शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

‘हानूश’ - कला और वर्चस्व की राजनीति - ऋतु




           


सत्ता, राजनीति एवं धर्म के गठबंधन और सामाजिक शक्तियों के संघर्ष को हानूशनाटक में बहुत ही प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त किया गया है। इस संघर्ष का कारण व्यापारी वर्ग का उदय, सत्ता में उसकी भागीदारी और व्यापारी वर्ग द्वारा सत्ता और धर्म के गठबंधन को कमजोर करने का प्रयास है। व्यापारी-वर्ग के उदय से सामंती व्यवस्था का ह्रास और धार्मिक सत्ता को खतरा उत्पन्न हो गया। सत्ता प्राप्ति के लिए इन वर्गों में संघर्ष आरम्भ हो गया और सत्ता के लिए किया गया संघर्ष राजनीति है। सत्ता के लिए खेली गयी इस राजनीति में सर्जनात्मक कलाकार व्यक्तित्व हानूश कुचला जाता है।




 

भीष्म साहनी ने अपने नाट्य साहित्य के माध्यम से सत्ता के  विभिन्न शोषणकारी रूपों को बेनकाब किया है, हानूशको सामने रखकर उन्होंने वर्चस्व की राजनीति को उघाड़ते हुए सत्ता के शोषणकारी रूप को प्रस्तुत किया है जो एक कलाकार को समझौता करने के लिए मजबूर कर देता है।भीष्म  साहनी के बारे में यह बताना ज़रूरी है कि आप ने साहित्य लेखन की शुरूआत स्वतन्त्राता प्राप्ति के दौर से की और नाट्यलेखन की शुरूआत आपातकाल से। हानूशभीष्म साहनी का पहला नाटक है जो 1977 में आपातकाल के दौरान लिखा गया।भीष्म साहनी लिखते हैं - ‘‘अपने समय और काल को लांघकर कोई नहीं जिया, भले ही वह कोई कलाकार हो या बढ़ई या  डॉक्टर।इस दृष्टि से एक लेखक भी वैसा ही सामान्य जीव है, जैसा कोई अन्य जीव। इसी दृष्टि से कलाकार अपनी कला को आंकता है, अपनी कला के दर्पण में अपने काल के जीवन, उसकी विषमताओं, उसके विरोधभासों को ही उतारता है।’’  हानूशरूपी दर्पण में भीष्म साहनी ने अपने समय की विषमताओं और विरोधभासों को ही उभारा है। 
सन् 1960 में निर्मल वर्मा के साथ चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में घूमते हुए भीष्म साहनी को प्राग की पहली मीनारी घड़ी और घड़ी के पीछे की कहानी का पता चला जिसका वर्णन भीष्म साहनी ने अपने नाटक हानूशकी भूमिका में भी किया है - ‘‘सड़कों पर घूमते-घामते एक दिन उन्होंने मुझे एक मीनारी घड़ी दिखाई जिसके बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थी, कि यह प्राग में बनाई जाने वाली पहली मीनारी घड़ी थी, और इसके बनाने वाले को उस समय के बादशाह ने अजीब तरह से पुरस्कृत किया था।’’  बादशाह द्वारा घड़ीसाज को अजीब तरह से पुरस्कृत करने की बात भीष्म साहनी को गहरे से छू गयी। यह बात साहनी जी को विचलित करती रही कि अजीब तरह से किस तरह सम्मानित किया होगा उस घड़ी साज़ को। भीष्म साहनी के मन को विचलित करने वाली बातआपातकालीन तानाशाही परिस्थितियां पाकर हानूशरूप में अभिव्यक्त हुई। ‘‘कोई भी कलाकार अपने समय के जीवन्त प्रश्नों की उपेक्षा नहीं कर सकता। हानूश ने समयकी चुनौती स्वीकार की और उसने समय को कांटों में कैद कर लिया। भीष्म साहनी ने समय की चुनौती स्वीकार की तो कलाकार की अस्मिता और उसके अस्तित्व पर एक जीवन्त प्रश्नचिह्न अंकित कर दिया, जो एक साथ कलाकार और कला-प्रेमियों की समान चिंता रही है।हानूशनाटक के भीतर की सामन्तशाही की वेदी पर एक कलाकार के निरीह बलिदान की कथा क्या 75-76 के असंख्य मूक बलिदानों की व्यथा-कथा की मुखर प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति नहीं?’’ 
उल्लेखनीय है कि हानूशनाटक सत्ता के समक्ष संघर्ष व जूझ का हामी है। यह जूझना कलाकार के माध्यम से होता है। हानूश में धर्म और राजनीति की सत्ता बनाम कला की सर्जनशीलता का त्रिकोण बनता है। मध्यकालीन परिप्रेक्ष्य को आधार बनाकर लिखा गया यह नाटक सत्ता के शोषणकारी रूप की कलई खोलता है। भीष्म साहनी ने ऐतिहासिक वातावरण लेकर वर्तमान की समस्याओं को चित्रित किया है। इस बात पर प्रकाश डालते हुए भीष्म साहनी कहते हैं - ‘‘यह नाटक ऐतिहासिक नाटक नहीं है, न ही इसका अभिप्राय घड़ियों के आविष्कार की कहानी कहना है। कथानक के दो-एक तथ्यों को छोड़कर, लगभग सभी कुछ ही काल्पनिक है। नाटक एक मानवीय स्थिति को मध्ययुगीन परिप्रेक्ष्य में दिखाने का प्रयास मात्रा है।’’  सर्जक को प्रत्येक युग में कष्टों का सामना करना पड़ा है फिर चाहे ताजमहल का निर्माण करने वाले कारीगर हों या घड़ी का निर्माण करने वाला हानूश। आलोच्य नाटक में कलाकार की सर्जना और उसकी निरीहता को रूपायित किया गया है। धर्म और सत्ता के गठबंधन के साथ-साथ सामाजिक शक्तियों के संघर्ष को भी सशक्त रूप से चित्रित किया गया है।
हानूशके माध्यम से भीष्म साहनी ने आर्थिक संकट झेलते सर्जनात्मक व्यक्तित्व की छटपटाहट को भी आवाज देने की कोशिश की है। हानूश मामूली वुफ़रसाज है उसकी सर्जनेच्छा घड़ी बनाने की है। घड़ी निर्माण की प्रक्रिया में 17 वर्ष की लम्बी अवधि लग जाती है। इस दौरान हानूश को आर्थिक और धार्मिक संकट का सामना करना पड़ता है। हानूश की विपन्नता पर प्रकाश डालते हुए उसका पादरी भाई कहता है - ‘‘न तुम्हारे घर में आज आग जली है, न खाना बन पाया है। कितने दिन तक तुम इस तरह काम कर सकते हो?’’ इस गरीबी का कारण है - घड़ी सर्जन प्रक्रिया में हानूश का लगे रहना। पत्नी कात्या उससे कहती है - ‘‘मामूली ताले बनाने का काम जो पहले किया करता था, अब वह भी नहीं करता।.. सारा वक्त घड़ी बनाने की धुन उस पर सवार रहती है, उसी की ठक्क-ठक्क में लगा रहा है।’’  ताले न बनाकर घड़ी को समय देने के कारण हानूश के परिवार को मुफलिसी में जीवन व्यतीत करना पड़ता है। कात्या हानूश की पत्नी है किंतु गरीबी और घुटन के कारण इस संबंध में भी कड़वाहट घुलने लगती है। कात्या कहती है - ‘‘उसमें पति वाली कोई बात हो तो मैं उसकी इज्जत करूं। जो आदमी अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता, उसकी इज्ज़त कौन औरत करेगी?’’ घड़ी बनाने की धुन के चलते हानूश को अपना बेटा खोना पड़ता है जो कि सर्दी से बचाव के पर्याप्त साधन न होने के कारण ठिठुर कर मर जाता है। कात्या इस घटना से टूट जाती है और हानूश को अपने घर में ही दुत्कारों का सामना करना पड़ता है।        
परिस्थितियों से मजबूर होकर कई बार घड़ी का काम छोड़ देने पर भी हानूश अपनी सर्जनात्मक इच्छा को नहीं दबा पाता। परिस्थितियों में सुधार होते ही वह फिर से घड़ी के काम में लग जाता है। रचना-प्रक्रिया के क्षणों को मुक्तिबोध ने यन्त्राणा के क्षण माना है। रचना प्रक्रिया को द्वन्द्व की प्रक्रिया मानते हुए इस द्वन्द्व को सर्जनशीलता के लिए आपने आवश्यक माना है - हानूश को आन्तरिक और बाह्य दोनों ही स्तरों पर इस द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है। आन्तरिक रूप में अपने को अभिव्यक्त करने का, घड़ी को बनाने का द्वन्द्व उसके मन में चलता रहता है, वहीं बाहरी रूप से वह आर्थिक और धार्मिक रूप ले लेता है। भीष्म साहनी ने सर्जनात्मक व्यक्तित्व की उस घुटन को व्यक्त किया है जो आर्थिक सहायता न मिल पाने के कारण द्वन्द्वग्रस्त है। गिरजे से मिलने वाली माली इमदाद बन्द होने पर हानूश कहता है - ‘‘मैं आज ही कुछ ताले बेच आऊंगा। जब तक बिकेंगे नहीं घर नहीं लौटूंगा। पर आप कहीं से माली इमदाद का इंतजाम जरूर करवा दीजिए।’’ इन शब्दों में सर्जनात्मक प्रतिभा की तड़प व्यक्त हो रही है जो आर्थिक विपन्नता के कारण अपने कार्य को, अपनी खोज को पूर्ण नहीं कर पा रहा है।    
पारिवारिक परिस्थितिवश हानूश यह काम छोड़ने का फैसला करता है ‘‘नहीं, बड़े मियां अब की बार पक्का फैसला कर लिया है, बाकायदा कोई धंधा-बंधा करूंगा। घर वालों को बड़ी तकलीफ में रखा है।’’  लेकिन यह फैसला ले लेने पर भी हानूश का ध्यान घड़ी में ही लगा रहता है। वह उस तार को देखता रहता है जो लोहार लेकर आया है। पादरी के लाख समझाने पर भी हानूश कहता है - ‘‘आपकी इजाजत हो तो मैं अपनी इस नई कमानी की जांच कर लूं। अगर काम कुछ बनता नजर आया तो ठीक है, वरना आपकी दया से सारा सामान उठाकर खिड़की से बाहर फेंक दूंगा।’’ यह सब हानूश के सर्जनात्मक व्यक्तित्व की छटपटाहट ही है जो आर्थिक संकट को दरकिनार करके फिर से उसे घड़ी निर्माण की ओर खींचती है।         
हानूश को सर्जन-प्रक्रिया में केवल आर्थिक संकट का ही सामना नहीं करना पड़ता बल्कि धर्म से भी टक्कर लेनी पड़ती है। विज्ञान की वस्तुनिष्ठ दृष्टि से धार्मिक वर्ग अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस करता है। इसलिए हानूश को गिरजे से माली इमदाद मिलनी बन्द हो जाती है और लाट पादरी हानूश का विरोध करते हुए कहता है - ‘‘घड़ी बनाने की कोशिश करना ही खुदा की तौहीन करना है। भगवान ने सूरज बनाया है, चांद बनाया है, अगर उन्हें घड़ी बनाना मंजूर होता तो क्या वह घड़ी नहीं बना सकते थे? उनके लिए क्या मुश्किल था? इस वक्त आसमान में घड़ियां ही घड़ियां लगी होती। सूरज और चांद ही भगवान की दी हुई घड़ियां हैं। जब भगवान ने घड़ी नहीं बनाई तो इंसान का घड़ी बनाने का मतलब ही क्या है?’’  लाट पादरी हानूश को ईश्वर विरोधी ठहराकर उसके आविष्कार का विरोध करता है और आर्थिक सहायता बन्द कर देता है।
            प्रत्येक बुद्धिजीवी जो कोई नयी बात या नया सिद्धांत प्रस्तुत करता है उसे इसी प्रकार के विरोध का सामना करना पड़ता है। हानूश की यह स्थिति उन यूरोपीय वैज्ञानिकों की नियति पर प्रकाश डालती है जिन्हें अपनी नवीन खोजों की वजह से ईश्वर विरोधी ठहराकर मौत के घाट उतार दिया गया। हानूश गिरजे से माली इमदाद बन्द होने पर नगरपालिका से सहायता लेता है क्योंकि नया व्यापारी वर्ग अपनी जरूरतों के तहत आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों को स्वीकार कर लेता है। हालांकि हानूश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक और बाहरी दबावों के बीच भी वह अपने को सर्जन कार्य से दूर नहीं कर पाया क्योंकि सर्जक सर्जना से आन्तरिक रूप से जुड़ा होता है। घड़ी निर्माण प्रक्रिया में हानूश ने जिन कष्टों का सामना किया, वे कष्ट व्यक्ति मात्रा के न होकर प्रत्येक सर्जनात्मक प्रतिभा के हैं। इन कष्टों का रूप बदल जाता है किंतु सर्जनात्मक प्रतिभा को कष्टों की भट्ठी में जलना ही पड़ता है। कष्टों की भट्ठी में तपकर ही एक सर्जक खरा सोना समाज को दे सकता है। यह बात हानूश के व्यक्तित्व से और अधिक स्पष्ट होती है।
सत्ता, राजनीति एवं धर्म के गठबंधन और सामाजिक शक्तियों के संघर्ष को हानूशनाटक में बहुत ही प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्त किया गया है। इस संघर्ष का कारण व्यापारी वर्ग का उदय, सत्ता में उसकी भागीदारी और व्यापारी वर्ग द्वारा सत्ता और धर्म के गठबंधन को कमजोर करने का प्रयास है। व्यापारी-वर्ग के उदय से सामंती व्यवस्था का ह्रास और धार्मिक सत्ता को खतरा उत्पन्न हो गया। सत्ता प्राप्ति के लिए इन वर्गों में संघर्ष आरम्भ हो गया और सत्ता के लिए किया गया संघर्ष राजनीति है। सत्ता के लिए खेली गयी इस राजनीति में सर्जनात्मक कलाकार व्यक्तित्व हानूश कुचला जाता है। अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए इन वर्गों ने हानूश की सर्जनशीलता को आधार बनाया। इस प्रकार सत्ता के लिए की जाने वाली इस राजनीति में हानूश का शोषण किया जाता है।
नगरपालिका और गिरजे की आपस में बिलकुल बनती नहीं क्योंकि व्यापारी वर्ग एक उभरती हुई शक्ति है जो सत्ता में अपनी नुमाइंदगी चाहती है। व्यापारी वर्ग वैज्ञानिक प्रगति के प्रति भी खुला दृष्टिकोण रखता है जो धार्मिक सत्ता के लिए खतरा है। हानूश का भाई कहता है - ‘‘तुमने घड़ी तो बनायी है, मगर माफ करना, इन नए-नए आविष्कारों में यह बहुत बड़ी बुराई है कि इससे मन की अशांति बढ़ती है। झगड़े उठ खड़े होते हैं। तुमने घड़ी नहीं बनाई होती तो आज के दिन इस वक्त लोग गिरजे में बैठे होते। आज गिरजे में कुछेक बूढ़ों को छोड़कर कोई आया ही नहीं।’’ इसलिए गिरजे वाले वैज्ञानिक आविष्कारों के खिलाफ हैं। लाट पादरी हानूश को शैतानऔर घड़ी निर्माण को खुदा की तौहीनबताकर हानूश की माली इमदाद बंद कर देता है। अपनी सत्ता के लिए खतरा बनती सर्जनशीलता को सत्ताधारी कुचल देना चाहते हैं। बादशाह अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए धर्म की शरण में है ‘‘जनता की जगह सिर्फ अपना भला चाहने वाली शासन-व्यवस्था के लिए धर्म की प्रहेलिका का अवलंब जरूरी हो जाता है। कारण यह कि जनता की वस्तुनिष्ठ दृष्टि और शंकावृत्ति को कुंठित कर उसे गुमराह बनाने और बनाए रखने में धार्मिक संस्थाएं ऐसी शासन-व्यवस्था का काम काफी आसान कर देती हैं।’’  इसप्रकार धर्म का आवरण बादशाह के लिए अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए आवश्यक है। यूरोप में गिरजे की भूमिका किंग मेकरकी रही है। इसलिए बादशाह प्रत्येक कार्य करने से पहले लाट पादरी का मुंह देखता है और लाट पादरी के हाथों की कठपुतली है। अतः बादशाह सलामत गिरजे वालों को नाराज नहीं कर सकते। व्यापारी वर्ग उभरता हुआ शक्तिशाली वर्ग है। बादशाह इनकी ताकत को भी नजरअंदाज नहीं कर सकता। शक्ति संतुलन बनाये रखना बादशाह के लिए आवश्यक है। व्यापारी वर्ग की ताकत के विषय में जार्ज कहता है - ‘‘मैं तो आज से दो सौ साल बाद की भी सोच सकता हूं। तब न गिरजे होंगे, न राजे होंगे। चारों ओर व्यापारी-ही-व्यापारी होंगे।’’  इस नव उदित शक्तिशाली वर्ग का संघर्ष पूर्ण रूप से स्थापित धार्मिक शक्ति से है। लाट पादरी के प्रभाव के विषय में लोहार कहता है - ‘‘स्वयं भगवान भी वह काम नहीं कर सकता जो लाट पादरी कर सकता है। ऊपर भले ही भगवान की चलती हो मगर नीचे लाट पादरी की चलती है।’’

            शासन को सुचारू रूप से चलाये रखने के लिए बादशाह द्वारा इन दोनों सत्ताओं में संतुलन बनाये रखना आवश्यक है। बादशाह किसी को भी नाराज नहीं कर सकता। लोहार कहता है – ‘’बादशाह की इसी में तो बादशाहत है। उसके हाथ में भगवान ने तराजू दे रखा है। जो भी पलड़ा भारी होता है, राजा दूसरे पलड़े का वज़न बढ़ाकर फिर से एक जैसा कर लेता है। यही नीति है।’’ बादशाह गिरजे के प्रभाव को भी अपने पर बढ़ने नहीं देना चाहता और व्यापारी वर्ग की शक्ति पर भी अंकुश लगाए रखना चाहता है। बादशाह के इस सत्तालोलुप रूप का वर्णन करते हुए जार्ज कहता है - ‘‘राजा प्रजा की भलाई नहीं, अपनी भलाई पहले देखता है। महाराज यही चाहते हैं कि गिरजे के अधिकारी भी उनके सामने हाथ बांधे खड़े रहें और हम सौदागर-साहूकार भी।’’ दोंनों वर्गों को नियंत्रित करने के लिए बादशाह हानूश पर शक्ति प्रदर्शन करता है क्योंकि बादशाह इंसाफ को नहीं ताकत को देखता है।हानूश को अंधा कर बादशाह गिरजेवालों को खुश करता है और नगरपालिका पर घड़ी लगवाने को मंजूरी देकर व्यापारी वर्ग को भी खुश कर देता है।
            सत्ता के लिए की जाने वाली राजनीति का परिणाम सर्जनशीलता को भोगना पड़ता है। हानूश की घड़ी को मोहरा बनाकर उसे पाने  की होड़ के माध्यम से दोनों वर्ग महाराज पर अपने प्रभाव को छोड़ना चाहते हैं। सत्ता के लिए दोनों वर्गों की राजनीति और सर्जनशीलता पर अधिकार जमाने की इच्छा के कारण हानूश को अंधापन झेलना पड़ता है। ऐमिल कहता है  - ‘‘हानूश को अंधा ही इसलिए किया गया कि महाराज सौदागरों और गिरजेवालों के बीच अपनी ताकत को बनाए रखें।’’ नरनारायण राय ने इस घटना पर प्रकाश डालते हुए कहा है - ‘‘यह व्यक्तिगत दुर्घटना नहीं थी - यह थी एक सामाजिक विडंबना। समाज का प्रभुत्वपूर्ण वर्ग, सामंती प्रशासन और चर्च के धार्मिक पुरोधा इनमें से कोई भी एक कलाकर की स्वतन्त्रा, व्यक्तित्व, अस्तित्व, अस्मिता और रचनात्मक क्षमताओं को अपने विस्तृत अहम् के समक्ष स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। लगभग हर युग में कलाकारों को इस विडंबनापूर्ण नियति का साक्षात्कार करना पड़ता है।’’ व्यापारी वर्ग दरबार में नुमाइंदगी और लाट पादरी बादशाह पर अपनी पकड़ को बनाये रखने के लिए जो राजनीति खेलते हैं, उसमें सर्जनशीलता का ही ह्रास होता है। पूंजीपति वर्ग द्वारा सदा ही मुफलिस लोगों का शोषण किया गया है यह बात हानूश को मिले अजीब पुरस्कारसे एक बार फिर सिद्ध होती है। बादशाह अपनी सत्ता की नींव मजबूत करने के लिए सर्जनात्मक प्रतिभा की बलि चढ़ाता है। वर्तमान युग में भी यह समस्या ज्यों कि त्यों बनी हुई है। पूंजीवादी और धार्मिक शक्तियों में संतुलन बनाये रखने के लिए शासन द्वारा सर्जनात्मकता को ही प्रतिबंधित किया जाता है। हानूश के समान अनेक सर्जक वर्तमान युग में सत्ता की राजनीति के शिकार होते हैं और प्रतिबन्ध की पीड़ा झेलते हैं।
हानूशएक कलाकार के आन्तरिक द्वंद्व को अभिव्यक्त करने वाला नाटक है। रचना-प्रक्रिया से लेकर हानूश के पुरस्कृत और प्रतिबंधित होने के द्वन्द्व को भीष्म साहनी ने सशक्त रूप से उभारा है। गिरिश रस्तोगी हानूशके विषय में कहते हैं ‘‘हानूशबड़े कैनवेस का और विश्वव्यापी चेतना का नाटक है और एक नाटककार की आंतरिक उथल-पुथल, उसके निरन्तर जूझते हुए मन, उसकी अन्तः क्रिया और रचना-प्रक्रिया को समझने का बहुत बड़ा आधार है।’’ कलाकार की सर्जना और सर्जना के कारण होने वाले कष्टों को हानूश व्यक्त करता है। सर्जनात्मक व्यक्तित्व को ये कष्ट सत्ता द्वारा पुरस्कार स्वरूप प्रदान किए गये हैं।       
कलाकार की कला को निजी संपत्ति बनाकर रखने की सामंतवादी वृत्ति का नग्न रूप उजागर किया गया है। दूसरे अंक के अंतिम दृश्य में बादशाह कहता है - ‘‘खूब, मतलब कि हमारी घड़ियां और शहरों में भी लगी होंगी। उन शहरों की भी रौनक बढ़ाएंगी।’’  सर्जनात्मकता पर एकाधिकार की वृत्ति के कारण ही बादशाह आदेश देता है - ‘‘इस आदमी को और घड़ियां बनाने की इजाजत नहीं होगी। इस हुक्म पर अमल करवाने के लिए...... (थोड़ा ठिठककर) हानूश वुफ़रसाज को उसकी आंखों से महरूम कर दिया जाए। उसकी दोनों आंखे निकाल दी जाएं। उसकी आंखे नहीं होंगी तो और घड़ियां नहीं बना सकेगा।’’ बादशाह हानूश की सर्जनशीलता पर पाबंदी लगा देता है। इस पाबंदी के पीछे स्टेटसवाला गुरूर भी उभरकर सामने आता है कि हुक्मरान के पास जो कुछ हो, वह फिर दूसरे के पास न हो। यह बात बादशाह सलामत के शब्दों से व्यक्त होती है - ‘‘ऐसी नायाब घड़ी तो मुल्क में एक ही रह सकती है।’’ राजेन्द्र कुमार हानूश को अजीब ढंग से पुरस्कृत करने में राष्ट्रवाद के मानव द्रोही चरित्र को देखते हुए कहते हैं - ‘‘सत्ताओं के साथ आज जब राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न मानवघाती अहम्मन्यता का रूप लेता जा रहा है, हानूश नाटक का कथ्य स्थितियों की विडम्बना पर पहले से भी ज्यादा प्रकाश डालनेवाला साबित होता है। नाटक के घटना तथ्यों की प्रासंगिकता यह है कि आज तथाकथित राष्ट्रवाद के मानव-द्रोही चरित्र की भी पहचान कराने वाले संकेत उसमें छिपे हैं। हानूश की नियति हमारे मन में एक सवाल यह भी उठाती है कि किसी कलाकार या वैज्ञानिक या तकनीकि हुनरमंद को अन्ततः जो भी गौरव या सम्मान दिया जाता है, उसके पीछे उसे वह सब देनेवाली सत्ताओं की वास्तविक नीयत क्या होती है?’’ सर्जक की मुफलिसी दूर करने के लिए पुरस्कार स्वरूप राजदरबारी का पद और स्वर्ण मुद्राएं देकर बादशाह हानूश की आंखों की ज्योति छीन उसे सर्जनात्मक शक्तिहीन बनाने की कोशिश करता है।
सर्जनशीलता पर पाबंदी और अंधापन हानूश को तिल-तिलकार मरने पर मजबूर करता है। उस पर हानूश का राजदरबारी बनाया जाना उसकी पीड़ा को और अधिक बढ़ाता है। इसी कारण हानूश के स्वभाव में अवसाद और कटूता भर गयी। उसका घर आरामदेह और सुसज्जित अवश्य हो गया किंतु वह भी उसके दुःख को ही बढ़ाता है क्योंकि एक सर्जक को आनन्द की अनुभूति सर्जन प्रक्रिया में ही मिलती है। अपनी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करते हुए हानूश कहता है - ‘‘.. हर बार जब घड़ी बजती है तो मुझे लगता है, मेरे अंधेपन का मजाक उड़ा रही है, जब बजती है तो लगता है सभी लोग हँसने लगे हैं- बादशाह अपने महल में, लाट पादरी गिरजे में हंस रहा है। ..और मुझ पर एक अजीब पागलपन-सा छाने लगता है। ...पर कभी-कभी मुझे लगता है जैसे मेरे हाथ फिर से घड़ी बनाने में लगे हुए हैं। और वह ऐसी घड़ी जो हर बार बजने पर मानो कह रही है कि हानूश न तो अंधा हुआ है, न मरा है..’’  हानूश की आन्तरिक तड़प यहां व्यक्त हुई है। हानूश फिर से घड़ी बनाना चाहता है। अन्दर की बौखलाहट उसे चैन नहीं लेने देती।
            सर्जन के लिए अपनी तड़प को व्यक्त न कर पाने के कारण हानूश बादशाह सलामत की सवारी के नीचे आकर मर जाना चाहता है ताकि बादशाह को अहसास हो की एक सर्जनात्मक प्रतिभा की सर्जन शक्ति पर पाबंदी लगाने पर उसकी क्या हालत होती है। जब-जब घड़ी बजती है हानूश बेचैन होने लगता है। उसे अपनी सर्जना से ही चिढ़ होने लगती है। वह उसे नष्ट कर देना चाहता है उस पर पत्थर भी फेंकता है। कात्या से कहता है - ‘‘मरने से पहले इस घड़ी को तोड़कर मरूंगा’’ लेकिन अन्त में हानूश समझ जाता है कि - ‘‘सर्जनशीलता वैयक्तिक होकर भी नितान्त निर्वैयक्तिक’’  होती है। भीष्म साहनी मुख्य रूप से हानूश के इसी दृष्टि परिवर्तन को इस नाटक के माध्यम से व्यक्त करना चाहते थे। भीष्म साहनी कहते हैं - ‘‘जब वह कहता है कि एक बार जो चीज बन गयी वह मेरी कहां रही, वह सबकी हो गयी, यह वही दृष्टि है जिस पर मैं बल देना चाहता हूं।’’ 
            घड़ी के प्रति नफरत व्यक्ति हानूश की है, सर्जक हानूश की नहीं। हानूश का सर्जक मन तो प्रत्येक क्षण घड़ी के साथ रहता है। घड़ी की टिक-टिक से हानूश के दिल की धड़कन जुड़ी है। उसका ध्यान हर वक्त घड़ी में रहता है। घड़ी के बन्द होने का अहसास उसे तुरन्त हो जाता है। वह उसे अपने बच्चे के समान प्यार करता है और पल-पल उससे जुड़ा रहता है - ‘‘घड़ी बन्द हो गई है। सुनती हो कात्या, लगता है घड़ी बन्द हो गई है। (वह अत्यधिक व्यग्र और उतेजित हो उठता है। अपने आप आगे को बढ़ता है और ठोकर खाकर गिरते-गिरते बचता है।)... जरूर पुर्जों को जंग लगता रहा है। मीनार में सीलन थी, मैंने पहले ही कहा था मीनार में सीलन है’’  कात्या, यान्का, जेबक, ऐमिल सब से वह घड़ी के विषय में पूछता है। कात्या हानूश की हालत को बयान करते हुए कहती है - ‘‘हानूश को एक-एक पल का अंदाज रहता है। सारा वक्त उसके कान घड़ी की ओर लगे रहते हैं।’’ घड़ी के प्रति आन्तरिक लगाव के कारण ही वह उत्तेजित और व्यग्र हो उठता है। घड़ी को तोड़ने की बात करने वाले हानूश को उसके पास जाकर उसे छूते ही आन्तरिक लगाव के कारण तन-बदन में बिजली छू जाने का अहसास होता है। वह घड़ी के पुर्जों को पकड़े रहता है। उन्हें सहलाता रहता है। उसके और उसकी सर्जना के बीच आने वाले दरबारी कोट को उतार फेंकता है और आस्तीनें चढ़ा घड़ी को ठीक करने लगता है। हानूश द्वारा कोट को उतार फेंकना सत्ता के डर को मन से निकाल कर सत्ता के सम्मुख खड़े होने की शक्ति को दर्शाता है।
            घड़ी से अपने लगाव की व्यक्त करते हुए हानूश कात्या से कहता है - ‘‘मैं तो यहां घड़ी को तोड़ने आया था। मैंने हथौड़ा उठाया भी मगर उसे चला नहीं पाया। कात्या, जब मैंने कमानी पर हाथ रखा तो तुम्हें क्या बताऊं, मेरे सारे शरीर में झुरझरी दौड़ गई। मुझे लगा जैसे मेरा हाथ घड़ी के दिल पर जा पड़ा है। इसके बाद मुझसे घड़ी को तोड़ा नहीं गया.... मेरा हाथ उठता नहीं था।’’ व्यक्ति हानूश हार जाता है सर्जक हानूश से। नरनारायण राय हानूश और घड़ी के संबंध को व्यक्त करते हुए लिखते हैं - ‘‘घड़ी के निकट पहुंचकर हानूश का सरल कलाकार हृदय ठीक उसी प्रकार सहज वात्सल्य से ओतप्रोत हो उठा, जिस प्रकार किसी बीमार बच्चे को देखकर पिता विचलित हो उठता है। उसने घड़ी को तोड़ने की बजाय उसे दुरूस्त कर फिर से चालू कर दिया। यह तत्कालीन बादशाही को एक कलाकार का प्रतिदान था’’  हानूश सारे दुःखों को भूलकर फिर से घड़ी में खो जाता है। ‘‘हानूश अंधेपन के बावजूद घड़ी ठीक कर लेने में ऐसा सुख पा चुका है कि सर्जनात्मकता उसके लिए पहले से भी अधिक और परम मूल्य चीज हो जाती है।’’ 
            हानूश को जब सर्जनशीलता की निर्वैयक्तिकता का ज्ञान हो जाता है तो उसे किसी भी सत्ता का डर नहीं रहता और वह बेखौफ कहता है - ‘‘महाराज का हुक्म सिर-आंखों पर। मैं हाज़िर हूं। .... घड़ी बन सकती है, घड़ी बन्द भी हो सकती है। घड़ी बनाने वाला अंधा भी हो सकता है, मर भी सकता है। लेकिन यह बहुत बड़ी बात नहीं है। जेकब चला गया ताकि घड़ी का भेद जिंदा रह सके, और यही सबसे बड़ी बात है।’’ यहां एक सर्जक की सामाजिक चेतना प्रकट होती है। उसे अब मरने का कोई डर नहीं क्योंकि कला को अक्षुण्ण व मुक्त करके उसने अपना सामाजिक दायित्व निभाया है। हानूश कहता है - ‘‘मुझे कोई अपफसोस नहीं, किसी बात की चिन्ता नहीं। अब मुझे विश्वास है, घड़ी बन्द नहीं होगी।’’ 
समग्रत कहें तो हानूश का व्यक्ति सत्य वस्तुतः एक वर्ग सत्य है, शासन द्वारा प्रताड़ित और विक्षुब्ध कलाकारों का वर्ग-सत्य। हानूश के माध्यम से भीष्म साहनी ने सत्ता के शोषणकारी रूप को प्रकट करते हुए सर्जनात्मक व्यक्तित्व के द्वंद्व को व्यक्त किया है । सत्ताधारी वर्ग द्वारा अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए हानूश को राजनीति की बिसात का मोहरा बनाया गया। सत्ता की राजनीति में सर्जनात्मक प्रतिभाएं दम तोड़ने को मजबूर है। कभी राज्याश्रय तो कभी राजनीति द्वारा उनका शोषण होता रहा है। सर्जनात्मक प्रतिभा हमेंशा शासक वर्ग के लिए चुनौती रही है। सर्जनात्मक प्रतिभा समाज के सकारात्मक विकास के लिए आवश्यक है तो शोषणकारी वर्चस्वशाली ताकतों के लिए खतरे की घंटी। हानूश इसी घंटी का प्रतीक है।

संपर्क ऋतु, सहायक प्रोफ़ेसर, कालिन्दी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दूरभाष 09871303472, ईमेल - ritudrall@gmail.com




























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