ज्ञानमीमांसा किसप्रकार सत्तामीमांसा के हाथों का पासा बनकर वर्चस्व की
राजनीति साधने का जुगाड़ बनती है, अगर आपको इसका प्रत्यक्ष अनुभव
करना हो तो भारत के आदिवासियों की नियति इस गलतफहमी को दूर करने के लिए काफी है कि
शिक्षा के मंदिरों में जाति-नस्ल-धर्म की राजनीति से इतर देश-समाज का वैज्ञानिक
ढंग से निष्पक्ष अध्ययन किया जाता है। औपनिवेशिक काल में विदेशी प्रभु वर्ग ने
जहां नृतत्वशास्त्र का इस्तेमाल आदिवासियों के संदर्भ में अपने औपनिवेशिक हितों के
निर्धारण हेतु किया, तो वहीं उत्तर औपनिवेशिक काल में
दक्षिणपंथी राजनीति उनके हिंदूकरण के माध्यम से अपने वोटों की रोटियां सेंकने में
लगी है। किंतु चाहे विदेशी राजसत्ता हो या तथाकथित भारतीय हिंदुत्ववादी सांस्कृतिक
विचारधारा, दोनों की शक्तिमीमांसा के लिए आदिवासी सिर्फ एक वस्तु मात्र होते हैं। इन
दोनों के यहां कमोवेश रूप से क्रमश:: नस्ल और धर्म के चश्मे से आदिवासियों को
देखने की प्रवृति रही है। बिट्रिश प्रशासन ने आदिवासियों के लिए जनजाति (ट्राइब)
पद का इस्तेमाल किया था। इसके माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता ने अपने द्वारा शासित निवासियों
में पहले से ही विद्यमान विभेदों की कड़ी में एक और कड़ी जोड़ दी। यह तो एक
सामान्य राजनैतिक सिद्धांत है कि शासक वर्ग के लिए आवाम का एका सदैव से खतरे का
निषान रहता आया है अत: आवाम को नस्ल, जाति, धर्म इत्यादि के नाम पर बांटकर रखना ही उसके लिए फायदे का सौदा होता है और फिर
अंग्रेज तो थे ही मूलत: सौदागर। आदिवासी समाज के लिए जनजाति जैसा प्रजातीय पद औपनिवेशिक
काल से पहले पूर्णत: भारतीय परिदृश्य से अनुपस्थित था। यद्यपि ‘जाति’ के विरोध में ‘जन’ सदृश्य पद अवश्य मिलते थे किंतु उनकी अर्थ भंगिमा प्रजातिगत विभेद की व्यंजक
नहीं होती थी। यह माना जाता है कि मुख्यधारा की नागरिक सभ्यता से इतर
सभ्यता-संस्कृति रखने वाले लोगों को अंग्रेजी सत्ता ने पृथक श्रेणी में डालने के
लिए जनजाति पद का प्रयोग करना आरंभ किया। अंग्रेजी प्रशासकों ने इन लोगों को इनकी
दैहिक संरचना,
भाषायी लक्षणों और पारिस्थितिक परिदृश्य के आधारों पर
समांगी बताया। जीवन पद्धति, सामाजिक संरचना और धार्मिक
मान्यताओं के नजरिये से भी इन्हें शेष भारतीय समाज से जुदा-जुदा सा बताया गया।
पारस्परिक विभेदमूलक वर्गीकरण आधारित पाश्चात्य ज्ञानमीमांसा सामान्य भारतीय समाज
के प्रतिपक्ष के रूप में आदिवासियों की पहचान करती थी। प्रशासनिक सुगमता की दृष्टि
से भी इसप्रकार का आरोपित पारिभाषिक श्रेणीकरण अपना औचित्य रखता था। आदिवासियों को
पृथक प्रजाति मानते हुए भी उनके प्रति परंपरा से चला आ रहा गर्हित भाव विदेशी
राजसत्ता को भी स्वीकार्य था क्योंकि दुनिया को सभ्य करने का दंभ भरने वाले ब्रिटानी
साम्राज्यवाद को इन जनजातियों में सभ्यता नाम की चिड़िया दिखाई भी कैसे दे सकती थी!
यद्यपि एक श्रेणी के रूप में 'जनजाति’ औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा की सृष्टि
है किंतु इसकी जड़ें विदेशी साम्राज्यवाद के आगमन से कहीं ज्यादा पीछे तक फैली हुई
हैं। जनजाति पद से व्यंजित मानव छवि और उसके निहितार्थ मूलत: तथाकथित भारतीय सभ्य
समाज द्वारा पहले से ही विशिष्ट समुदायों और समूहों के संदर्भ में इस्तेमाल होते
आये हैं। पाश्चात्य नृतत्वशास्त्रियों ने औपनिवेशिक सत्ता से संचालित होकर इस पद
का प्रयोग जंगलों-पहाड़ों में अलग-थलग पड़े उन लोगों को संबोधित करने के लिए किया
था जो तथाकथित रूप से आदिम और बर्बर जीवन जीते हैं। श्वेत नस्ल के प्रभु वर्ग
द्वारा स्वयं को सभ्य-सुशिक्षित और आदिवासियों को जंगली-जाहिल घोषित करने की यह
नस्लभेदीय परंपरा भारतीय इतिहास-संस्कृति में भी साफ देखी जा सकती है। संस्कृत और
हिंदू धार्मिक ग्रंथों और परंपराओं में इसी तर्ज पर सभ्य मनुष्यों ने गिरा-कंदरा
निवासी आदिम जनों का वर्णन-चित्रण किया है। यहां आदिवासियों के लिए आये शब्द किसी
भी तरह से नस्लीय भेदभाव और पूर्वाग्रहों से कमतर नहीं हैं, जैसे - दस्यू, दैत्य, राक्षस और निषाद आदि। इसप्रकार आदिवासियों को लेकर प्राच्यवादी औपनिवेशिक
सत्ता और पौर्वात्यवादी धार्मिक सत्ता, दोनों ही एक ही धरातल
पर खड़ी हैं।
भारत में आधुनिकता की स्वयंभू ठेकेदार रहीं बिट्रिश राजसत्ता आदिवासियों को विश्लेषित-परिभाषित
करते हुए धर्म के मकड़जाल से बाहर न आ सकीं। यही धर्म भगवा राजनीतिकारों और नीति-निर्धारकों
के लिए भी अपने भविष्य को संवारने का मूलमंत्र रहा है लेकिन आदिवासियों की धार्मिक
पहचान को लेकर धर्म को प्रस्थान बिंदु मानकर यात्रा आरंभ करने पर भी इन दोनों के
गंतव्य अलग-अलग रहे हैं। समाजशास्त्रियों ने गैर आदिवासी भारतीय समाज को समझने में
धर्म और जाति को मुख्य भेदक तत्व माना है क्योंकि भाषा और क्षेत्र की विविधताएं
होने पर भी धर्म और जाति की समानता के कारण भिन्न-भिन्न भाषा और क्षेत्रों में
समाजों की आंतरिक संरचना में कोई विशेष तब्दीली दर्ज नहीं की जाती। लेकिन आदिवासी
समाजों के अध्ययन में इसप्रकार का धार्मिक-जातीय गणित मूल्यवाण नहीं रहा है। किंतु
समाजशास्त्र और नृतत्वशास्त्र की उपेक्षा करते हुए औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा ने भारतीय
आदिवासियों को भी धर्म के चश्मे से देखने-पहचानने की कोशिश की। औपनिवेशिक प्रशासकों
ने नृतत्वशास्त्र और सत्ता हितों का घालमेल करते हुए भारतीय आदिवासियों को जीववादी
धर्म या आदिवासी धर्म का उपासक बताया है। आदिवासियों का यह धर्म हिंदुओं के लिखित
धार्मिक सिद्धांतों की चारदीवारी में नहीं अंटता। यद्यपि आदिवासियों की पहचान
निर्धारण के अन्य पहलुओं की भी चर्चा औपनिवेशिक नृतत्वशास्त्री करते थे, जैसे जीवन निर्वाह की आदिम स्थितियां, मुख्यधारा के समाज से अलगाव, जंगलों-पहाड़ों में एकाकी जीवन, यौनिक शुचिता की अवहेलना और कबीलाई संस्कृति इत्यादि। किंतु ये विशेषताएं
आदिवासी पहचान निर्धारण की गौण कारक ही रहीं, केंद्र में रहा उनका धर्म। उनके समाज, संस्कृति,
भाषा और आर्थिक-प्रशासनिक वैशिष्ट्य को रेखांकित करने वाले
स्वतंत्र अध्ययन अपवादस्वरूप ही हुये हैं। उनके अपने निजी यथार्थ अस्तित्व की
अवहेलना करते हुए बाहरी सत्ता ने अपने हितानुकूल आदिवासी समाज को नाम और परिभाषा
दी जबकि आदिवासी समाज की पहचान धर्म की अपेक्षा उसकी भाषा-बोली, पहनावे-लत्ते, उत्सव-समारोह और प्रकृति के साथ जीवंत रिश्ता
आदि बिंदुओं से तय होती है। आदिवासी को उसके धर्म से नहीं बुलाया जाता बल्कि प्राय:
उसकी बोली-भाषा से जाना-पहचाना जाता है, जैसे - भील, मुंडा, हो, बोडो और खासी आदि आदिवासी समुदाय।
आदिवासियों के हिंदूकरण पर बात करना तस्वीर का सिर्फ एक पक्ष ही होगा अत: पहले
हम औपनिवेशिक भारत में आदिवासी समाज और ईसाइयत के आपसी रिश्तों पर चर्चा कर लेते हैं
क्योंकि ऐतिहासिक कालक्रम में यह पहलू पहले सामने आया है। ईसाई मिशनरियों के
स्रोतों के हवाले से इस पहलू को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है कि कैसे इन पश्चिमी
धर्म प्रारक मिशनरियों ने अनपढ़-जाहिल-खूंखार-पिछड़े आदिवासियों का आधुनिकीकरण
किया। किंतु इस तथाकथित आधुनिकीकरण की पूरी प्रक्रिया में निहित वास्तविक
साम्राज्यवादी मंसूबों पर से पर्दा उठाना आवश्यक है। ऐतिहासिक तथ्य यह बताते हैं
कि उपनिवेशवाद और ईसाइयत के बीच नाभि-नाल संबंध सदैव से रहे हैं। ज्यों-ज्यों श्वेत
साम्राज्यवादी अमेरिका, अफ्रीका और एशिया आदि में स्थानीय शासकों
को पराजित करके अपने मातहत उपनिवेशों की स्थापना करते जाते थे, त्यों-त्यों उनके पीछे-पीछे ईसाइयत भी इन विजित उपनिवेशों की मूल प्रजातियों
को सभ्यता का पाठ पढ़ाने के लिए पहुंचती जाती थी। औपनिवेशिक नीतियों और
साम्राज्यवादी प्रशासनिक व्यवस्था को इन ईसाई मिशनरियों ने काफी सीमा तक प्रभावित
किया था। किंतु लैटिन अमेरिका की तुलना में भारत के संदर्भ में ईसाई मिशनरियों की भूमिका
किंचित विशिष्ट रही है। लैटिन अमेरिका में ईसाई मिशनरियों के आगमन के प्रारंभिक
दौर में इन्होंने यद्यपि उपनिवेषकों के विरूद्ध स्थानीय निवासियों के हितों के
पक्ष में आवाज उठाई और नस्लीय समानता का क्रांतिकारी नारा दिया किंतु शीघ्र ही
इन्होंने 16 वीं सदी के उपरांत बड़े-बड़े भूभागों की मिल्कियत हथिया ली। भारत में ईसाई मिशनरियां
कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में कभी भी नियंत्रणकारी बड़ी भूमिका में नहीं आई। वैसे
इसमें कोई दो राय नहीं कि लघु स्तर पर ये मिशनरियां कई प्रकार के आर्थिक क्रियाकलापों
में संलग्न रहती थीं, जैसे - व्यापार, दस्तकारी,
कृषि की नवीन पद्धतियों का प्रयोग और भवन निर्माण आदि। भारत
में इन मिशनरियों ने छोटी जमींदारियां उपहार में प्राप्त की थीं और कभी-कभी ये
भूमि खरीद भी लेती थीं। किंतु इनका वित्तीय ढांचा मूलत: साम्राज्यवादी प्रशासन की
आर्थिक सहायता और समुद्रपारीय मूल संस्थानों से मिलने वाले वार्षिक अनुदानों पर
टिका था। एक ओर ईसाई मिशनरियों की यह आर्थिक परनिर्भरता उन्हें राजनैतिक स्तर पर औपनिवेशिक
प्रशासन से नजदीकियां रखने को विवश करती थी, तो दूसरी ओर विदेशी साम्राज्यवाद को भी अपनी सत्ता को वैधानिकता प्रदान करने
के लिए और पिछड़े समुदायों और आदिम निवासियों के बीच अपनी पैठ कायम करने के लिए ईसाई
धर्म प्रचारक संस्थाओं की आवश्यकता थी। ईसाई शासक बिरादरी से ताल्लुक रखने का दावा
करते थे और स्वयं को बिट्रिश ताज के भाई-बहिन बताते थे। इसके बदले में उन्हें कुछ विशेषाधिकार
प्राप्त थे। 1857 के विद्रोह ने ईसाई धर्म प्रचार के रास्ते में एक सीमा तक गतिरोध पैदा कर
दिया। कंपनी के शासन से निकलकर जब हिंदुस्तान सीधे बिट्रिश ताज के शासन अंतर्गत
आया, तो गाय-सूअर की चर्बी वाले कारतूसों से सबक लेते हुए निवासियों के
धार्मिक-सांस्कृतिक मामलों में दखल न देने की प्रशासनिक नीति अपनायी गयी। लेकिन इस
नीति पर पूर्ण ईमानदारी के साथ अमल नहीं किया गया। अनेक बिट्रिश पदाधिकारी ईसाइयत
के प्रचार-प्रसार में वैयक्तिक रूचि रखते थे और गैर आर्य भारतीय आबादी को सामाजिक
तटस्थता की नीति से परे समझते थे। आदिम मूल निवासियों और अछूत जातियों को ईसाइयत
के प्रचार-प्रसार हेतु कोरी स्लेट की जैसे देखा जाता था जिस पर अपने धर्म और मत की
मुहर लगाना बिट्रिश पदाधिकारी और ईसाई धर्म प्रचारक अपना हक और कर्तव्य दोनों
मानते थे। कई उच्च अंग्रेज अधिकारी तो इस धर्म प्रचार कार्य में ईसाई मिशनरियों की
आर्थिक सहायता तक करने से पीछे नहीं रहते थे।
प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण सहज-स्वाभाविक स्वच्छंद जिंदगी जीने वाले
आदिवासी समुदायों के सामुदायिक जीवन को इन धर्म प्रचारक संस्थाओं-मिशनरियों ने
तहस-नहस करके रख दिया। ईसाई नैतिकता के नाम पर पितृसत्ता की जकड़न में आदिवासी
स्त्री को जकड़ दिया गया। आदिवासी मान्यताओं और प्रथाओं को जंगली और पिछड़ेपन का
प्रतीक बताया गया। आदिवासी सामुदायिक उत्पादन तंत्र के स्थान पर आदिवासी एकता को
तोड़ने के लिए वैयक्तिक संपत्ति की अवधारणा का बीज बोया गया। स्वायत्त आदिवासी प्रशासन
के स्थान पर उन्हें बिट्रिश राज के अधीन लगान देने वाली मातहत कृषक आबादी में
बदलने का प्रयास हुआ। किंतु इन सबके साथ-साथ सामंती लगान व्यवस्था के उन्मूलन और
नीलहे साहबों के अत्याचारों के विरूद्ध भी मिशनरियों ने आदिवासियों का साथ दिया, उन्हें आंदोलन हेतु प्रेरित किया। आदिवासी कृषकों के कृषक संगठन और कृषि
कानूनों के निर्माण में भी इन मिशनरियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। और इन सब से
ऊपर अनपढ़ आदिवासी लोगों में अक्षर ज्ञान का प्रकाश फैलाने का श्रेय भी ईसाई
प्रचारकों को ही जाता है। आदिवासियों में स्वतंत्र-स्वायत्त पहचान और आत्मसम्मान
का भाव पैदा करने में भी इनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन इससे भी कोई
इंकार नहीं कर सकता कि बिट्रिश सत्ता से टकराव की स्थिति में ईसाई मिशनरियां
आदिवासियों का साथ देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने को कभी तैयार नहीं हो सकती
थीं। पढ़-लिख जाने पर आदिवासियों को अपने धर्म-संस्कृति की उपेक्षा पर क्रोध और
ग्लानी भी होती थी। वे एक विदेशी धर्म और संस्कृति को अपने प्रतिकूल समझने लगते
थे। पर्दे के पीछे का षड्यंत्र समझ आने पर आदिवासी विद्रोह भी करने से नहीं हिचकते
थे। प्राकृतिक विपदाओं के समय प्राण रक्षा के लिए मिशन में जाने वाला आदिवासी
बहुधा अपने मूल आदिवासी समाज और धर्म में लौट भी आता था। आज तक भी आदिवासियों के
सिर्फ नाम से ही ईसाइयत झलकती है, अन्यथा चमड़ी से लेकर आत्मा तक, वे आदिवासी ही बने हुये हैं।
महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ धरती को अपनी मां की जैसे पूजने वाले, निष्पाप और सरल हृदय तथाकथित बर्बर-जंगली मुंडा आदिवासियों द्वारा देशी-विदेशी
दिकुओं के खिलाफ अपने सहज सिद्ध जंगलात के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए की
गयी सशस्त्र क्रांति - उलगुलान की मर्मस्पर्शी महागाथा है किंतु साथ ही इस
औपन्यासिक कृति में आदिवासियों और ईसाई मिशनरियों के पारस्परिक संबंधों पर भी प्रकाश
पड़ता है। बीरसा के आदि पुरूषों चुटिया हरम और नागु ने छोटा नागपुर बसाया था। उस
समय कोई मुंडा जिस कोरी धरती पर कुदाल चलाकर खूंटा गाड़ देता, वही खूंटा एक नये गांव की नींव बन जाता। जीवन सहज था। मुंडाओं का स्वयं का राज
था किंतु कालांतर में बाहरी लोगों ने, दिकुओं ने आकर उनकी
घरती-जंगल छीन लिये। दिकू लोगों के कारण मुंडाओं की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गयी।
अत: जब अंग्रेजी शासन स्थापित हुआ और ईसाई मिशनरियां आने लगीं, तो अकाल, महामारी, भुखमरी और गरीबी से तंग आकर भिखारी बन मिशन में नाम लिखाने के अलावा
आदिवासियों के पास कोई चारा न रहता था। ‘जंगल के दावेदार’ में हम मिशन के साहबों की दया और चावल के लिए किरस्तान होते आदिवासियों को
देख सकते हैं। हारी-बीमारी-दुकाल-जेल-कचहरी के डर से मुंडा आदि आदिवासी किरस्तान अवश्य
होते रहे थे किंतु सुकाल आने पर फिर अपने मूल धर्म में पुन: लौट आते थे। बीरसा के
जेल हो जाने पर मुंडा लोग दल के दल किरस्तान बनने मिशन में जाते हैं किंतु उसके
छूटने पर वे मिशन छोड़ देते हैं। मुंडा मिशन प्रचारक पलुस इस सिलसिले में धानी को
टोकता भी है किंतु हफमैन सब जानते-बूझते भी इन मुंडाओं के लिए चर्च का दरवाजा खोल
देता है ताकि अंग्रेज सरकार के प्रति मुंडाओं का आक्रोश कुछ तो ठंडा पड़े! सारे
आदिवासी मात्र प्राण बचाने के लिए ही किरस्तान नहीं होते थे, कुछ लोग मिशनरियों में प्राप्त होने वाली अंग्रेजी शिक्षा के महत्व से भी
परिचित थे। बीरसा का पिता सुगाना मुंडा पढ़ना-लिखना सिखाने के लिए बीरसा को बुर्ज
और चाईबास के जर्मन मिशनों में भर्ती कराता है ताकि बीरसा कचहरी में हाकिम की बात
समझ-बूझ सके। बीरसा का मिशन जाने का मुख्य उद्देश्य भी यही था कि कचहरी जाकर बाप
को गांव की जमीन वापिस लौटवा सके। किरस्तान धर्म में दीक्षित होने पर मुंडाओं के ईसाई
नाम रखे जाते थे। बीरसा हो गया था दाऊद मुंडा या दाऊद बीरसा और सुगाना बन गया था- किरस्तान
सुगाना महीदास। उस जमाने में आदिवासी समाज मिशन में भर्ती होने को अपनी हैसियत में
इजाफा होने से भी जोड़ता था। उपन्यास में हम पाते हैं कि अगर आदिवासी परिवार-समाज
का कोई सदस्य मिशन में रहे तो उनका बल-भरोसा बढ़ जाता था क्योंकि मिशन का सीधा
सूत्र बिट्रिश सत्ता से था। अत: आदिवासियों यह विश्वास निर्मूल न था कि किरस्तान
अंग्रेजी सरकार के भाई-बहिन होते हैं किंतु किरस्तान बनकर भी आदिवासी अपने मूल
आदिवासी धर्म को नहीं छोड़ते। मुंडा आदिवासी भी बोड़ा-बोड़ी की पूजा बंद नहीं
करते। वास्तव में मुंडा आदिवासी किसी मत-पंथ में शामिल रहे, उसकी रगों में मुंडारी खून हमेंशा रहता है- ''मुंडारी जीवन-माने हजारों अनुशासनों में दबा-पिसा, और हर खून में अनेकानेक विश्वास! आज तुम मुंडारी हो, कल तुम किरस्तान हो, फिर मुंडा, फिर किरस्तान, लेकिन तुम्हारा नाम आज सुगाना, कोम्ता, डोलका, भरमी, धानी; कल पलुस, दाऊद, मेथ्यू, जोहाना, अब्राहम-कुछ भी क्यों न हो, खून में रहता है - सिंबोड़ा का शासन, हरम असूल की त्योरी।’’
(महाश्वेतादेवी, जंगल के दावेदार, पृष्ठ 53) आदिवासी की जड़ें अगर किरस्तान
धर्म-संस्कृति से नहीं जुड़ पाती है तो उसका एक सीधा-सा ठोस कारण भी लेखिका ने
बताया है कि भूखे आदिवासियों के सामने ‘किंगडम आफ हेवन’ की बात करने वाला
धर्म आदिवासियों को नहीं चाहिए। आदिवासी समाज मोक्ष नाम की किसी चिड़िया को न जानता
है और न उसकी उन्हें आवश्यकता है। उसे जीवन को निस्सार बताकर मुक्ति की राह दिखाने
वाला पथप्रदर्शक नहीं चाहिए। उसे तो अपने मौलिक अधिकार चाहिए थे और अमूल्य बाबू के
शब्दों में इनके मायने थे - ''नमक, घाटो के साथ, जंगल की जमीन में फसल उगाकर अपने खलिहान
में उसकी उपज को ला रखना, बेगारी न देना, जंगल में अपने जीवन को शांति के साथ बिताना!’’ (महाश्वेतादेवी, जंगल के दावेदार, पृष्ठ 277)
ईसाइयत और मिशन
ने एक ओर जहां आदिवासियों के दुख-दर्द पर सहानुभूति और सहायता का मरहम लगाया, वहीं दूसरी ओर उन्हें शिक्षित बनाकर उनके अंधविश्वास दूर किये। प्राकृतिक आपदा
और रोगों के प्रति जागरूक किया। महामारियों के समय आदिवासियों की सेवा-सुश्रुषा
करके उन पर ईसाइयत का रंग चढ़ाने का प्रयास किया किंतु जब बीरसा जैसे किसी आदिवासी
ने बीमारियों के वैज्ञानिक इलाज और चर्च में प्राप्त अंग्रेजी ज्ञान का इस्तेमाल
करके अपने आदिवासी भाई-बहिनों को जगाना चाहा, तो चर्च ने सारी मानवता को तिलांजलि देकर आदिवासियों को ही अपना दुश्मन मान
लिया। दूसरी ओर तंत्र-मंत्र और झाड़-फूंक करके अपना उल्लू सीधा करने वाले
पहानों-ओझाओं ने भी बीरसा के प्रति प्रारंभ में अपनी नाराजगी जाहिर की थी। यहां तक
कि बीरसा के मौसा द्वारा तो मिशन प्रचारक लुकास को अपने गांव खरंगा से भगा भी दिया
गया था। मानवीय दया और सेवा धर्म में दीक्षित चर्च के साहबों के मीठे बोलों ने
आदिवासियों की उम्मीदें बढ़ा दी थीं। इसीकारण जमीन की लड़ाई में, अपनी मुल्की लड़ाई में सरदारी लोगों को साहबों से सहायता की आशा थी और यह सच
भी था कि लियेवेंस जैसे चर्च के इक्का-दुक्का साहब यथार्थ में आदिवासियों की इस
लड़ाई में उनके साथ थे- आदिवासी हितों के प्रबल रक्षक जेकब जैसे वकील मुफ्त में
उनके मुकदमे भी लड़ रहे थे। किंतु कुल मिलाकर चर्च अंग्रेजी सरकार के हितों के
विरूद्ध आदिवासियों की सहायता करके अपने लिए खतरा मोल नहीं ले सकता था। उपन्यास में
जर्मन मिशन चर्च के मुंडा किरस्तान चाईबास मिशन के डा. ए. नट्रट द्वारा निराश
वापिस लौटा दिये जाते हैं। यद्यपि तोरपा कैथेलिक मिशन के लियेवेंस साहब मुंडा
लोगों का दुख समझते थे। उन्होंने स्थानीय सामंतवाद के विरूद्ध छोटा नागपुर काश्तकारी
कानून लागू कराने के आश्वासन के साथ ही आदिवासियों को अत्याचार से लड़ने का उपदेश
भी दिया किंतु अंग्रेज सरकार को यह नागवार गुजरा। ऐसे आदिवासी हित संरक्षक
पादरियों का सरकार ने तबादला करा दिया और फौज भेजकर सरदारों को पकड़ना-मुकदमा
चलाना आरंभ कर दिया। सरकार के इन अत्याचारों और नट्रट जैसे सरकारी क्रीतदास
पादरियों के कारण आदिवासियों का यह भ्रम दूर हो गया कि जल-जंगल-जमीन की लड़ाई में
चर्च उनका साथ देगा। अब यह बिल्कुल साफ था कि मिशन के साहब और साहब सरकार दोनों भाई-बहिन
हैं अत: मुंडा लोगों का इनसे कोई भला नहीं हो सकता था। यह पहले ही स्पष्ट किया जा
चुका है कि औपनिवेशिक शासन के प्रति मूल आदिवासी समुदायों का समर्थन प्राप्त करने
के लिए अंग्रेज सरकार ईसाई मिशनरियों को पालती-पोसती थी। ‘जंगल के दावेदार’में जब बीरसा को कारावास देने पर अंग्रेजी हुकूमत के प्रति मुंडा आदिवासियों
में बहुत आक्रोश फैल जाता है, तो पुलिस मिशनरियों को निर्देश
देती है कि बड़े दिन पर ज्यादा कंबल और कपड़े बांटे जाये ताकि मुंडाओं को इनसे चुप
किया जा सके। अस्तु, यहां भी मिशन और पुलिस का गठजोड़ स्पष्ट
है। दूसरी ओर ईसाई चर्च और पादरी साहब उन्हें बारंबार जंगली-नंगे-चोर-डाकू कहने से
बाज न आते थे। अंग्रेजी सरकार के रिकार्डों में भी उन्हें चोर-डाकू बताया जाता था।
उन्हें अपराधी जनजातियां तक दर्ज किया जाता था। किंतु मिशन में प्राप्त शिक्षा ने
अब आदिवासियों को उनके अधिकारों और पहचान के प्रति जागरूक कर दिया था और उन्हें
समझ आने लगी थी चर्च की दोगली चालें। परिणाम हुआ मुंडाओं को बेईमान कहने वाले मिशनरी
साहबों से मुंडाओं का मोहभंग। सरदारों को ठग और धोखेबाज बताने वाले नट्रेट जैसे
साहबों की गालियां सुनकर बीरसा के मुंडारी रक्त में भी उबाल आ जाता है और वह चाईबास
मिशन छोड़कर अपने आदिवासी समाज में वापिस लौट जाता है। अब वह मिशन में प्राप्त
ज्ञान का ही इस्तेमाल सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरूद्ध आदिवासियों को जागरूक
करने में करता है। आदिवासियों और चर्च के मध्य संबंधों में आता यह तनाव इतना उग्र
हो जाता है कि बड़े दिन से आरंभ हुये उलगुलान के पहले दौर में किरस्तान धर्म के हर
प्रतीक और संस्था को निशाना बनाया गया। बीरसा के आदिम स्थान उलिहातू गांव में चर्च
पर तीर छोड़े गये। बासिया में भी जर्मन मिशन में तीर चले। मुरहू में ऐंग्लिक चर्च
स्कूल में रेवरेण्ड लास्टी पर तीर चलाया गया। कुंदरूगटू में जर्मन मिशन चर्च जलाकर
राख कर दिया गया। सरयाड़ मिशन के गोदाम में भी आग लगा दी गयी। ये जर्मन मिशन के
डा. ए. नारकाट ही थे जिन्होंने बंदी मुंडाओं पर फौजी मुकदमा चलाने की मांग की थी और
बीरसा के उलगुलान को कुचलने वाले डिप्टी कमिश्नर स्ट्रेटफील्ड का अभिनंदन भी
इन्होंने किया था।
बीरसा को मुंडा आदिवासियों द्वारा अपना भगवान मानना बहुत महत्वपूर्ण है
क्योंकि बीरसा की स्वाकार्यता में अन्य धर्म के महापुरूषों और ईश्वरों की
अस्वीकार्यता भी निहित है। बीरसा अंग्रेजों की आंखों का कांटा इसलिए भी बन गया था
क्योंकि उसने आदिवासियों के समक्ष पेश किये जा रहे यीशू के विकल्प को सीधे चुनौति
दी थी। आदिवासियों की निम्नवर्गीय चेतना अपने नायक या भगवान की श्रेष्ठता में अंध
आस्था रखती है। मुंडाओं का यह भोला विश्वास उनके लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ कि वे
फिरंगियों के उन्नत अस्त्र-शस्त्र से भी सुरक्षित रहेंगे। किंतु इसी आदिवासी चेतना
से सुपरिटेंडेंट एंडरसन खार खाता है। वह जानता है कि जब तक मुंडा आदि आदिवासियों
की बीरसा भगवान विषयक आस्था का समूल उन्मूलन नहीं किया जायेगा तब तक बिट्रिश राज
के प्रति उनके उलगुलान की आग कभी बुझ नहीं सकती। जब तक आदिवासी समाज को उनके
पुरखों के प्रभामंडल से विलगाया नहीं जायेगा तब तक वे विदेशी प्रभु वर्ग की
धर्म-संस्कृति की दासता कबूल नहीं कर सकते। आदिवासियों के पुरखौती गीतों और कथाओं
में सामूहिक मिथकों को गढ़ने की प्रवृति मिलती हैं जो भौतिक जगत के तर्कों से परे
होते हैं। किंतु बीरसा के संदर्भ में आदिवासी रणनीतिकारों की पहल पर सृजित
इसप्रकार की धारणाओं ने फिरंगी सरकार के दमन-उत्पीड़न को हंसते-हंसते झेल जाने का
एक संबल मुंडा आदिवासियों को प्रदान किया। इसप्रकार के कुछ मिथक उपन्यास में आये
हैं, जैसे - बीरसा का सुपरिटेंडेंट साहब से अंग्रेजी में बात करना, बीरसा के ऊपर दागी गयी गोलियों का हवा हो जाना आदि। आदिवासी धर्म किसी
पारलौकिक देवी-देवता में आस्था नहीं रखता। वंदना टेटे इस संदर्भ में लिखती हैं कि ''अपने धार्मिक विश्वासों में हम किसी देवता को नहीं मानते। प्रकृति को मानते
हैं। प्रकृति की रक्षा हेतु सृष्टि के नियमों का पालन व उसकी देखरेख के लिए तैनात
बोंगा और अपने पुरखों को मानते हैं।’’ (वंदना टेटे, आदिवासी साहित्य:परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ 82) आदिवासियों के इन
बोंगाओं और पुरखों का कभी अंत नहीं होता।’’ बीरसा ने भी कहा था कि भगवान का
अंत नहीं होता। उसका उलगुलान कभी बुझ नहीं सकता। बीरसा जब सुनारा से मुंडा मानुस
बनकर वापस अपने समाज में लौटने की बात करता है, तो यहां आदिवासियों के प्राकृतिक धर्म की ओर भी लेखिका का संकेत ध्यातव्य है -
''तुम्हें क्या पता, भगवान ने मुझसे कहा था न, अगर बिजली बनकर लौट आऊं, तो तुम लोग डरोगे। अगर बिजली बनकर
गिर जाऊं तो तुम लोग डरोगे। अगर बाघ बनकर लौट आऊं तो तुम लोग डरोगे। अगर जानवर
बनकर लौट आऊं तो तुम लोग मुझे पहचानोगे नहीं। इसीलिए मैं मानुस होकर ही लौट आऊंगा; नई धरती गढूंगा। बांभन बनकर आने में, गोसाईं बनकर आने पर
तुम लोग मुझे पहचानोगे नहीं। मैं मुंडा बनकर आऊंगा रे।’’ (महाश्वेतादेवी, जंगल के दावेदार, पृष्ठ 26) स्पष्ट है कि आदिवासी प्राकृतिक तत्वों और
प्राणियों में ईश्वरत्व देखते हैं। उनसे डरते हैं, उनमें आस्था भी रखते हैं। मुंडा लोग दुष्ट आत्मा नासान बोंगाओं से भय खाते
हैं। दुर्भिक्ष,
अनावृष्टि, अतिवृष्टि, चेचक और हैजा जैसी महामारियों के लिए उन्हें ही उत्तरदायी बताते हैं। किंतु
लेखिका महाश्वेता देवी का इस संदर्भ में मानना है कि असुर पूजा और तंत्र-मंत्र आदि
बाहरी लोगों का कुप्रभाव था और बीरसा आदिवासियों की सरल-सहज आस्थाओं में दिकुओं
द्वारा फैलायी इन कुप्रथाओं से भी लड़ता है। आदिवासियों के पहान और ओझा अपने
तंत्र-मंत्र के धंधे पर चोट पड़ने पर बीरसा का भी विरोध करते हैं किंतु बीरसा
आदिवासियों को इनके चंगुल से मुक्ति दिलाने के लिए दृढ़ संकल्प था। अपने मिशनरी
ज्ञान से वह इनकी निस्सारता पहचान गया था।
आदिवासी के धर्म को लेकर फिरंगी नृतत्वशास्त्री और औपनिवेशिक प्रशासक जहां से
अपनी बात समाप्त करता है, वहीं से हिंदुत्ववादी मेधा अपनी
भावी आदिवासी रणनीति के सूत्र चुनती है। अभी तक नृतत्वशास्त्री और समाजशास्त्री
आदिवासी और गैर आदिवासी समाजों के मध्य विद्यमान जिस मूलभूत पार्थक्य पर बारंबार
बल देते आये थे,
उसी की अवहेलना करते हुए जी.एस.घुर्ये (गोबिंद सदाशिव
घुर्ये) अब तक के चिंतन को उलटते हुए आदिवासी को हिंदू साबित करने की जिहादी जिद
पकड़ लेते है। घुर्ये ने 'तथाकथित मूल निवासी और उनका भविष्य’ शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी जो कई
संस्करणों के पश्चात 'भारत की अनुसूचित जनजातियां’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इन्होंने
हिंदू समाज के साथ आदिवासियों के समायोजन के आधार पर उन्हें तीन श्रेणियों में
वर्गीकृत करते हुए उन्हें 'पिछड़ा हुआ हिंदू’ साबित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। इनके सारे तर्क बाण एक ही धनुष से
निकलते हैं जो आदिवासियों के जीववादी धर्म और हिंदू धर्म की तथाकथित मूलभूत समानता
के ख्याली तत्वों से बना है। घुर्ये 1891 से 1931 के मध्य मर्दुमशुमारी आयुक्तों द्वारा किये गये पर्यवेक्षणों और उनके द्वारा
की गई टिप्पणियों के आधार पर सारा प्रपंच रचते हैं। उन्होने स्वयं आदिवासी समाज के
मध्य जाकर धरातली सच्चाइयों से कोई साक्षात्कार नहीं किया था। इतना ही नहीं घुर्ये
ने बहुत ही अपर्याप्त साक्ष्यों का हवाला दिया जिनके चयन के पीछे भी उनका आदिवासी
विरोधी पूर्वाग्रह काम कर रहा था। किंतु घुर्ये की लेखनी ने आदिवासियों के संदर्भ
में दक्षिणपंथी राजनीति की राह आसान कर दी। अब घुर्ये की मार्फत उनके लिए
आदिवासियों को हिंदू सिद्ध करके उनके हिंदूकरण की मुहिम को तर्क का जामा पहनाना
किंचित आसान हो गया। घुर्ये की इस आदिवासी हिंदूकरण की अनुगूंज नियोगी समिति की
रपट में भी साफ सुनाई देती है। यह समिति अविभाजित मध्यप्रदेश में ईसाई मिशनरियों
की तथाकथित धर्मांतरण की गतिविधियों की जांच करने के लिए गठित की गई थी। समिति ने
आदिवासियों को हिंदू और पिछड़ा हिंदू बताते हुए घुर्ये के रटे-रटाये कुतर्कों का
सहारा लेकर आदिवासियों के ईसाईकरण पर अपनी चिंता जाहिर की। किंतु आदिवासी को हिंदू
कहने की यह मुहिम 'थोथा चना बाजे घना’ सदृश्य है। पहली बात तो जीववादी
आदिवासी धर्म और हिंदू धर्म में कोई समानता नहीं है और कहीं किसी स्तर पर यदि
किंचित सादृश्य भी नजर आता है, तो उसका कारण यही है कि हिंदू धर्म
भी अपने आरंभ में प्राकृतिक धर्म ही रहा है। फिर अगर जीववादी धार्मिक लक्षणों के
आधार पर आदिवासी हिंदू कहे जाने चाहिए, तो फिर क्या आप
अफ्रीका और अमेरिका के आदिवासियों को भी हिंदू कहने का दुस्साहस कर सकते हैं जबकि
वे भी जीववादी धर्म को मानते हैं! दरअसल जब खोट आपकी नियत में ही हो, तब ऐसी उलटबांसियां तो पैदा होनी ही है।
इतिहास के जिस दौर को ‘जंगल के दावेदार’ उपन्यास में उठाया गया है, उसमें राजनैतिक स्तर पर आदिवासियों
के हिंदूकरण की कोई मुहिम नहीं चलायी जा रही थी क्योंकि उस समय लोकतंत्र के अभाव
में हिंदुत्व को संख्या बल की राजनीति करने की आवश्यकता ही न थी। किंतु उपन्यास
आदिवासी के हिंदूकरण का मुद्दा भी उठाता है। चाईबास का मिशन छोड़ने के पश्चात
बीरसा अपने अस्तित्व और नियति को जानने की भटकन का शिकार हो गया। स्वयं से
साक्षात्कार करने की यह खोज उसे बनगांव के जमींदार जगमोहन सिंह के मुंशी आनंद
पांडे के पास ले जाती है। आनंद पांडे के निर्देशन में वह हिंदू बनकर जनेऊ पहन, चंदन तिलक लगा तुलसी पूजा करने लगता है। बीरसा भगवान का भजन गाता है और
रामायण-महाभारत-पुराण बांचने में भी अपना मन लगाता है। किंतु बीरसा का भगवान अलग
था। वह सिबोंडा की प्रजा और हरमबो की संतान था। हिंदू बनने पर भी उसकी बेचैनी और
मानसिक क्लेश दूर न हुआ। और फिर आनंद पांडे के पहान धर्म में भी विद्रोही सरदारों
की बात सुनने वाले, सरकार में जमींदारों-सामंतों के खिलाफ
अपनी जमीन पर पुश्तैनी हक का दावा करने वाले और अर्जी देने वाले बीरसा के लिए जगह
नहीं हो सकती थी। आदिवासी धर्म के प्रति हिंदुओं की आक्रामक रणनीति की ओर संकेत
करते हुए महाश्वेता देवी लिखती हैं कि दिकू लोग मुंडाओं के जंगल-जमीन हथियाकर बोंङा-बोंङी
के थान और बलि की जगह आदि सबका चिन्ह मिटाकर सहान देवी-देवताओं का स्थान बनाते
हैं। आदिवासियों के पूजा स्थल, मंदिर आदि छीनकर कब्जा कर लेते
हैं। चुटिया और जगन्नाथपुर के मंदिर मुंडाओं ने बनवाये थे किंतु उन्हें दिकुओं ने
हथिया लिया था और इसीलिए बीरसा अपने उलगुलान की विधिवत शुरूआत इन मंदिरों पर पुन:
मुंडाओं का नियंत्रण स्थापित करके करता है। मुसलिमों के ऊपर हिंदू मंदिरों के
विध्वंस के आरोप लगाने वाले हिंदूवादी लोग भूलकर भी आदिवासियों के अपहृत पूजा स्थलों
की बात नहीं करते। प्राय: देखा जाता है कि हिंदुत्ववादी मानसिकता के अध्येता
आदिवासी देवी-देवताओं के हिंदूकरण की कुचेष्टाएं करते रहते हैं। मुंडाओं के सबसे
बड़े देवता हैं - सिंगबोङा । इसका हिंदी में अनुवाद कर दिया गया है सूर्य देवता
किंतु यह हिंदू देवता तो पुरूष है जबकि आदिवासी मान्यताओं के अनुसार वे न पुरूष
हैं, न ही स्त्री। वंदना टेटे की स्पष्ट मान्यता है कि ''हमारे बोंगा स्त्री भी हो सकते हैं और पुरूष भी। हिंदू या अन्य धर्मों की तरह
आदिवासियों में 'देवी’ और 'देवता’ जैसा कोई लैंगिक विभाजन नहीं हैं।
आदिवासियों को हिंदू धर्म के चार पुरूषार्थों विशेषत: मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं
होता।’’ मुंडा लोगों को भी
जीवन के कर्मजाल से मुक्ति नहीं चाहिए, नहीं चाहिए उन्हें
मोक्ष। उन्हें तो चाहिए बदन पर कपड़ा, हांडी में घाटो और
डिब्बे में नमक। इन्हें अपने प्राकृतिक बोंङाओं-बोंङियों से जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं
की तलाश मात्र रहती हैं।’’ (वंदना टेटे,
आदिवासी साहित्य:परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ 83)
इसप्रकार धर्म को सामने रखकर आदिवासियों को अपने झंडे तले लाने की यह
हिंदुत्वववादी अवधारणा संघ परिवार की दक्षिणपंथी राजनीति को औपनिवेशिक सत्ता का
सच्चा वारिस घोषित करती है। लेकिन संघ परिवार का कुनबा यहीं नहीं रूकता। वह आगे
चलकर गैर हिंदू आदिवासियों विशेषत: ईसाई बन गये आदिवासियों के मुखर विरोध पर उतर
आता है। उनकी अटल मान्यता है कि गैर हिंदू आदिवासी वास्तव में आदिवासी ही नहीं हैं
अत: अनुसूचित जनजाति के तहत उन्हें जो वैधानिक सुविधायें और रिआयतें भारतीय
संविधान प्रदान करता है, वे सब उनसे छीन ली जानी चाहिए। यह
तो इन विधर्मी आदिवासियों को बंगलादेशी घुसपैठियों की तर्ज पर हिंदू आदिवासियों के
हितों में सेंधमारी करने वाला बताना ही हुआ! इसप्रकार संघ परिवार एक ओर जहां ईसाई
आदिवासियों के विरूद्ध सांप्रदायिक राजनीति कर रहा है, वहीं दूसरी ओर आदिवासी जमात में दरारें पैदा करके उन्हें धर्म के नाम पर भिड़ा
रहा है ताकि नवउदारवादी सरकारों के विरूद्ध चल रहा आदिवासी आंदोलन कमजोर किया जा
सके। आदिवासियों को दिये गये संवैधानिक आरक्षण की यह सांप्रदाययिक काट सवर्ण
हिंदुत्व के क्षुद्र स्वार्थों के संरक्षण का माध्यम भी साबित हो रही है।
आदिवासियों के हिंदुत्वकरण के इस यज्ञ में प्रवासी निवासियों की दान-दक्षिणा की
समिधा से प्रज्वलित अग्नि में आदिवासी हितों की आहुती दी जा रही है। आदिवासी
समाजों पर थोपी जाने वाली यह हिंदुत्व की छाप उनके अपने स्वायत्त अस्तित्व के लिए
एक बड़ा संकट बन चुकी है।
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