सोमवार, 24 नवंबर 2014

भूमण्डलीकृत हिंदी सिनेमा का अतियथार्थवादी चेहरा - डॉ. पुखराज जाँगिड़



भूमण्डलीकृत हिंदी सिनेमा का अतियथार्थवादी चेहरा
-       डॉ. पुखराज जाँगिड़

यह गंभीरता से सोचने की बात है कि वह जीवन और समाज कितना अमानवीय होगा, जहाँ के बच्चे हिंसा को रोजमर्रा की गतिविधियों के रूप में देखते हुए बड़े हो रहे हों? इस तरह देखा जाए तो वासेपुर हम सबके भीतर है। वह हम सबके भीतर इसलिए भी है कि हम अन्याय का प्रतिकार करना भूल गए हैं। फिल्म बड़ी बारीकी से इसे विश्लेषित करती है, हालांकि रास्ता उसका भी हिंसा से होकर जाता है। एक पुत्र के सामने उसी के पिता को कटवाकर, उसके खून से उसी के बेटे का तिलक करके यह कहना कि तुम्हारे पिताजी बहुत बड़े आदमी थेमनुष्यता की सारे हदें पार कर जाता है। यह कैसा समाज है, जहाँ कोई भी सरदार / सुलतान / फैजल / डेफिनेट सरे राह किसी को भी मारकर चला जाए और लोग उप्फ तक न करें!

      (‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ – सिनेमाई पोस्टर)
भूमण्डलीकृत हिंदी सिनेमा की एक बड़ी खासियत अपराधियों में नायकत्व की खोज के रूप में विकसित हुई है। आज जिस तरह की फिल्में बन रही है, उसमें अधिकांश फिल्में इसी तरह की है और ये पहले के डाकूओं के हृदय-परिवर्तन पर आधारित फिल्मों से एकदम भिन्न है। भले ही आज के सिनेमा में भी ऐसी चालाक कोशिशें दिखाई देती हों पर इन सबके बावजूद इनमें हृदय-परिवर्तन खोजना आसान नहीं होता। हालांकि आज के परिवेश में मसाला सिनेमा के स्थान पर यथार्थवादी सिनेमा का बनना हिंदी सिनेमा के लिए अत्यंत सुखद घटना माना जा सकता है/माना भी जाता है। फिर यह जरूरी तो नहीं कि हर फिल्म में सामाजिक सरोकार अनिवार्यतः हो ही हो। आज का सिनेमा बदलाव के दौर से गुजर रहा है और यह बदलाव नयी पीढ़ी के फिल्मकारों के कारण संभव हुआ है। बदलाव के समय का यह सिनेमा क्षेत्रीय सिनेमा के लिए जगह बनाता है। इसके कारण अरसे बाद परदे पर वास्तविक घर और घर का आँगन दिखायी पड़ रहा है, वरना यहाँ तो सिर्फ महल, हवेलियां और बंगलें ही अधिक दिखते हैं। यहाँ गली-मुहल्ले की दुकानें और दुकानदार दोनों मौजूद हैं और उनके बीच की बातचील भी सहज-स्वाभाविक ढंग से होती है, न कि औपचारिक ढंग से। नयी पीढ़ी के फिल्मकारों में अनुराग कश्यप ऐसी फिल्में बनाने के लिए ख्यात और कुख्यात दोनों रहे हैं। वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स के बैनर तले बनी अनुराग कश्यप की पाँच घंटे और बीस मिनट की दो भागों की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर (निर्माता : अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा, गुनीत मोंगा) ऐसी ही एक फिल्म है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर के केंद्र में अपराध और अपराधीकरण की एक सुनियोजित प्रक्रिया का हिस्सा बनते अपराधियों और फिर आजीवन ही नहीं बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका अंजाम भुगतते लोगों की कहानी है। औसत भारतीय फिल्मों की तरह गैंग्स ऑफ वासेपुर के पहले भाग के नायक (जो असल में है तो खलनायक पर फिल्म में उसे नायकत्व प्रदान किया गया है) सरदार खान की जिंदगी का भी एक ही मकसद है - बदला! बदला भारतीय सिनेमा की एक अत्यंत लोकप्रिय कथारूढ़ि है, जो प्रायः सभी फिल्मों में समाहित रहती है। फिल्म का शीर्षक मार्टिन स्कार्सी की न्यूयॉर्क शहर को आधार बनाकर बनायी गयी गैंग्स ऑफ न्यूयार्क (2002) फिल्म की याद दिलाता है, जिसमें लियोनार्डो डी-कार्पियों, डेनियल डे-लेविस और केमरून डियाज ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं। अनुराग कश्यप की इस फिल्म ने कान फिल्म समारोह के साथ-साथ कई अन्य ऐसे फिल्म समारोहों में भी सराहना प्राप्त की, जहाँ अब तक प्रवासी भारतीयों को ध्यान में रखकर बनायी जाने वाली हिंदी फिल्में अधिक ध्यान खींचती थी। विदेशों में भारतीय फिल्मों के भविष्य के लिहाज से देखें तो यह एक अच्छी शुरूआत है कि अब भारत से बाहर भी ठेठ भारतीय आस्वाद वाली फिल्में पसंद की जाने लगी हैं।
बहरहाल, गैंग्स ऑफ वासेपुर की पटकथा खुद अनुराग कश्यप ने सैयद ज़िशान कादरी, अखिलेश जायसवाल, सचिन लाडिया और ऋत्विक ओझा के साथ मिलकर लिखी है। फिल्म के दोनों भाग बिहार और झारखण्ड में कोयले और लोहे की माफियागिरि तथा उसके पीछे की राजनीति को सामने लाते हैं। इस बीच कोयले की दलाली पर आई कैग की रपट के बाद कई ऐसे चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं, अप्रत्यक्षतः जिनका उपयोग इस फिल्म में भी हुआ है। जो हो, इन सबके बीच एक फिल्म यह सब दिखा रही है, यह अपने आप में राहत प्रदान करने वाला है। फिर गालियों और गोलियों के बीच नये कलाकारों का उभार जहाँ एक और डराता है, वहीं उनकी अभिनेयता तसल्ली देने वाली है। कई बार फिल्म के संवाद और स्थितियाँ इस अपराध थ्रिलर को हास्य का रूप देती प्रतीत होती है। हास्य भी ऐसा जिस पर सिर्फ रोया जा सकता है। गैंग्स ऑफ वासेपुर का पहला भाग 2 घंटे 39 मिनट 30 सेकण्ड का है। समयावधि के लिहाज से फिल्म काफी लंबी है और इसकी विषयवस्तु और प्रस्तुतिकरण को देखते हुए सेंसर बोर्ड ने इसे श्रेणी प्रदान की है।
गैंग्स ऑफ वासेपुर दो बाहुबली परिवारों की आपसी कलह पर आधारित है। कलह के केंद्र में कोयले और लोहे की अनैतिक चोर-बाजारी तथा माफियागिरि है। बात सिर्फ गुंडागर्दी तक सीमित नहीं है, इससे भी आगे जाकर वह राजनीतिक रोटियाँ भी सेंकती है। कुलमिलाकर कहानी सन् 1941 से 2009 के बीच के वासेपुर की है। इसमें बदला, खून-खराबा, लूटमार और प्यार सबकुछ है। धनबाद झारखण्ड का एक प्रमुख औद्योगिक शहर है। यह काले सोने के लिए जाना जाता है। काला सोना यानी कोयला। वासेपुर इसी धनबाद का प्रमुख मुस्लिम बहुत इलाका है। धनबाद के इतिहास को देखें तो धनबाद पहले बंगाल का हिस्सा रहा, फिर बिहार और अब झारखण्ड। कोयले की श्रेष्ठ गुणवत्ता के लिए जाना जाने वाला वासेपुर आज धनबाद का सर्वाधिक आबादी वाला मौहल्ला है। सन् 1956 में बिल्‍डर वासे साहब ने इसे वहाँ के जंगलों को काटकर बसाया था। कोयला यहाँ के लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन है पर नयी पीढ़ी पढ़ने-लिखने में भी अच्छा करने लगी है और विविध सेवा क्षेत्रों में भी अपना नाम कमा रही हैं, इन सबके बावजूद अतीत है कि पीछा ही नहीं छोड़ता। कोयले के कारण इस क्षेत्र का अच्छा-खासा विकास हुआ है, जिसके इर्द-गिर्द विभिन्न कोयला माफिया अपनी लठैती चलाते हैं। लठैती के सहारे इतिहास बनाने में लगे कई परिवार अपना सबकुछ दाँव पर लगा देते है, जो बाद में उनकी और उनकी आने वाली पीढ़ी के लिए अपने अस्तित्व को बनाए रखने की मजबूरी बन जाता है। नतीजतन कोयला माफियाओं के विभिन्न गुटों के बीच का खून-खराबा पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी रहता है। हर साल कोई-न-कोई कोयला माफिया/व्यवसायी मारा जाता है। फिल्म के प्रदर्शन के बाद वहाँ चली आ रही कोयले और लोहे की माफियागिरी एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में आ गयी। इन सबके चलते फिल्म को वासेपुर के लोगों की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा। वे इसे मुसलमानों को बदनाम करने की साजिशके रूप में देखते हैं। मामला राँची उच्च न्यायालय में भी गया।
फिल्म सैयद ज़िशान कादरी द्वारा लिखी गयी उस किताब पर आधारित है, जिसके केंद्र में फहीम खान और शाबिर अंसारी की वर्चस्व की लड़ाई है। वैसे वासेपुर से अधिक कोयला माफियागिरि धनबाद और झरिया में रही है और उस परिवेश पर इसके अधिक जीवंत फिल्मों की संभावना भी बनती है पर फिल्मकार इसके लिए वासेपुर को चुनते है। ऐसे में वासेपुर पर ही फिल्म क्यों? संभव है वासेपुर उन्हें धनबाद और झरिया से अधिक सुरक्षित लगा हो! जो हो, लोग सैयद ज़िशान कादरी के वासेपुर के फहीम खान और शबीर खान के परिवारों के बीच की लड़ाई से वाकिफ रहे हैं (और मजे की बात यह है कि दोनों अभी जिंदा हैं), लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि वे कोयला माफिया नहीं थे। ऐसा ही अंतर्विरोध फिल्म में भी है। कोयला माफियाओं पर आधारित होने के बावजूद फिल्म में न तो कोयला मजदूरों का जीवन है और न खदानों के बारीक ब्यौरे (पहले भाग के शुरूआती दृश्यों को छोड़कर कोयला मजदूरों का शोषणपरक जीवन कहीं नहीं दिखाई पड़ता), हालांकि फिल्म में इसकी कमी कई अनछूए सामाजिक पात्र और उनका विविधरूपी जीवन पूरा करता है।
फिल्म पूर्वदीप्ति (फ्लेशबैक) में चलती है और क्योंकि सास भी कभी बहू थी (2000-2008) से शुरू हुई कहानी अचानक गोलीबारी और बमबारी में बदल जाती है। गोलीबारी की यह घटना हमें बिहार के पूर्व रूप से परिचित कराती है। समय के साथ इन स्थितियों में बदलाव आता है। पहले चाकू-छूरी और अब बम-पिस्तौल। असल शुरूआत शाहिद खान (जयदीप अहलावत) द्वारा उस दौर के एक खुँखार डाकू सुल्ताना के नाम से अँग्रेजों की रेल पर की गयी अनाज की डकैती से होती है। सुल्ताना डाकू को जब इसका पता चलता है तो वह शाहिद खान की पूरी गैंग का खात्मा कर देता है। यहाँ भी मामला असल में सैयदों और पसमान्दों का निकलता है यानी अगड़ों और पिछड़ों का। हालांकि फिल्म उसकी बारीकी में नहीं जाती पर वह उस ओर संकेत अवश्य करती है।  बचते है तो सिर्फ शाहिद खान और उसका एक साथी, जिन्हें सुल्ताना डाकू वासेपुर छोड़ (धनबाद) चले जाने के लिए मजबूर कर देता है। धनबाद आकर वह रामधीर सिंह (तिग्मांशु धुलिया) की खदान में पहले तो एक मज़दूर के रूप में काम करने लगता है पर बाद में वह कोयला माफियागिरि को गहराई से समझने के लिए उसका लठैत बन जाता है। खदान में आने के बाद वह सुल्ताना डाकू से अपनी दुश्मनी को छोड़, रामधीर सिंह को मारकर उसकी खदान हथियाने की महत्त्वाकांक्षी कोशिश में जुट जाता है लेकिन होता इसका उल्टा है। आजादी के बाद भी कोयला खदानों की लूट पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए रामधीर सिंह शाहिद खान की तो हत्या करवाने में तो सफल होता है, लेकिन उसका एक मित्र उसके बेटे सरदार को बचा ले जाता है (सरदार खान को मारने का काम सुल्ताना डाकू के परिवार सौंपा गया था)। नतीजतन अकेले सरदार खान (मनोज वाजपेयी) को रामधीर सिंह और सुलतान खान की दोहरी दुश्मनी झेलनी पड़ती है। फिल्म में इसके चलते उसका किरदार खासा महत्त्वपूर्ण हो उठता है।
सातवें दशक में कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद स्थितियाँ बदलती है और रामधीर सिंह जैसे अपराधी राजनीति में आ धमकते हैं। यहाँ फिल्म समकालीन राजनीतिक व्यवस्था पर चोट करती नजर आती है। वह उन कारणों को चिह्नने में सफल हुई है, जिसके कारण दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र पस्त होने लगा था। राजनीति में अपराधियों के प्रवेश से लोकतंत्र कमजोर हुआ और राजनेताओं और अपराधियों ने नौकरशाही के साथ मिलकर जनता को दोनों हाथों से लूटा। परिस्थितियों में आए इस बदलाव का लाभ सरदार खान खुद को मजबूत करने में करता है और वह अपने एकमात्र मकसद अपने पिता की हत्या का बदला लेनेके साथ वासेपुर में धमाकेदार वापसी करता है। फिल्मकार ने बदले की इस कार्यवाही को मानवीय रूप देने के लिए सरदार खान और उसके बेटों दानिश और फैजल की प्रेमकहानियां भी गढ़ी है। पर दिक्कत यह है कि उसके दोनों बड़े बेटे (दानिश और फैजल) अपने दुश्मन सुल्तान खान की ही बहनों से प्रेम करने लगते हैं। उनके सच्चे प्रेम का असर यह होता है कि वे दोनों भाई दोनों परिवारों के बीच की दुश्मनी को हमेशा के लिए खत्म करने की कोशिशों में जुट जाते है और अपने पिता सरदार खान को इसके लिए राजी कर लेते हैं, लेकिन अपराधिक बदले और हृदय-परिवर्तन की यह कहानी वास्तविक जीवन की तरह कोई मुकाम हासिल नहीं कर पाती। दोनों परिवार रामाधीर सिंह की कूटनीति का शिकार बनते हैं और इनकी लड़ाई में सारा शहर मूकदर्शक बना बैठा है, जैसे – उनकी गालियाँ और ज्यादतियाँ शहर भर के लिए दहशत और मनोरंजन का जरिया हो। सरदार खान खुलेआम जीप में माइक्रोफोन पर एक मंत्री को चुनौती देता है। जैसे फिल्मकार हमें चेता रहा हो कि ऐसी घटनाएं कभी भी सांप्रदायिक रूप ग्रहण कर सकती हैं। इस तरह अँग्रेजी शासन के आखिरी दशक से शुरू हुई फिल्म की कहानी वर्तमान को छूने लगती है। फिल्म का पहला भाग दर्शकों के मन में कई सवाल छोड़ जाता है जिसके जवाब दूसरे भाग में मिलते है। जैसे - गौरी बंगालन ने किसे फोन किया और किसने सरदार खान को मारा? क्या दान‌िश और फैजल अपने पिता सरदार खान की मौत का बदला ले सकेंगे? सरदार खान के चार बेटे है - तीन जायज (दानिश, फैजल और परपेण्डीकूलर) और एक नाजायज (डेफिनेट)। अंत में बचता है तो डेफिनेट। वह भी अपनी माँ की कूटनीति के कारण। फिर बदलते भारतीय समाज का सच भी तो इससे बहुत अलहदा नहीं है।
सबसे पहले तो यह कि बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण फिल्म है। एक बच्चे का भविष्य उन परिस्थितियों पर निर्भर करता है, जिनसे जूझते हुए वह बड़ा होता है। फिल्म के नायकों (मूलतः खलनायकों) ने लूट का पूरा समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र तो बचपन में ही अपने पालनहारों से सीख लिया था। सरदार खान, फैजल खान और डेफिनेट का भविष्य उनके बचपन की कब्र पर तैयार हुआ था, जिसकी नियति छल के सिवाय कुछ और हो ही नहीं सकती। सरदार देख रहा था कि अपने लालच के कारण उसका पिता अपने ही लोगों को छल रहे हैं। फैजल देख रहा था कि उसके पिता पराई औरत के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे हैं और उसका एक नाजायज भाई भी है। पिता की ऐय्याशी के विपरित अपनी माँ को बहकने देख उसे जलकर कोयला ही होना था। अपने भाई दानिश के साथ रेलगाड़ी के डिब्बे में झाड़ू लगाना और पाखाना साफ करना फैजल कहानी में विस्तार की माँग करता है। अगर फिल्मकार यहाँ रूकते तो फिल्म का यह हिस्सा अत्यंत प्रभावशाली हिस्सों में होता। नजमा और फरहान के बीच का जो रिश्ता बनते-बनते रह गया था, भले ही एक अधूरा सच साबित हुआ हो (खासकर तब, जब नगमा को प्रतिनिधि भारतीय चरित्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है), लेकिन उसने एक बच्चे के जीवन को ही बदलकर रख दिया। हालांकि फिल्मकार अपनी अन्य फिल्मों में इस गणित को उलट चुका है, लेकिन यहाँ वह ऐसा नहीं करता। फिर जरूरी तो नहीं कि हर फिल्म या हर जीवन में ऐसा ही हो। यह गंभीरता से सोचने की बात है कि वह जीवन और समाज कितना अमानवीय होगा, जहाँ के बच्चे हिंसा को रोजमर्रा की गतिविधियों के रूप में देखते हुए बड़े हो रहे हों? इस तरह देखा जाए तो वासेपुर हम सबके भीतर है। वह हम सबके भीतर इसलिए भी है कि हम अन्याय का प्रतिकार करना भूल गए हैं। फिल्म बड़ी बारीकी से इसे विश्लेषित करती है, हालांकि रास्ता उसका भी हिंसा से होकर जाता है। एक पुत्र के सामने उसी के पिता को कटवाकर, उसके खून से उसी के बेटे का तिलक करके यह कहना कि तुम्हारे पिताजी बहुत बड़े आदमी थेमनुष्यता की सारे हदें पार कर जाता है। यह कैसा समाज है, जहाँ कोई भी सरदार / सुलतान / फैजल / डेफिनेट सरे राह किसी को भी मारकर चला जाए और लोग उप्फ तक न करें! ऐसा क्यों है कि कोई सवाल ही नहीं करता कि आखिरकार कोयला खदानों पर वर्चस्व स्थापित करने से शुरू हुई लड़ाई क्योंकर कई पीढ़ियों तक चलती जाती है? या फिर यह कि फिल्म बदले की भावना को एक सहज मानवीय प्रकृति के रूप में कैसे चिह्नित कर सकती है? फिल्म सवाल तो उठाती है पर उसका रास्ता बहसतलब तो है ही, दिक्कततलब भी है।
फिल्म की सफलता उन ब्यौरों में निहित है, जो विस्तार भले ही न पा सके पर उन्होंने दर्शकों के मानस को झंझोड़ने में सफलता प्राप्त की है। जैसे वह सब हमारे अपने ही जीवन की प्रतिकृति हो। यह ठीक वैसी ही है कि हम खुद तो हिंसक बने रहत हैं पर अपने और अपने परिवार के लिए शान्ति की कामना करते हैं। इस तरह यह फिल्म हमारे सामाजिक दोगलेपन पर करारा तमाचा जड़ती है पर गालियों और गोलियों के बीच कई बार हम उस फिल्म के वास्तविक मंतव्य को समझने में भूल कर देते है। फिल्मकार भी वहाँ ठहरता नहीं, इसलिए भूलें तो होनी ही है पर ऐसे मुद्दों पर भूलें फिल्मकार की सामाजिक जवाबदेही पर सवाल तो उठाती ही है और उठाना भी चाहिए। ऐसा लगता है कि कोयले की कालिमा जैसे सब और व्याप्त होती जा रही हो और हम चाहकर भी उसे पौंछने में असमर्थ सिद्ध हो रहे हों। हो भी क्यों नहीं, क्योंकि वे हम ही हैं जिन्होंने मजदूर विकास पार्टीको मजदूरों के शोषण का जरिया बनने दिया। आजादी के बाद के भारत में प्राकृतिक संसाधनों पर देशी पूँजीपतियों की न्यूनतम देकर अधिकतम लाभ कमाने की अत्यंत घिनौनी और स्वार्थी नीतियों ने मजदूरों को जीने के मूलभूत अधिकारों तक से महरूम कर दिया था। जैसा कि फिल्म बताती है कि आजादी से पहले अँग्रेज तनख़्वाह भी देते थे और छत भी’, लेकिन आजादी के बाद तो भारतीय पूँजीपतियों ने उनसे उनका घर भी छीन लिया। स्वातंत्रयोत्तर भारत और विशेषकर भूमण्डलीकृत भारत की इससे कड़ी आलोचना और क्या होगी कि आज हम अपने पूर्व-आक्रान्ताओं से भी अधिक हिंसक और अमानवीय हो गये हैं और जिस तरह की व्यवस्था हमने निर्मित की है/कर रहे हैं, उसने हमें इसकी खबर तक न होने दी?  
फिल्म का हास्यबोध कथानक की जटिलता के तनाव को कम करता है। कहानी की जटिलता और चरित्रों की अधिकता को देखते हुए फिल्म एकाग्रता की माँग करती है। फिर दूसरे भाग की कहानी तो बिना किसी भूमिका/रिकेप के शुरू होती है। फिल्म में धनबाद और वासेपुर के परिवेश को जीवंत बनाने के लिए फिल्मकार द्वारा किए गए कल्पना और यथार्थ के सहमिश्रण ने उसे और अधिक द्रुत बना दिया है। तीन पीढ़ियों की इस कहानी में परिस्थितियाँ एक पीढ़ी द्वारा की गयी गलती को सुधारने का कोई मौका दूसरी पीढ़ी को नहीं देती। हालांकि सरदार खान के दोनों बेटे दानिश और फैजल सुधार की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके हाथ असफलता ही आती है। मछलीपालन शुरू करके खुद सरदार खान ऐसी कोशिश करता है, लेकिन मारा जाता है। पूरा भारतीय समाज और तमाम पुरानी भारतीय फिल्में इसी कथारूढ़ि पर चलती रही हैं। फिल्म के सबसे मजबूक पक्ष वे हैं जहाँ वे समकालीन समय और समाज की आलोचना करती है और मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने की कोशिश करती है। फिल्म के लिए जो कथानक चुना गया, उसमें यह संभव न था। जो हो, पहला भाग मनोज वाजपेयी तो दूसरा भाग नवाजुद्दीन सिद्दिकी के अभिनय के लिये याद किया जाएगा, जिनके केंद्र में तिग्मांशु धुलिया है, कई बार तो वे अकेले ही दोनों पर भारी पड़ते हैं। हमारे यहाँ कई अच्छे फिल्मकार अच्छे अभिनय के लिए खुद अभिनेता बने और बेहतर किया। तिग्मांशु धुलिया अच्छे फिल्मकार तो है ही, इस फिल्म में उन्होंने हमें अपने अभिनय की क्षमताओं से रूबरू करवाया है। संभव है यह सिलसिला आगे भी जारी रहे। जो हो, फिल्म का दूसरा भाग पहले भाग का दोहराव प्रतीत होता है और कई बार तो बासी सा लगने लगता है। अंतर पीढ़ीगत बदलाव और खून-खराबे के तरीकों का है। दर्शक सबकुछ पहले से जानता है, लेकिन वह तो उसे परदे पर घटित होते हुए देखने के लिए परदे पर खिंचा चला आता है और खुद को ठगा सा महसूस करता है। इसका फायदा उठाते हुए फिल्मकार एक ही कहानी के लिए दो बार पैसा वसूलने में सफल रहते हैं। अन्यत्र कहीं कुछ नया है तो वह है – हास्य और रोमांच का मेल और यह मेल फिल्म में रूचि जगाता है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी और हुमा कुरैशी पर फिल्माए प्रणय-दृश्य ध्यान खींचते है। पहले भाग में सरदार खान और दूसरे भाग में फैजल खान पर फिल्माए दृश्य इसके अच्छे उदाहरण है। विशेषकर दूसरे भाग में। फिल्मकार ने छोटे से छोटे ब्यौरे पर गंभीरता से काम किया है। इससे न केवल शहर का परिवेश बल्कि वहाँ के रहवासियों के बीच के रिश्तों का व्याकरण भी खुलकर सामने आया है। इसमें भी अक्सर छोटे दृश्य वो काम कर जाते है जो कई लम्बे दृश्य मिलकर भी नहीं कर पाते। फिल्म में आए छोटे-छोटे ब्यौरे इसे प्रभावशाली बनाते हैं। फिल्मकार ने इसके लिए डेढ़ साल लम्बे शोध का भी दावा किया है। बात चाहे खदानों के लाइसेंस की हो या मछलीपालन की या खोखली खदानों के लिए रेत ढुलाई की। कई दृश्य तो अतार्किक और जबरन लगते हैं, जिनसे बचा जा सकता था। जैसे फिल्म में पहले तो बंगाली बाला दुर्गा खुद ही सरदार खान को सम्भोग के लिए न्यौतती है और फिर जब वह उसके किसी काम का नहीं रहता तो उसे मरवा देती है।
सन् 1940 से 1990 तक के समय को दर्शाते पहले भाग में वासेपुर में कोयला माफिया और संगठित अपराध की शुरूआत को दिखाया गया है तो दूसरे भाग में भ्रष्ट व्यवस्था (राजनीति और नौकरशाही की मिलीभगत) द्वारा की गयी लोकतंत्र की हत्या पर ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिसके केंद्र में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया है, जहाँ हर तरह के अवैध व्यापारों के लिए स्थान है। सरदार खान और दानिश खान की हत्या के बाद फैजल खान मौर्चा पर आता है और अपने पिता और भाई के हत्यारों को चुन-चुन कर मारता है (उसके चरित्र में बदले और प्रेम में से किसकी अधिकता है, कहा नहीं जा सकता)। वही दूसरे भाग में रामधीर सिंह और सरदार खान की दुश्मनी को आगे बढाता है। उसके समय में मुनाफाखोरी और अवैध हथियारों का व्यापार तो चरम पर है। दूसरा भाग (1990 से 2009) भूमण्डलीकरण के प्रसार को दिखाता है। जहाँ मौकापरस्ती चरम पर है। हर कोई शक्तिशाली बनना चाहता है, शक्तिशाली की छाँव में रहना और उससे जुड़ना चाहता है। वासेपुर में मजदूर-अत्याचार और माफियागिरी चरम पर है तथा नेताओं की सरपरस्ती के कारण पुलिस भी डरी-सहमी रहती है। पहले भाग में सरदार खान कसम खाने के बावजूद रामधीर सिंह को मारता नहीं है, वहीं दूसरे भाग में फैजल अपने पिता के हत्यारे से समझौता कर लेता है। अपराध के क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम गठजोड़ सिर्फ माफियागिरी तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरी हिंदी पट्टी में व्याप्त यह गठजोड़ हमारे समय एक बड़ा सच है। ऐसी कई गुत्थियाँ फिल्म को जटिल बनाती है (फिर डेफिनेट (ज़ीशान कादरी), परपेण्डीकुलर (आदित्य कुमार) और टेनजेंट जैसे कॉमिक नामों का गणित चौंकाने वाला है) और ऐसे तथ्य फिल्म को एक राजनीतिक फिल्म का रूप देते हैं।
एक ओर तो फिल्म में सीधे टाटा और थापर जैसे कई बड़े नामों का उल्लेख किया गया है, जो व्यवसाइयों और अपराधियों के गठजोड़ को दिखाते हैं, तो दूसरी ओर घर पधारे सुलतान का अपनी पत्नी से परिचय करवाते समय रामधीर और उनकी पत्नी के बीच हुए मौन-संकेत-प्रसंग में निहित पति-पत्नी का कांईयापन और फिर भोजन के लिए चीनी मिट्टी वाले बर्तन का प्रसंग बिहार और झारखण्ड ही क्यूँ राजस्थान तक में आज भी एक सामान्य बात है। आप सब भूल सकते हैं पर जाति नहीं भूल सकते। सरदार खान के दोनों बेटों के साथ-साथ सुलतान के चाचा और भाई भी इसे समझ जाते हैं कि रामधीर सरदार के खिलाफ हमारा इस्तेमाल कर रहा है पर अफसोस कि मोटी बुद्धि का सुलतान इसे नहीं समझ पाता और अंततः दोनों पक्षों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है! महत्वाकांक्षा और मौकापरस्ती ने खुद के परिवार तक को न बख़्शा। सुलतान और दुर्गा दोनों ही अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण अपने ही परिवार की बर्बादी का कारण बनते हैं। फिर कोई सामान्य आदमी यूँ ही तो अपराधी नहीं बनता। शाहिद, सरदार और फैजल सामान्य आदमी हैं लेकिन परिस्थितियाँ उन्हें असामान्य बना देती है और फिर वे चाहकर भी सामान्य नहीं बन पाते। कोशिश करते हैं पर असफल रहते हैं। उनकी कमीनगी के भी कई किस्से हैं, जिन्हें परदे पर फिल्माने से पहले कड़ी चुनौतियों से गुजरना पड़ा होगा। इनके पीछे भी सैकड़ों कहानियां रही होगी! फिर आमजन की जरूरतों ने माफियाओं के अत्याचारों के बीच ही पेट पालने के नये रास्ते ईजाद कर लिए। अब मजदूर भी कोयले और लोहे की चोरी करने लगे। नतीतजन सरदार खान जैसे दुर्दांत माफियाओं तक को मछलियां पालनी पड़ी। इन सबके बीच जो खास खास बात है, वह है जीवन जीने की अपराधियों की मजबूरी, जो पूरी फिल्म पर छायी रहती है। अपराध उनके लिए शौक से अधिक जिंदा रहने की मजबूरी है। रामधीर सिंह जैसे सत्ता के दलाल जिस तरह अपना उल्लू सीधा करते हैं, वह रौंगटे खड़े करने वाला है। अपने हितों के लिए वह सरदार और सुलतान के परिवारों के बीच हुई संधि को फिर से जंग का रूप दे देता है। है।
आर्थिक परिस्थितियाँ सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से संबद्ध होती है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता और ये तीनों मिलकर एक मजबूत सांस्कृतिक संरचना का निर्माण करते हैं, जो फिल्म में काफी भयावह बन जाती है। फिल्म में दो बातें काफी निराश करती हैं। एक तो मुसलमानों की हिंसक प्रवृत्ति का चित्रण (चाहें तो आप इसे मुस्लिम सवर्ण (खान/पठान) और पसमांदा (कुरैशी/कसाई) के आचरणगत व्यवहार के प्रतीक रूप में भी देख सकते हैं, जिसमें एक नायक है और दूसरा खलनायक! हालांकि फिल्म के अनुसार पहले स्थितियां अलहदा थी, जहाँ कुरैशी दबाते थे और सब दबते थे।’ (जो किसी भी माने में हजम नहीं होती)
और दूसरा, स्त्री-पुरूष संबंधों के दृष्टिकोण से औरत को घर की दहलीज या देह तक सीमित करना। भोजपुरिया समाज घर के भीतर किस तरह बर्ताव करता है, इसे परदे पर देखना कमाल का अनुभव है। स्त्री-पुरूष संबंधों की दृष्टि से भी फिल्म प्रभावित करती है। पहले सरदार और फिर फैजल। दो पीढ़ियों के बीच समाज में काफी कुछ बदला है और उस बदलाव के चिह्न इसमें दिखाई पड़ते हैं। फिल्म औरत और मर्द के रिश्ते का एक नया व्याकरण रचती चलती है। इसका सीधा असर बच्चों पर पड़ता है। फैजल और डेफिनेट इसके अच्छे उदाहरण हैं। कुछ भी अवास्तविक नहीं है। पूरी फिल्म भी फिल्म और टी.वी. देखते हुए ही आगे बढ़ती है। टी.वी. धारावाहिक और फिल्म का इस्तेमाल काफी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक हस्तक्षेप है। इसके बगैर फिल्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती। फैजल की पत्नी तो पूरी तरह से फिल्ममें डूबी है। एक फिल्म को कई-कई बार देखने के लिए वो कितनी चिरौरियां करती है। सरदार के लिए गौरी का वजूद उसकी देह तक सीमित है। सरदार जब वापस अपने घर लौटता है तो वह उसके साथ घात करती है। इस घात की वजह हमारे सामाजिक ढाँचे में हैं, जिसकी अपनी एक सोची-समझी राजनीति है। फिर गाली-गलौज की भी तो अपनी राजनीति है। फिल्म में बहुत सी गालियां तो सीधे स्त्री की देह पर वार करती है, मानो उसे उसकी औकात बताती है! क्या बिना गाली-गलौज के वास्तविक फिल्म नहीं बनायी जा सकती? फिल्म के पोस्टर तक पर गालियाँ अनिवार्यतः मौजूद रही। इस लिहाज से स्त्रियों के देखने/सुनने लायक इसमें गालियों और सेक्स के अलावा कुछ नहीं हैं। स्त्री-चरित्रों, यथा – नगमा (रिचा चड्ढा) और गौरी (राइमा सेन) ने अपना काम किया है। पुरूषवादी फिल्म में स्त्री पात्रों के लिए अधिक करने को कुछ बचता नहीं है पर इसके बावजूद उसकी मर्जी के बिना कोई उन्हें छू नहीं सकता। गाँजे के नशे में डूबे फैजल गोलियां बरसाते समय किसी से नहीं डरता पर अपनी प्रेमिका/पत्नी से वह भी खौपजदा है, यही हालत उसके पिता की भी है। अभिनय के लिहाज से ये दोनों दृश्य उल्लेखनीय हैं। नगमा बाहर मुँह काला कराने वाले अपने पति को भी खूब खिला-पिलाकर भेजती है, ताकि वह शर्मशार होकर न लौटे। इसके विपरित स्त्री एक ओर तो राह चलते अपहृत और बलत्कृत होने के लिए अभिशप्त है, तो दूसरी जातिवादी मानस के कीचड़ को ढोने और चीनी बर्तनोंमें खान परोसने के लिए। बॉलीवुड से प्रभावित मोहसिना खुद को माधुरी से कम नहीं समझती और न उस फिल्मीपन से बाहर निकल पाती है। छोटे शहरों की गली-मौहल्ले में किस तरह धोखाधड़ी के जाल बुने रहते है, फिल्म इसे बखूबी दिखाती है। रात में वहाँ कोई सुरक्षित नहीं, औरतें तो बिल्कुल नहीं। सरदार खान को जन्म देकर मर जाने वाली माँ अंतिम समय में अपने पति (शाहिद खान) की उदासी भरी एक निगाह तक न पा सकी। पति की निगाह नवजात बच्चे (लड़के) पर है और अगर वह लड़की होती तो?
फिल्म तेज गति में चलती है, ठहरने/सोचने का मौका वह कम ही देती है। फिल्मकार की कोशिश हर पात्र के साथ न्याय करने की रही है। यह सत्य घटना पर आधारित एक यथार्थवादी फिल्म है, जिसमें कल्पना का अतिशय प्रयोग मिलता है। माफियाओं, राजनेताओं और नौकरशाहों की मिलीभगत आमजन के लिए त्रासद स्थितियाँ उत्पन्न कर देती है। अच्छी बात यह है कि फिल्म मुम्बइया फिल्मों के ग्लैमर और स्टारडम के आगे घुटने नहीं टेकती, बल्कि भारतीय लोक के साथ खड़ी होती है, भले ही वह अतियथार्थ ही क्यों न हो। फिल्म में आया कसाईखाने का दृश्य जुगुप्साजनक लगता है पर एक समाज ऐसा भी है जिसका जीवन उसी पर केन्द्रित है किंतु ऐसे दृश्यों की एक सीमा होती है। यह सच है पिछले कुछ दशकों में सामाजिक अराजकता और हिंसक अपराधों में खासी बढ़ोतरी हुई है। कई घटनाएं मनुष्यता पर से हमारे विश्वास तक को डिगा देती है। आज का अति-महत्त्वाकांक्षी, लालची और स्वार्थी आदमी मनुष्यता के सारे गुण खोता जा रहा है। मानवीय रिश्तों का गणित बिगड़ने लगा है। रामधीर सिंह का अंत बुरा ही होना था पर बावजूद इसके उसके लिए लम्बे हिंसक दृश्य की कोई जरूरत न थी। हालांकि कई जगह, विशेषकर सार्वजनिक स्थलों पर फिल्मांकन के दौरान फिल्मकार सचेत दिखलाई पड़े हैं। जमीन से उठे अपराधी सरदार खान को भी अंततः रिक्शा ही नशीब हुआ। रिक्शा यहाँ मेहनतकश मजदूरों का प्रतीक बन जाता है, जिसके जीवन में सिर्फ छलनाएँ ही छलनाएँ है। फिर सरदार जैसे अपराधी की मौत पर मनोज तिवारी द्वारा गाया जिया तू बिहार के लालाजैसे हिंसा और संगीत के सम्मिश्रित गीतात्मक प्रयोग काफी डरावना लगता हैं (भले ही फिल्म में उसके अंत को बिहार में अपराधियों में नायकत्व की खोज के अंतिम हिस्से के रूप में देखा गया हो। क्योंकि फैजल के अंत पर फिल्मकार ऐसे कोई संकेत नहीं देता)।
दो भागों में बनी करीब साढ़े पाँच घंटे की इस फिल्म में वरुण गोविल और पीयूष मिश्रा द्वारा लिखे पच्चीस गाने (पहले में चौदह और दूसरे में ग्यारह) हैं, जिन पर भोजपुरिया लोक की धमक साफ सुनाई देती है। फिल्म का संगीत स्नेहा खानवलकर ने तैयार किया है। वे जद्दन बाई, सरस्वती देवी और ऊषा खन्ना के बाद चौथी भारतीय महिला फिल्म संगीतकार है। इस फिल्म में उन्होंने खासतौर पर कैरेबियाई द्वीपों पर प्रचलित भोजपुरी लोकसंगीत (कैरेबियाई और भोजपुरी संगीत का मिश्रण, जिसे चटनी म्युजिककहा जाता है) को फिल्म में स्थान दिया है।हम हैं शिकारी, इतनी लंबी गन...इसका अच्छा उदाहरण है। पीयुष मिश्रा का लिखा "इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियां..." फिल्म का आधार-गीत है। यहाँ चाँद और रोटी के प्रतीकार्थ बहुत दूर तक जाते हैं पर कोई ठहरे तो। "तार बिजली से पतले..." और "काला रे...", “ओ वूमनिया..” और आई एम ए हण्टर…” गाने नयापन लिए हुए हैं।सैंय्या काला रे...”, फ्रस्टरेटियाओ नहीं मोडा... जैसे गीत भरे-पूरे जीवन की लालसा को और अधिक गहराते हैं। कहानी की माँग को देखते हुए स्नेहा खानवल्कर ने प्रभावशाली पृष्ठभूमि संगीत तैयार किया है। लोक संगीत और पाश्चात्य संगीत की धुनों पर आधारित गाने कथानक को स्वाभाविक गति प्रदान करते है। अरसे बाद सिनेमा में हारमोनियम और ढोलक की ढेढ़ थाप सुनने को मिलती है। ऐसी ही मेहनत सिनेमैटोग्राफी में राजीव रवि और संपादन में श्वेता वैंकट ने की है। कोयले की खान में मारपीट, जैसे कई दृश्य बेहद प्रभावशाली है। शाहिद खान (जयदीप अहलावत), मनोज वाजपेयी (सरदार खान), नवाजुद्दीन सिद्दीकी (फैज़ल खान), ऋचा चड्ढा (नगमा खातून), राइमा सेन (गौरी) और पंकज त्रिपाठी (सुल्तान) ने बेहतर अभिनय किया है। फिल्म में जितना समय शाहिद खान पात्र के लिए जयदीप अहलावत को दिया गया, उसमें उन्होंने फिल्म को दृढ़ आधार प्रदान किया। उन पर फिल्माया प्रत्येक दृश्य अभिनय के लिहाज से फिल्म की बड़ी उपलब्धि है। मनोज वाजपेयी स्त्री-पुरूष संबंधों की नयी अभिनय-भाषा लेकर उपस्थित हुए हैं। नये जमाने के आशिक के रूप में नवाजुद्दीन सिद्दकी और हुमा कुरैशी को सबने पसंद किया। तिगमांशु धूलिया फिल्म की शुरूआत में चालीस साल की उम्र में नजर आते हैं और फिल्म के अंत में नब्बे साल की उम्र दिखाई देते है। इस बीच कई पीढ़ियों को वे अपने काईंयापन और कमीनगी का शिकार बनाते नजर आते हैं। शाहिद खान, सरदार खान और दानिश खान, ये तीन पीढियां उनकी साजिश का शिकार होती है। वे पहले तो क्रूर व चालाक माफिया और फिर शांत, संयत और घाघ नेता के रूप में परदे पर दिखाई पड़ते हैं। पचास साल के लम्बे आयु-अंतराल को परदे पर सफलतापूर्वक अभिनित करना आसान नहीं होता।
बेटा तुमसे हो नहीं पायेगा (सरदार खान), “उसे ये सब तो नहीं करना था” (फैज़ल खान) जैसे अनौपचारिक और अर्थपरक संवाद फिल्म को जीवंतता देते हैं। पीयूष मिश्रा के बोल गागर में सागर सरीखे हैं, हालांकि कहीं-कहीं ये वृत्तचित्र लगते हैं तो कहीं आपराधिक उपन्यास। गाली और गोली दोनों अनौपचारिक ढंग से सामने आती है - जब मन किया भौंक दी/चला दी। प्रस्तुतिकरण में फिल्मकार ने बने-बनाए फार्मूलों से दूर रहने की कोशिश की है, ताकि दर्शकों के कौतुहल को बनाए रख सके। कहानी भले ही नयी न हो पर प्रस्तुतिकरण नया है। बॉलीवुड में यथार्थपरक स‌िक्वल फिल्मों के लिहाज से यह प्रयोग खासा महत्त्वपूर्ण है। वैसे फिल्म अभी खत्म नहीं हुई है? सरदार खान का सौतेला बेटा डेफिनेट और रामधीर का बेटा अजय सिंह अभी जिंदा है। कुलमिलाकर यह अनुराग कश्यप की विशुद्ध व्यावसायिक फिल्म है, जो सत्तर और अस्सी के दशक की बीऔर सीग्रेड की अपराध फिल्मों की याद दिलाती है। बावजूद इसके हिंसा में मनोरंजन खोजने वाली इस फिल्म के कलाकारों ने फिल्म-अभिनय की ऊँचाईयों को छुआ है।
       संपर्क – डॉ. पुखराज जांगिड़, कालिंदी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली। दूरभाष – 9968636833, ईमेल पता – pukhraj.jnu"@gmail.com



मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-7 (जुलाई-सितंबर 2014)                                                                     भूमण्डलीकृत हिंदी सिनेमा का अतियथार्थवादी चेहरा - डॉ. पुखराज जाँगिड़   ISSN   2320 – 835X
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