राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी : स्वरूप और दृष्टिटकोण - रूपम
राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में नारी के बलिदानी रूप का
दर्शन अनेक मोर्चों पर होता है। यहां नारी पहली बार घर की दहलीज लांघकर एक बड़ी
संख्या में बाहर आती है और पूरी इमानदारी से पुरुष क्रांतिकारियों का साथ देते हुए
कामयाबी का ताज उनके सर पर रखकर स्वयं गुमनाम हो जाती हैं। पुरुष क्रांतिकारियों
ने नारी को उसके सीमित दायरे में रखते हुए उनकी सेवा भावना,
ईमानदारी,
स्नेह,
प्रेरणा,
बलिदान,
जोखिम भरी
जासूसी आदि गुणों का भरपूर दोहन किया। इस संदर्भ में नरमपंथ और गरमदल का कोई भेद
नहीं था। गांधीजी से लेकर भगत सिंह तक सबने नारी शक्ति का इस्तेमाल किया है।
जब कभी भी
नारी जाति के बारे में बात की जाती है तो एक रटी-रटायी अवधारणा हमारे समक्ष उपसिथत
कर दी जाती है। इस अवधारणा के दो पक्ष हैं - एक पक्ष तुलसीदास के इस दोहे में
निहित है - 'शूद्र, गंवार, ढ़ोल, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी ।।’ और दूसरा पक्ष इसमें - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,
रमन्ते तत्र देवता:।’ सवाल
उठता है कि इन दोनों धारणाओं में कोई फर्क है?
ये दोनों उक्तियां किसी पुरुष के द्वारा ही कही गयीहैं।
दोनों का उद्देश्य एक ही है - स्त्री की पराधीनता को कायम रखना। उसे देवीस्वरूपा
कहकर प्रशंसाकर अपनी बात मनवा लेना अथवा मार-पीट कर अपनी मनमानी करते रहना।
वस्तुत: ये दो धारणाएं नहीं, स्त्रियों को अपने वश में रखने की दो पक्तियां हैं। पुरुष
वर्ग ने स्त्रियों को अपने अधीन रखने के लिए इन दोनों पंक्तियों का खूब इस्तेमाल
किया है। मार-पीट वाला फारमूला अनपढ़ अथवा कम पढ़े लिखे लोगों का है और तारीफवाला फारमूला
उच्च शिक्षा प्राप्त संभ्रांत लोगों का। दूसरा फारमूला गुलामी की आत्मस्वीकृति की स्थिति
ले आता है, जो अपेक्षाकृत स्थायी और प्रभावकारी होता है। इस फारमूले ने
स्त्रियों से बड़े-बड़े कारनामें करवाये हैं। स्त्रियों द्वारा कुर्बानियों का
इतिहास इसी के बदौलत संभव हो सका है।
राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में नारी के बलिदानी रूप का
दर्शन अनेक मोर्चों पर होता है। यहां नारी पहली बार घर की दहलीज लांघकर एक बड़ी
संख्या में बाहर आती है और पूरी इमानदारी से पुरुष क्रांतिकारियों का साथ देते हुए
कामयाबी का ताज उनके सर पर रखकर स्वयं गुमनाम हो जाती हैं। पुरुष क्रांतिकारियों
ने नारी को उसके सीमित दायरे में रखते हुए उनकी सेवा भावना,
ईमानदारी, स्नेह, प्रेरणा, बलिदान, जोखिम भरी जासूसी आदि गुणों का भरपूर दोहन किया। इस संदर्भ
में नरमपंथ और गरमदल का कोई भेद नहीं था। गांधीजी से लेकर भगत सिंह तक सबने नारी शक्ति
का इस्तेमाल किया है। फारमूला वही था 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,
रमन्ते तत्र देवता:।’
राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में जब क्रांतिकारियों को नारी शक्ति
की जरूरत महसूस हुई तब समाजसुधारकों, शीर्ष नेताओं, इतिहासकारों और कवियों ने नारी जाति को उसके
वैभवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाया। उनसे कहा गया कि ''उस समय उनकी सामाजिक अवस्था अत्यंत समृद्ध थी, वे गृहदेवी
और गृहलक्ष्मी के रूप में प्रकट हुई थीं। उनमें पुरुषोचित पराक्रम तथा अपूर्व
प्रतिभा विद्यमान थी। तभी भारतवर्ष सब भांति सुखी,
संपन एवं ऐश्वर्य से परिपूर्ण था।[i]
आगे कहा गया है कि ‘‘स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन हुआ और स्त्रियों की स्वतंत्रता
का अपहरण कर लिया गया। पर स्त्रियों की स्वतंत्रता का अपहरण किया किसने? इस बात पर समाज के नियंता केवल मनुविधान की चर्चा करके
इतिश्री कर देते हैं और बहुत से बदलती हुई राजनीतिक परिस्थिति को दोषी करार देते
हैं। वे बार-बार ये कहते नहीं अघाते कि 'वेदकाल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी।’ वेद पलटकर देख लीजिए। स्त्रियों की अच्छी स्थिति की पोल खुल जायेगी। बहुत दूर
जाने की भी जरूरत नहीं है। मनु इस बात का खुलासा स्वयं कर देते हैं। उनकी स्वीकारोक्ति
है कि - 'स्मृति के विधान वेद सम्मत हैं।[ii]
बहरहाल, हमारे क्रांतिकारी समाज सुधारकों को नारी शक्ति की जरूरत थी,
तो उसकी पतित स्थिति से होने वाली हानि को स्वीकारना ही था।
कहा, ''उनकी (स्त्री की) स्वतंत्रता अपहरण करके उनको अस्वस्थ्यकर स्थानों में बंद
करके उन्हें पतित कर दिया गया। इसका प्रतिपफल भी हमें फौरन मिलने लगा, अर्थात्
उनके गर्भ से अत्यंत निर्बल, निस्तेज, भीरू संतान, उत्पन होने लगी, जिससे भारत उत्तरोत्तर कर्म,
धर्म, कला-कौशल, वाणिज्य-व्यवसाय, बल-वैभव तथा पराक्रमहीन होकर पराधीनता-पाश में बुरी तरह
जकड़ गया।’’[iii]
इतना कहना पर्याप्त नहीं था। उत्साहवर्द्धन भी जरूरी था। इसके
लिए तारीफों के पुल बांधना सबसे सुंदर तरीका होता है। अत: कहा गया ''इस संसार में परमात्मा ने स्त्री-शक्ति का मुकाबला करनेवाली
कोई दूसरी शक्ति उत्पन नहीं की। भारत का इतिहास तो पग-पग पर उनकी अनुपम वीरता का
बखान करता है। वास्तव में भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण अध्याय के निर्माण-कार्य में
जितना सहयोग स्त्री-शक्ति ने दिया है, उतना अभी तक किसी ने नहीं दिया। आदिकाल से ही जब-जब
देवासुर-संग्राम छिड़ा, देवतागण कभी भी वीरांगनाओं की सहायता के बिना विजय प्राप्त
नहीं कर सके। राक्षसी शक्ति को नष्ट करने के लिए दैवी शक्ति का आश्रय यदि न लिया
जाता, तो उनकी शक्ति को निर्मूल करना मानव के लिए नितांत असंभव
होता। मध्यकाल में सैकड़ों बार पुरुषों के हाथ से जाती हुई बाजी को पुन: हस्तगत
करने में उन्होंने अदम्य उत्साह एवं साहस का परिचय दिया। ......भारतीय राजपूती
आन-बान-शान तथा बांकापन जगत प्रसिद्ध है। रणक्षेत्र से पराङ्मुख कायर पतियों,
पुत्रों, भाइयों तथा अन्य स्नेहियों में अनोखा उत्साह संचार कर
दुबारा युद्धक्षेत्र में जाने को सन्नद्ध करना किसका काम था?
इन वीरोचित कार्यों का रहस्य उनके कोमल तथा विशाल अंत:स्थल की उदारता में ही
अंतर्निहित है। ऐसे भी अनेक अवसर आए, जब वे पतियों के साथ अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित घोड़े पर
सवार होकर रण-क्षेत्र में भीषण घमासान मचाने गयी हैं। ......इसके अनंतर मराठा काल
में स्त्रियां चमकते हुए नक्षत्रों की भांति तेजपूर्ण प्रकाश का प्रसार करती हुई
नजर आती हैं। उनमें प्रात: स्मरणीय माता जीजाबाई,
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई,
इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई आदि मराठा जाति का सितारा
बुलंद करनेवाली अनेक वीर रमणियों को कौन भुला सकता है।’’[iv]
सारांश यह कि स्त्रियां पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर
प्रारंभ से ही आगे बढ़ती रही हैं। और ये स्त्रियां हैं कौन? वीर रमणियां ! जो विपत्ति के समय वीर हैं,
उसके अनंतर वे रमणियां हैं।
ऊपर कही गयी बातों पर गौर कीजिए,
ऐसा प्रतीत होता है,
जैसे कोई अत्यंत चतुर,
वाकपटु व्यक्ति अपना मतलब साधने के लिए सप्रमाण अपनी बात कह
रहा हो। समुद्र लांघने के लिए प्रेरित करते हुए जांबवान ने हनुमान से कुछ इसी तरह
की बातें कही थीं। यह पद्धति बहुत पुरानी है। भोले-भाले सीधे एवं सरल व्यक्ति पर
यह अस्त्र अचूक है। आज भी युवा पुरुष गर्ल-फ्रैंड से अपना मतलब निकालने के लिए ऐसी
ही चिकनी-चुपड़ी बातों का सहारा लेते देखें जा सकते हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन के समय हिंदुस्तानी बुद्धिजीवियों ने देश
का गौरवपूर्ण इतिहास जनता के सामने परोसना शुरू कर दिया था। जरूरत के हिसाब से धर्मग्रंथों
को भी लचीला बनाया गया और स्त्रियों-दलितों एवं साधरण जनता के राष्ट्रीय आंदोलन
में भागीदार बनने का माहौल तैयार होने लगा। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में स्त्री-शक्ति
को महसूस किया था। हिंदुस्तान में भी उन्हें इस शक्ति की आवश्यकता थी। धीरे-धीरे
उनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रयास से माहौल बदलने लगा। बड़ी संख्या में स्त्रियां
और पिछड़े वर्ग के लोग स्वाधीनता की लड़ाई में शामिल होने लगे। ये सब करते हुए,
इस बात का खास खयाल रखा गया कि स्त्रियां अपने दायरे से
बाहर जाकर नेतृत्व हाथ में न ले लें। और इसीलिए राष्ट्रीय आंदोलन में उन्हें केवल
सांस्कृतिक सक्रियता के लिए प्रोत्साहित किया गया। आंदोलनों में घायलों की देखभाल
से लेकर क्रांतिकारी संस्थाओं को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी उनके आंदोलन का
हिस्सा थी। कुल मिलाकर वे आंदोलन के घरेलू स्वरूप तथा सांस्कृतिक रक्षा के लिए
नियुक्त की गयी थीं।
वस्तुत: राष्ट्रीय आंदोलन के समय राष्ट्रवादियों ने भारतीय
समाज में अपने वर्चस्व की घोषणा राजनीतिक जंग शुरू करने से पहले ही कर दी थी।
उन्होंने आर्थिक, राजनीतिक, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में साम्राज्यवादियों की
श्रेष्ठता स्वीकार की, लेकिन अध्यात्म अथवा सांस्कृतिक क्षेत्रों में अपनी पहचान
को महत्त्व दिया। औपनिवेशिक ताकतों को भारतीय सांस्कृतिक-प्रकोष्ठ में प्रवेश करने
से रोकना जरूरी था। संघर्ष के दो स्तर तैयार हो गए। एक राजनीतिक,
आर्थिक और तकनीक के स्तर पर और दूसरा संस्कृति के स्तर पर।
ये दोनों स्तर भौतिक-आध्यात्मिक, बाहरी-भीतरी दुनिया के भेद के रूप में सामने आये।
बाहरी दुनिया में भौतिक उपलब्धियों के पीछे भागना काफी कष्टों और कठिनाइयों से भरा
है और वहां व्यावहारिकता को भी महत्त्व देना पड़ता है। अत: यह मुख्यत: पुरुष का क्षेत्र
है। घर (भीतरी क्षेत्रों) को भौतिक दुनिया के इन सब अपवित्र,
सांसारिक झंझटों से दूर रहना चाहिए और उसका प्रतिनिधित्व
महिलाएं करती हैं। बाहरी दुनिया में रोजी-रोटी कमाने के लिए जिन भौतिक लक्ष्यों के
पीछे भागना पड़ता है, महिलाएं उससे असुरक्षित हैं। महिलाओं के स्वभाव और व्यवहार
में उन आध्यात्मिक गुणों को लक्षित किया जा सकता है,
जो एक समय प्राकृतिक समाज के लक्षण माने जाते हैं। इसप्रकार
राष्ट्रीय आंदोलन को लिंग के आधार पर घर और बाहर-दो रूपों में विभाजित किया गया।
इस विभाजन के कारण राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की
भागीदारी उनकी घरेलू भूमिका का विस्तार मात्रा बनकर रह गयी। इस भागीदारी में
उन्हें राजनीतिक क्षेत्रों में पुरुषों के समान कोई चुनाव या स्वतंत्र कार्य करने
की गुंजाइश नहीं थी। आंदोलन में उनकी भागीदारी से न तो उनके घरेलू जीवन या
पारिवारिक समीकरण में कोई अंतर आया, न उनकी जीवन शैली में कोई परिवर्तन आया और न ही उनकी
राजनीतिक भूमिका में बदलाव आया। महिलाओं को कभी भी एक्टिविस्ट की तरह नहीं देखा
गया। राष्ट्रीय आंदोलन को केवल बाहरी राजनीतिक आंदोलन न मानकर उसे विशेष प्रकार का
एक त्याग और बलिदान माना गया। आंदोलन एक सांस्कृतिक जंग के साथ धर्मिक प्रक्रिया
थी। बार-बार यह याद दिलाया जा रहा था कि हमें पाश्चात्य संस्कृति से भारतीय संस्कृति
की रक्षा करनी है। आंदोलन की इन परंपरावादी जड़ों के कारण राष्ट्रीय आंदोलन में
महिलाओं का पितृसत्ता तले रहना ही आदर्श माना गया। वस्तुत: राष्ट्रवादियों को
महिलाओं की मुक्ति तथा उत्थान से कोई सरोकार नहीं था। राष्ट्रीयता के इतिहास में
महिलाओं का योगदान उनकी पारंपरिक भूमिका का विस्तार मात्र है। राष्ट्रीय आंदोलन
में महिलाओं का कहीं कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं दिखता।
संदर्भ :
[i] जगदीश्वर
चतुर्वेदी और सुधा सिंह (संपा.), स्वाधीनता संग्राम : हिंदी प्रेस
और स्त्री का वैकलिपक क्षेत्र, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा. लि., नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2006, पृ.
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संपर्क – रूपम, तदर्थ व्याख्याता, समाजशास्त्र विभाग, मगध महिला
महाविद्यालय, पटना
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