सोमवार, 24 नवंबर 2014

तारीख की इबरत - लोककवि पं. लखमीचंद - राजेश कुमार



लखमीचंद ने 19 सांगों की रचना की थी, वे हर उम्र के लोककवि थे। अपने श्रोता वर्ग की अभिरूचि का पूरा ध्यान रखकर गायन प्रस्तुत करते थे। इसलिए उन्होंने अपने द्वारा गाई गई एक रागनी कभी दोबारा उसी रूप में नहीं गाई। लोक कल्याण और शिक्षा का एक प्रकाश उनके सांगों से निकलने लगा था। इस लोककवि ने जनता के समक्ष ऐसी बातें प्रस्तुत कीं जिससे लोगों के अनुभवों में वृद्धि एवं सामाजिक प्रगति हो।
            अपने सांग गायन के प्रारम्भ काल में उन्होंने विषय वस्तु के रूप में प्रेम,  श्रृंगार व सौन्दर्य को लिया पर बाद के सांगो में जन साधारण को शिक्षा देती धार्मिक प्रवृत्ति प्रधान विषय वस्तु देखने को मिलती है। इस प्रकार प्रेम भरी कहानियाँ व धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति उनके काव्य में प्रमुखता से लक्षित की जा सकती है परन्तु लोक नीति हर स्थान पर मिलेगी, प्रत्येक प्रसंग में मिलेगी।


 सांनामक लोक नाट्य हरियाणा व पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की सांस्कृतिक परंपरा में प्रमुख स्थान रखता है। इसमें संगीत, कथा गायन एवं इन दोनों के अनुरूप फन उठाए नाग की तरह कसी हुई देह से किया जाना वाला लोक नृत्य दर्शकों पर जादू सा असर करता है। इसी सांग परंपरा में पंडित लखमीचन्द बेजोड़ स्थान रखते हैं। वे अनपढ़ थे, इसे उन्होंने स्वयं कई बार कहा है-
‘‘लखमीचंद कोन्या पढ़ रहया सै, दया गुरु की दिल बढ़ रह्या सै’’ या
“लखमीचंद सतगुरु की सेवा कर कोए कोए अक्षर पढग्या
दस डण्डे रहे लाग कमन्द कै पकड़ के ऊपर पढग्या’’[1]

परन्तु वे प्रतिभा व अनुभव के बड़े धनी थे। ज्ञान अक्षरों से परे के साधनों से भी कमाया जा सकता है और लखमीचन्द इसके प्रमाण थे। लोक जीवन की गहरी पैठ उनके काव्य में हमें दिखाई देती है। लोकजीवन की मौज मस्ती के साथ खेतीहर समाज की देह तोड़ मेहनत का चित्रण भी इन सांगों में हुआ है। कृषक स्त्री की दीन-हीन दशा भी यहाँ यथार्थ रूप में सामने हैं-
‘‘मनैं रंजोगम के प्याले पीए, मेरी मरती की दया लीए।
मेरे राम किसे नै मत दीए, इन बीरां (स्त्री)  का जून (जन्म) ।
निगोड़े ईखड़े तनैं घणी सताई रे।।
पीस और पोकै खुवावणा, दिन भर ईख नुलावणा।
सांझ पड़े घर आवणा, गया सूख बदन का खून।
निगोड़े ईखड़े तनैं घणी सताई रे।।’’[2]

जन्म, मरण, यौवन, विवाह, मृत्यु उपरांत देह का अन्तिम संस्कार आदि के मार्मिक वर्णन तथा त्यौहार, रीति-रिवाज, कृषि-कार्य, वेश-भूषा, साज-सज्जा, घरों के ढांचे, नृत्य गायन, वाद्य, चोरी, जारी, डकैती, हत्या, छल, कपट, जुआ, रिश्वतखोरी, पाप-पुण्य आदि की धारणाएँ, भक्ति, प्रेम, ईर्ष्या, आतिथ्य सत्कार आदि का वर्णन भी उनके सांगों की विषय वस्तु में समाया हुआ है। किसान की साधारण आकांक्षाएँ भी इन सांगों में उपमाओं के माध्यम से व्यक्त हुई है-
‘‘जैसे जमींदार (साधारण किसान)  नै आशा साढ़ में कद पिछवा का मींह आवै।’’[3]
लखमीचंद ने अपने सांगों में भाषा एवं सटीक शब्द-चयन के माध्यम से पात्रों की भाव-भंगिमाएँ, एक-एक क्षण की मंजर निगारी (बिम्ब योजना) किसी विरले चित्रकार की तरह उकेर कर श्रोताओं के सामने रख दी है-
‘‘ब्याहली बहू ने ले के चाल्या, चलता कर दिया जहाज,
झमाझम होर्यी पाणी पै।..
उनकी नजर मिलै थी कैसे, दोनूं बात करै थी ऐसे।
जैसे अम्बर में करके कला, झगड़ रहे दो बाज,
तीसरी एक ज्यान बिराणी पै।”[4]

इसमें मन के आंरिक भाव प्रकृति के गतिशील बिंबों के माध्यम से व्यक्त हुए हैं क्योंकि इस सांग की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त एक गुलाम की यह खुशी उसके संयोग से हो गए विवाह के उपरांत की है जिसमें प्रकृति भी उसकी प्रसन्नता में शामिल है।
लखमीचन्द का जन्म हरियाणा प्रांत के सोनीपत जिले (तात्कालीन पंजाब के रोहतक जिले) के सिरसा जांटी कलां गाँव में 1903 ई. में हुआ था और सन् 1945 में उनका देहांत हो गया था।  वे जाति से गौड़ ब्राह्मण थे- ‘‘लखमीचन्द गौड़ ब्राह्मण जात’’[5]
अपने गुरू के नाम की तरह अपने गाँव पर उन्हें बड़ा गर्व रहा-
‘‘मेरा गाम सै सिरसा जाटी, मैं चेला मानसिंह बाह्मण का।’’[6]
‘‘मेरी गेल्यां चाल देख कै राजी जाटी हो ज्यागी।’’[7]
‘‘लखमीचंद कर सैल जगत की, सदा बसण नै जाटी कोन्या।’’[8]
लखमीचंद ने 19 सांगों की रचना की थी, वे हर उम्र के लोककवि थे। अपने श्रोता वर्ग की अभिरूचि का पूरा ध्यान रखकर गायन प्रस्तुत करते थे। इसलिए उन्होंने अपने द्वारा गाई गई एक रागनी कभी दोबारा उसी रूप में नहीं गाई। लोक कल्याण और शिक्षा का एक प्रकाश उनके सांगों से निकलने लगा था। इस लोककवि ने जनता के समक्ष ऐसी बातें प्रस्तुत कीं जिससे लोगों के अनुभवों में वृद्धि एवं सामाजिक प्रगति हो।
            अपने सांग गायन के प्रारम्भ काल में उन्होंने विषय वस्तु के रूप में प्रेम,  श्रृंगार व सौन्दर्य को लिया पर बाद के सांगो में जन साधारण को शिक्षा देती धार्मिक प्रवृत्ति प्रधान विषय वस्तु देखने को मिलती है। इस प्रकार प्रेम भरी कहानियाँ व धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति उनके काव्य में प्रमुखता से लक्षित की जा सकती है परन्तु लोक नीति हर स्थान पर मिलेगी, प्रत्येक प्रसंग में मिलेगी। स्त्री के लिए बब्बर शेर, बघेर, नाग की मणि जैसे उपमान लखमीचंद के अतिरिक्त, साहित्य में मुश्किल ही मिलेंगें-
‘‘बहुत देर मैं नजर गई तेरे चन्द्रमा से चेहरे पै।
गया भूल पाछली बातां ने इब सांग करूंगा तेरे पै।
पिंजरे के मैं रूकर्या सै जाणूं सेर भघेरा बण का।।...
नई जगह पै न्यूं लागैगी जाणूं बबर शेर सै बण का।।’’[9]
लखमीचंद के शुरूआती सांगों पर अश्लीलता की व्यंजनाका प्रश्न भी उठता है परन्तु चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी उसने कहा थामें भी तो ऐसी चीजें हैं -
‘‘दिल्ली शहर ते पिशोर नूं जाँदिए
कर लेणा लोंगाँ दा ब्यौपार मंडिएऋ
कर लेणा नाडे़दा सौदा अडि़ए...’’
“कौन कहता था कि दाढि़यों वाले, घरबारी सिख लुच्चे का गीत गायेंगे, पर सारी खंदक गीत से गूँज उठी और सिपाही पिफर ताजे हो गये, मानो चार दिन से सोते और मौज ही करते हो।’’[10] बेल्जियम में सिख रायफल्स के जवान ऐसा गीत गाकर ताजगी अनुभव करते हैं जहाँ खन्दकों में मौत पसरी है तो लखमीचंद तो उम्र भर किसानों और जवानों के लिये ही सांग गायन करते रहे। मनोरंजन उनके दुख की दवा थी इस लोककवि ने उन्हें कभी निराश नहीं होने दिया, वे उनकी अपनी लोक भाषा के कवि थे, लखमीचंद ने इस क्षेत्र के किसानों को परायी भाषा के सुख से नहीं उनकी भाषा के सुख से सुखी किया। यह पूर्ति उदन्त मार्तंडके प्रकाशन के उद्देश्य के जैसी ही थी- ‘‘उदन्त मार्तंड अब पहले पहल हिन्दुस्तानियों के हित हेत, जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंगरेजी ओ पारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज़ छपता है उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओ पढ़ने वालों को ही होता है और सब पराये सुख सुखी होते हैं।’’[11]
            एक दूसरा तर्क भी है इस बात के लिए- उत्तर भारत की प्रचलित गालियों का प्रयोग होते हुए भी राही मासूम रजा द्वारा लिखित बहुचर्चित उपन्यास आधा गाँवपर अश्लीलता का आरोप खारिज किया जा सकता है क्योंकि वो भाषा उस समाज व वर्ग का मुहावरा है, एक फौजी यदि जी आपकी भाषा बोलने लग जाए तो समझ लेना चाहिए कि देश की सरदह अब खतरे में पड़ चुकी है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि रति व  श्रृंगार की कथाएँ मनुष्य को जीवन जीने के प्रति स्फूर्ति प्रदान करती है और थके हारे मेहनतकश लोगों के शरीर में आनन्द का संचार ‘तुरंत की राहत’ के रूप में कर देती है।
            कानपुर से निकलने वाले साप्ताहिक प्रतापके सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने 19 जनवरी 1925 के प्रतापके अंक में एक भावी दिशा-निर्देश दिया था- ‘‘जिन्हें काम करना है, वे गाँवों की तरफ मुड़े... उन्हें जगाने का अभी बहुत कम प्रयत्न हुआ है।’’[12] और 1925 ई. तक तो लखमीचंद को सांग गायन करते कई वर्ष हो चुके थे। लोकजीवन की भलाई, मनोरंजन, लोक मानस के नैतिक मूल्यों में वृद्धि तथा उन्हें सांस्कृतिक व सामाजिक शिक्षा प्रदान करना ही पं. लखमीचंद चाहते थे उस समय शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम या ना के बराबर था। उनके कुछ सांग नैतिक शिक्षा देने पर है तो कुछ लोककथाओं पर, कुछ प्रेरणाप्रदत्त व्यक्तित्वों पर तो कुछ मिथक व पौराणिक कथाओं पर। उनके सांगों की उक्तियां आज भी हरियाणा प्रांत के लोगों के वार्तालाप में मुहावरों की तरह प्रयुक्त की जाती है-
‘‘लखमीचंद कहै बुरा जमाना सोच समझ कै चलणा।
चोर जार लुच्चे गुण्ड्या त सौ-सौ कोसां टलणा।
एक नुक्ता तै लिख्या वेद मैं प्यार्या सेती मिलणा।
जिस तै इज्जत धर्म बिगडज्या उसके गल नहीं घलणा।” या
“रोए मान घटै बन्दे का दुख चिन्ता मैं काया।
अनरीति मैं राज चल्या जा झगड़े मैं धन माया।
खुदगर्जी मैं भाई बिगडै, पड़ै मुसीबत भारी।
धेखा देण तै बिगड़ै दोस्ती, यारी मैं पड़ै ख्वारी।’’[13]
           
लखमीचंद व्यक्ति के संभालने पर जोर देते है यानी व्यक्ति सुधार के माध्यम से समाज की उन्नति पर -
‘‘लखमीचंद पकड़ ले कसकै मन कपटी की डोरी नै।’’ या
कह लखमीचंद खुद सम्भलज्या’’[14]
परन्तु बेईमानी, धोखे भरे इस संसार में समझदार व सादा व्यक्ति घिर कर हारता ही है- ‘‘कहै लखमीचंद समझणियां माणस सब तरिया हारै सै।’’[15]
जैसा कि पहले भी ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि लखमीचंद के सांगों का प्रथम ध्येय कृषकों (लोकमानस) का मनोरंजन करना था और तात्कालिक किसान के हालात व हालत बड़े दयनीय थे - ‘‘इस हालात ने जागीरदारों की एक पृथक श्रेणी खड़ी कर दी जिसमें अधिकतर साहूकार (बणिये) शामिल थे। पंजाब सरकार की खेतीबाड़ी रिपोर्ट 1924-25 के अनुसार 1901 से 1909 तक करीब ढाई करोड़ एकड़ जमीन गिरवी पड़ गई थी। मुकदमों में अदालतों ने साहूकारों का साथ दिया।’’[16] 1924-25 से ही भारत में औद्योगिकीकरण का प्रारम्भ माना जाता है और प्रेमचंद का रंगभूमिउपन्यास इसी के दुष्परिणामों को दिखाता है। औपनिवेशिक इतिहास में किसानों को कभी राहत नहीं मिली। लखमीचंद इन्हीं किसानों के लिए ता-उम्र गाते और नाचते रहे- ‘‘गावै लखमीचंद छंद घर कै’’[17] उनके मन को आनन्द से भरते रहे, यह क्या देश के प्रति समर्पण व देश सेवा का काम नहीं था? लखमीचंद एक राहत का नाम था जिसे पाने के लिए किसान बीस कोस पैदल चलकर भी उसे सुनने जाता था।
            यदि पहला ध्येय मनोरंजन व निराशा को छांटना था तो दूसरा ध्येय शिक्षित (व्यवहारिक, नैतिक आदि) बनाना था क्योंकि उस समय - ‘‘सरकार 24 करोड़ व्यक्तियों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर पौने आठ करोड़ रुपये खर्च करती है जबकि अपने साम्राज्य को बचाने के लिए 29 करोड़ रुपये सालाना खर्च करती है।’’[18] पौने आठ करोड़ रुपये स्वास्थ्य व शिक्षा दोनों पर किया जाने वाला सालाना खर्च था और इस संयुक्त खर्च में से- ‘‘शिक्षा विभाग के एक प्रमुख कर्मचारी को हर साल कम से कम सात हजार रुपया तनख्वाह (लगभग 10 रुपये 95 पैसे प्रतिदिन) देनी पड़ती है।... हर दिन चार पैसा कमाने वाले मजदूरों को चिलचिलाती धूप में सुबह से शाम तक मिट्टी की टोकरियाँ सिर पर ढोनी पड़ती है।... मिशनरियों का हर माह दस हजार माहबार (यानी 333 रुपये 33 पैसे प्रतिदिन) पाने वाले उपदेशक...।’’[19]
9 दिसम्बर, 1913 को गदरके पहले अंक में छपा था- ‘‘अंग्रेज हर वर्ष हिन्दुस्तान से 50 करोड़ रुपये इंग्लैण्ड ले जाते हैं जिस कारण हम इतने गरीब हो गए है कि हिन्दुस्तान में पांच पैसे (प्रति सदस्य आमदनी) की दिहाड़ी है।’’[20] 1873 ई. (गुलामगीरी का प्रकाशन) से 1913 ई. तक के 40 वर्षों में केवल 01 पैसे की बढ़ोतरी हुई जीवन स्तर को उठाने के लिए जबकि करों का बोझ बढ़ता ही जा रहा था- ‘‘जमीन का लगान 65 प्रतिशत तक थोप दिया गया है।’’[21] और इस साम्राज्य की रक्षा के लिए सेना का प्रबंधन देखिए - ‘‘हिन्दुस्तान के पैसे से हिन्दुस्तानी सिपाही भर्ती करके उन्हें मरवाने की खातिर अफगानिस्तान, बर्मा (म्यांमार), मिस्र, ईरान और चीन में लड़ने के लिए भेजा जाता है।’’[22] ये सिपाही वही बर्बाद किए गए दस्तकार, कलाकार और किसान थे जिन्हें भूखा मरने पर मजबूर किया गया था  - ‘‘लोग बड़ी संख्या में भूख से मर रहे थे ओर सरकार खाद्य सामग्री निरंतर निर्यात करती जा रही थी, 1911-12 में 260 मिलियन डालर की खाद्य सामग्री निर्यात की गई जबकि 1913-14 में करीब 216 मिलियन मूल्य की खाद्य सामग्री का निर्यात हुआ।’’[23] जबकि ‘‘पिछले दस वर्षों में (1903-1913) अकाल में दो करोड़ लोग मारे गए हैं।’’[24] लखमीचन्द के विषय पर बात करते हुए पृष्ठभूमि में उपरोक्त बातें रखनी आवश्यक थी। तो ऐसे माहौल में लोककवि लखमीचंद स्वयं अनपढ़ होते हुए हिन्दू धर्म व दर्शन का प्रचार कर लोगों को जागरूक व मानवीय मूल्य एवं नीति आधारित कथाएं गाकर सांग लोक नाट्य के माध्यम से शिक्षित करने लगे तो यह प्रशंसनीय ही था। यह सांग गायन की ड्यूटी- ‘‘एक जौ की रोटी और यह प्याला पानी यह शरहे-तनख्वाह (वेतन) जिस पर स्वराज इलाहाबाद के वास्ते एक एडीटर मतलूब (आवश्यकता) है।’’[25] जैसी ही थी क्योंकि वे तो किसानों और मजदूरों के लोककवि थे-
‘‘सारी दुनिया फिरै भरमती, नामां हो कितै नामा।
लखमीचंद दो दिन का जीणा कर आगे का सामां।’’[26]

श्रृंगार रस सुखात्मक व दुखात्मक दोनों अनुभूतियों से पूर्ण होता है। इस लोककवि ने अपने सांगों में श्रृंगार वर्णन को पर्याप्त स्थान दिया है। प्रेम निरूपण में संयोग व वियोग दोनों का माधुर्य दिखाई देता है। विद्वानों ने वियोग के चार भेद माने हैं- पूर्वराग (प्रत्यक्ष दर्शन, स्वप्न दर्शन, श्रवण तथा चित्र दर्शन जनित राग), मान, प्रवास (शाप के कारण, भय के कारण व कार्य के कारण) तथा करूण विप्रलंभ। इनमें से लगभग सभी अवस्थाओं का चित्रण हमें लखमीचंद के काव्य में प्राप्त हो जाता है, पूर्वराग के अंतर्गत चित्र दर्शन से उत्पन्न विरह का एक उदाहरण निम्न है-
‘‘चक्कर चढ़ता आवै सै ना सोधी मैं शरीर
मेरे जिगर में खटकै सै इस फोटो आली बीर।। टेक।।
दो नैना की घूर मिलै, मद जोबन मैं भरपूर मिलै
इस पफोटू आली हूर मिलै, इसी कित लखमीचंद तकदीर।।’’[27]

विरह की ग्यारह काम दशाओं का चित्रण भी हमें लखमीचंद के सांगों में प्राप्त हो जाता है- अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुण कथन, उन्माद, उद्वेग, संताप, व्याधी, मूर्छा, जड़ता व प्रलय (मरण)। इन एकादश काम दशाओं में से कुछ के उदाहरण निम्नलिखित है-
(1)
‘‘सिंहल दीप मैं बसै पदमनी सरपां शीश मणी सै।
सीप मैं मोती, पत्थर मैं हीरा तूं हीरे बीच कणी सै...।
आज तेरा पाला रहा जीत मैं मेरी हार घणी सै।’’[28] (गुण कथन)
(2)       
“धर्म पर चलते थे सदा कैसी भूल भारी हो गई...।
आज फूटग्यी तकदीर म्हारी वो हम से न्यारी हो गई।
धुरदरगाह तक दावा चलै किसी जात मारी हो गई।
अब वो कहीं और हम कहीं किसी इन्तजारी हो गई।”[29] (संताप)
(3)       
कह ना सकूं किसे तै मन की जिन्दगी खोया करुंगा।
मूध पड़ पड़ दुनिया मैं तेरी पैडा (कदमों के निशान) नै टोहया करूंगा।’’[30] (उन्माद)

जहाँ तक संयोग श्रृंगार की बात है तो लखमीचंद के सांगों में वह भी काफी आकर्षक बन पड़ा है-

(1)       
 गोरी-गोरी बंईयां नर्म कलाई चूड़ी लाल हरी थी।
चन्दरमां से मस्तक ऊपर बिन्दी ठीक धरी थी।
जुल्पफ छंटारी इत्र रमारी इन्दर कैसी परी थी।
गोरा गात ओर आंख्या कटीली स्याही बीच भरी थी।”[31]
(2)
“लाम्बे-लाम्बे केश हूर के जाणूं छारी घटा पटेरे पै।
ढूंगे ऊपर चोटी काली जाणूं लटकै नाग मण्डेरे पै।
घणी देर मैं नजर गई तेरे चन्द्रमा से चेहरे पै।’’[32]

ग़ालिब के चाँदनी चौक की गलियों का लंबे बाम’ (छज्जे का किनारा), ‘जुल्फ़े सियाह रूख़ पे परीशाँ’, ‘सुर्मे से तेज़ दश्ना ए मिज़गाँ’ (पलकों की कटारी) आदि भी लखमीचंद की उपरोक्त पंक्तियों में है -
‘‘माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर, हवस
जुल्पफ-ए-सियाह रूख पे परीशाँ किये हुए।
चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरजू,
सुर्मे से तेज़ दश्ना ए-मिज़गाँ किये हुए।”[33]

यही जुल्फ-ए-सियाह रूख़ पे परीशाँ’ - ‘लम्बे लाम्बे केश हूर के जाणूं छारी घटा पटेरे पैहै तो चाँदनी चैक की गलियों का लब-ए-बामचन्द्रकिरण के चैबारे की झाँकी है- तेरी झांकी के मैं गोला मारूं बांट गोफिया[34] सण का।’’[35] और सुर्में से तेज़ दश्ना-ए-मिज़गाँ’- ‘आख्य कटीली स्याही बीच भरी थीहै।
            लखमीचंद के लिए गायन ही ज्ञान की कसौटी है- ‘‘लखमीचंद या ज्ञान कसौटी, गाणा चीज नहीं सै छोटी।... गुरू खिले हुए नूर मैं सिन्दूर भरग्ये।’’[36] वे रागनी (कविता) मौके के हिसाब से तुरंत बना कर गाते थे यह एक विलक्षण प्रतिभा उनमें थी-
‘‘लखमीचंद मैं ज्ञान नहीं सै, गावण का अभिमान नहीं सै।
छंद की कली आसान नहीं सै, तुरंत बणा कै गावण की।’’[37]

लखमीचंद के सांग अंग्रेजी सरकार से इज़ाजत लेकर होते थे और श्रोताओं का समूह भी ऐसा कि सपाट सुन कर भी समझता था वरना विराट पर्वसांग में द्रौपदी कीचक व पाण्डवों को जो कहती है और इसकी व्यंजना गुलाम भारत में क्या निकलती है देखी जा सकती है, यहाँ दानव अंग्रेज को माने तो-
“लखमीचंद तज बात गैलडी, एक दिन मिलै काट की बैलड़ी।
तू पकड़ पहली बाण ले, ओ म्हारे भारत देश, हटज्या छोड़ कै दान्ने।।”[38]
इसका अर्थ है- लखमीचंद पिछली बातों को छोड़ दे, एक दिन तुझे काठ की अर्थी मिलेगी, ओ मेरे भारत देश तेरी पहले जैसी शान पुर्नस्थापित हो जाए, इसे दबोचने का प्रयास करने वाले दानव दूर हट जा। और निम्नलिखित पंक्तियों में पांडवों को देशवासी मान लिया जाए तो देखिए क्या व्यंज्ना निकलती है –

‘‘थारै छत्रपाण की लाज रही ना, ईब किसै बात का डर कोन्या।
...द्वार बिराणै टुकड़े खाओं थारी कुत्ते जितनी दर कोन्या।
जिनके पति हीजड़े हों उन बीरां नै फांसी हुआ करै।
छत्री हो कै रण तै भागैं, पाछै उनकी हांसी हुआ करै।
मैं गैरां के दासी ला राखी बहुआं कै दासी हुआ करै।’’[39]

लोककवि पंडित लखमीचंद के सांगों में पात्र योजना के अंतर्गत लौकिक-अलौकिक, पशु-पक्षी, सभी वर्गों के स्त्री-पुरुष, देवी-देवता, दानव, साधु-महात्मा, चोर-डाकू, राजा-रंक, रानी-दासी आदि सभी प्रकार के पात्रों का समावेश है। सांगों में पात्रों का चरित्र चित्रण प्रमुख रूप से तीन-चार प्रकार से किया जाता है- (1) कवि द्वारा पात्र के विषय में सीधी जानकारी, (2) पात्र के विषय में अन्य पात्रों के कथन, (3) पात्र के स्वयं के कथन एवं (4) पात्र की भाव भंगिमाएं व व्यवहार।
            लखमीचंद के सांगों में पुरुष पात्रों के बनाम स्त्री पात्रों का चरित्र-चित्रण बड़े सशक्त और दिलचस्प रूप में व्यक्त किया गया है। ये अधिकांश स्त्री पात्र उदार, कष्ट सहने वाले, दुनिया की ऊँच-नीच को समझकर चलने वाले, धैर्य निष्ठा सत्य व विनम्रता से युक्त, धर्म परायण, कर्तव्यनिष्ठ आदि गुणों के युक्त हैं।
            लखमीचंद की अधिकतर रागनियों में टेकके बाद चार पंक्तियों की कलीका प्रयोग हुआ है इनमें हर कलीके पश्चात् टेकदोहराई जाती है। इन रागनियों की भाषा सरल हरियाणवी है यह भाषा लोकजीवन में प्रयुक्त होने वाली मुहावरेदार भाषा है जिसमें उर्दू व लोक प्रचलित शब्दों की बहुलता मिलती है। साथ ही तत्सम व अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग इनमें किया गया है-
(1)
‘‘लखमीचंद भजन कर रब का, फेर ना काम रहे डर दब का
जो सबका रुखवाला परमपद सै एको न मुश्किल पाई।”[40]
(2)
“हे प्रभु पाँच तीन के जोड़ से एक इंजन रेल चलाई।...
इंजीनियर मांहे बैठ्या मांहें लोटै ड्राईवर गाट।”[41]
(3)
अष्ट वसु और ग्यारा रुद्र बारा सूर्य भाई।”[42]

प्रत्येक कवि की अपनी भाषा होती है जो समय तथा परिस्थितियों के बीच अपना संस्कार ग्रहण करती है। पंडित लखमीचंद लोक समाज के बीच, लोक समाज के साथ जीता हुआ, लोक भाषा में सांग गायन करता हुआ लोक कवि है। उनकी भाषा लोक जीवन के यथार्थ को सच्चाई के साथ अभिव्यक्ति देने वाली भाषा है। यह हमारे चारों ओर के लोक वातावरण में समायी जीवन की भाषा है जो जीवंत होने के साथ-साथ अपने क्षेत्र की संस्कृति की वाहक भी है। और एक संस्कृति के रूप में यह भाषा लोगों के लोकानुभवों का स्मृति भण्डार भी है। इसमें वे सभी नैतिक और सौन्दर्यबोध्क मूल्य है जो अस्मिता के विशिष्ट बोध का आधार होते हैं जो विश्व में किसी भी व्यक्ति के स्थान को इंगित करते हैं।
            इस लोककवि ने अनुभूतियों की गहराई तक पहुँचने के लिए अपने काव्य में बिंबों व प्रतीकों का सफल प्रयोग किया है। जहाँ तक बिंबों की बात है तो लखमीचंद की कविता में देशी जीवन के बिंबों के साथ प्रकृति के बिम्ब तथा सारे इन्द्रिय बिंबों का प्रयोग भी बड़े सुंदर ढंग से हुआ है। कुछ उदाहरण निम्नलिखित है-
(1)दृश्यबिम्ब-       
“पहलम चोट नदी मैं न्हा लिया, छिड़का करकै फूंस बिछा लिया।
हरिश्चन्द नै आसण ला लिया हर कै ध्यान मैं ।।टेक।।...
कोझा डाण जिसनै राड जगाई, धूम्मा चढ़ता दिया दिखाई।
चिता की जड़ मैं खड़ी लुगाई, दूर मदान मैं।।
बिना मसूल पफूक दिया मूर्दा, पड़या फर्क ईमान मैं।...
जा छत्री नै ठोकर मारी, सुत की श्यान मैं।।”[43]
(2)गंध बिम्ब-
“खिल रहे गेंदा पफूल गुलाब, खुशबोई का रंग मिला”[44]
(3)श्रव्य बिम्ब-      
मैं खड़ी पुकारूं तेरी जाग नै, कुछ नहीं चलता जोर,...
जैसे अण्डा खा लिया काग नै, कोयल करती शोर,[45]

कहीं-कहीं इन बिंबों में जहाँ अर्थ की गम्भीरता आ जाती है तो वहाँ वे प्रतीकात्मक भी हो उठे है।
            जनसमूह के सामने प्रत्यक्ष प्रस्तुती होने के कारण लोकनाट्य सांगों में प्रतीकों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि बहुत सी ऐसी बातें होती है जो केवल प्रतीकों के माध्यम से ही दर्शक-श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है। ऐसे प्रसंगों में लखमीचंद ने भी मर्यादा को पूर्ण रूप से बनाए रखा है और अपनी बात को प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त भी कर दिया है। ऐसा ही एक प्रसंग पूरणभगतसांग में कामार्त नूणादे का भी है जो भगत पूरण के समक्ष प्रणय प्रस्ताव कर रही है जिसे कवि ने बड़े सारगर्भित प्रतीकों के माध्यम से चित्रित किया है यथा-
‘‘पूरणमल तू लटका ले ले इस जिन्दगी थोड़ी का।...
सेब सन्तरे अंगूर दाब क्यूं ना सूआ बणकै खाता।’’[46]
ऐसे ही पीड़ा की अतिशयताका प्रतीक (पुत्र की मृत्यु पर हरिश्चन्द्र का, राजा हरिश्चन्द्र सांग से) देखिए-
‘‘बेटे आला किला टूटग्या टूटी पड़ी किवाड़ी रहग्यी।...
लिकड़ियों बेशक जलती बरियां, पेड़ मैं लगी कुल्हाड़ी रहग्यी।’’[47]

लखमीचंद की कविता के उपमान कृषि जीवन, लोक प्रकृति, अदालत कचहरी, सेना के जीवन आदि से लिए गए हैं - ‘‘रूप के निशाने दोनों जणू गोली चालैं रण मैं।’’[48]
इस दुनिया के बाजार में सब कुछ न कुछ समान बेचते व खरीदते हैं तो लखमीचंद ने भी सत्की दुकानखोल रखी है जहाँ सत्य की वकालत ये कवि करता है ओर गवाही पर स्वयं उनके गुरू खड़े होते हैं तो न्याय तो होगा ही-
‘‘गुरु मानसिंह पूरणमल की ठीक गवाही भरिए।
लखमीचंद कमाई करिए सत की खोल दुकान।।’’[49]

इसी दुनिया में चोरी, जारी, ठगी, बदमाशी के असत् धंधे चलते है। लखमीचंद इन सबके इतने विरुद्ध हैं कि ऐसा करने वाले पुत्र का सरेआम सिर कटवा देना चाहिए जैसी कठोर बात तक कहने में नहीं चूकते -
‘‘चोरी जारी बदमाशी कर जो कुल का नाश करादे।
इसे पूत का अपणै आगै चैडे शीश तरादे।’’[50]
वे मानते थे कि ईश्वर का नाम लो, मन सच्चा रखो तो फिर किसी का डर व दबाव नहीं रहता।  ऐसा व्यक्ति निर्भय होकर कार्य करता है। वह ये भी जानते थे कि\ - ‘‘लखमीचंद उम्र गई सारी, या दुनिया लूट ले बणकै प्यारी’’[51], इसलिए लखमीचंद आगत (भविष्य, परलोक) संवारने पर बल देते हैं जो मूल्यों पर आधारित जीवन जीने से ही संभव है-
(1)
‘‘लखमीचंद कहै अगत समारो दुनिया चाली जा सै’’[52]
(2)
‘‘कहै लखमीचंद आगे की चेत, ना एक दिन बणै शरीर का रेत’’[53]
और अंत में तो सबको मरना ही है- कृष्ण, वामन, अर्जुन ओर स्वयं इस लोककवि को भी- ‘‘कुछ दिन के मैं सुण लियो लोगों लखमीचंद बामण मरग्या।’’[54] इसीलिए वे अपनी कविता के माध्यम से जगत की राहत बनने की राह लेते है - ‘‘लखमीचंद कर सैल जगत की।’’ और यही उनका आगे का इंतेजाम (प्रबंध) है - लखमीचंद दो दिन का जीणा कर आगे का सामा।इस तरह उनके काव्य में जीवन व कला, दोनों का समन्वय हमें देखने को मिलता है।

संपर्क - राजेश कुमार, 83, गाँव-किराड़ी, डाकखाना
सुलतानपुरी, दिल्ली-110086, मो.: 9868601760



[1] पंडित लखमीचंद ग्रंथावलीसम्पादक - डॉ. पूर्णचन्द शर्मा, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, संस्करण 2012, पृ. 678
[2] वही, पृ. 135, ‘नौटंकी सांगसे उद्धृत
[3] वही, पृ. 112, ‘नौटंकी सांगसे उद्धृत
[4] वही, पृ. 608, ‘ताराचंद सांगसे उद्धृत
[5] वही, पृ. 336, ‘चापसिंह सांगसे उद्धृत                       
[6] वही, पृ. 303, ‘चन्द्रकिरण सांगसे उद्धृत
[7] वही, पृ. 303, ‘चन्द्रकिरण सांगसे उद्धृत
[8] वही, पृ. 335, ‘चापसिंह सांगसे उद्धृत
[9] वही, पृ. 302-303, ‘चन्द्रकिरण सांगसे उद्धृत
[10] चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – उसने कहा था, सम्पादक- कुसुमाकर पाण्डेय, हिन्दी की विशिष्ट कहानियांप्रकाशक- कला मंदिर नई सड़क, दिल्ली, संस्करण-2002, पृ. 11
[11] डॉ. मंगला अनुजा, भारतीय पत्रकारिता: नींव के पत्थर,  मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,  संस्करण-जून 1996, पृ. 251
[12] वही, पृ. 272
[13] पं. लखमीचंद ग्रन्थावली, पृ. 361, 751
[14] वही, पृ. 122, 98
[15] वही, पृ. 105
[16] हरजिंदर कौर और बलबीर माधेपुरी, ‘गदर आन्दोलन के सौ साल- इतिहास ओर विचारधारारोजगार समाचार,  मुख पृष्ठ, खण्ड 38 अंक 18, नई दिल्ली, 3-9 अगस्त 2013
[17] पं. लखमीचंद ग्रन्थावली पृ. 115
[18]  गदर आन्दोलन के सौ साल: इतिहास और विचारधारा,  पृ. 71
[19] ज्योतिबा फूले, गुलामगीरी,  अनुवादक- डॉ. अनिल सूर्या, गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली, संस्करण-2007, पृ 86
[20] गदर आन्दोलन के सौ साल...,  पृ. 71
[21] वही, पृ. 71
[22] वही, पृ. 71
[23] वही, पृ. मुख पृष्ठ
[24] वही, पृ. 71
[25] भारतीय पत्रकारिता - नीव के पत्थर,  पृ. 253
[26] पं. लखमीचंद ग्रन्थावली, पृ. 268
[27] वही, पृ. 285
[28] वही, पृ. 614
[29] वही, पृ., 615
[30] वही, पृ., 614
[31] वही, पृ. 345,
[32] वही, पृ., 302
[33] ग़ालिब- उग्र’, रंजीत पब्लिशर्स, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 1993, पृ. 539
[34] गोपिफया=फसल से पक्षियों को उड़ाने के लिए मिट्टी के गोले फेंकने का रस्सीनुमा उपादान, जो पटाखे जैसी आवाज़ भी करता है।
[35] पं. लखमीचंद ग्रन्थावली, पृ. 302
[36] वही, पृ. 674
[37] वही, पृ. 372
[38] वही, पृ. 407
[39] वही, पृ. 407-408
[40] वही, पृष्ठ 309
[41] वही, पृष्ठ 751-752
[42] वही, पृष्ठ 752
[43] वही, पृष्ठ 554-55
[44] वही, पृष्ठ 536
[45] वही, पृष्ठ 543
[46] वही, पृ. 459
[47] वही, पृ. 561
[48] वही, पृ. 418
[49] वही, पृ. 491
[50] वही, पृ. 481-482
[51] वही, पृ. 681
[52] वही, पृ. 718
[53] वही, पृ. 350
[54] वही, पृ. 497


मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-7 (जुलाई-सितंबर 2014)                                                                                          ISSN   2320 – 835X
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