सारांश: सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
हिन्दी में प्रयोगवाद के प्रवर्तक
तथा तारसप्तक के संपादक के रूप में जाने जाते हैं। अज्ञेय का जन्म 7 मार्च, 1911 को देवरिया जिले में हुआ। इन्होंने संस्कृत, अरबी, फारसी की शिक्षा घर पर प्राप्त करने के बाद बी.एस.सी. की
तथा एम.ए. अंग्रेजी की पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता आन्दोलन में लग गए। अज्ञेय ने ‘दिनमान’,
‘प्रतीक’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। कई वर्षो तक विदेश में रहें और यूरोपीय देशों का भ्रमण करते हुए अध्यापन किया।
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए। बहुमुखी प्रतिभा के धनी अज्ञेय ने साहित्य की
लगभग सभी विद्याओं में लेखनी चलाई। इनकी रचनाओं में अनास्था, अहम्, अविश्वास, विद्रोह आदि की
प्रतिध्वनि नए प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से प्रभावी रूप में सामने आई। जीवन के
सत्य और स्वानुभूति के कवि अज्ञेय के काव्य का भावपक्ष एवं कला पक्ष समान रूप से
समृद्ध हैं। अप्रैल 1987 में हिन्दी साहित्य का यह दीप्तिमान नक्षत्र सदा के लिए
अस्त हो गया।
(सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन
‘अज्ञेय’)
आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत में
बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न विद्वान, प्रयोगवादी काव्य के जनक और तारसप्तक के संपादक
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन, ‘अज्ञेय’ के नाम से विख्यात हैं। ‘अज्ञेय’ इनका उपनाम है। सच्चिदानंद का जन्म फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, संवत् 1967 (विक्रमाब्द) तदनुसार 7 मार्च 1911 को उ.प्र. के देवरिया जि़ले
के कुशीनगर के खुदाई शिविर में हुआ। इनकी माता का नाम व्यंति देवी था और पिता श्री
हीरानंद शास्त्री भारत के पुरातत्त्व विभाग में उच्च अधिकारी थे। उनकी नौकरी में
स्थानांतरण होते रहने के कारण अज्ञेय जी का बचपन कई स्थानों की परिक्रमा में बीता।
कुशीनगर में जन्म, फिर लखनऊ, श्रीनगर
जम्मू घूमते- घामते परिवार के साथ 1919 में नालंदा पहुँचें। वहां इन्होंने हिन्दी
लिखना सीखा। 1929 में परिवार ऊँटी आ गया यहीं इनका यज्ञोपवीत कराया गया और ‘वात्स्यायन’
कुल नाम दिया गया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा भाषा, साहित्य, इतिहास और विज्ञान में घर पर ही आरंभ हुई।
1925 में इन्होंने मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा पंजाब यूनिवर्सिटी से दी इसके बाद
दो वर्ष मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज एवं तीन वर्ष फार्मन कॉलेज लाहौर में संस्थागत
शिक्षा पायी। वहीं बी.एस.सी और अंग्रेजी में एम.ए. की। “छात्र
जीवन में इनकी रूचि क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर हो गई। क्रांतिकारी दल में
सक्रिय भाग लेने के कारण ये बंदी बना लिए गए और कई वर्ष तक जेल में रहे। अपनी
आजीविका चलाने के लिए ‘अज्ञेय’ जी ने
कई प्रकार के कार्य किए। सन् 1936 में कुछ दिनों तक आगरे के प्रसिद्ध पत्र ‘सैनिक’ के संपादक-मंडल में नौकरी की। 1937 से 39 तक ‘विशाल
भारत’ के संपादकीय विभाग में रहे। सन् 1943 में सैन्य सेवा
में प्रविष्ट हुए और कप्तान नियुक्त होकर कोहिमा फ्रंट पर चले गए। 1946 में सैन्य
सेवा से मुक्त होकर ‘अज्ञेय’ जी शुद्ध
रूप से साहित्य सेवा में लग गए। आपने मेरठ, इलाहाबाद और अंत
में दिल्ली को केंद्र बनाया । सन् 1947 में इलाहाबाद से प्रयोगवादी पत्रिका ‘प्रतीक’ का संपादन किया। प्रतीक ने ही हिन्दी के
आधुनिक साहित्य की नयी धारा के लेखकों-कवियों को सशक्त मंच दिया और साहित्यिक
पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। सन् 1950 में आपने आकाशवाणी, दिल्ली में नौकरी की।
उसके बाद ‘अज्ञेय’ जी की देश और
देशान्तर की यात्राएँ आरंभ हुई। कुछ यात्राएँ अध्ययन के और कुछ अध्ययन के साथ-साथ
अध्यापन के निमित्त हुई। उन्होंने 1955 में यूनेस्को, 1957
में जापान और फिलीपीन की यात्रा की। 1960 में दूसरी बार यूरोप की यात्रा की। 1961
में कैलीफोर्निया गए। वहां भारतीय संस्कृतिक और साहित्य के अध्यापक होकर करीब 1964
तक रहे। ये रूस, मंगोलिया, रूमानिया
आदि भी गए। सन् 1965 से 1968 तक ‘दिनमान’ का संपादन किया कुछ समय बाद उसे भी त्याग दिया। 1971 में इन्हें जोधपुर विश्वविद्यालय
से तुलनात्मक साहित्य के आचार्य पीठ पर निमंत्रण मिला। जोधपुर विश्वविद्यालय में
आपने भाषा-विभाग के सम्मानित अध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया।1 1972 में स्व.
जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर ‘एवरीमेस’ अंग्रेजी साप्ताहिक का संपादन कार्य संभाला, परन्तु
1973 में उससे अलग होकर पुनः प्रतीक को ‘नया प्रतीक’ नाम देकर निकालना शुरू किया और अपना अधिक समय लेखन को देने लगे। साथ-साथ
सामाजिक दायित्व की पूर्ति हेतु अज्ञेय जी बर्हिमुख हुए और देश-विदेश में अनेक
व्याख्यान दिए। इन व्याख्यानों का संबंध अधिकतर भारतीय अस्मिता, भारतीय चेतना और भाषा संप्रेषण के उभरते हुए सवालों से था। इस अवधि में
कविता से अधिक वैचारिक गद्य की रचना हुई। सन् 1977 में जर्मनी से लौटने के बाद ‘नवभारत टाइम्स’ का संपादन किया और सत्ता की राजनीति
से अलग रहते हुए मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्वाह किया। अगस्त
उन्नीस सौ उन्नासी में नवभारत टाईम्प से भी अवकाश ग्रहण कर लिया। 1968 में अज्ञेय
जी को हिन्दी साहित्य सम्मेलन में ‘साहित्य वाचस्पति’
की मानद उपाधि से भूषित किया। ‘आँगन के पार
द्वार’ कृति के लिए ‘साहित्य अकादमी’
पुरस्कार मिला। भारत वर्ष का सर्वोच्च साहित्यिक ज्ञानपीठ पुरस्कार ‘कितनी नावों में कितनी बार’ नामक कृति पर आपको
प्रदान किया गया। 4 अप्रैल 1987 में हिन्दी साहित्य की प्रयोगवादी काव्यधारा का यह
दीप्तिमान नक्षत्र सदा के लिए अस्त हो गया।[1]
अज्ञेय
के जीवन के ये वर्ष जितने यायावर, जितने सक्रिय और जितने निरन्तर उमड़न-घुमड़न
और अमोघ वर्षण के रहें है उतना किसी एक व्यक्ति के जीवन में देख पाना ही बड़े
सौभाग्य की बात है। भारतीय साहित्य ऐसी प्रतिभा से आलोकित है, हम इस आलेक के साक्षी है। यह अपने आप में स्वयं गर्व की बात है। इस जीवन
के उपादान तत्वों पर जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि इसमें देश के कोने-कोने
की माटी की सुवास है, कई आकाशों की मेघवृष्टि है - कभी उधाम,
कभी झनकार, कभी हल्की फुहार। इसमें अनेक
स्नेहों का स्पर्श है, कई प्रकार के ताप हैं, कई आस्वाद हैं, कई गुंजे हैं। अज्ञेय जी सम्मानित-आलोकित
हुए पर हमेंशा चर्चाओं के घेरे में रहे। अज्ञेय जी का व्यक्तित्व अपना वैशिष्ट्य
रखता है। उन्हें जीवन में कुछ नये, कुछ सबसे नए का मोह रहा
है। इसीकारण इनकी बहुत सी बातों से असहमत होने के कारण लोगों ने इनका बहुत विरोध
किया। खासकर प्रयोगवाद के संदर्भ में आलोचकों ने ‘प्रयोग’
शब्द को लेकर इनकी आलोचना की। किन्तु अज्ञेय जी इसका खंडन करते हुए
कहते है कि - ‘‘प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है वरन् वह
दोहरा साधन है। एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है,
दूसरे वह उस प्रेषण क्रिया को और उसके साधनों को जानने का साधन है।”[2]
कविवर
‘अज्ञेय’ ने ‘प्रयोगवाद’ के शब्द का
प्रयोग नहीं किया है। वे बार-बार ‘प्रयोग’ का ही प्रयोग करते है, इस प्रयोग में उनका आग्रहवादी
दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है, इसी कारण, इस
समय की रचनाओं को प्रयोगवादी रचनाएँ कहा गया। चूंकि हिन्दी में ‘प्रयोग’ शब्द पाश्चात्य साहित्य से आया है तथा
पाश्चात्य काव्य-चिंतन ने साहित्य में वादात्मक चेतना को उद्भूत किया है। अतः इन
कवियों ने वहाँ के चिंतन से प्रभावित हो कर अपनी रचनाओं में ऐसे मूल्यों की
प्रस्तुति की है, जो कि अज्ञात है या ज्ञात में भी अज्ञात
है। अज्ञेय जी ने अपने को वादी नहीं माना है। उनका कहना है कि प्रयोगवाद कोई वाद
नहीं है। हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें कवितावादी कहना।
ऐसे
विरोधों के बावजूद अज्ञेय जी का महत्व इस बात में है कि वे विरोध को झेलने की और
उसे मुस्कारा कर टाल देने की अद्भूत क्षमता रखते थे। यद्यपि अज्ञेय की बहुत अधिक
आलोचना होने के कारण स्थिति विवादास्पद रही लेकिन हिंदुस्तानी लेखक यदि अपनी
मिट्टी से जुड़ कर लिखता है तो मानना चाहिए वह असली लेखक है। इसी दृष्टिकोण से
अज्ञेय जी के लेखन, उनकी रचनाओं को सभी ने गंभीरता से लिया और हिन्दी साहित्य जगत
में विशिष्ट स्थान भी दिया है। अज्ञेय जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनका
कृतित्व बहुमुखी है। साहित्य सृजन की प्रतिभा के लक्षण ‘अज्ञेय’
जी में छात्रावस्था से ही अंकुरित होने लगे थे। दस वर्ष की आयु में
कविता लिखने लगे थे। वे हस्त लिखित पत्रिका भी निकालते थे। वे हिन्दी और अंग्रेजी
दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखते थे। यह क्रम कविता से प्रारंभ होकर कहानी,
उपन्यास, निबंध, आलोचना
आदि सभी साहित्यिक रूपों को अपने कलेवर में समाविष्ट करने लगा। सन् 1924-25 में
इन्होंने एक अंग्रेजी उपन्यास लिखा और उसी वर्ष उनकी पहली हिन्दी कहानी
स्काउट-पत्रिका ‘सेवा’ में प्रकाशित
हुई। अज्ञेय विविध कलाओं में निपुण थे। उन्होंने देशी-विदेशी साहित्य का ही अध्ययन
नहीं किया अनेक प्रकार के व्यायामों और उद्योगों में भी वे दक्ष थे। हिन्दी,
अंग्रेजी के अतिरिक्त संस्कृत, तमिल आदि
भाषाओं के भी वे पंडित थे।
अज्ञेय
जी ने जीवन और जगत को अत्यंत निकट से देखा था। उनकी सूक्ष्म और गंभीर अनुभूतियां
साहित्य के माध्यम से अनेक रूपों में व्यंजित हुई हैं। अज्ञेय समर्थ कवि, श्रेष्ठ कथाकार और
कुशल निबंधकार है। इनकी लेखनी से हिन्दी साहित्य आकर्षक रूप से समृद्ध हुआ है।
इनकी प्रतिनिधि रचनाओं में ‘इत्यलम’, ‘हरी
घास पर क्षण भर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘पूर्वा’,
‘इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये’, ‘अरीं! औ करूणा
प्रभामय’, ‘आंगन के पार द्वार’, ‘कितनी
नावों में कितनी बार’, ‘चिंता’, ‘क्योंकि
मैं उसे जानता हूं’ और ‘सागर मुद्रा’ आदि प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ है। ‘नदी के द्वीप’,
‘शेखरः एक जीवनी’ ‘और अपने-अपने अजनबी’ तीन प्रसिद्ध उपन्यास हैं। ‘जयदोल’,
‘कोठरी की बात’, ‘परंपरा’, ‘विपथगा’ और ‘शरणार्थी’ कहानी संग्रह हैं। ‘अरे! यायावर याद रहेगा’,
‘एक बूंद सहसा उछली’, ‘अंतरा’, ‘संवत्सर’ और ‘त्रिशंकु’ प्रसिद्ध निबंध और यात्रा वृतांत हैं। ‘उत्तर
प्रियदर्शी’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं’, ‘महावृक्ष के
नीचे’, ‘नदी की बांक पर छाया’, ‘ऐसा
कोई घर आपने देखा है’ आदि नीति नाट्य है। ‘तार सप्तक’, ‘दूसरा
सप्तक’, ‘तीसरा सप्तक’ और ‘चौथा सप्तक’ का इन्होंने संपादन
किया। यद्यपि उनकी रचनाएँ साहित्य की विभिन्न विद्याओं में देखने को मिलती हैं
लेकिन अज्ञेय जी का महत्त्व काव्य के क्षेत्र में विशेष है। अज्ञेय जी प्रयोगवाद
और नई कविता के प्रवर्तक हैं। “अधिकांश विद्वान-समीक्षक अज्ञेय को इसका प्रवर्तक
मानते है तथा तार सप्तक के प्रकाशन वर्ष से प्रयोगवाद का प्रारंभ स्वीकारते है।”[3]
तार
सप्तक की रचनाओं और उससे आगे रचित कविताओं को प्रयोगवादी इसलिए माना गया, क्योंकि अज्ञेय ने
इन कविताओं के संदर्भ में बार-बार ‘प्रयोग’ शब्द का व्यवहार किया है। अज्ञेय ने लिखा है कि “प्रयोग
सभी कालों के कवियों ने किए हैं। यद्यपि किसी एक काल में किसी विशेष दशा में
प्रयोग करने की प्रवृति स्वाभाविक ही है, किन्तु कवि क्रमशः
अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं उनसे आगे बढ़कर अब उन
क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए। जिन्हें अभी नहीं छुआ गया या अभेद्य मान लिया
गया है।”[4]
अज्ञेय
की प्रयोग-भावना से अनुप्राणित अधिकंश कविताएँ तारसप्तक में ही संकलित हैं। अज्ञेय
मूलतः प्रेम और प्रकृति के साधक कवि हैं। संवेदनशीलता और चिंतन प्रधान
विचारात्मकता इनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इनके काव्य की अनुभूति की गहनता
और अभिव्यक्ति की तरलता पाठक को प्रबल रूप से प्रभावित करती है। शहरी और ग्रामीण
जीवन की सहज चेतना इनके काव्य का शृंगार बनी है। अज्ञेय का प्रतिपाद्य बहुत ही
व्यापक है। उन्होंने व्यक्ति की चेतना, अहम्, सौंर्यबोध
और यौन-कुण्ठाओं को व्यक्त किया है। उनकी व्यक्ति चेतना ने अहम्वाद को जन्म दिया
और इससे नियतिवादी और क्षणवादी चेतना उभर कर सामने आई। इनकी कविता पर
मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद, अतियथार्थवाद,
मानवतावाद, परिलक्षित होता है। डॉ. नगेन्द्र
इनकी कविता पर मनोविश्लेषणवाद के प्रभाव को मानते हुए लिखते है कि “मनोविश्लेषणशास्त्र के प्रभाववंश अवचेतन का अध्ययन इनकी कविता का मुख्य
विषय है। अवचेतन की काम-कुण्ठाओं का प्रतीकों द्वारा यथातथ्य चित्रण अज्ञेय में अत्यंत
स्पष्ट है।”[5]
अज्ञेय
की यह मनोविश्लेशनात्मक पद्धति काव्य में ही नहीं उपन्यास में भी देखने को मिलती
है। ‘शेखरः एक जीवनी’ उपन्यास इस कोटि के उपन्यासों में अग्रगण्य है। शेखर के विषय
अज्ञेय स्वयं कहते हैं - “शेखर कोई बड़ा आदमी नहीं है। वह अच्छा आदमी भी नहीं है,
लेकिन वह मानवता की संचित अनुभूतियों के प्रकाश में ईमानदारी से
अपने को पहचानने की कोशिश कर रहा है। वह जागरूक, स्वतंत्र और
ईमानदार है।”[6]
अज्ञेय ने मनोविश्लेषनात्मक पद्धति से शेखर के व्यक्तित्व को
देखा-परखा है।
अज्ञेय
की मनोविश्लेषनात्मक रचनाओं में अनास्था, अहं, अविश्वास,
विद्रोह आदि की प्रतिध्वनि नए प्रतीकों और नए बिंबों के माध्यम से
प्रभावी रूप में सामने आई है तो इसके विपरीत नई कविता की अनेक विशेषताएँ जैसे
आस्था, विश्वास का स्वर, व्यष्टि और
समष्टि की भावना, व्यंग्य आदि अज्ञेय के काव्य में सहज
प्राप्त है। कवि में बौद्धिक पक्ष की प्रधानता है जो आधुनिक कविता में सर्वत्र
लक्षित है नई कविता के शिल्प पक्ष को कवि ने नए उपमानों, बिंबों,
प्रतीकों एवं शब्दों से विकसित किया है।8 यथा -
1- आस्था और विश्वास-
“आस्था कांपे, मानव फिर मिट्टी का देवता
हो जाता है”
2- व्यंग्यात्मक चित्रण-
“सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होंगे,
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया,
एक बात पूछूं! उत्तर दोगे!
फिर कैसे सीखा डसना,
विष कहाँ पाया।”[7]
3- व्यक्तिक चेतना, अहंवाद और स्वरति
-
“अहं अंतर्गुहावासी स्वरति
क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह
जानता क्या नहीं निज में बद्ध होकर है
नहीं निर्वाह”[8]
4- व्यष्टि चेतना और अस्तित्ववाद -
“हम नदी के द्वीप हैं
स्थिर समर्पण है हमारा
फिर छनेंगे हम कहीं फिर पैर टेकेंगे
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व
का आकार।”[9]
5- व्यष्टि और समष्टि की भावना व लघु मानव
की प्रतिष्ठा
“यह द्वीप अकेला स्नेहभरा
है गर्व भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति दे दो।”[10]
6- नए प्रतीक, उपमान, बिंब,
नए शब्दो का समर्थन -
“अगर मैं तुमको ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
या शब्द के भोर की नीहार न्हाई कुंई
टटकी कली चम्पे की
वगैरह अब नहीं कहता ।
तो नहीं कारण कि मेरा हृदय
उथला या कि शून्य है।
देवता अब इन प्रतीकों के कर गए हैं
कूच
कभी वासन अधिक घिसने से मुल्लमा छूट
जाता है।”[11]
अज्ञेय जीवन के सत्य और स्वानुभूति के
कवि है। अनूभूति और अभिव्यक्ति संदर्भ का कथन दर्शनीय है-
“मौन भी अभिव्यंजना है-
जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो।”[12]
इनके काव्य का भाव पक्ष और कला पक्ष समान रूप से समृद्ध है।
इनके आरंभिक काव्यों में छायावाद और रहस्यवाद का समन्वित रूप मिलता है। इनके काव्य
में पौरूष और ओजस्विता की भावना के भी दर्शन होते है, राष्ट्रीय चेतना
और मानवतावादी भावना की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। इनकी रचनाओं में जीवन की
गहन अनूभूतियों को अनुभव किया जा सकता है। इनका काव्य मुक्तव काव्य है।
इनके
वर्ण्य विषय नाना प्रकार के है। स्थूल रूप में देखा जाए तो उनके काव्य में जो
खासपन या नयापन है, वही उनके काव्य को परंपरावादी काव्य से भिन्न करता है। उनकी
कविता में उनके अपने एक व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति मिलेगी। यह अभिव्यक्ति
उनके संपूर्ण कृतित्व में भी नज़र आती है। चाहे वह ‘शेखर एक जीवन’ उपन्यास हो, यात्रा वृतान्त हो,
नाटक हो, कहानी हो या निबंध।
निष्कर्षतः
कहा जा सकता है कि प्रकरण के अनुसार इसके काव्य में बहुत विविधता है। इनके काव्य
में जहां घोर व्यक्तितवाद है वहीं व्यष्टि और समष्टि का समन्वय भी है। जहां
निराशावाद,
संत्रास, कुंठा और घुटन इनके काव्य में दिखाई
देती है वहीं इनका काव्य रूढ़ी के विरोध और नवीनता के मोह के साथ प्रणयानुभूति एवं
क्षणानुभूति को महत्त्व देते हुए जीवन को पूर्णता से जीने का आग्रह करता दिखाई
देता है। अज्ञेय की प्रयोगवादी कविता में अति बौद्धिकता है तो क्रांति का स्वर भी
सुनाई देता है। इसी प्रकार नए के आग्रह को प्रयोगवादी अज्ञेय ने तारस्पतक की
भूमिका में स्वयं स्वीकार किया है। वे अपने को राहों का अन्वेषी कहते हैं। उस
प्रयत्न में उन्हें नए की खोज करनी है और प्राचीन से हटना है। इसलिए वस्तु की
नवीनता के साथ-साथ शिल्प की नवीनता भी अज्ञेय के काव्य की विशेषता है। इन्होंने
भाषा, बिंब, प्रतीक और अलंकार आदि सभी
क्षेत्रों में नवीनता का ध्यान रखा है। इसका वर्णन उन्होंने ‘कलगी बाजरे की’ नामक कविता में स्वयं किया है। इस
प्रकार अभिव्यक्ति के लिए अज्ञेय ने कई विधाओं, कई कलाओं और
भाषाओं का प्रयोग करते हुए कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा-वृतान्त,
वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्म चिंतन, अनुवाद, समीक्षा
और संपादन के रूप में अपने कृतित्व को समृद्ध किया।
संपर्क - डॉ. रश्मिप्रभा, सह-प्रवक्ता,
कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र -
136119, ईमेल पता - rshmprabha@gmail.com
(नयी कहानी आंदोलन का प्रतिनिधी संकलन)
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