ा जा सकता है।
ज्ञानप्रकाश विवेक के उपन्यास ’आखेट’ में कथानायक चेतन मानसिक तनावों से घिरा हुआ है। घर की
आर्थिक विषमताओं के बीच चेतन इसी सोच में रहता है कि उसे कब नौकरी मिलेगी,
घर का बोझ कब उतार पायेगा। किंतु जब उसे नौकरी मिल जाती है
तब भी वह तनाव में ही रहता है। उसे अब इस सवाल का जबाव चाहिए कि वह कब अपने
कार्यालय के विरोधी माहौल से समायोजित हो पायेगा। अंबाला छावनी के इंश्योरेंस
कंपनी का उसका कार्यालय और वहां काम करने वाले सभी अधिकारी खासकर शिखर पुरुष
चेतन से एक आउटसाइडर की तरह व्यवहार करता है। उसे कई प्रकार
की प्रताड़नाएं देता रहता है ताकि वह ऑफिस से तंग आकर नौकरी से निकल जाये। लेकिन
चेतन उन सामाजिक संघर्षों और समस्याओं से खुलकर संघर्ष नहीं करता बल्कि चुपचाप उन
समस्याओं को शहीदी मुद्रा में सहन करता रहता है। इसी कारण उसे मानसिक तनावों से
गुजरना पड़ता है। व्यक्ति का यही मानसिक तनाव उसके अंदर दुर्बलता को जन्म देता है।
ऐसे में व्यक्तिव में अनेक दुर्बलताएं आ जाती हैं। उपन्यास का कथानायक चेतन का
व्यक्तित्व कई कमजोरियों से भरा हुआ दिखाई देता है जिसके कारण उसका मन भी अस्थिर
रहता है। कई बार चेतन के सामने यही स्थिति आयी कि वह नौकरी छोड़ दें या अधिकारियों
के मानसिक अत्याचारों को सहन करता रहे। उसकी यही दुविधा बार-बार उसे तनाव की ओर ले
जाती है। इस कारण वह कोई निर्णय नहीं ले पाता। सामाजिक संदर्भ में चेतन तनावग्रस्त
और आजीविका उपार्जन के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति है तो दूसरी तरफ सामाजिक असंगति के शिकार
बने खंडित व्यक्ति का प्रतीक है। ऊपरी पद पर रहने वाले उच्चवर्गीय लोग कमजोर और
लाचारों पर शोषण करते रहते हैं। लेखक ने वर्तमान जीवन की अनेक कुरीतियों,
समस्याओं और परिवर्तित तथा गिरे हुए नैतिक मूल्यों का
विस्तार से चित्रण किया है। इसमें जीवन की विभिन्न पारिवारिक,
सामाजिक, मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों को प्रस्तुत कर चेतन के द्वारा
वर्तमान व्यक्ति की कमजोरी और बेसहाय अवस्था को दिखाया है।
संजय कुंदन के उपन्यास ‘टूटने के
बाद में’ भी लेखक ने लगभग सभी पात्रों के माध्यम से व्यक्ति के
मानसिक तनावों, उलझनों और समाज में उनसे होने वाले परिवर्तनों-प्रभावों को
विस्तार से प्रस्तुत किया है। रमेश त्रिपाठी,
पत्नी विमला, बेटा अभय और अप्पू अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हैं। न किसी
की एक दूसरे से नजदीकी है और न ही अपनापन। रमेश जो घर के मुखिया है,
उन्हें सत्ता, पैसे, नाम और यश चाहिए। इसलिए वह पत्नी और बच्चों को छोड़कर
देहरादून चला जाता है। मध्यवर्गीय परिवार की इस कथा यात्रा में प्रत्येक पात्र महत्वाकांक्षा
के उच्च शिखरों पर पहुंच जाता है। रमेश त्रिपाठी परिवार की समस्याओं से अलग अपनी
जिंदगी और समस्याओं में उलझा हुआ है। पत्नी विमला भी अपने परिवार,
मां-बाप, शादीसुदा बहन कमला के जीवन संघर्ष को लेकर चिन्तित रहती है।
अप्पू की जिंदगी में हताशा और निराशा के साथ-साथ मानसिक उलझनों और तनावों का
चित्रण लेखक ने किया है। भारत भारद्वाज ने अपने लेख ‘टूटने के
बाद का सन्नाटा, हासिल कुछ नहीं’ में स्पष्टतः लिखा है- ‘‘इस उपन्यास का आरंभ अप्पू के धमकी भरे उच्छवास और उसकी मां विमला और देहरादून
प्रवासी पति रमेश त्रिपाठी के संवाद से से होता है। यह स्पष्ट है कि रमेश की अपनी
पत्नी से दूरी है और अब उसकी जिंदगी में आरुषि आ गयी है। उपन्यास का पूर्वाद्ध
अप्पू की मानसिकता की खोज पर केन्द्रित है।’’[i] अप्पू के
भीतर लगातार कहीं न पहुंचने से निराशा उभरती रहती है और निराशा के एक क्षण में वह
अपनी मां विमला को मोबाइल पर एस.एम.एस करके भेजता है- ’’मैं जा रहा हूं, पता नहीं कहां। मुझे खोजने की कोशिश मत कीजिएगा।’’[ii] अप्पू के इस व्यवहार से उसकी मां परेशान हो जाती है और खुद
बेटे के पास पहुंच जाती है। उपन्यास में अप्पू एक तनावग्रस्त पात्र है। अकेलेपन और
साधारण माहौल में रहकर अप्पू अपने आपको संतुष्ट नहीं कर पाता। बार-बार वह कई तरह
की उलझनों में फंसता रहता है और इसका असर व्यापक समाज पर पड़ता है। व्यक्ति का
अपने आप से, परिवार से, फिर अपने परिवेश से कट जाना एक मुख्य समस्या बन जाता है, जो
सामाजिक व्यवस्था को अंदर ही अंदर नष्ट करता जाता है। व्यक्तिगत समस्याएं और
उलझनें धीरे धीरे व्यापक होकर संपूर्ण समाज को प्रभावित
करती हैं और बाद में ये समस्याएं सामाजिक समस्या बन जाती है। अप्पू के शब्दों में-
’’यह घर, यह अकेलापन, यह लक्ष्यहीनता जीवन है, लेकिन जीवन नहीं है। वह जीवित है
लेकिन जीवित नहीं है। कल उसकी जिंदगी में थोड़ी हंसी उस गौरैया की तरह आयी थी,
जो रोज सुबह खिड़की खोलते ही एक झलक दिखाकर फुर्र हो जाती
है।’’[iii]
सुधा अरोड़ा का उपन्यास ’यहीं कहीं था घर’ में व्यक्ति के मानसिक तनावों और उलझनों का चित्रण है।
उपन्यास में सामाजिक विश्वासों, रूढ़ियों के कारण पात्रों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना
करना पड़ता है, कभी वे उन समस्याओं से संघर्ष करते हैं और कभी-कभी उनमें
उलझते जाते हैं। उपन्यास की स्त्री पात्र सुजाता खुद मानसिक रूप से तैयार नहीं कि
वह पढ़ाई छोड़कर शादी कर ले लेकिन मां-बाप के कहने पर और परिवार के धार्मिक गुरू
स्वामीजी के कहने पर सुजाता चुपचाप शादी कर लेती है। सुजाता के माध्यम से लेखिका
ने यहां परिवार की बड़ी लड़की की स्थिति और दशा को दर्शाया है जिसमें अक्सर बड़ी
बेटी को सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। सुजाता की छोटी बहन विशाखा भी
मानसिक उलझनों में पड़ी एक स्त्री पात्र का उदाहरण है जो समकालीन पुरुषसत्तात्मक
समाज और मानसिकता पर आक्रोश प्रकट करती है। विशाखा अपनी दीदी की स्थिति,
उसकी पढ़ाई को जबरदस्ती छुड़वाना और शादी के लिए मजबूर करना,
घर आये गुरू स्वामीजी के भ्रष्ट चरित्रों वाले चेलों के
आचरणों से अवगत होकर परेशान हो जाती है। उनके विरुद्ध वह आवाज उठाना चाहती है।
लेकिन अपने परिवार की बुजुर्ग दादी,
बाऊजी और मां के चलते सब कुछ चुपचाप सहन कर लेती है। उसकी
तमाम उलझनें मन में ही रह जाती हैं। उपन्यास के दूसरे खंड की स्त्री पात्र चित्रा
भी मानसिक रूप से पीड़ित है। वह अपने परिवार में पति,
सास और बेटे को एक साथ संजोकर आपस में प्यार और नजदीकी
बढ़ाना चाहती है। अपने और अपने परिवार की
सुख-शांति के लिए सतत् प्रयत्न भी करती रहती है,
लेकिन उसकी कोशिश नाकाम रह जाती है। चित्रा ने अपने
परिवारवालों की इच्छा के विरूद्ध दिवाकर से शादी की थी,
शादी के एक दो साल बाद दोनों का एक बच्चा भी हो जाता है
लेकिन पति कुछ बदला-बदला रहने लगता है। दिवाकर के किसी अन्य स्त्री से संबंध हो
जाते हैं। चित्रा बहुत कुछ करना चाहती है लेकिन कुछ नहीं कर पाती। चित्रा के प्रति
दिवाकर कई प्रकार से उपेक्षापूर्ण व्यवहार करने लगता है। उसके सामंती मिजाज,
आवारगी और इससे उत्पन्न तनावों और झगड़ों से दोनों के बेटे
मोनू पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। जब परिवार में मां-बाप झगड़ा करते,
उलझते रहते हैं तो इसका गहरा असर बच्चों पर भी पड़ता है।
लेखिका ने मोनू के माध्यम से मानसिक रूप से ग्रस्त बच्चे के भीतर पैदा होने वाली टीस
को इस प्रकार व्यक्त किया है- ’’बस बहुत हो गया। अब आप और इस तरह लड़ोगे तो मैं यह घर
छोड़कर चला जाऊंगा। मैं सच्ची कह रहा हूं। जाऊं मैं?
चला जाऊं? उसके शब्द धमकी दे रहे हैं,
लेकिन उसकी आंखें भीगीं और आवाज सहमी हुई है।’’[iv] इन वाक्यों में माता-पिता के आपसी झगड़ों से बच्चों पर
होने वाले दुष्प्रभाव संकेतित है। साथ ही चित्रा जो मोनू की मां है,
उसकी मानसिक तनाव की स्थिति इन शब्दों में देख सकते हैं- ‘‘मेरे भीतर एक गुबार भर गया है। मैं बच्चों की तरह गला फाड़-फाड़कर रोना चाहती हूं।
चीखना चाहती हूं। हल्का होना चाहती हूं, पर दिवाकर के सामने रोने में मुझे अपना अपमान लगता है। मैं
सड़क चलते किसी अजनबी के सामने रो सकती हूं। बेशक वह मुझे एक पागल औरत समझे,
पर दिवाकर को अपने बेशकीमती आंसुओं का तोहफा देकर उनकी
आंखों में दया या बेजान तटस्थता को और झेलना मेरे लिए नामुमकिन है।’’[v] इसमें नारी की मानसिकता,
पुरुष सत्तात्मक समाज की क्रूरता और अंधापन और मरणासन्न व्यवस्था
को स्पष्ट किया गया है।
असगर वजाहत का उपन्यास ’बरखा रचाई’ में व्यक्ति की अपनी निजी जीवन संबंधी समस्याओं के साथ साथ
आधुनिक युग की समस्याओं, समाज एवं मानसिक परिस्थितियों का चित्रण भी किया गया है।
साथ ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण उसकी परिस्थितियों के आधार पर होता हुआ
दिखाया गया है। वह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग व्यवहार करता है। जैसी उसकी
परिस्थितियां है, वैसे ही व्यक्ति समाज के साथ अपना संबंध स्थापित करता है।
व्यक्ति का समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ कैसा संबंध है,
इसको पहचानना भी आवश्यक,
यही उपन्यास में दिखाया गया है। ’बरखा रचाई’ के कथानायक साजिद अली के व्यक्तित्व की सहनशीलता और तमाम उलझनें
उसके निजी जीवन, परिवार, काम और दोस्तों के संदर्भ में ही समझी जा सकती है। साजिद के
अतिरिक्त उपन्यास में अहमद की कार्य प्रणाली,
शकील की उलझन, कमाल का सधा हुआ व्यक्तित्व,
नूर की स्वातंत्र्यप्रियता,
सल्लो की मनोग्रंथियां,
और अनुराधा की पीड़ा को मनोविश्लेषण के आधार पर प्रस्तुत
किया गया है। साजिद की मनःस्थिति, उसका व्यक्तित्व अपने कार्यालय और पारिवारिक परिस्थितियों
के संदर्भ में ही देखा जा सकता है। साजिद को जब नौकरी नहीं मिलती तो वह अपने गांव
चला जाता है। कुछ वर्ष वहां रहकर वह जब खेती करके पैसा कमाने लगता है तो उसे यह
महसूस होने लगा था कि जगह और परिस्थितियां व्यक्ति को अपने अनुकूल बना लेती हैं।
अपने पुराने दोस्तों के साथ मिलकर सामाजिक समस्याओं और कई तरह के विषयों पर भी वह विचार
विनिमय करता रहा। लेकिन साजिद के मन में यह उलझन भी रहती है कि इस तरह के कार्यों
में पांव रखने से वह सफल हो पायेगा भी या नहीं। सामाजिक परिस्थितियों के साथ वह
कभी जुड़ पाता है तो कभी नहीं भी। इस बीच ’द नेशन डेली’ नाम का पत्र, जो अंगेजी का प्रमुख अखबार है,
में नौकरी करने का अवसर उसे मिलता है। इसी कारण साजिद फिर
से अपना गांव छोड़कर जाने पर मजबूर हो जाता है। व्यक्ति को समाज की विषमताओं,
कमजोरियों और नैतिक-अनैतिकता के साथ मानव जीवन जीना पड़ता
है। इसका सटीक उदाहरण हैं -उपन्यास के स्त्री पात्र सल्लो और अनुराधा का जीवन। शादी
के बाद सल्लो अर्थाभाव के कारण सही समय पर इलाज न हो पाने से बीमार पड़ जाती है और
अंततः मर जाती है। दूसरी तरफ अनुराधा अपने माता-पिता और रिश्तेदारों के दबाव से कम
उम्र में शादी करने पर मजबूर हो जाती है और पढ़ाई-लिखाई छोड़कर न चाहते हुए भी शादी
कर लेती है। आधुनिक जीवन में व्यक्ति परिस्थितियों के जाल में फंस कर अपनी स्थिति
से असंतुष्ट, नाखुश और तनावग्रस्त रहता है। उपन्यास का मुख्य पात्र साजिद
अपनी स्थिति से कभी खुश दिखाई देता है तो कभी नाखुश और असंतोष। उसके दोस्त अहमद और
शकील भी अपने ही परिस्थितियों के आधार पर समाज में अपना जीवन यापन करते हैं। समाज
में पायी जानेवाली रूढ़ियों और विश्वासों, व्यक्ति के अन्तर्मन में होने वाले संघर्षों और
जाति-व्यवस्था के चलते समाज पायी जानेवाली असमानताओं के संबंध में राहुल सिंह अपने
लेख ’बरखा रचाई : आगी लगाई से बरखा रचाई तक’
में लिखते हैं - ’’हमारा समाज छोटी छोटी बिरादरियों में बंटा हुआ है और ये
बिरादरियां लोकतांत्रिक यानी बिरादरी की बैठकों में जनमत के आधार पर निर्णय लेती
हैं और चाहती हैं कि उनका प्रतिनिधित्व उनकी ही जाति या बिरादरी का आदमी करे। यह
बिरादरी समूह या गठबंधन नया नहीं है, बहुत पुराना है। इसे तोड़ना अभी सम्भव नहीं है।’’[vi]
समाज एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्तियों के समूह से बनी है।
समाज के नीति-नियम, मान्यता-अमान्यता, स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता जैसे अनेक तत्व व्यक्ति द्वारा ही
बनाये गये है। विभूति नारायण राय ने अपने उपन्यास ’प्रेम की भूतकथा’ में जिस समाज का चित्रण किया है, वह अत्यधिक क्रूर एवं
निर्दयी है। लेकिन यह क्रूर समाज और इसकी व्यवस्था उसी समाज में रहने वाले
व्यक्तियों ने ही बनायी है। इसमें ऐसे ही समाज का चित्रण किया गया है जिसमें
विक्टोरियन शासन व्यवस्था के खोखलेपन और अनैतिकता का पर्दाफाश हुआ है। इसमें
व्यक्ति की उलझनों और तनावों को मुख्य स्त्री पात्र रिप्ले बीन (जिसकी सौ वर्ष
पूर्व देहांत हो चुका है) और उसके योनी भूत के माध्यम से दिखाया है। रिप्ले बीन अपने
प्रेमी एलन की मृत्यु को लेकर अत्यधिक तनाव व पछतावे में आ जाती है। यदि उसने
थोड़ा साहस या हिम्मत जुटाकर सबके सामने कह दिया होता कि एलन ही उसका प्यार है और
जिस रात जेम्स की हत्या हुई तब एलन उसके साथ था,
वह उसकी ही बाहों में सोयी थी, तो उसकी नियति ऐसी न होती।
लेकिन उस तत्कालीन शासन-व्यवस्था के सामने वह यह बात खुलकर बता नहीं पायी। एलन भी
इसी कारण सबके सामने चुप ही रहा और अन्ततः उसने यह स्वीकार कर लिया कि वह फांसी के
फन्दे पर चढ़ जाये। एलन का प्यार सच्चा था और रिप्ले बीन का प्यार भी सच्चा। लेकिन
उस समाज के चलते, वहां के नीति-नियमों के चलते अपनी इच्छा के विरूद्ध ऐसा काम
कर डाला कि जीवन भर रिप्ले बीन दुःखी और अफसोस की आग में जुझती रही। उपन्यास में
व्यक्ति के मानसिक तनाव व उलझनें रिप्ले बीन और उसकी भूत योनि से व्यंजित होती है।
खोजी पत्रकार को सुनायी गयी अपनी दुःखभरी कहानी से रिप्ले बीन की मानसिक स्थिति
पता चल जाती है। उनके शब्दों में- ‘‘पर भूत रोया। यह भी मेरे
जीवन का विलक्षण अनुभव था-आंसुओं से तर झुर्रीदार चेहरा। आंसुओं से भीगते ही चेहरे
का खुरदुरापन न जाने कहां गायब हो गया। एक स्निग्ध,
कोमल, कातर चेहरा कुछ कहने के लिए व्याकुल था। रोने का यह क्षण
अचानक अनायास आया।’’[vii] व्यक्ति को ऐसी मानसिक उलझनें उसी समाज ने ही दी है जो इसमें
रहने वाले व्यक्तियों ने ही बनाया है। किंतु समाज को मनुष्य की तमाम समस्याओं का
उत्तरदायित्व ठहराने से पहले हमें सोचना होगा कि हमने ऐसा समाज बनाया ही क्यों।
परिवार में पारिवारिक सदस्यों की अपनी अपनी समस्याएं अवश्य
रहती हैं। जयंती रंगनाथन का उपन्यास ’खानाबदोश ख्वाहिशें’
भी व्यक्ति की मानसिक उलझनों,
तनावों और संघर्षों को प्रस्तुत करता है। निधि जो कथा की
मुख्य स्त्री पात्र है, के मन में एक प्रेमपूर्ण दुनिया की आकांक्षा रहती है किंतु जो
जीवन भर उसे नहीं मिलती। निधि को ऐसे हमसफर की तलाश है जो उसकी भावनाओं की कद्र
करे। निधि शिवम से प्यार करती है। बेहतर भविष्य की उम्मीद में वह शिवम के
अनुचित-आक्रामक व्यवहार को भी सहती है। एक बार शिवम ने निधि को रूपदत्त नाम के एक
आदमी के साथ देख लिया तो शिवम निधि को अपशब्द तक कह देता है - ‘‘जब भी सोचता हूं मैं उसके और तुम्हारे बारे में,
मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने देखा है तुम दोनों को बस
स्टैंड पर। मेरे सामने...छि! तुम बदचलन हो। पता नहीं,
मैंने तुममें क्या देखा। उसने निधि को जोर का धक्का दिया।
वह तैयार नहीं थी। एकदम से गिर पड़ी। ...शिवम कहे जा रहा था,
सच बताओ निधि, तुम्हारा उसके साथ कितना गहरा संबंध था?
तुमने उसे कितना पास आने दिया था?
मुझे तो लगता है, आज भी तुम उससे मिलती हो?’’[viii]
हम पुरुष की संकुचित मानसिकता और
स्त्री की मनोदशा को शिवम और निधि के माध्यम से देख पाते हैं।
तनाव, दुख और पीड़ा के कारण निधि की आंखों से आंसू ही बहने लगते
हैं। निधि के लिए रूपदत्त सिर्फ एक सहारा था,
एक अच्छी जान-पहचान। निधि के मन में सिर्फ शिवम ही था,
सच्चे दिल से उसी को ही प्यार करती थी। लेकिन मौका मिलते ही
शिवम ने उसे धोखा दे दिया और वह ठगी सी रह गयी। बहिन की दुर्घटना में मृत्यु हो
जाने पर निधि के घरवाले उसकी शादी उसी के जीजाजी रहे धीरज करा देते हैं। लेकिन
धीरज निर्दोष निधि को हीन दृष्टि से देखते
हुए उस पर शक करने लगता है कि निधि और धीरज के दोस्त जगन्नाथ के बीच कुछ अवैध
संबंध चल रहा है। इसी बात को लेकर एक दिन धीरज निधि को घर से बाहर निकाल देता है।
राजीव कुमार अपने लेख ’महानगरीय जीवन में संबंधों की नियति’
में लिखते हैं - ’’आज पूंजी के मानदंड के अनुसार ढलने के लिए जीवन बाध्य है।
जिस शिवम के लिए निधि घर में बार-बार विद्रोह करती है,
वही शिवम अपना कैरियर बनाने के लिए उसे एक झटके में छोड़
देता है। शिवम के स्ट्रगल में निधि उसे भावनात्मक सहयोग के साथ आर्थिक सहयोग भी
देती थी। लेकिन शिवम उसे ब्रेक दिलवाने वाली चंदा, जो एक बच्चे की मां भी है,
से शादी कर लेता है। जो शिवम निधि के सामने दहाड़ता था चंदा
के सामने मिमियाने लगता है।’’[ix] शिवम के
इस स्वभाव पर यह समाज कभी कुछ नहीं कहता लेकिन निधि जो कुछ घंटों के लिए पति के
दोस्त जगन्नाथ के साथ बाहर हो आयी तो उसकी इज्जत में दाग लग गया। समाज की इस दोमुंहे
आचरण के कारण निधि जीवन भर भटकती रही। उसे पति द्वारा प्रताड़ित किया गया और जीवन
भर संघर्ष करती रही। अपनी पत्नी निधि को घर से निकाल देने से पहले भी धीरज तनावयुक्त
तथा उलझन में रहता था। न वह अपनी मां-बहन से और न ही पत्नी निधि से संतुष्ट था।
लेखिका के शब्दों में - ’’धीरज बहुत परेशान रहते थे। एक तरफ मां,
दूसरी तरफ बीवी। लेकिन ना वे मां को दुखी करते थे,
ना निधि को। वे रोज मां से मिलने लाजपत नगर से सरायकालेखां
जाते। धीरज मां का दिल रखने के लिए दो रोटी खा लेते।’’[x] घर में रहकर या घर वापस आकर भी धीरज का मन शांत नहीं होता।
उसका तनाव और भी प्रखर होने लगता है। पत्नी निधि उससे खुलकर बात नहीं करती थी और
धीरज चाहकर भी निधि से कुछ कह नहीं पाता। यही कारण है कि इन व्यक्तियों के भीतर
तनाव और उलझनें भरी रहती हैं।
‘कम्बख़्त
इस मोड़ पर’ उपन्यास में लेखक रमेश चन्द्र शाह ने व्यक्ति के निजी जीवन
संघर्ष, उसके मानसिक तनाव, उलझनों और समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का चित्रण किया है।
कथा आख्याता अर्थात् लेखक को इतने बड़े समाज में रहकर अकेलापन व समाज से कटाव
महसूस होता है। उसको लगता है कि यदि समाज में रहने वाले व्यक्तियों को उसकी जरूरत
नहीं है तो उसको भी किसी की जरूरत नहीं है। वह अपने जीवन का अनुभव छोटे बेटे को
बताते हुए लिखता है- ‘‘और...मेरा कोई मित्र नहीं बना,
किसी को जरूरत ही नहीं महसूस हुई मेरी,
किसी ने समझा ही नहीं मुझे इस लायक,
कि मुझसे उसे कुछ मिल सकता है,
तो मैं इसके लिए क्या कर सकता हूं?
यह क्या मेरा कसूर है?
मैंने तो अपने दरवाजे किसी के लिए बंद नहीं किए थे,
सबके लिए खुले रखे थे। कोई फटका ही नहीं मेरे पास,
तो मैं क्या करूं? नहीं समझा लोगों ने मुझे लाभकारी या ताकतवर,
तो ठीक ही तो समझा। न तो दुनिया से मुझे कोई शिकायत है,
न दुनिया को मुझसे कोई शिकायत करने का हक है। कोई मुझे क्या
समझता है, दुनिया की आंखों में मैं कैसा दीखता होऊंगा- इसकी परवाह कभी
मैंने की क्या? कभी नहीं की। तो ठीक है, मैं अगर असफल हूं तो अपने ही
मानदंडों के अनुसार असफल हूं। दुनिया के मानदंडों की मैंने परवाह ही कब की?’’[xi] समाज के साथ लेखक की मानसिकता और तनाव का चित्रण एक पत्र
के माध्यम से दिखाया है। समाज के भीतर रहकर व्यक्ति अकेला और नितांत कटा हुआ नहीं
रह सकता। ऐसे रहने से अपने आप में ही उलझनें पनपने लगती हैं। लेखक इसी मानसिकता से
अवगत होकर बेटे को समझाता है कि दुनिया से विलगकर रहने की कोशिश कभी न करें। यदि
ऐसा किया तो दुनिया या यह समाज तुझे अलग कर देगा और खुद समाज में जीने में तकलीफ
होगा। लेखक के शब्दों में- ’’मगर...तुम, बेटे...तुम मेरी तरह दुनिया की अनदेखी मत करना। नहीं तो
दुनिया पलट कर तुम्हें जिस तरह अनदेखा करेगी,
वह तुमसे झेला नहीं जाएगा। तुम,
तुम ही हो, मैं नहीं। जैसे कि,
मैं भी मैं ही था, मेरे पिता नहीं।’’[xii] लेखक ऐसी चिट्ठी बेटे को लिखकर अपनी मानसिक ग्रंथियां खोलने
और समाज में अपना स्थान कायम करने का प्रयास करता है। लेखक व्यक्ति के निजी जीवन
और खुद की जीवन शैली को स्पष्ट करते हुए कहता है कि हर आदमी का अपना-अपना जीवन
जीने का ढंग रहता है। यदि समाज में वह तरीका फिट हुआ तो व्यक्ति को कोई मानसिक
उलझनें व तनाव नहीं रहता और अगर अनफिट रहा तो वह जीवन शैली अत्यधिक यातनाजनक और
संघर्षमय हो जायेगी।
धीरेन्द्र अस्थाना ने भी अपने उपन्यास ’देश निकाला’ में व्यक्ति के मानसिक तनाव,
उलझनों और अकेलेपन का विस्तार से चित्रण किया है। गौतम सिंहा
जो एक सुपरहित फिल्मी लेखक बन गया है, के साथ मल्लिका लिव-इन-रिलेशनशिप में एक ही फ्लैट में रहती
थी। लेकिन बाद में गौतम और मल्लिका के स्वभाव में अन्तर आने लगता है। गौतम खुले
स्वभाव का था। वह किसी भी बन्धन में बंधना नहीं चाहता था। गौतम अत्यधिक
महत्वकांक्षी और ऊंची उड़ान भरने वाला व्यक्ति था। लेकिन मल्लिका के भीतर एक
स्त्री की समग्र कोमल भावनाएं और मासूम आकांक्षाएं भरी हुई थीं। मल्लिका को एक
सुव्यवस्थित जीवन, आपसी लगाव और सामाजिक गरिमा से जुड़ा हुआ एक घर चाहिए था।
उसे धन की परवाह नहीं थी लेकिन प्यार की अनदेखी उसे स्वीकार्य नहीं थी। यही कारण
है कि दोनों अलग अलग रहने लगे। मल्लिका बदलते हुए समय की जरूरत को भांप जाती थी।
वह चाहती थी कि गौतम भी उसे समझे, यथार्थ को स्वीकार कर ले। लेकिन गौतम रूकना नहीं जानता था।
वह किसी के लिए रूक नहीं सकता था। अपनी प्रेमिका मल्लिका के लिए भी नहीं। यही बात
मल्लिका को सबसे ज्यादा टीसती थी कि प्रेमिका और पत्नी होकर भी गौतम की दुनिया में
वह खास नहीं रह पायी। एस.एस.निरूपम अपने लेख ’गूगल और ग्लैमर के बरक्स’
में लिखते हैं - ’’गौतम स्वयं को लेकर बहुत मोहासक्त रहने वाले पुरुष थे। हों
भी क्यों नहीं, वह थियेटर के सुपरस्टार थे। पृ.थ्वी थियेटर में जब उनका
नाटक खेला जाता था तो शाम छह और रात नौ वाले दोनों शो लगभग हाउसफुल रहते थे। लेकिन
गोवा के फिल्म समारोह में उन्हें अपरिचय के जिस विंध्याचल से टकराना पड़ा,
उनके तईं दुखद था। यह दुखद स्थिति गौतम के जीवन में एक बड़े
बदलाव का कारण बनी। दरअसल गौतम को दुख इस बात का था कि वह पीछे छूटते जा रहा है और
ग्लोबलाइजेशन की इस बयार में भला पीछे कौन छूटना चाहता है,
चाहे जीवन का राग बेसुरी चीख में या असहाय क्रंदन में ही
क्यों न बदल जाये।’’[xiii] गौतम की
इसी महत्वाकांक्षा और सोच के कारण छोटी-छोटी असफलताओं पर भी उसे दुःख एवं तनाव उत्पन्न
होने लगता है। व्यक्ति की इसी मानसिकता के कारण वह खुद अपनों से ही नहीं बल्कि
समाज से भी कट जाता है। मल्लिका भी उसके इस स्वभाव से ऊबने लगता है,
इसलिए दोनों ने अन्ततः अलग-अलग रहने का निर्णय लिया। कानूनी
तौर पर जब दोनों ने शादी कर ली थी तब भी गौतम अपनी प्राइवेसी कायम रखना चाहता था।
मल्लिका के लिए यह बहुत ही दुखद था कि जब उसने गौतम को बताया कि दोनों एक साथ एक
ही फ्लैट में रहेंगे तो गौतम ने साफ मना कर दिया। कहने लगा- ‘‘दोनों अलग-अलग अपने-अपने फ्लैटों में ही रहेंगे और जरूरत के मुताबिक एक-दूसरे
के फ्लैट में आते-जाते रहेंगे। कोई किसी की प्राइवेसी का अतिक्रमण नहीं करेगा। कोई
किसी के एकान्त पर हमला नहीं बोलेगा। मल्लिका जैसे एवरेस्ट से गिरी। स्टारडम के शीर्ष
पर खड़े इस गौतम को मल्लिका सिर्फ अपनी नम हुई आंखों के साथ देखती भर रह गयी। उसे
समझ आ गया। गौतम ने सिर्फ सामाजिक और कानून सुरक्षा का वरण किया है,
जिम्मेदारियों का नहीं,
वफादारी का नहीं, सामंजस्य का नहीं।’’[xiv] गौतम के इसी स्वभाव के कारण मल्लिका तनावग्रस्त हो जाती है
और अपने को नियति के हिसाब से समेट लेती है। शादी के बाद पति से अलग अपने-अपने
फ्लैट में रहने के बारे में मल्लिका ने कभी नहीं सोचा था,
इसलिए वह कई उलझनों में जकड़ जाती है।
इससे स्पष्ट होता है कि इक्कीसवीं सदी ने कई मायनों में
व्यक्ति जीवन और सामाजिक मूल्यों पर काफी प्रभाव डाला है। इस विखंडित समय में लिखे
जा रहे हिंदी उपन्यासों में अपने समय के तनाव और उलझनों को सामने रखकर व्यक्ति मन
की गांठे खोलकर आधुनिक मानव द्वंद्वों को समझने का प्रयास किया गया है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
[vii] विभूति नारायण राय, प्रेम की भूतकथा, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 110003, प्रथम संस्करण 2009, पृ. 142
संपर्क – जमुना सुखाम, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, मणिपुर विश्वविद्यालय, कांचीपुर, इम्फाल,795003, दूरभाष-09774675045, ईमेल -
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