डॉ. रामविलास शर्मा का भाषाशास्त्रीय चिंतन : भारतीय भाषा वैज्ञानिकों के गले की हड्डी - आनन्द बिहारी
डा. शर्मा ने भाषा का समाज-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक विवेचन करके
अनेक क्रांतिकारी निष्कर्ष दिये। इन निष्कर्षों से विदेशी भाषाशास्त्रियों के द्वारा दी गई स्थापनाओं की
पोल खुल जाती है। डा. शर्मा के भाषाशास्त्रीय चिंतन की सबसे बड़ी खासियत यह
है कि यह विश्व समुदाय के भाषा वैज्ञानिकों के चिंतन के समानांतर चलने वाला चिंतन
है
जिसकी कोई शिष्य परम्परा नहीं है लेकिन यह भारत में स्थापित
सबसे सशक्त भाषावैज्ञानिक स्कूल है। इस स्कूल के संस्थापक भी वही हैं और
विकासकर्ता भी वही हैं। खास बात यह है कि परवर्ती हिंदी के भाषाशास्त्रीय चिंतकों
ने डा. शर्मा के चिंतन को तवज्जो नहीं दी, लेकिन उनके चिंतन का अपने लेखन में भरपूर इस्तेमाल किया है।
हिंदी भाषाशास्त्रीय
चिंतन की परंपरा पर दृष्टिपात करें तो यह बात स्पष्टत: कही जा सकता है कि हिंदी भाषाशास्त्र
के क्षेत्र में अधिकतर भाषाशास्त्रियों का कार्य अकादमिक स्तर का है। एक-दो लोगों
को छोड़कर लगभग सभी ने हिंदी भाषाशास्त्र के वैशिष्टय का प्रचार प्रसार तथा
पाश्चात्य भाषाशास्त्रीय पद्धति के अनुप्रयोग को ही अपना लक्ष्य बनाया है। उनकी उपलब्धियां
भी वैसी ही हैं। बीसवीं सदी के आरंभ से लेकर अंत तक हिंदी भाषाशास्त्र की परंपरा
में कुछ मौलिक और नवीन चीज जोड़ने का प्रयास बहुत कम लोगों ने किया है,
जिन लोगों ने किया भी है उनका लेखन पाश्चात्य भाषाशास्त्रीय
चिंतन का अनुकरण अथवा संस्कृत भाषाशास्त्र की व्याख्या बनकर रह गया है। ऐसे में
डा. रामविलास शर्मा का वैशिष्टय एक ऐसे सूर्य की तरह है जिसके आसपास कोई सितारा दिखाई
नहीं पड़ता। बावजूद इसके उनका चिंतन आज भी उपेक्षित है।
डा. शर्मा अपने भाषाशास्त्रीय चिंतन में जिन सूत्रों का विकास करते दिखाई
पड़ते हैं वे मुख्यत: आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के हैं। वाजपेयी जी के अतिरिक्त
रामविलास जी कुछ संकेत अन्य विद्वानों से भी अर्जित करते हैं। हिंदी प्रदेश का
सूत्र डा. धीरेन्द्र वर्मा और मध्यदेश से, वैदिक भाषा तथा आधुनिक आर्यभाषाओं के
विकास का सूत्र आपने किशोरीदास वाजपेयी से लिये हैं। वस्तुत: डा. शर्मा ने विवेचन
की पद्धति और दृष्टिकोण तो अपना रखा है मगर सामग्री विभिन्न भाषाशास्त्रियों से
साभार एकत्र की है। इन एकत्र की हुई सामग्रियों का समाज सापेक्ष विश्लेषण डा.
शर्मा का निजी वैशिष्ट्य है। किसी भाषा अथवा भाषा परिवार का समाज सापेक्ष अध्ययन
भारत में पहली घटना थी। डा. शर्मा का दृष्टिकोण भी बिल्कुल नया था। उन्होंने जिस दृष्टिकोण
को विवेचन का आधार बनाया वो अनेकान्तवादी दृष्टि थी। उन्होंने समाज-निर्माण की
प्रक्रिया को अनेक कोणों से देखा और उससे संबंधित भाषा के विकास का स्रोत खोज
निकाला। डा. शर्मा ने भाषा विकास को समाज विकास के संदर्भ में देखते हुए कई पहलू निर्धारित
किये - (1) संसर्ग द्वारा भाषा विकास, (2) साहित्यिक मानक के निर्माण द्वारा भाषा विकास (3) बोलचाल के रूपों तथा बोलियों से मानक का सह-संबंध,
(4) भाषा रूपों की सामाजिक संबद्धता तथा (5) भाषा बोली (स्पीच) भेद। कहने की आवश्यकता नहीं कि संपर्क, मानकीकरण, भाषा-अवमिश्रण, प्रयुक्ति तथा
क्षेत्रीय सामाजिक शैली पर जो विचार पाश्चात्य समाज भाषाविज्ञान में दिखाई देते
हैं, उनका आभास रामविलास जी के चिंतन में मिल जाता है। अत: रामविलास जी के भाषाशास्त्रीय
चिंतन के वैशिष्टय की तुलना उनके समकालीन पाश्चात्य चिंतकों से ही की जा सकती है।
भारतीय चिंतकों में अकेले किशोरीदास वाजपेयी को छोड़कर कोई उनके समकक्ष नहीं ठहरता।
‘भाषा और समाज’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने भाषा-गठन की स्वाभाविक
प्रक्रिया पर विचार व्यक्त किया है। उनके अनुसार बोली के आधार पर परिनिष्ठित भाषा का विकास होता है,
परिनिष्ठित भाषा से बोलियां उत्पन्न नहीं होतीं। यह विचार
डा. शर्मा की वैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है, इतना ही नहीं भाषा अध्ययन की अमूर्तता तथा वर्णनात्मक भाषा
विज्ञान की सीमाओं पर उनकी टिप्पणी भी उनकी व्यापक और सजग दृष्टि की ओर संकेत करती
है। भाषा का समाज सापेक्ष अध्ययन के कारण भारतीय शिष्य के पाश्चात्य गुरुओं की
श्रेणी में तुलनात्मक दृष्टि से डा. शर्मा अग्रणी दिखाई पड़ते हैं। 'भाषा और समाज’ के दूसरे संस्करण की भूमिका में उन्होंने चॉम्सकी,
ब्लूमफील्ड, गुंपर्ज,
फशमैन आदि के विचारों की गहरी पड़ताल की। सातवें दशक के पूर्वाद्ध
में समाज भाषिकी पर पर्याप्त चिंतन आ चुका था। चॉम्सकी के विषय में उन्होंने मत
दिया कि 'उनका और उनके अनुयायियों का वाक्य विन्यास पर बहुत अच्छा
काम है पर उनकी विचारधारा में समरूपता पर ही जोर है, पृथकता या विषमरूपता पर नहीं। इसमें सामाजिक पक्ष की
उपेक्षा भी है।[i]
गुंपर्ज और फिशमैन के हवाले से उन्होंने यह घोषित किया कि 'जब सामान्यत: भाषाविज्ञान यह स्वीकार कर लेगा कि सामाजिक संदर्भों के बिना भाषा का विश्लेषण संभव नहीं है,
तब ‘भाषाविज्ञान’ शब्द से ही काम चल जाएगा, लिंगविस्टिक्स में अलग से सोशियो जोड़ने की आवश्यकता नहीं
रहेगी।[ii]
डा. शर्मा के इस निष्कर्ष की तुलना लेबाव के उस कथन से भी की जा सकती है कि समाज
भाषाविज्ञान ही वास्तविक भाषाविज्ञान है।
डा. शर्मा की दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है - 'भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ (तीन खंड में)। यह पुस्तक उनके 'भाषा वैज्ञानिक’ के चरम उत्थान की परिचायक है। इस पुस्तक की उपलब्धियां शानदार हैं। इसके बारे
में डा. नामवर सिंह लिखते हैं – “लगभग तेरह सौ पृष्ठों के इस ग्रंथ में भाषावैज्ञानिक तर्क
और तथ्य भरे पड़े हैं। सिर्फ भाषिक तथ्यों की दृष्टि से यह ग्रंथ भारत के समस्त
भाषा परिवारों का अभूतपूर्व विश्वकोश है। जो कार्य भारत के इतने सारे सुविधा संपन्न
भाषाविज्ञान विभाग मिलकर भी नहीं कर पाए, उसे डा. शर्मा ने अकेले अपने बूते पर संपन्न कर दिखाया।’’ [iii] डा. शर्मा ने भाषा का समाज-सांस्कृतिक और
ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक विवेचन करके अनेक क्रांतिकारी निष्कर्ष दिये। इन निष्कर्षों से विदेशी भाषाशास्त्रियों के द्वारा दी गई स्थापनाओं की
पोल खुल जाती है।
डा. शर्मा के भाषाशास्त्रीय चिंतन की सबसे बड़ी खासियत यह
है कि यह विश्व समुदाय के भाषा वैज्ञानिकों के चिंतन के समानांतर चलने वाला चिंतन
है
जिसकी कोई शिष्य परम्परा नहीं है लेकिन यह भारत में स्थापित
सबसे सशक्त भाषावैज्ञानिक स्कूल है। इस स्कूल के संस्थापक भी वही हैं और
विकासकर्ता भी वही हैं। खास बात यह है कि परवर्ती हिंदी के भाषाशास्त्रीय चिंतकों
ने डा. शर्मा के चिंतन को तवज्जो नहीं दी, लेकिन उनके चिंतन का अपने लेखन में भरपूर इस्तेमाल किया है।
इतना अवश्य है कि इस क्षेत्र में अपने अनाधिकार प्रवेश को लेकर वे बराबर चर्चा में
रहे हैं। अधिकतर विद्वान तो उन्हें भाषाशास्त्री मानते ही नहीं,
जो मानते भी हैं उन्होंने भी उनके कार्य के महत्त्वांकन का
प्रयास नहीं किया। नामवर सिंह ने जिन
शब्दों में डा. शर्मा के काम की सराहना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री की है,
उसकी अपेक्षा अगर वे अपनी बौद्धिक क्षमता का थोड़ा अंश भी
उनके काम के महत्त्वांकन में खर्च कर पाते तो हिंदी भाषाशास्त्रीय चिंतन की समृद्ध
परंपरा में एक सशक्त अध्यायकर्ता का नाम विश्व समुदाय स्वीकार करने के लिए बाध्य
होता। बहरहाल,
डा. शर्मा के काम की अनदेखी आज भी जारी है। लेकिन उनका
प्रभाव प्रबुद्ध लेखक अव्यक्त रूप से जरूर ग्रहण कर रहे हैं। प्रभाव ग्रहण करने का
अव्यक्त तरीका किस राजनीति के तहत है, कहना मुशिकल है। एक कारण तो यह हो सकता है कि गुपचुप तरीके से उनके चिंतन का
उपयोग कर थोड़े समय के लिए चर्चा में आ जाना। और दूसरा कारण उनके मार्क्सवादी नजरिये
को लिया जा सकता है। हिंदी बौद्धिक समाज में ये दोनों स्थितियां कमोबेस मिल जायेंगी।
इसके अतिरिक्त तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि डा. शर्मा ने अपना चिंतन हिंदी में लिखा है। और जैसा कि सभी
मानते हैं कि हिंदी में लिखा गया चिंतन दोयम दर्जे का होता है। इस संदर्भ कुछ
बातें उल्लेखनीय हैं।
ध्यातव्य है कि बीसवीं शती के सातवें दशक के पूर्वाद्ध में जिस तरह का भाषाशास्त्रीय
चिंतन विश्व के अग्रणी देशों में हो रहा था, उसी तरह के चिंतन का प्रतिपफल डा. शर्मा का 'भाषा और समाज नामक पुस्तक है जो 1961 में प्रकाशित हुई। भाषाविज्ञान की एक नई शाखा का उद्भव हो
रहा था
और वह कुछ स्थितियों में विकसित भी हो चुकी थी। इस नई शाखा
का नाम समाज भाषा विज्ञान था, और आज भी है। विशेष बात यह है कि समाज भाषाविज्ञान का जितना प्रौढ़ रूप 'भाषा और समाज’ में भासित है उतना अन्यों में नहीं मिलता। कम से कम उस समय
की तो यही स्थिति थी। इस संदर्भ में डा. शर्मा ने उक्त पुस्तक के प्रकाशन से 25 वर्ष की पूर्व तक की ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की समीक्षा
लिखी,
जिसमें उन्होंने कई निष्कर्ष दिए। उन निष्कर्षों में यह निष्कर्ष भी शामिल था कि चॉम्सकी और उनके अनुयायियों
का वाक्य-विन्यास पर बहुत अच्छा काम है पर उनकी विचारधारा में समरूपता पर ही जोर
है,
पृथकता या विषमरूपता पर नहीं, इसमें सामाजिक पक्ष की उपेक्षा है। स्पष्ट है कि भाषाशास्त्रीय
चिंतन की पाश्चात्य उपलब्धियां डा. शर्मा के लिए आकर्षण की चीज नहीं थीं। बल्कि
उसकी कमियों पर उनकी दृष्टि टिकी हुई थी और वे इस आवश्यकता को बराबर महसूस कर रहे थे कि भाषाओं का अध्ययन समाज सापेक्ष
दृष्टिकोण के अन्तर्गत किया जाए। अत: डा. शर्मा ने भारतीय भाषाओं की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य
में अपना चिंतन प्रस्तुत किया। डा. शर्मा का यह कार्य विद्वानों के बीच चर्चा का
विषय बना और इस पर चिंतन प्रारंभ हुआ। पर वह चिंतन कैसा था?
इसका जवाब डा. शर्मा के इस कथन में खोजा जा सकता है - ''भाषा और समाज को लेकर विद्वानों में जो भी चर्चा हुई और उससे
अधिक जो अव्यक्त चिंतन हुआ उससे मुझसे सन्तोष है।[iv]
डा. शर्मा के उक्त कथन में 'अव्यक्त चिंतन’ ध्यान देने योग्य है। इस बात को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए उनके इस
कथन पर भी दृष्टिपात कर लेनी चाहिए -
''मैं एक दिन कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी के दफ्तर में बैठा काम कर रहा था। मसूरी
से कुछ लोग मिलने आए। उनमें एक ने कहा : मैं वहां लोक सेवा के उम्मीदवारों को
भाषाविज्ञान पढ़ाता हूं। आपकी पुस्तक के आधार पर उनको भाषाविज्ञान समझाता हूं
लेकिन मैं उस पुस्तक का नाम नहीं लेता। नाम लेने से लोग समझेंगे कि हमें मार्क्सवाद
सिखा रहे हैं। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा, आप नाम न लीजिए, आपको मेरी बातें सही लगती हैं तो अवश्य छात्रों को समझाइए। भाषा और समाज
पुस्तक कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने पढ़ी थी। वे उसकी स्थापनाओं से सहमत थे,
पर उनका अमल दूसरे ढंग का था। पुरानी समस्याएं अब और पेचीदा
हो गई हैं।[v]
डा. शर्मा के इस कथन से ध्वनित होता है कि उनकी पुस्तकें पढ़ी जाती हैं और
उसमें निहित बातों से राजनीतिक लाभ भी उठायेजाते हैं लेकिन न पुस्तक का नाम बताया
जाता है और न ही लेखक का जिक्र किया जाता है क्योंकि वह एक मार्क्सवादी लेखक है।
यह बात केवल पाठकों और अध्यापकों तक सीमित नहीं है। थोड़े फेर-बदल के साथ भाषाशास्त्रियों
की भी यही धरणा है। वे डा. शर्मा के चिंतन से किसी न किसी रूप में लाभ तो उठा लेते
हैं लेकिन संदर्भ में उनकी और उनके पुस्तक की चर्चा नहीं करते। उनको केवल हिंदी
आलोचक के रूप में मान्यता मिली है। वे भाषाविद् कैसे हो सकते हैं ?
इतिहासकारों की भी यही राय है। अत: इतिहास संबंधी उनका चिंतन
भी हाशिए पर डाल दिया गया है।
डा. राजमल बोरा किशोरीदास वाजपेयी और डा. शर्मा के भाषाविद् रूप के प्रस्तोता
माने जा सकते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि डा. शर्मा की पुस्तक 'भाषा और समाज’ 1961 में प्रकाशित होती है, भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंड में) 1979-81 में। इस तरह 32 वर्ष एवं 13 वर्ष के पश्चात डा. बोरा शर्माजी के भाषाशास्त्रीय चिंतन
पर एक पुस्तक लिखते हुए टिप्पणी करते हैं -
“उनके साहित्यिक चिंतन को तो बहुत पहले मान्यता मिल गई है,
किन्तु उनके भाषा चिंतन को पहचानने का प्रयास अभी नहीं हुआ
है। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप भाषाविदों को ठीक नहीं लगा है।’’[vi] क्यों ठीक नहीं लगा? इस पर डा. बोरा मौन हैं।
इसी संदर्भ में प्रो. दिलीप सिंह की बात भी कर लेनी चाहिए। प्रो. दिलीप सिंह ने एक पुस्तक लिखी है – ‘भाषा का संसार।’ यह पुस्तक वाणी
प्रकाशन से 2008 में प्रकाशित हुई। अर्थात् डा. शर्मा के गुजरने के 8 वर्ष बाद, 'भाषा और समाज’ के प्रकाशनकाल के 37 वर्ष बाद
और 'भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ के प्रकाशन काल के 16-20 वर्ष बाद। ध्यान दीजिए यह अवधि कोई छोटी अवधि नहीं है।
इससे भी ज्यादा गौरतलब प्रो. दिलीप की ये बात है। वे लिखते हैं -
''डा. रामविलास शर्मा आलोचक और साहित्येतिहास रचयिता के रूप में ही जाने जाते
हैं। वे भाषा दार्शनिक भी थे। 'भाषा’ और 'भाषाविज्ञान’ उनका प्रिय विषय था। उन्होंने भाषाविज्ञान को अपने अध्ययन
का विशेष क्षेत्र बनाया। उनके भाषावैज्ञानिक चिंतन पर अत्यल्प विचार किया गया है।
भारत के तथाकथित भाषावैज्ञानिक तो संभवत: उनके नाम से भी परिचित न हों। जो परिचित
हैं, वे भी उन्हें भाषाविज्ञानी नहीं मानते, क्योंकि इन सबने 'भाषावैज्ञानिक’ की कुछ और ही परिभाषा गढ़ रखी है।..........यह दु:खद तथ्य इस ओर भी संकेत
करता है कि साहित्य के खेमे से भाषाविज्ञान के लोग दूर-दूर ही रहते हैं और हिंदी
में लिखे 'भाषाविज्ञान’ को वे हेय समझते हैं।”[vii]
प्रो. दिलीप सिंह ने एक हद तक सही कारण की तरफ संकेत किया है। हिंदी में लिखे 'भाषाविज्ञान को भाषाविज्ञान नहीं माना जाता’। भारतीय मानसिकता का यह
बहुत दुखद पक्ष है किन्तु सत्य है। दूसरा संकेत - भाषाविज्ञानी की कुछ और ही परिभाषा
! आखिर वो परिभाषा क्या है? वस्तुत: हिन्दुस्तान में किसी व्यक्ति को भाषाविज्ञानी के रूप में तब तक
मान्यता नहीं दी जा सकती, जब तक वो किसी पाश्चात्य गुरु से दीक्षा प्राप्त नहीं कर लेता। यही सबसे बड़ा
कारण है कि किशोरीदास वाजपेयी और डा. रामविलास शर्मा का चिंतन तथाकथित भाषावैज्ञानिक
कोटि के अन्तर्गत नहीं आता।
उक्त बातों में चाहे जितनी भी सच्चाई हो, लेकिन फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि डा.
शर्मा के भाषाशास्त्रीय चिंतन का प्रभाव परवर्ती भाषाचिन्तकों पर पड़ा ही है। सच
तो ये है कि डा. शर्मा की स्थापनाएं गौण रूप में अपना असर दिखा रही हैं। गहराई से
प्रत्येक भाषाशास्त्री की कृतियों की अगर जांच की जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाएगा
कि ऐतिहासिक और समाज भाषाविज्ञानी के रूप में प्रतिषिठत भाषाविदों की जड़ कितनी
गहरी है!
लेकिन जैसा कि डा. रामविलास शर्मा स्वयं कहते हैं जो
अव्यक्त चिंतन हुआ उससे मैं सन्तुष्ट हूं। डा. शर्मा के चिंतन को आधार बनाकर अनेक
लोगों ने प्रमाणिक स्थापनाएं दी हैं लेकिन वे अपने चिंतन के पीछे रामवलिस शर्मा के
योगदान को स्वीकार नहीं करते। अपनी पुस्तकों में उनका संदर्भ नहीं देते। संदर्भ
वहीं देते हैं जहां वे उनके मत का खंडन करते हैं। स्वयं को मौलिक भाषाशास्त्रीय
चिन्तक के रूप में स्थापित करने की यह कोई स्वस्थ परंपरा नहीं है। मैं किसी लेखक
विशेष का नाम लिए बगैर ये बात कह रहा हूं। अत: अगर आप मेरी बात को अनर्गल प्रलाप
कहना चाहें तो कह सकते हैं।
इस संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है और साथ में विचारणीय भी कि आखिर क्या
कारण है कि हिंदी भाषाशास्त्र के क्षेत्र में उन लोगों की स्थापनाएं ही
क्रांतिकारी स्तर की हैं जो पेशेवर भाषाविज्ञानी नहीं हैं, और जो पाश्चात्य पद्धति में दीक्षित नहीं है,
और जो इस क्षेत्र में अस्वीकृत हैं? यह कोई बहुत पेचीदा प्रश्न नहीं है। इसका उत्तर भी स्पष्ट
है। भारत में जितने भी भाषावैज्ञानिक स्कूल हैं वे विदेशी रुपयों (डालर) से चलते
हैं। इन स्कूलों की रणनीति, अर्थनीति और राजनीति सबके निर्धारक विदेशी हैं और इन स्कूलों में काम करनेवाले
भारतीय शिष्य उनकी रणनीति के खिलाफ नहीं जा सकते। अगर उनमें से किसी विद्वान ने इस
गौण गैर पेशेवर भारतीय विद्वान से प्रेरणा लेकर कुछ लिखा, तो उसका एक ही परिणाम निकलेगा कि इन भारतीय शिष्यों के तथाकथित गुरुओं की स्थापनाओं की
बहुमंजिली इमारत ढह जाएगी। इसलिए ये शिष्य सब कुछ छोड़कर मुख्य रूप से पाणिनीय
परम्परा का अध्ययन करते हैं और विदेश यात्रा करते हुए अर्थलाभ,
यशोलाभ कमाते हैं।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि डा. शर्मा का भाषाशास्त्रीय चिंतन
क्रांतिकारी स्तर का है लेकिन हिंदी
में लिखे होने के कारण भाषाशास्त्र की पाश्चात्य परंपरा का पोषक न होने और विदेशी
भाषावैज्ञानिक स्कूलों में दीक्षित न होने के कारण उनका चिंतन क्रांतिकारी होते
हुए भी उसका प्रभाव अव्यक्त है।
संदर्भ सूची -
संपर्क - आनन्द बिहारी द्वारा
आशुतोष पार्थेश्वर, सहायक प्रोफेसर,
हिंदी विभाग, ओरियंटल कालेज, पटना सिटी, दूरभाष - 9934260232,
ईमेल – parthdot@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें