जातीयता का
सबसे बड़ा चिन्ह भाषा है। जाति के निर्माण में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
भाषा समाज का प्रमुख अंग है। जो भी ज्ञान-विज्ञान,
सुख-साधन, वाणिज्य-व्यापार
आदि हमारे समाज में प्रचलित है, वह सब भाषा का ही खेल है। अगर भाषा न हो तो हम
पशु-पक्षियों के समान हैं। भूमि पर जन्म लेनेवाले मनुष्य 'मानव जाति’ के रूप में सामने आते हैं।
प्रत्येक की भाषा अलग-अलग है - कोई छोटी तो कोई बड़ी, कोई पुरानी तो कोई नई भाषा।
व्यापार-वाणिज्य के बदलाव और परिवर्तन के फलस्वरूप विभिन्न जातियां एक-दूसरे से
घुल-मिल गयीं। इसके परिणामस्वरूप भाषाओं का एक-दूसरे को प्रभावित करना स्वाभाविक
था। जब कोई भाषा किसी दूसरी भाषा से प्रभावित होती है तो उस समय वह अपना स्वरूप
नष्ट नहीं कर लेती और न अपने मूल तत्त्वों को बदलती है। एक जाति की भाषा एक ही होती
है। यदि एक जाति में अनेक भाषाएं हों तो यह जरूरी नहीं कि वे एक जाति की हों
क्योंकि जाति प्रत्येक भाषा के गुण को अपने अन्दर संजोये रखती है। भारत में अनेक
भाषाएं बोली जाती हैं। इसके बावजूद भाषा के रूप में हिदीं भारत को एकता और अखंडता
के सूत्र में बाँधे हुए है।
डॉ. रामविलास
शर्मा मूलतः आलोचक हैं। वे अपनी आलोचनात्मक दृष्टि के माध्यम से साहित्य,
दर्शन, भाषा,
इतिहास आदि विस्तृत क्षेत्रों को देखना चाहते हैं। उनकी
आलोचना और चिंतन का मूल कारण भारतीय जनजीवन में एक नई सामाजिक चेतना का प्रसार
करना है। वे पहले आलोचक हैं जिन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से भाषा पर चिंतन
किया है। भाषा का निर्वैयक्तिक अध्ययन के बजाय उन्होंने समाज के साथ उसका संबंध जोड़कर उसकी जांच पड़ताल की है। ‘जाति’ शब्द का मूल शाब्दिक अर्थ ‘राष्ट्र’
एवं ‘समुदाय’
है। अतः जातीय चेतना का मूल तत्त्व भाषा के भीतर से प्रकट
होना स्वाभाविक है।
आधुनिक भाषाविज्ञान
में ‘समाजभाषाविज्ञान’ के आगमन से पूर्व यूरोप में ‘तुलनात्मक’
और ‘ऐतिहासिक’
भाषाविज्ञान का प्रचलन था। उस समय भाषा के अध्ययन का मुख्य
उद्देश्य भाषा की आंतरिक व्यवस्था की खोज करना था। इसी परम्परा को ब्लूमपफील्ड ने
वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के माध्यम से आगे बढ़ाया। उन्होंने भाषा के ‘रूप’ और ‘संरचना’ पर बल दिया और अर्थ की अपेक्षा की। बाद में ‘चॉम्स्की’ ने रूपांतरणपरक प्रजनक व्याकरण में अर्थ को शामिल तो कर लिया लेकिन बल केवल
मनोगत पक्ष पर था, सामाजिक पक्ष पर नहीं। ऐसे समय में मार्क्सवादी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘भाषा और समाज’, ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिदीं भाग-1, 2, 3’,
‘राष्ट्रभाषा की समस्या’, ‘मानव-सभ्यता का विकास’, ‘भारत की भाषा-समस्या’ ‘हिदीं जाति का साहित्य’ आदि पुस्तकें लिखकर ‘समाजभाषाविज्ञान’ के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया है।
भाषा विचाराभिव्यक्ति का सबसे महत्वपूर्ण साधन है, जिसके सहारे मनुष्य समाज से संबंध कायम करता है। मनुष्य एक
सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के नाते जीवन-यापन की आवश्यकताओं और
शारीरिक विशेषताओं के कारण ध्वनि-संकेतों को रचने और व्यवहार करने लगा तभी भाषा की
उत्पत्ति हुई। यह प्रक्रिया मूलतः सामाजिक विकास के संदर्भ में ही संभव है।
प्रत्येक भाषा में कई बोलियाँ होती हैं, जैसे-जैसे समाज विकसित होता है वैसे-वैसे एक बोली कई
मंजिलों को पार करते हुए एक परिनिष्ठित भाषा का रूप धारण करने लगती है। कभी-कभी
भिन्न भाषा-परिवारों की बोलियों को पड़ोसी भाषा के रूप को स्वीकार करना पड़ता है।
बोलियों में भेद मूलतः शब्द-भण्डार के कारण होता है। हिदीं की बोलियों में काफी समानताएँ हैं, ये समानताएँ न केवल हिदीं बल्कि भारत की अन्य भाषाओं से भी
हैं। अतः यहां के लोग हिदीं को आसानी से समझ लेते हैं, जिसके परिणामस्वरूप ‘जातीय भाषा’ के रूप में हिदीं सामने आई।
भारत जैसे बहुजातीय देश की केन्द्रीय भाषा हिदीं है, जो विभिन्न प्रदेशों के
बीच कई शताब्दियों से संपर्क भाषा का माध्यम बनी हुई हैं इसका उत्थान अंग्रेजी की प्रेरणा से नहीं हुआ है। इसके रचनात्मक
तत्त्व हमारे जीवन से उत्पन्न हुए हैं, जो भारतीय हैं। कोई भी भाषा सीखना बुरी बात नहीं है। लेकिन
उस भाषा को सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों का माध्यम बनाना बुरी बात है। समाज की
प्रगति विदेशी भाषा के ज्ञान-विज्ञान पर निर्भर नहीं करती, उसका आधार जनता की राजनीतिक चेतना, उसका संगठन और नेतृत्व पर निर्भर करता है। प्रत्येक भाषा की
अपनी एक विशेषता होती है, उन्हीं विशेषताओं के कारण संपर्क भाषा बनती है। हिदीं ऐसी
ही एक संपर्क भाषा है जो विश्व की तीन भाषाओं में से एक है। इतने विस्तार में बोली
जानेवाली जातीय भाषा हिदीं को आज भी कई भाषागत समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
कहीं पूँजीपति वर्ग है तो कहीं
राजनीतिक नेता जो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए भाषाई समस्या का उपयोग कर देश की
जनता को भटकाने की कोशिश करते हैं।
भाषा मानव-जीवन का मेरूदंड है। इसके अभाव में मानव न तो
कुटुम्बियों से पारस्परिक व्यवहार कर पाता है और न ही सामाजिक जीवन में सफल हो
पाता है। सामाजिक विकास के साथ-साथ भाषाई विकास भी सभंव हो पाता है। यह विकास समाज
के अन्तर में निहित है। इसके पीछे समाज की बाह्य और आन्तरिक शक्तियां मुख्य रूप से
कार्य करती हैं। चूंकि भाषा का प्रयोग समाज में संगठित रूप से किया जाता है अत: इसके
विकास में समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इन सभी पक्षों को ध्यान में रखकर
डॉ. रामविलास शर्मा ने भाषा को समाज के साथ जोड़कर देखा और उस पर विचार किया। भाषा
के माध्यम से समाज, संस्कृति और
राष्ट्र की अवधरणा को उभारकर उन्होंने जातीय चेतना का प्रसार किया क्योंकि जातीय
चेतना का मूल तत्व भाषा में निहित है। आधुनिक भाषाविज्ञान के विभिन्न पड़ावों में ‘समाजभाषाविज्ञान’ का गठन कर डॉ. रामविलास शर्मा ने सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया है।
भाषा की सबसे महत्वपूर्ण इकाई ध्वनि है। प्रत्येक ध्वनि का
महत्व भाषा में एक-सा नहीं होता। इसके प्रयोग की विधियां अलग-अलग होती हैं। जब कोई
अहिदीं भाषा-भाषी हिदीं भाषा को सीखता है तो उसके उच्चारण में मातृभाषा का प्रभाव
झलकता है। अतः भाषा का अध्ययन करते समय स्वरों और व्यंजनों को ध्यान में रखना ही काफी
नहीं होता बल्कि उसकी ध्वनियों को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है। प्रत्येक
भाषा की ध्वनियां एक-सी नहीं होतीं। संस्कृत, ग्रीक, लैटिन,
जर्मन, हिदीं,
आदि भाषाओं की अपनी-अपनी ध्वनि-प्रकृति है। मनुष्य इन्हीं
ध्वनि-संकेतों को एक अनुशासन-व्यवस्था में संचालित करता है। अंग्रेजी शब्दों का
प्रयोग हिदीं भाषी हिदीं वाक्य रचना के अंतर्गत ही करता है। उदाहरण हेतु हिंदी में
संबंधवाचक शब्द प्रकृति के बाद आता है जबकि अंग्रेजी में पहले। यह मुख्य रूप से समाज की चिंतन-प्रक्रिया
पर निर्भर करता है जिसे हम भाषा की भाव-प्रकृति कहते हैं। भाषाओं के पारस्परिक
संबंधें की जानकारी में भाषा की भाव-प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान है। इसके माध्यम
से ग्रीक,
लैटिन, संस्कृत जैसी भाषाओं की भिन्नता और निकटता को पहचाना जा सकता है।
भाषा की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसका शब्द-भण्डार है जिसका
प्रयोग मानव समुदाय सामाजिक, सांस्कृतिक,
आर्थिक और राजनीतिक कार्यों के लिए करता है। प्रत्येक भाषा का अपना मूल शब्द-भण्डार होता
है जिनमें कुछ समान शब्द होते हैं और कुछ असमान। समान शब्दों के आधार पर भाषाओं को किसी एक परिवार के अंतर्गत नहीं
रखा जा सकता। समान शब्दों के पीछे कई सामाजिक कारण होते हैं किंतु साथ ही इनमें
असमानताएँ भी होती हैं। ग्रीक भाषा में ‘तोकेउस’
शब्द ‘पिता’
के लिए प्रयोग किया जाता है जिसका संबंध ‘जन’ से है। ‘जन’ शब्द भारतीय भाषाओं में पाया जाता है लेकिन ‘तोकेउस’ न भारतीय भाषाओं में है न लैटिन भाषा में है। अतः यह ग्रीक भाषा की अपनी संपत्ति
है। शब्द सर्वथा स्थिर नहीं होता बल्कि आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक कारणों से परिवर्तित होते रहते हैं। भाषा अपने मूल शब्दों
को छोड़कर दूसरी भाषाओं से उन्हीं के पर्यायवाची शब्दों को ग्रहण कर लेती है।
भाषा-परिवार का निर्माण किसी आदि भाषा से नहीं होता है।
आदिम समाज-व्यवस्था पहले रक्त-संबंध पर आधारित थी। उस समय जन या कबीले अनेकों
टुकड़ों में बंटे हुए थे जो घुमंतू जीवन बिताते थे। घुमंतू जीवन बिताने के कारण वे
एक देश से दूसरे देश में पहुंच जाते थे जिसके परिणामस्वरूप जनों के परस्पर संबंध
बदलते रहते थे। जो भारतीय सीमान्त जन यूरोप गये थे वे किसी एक प्रदेश के रहनेवाले
या एक ही परिनिष्ठित भाषा का प्रयोग करनेवाले न थे किंतु परस्पर संपर्क से इनमें
अनेकों समानतायें विकसित हो गयी थीं। यहां ध्यातव्य है कि समानता के आधार पर कुछ भाषाओं
का जन्म किसी एक आदि भाषा से माना जाना जरूरी नहीं। अतः हिदीं और अन्य भारतीय भाषाएं
संस्कृत की पुत्रियां नहीं हैं। प्रत्येक बोली एक-दूसरे को प्रभावित करती रही है।
इनमें बहुत से रूप एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं। परंतु कुछ तत्त्व ऐसे भी हैं जो
संस्कृत में उपलब्ध नहीं है किन्तु हिदीं के प्राचीनतम रूपों में सुरक्षित हैं।
संस्कृत और आधुनिक भाषाओं में मुख्य भेद
ध्वनि-रूप और मूलशब्द-भण्डार संबंधी हैं। जहां तक अपभ्रंश का सवाल है अपभ्रंश को संस्कृत
का विकृत रूप माना गया है जबकि अपभ्रंश में संस्कृत का भ्रष्ट रूप होने के साथ-साथ
हिदीं के रूप जहां-तहां मिल जाते हैं। अतः संस्कृत से भारतीय भाषाओं के विकास को आधुनिक
भारतीय भाषाओं पर लागू नहीं किया जा सकता।
‘जाति’ शब्द की उत्पत्ति ‘जन्’
धतु में ‘कितन्’
प्रत्यय के योग से हुई है, जिसका अर्थ ‘जन्म लेना’,
गोत्र, परिवार,
कुल, वंश,
समुदाय, कबीला आदि है। अनेक विद्वानों ने ‘जाति’
शब्द को भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। डॉ.
रामविलास शर्मा ने ‘जाति’
का संबंध वर्ण-व्यवस्था से न मानकर सम्पूर्ण जन-समुदाय से
माना है। अंग्रेजी में ‘जाति’ के लिए चार शब्दों का प्रयोग किया गया है - ‘क्लास’,
रेस’, ‘कास्ट’,
‘नेसनेलिटी’। ‘जाति’ का मूल शाब्दिक अर्थ मूलतः ‘नेसनेलिटी’
है। जाति एक प्रकार का समूह है। इसका बोध मनुष्य को
कर्त्तव्य और अधिकारों के प्रति सचेत करता है। राष्ट्र के उत्थान के लिए अनुशासनबद्ध
होकर व्यवस्थित रूप से कार्यशील होने की प्रेरणा प्रदान करता है। वर्ण वह सामाजिक
समूह है जिसमें जन्म के आधार पर समाज द्वारा व्यक्ति का व्यवसाय निर्धारित किया
जाता है। इसमें व्यक्ति को व्यवसाय चुनने के लिए स्वतंत्रता नहीं होती है। सही
अर्थ में वर्ण-व्यवस्था अपने आप में समाज में वैमनस्य स्थापित करती है जबकि ‘जाति’ एकता की भावना को स्थापित करती है। औद्योगीकरण और नगरीकरण के परिणामस्वरूप
मानव समाज व्यवसाय, सम्पत्ति,
लिंग आदि के आधार पर अनेक वर्गों में विभाजित हो जाता है।
किंतु ‘जाति’ का मूल शाब्दिक अर्थ ‘राष्ट्र’
है। यह शब्द आरम्भ से ही पूरे राष्ट्र और देश के लिए प्रयोग
होता रहा है। वेद में इस बात का प्रमाण है। सामान्य भाषा, सामान्य प्रदेश, आर्थिक जीवन के साथ सामान्य
सांस्कृतिक जीवन हमें राष्ट्र की ओर संकेत करता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है सामाजिक होने के नाते
आत्मरक्षा के लिए घुल-मिलकर समूह में रहना पसंद करता है। यहीं से व्यक्ति और समाज
का संबंध प्रारम्भ होता है। समाज का जो
रूप आज से पचास हजार साल पहले था वह आज नहीं है। आदिकाल में मनुष्य कबीले के रूप में
रहा करता था। उस समय संसाधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होता था। सामूहिक श्रम
द्वारा उत्पादन किया जाता था। वितरण की प्रक्रिया में भी समानता का रूप था। कबीलाई
व्यवस्था के एकीकरण और विघटन के फलस्वरूप सामन्तीय व्यवस्था का निर्माण हुआ जिसमें
जनव्यवस्था और गणव्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उस समय धातुओं का बड़े पैमाने
में उपयोग होता था। नगर निर्माण और व्यापार का प्रारंभ हो गया था। अनाज का उत्पादन अधिक किया जाने लगा। उत्पादन
का बड़ा हिस्सा शहरों में भेजा जाने लगा। चूंकि नगरों में उत्पादन नहीं किया जाता
था इसलिए धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार के व्यवसायों को लोग अपनाने लगे। औजारों का
निर्माण होने लगा। शिल्पकर्मों में दक्षता प्राप्त की जाने लगी। अतः श्रम का
विभाजन होने लगा। सभी नगर भौगोलिक दृष्टि से अलग-अलग होने के बावजूद सांस्कृतिक
दृष्टि से मूलतः एक-से थे।
समाज-व्यवस्था गोत्रों और रक्तसंबंधें में बंटी थी किंतु
संपत्ति के उपार्जन और परिवारों में केन्द्रीकरण के फलस्वरूप पुराने बंधन टूटने
लगे जो हमें सुमेर, क्रीट,
सिंधुघाटी, मैक्सिको आदि में देखने को मिलता है। पत्थर के बदले तांबा और धातुओं का प्रयोग
होने लगा। भूमि का अधिकांश भाग व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में केन्द्रित होने लगा।
इस समय समाज में दो वर्ग थे, दास और स्वामी। स्वामी कबीलों की भूमि को शक्ति से अधिकार में
ले लेते थे जिसके परिणामस्वरूप राज्यसत्ता का जन्म शुरू हुआ। आर्यों का आगमन शुरू
हुआ। वे काबुल से लेकर गंगा की घाटी तक फैल गए। छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। साधारण
व्यक्तियों को उस समय ‘कर’
देना पड़ता था। समाज की उत्तरोत्तर आवश्यकताओं एवं व्यापार-व्यवसाय
की प्रगति के फलस्वरूप शिल्पियों तथा व्यापारियों के एक विशाल समूह का निर्माण
होने लगा। समाज पांच रूपों में विभक्त होने लगा - राजा, ड्यूक, बैरन,
नाइटल, कृषक। किसानों का स्थान सबसे नीचा था परंतु संख्या अध्कि थी।
व्यापार-वाणिज्य के विकास के साथ ही सामंतवाद का पतन होने
लगा। इसका मूल आधार आर्थिक था। मुद्रा का प्रचलन होने के कारण अर्थ
व्यवस्था में काफी परिवर्तन हुआ। उत्पादन में वृद्धि के कारण बाजार की खोज शुरू
हुई। धीरे-धीरे सामंती व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था में परिवर्तित होने लगी। रुपया-पैसा
मनुष्य को मापने का मानदंड बन गया। पूंजीवादी व्यवस्था में जातीयता का रूप सामने
आने लगा। तुर्कों के आक्रमण के समय उत्तर-भारत में अनेक मण्डियां कायम हो चुकी थीं।
आक्रमणकारियों ने थानेसर, कन्नौज,
अशमेर, मेरठ,
दिल्ली जैसी जगहों को लूटा जिसके फलस्वरूप व्यापार को काफी धक्का लगा। तत्कालीन सामन्त न तो विदेशियों से
अपनी रक्षा कर पाया और न ही जनता की। मुगलों के समय भारत के अधिकतर भाग एक राज्य
या एक सत्ता के अन्तर्गत आने लगे। इसमें इलाहाबाद, बिहार, अवध,
आगरा, दिल्ली जैसे अनेक राज्य केन्द्रबद्ध होने लगे।
पन्द्रहवीं शताब्दी तक पूरे यूरोप में पूंजीवाद का उदय होने
लगा। उत्पादन केवल मुनाफ़ा कमाने के लिए किया जाने लगा,वस्तुओं को बेचने के लिए
बड़े-बड़े बाजारों का गठन हो गया। यह न केवल भारत बल्कि पूरे यूरोप में आरंभ हुआ।
उत्पादन और व्यापार में धीरे-धीरे वृद्धि होने के कारण उपनिवेशीकरण शुरू हो गया।
अतः उत्पादन एवं वितरण में बदलाव के कारण ‘जाति’ का रूप सामने आने लगा। इस समय आदान-प्रदान के लिए राष्ट्रीय भाषाओं का उदय
होना स्वाभाविक था। भाषाओं के उदय ने राष्ट्रीय चेतना का विकास कर मजबूत राष्ट्रीय
राज्य के उदय में मदद की। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते मशीनों का
चलन प्रारंभ हो गया। उत्पादन की इस होड़ ने नए नगरों का निर्माण किया। कारीगर और
बेदखल किसान काम के लिए नए नगरों की तरफ स्थानांतरित होने लगे। वे कारखानों में
काम करने लगे।
जातीयता का सबसे बड़ा चिन्ह भाषा है। जाति के निर्माण में
भाषा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भाषा समाज का प्रमुख अंग है। जो भी ज्ञान-विज्ञान,
सुख-साधन, वाणिज्य-व्यापार आदि हमारे समाज में प्रचलित है, वह सब भाषा
का ही खेल है। अगर भाषा न हो तो हम पशु-पक्षियों के समान हैं। भूमि पर जन्म
लेनेवाले मनुष्य 'मानव जाति’ के रूप में सामने आते हैं।
प्रत्येक की भाषा अलग-अलग है - कोई छोटी तो कोई बड़ी, कोई पुरानी तो कोई नई भाषा।
व्यापार-वाणिज्य के बदलाव और परिवर्तन के फलस्वरूप विभिन्न जातियां एक-दूसरे से
घुल-मिल गयीं। इसके परिणामस्वरूप भाषाओं का एक-दूसरे को प्रभावित करना स्वाभाविक
था। जब कोई भाषा किसी दूसरी भाषा से प्रभावित होती है तो उस समय वह अपना स्वरूप
नष्ट नहीं कर लेती और न अपने मूल तत्त्वों को बदलती है। एक जाति की भाषा एक ही
होती है। यदि एक जाति में अनेक भाषाएं हों तो यह जरूरी नहीं कि वे एक जाति की हों
क्योंकि जाति प्रत्येक भाषा के गुण को अपने अन्दर संजोये रखती है। भारत में अनेक भाषाएं
बोली जाती हैं। इसके बावजूद भाषा के रूप में हिदीं भारत को एकता और अखंडता के
सूत्र में बाँधे हुए है।
भाषा और समाज के बीच बहुत गहरा संबंध है। अत: सामाजिक विकास
के साथ भाषाई विकास भी सम्भव है। यह विकास समाज के अन्तर में निहित है। चूंकि भाषा
का प्रयोग समाज में संगठित रूप से किया जाता है अत: इसके विकास में समाज की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह परिवर्तन कभी धीमी-गति से तो कभी तीव्र गति से
अग्रसर होता है। यही रूप हम गण से लघुजाति और लघुजाति से महाजाति के निर्माण में
देख पाते हैं, जो एक सामाजिक परिवर्तन
है। भाषा का प्रयोग संगठित रूप में हुआ करता है। यह संगठित रूप जन और कबीलों के
रूप में हुआ करता था। कबीलों के एकीकरण और विघटन के परिणामस्वरूप सामन्ती व्यवस्था
और महाजाति का निर्माण हुआ। महाजाति के निर्माण से लघुजाति के संस्कार खत्म नहीं
हुए बल्कि कहीं बोली के रूप में तो कहीं प्रदेश और कहीं साहित्य के रूप में विद्यमान हैं।
छ: हजार साल पहले भारत के उत्तरी भाग में संस्कृत से
मिलती-जुलती कई भाषाएं बोली जाती थीं। उस समय यहां अनेक गण हुआ करते थे। प्रत्येक
गण की अपनी भाषा थी। प्रत्येक गण विचार-विनिमय के लिए संस्कृत का प्रयोग किया करते
थे। उस समय संस्कृत के अलावा अन्य कई भाषाएं भी बोली जाती थीं। संस्कृत केवल
पुरोहितों की भाषा थी। इसका प्रयोग केवल उच्च-तबके के लोग ही किया करते थे। उस समय
वर्णव्यवस्था का उदय हो चुका था। उच्चवर्ग का संस्कृत भाषा पर अधिकार होना
स्वाभाविक था। व्यक्ति-सम्पत्ति का उदय हुआ और रक्त-संबंध के आधार पर सम्पत्ति का केंद्रीकरण होने लगा।
गण-व्यवस्था का विघटन हुआ और नई व्यवस्था का उदय हुआ। गणों
के विघटन के पश्चात लघुजातियों का निर्माण हुआ। उस समय सामन्तवाद अपने चरम उत्कर्ष
पर था। जनों का विघटन होने पर जन एक ही जाति में शामिल न होकर अन्य कई जातियों में
बंट गये। अत: सामाजिक व्यवस्था में काफी परिवर्तन हुआ। व्यवसायों का विकास होने लगा।
व्यापार के कई प्रमुख केन्द्र बन गए जिनमें राजगृह, चम्पा, कांची,
कौशाम्बी और तक्षशिला मुख्य थे। व्यापार के प्रसार के परिणामस्वरूप नगरों का विस्तार होने
लगा। शिल्पकारों की संख्या में वृद्धि होने लगी। यहीं से श्रेणी संगठित होकर सामने
आने लगे। प्रत्येक श्रेणी के लोग नगर के एक निशिचत भाग में बसते थे। इन श्रेणियों
के बीच एक विशेष प्रकार का संबंध पाया जाने लगा। इसका मुख्य आधार अर्थ ही था।
सामन्तवाद के ह्रास के पश्चात पूंजीवाद का आगमन हुआ। उस समय अवधी और ब्रज का अधिक
प्रचलन था। ये दोनों भाषाएं सभी जनपदों को एक-दूसरे के निकट ले आई। 18वीं सदी तक आते-आते जातीय भाषा के रूप में खड़ीबोली उभर कर
सामने आई और जातीय प्रदेश की भाषा बनी। पूंजीवादी व्यवस्था में यह और भी सुदृढ़
होती गई और 'महाजाति’ का रूप धरण करने लगी। इस समय औद्योगिक क्रांति की
महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसका विकास पूंजीवादी आर्थिक विकास के साथ हुआ। इसका
अर्थ यह नहीं कि अर्थ के कारण भाषा में परिवर्तन या नई भाषा का जन्म होता है अपितु
भाषा में एक गति मिलती है और भाषा की शैली में परिवर्तन होता है। महाजाति के
निर्माण से पहले हम भले ही जातीय भाषा की कल्पना नहीं कर सकते थे परंतु उसके
तत्त्व उस समय विद्यमान अवश्य थे। अवध, बुंदेलखण्ड,
भोजपुर, दिल्ली और
आगरे की भाषा और बोली आपस में मिलकर जातीय भाषा के रूप में
उभरकर सामने आई। औद्योगिक क्रांति के कारण देश में अलगाव का कम हो जाता है। जातीय बाजार
का गठन होता है जिसके परिणामस्वरूप जातीय भाषा का प्रचार व प्रसार होने लगता है। इसका
स्पष्ट रूप लंदन की बोली में देख पाते हैं। असल में लंदन भी एक औद्योगिक केन्द्र
था यहां की बोली परिनिष्ठित होकर जातीय भाषा बनी।
भाषाई विकास को लेकर अक्सर यह कहा जाता है कि भाषा में परिवर्तन
होता है और नहीं भी होता है। अगर भाषा में स्थिरता न हो तो पुत्र पिता की बात को
नहीं समझ पायेगा। मानव का प्रकृति के साथ अत्यन्त गहरा एवं शाश्वत संबंध है। किंतु मानव प्रकृति पर विजय प्राप्त करना
चाहता है जिसके परिणाम अन्तर्विरोध होना स्वाभाविक है। सामाजिक प्राणी होने के
नाते समाज के प्रत्येक बिन्दु का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। सामाजिक विकास का सीधा
संबंध भाषा से है। समाज में परिवर्तन के
साथ भाषा के सभी तत्त्वों में परिवर्तन होता है, उदाहरण के तौर पर ध्वनि, शब्द, रूप,
वाक्य, अर्थ केवल सिथर ही नहीं होता बल्कि परिवर्तित भी होते हैं। यह परिवर्तन समाज
के गठन,
उसके अतर्द्वंदों, उसके सदस्यों के भाषाई प्रेम पर निर्भर करता है। भाषा में परिवर्तन ध्वनि और
अर्थ की तरलता के कारण होते हैं। यह गति सामान्य से विशेष और व्यापक से सीमित की
ओर होती है। जिस समय मनुष्य को संबोधित करने के लिए उसके गुणों को ध्यान में रखकर 'उल्लू, 'गधा’ जैसे शब्दों का प्रयोग
किया जाता है उस समय अर्थ में तरलता न होकर अर्थ निश्चित हो जाता है।
भारत बहुजातीय राष्ट्र है। जातीय भाषा के रूप में भारत में
कई भाषाएं बोली जाती हैं। हिदीं भी एक जातीय भाषा है जो कुल जनसंख्या की 43.75 भाग द्वारा बोली जाती हैं। हिदीं जाति में कई बोलियों का
प्रयोग किया जाता है। वेल्स और स्काटलैण्ड में बोली जानेवाली बोली का अंग्रेजी से
वही संबंध है जो भारत में हिदीं और तमिल
का है। जातीय भाषा मूलत: सात राज्यों से मिलकर बनी है। हिदीं प्रदेश का कोई भी नगर
या शहर ऐसा नहीं है जहां हिदीं का प्रयोग न होता हो। जनपदों से आए मजदूर वर्ग
शहरों में आपसी संपर्क के लिए हिदीं का प्रयोग करते हैं। ये जनपदीय भाषाएं साहित्य
और लोक-संस्कृति के निर्माण में एक शक्ति का कार्य करती है। जिस प्रकार जातीय भाषाएं
जनपदीय उपभाषाओं से प्रभावित होकर बनती हैं ठीक उसी प्रकार जातीय भाषा अन्य जातीय
भाषाओं से भी प्रभावित है, जैसे कलकत्ते की हिदीं, बम्बई की हिदीं आदि। खड़ीबोली पछांह की बोली है। जब संस्कृत
को कार्यालयी भाषा के रूप में प्रयोग किया जाता था तब उस समय यहां अनेक जनपदीय भाषाएं
बोली जाती थीं जिन्हें हम धातु, मूल शब्द-भण्डार, व्याकरणिक
रूपों में आज भारतीय भाषाओं में देख पाते हैं। आधुनिक भारतीय भाषाओं की यह सबसे
बड़ी विशेषता है कि वे भिन्न प्रकृति वाली भाषाओं और भाषाई परिवारों की सूचना देती
है। मराठी,
पंजाबी, गुजराती,
राजस्थानी अनेक भाषाएं बोलियों के समूहों के रूप में बोली
जाती थीं। इन बोलियों के बीच आपसी संपर्क था। किंतु अनेक स्थानों में बसे होने के
कारण इनमें भेद होना स्वाभाविक था।
भारत की जनपदीय भाषाएं शताब्दियों से एक-दूसरे को प्रभावित
करती रहीं जिसके परिणामस्वरूप भाषा परिवर्तित और विकसित होती गई। साथ ही अन्य
भाषाओं के तत्त्वों को भी ग्रहण करती गई। भारत के उत्तर-मध्य भाग से लेकर
उत्तर-पूर्वी भाग तक ह्रस्व 'अ का उच्चारण संस्कृत के समान किया जाता है। संस्कृत में जहां 'आकार’ का प्रयोग होता है वहीं भारतीय प्राच्य,
फारसी, दक्षिणी स्लाव में 'ओकार और 'ओंकार का प्रयोग होता है। अवधी में 'बहिनी’,
गुजरात में 'बेन’, बंगला में 'बोन’ का प्रयोग होता है। इससे यह स्थापित हो जाता है कि आर्य
भाषायें संस्कृत से नहीं निकली हैं, अन्यथा 'अकार’ का उच्चारण वृत्ताकार नहीं हो जाता। संस्कृत में जहां 'अकार’ दिखाई पड़ता है वहीं मागधी में 'एकार’ का रूप है और परिनिष्ठित हिदीं में 'अंकार’ का। अगर हिदीं में 'कोई’ शब्द का प्रयोग किया जाता है तो इसे मागधी में 'कोपि’ बोला जाता है। बंगला में ह्रस्व और दीर्घ स्वर पर बहुत अधिक
ध्यान नहीं दिया जाता। इसके पीछे जो कारण है, वह यह कि मैथिली और मगही की अपेक्षा
बंगला में बलाघात का बहुत अधिक प्रयोग किया जाता है। शब्दों के आदिवर्णों में बलाघात की प्रवृत्ति भोजपुरी, मगही, मैथिली में बहुत अधिक पाई जाती है। दन्त्य 'स’ के स्थान पर तालव्य 'श’ का प्रयोग मागधी में किया जाता है। मध्यदेशीय प्रभाव के
कारण मगही में दन्त्य 'स’ की वर्तमान प्रधानता है।
कोसल,
ब्रज, कुरु जनपदों का प्रभाव मगध और मिथिला पर बहुत अधिक पड़ा है। लिंगभेद के रूप
में 'छोटका-छोटकी ; 'नन्हका-नन्हकी ; 'पियरा-पियरी
आदि मिलते हैं। संबंधवाचक शब्दों में 'मोरा-मोरी’ और बेटी-बिटिया। अत: मगध पर कोसल का बहुत अधिक प्रभाव है। कारक
चिहन के रूप परिनिष्ठित हिदीं के समान हैं।
भाषा जिस प्रकार मनुष्य के व्यकितगत जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध
होती है ठीक उसी प्रकार सामाजिक जीवन के लिए भी नितान्त आवश्यक है। भारत में अनेक भाषाएं
बोलनेवाली जातियां रहा करती हैं। इन जातियों से मिलकर ही भारत राष्ट्र बना है अत:
जातीय भाषा को लेकर समस्या उठना स्वाभाविक है। जातीय भाषा की प्रगतिशील बुद्धिजीवियों
के लिए महत्वपूर्ण है। सामाजिक विकास की प्रत्येक मंजिल में भाषा-समस्या का महत्व
अलग-अलग रूपों में होता है। जातीय गठन में मजदूर-वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका है। ये
मजदूर-वर्ग अपनी प्रान्तीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं से सबंद्ध होते हैं। अत: उनकी
भाषा और बोली में अंतर दिखाई पड़ता है। जिस समय उत्पादन और वितरण की प्रणाली आरंभ
हुई, उस समय सामाजिक समूह अत्यन्त छोटे-छोटे समूहों में रहा करते थे। उस समय बारह
कोस पर बोली बदलती हुई दिखाई पड़ रही थी। विनिमय की आवश्यकताओं के परिणामस्वरूप
बोली परिनिष्ठित होकर भाषा का रूप धारण करने लगी। भाषा और बोली में अंतर सामंती व्यवस्था
में दिखाई देने लगे। जब पूंजीवादी व्यवस्था में भाषा महाजाति का रूप धारण करने लगी
तब अन्य जितनी भी लघुजातियां थीं वह मात्रा बोली बनकर सीमित रह गयीं। अत: भाषा की
तरह बोलियों में भेद दिखाई पड़ने लगा। ये भेद ध्वनिभेद, शब्द-भण्डार, व्याकरण-भेद के रूप में देख जाते हैं। परंतु ये भेद दो बोलियों को अलग नहीं कर
देते। अर्थात् जहां ध्वनि-भेद हो वहीं व्याकरण भेद हो यह जरूरी नहीं। भोजपुरी
उत्तर प्रदेश के कई भागों में बोली जाती है। पूर्वी हिदीं और भोजपुरी में 'अ’ का उच्चारण करते हैं। अवध, मिथिला, मगध,
भोजपुर के निवासी इसी प्रकार 'अ का उच्चारण करते हैं। 'ड़’ ध्वनि - खोड़हा, रांड,
भांड आदि को केवल पश्चिम की ध्वनि नहीं कहा जा सकता बल्कि
इसका प्रयोग भोजपुरी में भी अधिक होता है। पश्चिमी हिदीं में दो स्वर एक साथ नहीं
आते। यह माना गया है कि पश्चिमी के 'ए,
'औ का प्रयोग पूर्व में 'अई’,
'अउ’ के रूप में होता है। परंतु पूर्व के समान पश्चिमी में गैया-समैया जैसे
शब्दों का प्रयोग होने पर समानता का रूप दिखाई पड़ता है। शब्द-भण्डार के रूप में 'उठती’,
‘घटती’, ‘ढकना’ और ‘ओढ़ना’ आदि शब्द न केवल भोजपुरी के शब्द हैं बल्कि हिदीं की अन्य
बोलियों में भी इनका प्रयोग किया जाता है। वर्तमान व्यवस्था में बोलियों को एक
करने के बजाय अलग-अलग राज्य बनाने की मांग होती रही है। ब्रज,
दरभंगा, बुंदेलखण्ड जैसे प्रदेशों को अलग-अलग सूबा बनाने की मांग आम है। ये बोलियां
आपस में इस तरह मिलती-जुलती हैं कि एक बोली में रचा हुआ साहित्य दूसरे को भलीभांति
समझ में आ जाता है।
राजकाज की भाषा को सामान्य रूप में 'राजभाषा’ कहा जाता है। प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए इस भाषा का
प्रयोग किया जाता है। संविधान में जहां जातीय भाषा हिदीं को राजभाषा का पद प्राप्त
हुआ वहीं व्यावहारिक रूप में अंग्रेजी का
प्रयोग किया जाता है। असल में अंग्रेजी के
स्थान पर भारत की सभी भाषाओं को उचित पद पर प्रतिष्ठित होना चाहिए परंतु ऐसा है
नहीं। राजभाषा के रूप में हिदीं का प्रचार-प्रसार पूंजीपति,
राजनीतिक नेतागण केवल अपने फायदे और स्वार्थ के लिए करते हैं।
जातीय भाषा का प्रयोग समस्त राष्ट्र के अधिक से अधिक लोगों
द्वारा किया जाता है। प्रादेशिक भाषाओं के बीच कोई एक भाषा उन्नत होकर महत्वपूर्ण
स्थान ग्रहण कर लेती है। जहां एक तरफ हिदीं को हम राष्ट्रभाषा कहते हैं और इसको
बोलनेवाले सभी धर्म के लोग हैं। दूसरी तरफ कुछ लोग धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता का
जहर फैलाकर राष्ट्रभाषा के पद से हिदीं को हटा देना चाहते हैं। चूंकि भारत
बहुजातीय भाषाई प्रदेश हैं और यहां अनेक भाषाओं का प्रचलन है अत: इन सभी भाषाओं को समानता का अधिकार दिया
जाना चाहिए। भारत में हिदीं के अलावा अन्य कई भाषाएं बोली जाती हैं। ये मूलत: समृद्ध
भाषाएं हैं। इन भाषाओं में राजकाज, उच्च न्यालयों की कार्यवाही, विश्वविद्यालयों में प्रयोग किया जाता है। साथ ही हिदीं का भी प्रयोग किया
जाता है। किंतु जातीय भाषा बोलनेवालों की संख्या प्रांतीय भाषाओं से कहीं अधिक है
इसलिए हिदीं को केन्द्रीय भाषा बनाया जाना चाहिए। अनेक लोगों को इस पर आपत्ति रही है
कि उनकी जातीय भाषा का अधिकार छीना जा रहा है। अत: प्रदेश की राजभाषा उस प्रदेश की
भाषा को बनाया जाय जिससे लोग आपस में व्यवहार कर सकें किंतु जब उन्हें अन्य जाति
के संपर्क में आना हो तो उस समय राष्ट्रभाषा या जातीयभाषा 'हिदीं का प्रयोग करेंगे।
मुसलमानों के भारत में आगमन के समय ये लोग पोश्तो,
तुर्की, अरबी आदि बोला करते थे। ये सभी भिन्न परिवारों की भाषाएं थीं किंतु राजभाषा के
रूप में फारसी का प्रयोग होता था। बाद में भारत में अंग्रेजों का बोलबाला हुआ उन्होंने
हिदीं को 'बांटों और राज करों की नीति को अपनाया। शिक्षा और संस्कृति
के मामलों में अंग्रेजी को अपनाने की नीति
इसलिए अपनाई गई ताकि भारत की आम जनता को अशिक्षित रखा जाय। भारतीय भाषाओं का
व्यवहार करने की स्वतंत्राता किसी को न थी। किंतु आज भी जब राष्ट्रभाषा का सवाल
उठता है तो उस समय हमें अंग्रेजी से सामना
करना पड़ता है। असल में राष्ट्रभाषा पूरे देश की भाषा है। जन-जन का कण्ठहार है।
केवल मुटठी भर लोगों को ध्यान में रखकर राष्ट्रभाषा के बारे में सोचना गलत है।
हिदीं-उर्दू के बीच अलगाव हिदीं जातीयता के विकास में सबसे
बड़ी बाधा है। परम्परावादी इसे विजातीय भाषा मानते हैं। किंतु हिदीं का प्रयोग
केवल हिन्दू जनता ही नहीं बल्कि मुसिलम जनता भी करती है। इसका सामान्य आधार बोलचाल की खड़ीबोली है। इसमें अगर अरबी-फारसी के
शब्द शामिल कर दिए जाएं तो इससे नई भाषा का जन्म नहीं होता बल्कि खड़ीबोली
मुसलमानों के आगमन से पहले भी थी और आज भी है। जब मुसलमानों का आगमन हुआ उस समय
मुसलमान यहां की जातियों के साथ घुल मिल गये। जिन प्रदेशों में गये, वे वहां की
भाषा को अपनाने लगे। हिदीं-उर्दू के बीच अलगाव सामन्तवाद के पतन से लेकर अंग्रेजी राज के बीच पैदा हुआ। इसका मूल कारण है अंग्रेजी
सत्ता जिसने हमारी जनता को गुमराह किया और भाषाई भेद पैदा किया। भाषा का कोई अपना धर्म
नहीं होता तभी तो बंगाल के मुसलमान बंगला, महाराष्ट्र के मुसलमान मराठी और उत्तर प्रदेश के मुसलमान हिदीं
का प्रयोग करते हैं। अत: भावाभिव्यकित के आधार पर हिदीं और उर्दू दो अलग-अलग भाषाएं
नहीं बल्कि एक ही भाषा के दो साहितियक रूप हैं। किंतु अगर हिदीं में संस्कृत और उर्दू
में फारसी शब्दों को भर दिया जाए तो अलगाव की मात्रा बढ़ जाती है। चूंकि भाषाई-व्यवस्था
और भाषाई-व्यवहार के आधार पर हिदीं उदू में काफी समानताएं पाई जाती हैं। व्याकरण,
वाक्य-रचना, क्रिया,
शब्द-भण्डार, संबंधवाचक शब्द, सर्वनाम
प्राय: एक है। सर्वनाम के रूप में मैं, तू,
वह आदि है। क्रिया के रूप में सोना, खाना, पढ़ना आदि। कई लोग लिपि को केन्द्र में रखकर हिदीं और उर्दू के बीच अलगाव पैदा
करते हैं लेकिन बंगला और मणिपुरी भाषा की लिपि एक है परंतु भाषा अलग-अलग है। अत: हिदीं और उर्दू को अगर
देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो इस अलगाव को भी दूर किया जा सकता है।
संपर्क - डा. रामबिनोद रे, दूरभाष – 9968065458, ईमेल - rambinodray@yahoo.com
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