सोमवार, 24 नवंबर 2014

इक्कीसवीं सदी में पूर्वी हिन्दी की बोलियों का भविष्य - डॉ. श्यामा सिंह



इक्कीसवीं सदी में पूर्वी हिन्दी की बोलियों का भविष्य
-           डॉ. श्यामा सिंह


अगर हमें पूर्वी हिन्दी की बोलियों के भविष्य के बारे में कुछ कहना हो तो यही कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ी की स्थिति सुदृढ़ है। अवधी जीवित है और बघेली अल्पविकसित रुप में है। अगर अवधी और बघेली के लिए प्रशासनिक स्तर से प्रयास नहीं किया गया तो वे जल्दी ही भारत की संकट ग्रस्त भाषाओं की सूची में शामिल हो जायेंगी।






प्राचीन काल में जिस क्षेत्र को उत्तर कोसल एवं दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था, उसे ही अब पूर्वी हिन्दी का क्षेत्र माना जाता है। पूर्वी हिन्दी उपभाषा वर्ग में तीन बोलियाँ हैं- अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। सीमा विस्तार की दृष्टि से उत्तर में नेपाल के दक्षिण भाग से लेकर दक्षिणी बस्तर तक पूर्वी हिन्दी का क्षेत्र है। इसके उत्तर में नेपाली, पूरब में बिहारी हिन्दी तथा उड़िया,  पश्चिम में पश्चिमी हिन्दी और दक्षिण में बुंदेली, कन्नौजी तथा मराठी और तेलगू बोली जाती है।
अवधी – यह मुख्यरुप से आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, फैजाबाद, लखनऊ, बाराबंकी, रायबरेली, उन्नाव, बहराइच, कौषांबी, गोंडा, श्रावस्ती, बलरामपुर, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर जिलों में बोली जाती है। अवधी के कई अन्य नाम भी प्रचलित हैं जैसे - अबधी, अबोही, अंबोधी, बैसवारी, कोजाली और कोसली। अवधी के उत्तर में नेपाली, पश्चिम में कन्नौजी, दक्षिण पश्चिम में बुंदेली, दक्षिण में बघेली, दक्षिण पूर्व में छत्तीसगढ़ी और पूरब में भोजपुरी बोली जाती है। अवधी बोलने वालों की संख्या 4. मिलियन है। भाषा के अर्थ में अवधी नाम का सबसे प्राचीन प्रयोग अमीर खुसरो के नुहसिपरग्रंथ में मिलता है। अबुल फज़ल ने भी अपनी पुस्तक आइने अकबरीमें अवधी शब्द का प्रयोग भाषा के अर्थ मे किया है। साहित्य रचना की दृष्टि से अवधी साहित्य 11वीं शताब्दी से उपलब्ध है। रोड़ा कृत राउबेलीपुरानी अवधी की प्रथम उपलब्ध रचना मानी जाती है।
अवधी भाषा में करीब पचास हजार से अधिक देशज शब्द मौजूद हैं। अवधी काव्य परंपरा अत्यंत प्राचीन, पुष्ट और प्रमाणिक है। अवधी का प्रारंभ मुल्ला दाउद रचित चंदायनसे माना जाता है जिसकी रचना सम्वत् 1436 में हुई। यद्यपि उनसे पहले अमीर खुसरो (सं. 1341 वि.) की भी कुछ अवधी कविताएँ मिलती हैं लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। किंतु हिन्दी साहित्य की भक्तिकालीन रचनाओं में प्रेमख्यानक काव्य, संत काव्य अवधी में ही लिखे गये।
अवधी का अतीत काफी सुनहरा रहा है। अवधी की प्राचीन पुस्तकों में दामोदर पंडित कृत उक्ति व्यक्ति प्रकरणबारहवीं शताब्दी में मातृभाषा सीखने के लिए लिखी गई। चैदहवीं शताब्दी में मुल्लादाऊद कृत चंदायन, मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत (1520-1540 ई.), तुलसीदास कृत विश्व प्रसिद्ध पुस्तक रामचरित मानस (1575 ई.), विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा इत्यादि की रचना हुई। बीच का समय अवधी भाषा के विकास की दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं रहा, रचनायें तो होती रहीं लेकिन उतनी प्रसिद्धि नहीं पा सकीं जो भक्तिकाल में थी। वर्तमान समय में यानी इक्कीसवीं शताब्दी में अवधी साहित्य के उत्थान के लिए कुछ संगठनों ने प्रयास किया है। इधर अवधी की कुछ पत्रिकायें जैसे अवधी ज्योतिबोली बानी (संपादक जगदीश पियूष), लोकायन (संपादक डॉ. अषोक अग्यानी), लखनऊ के अवधी अध्ययन केन्द्र से ‘विरवा’ नाम की पत्रिका निकलती है। यद्यपि ये नियत कालीन तो नहीं है लेकिन एक पहल की शुरूआत अवश्य है। इन पत्रिकाओं ने अवधी को एक नई दिशा दी है। इधर अवधी में गीत, गज़ल, कविता, कहानी, एकांकी, उपन्यास, निबंध भी लिखे गये हैं जैसे ‘एक रहै राजानिबंध संग्रह - डॉ. राम बहादुर मिश्र, कहानी संग्रह ‘अम्मा’ -  डॉ. ज्ञानवती दीक्षित, काव्य संग्रह कोइली विरवा न चिल्लाव - अजय सिंह वर्मा आदि। आचार्य सूर्य प्रसाद शर्मा निषिहर का गीत संग्रह विरवा तरेपाँच खंडों में प्रकाशित हुआ है जिसमें 119 आधुनिक अवधी गीत हैं। वर्तमान समय के  प्रसिद्ध लेखकों में रमई काका, बंशीधर शुक्ल, रुप नारायण त्रिवेदी, विश्वनाथ पाठक जैसे अनगिनत लेखक और कवि उभर कर आये हैं। अवधी की पढ़ाई भी कुछ विश्वविद्यालयों में एक प्रश्न पत्र के रुप में की जा रही है, जैसे -  
1. डा. राम मनोहर लोहिया वि. वि., फैजाबाद में बी. ए. तृतीय वर्ष में जनपदीय भाषा साहित्य (अवधी काव्य) के अंतर्गत अवधी पढ़ाई जाती है।
2. छत्रपति साहू जी महराज वि. वि. कानपुर में -
(अ). बी.ए. तृतीय वर्ष में ‘हिन्दी की क्षेत्रीय भाषाएँ और साहित्य’ नामक तृतीय परचा है जिसमें अवधी/ब्रजभाषा/बुंदेली/भोजपुरी भाषा साहित्य का विकास, लोक साहित्य का विकास और रचनाकारों की कृतियाँ पढ़ाई जाती हैं।
(ब). एम.ए. प्रथम वर्ष में पंचम प्रश्नपत्र में वैकल्पिक रूप में जनपदीय भाषा साहित्य की पढ़ाई होती है।
            इधर कुछ अवधी ब्लाग्स भी उपलब्ध हैं, जैसे ‘अवधी कै अरधानइत्यादि।
बघेली - यह भी पूर्वी हिन्दी उपभाषा वर्ग की एक बोली है जो मध्यप्रदेश के छः जिलों रीवां, सतना, सिद्धि, शहडोल, उमरिया और अनूपपुर में बोली जाती है। बघेली भाषा के कई अन्य नाम भी हैं जैसे - बघेलखंडी, रीमही और रिवाई। बघेली का लिखित साहित्य 19वीं शताब्दी से उपलब्ध है। बघेली काव्य के प्रारंभिक कवि हरिदास (1857 ई.) की कुछ फुटकर रचनायें मिलती हैं। बघेली के कई काव्य संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें बैजनाथ पांडे बैजू कृत ‘बैजू की सूक्तियाँ’; सैफुद्दीन ‘सैफ’ की ‘भारत केर माँटी’, ‘दिया बरी भा अॅंजोर’, ‘एक दिन अइसन होई’; स्व. रामदास प्यासी कृत ‘माँटी केर महक’; श्री निवास शुक्ल सरसकी ‘रसखीर’, ‘अमरउती’, ‘अॅंजुरी भर अजोर’, ‘बघेली लोकगीत’; भागवत प्रसाद पाठक की ‘संझबाती’; डॉ. बमोल बटरोही की  ‘हिमालय केर कनिया’ इत्यादि प्रमुख हैं। बघेली में प्रबंध काव्य भी उपलब्ध है, जैसे गोमती प्रसाद विकल कृत ‘रणमत सिंट’, रणजीत राय और अंजनी सिंह सौरभ कृत  ‘सगुनउती’ प्रकाशित कृतियाँ हैं। बघेली हायकू भी प्रकाशित है जिसके लेखक आदित्य प्रताप सिंह हैं।
      बघेली में गद्य साहित्य का भी विकास हुआ है लेकिन जिस गति से पद्य साहित्य लिखे गये हैं उसकी तुलना में गद्य साहित्य का विकास कम है। कुछ गद्य रचनायें प्रकाशित हैं जिनमें डॉ. भगवती प्रसाद शुक्ल की ‘बघेली भाषा और साहित्य’ (1971), ‘बघेली लोक रागिनी’ भाग एक (1952) और भाग दो (1953) तथा ‘रेत पर खड़े रिष्ते’ प्रमुख हैं। बघेली का पहला प्राप्त कहानी संग्रह है -  नेउतहारीजो सैफुद्दीन सिद्दीकी कृत है। अन्य कहानी संग्रह हैं -  डॉ. रश्मि शुक्ला कृत ‘सेंदुर का बोझ’, रामनरेश सिंह का ‘चन्दन और चमेली’, चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र कृत ‘थोर का सुक्ख’, सूर्य भाई शुक्ल का ‘चोई-भाई’ आदि। बघेली नाटकों में योगेश त्रिपाठी का ‘छाहुर’, हीरेन्द्र सिंह सेंगर का ‘कौन भूमि ते माटी’, प्रो. आदित्य सिंह का ‘भेड़िया’ प्रकाशित है। बघेली निबंध संग्रहों में डॉ. श्री निवास शुक्ल सरसका ‘सरग नसेनी’,  डॉ. सुधाकर तिवारी का ‘सैंया भये कोतवाल’, रवि रंजन सिंह का ‘बघेली : तब और अब’ प्रकाशित हैं। बघेली उपन्यासों में डॉ. भगवती प्रसाद शुक्ल का ‘खारे जल का गाँव’ और ‘कइदिन की जिन्दगी’ प्रकाशित हैं। अन्य कृतियों में डॉ. आर्या प्रसाद त्रिपाठी की ‘बघेली साहित्य का इतिहास’, गोमती प्रसाद विकल की ‘बघेली साहित्य व संस्कृति’ प्रकाशित हैं।
     बघेली पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. लहरी सिंह द्वारा संपादित ‘युगबोध’ और ‘प्रियदर्शनी स्मृति अंक’; डॉ. भगवती प्रसाद शुक्ल की ‘स्मारिका’ ‘लोकस्वर’; बघेली साहित्य परिषद से ‘बघेली स्मारिका’ और  ‘टेसू केर फूल’  डॉ. श्री निवास शुक्ल सरस के संपादन में प्रकाशित हो चुकी हैं। अन्य में सुधेंदु शर्मा का ‘स्पाट्र्स स्टार’ जैसी अनेक आंचलिक पत्र-पत्रिकायें बघेली साहित्य को समृद्ध करने के लिये प्रयासरत हैं। रीवा से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र भास्कर में डॉ. प्रणय का स्तंभ चुप रह दादू भउसाकई वर्षों तक प्रकाशित हुआ। देसबंधु में देवी शरण ग्रामीण का स्तंभ ‘गाँव नामा’ और दैनिक सत्य गंगा सीधी में श्री निवास शुक्ल सरसका स्थाई स्तंभ ‘बघेली शब्द सामर्थ्य’ प्रकाशित हो रहा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि बघेली में साहित्य सृजना कम हुई है।
बघेली में पठन पाठन:-
1.अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा में  एम.ए. हिन्दी चतुर्थ सेमेस्टर के चतुर्थ परचे में वैकल्पिक प्रश्न पत्र के रुप में खडी़ बोली, छत्तीसगढ़ी, बघेली, मालवी, बुंदेली का प्रश्नपत्र होता है।
2.उच्चशिक्षा विभाग म.प्र. में बी.ए. छठवें सेमेस्टर में तृतीय प्रश्न पत्र में बघेली भाषा और साहित्य पढ़ाया जाता है, यह सागर वि. वि. जबलपुर और ग्वालियर में भी पढ़ाई जाती है।
छत्तीसगढ़ी - यह छत्तीसगढ़ में बोली जाती है और छत्तीसगढ़ राज्य की कार्यालयी भाषा के रुप में स्वीकृत है। इसके बोलने वाले करीब 17.5 मिलियन लोग हैं। पुराने समय में छत्तीसगढ़ को कोसल, मध्य कोसल और दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। छत्तीसगढ़ी भाषा में साहित्य रचना करीब एक हजार वर्ष पूर्व से उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ी भाषा एक संपन्न भाषा है लेकिन लिखित साहित्य दो-तीन सौ वर्ष पुराना है। यद्यपि छत्तीसगढ़ी में करीब-करीब सारी विधाओं का विकास हुआ है। काव्य, नाटक, एकांकी, उपन्यास, हाइकू इन सभी का विकास हुआ है।
      छत्तीसगढ़ शासन द्वारा अंग्रेजी, हिन्दी, छत्तीसगढ़ी प्रशासनिक शब्दकोश का दो भागों में प्रकाशन हुआ है।
छत्तीसगढ़ी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकायें हैं -1.भोजली (छत्तीसगढ़ी मासिक), 2.मयारुमाटी (मासिक) रायपुर, 3.लोक मंजरी (मासिक) छत्तीसगढ़ी, 4.बिहनिया (छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक विभाग द्वारा) और 5.अगासदिया इत्यादि। छत्तीसगढ़ी में एक अकादमी भी कार्यरत है -  छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी ( छत्तीसगढ़ ) रायपुर में स्थित है।
पठन पाठन -
1.पं. रविशंकर शुक्ल वि. वि. रायपुर में इसे एम.ए. में एक विषय के रुप में पढ़ाया जाता है।
            2.पं. सुन्दर लाल शर्मा (खुला) वि. वि. में डिप्लोमा कोर्स ‘छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति’ नाम से उपलब्ध है।
इन बोलियों के साथ एक दुर्भाग्य पूर्ण बिडंबना यह है कि इन्हें अपने ही क्षेत्र में महत्व नहीं दिया जा रहा है, इन्हें पठन-पाठन, पत्र-पत्रिकाओं में भी उचित स्थान नहीं मिल पा रहा है। इन तीनों बोलियों में छत्तीसगढी़ की ही स्थिति कुछ सुदृढ़ रुप में है। अवधी की स्थिति सन्तोषजनक है किंतु बघेली की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। इन बोलियों को बचाये रखना ही हमारे लिए एक चुनौती है क्योंकि इन बोलियों के लिए कोई रोजगार के अवसर न होने से लोगों का रुझान हिंदी या अंग्रेजी की तरफ हो गया है। यदि इन बोलियों को बचाना है तो शासन का भी सहयोग मिलना चाहिए। इन बोलियों में भी विशेषत: यदि बघेली के लिये प्रयास नहीं किया गया तो यह जल्दी ही भारत की संकटग्रस्त बोलियों की सूची में शामिल होने के कगार पर होगी।
इक्कीसवीं शताब्दी में यदि हम पूर्वी हिन्दी की बोलियों की बात करें तो हम यह पाते हैं कि इन बोलियों में छत्तीसगढ़ी की स्थिति मजबूत है। इसमें साहित्य की सभी विधाओं का विकास हुआ है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा भी छत्तीसगढ़ी को राज्य भाषा की मान्यता दी गयी है, यह छत्तीसगढ़ की कार्यालयी भाषा भी है। साथ ही प्रशासनिक शब्दकोश दो भागों में प्रकाशित है जो छत्तीसगढ़ी राज भाषा आयोग, रायपुर द्वारा प्रकाशित है। इसमें चार-पाँच पत्रिकायें नियमित रुप से निकल रही है। जिसमें भोजली, मयारु माटी, लोक मंजरी, बिहनिया सभी मासिक पत्रिकायें हैं। छत्तीसगढ़ी में पढ़ाई भी हो रही है। पं. रविशंकर शुक्ल वि. वि. रायपुर में एम.ए., बी. ए. में छत्तीसगढ़ी पढ़ाई जाती है। पं. सुन्दर लाल शर्मा (ओपन) वि. वि. में छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति नाम से डिप्लोमा कोर्स कराया जाता है। छत्तीसगढ़ी का साहित्य काफी समृद्ध है और करीब एक हजार वर्ष पुराना है लेकिन लिखित साहित्य दो-तीन सौ वर्षों से ही उपलब्ध है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ी की स्थिति मजबूत है और भविष्य में इसके विकास की अपार सम्भावनायें हैं।
भक्तिकाल में अवधी काफी मजबूत, समृद्ध भाषा थी भक्तिकाल में इसमें उत्कृष्ट साहित्य की रचनाएँ हुई किंतु इक्कीसवीं शताब्दी में यह भाषा से बाली में परिवर्तित हो गई है। इसमें साहित्य की विधाओं का विकास तो हो रहा है किंतु स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। प्रशासनिक सहयोग के अभाव में इसका समुचित विकास नहीं हो पा रहा है। कुछ छिटपुट पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है किंतु ये नियत कालीन नहीं हैं। अवधी की पढ़ाई की बात करें तो जैसा कि पूर्व में उल्लेख हो चुका है, अवध क्षेत्र के विश्वविद्यालयों में बी.ए. में हिन्दी की क्षेत्रीय भाषाएँ और साहित्य नामक एक पेपर तृतीय वर्ष में है जिसमें अवधी/ब्रज/बुंदेली/भोजपुरी किसी भी एक क्षेत्रीय भाषा का चयन करना है। यह वैकल्पिक रुप में उपलब्ध है और एम.ए. पंचम प्रश्न पत्र में जनपदीय भाषा साहित्यकी पढ़ाई होती है। अर्थात अवधी क्षेत्र के वि.वि. में भी अवधी को समुचित महत्व नहीं दिया गया है।
बघेली की स्थिति तो और भी खराब है। इसमें साहित्य की विधाओं का विकास नाम मात्र का हुआ है। इसका लिखित साहित्य डेढ़ सौ साल पुराना है। इसमें कुछ पत्र-पत्रिकायें निकली और बंद हो गई। आज कोई नियत कालीन पत्रिका नहीं निकलती है। बघेली मध्य प्रदेश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में बी.ए. और एम.ए. में एक प्रश्न पत्र के रुप में पढ़ाई जाती है। अगर हमें पूर्वी हिन्दी की बोलियों के भविष्य के बारे में कुछ कहना हो तो यही कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ी की स्थिति सुदृढ़ है। अवधी जीवित है और बघेली अल्पविकसित रुप में है। अगर अवधी और बघेली के लिए प्रशासनिक स्तर से प्रयास नहीं किया गया तो वे जल्दी ही भारत की संकट ग्रस्त भाषाओं की सूची में शामिल हो जायेंगी।
संपर्क - डॉ. श्यामा सिंह, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी – उ. प्र. 


मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-7 (जुलाई-सितंबर 2014)                                                          ISSN   2320 – 835X
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