सोमवार, 24 नवंबर 2014

रोप रही है अपना पहाड़-सा दुख, सुख की लहलहाती फसल के लिए - डॉ. मनीष कुमार




पुतुल की कविता में आदिम लोक की पुनर्रचना है, जो आज के सर्वग्रासी उत्तर आधुनिकता के दौर में विलीन हो जाने के कगार पर है। पुतुल ने अपनी कविताओं में तीन-चार तथ्यों को प्रमुख आधार दिया है, जिनमें स्त्री होने के कारण लैंगिक आधार, आदिवासी होने के कारण जातीय आधार, एक विशेष परगना (संताल) से संबंद्ध होने के कारण उनकी कविताओं का देशगत आधार तो है ही, और बाहरी दुनिया का आदिवासी लोगों की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप भी एक आधार है। इन आधारों से उनकी कविता की संवेदना निर्मित हुई है।

 
दिवासी साहित्य अन्य साहित्यों की तरह जीवन और जीवन के यथार्थ का साहित्य है, कल्पना पर आधारित नहीं। आदिवासी साहित्य में इसलिए जीवन, शैली, मिथक, समस्याएँ, पीड़ा, और शोषण पर अत्यधिक बल दिया गया जाता है। साहित्य रचना उसने अपनी ही भाषा में की है। अपने अस्तित्व की लड़ाई वह अपने साहित्य के माध्यम से लड़ रहा है। निर्मला पुतुल की कविताएँ मूलतः संताली भाषा में लिखी गई है, उनका हिन्दी में अनुवाद अशोक सिंह ने किया है। पुतुल की कविता में आदिम लोक की पुनर्रचना है, जो आज के सर्वग्रासी उत्तर आधुनिकता के दौर में विलीन हो जाने के कगार पर है। पुतुल ने अपनी कविताओं में तीन-चार तथ्यों को प्रमुख आधार दिया है, जिनमें स्त्री होने के कारण लैंगिक आधार, आदिवासी होने के कारण जातीय आधार, एक विशेष परगना (संताल) से संबंद्ध होने के कारण उनकी कविताओं का देशगत आधार तो है ही, और बाहरी दुनिया का आदिवासी लोगों की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप भी एक आधार है। इन आधारों से उनकी कविता की संवेदना निर्मित हुई है। निर्मला ने अपने कविता संग्रह की पहली कविता की शुरूआत में ही आदिवासी स्त्री की समस्या को सामने खड़ा कर दिया है। स्त्री के अस्तित्व और उसके कष्टमय जीवन को सामने रखा है। स्त्री संवेदना के धरातल पर पुतुल की कविताएँ अपनी जमीन, अपना घर, अपने होने का अर्थ तलाशती बेचैन स्त्री की दास्तान है। एक कविता के कुछ अंश -
घर, प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन,
के बारे में बता सकते हो तुम?
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है, एक स्त्री?[1]1

आदिवासी स्त्री को चाहे आदिवासी पुरुष हो या दिकू पुरुष, प्रत्येक उपभोग की वस्तु समझता है, अत: आप  लिखती हैं -
अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोइ और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...................?[2]2

हर जगह आदिवासी स्त्री के ऊपर संकट बना रहता है, उसे स्त्रीत्व के गुणों की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। बाहरी दुनिया उसे हेय दृष्टि से देखती है और उसके ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाती है। उसे निर्मला पुतुल ने कविता की इन पक्तियों के माध्यम से व्यक्त किया है -
क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण?
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा?[3]3

संताली भाषा की कवयित्री पुतुल की कविताएँ उन निगाहों को पहचानती हैं, जो आदिवासी स्त्रियों को वस्तु में बदलने को आतुर हैं। यही शक्तियां, यही निगाहें आदिवासी समाज को सस्ता मजदूर बनाकर उनकी संस्कृति, भाषा, जल, जंगल, और जमीन को हथिया कर, उन्हें पलायन के लिए मजबूर करती हैं। निर्मला अपने समाज की विकृतियों से भी टकराती हैं, जब वे सजोनी किस्कू की व्यथा-कथा कहती हैं या चुड़का सोरेन के पिता को हंडिया पीकर बेखबर होने के खतरों से सचेत करती हैं -     
देखो तुम्हारे ही आंगन में बैठे
तुम्हारे ही हाथों बनी हंडिया
तुम्हें पिलाकर
कोई कर रहा है तुम्हारी बहनों से ठिठोली[4]4

पुतुल एक कविता की अंतिम पंक्तियों में बाहरियों के प्रति अपने लोगों को सचेत करती हैं -
ये वे लोग हैं
जो हमारे ही नाम पर लेकर गटक जाते है
हमारे ही हिस्से का समुद्र[5]5

आदिवासी स्त्रियों की स्वतंत्रता को मैदानी लोग स्वछंदता मान कर उन्हें कुत्सित नजरों से देखने लगे, जिससे झारखंड में स्त्रियों की नृत्य में भागीदारी पर कई जगह आदिवासियों ने रोक लगा दी। इस प्रकार नृत्य में स्त्री की साझेदारी जो उनकी संस्कृति का एक अनिवार्य अंग थी, पहचान का प्रतीक थी, पर भी बंदिशे लगने लगी। उनकी स्त्रियों को बहका और लालच देकर हथियाया जाने लगा और आदिवासी मूल्यों में पतनशीलता घर करने लगी। किंतु भोली-भाली आदिवासी स्त्रियों को बाहरी दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इसके बारे में पुतुल लिखती हैं –

उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनिया
उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएँ
शामिल हैं इस दुनिया में। नहीं जानतीं वे
वे नहीं जानती कि
कैसे पहुँच जाती है उनकी चीजें दिल्ली
जबकि राज मार्ग तक पहुँचने से पहले ही
दम तोड़ देती उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ
नहीं जानती कि कैसे सूख जाती है
उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ
तस्वीरें कैसे पहुँच जाती है उनकी महानगर
नहीं जानतीं वे! नहीं जानतीं वे![6]6

      पुतुल की कविता वहाँ विशिष्टता को प्राप्त करती है जहाँ पर वे अपनी लैंगिक असमानता वाले अनुभवों के साथ जातिगत भेदभाव और देशगत सीमाओं को मिलाती हैं। पुतुल ने आदिवासी स्त्री के शोषण को भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखाया है, जैसे -
तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते है पेट हजारों
पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट
जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं से आते है कचरे तुम्हारी बस्तियों में ?
इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर रहते
कितने सीधी हो बाहा मुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहाँ तक जाती है तुम्हारी नजर
वहीं तक समझती हो अपनी दुनिया
जबकि तुम नहीं जानती कि तुम्हारी दुनिया जैसी
कई-कई दुनियाएँ शामिल है इस दुनिया में
नहीं जानती
कि किन हाथों से गुजरती
तुम्हारी चीजें पहुँच जाती है दिल्ली
जबकि तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर है अभी दुमका भी![7]7

      निर्मला पुतुल जी ने चुड़का सोरेनकविता में दिखाया है कि किस प्रकार शहरी लोग आदिवासियों को देखते हैं। पुलिस जो रक्षक का काम करती है, वह भी आदिवासी स्त्रियों के साथ भक्षक के रूप में व्यवहार करती है -

मैंने देखा था चुड़का सोरेन!
....................................................
बजार ले जाकर बेचते हुए तुम्हारी माँ को भी
हजार-हजार कामुक आँखों और सिपाहियों
के पंजे झेलती[8] 8
     पुतुल इसी कविता में आगे आदिवासी समाज के लोगों को सचेत करती है और कहती है कि शहरी लोग किस दृष्टि से तुम्हारे बच्चों और पत्नी को देखते है, जरा गौर से देखो और उनसे सचेत रहो। बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार उठकर रसोई में जाते -
उस आदमी की मंशा पहचानों चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी औरत से गुपचुप बतियाते बात-बात में दाँत निपोर रहा है
वह कौन-सा जंगली जानवर था चुड़का सोरेन
जो जंगल लकड़ी बीनने गयी तुम्हारी बहन मुँगली को उठाकर ले भागा?[9]9
पुतुल जी ने कविता में दिखाया है कि आदिवासी समाज के कुछ लोग दूसरे आदिवासियों का शोषण करते है, पैसे व दारू के नाम पर आदिवासी स्त्रियों को बेच देते है। बाहरी लोग किस प्रकार स्त्रियों को पैसे के बदले खरीद कर उनका शारिरिक, मानसिक एवं आर्थिक शोषण करते है -                
कैसा बिकाऊ है तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ एक बोतल विदेशी दारू में रख देता है
पूरे गाँव को गिरवी
और ले जाता है कोई लकड़ियों के गट्ठर की तरह
लादकर अपनी गाडि़यों में तुम्हारी बेटियों को
हजार पाँच-सौ हथेलियों पर रखकर
पिछले साल
धन कटनी में खाली पेट बंगाल गयी पड़ोस की बुधनी
किसका पेट सजाकर लौटी है गाँव?[10] 10

निर्मला पुतुल जी ने दिकूओं के छल-बल को भी इस कविता में दिखाया है। किस प्रकार दिकू लोग आदिवासी महिलाओं को बहला-फुसलाकर उनसे शादी करते हैं और बाद में उनको छोड़ देते हैं। उनकी जिंदगी के साथ खेलते हैं। दिकू लोग पढ़ाई का सपना दिखाकर आदिवासी लड़कियों को दिल्ली ले जाते है, फिर उनके साथ कुछ दिन आनंद के साथ रहकर, बाद में उनको पैसे के बदले बेच देते हैं, जैसे -
कहाँ गया वह परदेसी जो शादी का ढ़ोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में तुम्हारी बहन के साथ
साल-दो साल रहकर अचानक गायब हो गया?
उस दिलावर सिंह को मिलकर ढूँढ़ो चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ाने-लिखाने का सपना दिखाकर दिल्ली ले भागा
और आनंद-भोगियों के हाथ बेच दिया।[11]11
*      *      *
अपने ही बीच की उस कई-कई ऊँची सैंडिल वाली
स्टेला कुजूर को भी
जो तुम्हारी भोली-भाल बहनों की आँखों में
सुनहरी जिंदगी का ख्वाब दिखाकर
दिल्ली की आया बनाने वाली फैक्ट्रियों में
कर रही है माल की तरह सप्लाई
उन सपनों की हकीकत जानो चुड़का सोरेन
जिसकी लिज-लिजी दीवारों पर पाँव रखकर
वे भागती है बेतहाशा पश्चिम की ओर![12] 12
*      *      *
बचाओं अपनी बहनों को
कुँवारी माँ बनी पड़ोस की उस शिलवंती के मोहजाल से
पूरी बस्ती को रिंझाती जो
बैग लटकाये जाती है बाजार
और देर रात गये लौटती है
खुद को बेचकर बाजार के हाथों[13]13

निर्मला पुतुल जी ने अपनी कविताओं में दिखाया है कि आदिवासी स्त्री को सिर्फ उपभोग की वस्तु समझा जाता है। घर, परिवार, समाज और देश के सभी लोग उसे अपने-अपने हिसाब से उपभोग करते हैं। किसी के लिए वह तकिया, अरगनी, डायरी, दीवार है तो किसी और के लिए चादर है। जिसे अपनी सुविधा और रूचि के अनुसार प्रयोग में लाया जाता है।
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
              एक तकिया
              कि किसी से थका-माँदा आया
              और सिर टिका दिया
              कोई खूँटी
              कि ऊब उदासी थकान से भरी
              कमीज उतारकर टाँग दी
              या आँगन में तनी अरगनी
              कि घर-भर के कपड़े लाद दिये
              कोई डायरी
              कि जब चाहा
              कुछ न कुछ लिख दिया
              खामोश खड़ी दीवार
              कि जब जहाँ चाहा
              कील ठोक दी
              या कोई चादर
              कि जब जहाँ जैसे-तैसे
              ओढ़-बिछाली?[14] 14

निर्मला पुतुल ने अपनी संवेदनशीलता का विस्तार करते हुए प्रकृति को भी एक स्त्री के तौर पर देखते हुए उसके दुःखों की कहानी कही है। बूढ़ी पृथ्वी का दुखएक ऐसी ही असाधारण कविता है जिसमें वे बेहद सहजता से हमसे पूछती है कि-
क्या तुमने कभी सुना है
कि सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से
पेड़ों की चित्कार?
बचाव के लिए पुकारते हजारों-हजार हाथ?
सुना है कभी
रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुँह ढाँप
किस कदर रोती हैं नदियाँ ?
खून की उल्टियाँ करते
देखा है कभी हवा को अपने घर के पिछवाड़े?
थोड़ा सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी
कभी शिकायत न करने वाली
गुमसुम बूढ़ी पृथ्वी से उसका दुख?[15] 15

इस पूरी कविता में प्रकृति आदिवासी समुदाय से जुड़ी है। यह समुदाय प्रकृति को अपना सहचर मानता है, इसलिए प्रकृति का दुख उसका अपना दुख है। इसी बात को ग्रेस कुजूर कहती है -
.........इसलिए फिर कहती हूं
न छेड़ो प्रकृति को
अन्यथा यह प्रकृति करेगी भयंकर बगावत
और तब न तो तुम होंगे न हम होंगे![16] 16

पुतुल ने आदिवासी समाज की स्त्री की जिंदगी के संघर्ष को रूपायित किया है, कि स्त्री का जीवन कितना संघर्षमय है, कि उस संघर्ष में उसका साथ कोई नहीं देता है और वह दिन-रात मेंहनत करके अपना और घर-परिवार का जीवन-यापन करती है। जीवन में हजारों कष्ट सहन करती हुई अपने बच्चों व पति को खुश रखना चाहती है। पुतुल जी लिखती है-
वह जो सर पे सूखी लकडि़यों का गट्ठा
लादे पहाड़ से उतर रही है
पहाड़ी स्त्री
अभी-अभी जाएगी बाजार
और बेचकर सारी लकडि़याँ
बुझाएगी घर-भर के पेट की आग
धान रोपती पहाड़ी स्त्री
रोप रही है अपना पहाड़-सा दुख
सुख की एक लहलहाती फसल के लिए[17] 17

पुतुल जी ने अपनी कविताओं में यह भी दिखाया है कि एक आदिवासी हो या कोई दूसरे समाज की स्त्री हो, जब उसका पति घर से बाहर कमाने के लिए चला जाता है तो उसके ऊपर समाज के लोगों की नज़र किस तरह की होती है। इसे कविता के इस भाग में दिखाया गया है-

गाँव - घर का हाल तो जानते ही हो
जिसका मरद साथ नहीं होता
उसे कैसे-कैसे सताते हैं
गोतिया-भाप आस-पड़ोस के लोग[18] 18

निर्मला जी बाहरी लोगों के बारे में आदिवासी समाज व स्त्री को समझाती हैं और लोगों को सचेत करती हुई कहती हैं कि बाहरी लोग हमारी स्त्रियों व धरती माँ से बलात्कार करते हैं, और फिर हम से ही बदसलूकी करते है। हमारी जमीन को कोड़ी के दामों पर खरीदकर हमसे हमारी औकात पूछते हैं -
ये वे लोग हैं
जो हमारे बिस्तर पर करते हैं
हमारी बस्ती का बलात्कार
और हमारी ही जमीन पर खड़े हो
पूछते हैं हमसे हमारी औकात![19] 19

पुतुल बाहरी लोगों की नियत को साफ करते हुए कहती है कि ये लोग लोगों को धन और शहरी वस्तुओं का लोभ देकर हम आदिवासियों की नंगी-तस्वीरें खींचते है। हमारी मिट्टी का सौदा कर हमें अपनी जमीन से बेदखल कर रहे हैं। हमारी संस्कृति से हमें अलग करके हमारी संस्कृति को समाप्त कर रहे हैं -
ये वे लोग है जो खींचते हैं
हमारी नंगी-अधनंगी तस्वीरें
और संस्कृति के नाम पर
करते हमारी मिट्टी का सौदा
उत्तार रहे हैं बहस में हमारे ही कपड़े

                                             
संपर्क -  डॉ. मनीष कुमार, भाषा अध्ययन शाला, डॉ. हरिसिंह गौर केन्द्रीय वि.वि.,सागर, म0प्र0 470003, दूरभाष -  9425478745, 09450095569                       
ई-मेंल, - manish09bhu@gmail.com
               




[1] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.7
[2] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.8
[3] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.8
[4] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.19
[5] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.53
[6] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.11

[7] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.12-13
[8] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.19
[9] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.19-20
[10] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 20-21
[11] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 21
[12] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 21
[13] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ.28-29
[14] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 31
[15] समकालीन आदिवासी कविता, सं0  हरिराम मीणा, अलख प्रकाषन, जयपुर 2013 पृ. 25-26
[16] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 36
[17] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 41
[18] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 54
[19] नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृ. 53

मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-7 (जुलाई-सितंबर 2014)                                                                                                            ISSN   2320 – 835X
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 

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