सोमवार, 24 नवंबर 2014

मुक्तिबोध की कविता और फैंटेसी का शिल्प - रीता दुबे




शिल्प की यह तलाश मुक्तिबोध के लिए आत्मसंघर्ष भी थी, उनकी मजबूरी भी और उनकी कला भी। फ्रायड फैंटेसी को दिवास्वप्न मानते हैं तथा उनके अनुसार खुश इंसान फैंटेसी कभी नहीं बनाता है केवल असंतुष्ट इंसान ही फैंटेसी का निर्माण करता है। अगर फैंटेसी के निर्माण सम्बन्धी इस मान्यता को सही मान लिया जाए तो मुक्तिबोध की वो असंतुष्ट इच्छाएं कौन सी थीं जिनके कारण उन्होंने अपनी कविता में फैंटेसी का निर्माण किया?  वो असंतुष्टी थी - पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव की, समाज की विसंगतियों की, उसके छल प्रपंच दोहरेपन की और भी बहुत कुछ।


 मुक्तिबोध की भावनात्मक उर्जा अशेष और अटूट थी,जैसे कोई नैसर्गिक अन्तः स्त्रोत हो जो कभी चुकता ही नहीं ,बल्कि लगातार अधिकाधिक वेग और तीव्रता के साथ उमड़ता चला आता है।इस आवेग के दबाव में वह लगातार लिखते चले जाते थे और उनकी यह ऊर्जा अनेकानेक कल्पना चित्रों, फैटेसियों का  आकार ग्रहण कर लेती थी[1]
      उपरोक्त पंक्ति में नेमिचन्द्र जैन जिस अशेष ऊर्जा की बात कर रहें हैं, उस ऊर्जा का प्रेरणा स्रोत था उनकी बेचैनी जो उन्हें गरीब फटे-हाल भूखे नंगे चेहरों के यथार्थ को देखकर होती थी। मुक्तिबोध जानते थे कि वर्तमान समाज चल नहीं सकता/पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकताफिर भी उन्हें आशा थी कि मेरी ज्वाला, जन की ज्वाला होकर एक/अपनी उष्णता से धो चले अविवेकलेकिन इस आशा और विश्वास के बाद भी उनका मन बेचैन रहता था और कशमकश का अनुभव करता था। मुक्तिबोध इस मिजाज से बाहर निकलना चाहते थे लेकिन उन्हें पता था की यह रास्ता आसान नहीं होगा तभी तो वो कहते हैं कि अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे /तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब /पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार।’’ मुक्तिबोध को लगने लगा था की कविता का तत्कालीन शिल्प उनकी जटिल अनुभूतियों को वहन  करने में सक्षम नहीं है इसलिए उन्होंने अपनी जटिल अनुभूति को पूर्णतया संप्रेषित करने के लिए उसके अनुरूप एक शिल्प की तलाश की। शिल्प की यह तलाश मुक्तिबोध के लिए आत्मसंघर्ष भी थी, उनकी मजबूरी भी और उनकी कला भी। फ्रायड फैंटेसी को दिवास्वप्न मानते हैं तथा उनके अनुसार खुश इंसान फैंटेसी कभी नहीं बनाता है केवल असंतुष्ट इंसान ही फैंटेसी का निर्माण करता है। अगर फैंटेसी के निर्माण सम्बन्धी इस मान्यता को सही मान लिया जाए तो मुक्तिबोध की वो असंतुष्ट इच्छाएं कौन सी थीं जिनके कारण उन्होंने अपनी कविता में फैंटेसी का निर्माण किया?  वो असंतुष्टी थी - पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव की, समाज की विसंगतियों की, उसके छल प्रपंच दोहरेपन की और भी बहुत कुछ।
फैंटेसी अपने मन की इच्छाओं को पूरी करने के लिए कल्पना द्वारा रची गई दुनिया है। मुक्तिबोध की फैंटेसी में तीव्र छटपटाहट दिखाई देती है। इस छटपटाहट का कारण है मानव समाज की विसंगतिया, अवसरवाद, स्वहित, स्वकल्याण। पूंजीवाद इन विसंगतियों के मूल में है। मुक्तिबोध ने समाज की विसंगति के इस यथार्थ को गहरे पकड़ा और अपनी कविता में व्यक्त किया लेकिन यह प्रस्तुतिकरण बौद्धिक न होकर भावुकतापूर्ण रहा जिसके कारण वो अपनी रचना में हमेशा बेचैन रहे। उनके मन के असंतोष के कारण उनमें हमेशा एक द्वंद्व चलता रहता था और इस द्वंद्व की मुक्ति की इच्छा ने उनसे फैंटेसी का निर्माण कराया। उनके अन्दर की बेचैनी ही उनकी कविता का बीज और फल दोनों है। जैसेजैसे मुक्तिबोध जटिल यथार्थ में प्रवेश करते जातें हैं वैसे-वैसे उनकी फैंटेसी भी जटिल होती जाती है। कहींकहीं उनकी कविता में  फैंटेसी का स्पर्श मात्र है, जैसे सूरज के वंशधर, जिन्दगी का रास्ता’, बारह बजे रात तथा कहीं उनकी कविता फैंटेसी व यथार्थ के मेल से तैयार हुई है मेरे सहचर मित्र’ ऐसी ही कविता है। कभी कभी फैंटेसी में रूपक व प्रतीक होते हैं सूखे कठोर नंगे पहाड़, ओ काव्यात्मन फणिधर, दिमागी गुहांधकार का ओरांगउटांग, ब्रह्मराछस। कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जो पूरी पूरी फैंटेसी हैं भविष्यधारा, अन्धेरे में, ‘चम्बल की घाटी में’ ऐसी ही कविताएं हैं। मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण कविता है चाँद का मुहं टेढ़ा है।’’  यह सन १९५३ के बाद लिखी गई जिसमें ५३ की घटना को फैंटेसी के माध्यम से कवि ने दिखाया है। चाँद का मुँह टेढ़ा है इस एक पंक्ति में ही मुक्तिबोध ने जिस फैंटेसी का निर्माण किया है वह अद्भुत है, चाँद  क्या है? यह प्रतीक है पूंजीवादी व्यवस्था का, शोषण तंत्र का जो भारत के सर्वहारा वर्ग के जागने से अपनी वैभवशाली स्थिति में अब नहीं रहा है। उसका सिंहासन डोल रहा है। मुक्तिबोध अपनी कविता में फैंटेसी रचकर सरकार व मिलमालिकों की कलई खोलते हैं तथा मजदूरों का समर्थन करते हैं।कविता में आये पेंटर और कारीगर मजदूरों के पक्ष में हैं और हड़ताल से सम्बंधित पोस्टर चिपका रहे हैं। लेकिन पूंजीवादी सभ्यता की खूंखार प्रतीक जंगली बिल्ली जिसके नाखून से हमेशा मजदूरों का खून बहता रहता है
“खून टपकाते हुए नाखून
देखती है माज़रा
चिपकाता कौन है
मकानों की पीठ पर
अहातों के भीतर”
वो देख रही है लेकिन इससे पोस्टर चिपकाने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे अपना काम कर रहें हैं। उन्हें आशा है कि इस रात की सुबह होगी। यही आशा उन्हें स्वप्न में ही सही अँधेरे मेंनामक  कविता में पूरी होती दिखाई देती है।
मुक्तिबोध की यह महत्वपूर्ण विशेषता रही है की उन्होंने ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान को कविता में एक साथ रखने पर बल दिया है, न केवल संवेदना से कुछ हो सकता है और न ही ज्ञान से, दोनों ही जरूरी हैं। एक साहित्यिक की डायरी में वह लिखतें हैं “फैंटेसी में संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना रहती है।”[2] इसी के साथ वे यह भी मानते हैं कि व्यक्तित्वांतरण के लिए चिंतन और कर्म, दोनों आवश्यक हैं। आचाररहित विचार का कोई मतलब नहीं है। अगर सिर्फ चिंतन किया जाए, कर्म नहीं तो स्थिति ब्रम्हराक्षस जैसी होगी
“बावड़ी में वह स्वयं
पागल वृतिकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ मर गया .......”

इसलिए मुक्तिबोध चाहते हैं कि “वेदना में हम विचारों के /गुथें तुमसे/बिंधे तुमसे।” जहाँ विचार भी हो और कर्म भी हो, नहीं तो स्थिति ‘अँधेरे में’ के उस कलाकार की तरह हो जायेगी जो कर्मरहित बुद्धिविवेक को महत्व देता है इसलिए असफल हो गया है। उनके ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ की एकता हमें ओ काव्यत्मन फणिधर नामक कविता में भी देखने को मिलती है। इस कविता के यथार्थ को देखकर बरबस ही निराला की देवीकहानी की याद आ जाती है। कहानी के पूरे गद्यात्मक चित्र को मुक्तिबोध ने पद्यात्मक भाषा में यहाँ लाकर रख दिया है। वही पागल स्त्री, वही स्तन, वही वासनाग्रस्त समाज और वही बालक। लेकिन वास्तव में यह बालक देवी के बालक से एक कदम आगे है। यह बालक इस कविता में अपने अंदर क्रान्ति का बीज छुपाए है। मुक्तिबोध के इस यथार्थ में भी जिस फैंटेसी की रचना हो रही है, वह अदभुत है। मुक्तिबोध की खूबी है कि वे कविता में फैंटेसी का इस्तेमाल करते हैं तो बिल्कुल यथार्थ की तरह उसका चित्रण करते हैं और यथार्थ का वर्णन करते हैं तो उसे फैंटेसी बना देते हैं उन्हीं की उक्ति है –“सत्य में स्वप्न स्वप्न में सत्य।”[3]
      मुक्तिबोध ने फैंटेसी के निर्माण में कला के तीन क्षणों का उल्लेख किया है – “कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपने आँखों के सामने खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णवस्था तक की गतिमानता। शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया के भीतर जो प्रवाह रहता है वह समस्त व्यक्तित्व और जीवन का प्रवाह रहता है।”[4]4
अब तक हमने देखा कि मुक्तिबोध की कविता में फैंटेसी का निर्माण कैसे हुआ तथा अब देखना यह है कि फैंटेसी की सार्थक अभिव्यक्ति के लिए उसमें किस तरह के बिम्बों, प्रतीकों व मिथकों का प्रयोग किया गया है। फैंटेसी एक कल्पना होती है इसलिए बिम्बों में ही इसकी अभियक्ति होती है। बिम्ब अमूर्त भावों का मूर्तन करते हैं जिसमें कलाकार जो कहना चाहता वह कह देता है। बिना बिम्बों के प्रयोग के फैंटेसी निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती है। विचार और भाषा के बीच की दूरी को फैंटेसी में  बिम्बों के प्रयोग से कम किया जाता है – “यह है अंधियारा कुआँ /करोंदी की झाड़ी / में छिपी हुई चौड़ी मुंडेर /अधटूटी सी /वीरान महक सूखीसूनी।” प्रस्तुत पंक्ति में अंधियारा कुआँ दिखाया गया है जो शून्यता का द्योतक है उसके बाद महक को ‘वीरान’ और सूखी सूनी’’ विशेषण देकर उस शून्यता को और भी गहराया गया है। उनके बिम्बों की ख़ास बात यह है कि ये बिम्ब भय, दहशत, आतंक, क्रान्ति और नीरवता के ज्यादा है।
मुक्तिबोध ने अपने फैंटेसी को और भी यथार्थपरक व संप्रेषणीय बनाने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया किया। अपनी फैंटेसियों के लिए इन्होंने कभी तो प्रतीकों की खोज की, तो कभी प्रतीकों में नया अर्थ भर दिया। लेकिन मुक्तिबोध के ज्यादा प्रतीक उनके व्यक्तिगत अनुभूतियों की उपज है। बरगद मुक्तिबोध की फैंटेसी का प्रिय प्रतीक है जो कभी ऐतिहासिक अनुभवज्ञानसंपन्न प्रतीक के रूप में आया है, तो कभी शोषितों के रक्षक के रूप में। ओरांगुटांग ब्रम्हराक्षस, घुग्घू, उल्लू, रक्तलोकस्नात पुरुष इसी तरह के उनके अपने खोजे गए प्रतीक हैं। मुक्तिबोध ने अपने प्रतीकों के सन्दर्भ में लिखा था कि ध्यान में रखने की बात है कि कोई प्रतीक तभी तक भावोत्तेजना  की शांति रखता है जब तक कि उसकी जड़ें सामाजिकसामूहिक अनुभवों की धरती में समाई हुई हैं। अन्यथा मात्र व्यक्तिगत धरातल पर तो हजारों प्रतीक खड़े किये जा सकतें हैं। मुक्तिबोध ने अपनी कविता में इस बात का ख्याल रखा है लेकिन कई बार उनके कई प्रतीक उनकी इस मान्यता का अतिक्रमण कर जाते हैं।
        इसप्रकार हम देखते हैं कि फैंटेसी के शिल्प में मुक्तिबोध किस तरह से निपुण थे। शायद इसीकारण फैंटेसी का प्रयोग और मुक्तिबोध, दोनों को एक दूसरे का पर्याय मान लिया गया है। उनके फैंटेसी के शिल्प में पूंजीवादी सभ्यता की आलोचना है। उनकी फैंटेसी एक विराट सांस्कृतिक सन्दर्भ है। और मुक्तिबोध के  शिल्प को समझने के लिए इसी सांस्कृतिक सन्दर्भ को जानना और पड़तालना होगा।
संपर्क - रीता दुबे, छात्रा, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।      
 (लेख में उद्धृत सारी कविताएं मुक्तिबोध रचनावली से ली गई हैं)



[1] मुक्तिबोध रचनावली, संपा. नेमीचंद जैन, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 18
[2] गजानन माधव मुक्तिबोध, एक साहित्यिक की डायरी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 23
[3] नंदकिशोर नवल, मुक्तिबोध की कविताएं : बिम्ब-प्रतिबिम्ब, प्रकाशन संस्थान, पृष्ठ संख्या 57
[4] गजानन माधव मुक्तिबोध, एक साहित्यिक की डायरी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 20

मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-7 (जुलाई-सितंबर 2014)                                                                              ISSN   2320 – 835X
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 

3 टिप्‍पणियां: