वह केवल समाज की
रूढ़ियों से नहीं बल्कि लेखक और लेखन के बारे में पैदा हुई रूढ़ियों को भी तोड़ने
की कोशिश करते थे। उनके इस व्यक्तित्व को शायद आजादी के उस साठ के दशक ने गढ़ा था
जिसमें लेखक यह मानकर चलता था कि वह इस व्यवस्था में मिसफिट है और इसीलिए उसे इस
व्यवस्था से निरंतर लड़ना है और साथ ही इससे खास सुविधाएं हासिल करने की उम्मीद भी
नहीं पालनी है। उसे केवल लेखन में सफल होने की चाह थी और अन्य चीजों पर ध्यान देने
पर वह खुद को प्रताड़ित सा महसूस करता था।
राजेंद्र यादव दुनिया से इतनी जल्दी अलविदा कहने वाले लोगों में से नहीं थे।
उम्र के इस पड़ाव में भी वह कुछ शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद अपनी जिंदादिली,
सक्रियता और उत्साह के कारण युवाओं के हीरो बने रहे। वह अपने संवेदनात्मक संवादों
और संवादात्मक संवेदनों के लिए जाने जाते थे। इसीलिए वृद्ध-अधेड़ लोगों की तुलना
में उनके घर और दफ्तर में युवाओं का ही आना-जाना ज्यादा लगा रहता था। दिल्ली में
साहित्यिक महत्वाकांक्षा लेकर आने वाले युवकों-युवतियों के लिए उनका दफ्तर
तीर्थस्थल ही था जहां पर चाय जरूर ही पिलाई जाती थी। राजेंद्र जी अपने मेहमान को
चाय पिलाने के लिए प्यार से दहाड़ते- ‘अरे किशन कहां मर गए। जरा चाय ले आ।’ अगर चाय नहीं बन सकी तो
इसका एक ही मतलब होता था कि दूध खत्म हो गया है और किसी को दूध लेने भेजा गया है।
वह उम्र के आगे हार जाने वाले लोगों में नहीं बल्कि उम्र को मुंह चिढ़ाने वाले
लोगों में थे। हर साल अपने जन्मदिन को धूमधाम से मनाकर जैसे सिद्ध करते थे कि
मृत्यु उनके लिए बनी ही नहीं है। मृत्यु, बुढ़ापे या निष्क्रियता की चिंताओं ने
उन्हें भले ही निजी तौर पर कई बार उदास किया हो पर वह सार्वजनिक जीवन में उनके
बारे में बेफिक्र दिखते थे। उन्हें किसी अन्य की मृत्यु दुखी जरूर करती होगी पर वह
गहरी तटस्थता को अपना लेते थे। उनके दफ्तर में प्रसिद्ध लेखिका प्रभा खेतान की
तस्वीर लगी रहती थी और सभी जानते हैं कि प्रभा खेतान से उनकी गहरी मैत्री थी तथा
प्रभा खेतान अपनी क्षमता के अनुसार हंस की आर्थिक सहायता भी करती थी। एक बार मैंने
उनसे पूछा –‘प्रभा खेतान की इस अकस्मात मृत्यु ने तो हम सब को हिलाकर रख
दिया है।’ मुझे लगा कि राजेंद्र यादव यह सुनकर गंभीर हो जाएंगे पर वह
बड़ी कठोर हंसी के साथ बोले- ‘क्या करूं फिर? मरने वाले के साथ कोई मर थोड़े ही जाता है!’ पर यह कहकर भी शायद उन्हें कुछ भीतर तक कचोट गया होगा और उस दिन वह अपने चेहरे
पर उमड़ आए दर्द को हमेशा आंख पर चढ़े रहने वाले काले चश्मे और सिगरेट के धुएं के
पीछे छिपाने की कोशिश कर रहे थे।
राजेंद्र यादव का व्यक्तित्व ऐसा ही था कि कई छोटी-छोटी
चीजों से, साधारण चीजों से जीवनरस को ग्रहण कर सकता था और वह तरोताजा बने रह सकते
थे। महफिलें, साहित्य संबंधी चर्चाएं, स्त्री लेखिकाओं का संग-साथ, कुछ किस्सागोई
और गपशप ही उन्हें निरंतर उत्साहमय बनाए रखते थे। वह अपने व्यक्तित्व और विचार,
दोनों से ही हिंदी के पब्लिक स्फीयर का विस्तार करने में सक्षम थे। वह केवल समाज
की रूढ़ियों से नहीं बल्कि लेखक और लेखन के बारे में पैदा हुई रूढ़ियों को भी
तोड़ने की कोशिश करते थे। उनके इस व्यक्तित्व को शायद आजादी के उस साठ के दशक ने
गढ़ा था जिसमें लेखक यह मानकर चलता था कि वह इस व्यवस्था में मिसफिट है और इसीलिए
उसे इस व्यवस्था से निरंतर लड़ना है और साथ ही इससे खास सुविधाएं हासिल करने की
उम्मीद भी नहीं पालनी है। उसे केवल लेखन में सफल होने की चाह थी और अन्य चीजों पर
ध्यान देने पर वह खुद को प्रताड़ित सा महसूस करता था। संभवतः इसीलिए निर्मल वर्मा
ने अपनी डायरी ‘धुंध से उठती धुंध’ में एक जगह लिखा है –‘मैं जीवन के अन्य क्षेत्रों में असफल हो गया और यह अच्छा भी
हुआ क्योंकि अब मैं पूरी तरह से अपने लेखन के प्रति समर्पित हो सकता हूं।’
व्यवस्था को वह गंदले पानी, सड़ांध और गटर के रूप में देखता था और उसी रूप में
चित्रित करता था। लेखक होने को भी वह विद्रोह, आदर्शवाद, अराजकता और दुस्साहस से
जोड़कर देखता था और अक्सर ही आत्महंता किस्म की बेचैनी से ही अपने को परिभाषित
होते देखना चाहता था। खुद को समाज की अभिशप्त पर सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा मानने का
आत्मविश्वास उसमें लेखन के प्रति भी निष्ठा पैदा करता था। ज्यादा कमाई-धमाई को
लेखकों के बीच अच्छा नहीं माना जाता था और पुरस्कार मिल गए तो ठीक, वरना उनका खास
क्रेज नहीं था। प्रगतिशील आंदोलनों से लेखक का जुड़ाव संकीर्ण सांगठनिक किस्म से
ज्यादा व्यापक संवेदना के धरातल पर होता था। भांति-भांति की आपसी लड़ाइयों के बावजूद
लेखकों को अपनी बिरादरी के प्रति सम्मान की चिंता बनी रहती थी। राजेंद्र यादव जिस
तरह जीवन के अंत तक जिद्दी किस्म की स्वाधीनता की रक्षा करते रहे और व्यवस्था से
टकराते रहे, वह भी इसी का नतीजा था।
उनकी इस आदर्शवादिता, जिसे वह व्यवहारिक बुद्धि के सहारे
बचाए रखते थे, का लाभ उठाने वाले कई नए लेखक भी थे, जो खुद को किसी बड़े आदर्श के
साथ नहीं थे पर हंस के कंधों पर चढ़कर उन्होंने अपने लिए वह जगह हासिल कर ली जिसके
वे हकदार नहीं थे। किसी भी महत्वपूर्ण पत्रिका के लिए नए लेखकों की टीम को तैयार
करना आवश्यक होता है पर नए लेखकों को निरंतर प्रशिक्षित करने, उनके मूल्यबोध का
विकास करने और उनकी संवेदना को ढालने में भी पत्रिका संपादक की भूमिका होनी चाहिए।
पर अपने ढलाने के दिनों में खुद राजेंद्र यादव इस काम को पूरा करने के लिहाज से
सुस्त और उदासीन होते जा रहे थे। वह बार-बार पुराने फार्मूलों से पत्रिका को जीवित
बनाए रखना चाहते थे पर वही फार्मूले पत्रिका को पीछे ले जा रहे थे। अकेलापन और
बीमारी भी इसकी बड़ी वजह थे। आदर्शहीन और कैरियरवादी किस्म के ये युवा राजेंद्र जी
के अकेलेपन का लाभ भी उठाते थे। साहित्य-जगत की खबरें पहुंचाकर वह राजेंद्र जी के
यहां अपना स्थान बनाते थे और बाद में हंस को ही नुकसान पहुंचाने से बाज न आते थे।
इसीलिए हंस का जब इतिहास लिखा जाएगा तो दोनों बातें एक साथ लिखी जाएंगी। एक यह कि
किस तरह हंस ने कई बड़े लेखकों को तैयार किया और हिंदी जगत के पाठकों तक
महत्वपूर्ण रचनाएं पहुंचाई। तो दूसरा यह भी कि हंस ने किस तरह से औसत, जुगाड़ी और
लगभग लंपट किस्म के लोगों को लेखक के रूप में पहचान दिलाकर साहित्य का भारी अहित
किया। जीवन के अन्य क्षेत्रों में जिस तरह संपर्क करने में कुशल लोगों की पूछ बढ़ी,
उसी तरह लेखन में भी ऐसे लोगों की तादाद तेजी से बढ़ती चली गई। इकबाल के शब्दों
में कहें तो- ‘मेरा रोना नहीं, रोना है ये सारे गुलिस्तां का...।‘
राजेंद्र यादव नई कहानी आंदोलन के नेता माने जाते थे पर हंस
ने उन्हें बतौर व्यक्ति और विचारक के रूप में अप्रासंगिक होने से बचाया। वे खुद के
व्यक्तित्व, विचार और कामों को निरंतर केंद्र में रखने की कला का परिष्कार करते
रहते थे। समझौतापरस्त और बेरीढ़ बौद्धिकों में अपने को शामिल करने के बजाय
तेजतर्रार और खरी बात कहने वाले चुनींदा लोगों की श्रेणी में रखना चाहते थे और अंग्रेजीभाषी
बुद्धिजीवियों को ज्यादा पसंद करते थे। विदेशी लेखकों को वह खूब पढ़ते थे और कई
लोगों के मुंह से सुना है कि वह कामू की तरह दिखना चाहते थे। पर महापुरुषों के
जीवनचरित्र की नकल करने से उन्हें बहुत चिढ़ थी। उनके उपन्यास शह और मात का नायक
उदय भी कुछ ऐसा ही कहता है सुजाता से- ‘बहुत ही ईमानदारी से कहूं तो अपने सारे महापुरुषों के जीवन चरित्र, ये सारी
जीवनियां और आत्मकथाएं जिन्हें सत्य की खोज और प्राप्ति के नामों के बिल्लों से
सजाया गया है , मुझे निहायत नकली, बेईमानी भरी और झूठी लगती हैं। शायद रसेल ने
कहीं लिखा है कि कैसी विडंबना है कि कोई
व्यक्ति जब अपनी आत्मकथा लिखता है तो अपने आपको बड़ा क्षुद्र और नम्र दिखाता है
लेकिन जब राष्ट्र अपनी आत्मकथा लिखने बैठता है तो अपने को सबसे महान और श्रेष्ठ
बतलाता है और दोनों झूठे हैं।’ यहां ऐसा लगता है कि और
कोई नहीं बल्कि राजेंद्र यादव ही अपने कथा-नायक के मुंह से बोल रहे हैं और लेखकों
को महापुरुष बनने के बजाय केवल सच्चा लेखक बनने की ही सलाह दे रहे हैं। वे लेखक को
दुनिया को अनुकरणीय झूठों और स्वीकार्य पाखंडों से निरंतर संघर्ष की कसौटी पर कसने
की भी सलाह दे रहे थे। खुद को या तो महान, या फिर अत्यंत क्षुद्र-नम्र दिखाने की
दो अतियों के बीच रहने वाले लेखकों का उचित ही उपहास उड़ाते थे।
कुछ साल पहले जब मैं दिल्ली के नवभारत टाइम्स अखबार में काम
कर रहा था, तब टाइम्स ग्रुप के ही अंग्रेजी अखबार इकोनामिक टाइम्स में भी साहित्य
के लिए लिखा करता था। मेरे दिमाग में अक्सर यह बात रहती थी कि हिंदी की लघु
पत्रिकाओं के बारे में अंग्रेजी मीडिया न कुछ छापती है और न उन्हें नोटिस में लेती
है, जबकि ये लघु पत्रिकाएं लगातार हिंदी में बहस और विमर्श की संस्कृति को जीवित
रखे हुए हैं। अंग्रेजी अखबारों की यह ‘स्नाबरी’ और हिंदी साहित्य के प्रति बेरुखी भरा व्यवहार काफी हैरानी
पैदा करने वाला था और इसे वैचारिक दुनिया से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नापसंद ही
करेगा। इन्हीं सवालों से जुड़े कुछ और सवाल लेकर मैं हंस के दफ्तर जा पहुंचा और
राजेंद्र यादव का इंटरव्यू लिया। जब इंटरव्यू ले रहा था तब उन्होंने एक बात बहुत
बल देकर कही जिसे मैंने इंटरव्यू का शीर्षक भी बना दिया। उन्होंने कहा- We are bold to the limit of
obscenity, and radical to extent of a Naxalite. खुद को अश्लील या
नक्सलवादी बताना केवल उनके विशिष्ट दुस्साहस का नहीं बल्कि पत्रिका के खुलेपन और
जोखम उठाने के स्वभाव का सूचक था। राजेंद्र यादव कई अन्य लोगों की तरह मुझे भी हंस
में लिखने के लिए भी प्रेरित किया। पर मैं यह मानकर चलता था कि राजेंद्र जी ठहरे
हंस के प्रतिष्ठित संपादक और मेरे जैसे ऐरे-गैरे नत्थू खैरे की रचना या लेख को
क्यों छापने लगे। इसलिए हंस में लिखने के उनके सुझाव को मैं तकरीबन भूल सा गया। पर
एक मुलाकात में उन्होंने अचानक ही फिर मुझसे कहा- ‘क्या बात
है, तुम हंस के लिए लिख नहीं रहे हो। क्या किसी ने कह दिया है कि मुझसे बचकर रहो।’ उनकी यह बात सुनकर मैं अचकचा सा गया और लगभग हकलाते हुए ही कहा कि- ‘नहीं ऐसा नहीं है। आपके दुश्मन बहुत हैं पर बड़े नालायक दुश्मन है और आप
बेफिक्र रहिए।’ यह कहकर उन्होंने भी ठहाका लगाया और कहा कि
दोस्त लायक और दुश्मन को नालायक ही होना चाहिए। बाद में उनके आग्रह पर हंस में कई लेख
लिखे और समीक्षाएं कीं। दफ्तर में कभी जाना हुआ तो लगता था कि वह मेरे हाथ को गौर
से देख रहे हैं कि मैं कुछ लिखकर लाया हूं या नहीं।
राजेंद्र यादव ने हंस को सारिका और
धर्मयुग से अलग स्वतंत्र पत्रिका के रूप में खड़ा करने में कामयाबी प्राप्त की थी।
सारिका, धर्मयुग, दिनमान, माया आदि पत्रिकाएं बड़े वित्तपोषित संस्थानों के रूप
में देखी जाती थीं जबकि हंस के पीछे पूरी तरह से राजेंद्र यादव का ही ह्रदय,
मस्तिष्क और संकल्प मौजूद था। राजेंद्र यादव के निधन के बाद कुछ पत्रिकाओं में
लिखे गए संस्मरण और लेखों में उन पर यह आरोप भी
लगाया कि उन्होंने हंस के लिए विज्ञापन जुटाने में कितने समझौते किये या
किस तरह से हंस के बल पर अपने विभिन्न कुंठाओं को पूरा किया। ये आरोप कुछ ही सीमा
तक सही हैं और इनमें ज्यादती भी की गई है। बड़ी, निजी और सरकारी संस्थाओं के पैसे
पर चल रही पत्रिकाओं के संपादक निश्चिंत होकर तथाकथित साहित्य-सेवा कर सकते हैं पर
निजी उद्यम व लगन से खड़ी की गई हंस जैसी पत्रिका के आर्थिक आधार को पुख्ता रखना
निश्चित रूप से जटिल काम है। विज्ञापन जुटाने, स्टाफ के लिए तनख्वाह लायक मुनाफा
कमाने और वितरण की एजेंसियों के बिल भरने के लिए हर महीने कितनी मगजमारी करनी
पड़ती है, इसे राजेंद्र यादव से बातचीत से ही मैंने समझा था। ऐसा भी नहीं था कि
हंस से उन्होंने बहुत अधिक संपत्ति पैदा कर ली हो। हंस के दफ्तर में कभी ढंग का
फर्नीचर, एसी, कंप्यूटर या अलमारियां तक नहीं दिखती थीं और खुद राजेंद्र यादव जीवन
में आखिरी कुछ दिनों के अलावा हिंदुस्तान टाइम्स के अपार्टमेंट में किराए के घर
में ही रहते थे। वह साधनहीन और गरीब हिंदी लेखक नहीं थे पर
संस्थानों-विश्वविद्यालयों के बल पर बहुत सारी संपत्ति जुटाने वाले लोगों में से
भी नहीं थे। जबकि हिंदी में आलोचकों और लेखकों का एक वर्ग ऐसा भी है जो राजेंद्र
यादव जैसी ख्याति और सम्मान भले न अर्जित कर सका हो, पर दिल्ली में रहकर उन्होंने
काफी संपत्ति जुटाई। राजेंद्र यादव के विजन का ही कमाल था कि हिंदी समाज ने हंस का
स्वागत किया और यह इस बात को भी साबित करता था कि गोबरपट्टी के नाम से कुख्यात रहा
यह हिंदी समाज उतना भी विचारविरोधी तथा अनपढ़ नहीं रहा है जैसा इसे चित्रित किया
जाता रहा है। वहां अच्छी पत्रिकाओं की आवश्यकता रही है पर हिंदी पट्टी में
विज्ञापनों की कमाई कम होने तथा प्रसार तंत्र तैयार करने में आलस के कारण बड़ी
प्रसार संख्या वाली पत्रिकाएं कम रही हैं।
राजेंद्र जी के व्यक्तित्व की गहरी
छाया उनके संपादकीय में छाई रहती थी और हंस के अलावा हिंदी की कोई दूसरी पत्रिका
ऐसी नहीं रही है जो संपादकीय के कारण पढ़ी जाती रही हो। अन्य पत्रिकाओं में संपादक
बड़े विनम्र भाव से अपनी उपस्थिति को दर्ज कराता है और स्वयं से अधिक पत्रिका के
रचनाकारों को महत्व देने की चेष्टा करता है। वह संपादकीय में किसी राजनीतिक या
सांस्कृतिक मुद्दे पर कोई स्पष्ट राय व्यक्त करने में संकोच बरतता है। अधिकांश
संपादकों का यह विनम्रता का गुण उनकी चालाकी को अधिक दर्शाता है। यह संकोच वैचारिक
निष्ठा के अभाव से भी पैदा होता है। इसीलिए संपादक की स्पष्ट छाप पत्रिका पर नजर
नहीं आती है। पर हंस में संपादकीय पढ़ने के लिए भी लोग हंस को खरीद लाते थे और
अक्सर ही संपादकीय के बाद अन्य चीजों को न पढ़ने पर कोई खास अफसोस नहीं महसूस करते
थे। सबसे धारदार संपादकीय शायद उन्होंने बाबरी मस्जिद के ध्वंस और भाजपा की
सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ लिखे। यह अलग बात है कि वह जिस ओबीसी-दलित उभार में
सांप्रदायिकता और भाजपा की राजनीति का निषेध देख रहे थे, वह उभार खुद उनके जीवनकाल
में कई समझौतापरस्ती तथा यथास्थितिवाद के कारण संकटग्रस्त हो गया। ब्राह्मणवाद को
कुछ खरोंचे तो लगीं पर वह पूंजीवाद से गठजोड़ कर अपने ढेरो विकृत रूपों को बचाए
रखने में सफल हो गया। कुछ लोगों को लगता है कि राजेंद्र यादव साहित्य में मंडलवादी
राजनीति के ही प्रतिनिधि थे पर मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना रहा है कि हंस और
राजेंद्र यादव 1990 के बाद आई उस पीढ़ी की आवाज भी थे जिसका राजनीतिक व्यवस्था,
पितृसत्ता और सामाजिक जीवन के पुराने रूपों से मोह खत्म हो रहा था और शहरी
मध्यवर्ग के जीवन में जो बिखराव आ रहा था, उसे व्यक्त करने वालों को वह आकृष्ट
करते थे। दूसरी पत्रिकाएं साहित्य के नाम पर रूटीन काम या निजी लाभ-हानि में फंसी
रहती थीं, इसलिए वे इस नई पीढ़ी का नेतृत्व नहीं कर सकीं। ऐसे में
दलित-स्त्री-ओबीसी के साथ उन्होंने व्यापक सामाजिक उत्पीड़न और मुक्ति के आख्यानों
से जुड़े साहित्य को प्रेरित किया। दलित-स्त्री-ओबीसी के अस्मिता विमर्श ने हंस को
और हंस ने इन विमर्शों को पहचान दिलाई पर भूमंडलीकरण, सांप्रदायिकता और युवा लेखन
के कई बारीक पहलुओं पर भी नई समझदारी पैदा करने का ऐतिहासिक काम किया। मैंने कई
लोगों से बातचीत में पाया कि उनकी साहित्य में जिज्ञासा उतनी नहीं थी पर हंस के
संपादकीय पढ़कर उनकी हिंदी लेखकों के बारे में छवि बदली और उन्हें लगा कि हिंदी
साहित्यकार भी अपने समाज से जुड़ा हुआ है और सामाजिक घटनाओं के बारे में सही चिंतन
विकसित करने में साहित्य भी सहायता कर सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि लेखकों के
बिखरे हुए और अपनी कुंठाओं में लिथड़े हुए समुदाय को साहित्य विमर्शों से जोड़ने
और उनमें संवादधर्मिता का गुण पैदा करने के लिए भी राजेंद्र यादव को याद किया
जाएगा।
वह लेखकों से संपर्क करने में कभी
नहीं हिचकते थे और किसी के पास कभी भी उनका फोन जा सकता था। संपादक की अधिकारपूर्ण
भाषा में एक मित्रतापूर्ण भाव हमेंशा मौजूद रहता था। फोन पर उनकी आवाज में उलाहना,
डांट, प्यार और शिकायत की आत्मीयता रहती थी। इतना सच्चा मित्रता भाव वही हासिल कर
सकता है जो अपने प्रति भी थोड़ा निर्मम और लापरवाह हो। बेतकल्लुफी से बातचीत करना
उनकी विशिष्ट नीति नहीं बल्कि स्वभाव का सूचक लगता था। ऐसे ही एक बार मेरे पास भी
2009 में अकस्मात उनका फोन आया और कहा कि- ‘कहां किले जीत रहे हो।’ मैंने हंसकर कहा कि ‘किले तो अब पुरातत्व वालों के
पास हैं, कहां जीतने देंगे।’ उन्होंने आगे कहा कि पुरातत्व
वालों को छोड़ो और जल्दी से बताओ कि हंस की 31 जुलाई वाली गोष्ठी की तुम्हें खबर
है या नहीं। मैंने जब हामी भरी तो बोले कि ठीक है, आना पक्का रखो। मुझे इसमें
विशेष बात न लगी और इसे सामान्य निमंत्रण समझ लिया। पर एक खास काम से मुझे उस दिन
दिल्ली से बाहर जाना पड़ा पर सौभाग्य से शाम तक लौट भी आया। लौटा भी इस तरह से कि
शाम 6 बजे दिल्ली के ‘ऐवाने गालिब’ में जा पहुंचा। हाल में घुसा तो उस दिन मंच पर
अरुंधति राय और नामवर सिंह को भी उपस्थित देखा। मैं अभी अपने लिए कोई खाली कुर्सी
देख ही रहा था कि मंच पर उस दिन के संचालक संजीव को अपना नाम पुकारते देख मैं
भौंचक रह गया। संजीव मुझे मंच पर आकर विषय पर अपना मत व्यक्त करने के लिए पुकार
रहे थे। ये कोई शोकसभा नहीं था बल्कि गंभीर विचार-गोष्ठी थी। मैं तो बोलने आया
नहीं था और राजेंद्र जी की उस दिन की बात को मैंने यूं ही लिया था। खैर, मंच पर
जाकर अपनी कुछ बातें संक्षेप में रखीं और लोगों ने पीठ भी थपथपा दी पर राजेंद्र जी
की विचित्रता का मैं कायल हो गया। कुछ समय के पश्चात जब एक दिन उनके दफ्तर में
मिलने गया तो उन्होंने सिगरेट सुलगाते हुए कहा- ‘यार,
तुम्हारे भाषण की तो काफी लोग तारीफ कर गए। मेरा फैसला गलत नहीं निकला। तुम थोड़ा
सा व्यवस्थित हो जाओ तो मंच पर लोगों के छक्के छुड़ा दोगे।’ ये
प्रशंसा थी पर मैं असहज हो रहा था। मंच पर छक्के-चौके लगाने की संस्कृति को मैंने
कभी अच्छा नहीं समझा क्योंकि मेरा मानना था कि लेखक का काम केवल विरोधियों को
ध्वस्त करना नहीं बल्कि सरलता से कला, संस्कृति तथा साहित्य के बारे में मूल्यों
की सजगता पैदा करना होना चाहिए। कभी छक्के छुड़ाने पड़ें तो हिचकना नहीं चाहिए पर
भाषा और भाषण में विरोधी के साथ भी गरिमा के साथ पेश आया जाए तो विपक्ष को परास्त
करने में आसानी होती है।
राजेंद्र यादव की विशेषता थी वह
व्यक्तिगत लांछन और आरोप-प्रत्यारोप के स्थान पर मुद्दों पर ध्यान देते थे। बड़े
धैर्य के साथ वह अपने उन दुश्मनों की तारीफ भी सुन सकते थे जिनके बारे में खुद
तारीफ करने वाले को नहीं पता होता था कि राजेंद्र जी उसे अपना विरोधी मानते हैं।
बाद में एक लाइन या दो शब्दों में कह देते थे- वह तो मेरा ‘एंटी’ है। वह दुश्मनी पालने के लिए किसी को दुश्मन नहीं बनाते थे बल्कि
दुश्मनों के बारे में दोस्तों की राय की भी कद्र करते थे। लंबे समय के लेखकीय जीवन
और संपादन के तजुर्बे ने उन्हें शायद सिखा दिया था कि किसी व्यक्ति से हर मुद्दे
पर पूरी तरह से निर्दोष राय रखने की उम्मीद न करो और वह जितनी दूर तक हंस की और
उनकी निजी विचार-निष्ठा के साथ चल सकता है, उसे साथ लेकर चलो। वह हमेंशा ‘एकला चलो रे’ की मुद्रा में नहीं रह सकते थे बल्कि
कारवां तैयार करने वाले लेखकों-संपादकों में से थे।
संपर्क - वैभव सिंह, दयाल सिंह
महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, चल-दूरभाष - 9711312374
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