1857 की क्रांति को हिंदी नवजागरण का पहला चरण कहा जाता है।
भारतेंदु युग इस नवजागरण की दूसरी कड़ी है। हिंदी जनता के राजनीतिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रशिक्षण की शुरुआत इसी काल में हुई।
स्वत्व की पहचान तथा शेष दुनिया से संपर्क और बराबरी की इच्छा हिंदी जनता के मन
में इसी समय जन्म लेती है। यह काल विभिन्न समाज सुधारकों और उनके आंदोलनों का भी
है। अंग्रेजी शिक्षा, मुद्रित रचनाओं के प्रसार तथा नौकरीपेशा एवं मध्यवर्ग के
उदय ने हिंदी समाज की पहचान को जितना प्रकट रूप से प्रभावित किया उससे अधिक इसके
दूरगामी प्रभाव रहे। भारतेंदु और उनके समकालीनों ने इसी समय हिंदी गद्य को पहचान दिलाई
और समकालीन आवश्यकताओं के साथ-साथ भविष्य के दायित्वों की पूर्ति हेतु सक्षम भी
बनाया। आधुनिकता की आवश्यकता पूर्ति करते हुए निबंध,
नाटक, आलोचना, उपन्यास और पत्रकारिता की ठोस पहल इन रचनाकारों ने की।
हिंदी की पत्रिकाओं का कार्य केवल कविता-कहानी का प्रकाशन
और साहित्य चर्चा करना न था। इनका एक बड़ा लक्ष्य पाठकों को जाग्रत और अपने समय के
समकक्ष खड़ा करना था। साहित्य चर्चा से इतर इनके समक्ष कई लक्ष्य थे, जैसे-
राजनीति, शिक्षा,
स्वास्थ्य, विज्ञान,
स्त्री सुधार, बाल-कल्याण आदि। नया पढ़ा-लिखा वर्ग इनसे मनोरंजन, रुचि का परिष्कार एवं ज्ञानार्जन कर रहा था। भारतीय मध्य
वर्ग और इस नए पढ़े-लिखे तबके की बढ़ती हुई भूमिका ने भारत में उपभोक्तावादी
संस्कृति को जन्म दिया। विदेशी व्यापार ने इसके लिए बीज-पानी उपलब्ध कराया था।
व्यापार के लिए विज्ञापन अनिवार्य हैं और उनके द्वारा उपभोक्ता संस्कृति को
प्रेरित-प्रभावित भी किया जा सकता है, यह समझ भारतीय परिदृश्य में पहली बार इसी समय कायम हुई। विदेशी व्यापार के पास
संसाधन अधिक थे और स्वयं को विज्ञापित करने की तकनीकें भी। राष्ट्रीय स्वतंत्रता
आंदोलन के समानांतर और उसके एक पक्ष के रूप में शुरू होनेवाले स्वदेशी वस्तुओं के
प्रयोग और उनके अधिक से अधिक प्रचलन की प्रक्रिया में इन उत्पादों के विज्ञापन की अनिवार्य
जरूरत भी समझी गयी। विज्ञापन पहले भी थे, पर इतनी निरंतरता और आक्रामकता के साथ बीसवीं सदी में ही निकलते हैं। देशी
उत्पादों को विदेशी चीजों से स्पर्धा करनी थी और दूसरी देशी चीजों से भी। उन्हें
भारतीय जनता को उत्पाद से परिचित भी कराना था।। इन विज्ञापनों का महत्त्व समझने का
सुंदर उदाहरण प्रेमचंद का लेख 'देसी अशिया को क्योंकर रोग हो सकता है (जमाना, 1905) है । प्रेमचंद लिखते हैं, “व्यास्पार के रास्ते में
पहली बाध यह है कि अभी तक हमारे देशवालों को हिंदुस्तानी उद्योग-धंधों और कारखानों
की जरा भी जानकारी नहीं है ।.......आमतौर पर यह हमको नहीं मालूम कि हिंदुस्तान में कौन-सी चीज कहां बनती है
। इस अज्ञान को दूर करने का सिर्फ यही इलाज है कि विज्ञापनों से अधिक से अधिक फायदा
उठाया जाए और विभिन्न देशी भाषाओं में आसानी से समझ में आनेवाले विज्ञापन प्रकाशित
किए जाएं।’’ इसी पृष्ठभूमि
में भारतीय भाषाओं में विज्ञापनों का प्रकाशन आरंभ हुआ। देशी उत्पादों के
प्रचार-प्रसार के लिए पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापनों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण माना
जाने लगा।
विज्ञापनों के प्रकाशन से किसी उत्पाद मात्रा से जुड़ी सूचनाएं
ही सार्वजनिक नहीं होती हैं, बल्कि इससे उत्पादक और उपभोक्ता दोनों वर्गों का पता चलता है। एक विज्ञापन में
केवल उत्पाद ही उपस्थित नहीं होता, बल्कि उत्पाद का समय और समाज भी उपस्थित होता है, एक ‘भाषा’ भी उपस्थित होती है, जो बहुसंदर्भी होती है। इन विज्ञापनों में मौजूद चेतना,
जो विज्ञापन के कंटेंट, भाषा एवं प्रस्तुति के साथ उभरती है,
वह उस दौर के व्यापार, व्यापारिक समझ, प्रतिस्पर्धा को ही समझने में सहायक नहीं है, बल्कि उस वक्त के भारतीय समाज की समझ को देखने-परखने का
बिलकुल अलहदा तरीका भी प्रस्तुत करती है।
इन विज्ञापनों में देश और देश का संदर्भ किस रूप में उपस्थित
है, यह देखना सचमुच रोचक है। इन विज्ञापनों में 'देश की यह उपस्थिति अलग-अलग रूपों में है। जब ‘देश’ है तो 'विलायत’ भला कैसे न होगा! गणेश
शंकर विधार्थी द्वारा संपादित साप्ताहिक ‘प्रताप’’ में
आयुर्वेदिक औषधी 'अमृतधारा’ के विज्ञापन की शुरुआत इस
प्रकार होती है-
‘‘जिसप्रकार विलायत से पिपरमेंट की टिकियां आती हैं,
वैसी टिकियां अमृतधारा प्रविष्ट करके हमने बनवाई हैं,
जिनको मुख में रखकर चूसते रहने से अमृतधारा का लाभ होता
है.........’’[i]
इस विज्ञापन में 'विलायत’ का उल्लेख क्या संयोग
मात्रा है? दरअसल, 'विलायत’ की चर्चा किए बिना 'देश’ की उपस्थिति नहीं हो
सकती। पराधीन भारत में यह बहुत स्वाभाविक और एक तरह से अनिवार्य था। अब प्रश्न यह
है कि ‘विलायत’ यहां किस रूप में है?
प्रत्येक विज्ञापन में इसकी उपस्थिति अलग-अलग रूप में है।
कहीं इसका 'खल रूप’ है तो कहीं यह एक
दुर्निवार आकर्षण के रूप में। विलायत का आकर्षण और उसका अनुकरण, यह उस
दौर की एक खासियत है। विदेशी अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण में यह अनुकरण सीमेंट का
काम करता है। कहना न होगा, यह अनुकरण किसने अधिक किया! इस अनुकरण के पीछे कम से कम दो
कारण तो अवश्य थे। पहला, अंग्रेजों की तरह दिखने की इच्छा ताकि उनकी कृपा मिल सके।
दूसरा, अंग्रेजों की तरह दिखकर उनसे अपनी बराबरी साबित करना। इन
दोनों कारणों का एक समान उद्देश्य था और वह था शेष भारतीय समाज पर अपना रोब गालिब
करना। उनसे अपने आपको श्रेष्ठ साबित करना। 'अमृतधारा’ के उक्त विज्ञापन में
विलायत के लिए हिकारत का भाव नहीं है, नकारात्मक प्रतिस्पर्धा नहीं है,
बल्कि अनुकरणात्मक प्रतिस्पर्धा है।
इस प्रतिस्पर्धा का एक दूसरा रूप 'हाथरस के चाकू’ के विज्ञापन में मिलता
है। विज्ञापक है- स्वदेशी
वस्तु कार्यालय, हाथरस। विज्ञापन 'नए फैशन के कमानीदार हाथरस के पक्के चाकू’ शीर्षक
से है। इस विज्ञापन की पहली पंकित है -
विलायती चाकुओं से अच्छे होने की यह घोषणा ग्राहकों को
आकर्षित करने का तरीका है। इसे उत्पादकों के देश-प्रेम का प्रदर्शन भी कह सकते हैं,
पर गौरतलब यह है कि पैमाना यहां भी 'विलायत’ ही है। यानी,
'देश की चर्चा 'विलायत की चर्चा के बिना नहीं हो सकती। इसके पीछे उत्पादकों
द्वारा विलायती चीजों के अच्छे होने को स्वीकारना,
उस 'अच्छा’ होने की चुनौती को पार कर
लेना और फिर उसकी उद्घोषणा करना, अपने उत्पाद के जरिए देश
को संभालने और मजबूत करने जैसा अनुभव देना होती थी।
'चाकू का एक दूसरा विज्ञापन ‘प्रताप’’ में
मिलता है। विज्ञापक है - स्वदेशी चाकू कार्यालय,
हाथरस। इस विज्ञापन की पहली पंकित यानी शीर्षक है 'चांद के दो चांद’, आगे की पंक्ति है -
‘‘हाथरस के असली पक्के चाकुओं पर छोटे लाट सर जेम्स मेस्टन साहब द्वारा मिले हैं
जो विदेशियों से अच्छे, सस्ते और पक्के हैं।[iii]
विज्ञापनों के प्रकाशन से किसी उत्पाद मात्रा से जुड़ी सूचनाएं ही सार्वजनिक
नहीं होती हैं, बल्कि इससे उत्पादक और उपभोक्ता दोनों वर्गों का पता चलता
है। एक विज्ञापन में केवल उत्पाद ही उपस्थित नहीं होता,
बल्कि उत्पाद का समय और समाज भी उपस्थित होता है,
एक ‘भाषा’ भी
उपस्थित होती है, जो बहुसंदर्भी होती है। इन विज्ञापनों में मौजूद चेतना,
जो विज्ञापन के कंटेंट,
भाषा एवं प्रस्तुति के साथ उभरती है,
वह उस दौर के व्यापार,
व्यापारिक समझ, प्रतिस्पर्धा को ही समझने में सहायक नहीं है,
बल्कि उस वक्त के भारतीय समाज की समझ को देखने-परखने का
बिलकुल अलहदा तरीका भी प्रस्तुत करती है।
विदेशी
चाकू से प्रतिस्पर्धा इस विज्ञापन में भी है,
पर देशी होने का वह गर्वबोध नहीं है। पिछले विज्ञापन की
तुलना में अगर देखें तो वहां 'विलायत’ एक पैमाने तक ही सीमित था
और उत्पादक की चुनौती उससे अच्छा माल तैयार करने की थी। पर,
यहां अपने उत्पाद की श्रेष्ठता का प्रमाण भी विदेशी से ही
लिया जा रहा है। 'स्वदेशी चाकू’ फैक्टरी वालों को यह लगता
होगा कि शासक वर्ग का प्रमाण पत्र उत्पाद की स्वीकार्यता और श्रेष्ठता को बढ़ा
सकता है। इस विज्ञापन में अपनी श्रेष्ठता की बात इस प्रमाण पत्र के आगे फीकी हो
जाती है।
यह देश-राग शक्कर के विज्ञापन में भी मिलता है। पवित्र
वस्तु प्रचारक कंपनी द्वारा ‘प्रताप’ में शक्कर का जो विज्ञापन दिया जाता है उस
विज्ञापन का शीर्षक है,
'पवित्र स्वदेशी शक्कर’।
विज्ञापन की आरंभिक पंक्तियां हैं-
शक्कर के उत्पादन की प्रक्रिया में हड्डियों के प्रयोग जैसी
प्रचलित बातों और उससे उत्पन्न होनेवाले भ्रमों को दूर करने के लिए इस विज्ञापन
में शक्कर की पवित्रता का और पत्थर के चूने से सफाई का उल्लेख है, पर इससे
कम महत्त्वपूर्ण नहीं है 'हिंदुस्तानी’ मिलों की घोषणा। गोकि,
उपभोक्ताओं के भीतर यह विदेशी शक्कर के साथ अपवित्रता का
भाव भी घर कर जाए!
इसी
शक्कर का ‘प्रताप’ में ही प्रकाशित एक अन्य विज्ञापन इससे संक्षिप्त है,
लेकिन 'देश बोध की दृष्टि से कहीं अधिक मुखर। विज्ञापन इस तरह है –
‘‘अगर आप हिंदुस्तानी मिलों की बनी हुई पवित्र,
बहुत साफ और हर तरह की अच्छी शक्कर मंगाना चाहते हों तो हम
से मंगाइए.......’’[v]
इस विज्ञापन का उपशीर्षक है - 'पवित्रता की गारंटी और 50000 इनाम’। कहना न होगा कि
हिंदुस्तानी वस्तु के साथ पवित्रता का गठजोड़ पिछले विज्ञापन
की तुलना में यहां कुछ और अधिक मुखर है।
‘प्रताप’ में 18 दिसंबर 1916 के अंक में प्रकाशित 'स्वदेशी कोसा (रेशमी) वस्त्र का विज्ञापन भी 'देशहित’ की घोषणा करता हुआ मिलता
है, विज्ञापन अत्यंत संक्षिप्त है-
विज्ञापक है - ताराचंद कामताप्रसाद दुबे,
बिलासपुर, म.प्र.। इस विज्ञापन को पढ़ते हुए एक बात स्पष्ट रूप से समझनी
चाहिए कि किसी विज्ञापन में जितना प्रत्यक्ष रूप से कहा जाता है,
उससे कई गुना अधिक अप्रत्यक्ष रूप से। ‘देशहित’ और ‘व्यापारिक
हित’ को साथ-साथ निभाने की ऐसी कोशिशें इस दौर के विज्ञापनों
में बिखड़ी पड़ी हैं।
विज्ञापनों में राष्ट्रीय प्रश्नों और चिंताओं की उपस्थिति
केवल शक्कर, वस्त्र, चाकू आदि उत्पादों की विक्री तक ही सीमित नहीं है। सामाजिक
महत्त्व के प्रश्नों में भी इसकी उपस्थिति देखी जा सकती है। ‘प्रताप’ में 1 जनवरी 1916 के अंक में 'हिंदी भाषा में कुरान’ शीर्षक
से एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ-
‘‘ऐसा सस्ता और उम्दा हिंदी तर्जुमा फिर आप
को न मिलेगा, सिर्फ थोड़ी सी काफियां रह गयी हैं। 432 सफे की
किताब का मूल्य दो रुपये आठ आना और डाक खर्च सात आना फिर यह किताब 10 रुपए को भी न मिलेगी। इसलिए पढ़नेवाले जल्दी करें। किताब
का तर्जुमा अरबी से ऐसी सरल हिंदी में किया गया है कि हर एक आदमी समझ सकता है।’’[vii]
यह विज्ञापन एच. एल. वर्मा, हमीरपुर (यू.पू.) ने प्रकाशित कराया था। इस विज्ञापन में हिंदी भाषा की
सरलता एवं संप्रेषणीयता की चर्चा की गयी है जो अनुवाद कार्य के लिए आवश्यक
है। महत्त्वपूर्ण यह है कि 'कुरान के हिंदी अनुवाद का बिकना निश्चय ही उस सामाजिक
समरसता एवं एकता का परिचायक है जो भारतीय समाज की पहचान रही है। भारतीय स्वतंत्रता
आंदोलन के दौरान इस एकता में कभी-कभी ही फांक दिखाई दी,
अन्यथा यह चट्टानी रूप में सुदृढ़ रही। इसके साथ ही यह उस
समय के पढ़े-लिखे तबके की सांस्कृतिक समझ को भी उदघाटित करता है।
प्रस्तुत अध्ययन केवल साहित्येतर विज्ञापनों पर केंद्रित
है। किंतु चूंकि साहित्यिक विज्ञापनों के साथ ही कुछ दूसरे उत्पादों और कला-रूपों
के विज्ञापन सम्मिलित रहते थे, इसलिए इस प्रसंग में कुछ साहित्यिक विज्ञापनों को भी देख
लेना अनुचित न होगा। ‘प्रताप’ के 8 जनवरी 1917 के अंक में 'स्वराज्य साहित्य’[viii] का विज्ञापन प्रकाशित है। इस विज्ञापन में चार पुस्तकों का
उल्लेख है- 1. स्वराज्य (लेखक- मिसेज वीसट), स्वराज्य की आवश्यकता (लेखक-मि. चिंता.), दुर्बल देश पर भारी बोझ (लेखक- लाजपतिराय), 4. स्वराज्य संगीत (गाने)। ये चारों पुस्तकें स्वराज्य साहित्यमाला के अंतर्गत ‘प्रताप’ द्वारा ही प्रकाशित हुई थीं। यह चौथी पुस्तक गानों की है
जिसमें देशभक्ति के गीत संकलित थे। जन जागरण की प्रक्रिया में ऐसी पुस्तकों की भी
भूमिका रही है।
इसका एक रूप महात्मा गांधी लिखित 'जेल का अनुभव’ के विज्ञापन में भी मिलता
है। ‘प्रताप’ में प्रकाशित इसका विज्ञापन इस तरह है -
‘‘कर्मवीर गांधी लिखित जेल का अनुभव / सत्याग्रह संग्राम में तीन बार जेल जाने
का तथा वहां मिले हुए अनुभव का वर्णन स्वयं गांधीजी ने लिखा है। बड़ी ही अपूर्व
पुस्तक है। हिंदी में छपनेवाली है, पर ग्राहकों की मांग देखे बिना छपना आरंभ न होगा। मूल्य आठ
और छह आने के बीच में रहेगा। अभी से ग्राहक बनने की सहायता करनेवालों से पौन
मूल्य।......’’[ix]
यह विज्ञापनों की दुनिया में गांधी की प्रवेश-बेला है। अभी
तक उन्हें एक मॉडल या किसी दूसरे उत्पाद के लिए प्रचारक का रूप नहीं मिला था। यहां
विज्ञापन उनकी लिखी हुई पुस्तक का है और इसे विज्ञापित करने में उनकी कोई सीधी
भूमिका नहीं है। गांधी के ये जेल अनुभव दक्षिण अप्रफीका के थे। यहां उसे 'सत्याग्रह संग्राम’ कहकर विज्ञापित किया जा रहा था। गौरतलब है कि भारत में उनके राजनीतिक जीवन की
अब तक विधिवत शुरुआत भी नहीं हुई थी।
1916 के लखनऊ कांग्रेस के नेताओं के भाषणों की पुस्तक का विज्ञापन भी द्रष्टव्य
है। यह 'स्वराज्य का संदेश’ शीर्षक
से प्रकाशित है। पूरा विज्ञापन इस तरह है -
‘‘यदि आपको स्वराज्य प्राप्ति का शौक है। और यह जानना चाहें कि भारत के
विद्वानों का स्वराज्य के विषय में क्या विचार है और भारतवासी स्वराज्य के योग्य
हैं या नहीं, तो लखनऊ की कांग्रेस के व्याख्यानों को पढ़िए। जो सज्जन लखनऊ
न जा सकें या इंगलिस में व्याख्यान होने से कांग्रेस के उच्च विचारों से वंचित हैं
और जो सज्जन स्वराज्य के पवित्र भावों का प्रचार करना चाहते हैं, उनके ही लिए ‘स्वराज्य
का संदेश’ नाम पुस्तक छापी गयी है। इसमें राजर्षि तिलक और महात्मा गांधी
के चित्र हैं। टाइटिल पर भारत माता का चित्र है।.......’’[x]
इस तरह हम देखते हैं कि विज्ञापनों की दुनिया में देश और
देश का स्वातंत्र्य संघर्ष प्रवेश पा रहा था। इस तरह की कुछ अन्य पुस्तकें जैसे-
'स्वराज्य की पुस्तकें,
'स्वराज्य की योग्यता’[xi] आदि के भी विज्ञापन ‘प्रताप’ में प्रकाशित हुये। ‘प्रताप’ में स्वयं उनके द्वारा इसी विषय पर प्रकाशित पुस्तकों के
भी विज्ञापन प्रकाशित हुये।[xii]
ऊपर इसका
उल्लेख किया जा चुका है कि गांधी के भारतीय राजनीति में सक्रिय परिवेश से पहले ही
उनकी चर्चा विज्ञापनों की दुनिया में शुरू हो चुकी थी। 1921 तक आते-आते चंपारण और
गुजरात के आंदोलन ने उनकी प्रसिद्धि पर्याप्त फैला दी। वे एक जननायक का रूप
प्राप्त कर चुके थे। बल्कि, जननायक से कहीं अधिक एक त्राणदाता के रूप में शोषित और दुखी
जनता उन्हें देखने लगी थी। मिथकों और कहानियों के देश भारत में उनकी कहानियां फैलने
लगी थीं, कहानियां गढ़ी जाने लगी थीं। व्यापार जगत ने जनता की इस
मनोदशा को बढ़ावा दिया और भुनाया भी। अपने उत्पादों को स्वदेशी कहना और उसके साथ गांधी
का नामोल्लेख करना विज्ञापनों का एक बहुत ही सामान्य लक्षण बन गया। ‘प्रताप’ में ही प्रकाशित कुछ विज्ञापन द्रष्टव्य हैं-
‘‘म. गांधी जी की आज्ञानुसार हाथ से काते हुए सूत के और हाथ से बुने कपड़े की बुनी हुई...’’[xiii] (राष्ट्रीय पोशाक)
“यदि आप म. गांधीजी
के दर्शन घर बैठे करना चाहते हैं तो कपड़े पर 26 इंच लंबे और 20 इंच चौड़े बहुरंगी चित्र मढ़े हुए मंगाकर घर की शोभा बढ़ाइए।.................’’[xv]
15
(म.
गांधी दर्शन)
“यह मशीन
हमने बड़े परिश्रम व खर्च करके तैयार की है। इसको हम लागत मात्र पर महात्मा गांधी
जी के आदेशानुसार मूल्य 10 रु. में देते हैं। .......’’[xvii]
(स्वदेशी मशीन)
“यह
राष्ट्रीय झंडे का चित्र, जैसा कि महात्मा गांधी ने अपने लेख में बतलाया है, वैसा
ही बनाया गया, झंडा लाल, हरा और सफेद रंग का है और उस पर चक्र का चित्र है और
महात्मा जी अपने असहयोगी दल के साथ उसे लिए खड़े हैं.......................’’[xviii] (राष्ट्रीय झंडा)
“महात्मा गांधी
की आज्ञा पालन करने के लिए हमने मुरादाबाद में एक स्वदेशी इंडस्ट्रीयल कंपनी लि.
खोली है जिससे कि स्वदेशी प्रत्येक वस्तु के साथ-साथ गाढ़ा
मुरादाबादी बर्तन विशेषतया विक्रय किया जाता है.............’’[xix]
वस्तुओं को 'स्वदेशी’ कहने की यह ललक हिंदी पत्र-पत्रिकाओं
में प्रकाशित विज्ञापनों में बहुत सामान्य प्रवृत्ति बनकर उभरती है। दवाओं को भी 'स्वराज्यदाता’[xx] कहकर संबोधित किया जाता था। स्याही[xxi],
चाकू[xxii],
चर्खा[xxiii],
चित्र[xxiv]
आदि के विज्ञापन में भी यह बात लक्ष्य की जा सकती है।
खादी एवं वस्त्रों के विज्ञापनों को इस संदर्भ में विशेष
रूप से देखना चाहिए। गांधी ने स्वराज्य और खादी को अभिन्न कर दिया था,
इसकी स्पष्ट छाप खादी के विज्ञापनों में दिखाई देती है-
गांधी के एक ब्रांड बनने,
उनके कथनों और विचारों और यहां तक कि उनका अपने उत्पाद के
विज्ञापन में प्रयोग करने की प्रवृत्ति का हाल यह दिखाई पड़ता है कि बटुए और अंगूठी
भी अब 'स्वदेशी’ और उनके नामोल्लेख के साथ
विज्ञापित किए जाने लगते हैं। ‘प्रताप’ के 30 जनवरी 1922 के अंक में प्रकाशित एक विज्ञापन द्रष्टव्य है -
“महात्मा गांधी
जी आदि भारत के प्रसिद्ध नेताओं के दर्शन की अंगूठियां भी तैयार हो गयी हैं,
धड़ाधड़ बिकी जाती हैं,
शीघ्र मंगाइए।........... रुपया-पैसा रखने के लिए स्वदेशी
कपड़े के बने सुंदर और मजबूत सोफिसानी रंगदार बने हैं कि देखनेवालों की तबीयत खुश
हो जाती है।......... स्वदेशी मलमल पर महात्मा गांधी जी की जय,
स्व. लो. तिलक महाराज की जय आदि के इस प्रकार के शब्द अति सुंदरता से
लिखे गए हैं।’’[xxviii]
देशी कपड़ा पहनने की अपील भावनात्मक होती थी। इन विज्ञापनों
में 'देशहित’, 'देशप्रेम’, 'देशभक्ति’ जैसे शब्दों के प्रयोग से
पाठकों को जज्बाती बनाने की कोशिश की जाती थी। ‘प्रताप’ में 30 जनवरी 1922 के अंक में प्रकाशित खद्दर का विज्ञापन द्रष्टव्य है। यह
वह समय था जब तिलक के निधन के पश्चात गांधी देशभर से तिलक फंड एकत्रित कर रहे थे,
तिलक के संघर्ष और जीवट की छाप जनमानस में गहरी थी।
विज्ञापन में इसका उपयोग यूं होता है -
“गाढ़ा (खद्दर) / राष्ट्रीय सूत्राधर भगवान तिलक के वार्षिक श्राद्ध
से प्रत्येक स्वदेशाभिमानी ने गाढ़ा (खद्दर) पहनने की प्रतिज्ञा की है,
क्या भारतवासी अपना प्रण पालन करने में संकोच करेंगे,
यदि नहीं तो क्यों नहीं।’’[xxix]
खद्दर का एक अन्य विज्ञापन द्रष्टव्य है -
“क्या
आपको मातृभूमि प्रिय नहीं? यदि है तो क्यों नहीं आप खद्दर का प्रयोग तथा प्रचार करते
हैं जो भारत के सुधार का एक मात्र कारण है,
हमने अपने स्टाक में अनेक प्रसिद्ध मनुष्यों के हाथ का बना
हुआ गाढ़ा (खद्दर) एकत्रित किया है.........’’[xxx]
“देश के
कल्याण के लिए देश ही का बना कपड़ा पहनिए। .......... कपड़े देश की पूंजी और देश
की मेहनत से बनते हैं।’’[xxxi]
'स्वदेशी का उल्लेख गौरव-बोध से जुड़ा हुआ था। वस्त्रों के
विज्ञापन में जगह पानेवाला यह 'स्वदेश’ किसी अन्य उत्पाद में उपस्थित
भारत से अधिक मुखर है। 'माधुरी’ में प्रकाशित 'लाल इमली’ के विज्ञापनों में केवल
देशगान ही नहीं बल्कि विदेश के प्रति तिरस्कार का भी भाव बहुत साफ है-
“यह
बिलकुल झूठ है कि हम विदेशी कपड़ों को लाल इमली का बना हुआ कहकर बेचते हैं। लाल
इमली का सब माल हिंदुस्तानी कारीगरों द्वारा कानपुर में बनाया जाता है। यदि आप
चाहें तो लाल इमली मिल्स में आकर इसकी स्वयं जांच कर सकते हैं।’’[xxxii]
“लाल इमली
के शुद्ध ऊनी कपड़े अथवा बुनी हुई पोशाकें कानपुर की साफ सुथरी लाल इमली मिल्स में
बनाई जाती हैं। इनको आदि से अंत तक भारतवर्ष के चतुर कारीगर बनाते हैं। यह इनके
स्वदेशी होने का निश्चित प्रमाण है। हम पब्लिक को निमंत्रण देते हैं कि वह किसी बुधवार
के दिन लाल इमली मिल्स में आकर इसकी स्वयं जांच कर ले।’’[xxxiii]
यह पूर्व में उल्लेखित है कि देशी उत्पादों में आयुर्वेदिक
औषधियों का विज्ञापन सर्वाधिक होता था। अंग्रेजी दवाओं के आने के बाद भी आम जन का
इन औषधियों से विश्वास खत्म नहीं हुआ था और न अंग्रेजी दवाओं पर आस्था पूरी तरह
कायम हो पायी थी। भारतीय अर्थव्यवस्था के बुरे दौर में भी इसका प्रभाव क्षेत्र तब
तक लगभग अप्रभावित था। इन दवाओं के विज्ञापन में 'स्वदेशी’ का पुट डालने की जरूरत
प्राय: नहीं पड़ती थी। इनका 'देशीपन स्वयंसिद्ध था। बहरहाल,
विज्ञापन में देशगान करनेवाले एक विज्ञापन से कुछ अंश
द्रष्टव्य है-
स्वतंत्रता आंदोलन के साथ देशी व्यापार की वृद्धि हो,
यह सभी चाहते थे। इसके लिए अलग-अलग तरीके से प्रयास हो रहे
थे। विदेशी वस्तुओं की निर्भरता कम करना और उनके विकल्प के रूप में भारतीय वस्तुएं
उत्पादित करना, यह एक बड़ी चुनौती थी। भारत में देशी विकल्प उपलब्ध हो सके,
इसके लिए आवश्यक था कि भारतीय उन्हें उत्पादित करें। इसके
लिए उनका प्रशिक्षण आवश्यक था। इस उद्देश्य से पुस्तकें भी प्रकाशित हुई। 'सुधा’ में नवंबर 1936 के अंक में इसी उद्देश्य की कुछ पुस्तकों का विज्ञापन
प्रकाशित है। विज्ञापन की आरंभिक पंक्तियां इस तरह से हैं -
इन उदाहरणों से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला-
राष्ट्रीयता की चर्चा सबसे अधिक वस्त्रों के विज्ञापनों में
मिलती है। दूसरा- इस चर्चा से कोई उत्पाद अछूता नहीं है। चाकू,
घड़ी, कंबल, टेंट, दवा, शक्कर जैसे उत्पादों के विज्ञापनों में भी यह उल्लेख मिलता
है। तीसरा- इन विज्ञापनों में विदेशी चीजों से प्रतिस्पर्धा का भाव,
उनके अनुकरण का भाव,
उनसे श्रेष्ठता की घोषणा और उनके प्रति हिकारत का भाव सभी
मिलते हैं। चौथा- विज्ञापनों में गांधी धीरे-धीरे एक प्रचारक-प्रेरक के रूप
में उपस्थित होते हैं। उनका नामोल्लेख, कथन का उल्लेख, चित्रों का प्रयोग इन विज्ञापनों में किया जाता है।
कुल मिलाकर कहें तो ये विज्ञापन भारतीय जनता की गरीबी,
असहायता और अंग्रेजी शोषण के विरुद्ध गुस्से के भाव को
बखूबी उभारते हैं।
संदर्भ
[xii] उपरोक्त,
पृ. 11, ‘प्रताप’ में जिन पुस्तकों का विज्ञापन प्रकाशित हुआ,
उनमें प्रमुख हैं -
मदनमोहन मालवीय के व्याख्यानों का संकलन,
स्वराज्य की लहर, लोकमान्य तिलक के स्वराज्य पर 12 व्याख्यान और उनकी जमानत का मुकदमा,
मर्यादा का स्वराज्य अंक,
स्वराज्य की गूंज, स्वराज्य की पात्रता और इंग्लैंड के स्वराज्य का इतिहास,
स्वराज्य की पात्रता के प्रमाण,
राष्ट्र निर्माण, स्थानिक स्वराज्य, धर्म और राजनीति, स्वराज्य क्यों चाहते हैं,
स्वराज्य विचार, राष्ट्रीय स्वराज्य,
हिंदुस्तान की मांग,
कांग्रेस-मुसिलम लीग की सुधार स्कीम,
श्रीमान गोखले के व्याख्यान,
चंपारण का उद्धार, मि.मांटेगू के भारतीय प्रश्नों पर विचार।
5 जुलाई 1921 के ‘प्रताप’ में पृ. 13 पर 'हिंदी साहित्य मंदिर’ की ओर
से इन पुस्तकों का विज्ञापन प्रकाशित कराया गया -
संसारव्यापी असहयोग,
स्वदेशी और स्वराज्य,
तिलक दर्शन, गांधीजी कौन हैं ?
26 सितंबर 1921 के ‘प्रताप’ में पृ. 15 पर 'स्वराज्य की कुंजी’, लेखक- म.
गांधी का विज्ञापन
प्रकाशित है। इसी अंक में पृ. 16 पर 'राष्ट्रीय संदेश (स्वामी रामतीर्थ के भाषणों का संकलन) का विज्ञापन प्रकाशित
है।
30 जनवरी 1922 के ‘प्रताप’ में पृ. 19 पर 'जेल यात्रा और संदेश’ का
विज्ञापन प्रकाशित है। विज्ञापन इस रूप में है-
“म. गांधी के आदेशानुसार हमने इस पुस्तक को प्रकाशित किया।
इसमें असहयोग आंदोलन के नेताओं के संदेशों का संग्रह है।’’
10 अप्रैल 1922 के ‘प्रताप’ में पृ.
14 पर 'राष्ट्रीय सिंहनाद’ शीर्षक से हिंदी-उर्दू कविताओं के संकलन का विज्ञापन है।
संपर्क: आशुतोष
पार्थेश्वर, सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, ओरियंटल कालेज, पटना सिटी, दूरभाष - 9934260232,
ईमेल – parthdot@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें