नायक
गढ़ने वाला एक महानायक: ओमप्रकाश वाल्मीकि
- जयप्रकाश
कर्दम
‘जूठन’
के अलावा उनकी कई कविताएं
और कहानियां भी अत्यंत चर्चित हुईं,
जिनमें ‘पच्चीस
चौका डेढ़ सौ’, ‘सलाम’,
‘बिरम
की बहू’
और कई अन्य कहानियां
विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
उनकी आलोचना पुस्तक ‘दलित साहित्य
का सौंदर्यशास्त्र’ भी काफी
चर्चित रही थी।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जो कुछ भी लिखा वह सब चर्चित हुआ और सम्मान के साथ पढ़ा गया। वह हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण
रचनाकार हैं, जिन्होंने
अपनी रचनाओं, विशेषत: ‘जूठन’
से हिन्दी साहित्य का चाल, चेहरा और
चरित्र बदल दिया।
सच तो यह है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि यदि ‘जूठन’
के अलावा और कुछ भी नहीं लिखते तब भी वह उतने ही महत्वपूर्ण होते तथा हिन्दी
साहित्य में अमर होते।
सुबह
सवेरे ही ओमप्रकाश वाल्मीकि के निर्वाण का दुखद समाचार मिला तो स्तब्ध रह गया। इस समाचार पर
यकीन ही नहीं हुआ,
और यकीन न होने का कारण था। पिछले सप्ताह ही जब वाल्मीकि जी
अस्पताल में भर्ती किए गये थे तो दिल्ली से कैलाशचंद चौहान और हीरालाल राजस्थानी
उनको देखने देहरादून गये थे। उन्होंने आकर बताया था कि अब वह
ठीक हैं।
फेसबुक पर अस्पताल के बिस्तर पर प्रसन्नचित्त चेहरे की तश्वीरें कई मित्रों द्वारा
डाली गयी थीं।
उन तश्वीरों को देखने से भी यही लग रहा था कि वह स्वस्थ हो रहे हैं और उम्मीद की
जा रही थी कि शीघ्र ही वह अस्पताल से घर आ जाएंगे। वह अस्पताल से घर
तो आए,
और शीघ्र ही आए, लेकिन
जिस तरह अपनी श्वांस,
आंख और मुंह बंद करके आए यह अनपेक्षित और अप्रत्याशित था। कोई भी इसको सत्य
मानने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए फेसबुक पर जैसे ही वाल्मीकि
जी के निर्वाण का समाचार आया,
उसके साथ ही इसका खण्डन भी आया। असंग घोष ने सूचित किया कि
उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की पत्नी चंदा से बात की है,
उन्होंने बताया है कि वाल्मीकि जी स्वस्थ हैं और घर पर हैं। उस समय तक कई
मित्र अपनी वॉल पर वाल्मीकि जी के निर्वाण का दुखद सूचना दे चुके थे और कई ऐसा
करने जा रहे थे।
कई लोगों ने फोन और फेसबुक द्वारा मुझसे इस समाचार की पुष्टि चाही। हालांकि इस दौरान
वाल्मीकि जी के स्वास्थ्य की फिक्र करते हुए पिछले काफी दिन से मैंने उन्हें फोन
नहीं किया था कि बोलने से भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कुछ दिन पूर्व
कैलाशचंद चौहान द्वारा भी अपनी फेसबुक वॉल पर ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के सभी मित्रों
एवं शुभ-चिंतकों के लिए इसी आशय की एक अपील डाली गयी थी। सम्भवत: वाल्मीकि
जी, उनकी
पत्नी अथवा परिवार के अन्य सदस्यों के अनुरोध पर ही कैलाशचंद चौहान द्वारा वह अपील
की गयी थी।
किंतु आज इसकी चिंता किए बिना मैंने सीधे ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के मोबाइल पर फोन
किया।
फोन उनकी बेटी ने उठाया।
(वाल्मीकि जी नि:संतान थे। अपने भाई की बेटी को ही वह अपनी
बेटी की तरह मानते थे) ।
मैंने कहा, ‘मैं
दिल्ली से जयप्रकाश कर्दम बोल रहा हूं। वाल्मीकि जी कहां हैं?’
बेटी ने बहुत दबी आवाज में जवाब दिया,
‘यहीं हैं,
घर पर ही।’
मैंने असली प्रश्न किया,
‘वाल्मीकि जी के बारे में सूचना मिल रही है कि
वह----?’
इससे आगे के शब्द मेरी जिव्हा पर ही अटक कर रह गए थे।
जवाब में वाल्मीकि जी की बेटी ने रोते हुए
बताया, ‘जी
हां, यह खबर
सही है।’
इससे आगे और कोई कुछ जानने की आवश्यकता शेष नहीं रह गयी थी। एक ऐसा सच सामने
था जिसको स्वीकार करने को न मन तैयार था और न चेतना। किन्तु स्वीकार
करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था।
2
पिछले कई दसकों से ओमप्रकाश वाल्मीकि को साहित्यिक और सामाजिक आयोजनों में देखता, सुनता, बतियाता और कभी-कभी टकराता आया हूं। दलित साहित्य के सभी प्रमुख आयोजनों में उनको देखने, सुनने और उनसे बात करने की आदत सी बन गई थी। हालांकि कभी-कभी वह बड़ों की तरह बात करते थे और मैं भी उनका उसी तरह सम्मान करता था। वह आयु में मुझसे बारह वर्ष बड़े थे, किंतु उम्र का अंतर कभी हमारे बीच में नहीं आया। जब भी मिले मित्रवत मिले।
ओमप्रकाश वाल्मीकि से प्रथम भेंट कब हुई यह
ठीक से याद नहीं है।
सम्भवत: पहली बार 1987-88 के आसपास दिल्ली में एक साहित्यिक कार्यक्रम में हमारी
पहली मुलाकात हुई थी।
उनके लेखन से परिचय तो काफी पहले से था। कानपुर से आर.कमल द्वारा सम्पादित-प्रकाशित
पत्रिका ‘निर्णायक
भीम’, भारतीय
बौद्ध महासभा,
दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘धम्म
संदेश’,
बामसेफ़ द्वारा प्रकाशित ‘बहुजन
संगठक’
तथा कुछ अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्राय: पढने को मिलती थीं। ‘धम्म-संदेश’
और ‘बहुजन
संगठन’
में मेरी रचनाएं भी प्रकाशित होती थीं। वाल्मीकि जी प्राय: कविताएं लिखते
थे।
उनकी कविताएं छोटी किंतु अत्यंत प्रभावी होती थीं। प्रश्न करती उनकी
कविताएं दिल और दिमाग को
अंदर तक झकझोर देती थीं।
उनकी प्रसिद्ध कविता ‘ठाकुर
का कुंआ’
को उसी दौरान पढा था।
वाल्मीकि जी के साथ देर से मुलाकात होने का प्रमुख कारण यह था कि वह ऑर्डिनेंस
फेक्टरी में नौकरी करते थे तथा लम्बे समय तक चंद्रपुर,
जबलपुर आदि स्थानों पर तैनात रहे थे तथा बहुत देर बाद,
अपनी नौकरी के अंतिम वर्षों में वह देहरादून स्थानांतरित हुए थे। जबकि इस अवधि में,
1984-85 के दौरान लगभग एक-सवा साल की अवधि को
छोड़कर,
मैं गाजियाबाद में रहा था।1988 में दिल्ली में नौकरी लग जाने
के बाद भी 1992 तक मैं गाजियाबाद में अपने गांव इन्दरगढी से ही रोज दिल्ली
आता-जाता था।
बाद में उनसे कहीं न कहीं,
किसी न किसी कार्यक्रम में मुलाकात होती रहती थी। कभी दिल्ली में,
कभी दिल्ली से बाहर।
जब भी मिलते घंटों बात करते थे। क्या लिखा जा रहा है,
क्या लिखा जाना चाहिए आदि विषयों पर ही प्राय: बात होती थी। यदा-कदा पत्राचार
भी होता था।
वह निरंतर इस बात के प्रति चिंतित रहते थे कि दलित साहित्य का आंदोलन कैसे आगे बढ़े। मेरे लिए यह सदैव
सुखद अनुभूति का विषय रहेगा कि सन 2010 में प्रकाशित मेरे खण्ड-काव्य ‘राहुल’
की भूमिका ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लिखी थी।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कविता,
कहानी,
आत्मकथा,
नाटक,
आलोचना आदि विभिन्न विधाओं को अपने सशक्त लेखन से समृद्ध किया है। लेखक के अलावा अनेक
नाटकों का निर्देशन और अभिनय भी उन्होंने किया था। किंतु उनको
ख्याति आत्मकथा ‘जूठन’
से मिली।
यह हिंदी-आत्मकथाओं में सर्वाधिक चर्चित और पढी
जाने वाली आत्मकथा है।
साहित्य में नई जमीन तोड़ने का मुहावरा तो बहुत
सी रचना और रचनाकारों के साथ प्रयोग कर दिया जाता है,
जबकि नई जमीन तोड़ने वाली रचनाओं का मिलना दुर्लभ होता है। नई जमीन तोड़ने का
का एक अर्थ होता है। किंतु
ओमप्रकाश वाल्मीकि के बारे में कहा जा सकता है कि उन्होंने ‘जूठन’
के द्वारा हिंदी साहित्य में नई जमीन तोड़ी थी,
जिसने अभिजात्यता और प्रभुता की जड़ों को खोदा,
शुद्धता और शुचितावादी साहित्यकारों के दिमागों की नशों को हिलाया तथा हिंदी
साहित्य के इतिहास,
भूगोल और समाजशास्त्र को बदल कर रख दिया।
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‘जूठन’ में भंगी समाज की दुर्दशा के चिंत्रण द्वारा उन्होंने समाज का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया कि मनुष्यों के समाज में भंगी किस प्रकार अमानवीय जीवन जीने को विवश हैं। ‘जूठन’ ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा के साथ-साथ एक (उत्पीड़न का) आख्यान,
(पीड़ा
का) महाकाव्य,
(दर्द
का) दस्तावेज और (संघर्ष का) इतिहास भी है। किसी भी दलित के लिए अपनी आत्मकथा लिखना जोखिम भरा काम है क्योंकि द्लित आत्मकथा में शोषक एवं शक्ति सम्पन्न, सवर्ण-सामंतों की आलोचना अनिवार्य है। आत्मकथा सत्य का आइना होती हैं। आत्मकथा लिखना अपने जीवन को फिर से जीना होता है। दलितों का जीवन अभाव, अपमान, घृणा, उपेक्षा, उत्पीड़न और अस्पृश्यता की जिल्लत से भरा है। इस प्रकार के पीड़ादायी जीवन अनुभवों से फिर से गुजरना भोगी गयी पीड़ा से कम पीड़ादायी नहीं होता। इस पीड़ा का जहर पीने के लिए साहस चाहिए। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यह साहस दिखाया, यह निश्चित रूप से गर्व की बात है। हालांकि हिंदी दलित साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि से पूर्व मोहनदास नैमिशराय और कौशल्या बैसंत्री अपनी आत्मकथा लिख चुके थे, किंतु ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’के प्रकाशित होते ही उस पर जो चर्चा ने जो प्रभाव छोड़ा वह अद्भुत था। ‘जूठन’ के कई दलित साहित्यकारों को आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित किया।
‘जूठन’
के अलावा उनकी कई कविताएं
और कहानियां
भी अत्यंत चर्चित हुईं,
जिनमें ‘पच्चीस
चौका डेढ़ सौ’, ‘सलाम’,
‘बिरम की बहू’
और कई अन्य कहानियां
विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनकी आलोचना पुस्तक ‘दलित
साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’
भी काफी चर्चित रही थी।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जो कुछ भी लिखा वह सब चर्चित हुआ और सम्मान के साथ पढ़ा गया। वह हमारे समय के
अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाकार हैं,
जिन्होंने अपनी रचनाओं,
विशेषत: ‘जूठन’
से हिन्दी साहित्य का चाल,
चेहरा और चरित्र बदल दिया। सच तो यह है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि
यदि ‘जूठन’
के अलावा और कुछ भी नहीं लिखते तब भी वह उतने ही महत्वपूर्ण होते तथा हिन्दी
साहित्य में अमर होते।
एक मुकम्मल एवं सशक्त रचनाकार होने के
साथ-साथ वाल्मीकि जी बड़े विमर्शकार भी थे। हिंदी साहित्य में दलित विमर्श को
व्यापकता और ऊंचाई तक ले जाने में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने 1993
में,
डॉ.विमलकीर्ति द्वारा नागपुर में आयोजित प्रथम फुले-अम्बेडकरवादी साहित्य सम्मेलन
में, उस समय
प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’
पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए उसे दलित विरोधी कहानी बताया था,
जब प्रेमचंद पर इस प्रकार की टिप्पणी करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। परम्परावादी
साहित्यकारों द्वारा उनकी इस टिप्पणी की बहुत आलोचना हुई। इससे हिंदी
साहित्य जगत में भूचाल सा आ गया था। विवाद यहां तक पहुंचा कि प्रेमचंद
की आलोचना से बिफरे प्रेमचंदवादियों ने दलित साहित्य का तीव्र विरोध करते हुए उस
पर हमला बोला तो भावुकतावादी दलितों द्वारा प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ को आग में जलाया गया। इस विवाद और बहस का सुखद परिणाम यह निकला कि आज प्रेमचंद को खुले ढंग से पढा और समझा जा रहा है। यही साहित्य का लोकतांत्रीकरण है, जिसकी स्थापना के लिए दलित साहित्य और उसके पुरोधा ओमप्रकाश वाल्मीकि वर्षों से निरंतर जूझ रहे थे। साहित्य को मिली इस लोकतांत्रिक दृष्टि के लिए हिंदी साहित्य जगत को ओमप्रकाश वाल्मीकि का ऋणी होना चाहिए।
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अपनी बात पर वह सदैव अडिग रहते थे और जो बात उनको नहीं जंचती थी उसके लिए किसी से भी टकरा जाते थे। कई बार वह उत्तेजित और आक्रामक हो जाते थे। कुछ वर्ष पूर्व इण्डियन सोसियल इंस्टीट्यूट में एक गोष्ठी के दौरान अम्बेडकरवाद को लेकर उनकी डॉ. धर्मवीर के साथ बहुत तीखी बहस हुई थी। दो वर्ष पूर्व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सूरज बड़त्या की आलोचना पुस्तक ‘सत्ता, संस्कृति और दलित सौन्दयशास्त्र’ के लोकार्पण एवं विचार गोष्ठी के अवसर पर डॉ. नित्यानंद तिवारी द्वारा भाव और अभाव के साथ विभाव की चर्चा किए जाने पर वाल्मीकि इतने उखड़ गए थे कि उन्होंने तिवारी जी पर आक्रमण सा कर दिया था। साहित्य सेमिनारों/संगोष्ठियों में वह प्राय: अपनी बात इतनी दृढ़ता और बेबाकी से रखते थे कि बहुत से लोग बौखला जाया करते थे। किंतु वाल्मीकि जी किसी की बौखलाहट की कभी परवाह नहीं की। वह निरंतर अपनी राह चलते रहे। इसे मैं उनकी बहुत बड़ी ताकत मानता हूं। दृढता और प्रतिबद्धता ही उनकी पहचान थी।
कवि,
कथाकार,
आलोचक,
नाटककार,
निर्देशक,
अभिनेता,
एक्टिविस्ट,
क्या नहीं थे ओमप्रकाश वाल्मीकि। बहुमुखी प्रतिभा के धनी ओमप्रकाश
वाल्मीकि अपने आप में बहुत कुछ थे। वह ओजस्वी वक्ता,
प्रखर चिंतक और श्रेष्ठ लेखक थे। हिंदी दलित साहित्य के वह आधार
स्तम्भ थे।
उनके लेखन से हिंदी दलित साहित्य को एक आधार और सशक्त पहचान मिली। दलित साहित्य वह
खिड़की है,
जहां से भारतीय जीवन की कुरूपता और वीभत्सता स्पष्ट दिखायी देती है। यह सामाजिक
परिवर्तन का एक आंदोलन है और ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य इस आंदोलन का नेतृत्व
करता है।
अपने सशक्त लेखन से वह दलित साहित्य का ‘आइकॉन’
या पर्याय बन गए थे।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन की विशेषता यह थी कि वह दलित और गैर-दलित सभी वर्गों द्वारा पढ़े जाते थे। किंतु दोनों वर्गों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण और समादृत भी थे, यह नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा होता तो इतना महत्वपूर्ण लेखन करने के लिए उनको कोई न कोई बड़ा पुरस्कार अवश्य मिलता। कुछ छोटे-मोटे पुरस्कार ही वाल्मीकि जी को मिले हैं। उनको बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ही दिया गया है, केंद्रीय अथवा राज्यों की साहित्य अकादमियों अथवा अन्य साहित्यिक संस्थाओं द्वारा नहीं। जबकि इस दौरान अनेक ऐसे लेखकों को बड़े-बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया है जिनका लेखन ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन के समक्ष कहीं भी नहीं ठहराता। यह इस बात का सूचक भी है कि पुरस्कार साहित्यकार का काम देखकर नहीं जाति देखकर दिए जाते हैं। जाति के मामले में
ओमप्रकाश वाल्मीकि सहित दलितों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। सवर्ण-ब्राह्मणों
के समक्ष वे कहीं नहीं ठहरते।
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ओमप्रकाश वाल्मीकि बहुत अच्छे मेहमान नवाज थे। घर आए मेहमानों का वह खुले दिल से स्वागत करते थे तथा स्वादिष्ट व्यंजन बनवाकर खिलाते थे। सन 2000 के आसपास रूपनारायण सोनकर द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए देहरादून गया तो कई अन्य साहित्यकार मित्रों के साथ वाल्मीकि जी के घर भी जाना हुआ। उन्होंने सबकी तबीयत से खातिरदारी की थी। उनके घर में कोई बच्चा नहीं था, किंतु घर में बच्चों के बैठने वाली प्लास्टिक की एक छोटी चेयर थी। सब के बैठने के लिए कुर्सियों की कमी थी। मैं बच्चों वाली कुर्सी पर बैठ गया और कुछ देर मेरा भार सम्भालने के बाद वह एक टांग से बैठ गयी थी। उनके घर से लौटते समय वाल्मीकि जी ने विनोदपूर्ण शब्दों में कहा था’ ‘आज का दिन याद रहेगा। और कुछ याद रहे ना रहे, कर्दम जी ने हमारी कुर्सी तोड़ दी, यह जरूर याद रहेगा। ’कार्यक्रम दलित साहित्य पर था और वाल्मीकि जी उन दिनों देहरादून में ही थे, किंतु उनको कार्यक्रम में नहीं बुलाया गया था। राजेंद्र यादव और प्रेमकुमार मणि भी कार्यक्रम में आमंत्रित थे। राजेंद्र यादव को सम्मानित किया गया था। ओमप्रकाश वाल्मीकि को कार्यक्रम में नहीं बुलाया जाना मुझे बहुत अटपटा लगा था। रूपनारायण सोनकर का ओमप्रकाश वाल्मीकि से विवाद था, अपने कई लेखों में उन्होंने वाल्मीकि जी की आलोचना की थी, यह हम सब जानते थे, इसके बावजूद मैंने सोनकर जी से कहा था कि कुछ भी हो, आपके वाल्मीकि जी के साथ कितने भी मतभेद हों, किंतु वाल्मीकि जी दलित साहित्य के वरिष्ठ लेखक हैं। सोनकर जी ने भी मेरे विचार से सहमति तो जतायी थी, किंतु कार्यक्रम में उनको बुलाने से कन्नी सी काट गये थे। इसके लिए सोनकर जी के पास भी अपने तर्क थे।
विवाद और शिकायतें तो ओमप्रकाश वाल्मीकि से और भी कई लेखकों का रही हैं। मेरी जानकारी में दलित लेखकों में ओमप्रकाश वाल्मीकि से सबसे पहली शिकायत या विवाद एन.आर.सागर का है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के कविता संग्रह ‘सदियों का संताप’ में संकलित कविता ‘तब तुम क्या करोगे?’ के बारे में एन.आर.सागर का दावा था कि यह मूल रूप से उनकी कविता है। सागर जी के अनुसार ‘तब तुम्हें कैसा लगेगा?’ शीर्षक की उनकी यह कविता सन 1964 में ‘सैनिक संदेश’ में प्रकाशित हुई थी, ओमप्रकाश वाल्मीकि ने उसकी चोरी की है। एन.आर.सागर की यह कविता उनके 1996
में प्रकाशित कविता संग्रह ‘आजाद हैं हम’ में संकलित है। जो शब्द एन.आर.सागर और ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता के हैं, लगभग वही शब्द कंवल भारती की 1992 में नवभारत टाइम्स में प्रकाशित ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ कविता के हैं। उक्त तीनों कविताओं में केवल शब्दों का हेर-फेर है, अन्यथा भाव एक ही है। इन कविताओं को एक साथ पढने पर ये तीनों एक ही कवि की रचना प्रतीत होती हैं। इससे यही प्रतीत होता है कि सभी दलितों के जीवन-अनुभव और संवेदनाएँ एक जैसी हैं, उनके अंदर एक ही प्रकार के विचार और भाव उमड़ते-घुमड़ते हैं तथा
उनकी
अभिव्यक्ति का स्वर भी लगभग एक जैसा होता है। वाल्मीकि जी पर
साहित्यिक चोरी का आरोप मुकेश मानस और संजीव कुशवाह द्वारा भी लगाया
गया था।
ये सभी मामले अब दब चुके हैं। कई अन्य कारणों से भी वह विवाद में
रहे।
उनकी कहानी ‘शवयात्रा’
को लेकर उन पर जाटव विरोधी होने का आरोप भी लगा था और इसके लिए उनकी काफी आलोचना
हुई थी।
6
यूं ओमप्रकाश वाल्मीकि अत्यंत सहज और सरल व्यक्ति थे, किंतु थोड़े-बहुत दम्भ के शिकार भी थे। मोहनदास नैमिशराय ने बताया है कि एक बार हिंदी दलित साहित्य की स्थिति पर चर्चा करते हुए वाल्मीकि जी ने उनसे कहा था-‘हिंदी दलित साहित्य में ढाई लेखक हैं, जो अच्छा काम कर रहे हैं। एक मैं, दूसरे तुम और आधा सूरजपाल चौहान।’ इसी तरह गत वर्ष बी.बी.सी. द्वारा हिंदी दलित साहित्य की दस सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के नाम पूछे जाने पर वाल्मीकि जी द्वारा दी गयी सूची में तीन रचनाएं उनकी अपनी थीं और सात रचनाएं अन्य रचनाकारों की थीं। प्राय: साहित्यिक कार्यक्रमों में वह अध्यक्ष या मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किए जाने पर ही जाना पसंद करते थे, इससे अन्यथा स्थिति में वह स्वीकृति देकर भी कार्यक्रम में जाना ताल देते थे। वस्तुत: वह दलित साहित्यकारों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और विशिष्ट मानते थे और तदनुरूप ही विशिष्ट व्यवहार की अपेक्षा रखते थे। सन 1997-98 के आसपास बदायूं, उत्तर-प्रदेश में डॉ. आंबेडकर जयंती के अवसर पर आयोजित एक कवि सम्मेलन में कुछ दलित कवियों को आमंत्रित किया गया था। दिल्ली से जयप्रकाश कर्दम, श्यौराजसिंह ‘बेचैन’, सूरजपाल चौहान, राजपाल सिंह ‘राज’ और कर्मशील भारतीय वहां गये थे। सहारनपुर से डॉ. एन.सिंह और देहरादून से ओमप्रकाश वाल्मीकि भी आए थे। आयोजकों द्वारा सभी कवियों के ठहरने और खान-पान की व्यवस्था एक होटल में की गई थी। कवि सम्मेलन के पश्चात आयोजकों द्वारा सभी कवियों को समान रूप से एक निश्चित धनराशि (रू 2100/-) भी भेंटस्वरूप दी गई थी, जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार किया था। किन्तु ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यह कहते हुए उक्त राशि को लेने से इंकार कर दिया था कि वह अन्य कवियों से विशिष्ट हैं और उनकी हैसियत के अनुरूप ही उनको भुगतान किया जाए। आयोजकों के समस्त आग्रहों और आर्थिक समस्याओं को ठुकराते हुए वाल्मीकि इस बात पर अड़ गए थे कि उनको सबके समान नहीं सबसे अधिक राशि चाहिए। उनकी मांग पाँच हजार रूपए की थी। हममें से भी कई लोगों ने वाल्मीकि जी को समझाने की कोशिश की थी किन्तु वह नहीं माने थे। यह घटनाक्रम बहुत अजीब लगा था। आयोजक यदि आर्थिक रूप से इस स्थिति में हैं और ओमप्रकाश वाल्मीकि को उनकी मुंह मांगी राशि दे दें इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं थी, किन्तु आयोजक बार-बार यह विनती रहे थे कि उन्होंने आपस में चन्दा करके बहुत मुश्किल से यह व्यवस्था की है, उनके पास और पैसे नहीं हैं। अंत मे इस समस्या से निपटने के लिए मैंने आयोजकों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि वे हमारे पैसों में से कम करके ओमप्रकाश वाल्मीकि को उनकी मुंह मांगी राशि दे दें। अन्य साथियों ने भी इस पर अपनी सहमति दे
दी थी किन्तु आयोजकों ने हमारे पैसों में से कोई कटौती नहीं करके वाल्मीकि जी को
पाँच हजार रूपए का भुगतान किया था।
7
किसी भी व्यक्ति के साथ इस प्रकार की बातें हो सकती हैं। कोई भी व्यक्ति अपने आप में मुकम्मल नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई मानवीय कमजोरी होती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि भी इसका अपवाद नहीं हैं। वह भी एक मनुष्य थे और उनमें भी मानवीय कमजोरियों का होना अस्वाभाविक नहीं था। किन्तु उल्लेखनीय है उनका सामाजिक अवदान, समाज के मानस में उनके द्वारा बोये गए समता और स्वातंत्र्य चेतना के बीज।
ओमप्रकाश वाल्मीकि एक जीवंत व्यक्ति थे। उनमें जीवटता गजब
की थी।
कुछ महीने पहले ही जब उनको दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया था,
तब यह पता चला था कि उनको केंसर था और वह भी एडवांस्ड स्टेज पर। जैसे ही वाल्मीकि
जी को सर गंगाराम अस्पताल में लाए जाने की खबर मिली थी मैं ऑफिस से सीधा गंगाराम
अस्पताल उनसे मिलने पहुंचा था। डॉ. रामचंद्र,
डॉ. राजकुमार तथा जे.एन.यू. और दिल्ली विश्वविद्यालय के कई छात्र भी वहां पर पर थे। काफी देर तक
वाल्मीकि जी के साथ बातचीत हुई। वह अपनी बीमारी को जानते थे और
उसकी गम्भीरता से भी भलि-भांति अवगत थे,
किंतु सदैव हंसते-मुस्कुराते रहने वाले उनके चेहरे पर उस समय भी मुस्कुराहट थी। अपनी बीमारी से
बेपरवाह से वह सब मिलने वालों से हंसकर बात कर रहे थे। उनके चेहरे पर
अंश मात्र भी दुख या चिंता का कोई भाव नहीं था।
अपने साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कई
पात्र सृजित किए,
कई नायक गढ़े,
जो दलित समाज की आशा,
विश्वास और संघर्ष के प्रतीक हैं। उनकी रचनाओं के ये नायक जितना उनके
आसपास थे उससे अधिक उनके स्वयं के अंदर मौजूद थे। दलित अस्मिता को
पहचान दिलाते इन नायकों को गढ़ने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि वास्तव में हिन्दी दलित
साहित्य के महानायक हैं।
नायक कभी नहीं मरते।
ओमप्रकाश वाल्मीकि भी अपनी रचनाओं के माध्यम से सदैव हमारे बीच,
हमारी स्मृतियों में रहेंगे।
संपर्क:
बी-634, डी.डी.ए.
फ्लेट्स,
ईस्ट आफ लोनी रोड़, दिल्ली-110093, दूरभाष - 09871216298
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