सोमवार, 24 नवंबर 2014

साक्षात्कार ‘सांस्कृतिक अध्ययन एक संभावनाशील क्षेत्र है।‘ (आलोचक राजाराम भादू से कालूलाल कुल्मी की बातचीत)




जाति व्यवस्था की संरचना भी पिरामिड जैसी है। इसमें सबाल्टर्न अप्रोच को लागू करेंगे तो देखेंगे कि सबसे अधीनस्थ स्थिति में कौन है। तो उत्तर भारत में हम पाते हैं कि वाल्मीकि समुदाय सबसे निचले पायदान पर रहा है जो जातिगत तौर पर सफाई के पेशे से जुड़ा रहा है। वर्गीय दृष्टि इन भेदों को छुपा लेती है। दलित और आदिवासी की प्रचलित समाजशास्त्रीय श्रेणियों में भी हम इनके अन्तर्भेदों को नहीं देख सकते। ग्राम्शी का जोर सांस्कृतिक वर्चस्व और अधीनस्थता के अंतरों को देखने पर रहा है। सबाल्टर्न अप्रोच सांस्कृतिक संदर्भों के विश्लेषण में बहुत कारगर है।

   राजाराम भादू ने साहित्य, संस्कृति और शिक्षा पर निरंतर लेखन किया है। उनकी पुस्तकें कविता के संदर्भ’, ‘सृजन-प्रसंग’, ‘धर्मसत्ता और प्रतिरोध की संस्कृतिऔर शिक्षा के सामाजिक सरोकारचर्चित रही हैं। इधर उनकी संलग्नता सबाल्टर्न एप्रोच से विश्रृंखलित समुदायों के सांस्कृतिक अध्ययनों में है। वे समांतर संस्थान से संबद्ध हैं जहां से एक संस्कृति केंद्रित पत्रिका मीमांसाका संपादन करते हैं। प्रस्तुत है युवा लेखक कालूलाल कुल्मी से उनकी बातचीत।
प्रश्न- सबाल्टर्न एप्रोच क्या है? यह कहां से आयी और इसने विचार के क्षेत्र में बुनियादी स्तर पर क्या सवाल खड़े किये?
       उत्तर - सबाल्टर्नटर्म इतिहास से आया है जिसके मायने हैं निचले स्तर से या सतह से देखना। मुक्तिबोध की एक कृति का शीर्षक था -सतह से उठता हुआ आदमी। इधर सबाल्टर्नसांस्कृतिक पद भी बन गया है। इतिहास लेखन की एक पारंपरिक धारा रही है जो राजा-महाराजाओं, उनके युद्ध और साम्राज्य पर केंद्रित रही। दूसरी आधुनिक इतिहास की धारा है जिसमें वैज्ञानिकता का समावेश हुआ। मार्क्सवादी दृष्टि से इतिहास लेखन की समानान्तर धारा है। मार्क्सवाद के अनुसार दुनिया का अब तक का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। इतिहास के हर युग में वर्ग-संघर्ष रहा है।
इतिहास लेखन का जो नवें दशक का दौर है उसमें बहुत परिवर्तन देखा गया। औद्योगिक क्रांति आधुनिक काल की एक बड़ी परिघटना थी लेकिन उसे घटित हुए शताब्दियों गुजर गयीं। इस दौर में आये परिवर्तन को अलग नाम देने की कोशिशें हुईं है। उत्तर-आधुनिकता ऐसा ही एक पद है। उच्च तकनीक के प्रसार के साथ सभ्यता नये युग में संक्रमित होती है। जन-संचार में जबर्दस्त क्रांति भी उच्च तकनीक से संभव हुई। इसमें सीमाओं का अतिक्रमण हुआ और बंदिशें खत्म हुईं। एक समय था जब ज्ञान पर सत्ता का नियंत्रण था। लेकिन तकनीक ने इसमें बुनियादी परिवर्तन किया।

       प्रश्न - भूमंडलीकरण का दौर भी तो कहा जाता है इसे?
                हां, भूमंडलकरण में आर्थिकी भी जुड़ी होती है। पूंजी का चरित्र ही विस्तारवादी है। इसमें नये तरह के शक्ति केन्द्र बनते हैं। यहां साम्राज्यवाद का चरित्र बदल जाता है। पहले विस्तार के लिए युद्ध हुए, पहला विश्वयुद्ध और दूसरा विश्वयुद्ध। लेकिन अब युद्ध का तरीका बदल गया है, शीतयुद्ध भी नहीं हैं। अब किसी को जीतने के लिए युद्ध अनिवार्य नहीं रह गया है। अब मीडिया और उच्च तकनीक से लड़ने का दौर है जिनसे अपने पक्ष में माहौल बनाया जाता है। इस तरह नयी इकॉनॉमी खड़ी हुई जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कार्पोरट जगत ने उसको नया स्वरूप दिया। इस मल्टीनेशनल पूंजी ने नेशनल को तिरोहित कर दिया। जबकि कभी आधुनिकता की पहचान हुआ करती थी यह राष्ट्रीय पूंजी ।
डॉ. रामविलास शर्मा ने मार्क्स की विचारणा को आगे बढ़ाते हुए पूंजीवाद की भूमिका को एक हद तक प्रगतिशील माना था। और यही कारण था कि साम्राज्यवाद से लड़ाई में देश के पूंजीपति संघर्ष में  शामिल होते हैं। उसके पीछे कारण था कि जब अंग्रेज चले जायेगें तो व्यापार उनका होगा। किंतु आज इसी अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी ने राष्ट्रीय को अपदस्थ कर दिया है। मैंने रामविलास जी का उदाहरण  इसलिए दिया कि उन्हें इतिहासकारों की तुलना में हम ज्यादा जानते हैं। साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में भारत की उल्लेखनीय भूमिका रही है। उस समय राष्ट्रीय पूंजी भी साम्राज्यवाद से मुक्त होना चाहती थी। अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कई राष्ट्र के पूंजीपति साझेदारी करते हैं। यहां किन्ही देशों की पूंजी का वर्चस्व हो जाता है। यदि भारत का कोई पूंजीपति जापान की किसी कंपनी से अलाइंस करता है तो वह साझेदार है। ऐसा वह इंग्लैंड या अन्य देश की कंपनी के साथ भी कर सकता है। लेकिन वर्चस्व इससे तय होगा कि किसकी हिस्सेदारी कितने प्रतिशत है। तो यह ग्लोबल इकॉनॉमी एक पोस्ट माडर्न फिनोमिना है। इसने चिंतन को भी प्रभावित किया है। बदले हुए परिदृष्य को आधुनिकता के फ्रेमवर्क में समझना मुश्किल था। इसे समझने के लिए जो फ्रेमवर्क सामने आये, उन्हें उत्तर आधुनिकता के अन्तर्गत रखा गया। इनमें परस्पर भेद हैं, कई धारणाएं एक-दूसरे की विरोधी हैं, कोई सर्वसम्मति अभी नहीं बनी है। सबाल्टर्न एप्रोच भी इसी परिप्रेक्ष्य में उभरी है।

       प्रश्न - इसका सरोकार किसको परिभाषित करना रहा है?
       उत्तर - वैसे उत्तर आधुनिकता ने करीबन सभी परिभाषाएं बदल दीं। आपने सुना होगा कि विचारधारा का अंत’, ‘इतिहास का अंतया महा वृत्तान्तों के अंतजैसी घोषणाएं उत्तर-आधुनिकता के अन्तर्गत ही की गयीं। इन अतंवादी घोषणाओं की भले ही कितनी ही तीखी आलोचनाएं की गयीं लेकिन चली आ रहीं चीजों पर पुनर्विचार और पुनरावलोकन का सिलसिला शुरू हो गया। महिलावादी विचारकों का कहना था कि इतिहास ने उनके साथ न्याय नहीं किया है। मार्क्सवाद को नयी तरह व्याख्यायित या विस्तारित किया जाने लगा जिसे नव मार्क्सवाद कहा जाता है। मार्क्सवाद में पहले यही कहा जाता था कि आधार बदलने के साथ अधिरचना भी बदल जायेगी। लेकिन अब कहा गया कि अधिरचना भी आधार को प्रभावित कर सकती है। इससे पहले मार्क्सवाद को होली बुककी तरह पढ़ा जाता था। इटली के विचारक हैं अंतोनियो ग्राम्शी। उन्होंने ऐसे कई सवाल उठाते हुए मार्क्सवादी चिंतन को आगे बढाया।
मैं यहां दो उदाहरणों से बात को स्पष्ट करना चाहूंगा। द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र आपस में लड़े। इनमें से प्रमुख देश आर्थिक रूप से पूंजीवादी व्यवस्था वाले थे। आर्थिकी आधार है अधिरचना नहीं। लेकिन विश्वयुद्ध का अन्तर्विरोध था- लोकतंत्र बनाम फासीवाद। जबकि फासीवाद तो अधिरचना है। भारत में भाजपा या कथित रूप से उसके फासीवाद को रोकने के लिए कांग्रेस और वामपंथी संगठन साथ आ चुके हैं। कांग्रेस तो आर्थिक उदारवाद की समथर्क है और वामपंथी उसका विरोध करते रहे हैं। भाजपा का कथित फासीवाद उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। तो साबित हुआ कि सांस्कृतिक प्रश्न भी महत्वपूर्ण है, इन्हें नेपथ्य में नहीं रखा जा सकता।
मार्क्सवाद में माना जाता रहा कि संस्थागत धर्म अपने स्वभाव में प्रतिक्रांतिकारी होता है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर से लेकर फादर डेसमंड टूटू तक कई लोग हुए जो अपने यहां निम्न वर्ग के पक्ष में पूंजीवादी और आपनिवेशिक सत्ता से लड़े। उनके चर्च को रेडिकल चर्च कहा जाता है जिसने इन संघर्षों में अहम् भूमिका निभायी। यहां तक कि उन्होंने बाइबिल की नयी व्याख्याएं कीं। तो संस्कृति को चेतना के साथ जोड़कर देखने की जरूरत स्थापित होती गयी है।

       प्रश्न - इस सिलसिले में किसान-मजदूरों के बारे में क्या दृष्टिकोण उभरा है?
       उत्तर - मार्क्सवाद के अनुसार सर्वहारा वर्ग ही क्रांति की मुख्य संचालक शक्ति है। जाहिर हैं कि सर्वहारा के रूप में मुख्यतः मजदूरों को ही चिन्हित किया गया था। चीन की क्रांति ने किसानों की भूमिका को भी इस संदर्भ में रेखांकित किया। बल्कि वहां गुरिल्ला युद्ध पद्धति जैसे नये तरीके भी निकल कर आये। इसीलिए उसे माओवाद कहा जाता है। भारत में जो समूह किसानों को आगे रखकर लड़ रहे हैं उन्हें भी प्रायः माओवादी कहा जाता है। माओ ने तो चीनी क्रांति को सांस्कृतिक क्रांति नाम दिया लेकिन यह उन अर्थों में सांस्कृतिक नहीं है जिसे सबाल्टर्न धारा में देखा जाता है।
एन्टोनियों ग्राम्शी ने जन पक्षधर संघर्षो में सांस्कृतिक नजरिये को काफी अहमियत दी। उसके बाद से ये सिलसिला और भी आगे बढा। मैं एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट करना चाहूंगा। ग्राम्शी ने ऑर्गेनिक लीडरशिप यानी आवयविक नेतृत्व का विचार दिया है। अर्थात नेतृत्व उस तबके या समूह में से ही उभर कर आना चाहिए जिसे संघर्ष करना है। हम जानते है कि ऑर्गन माने अंग हैं, हाथ, पैर, मुंह शरीर के हिस्से हैं। नेतृत्व का रिश्ता भी समूह से वैसा ही होना चाहिए।
जाहिर है कि यह धारणा बाहरी नेतृत्व की असफलता या विचलन की प्रवृत्तियों से निकली है। बाहरी नेतृत्व का संदर्भित समुदाय से वैसा तादात्म्य नहीं हो सकता जैसा उसी समुदाय से उभरे नेतृत्व का हो सकता है। महिला ही महिलाओं पर बेहतर लिख सकती है या दलित ही दलितों की सही अभिव्यक्ति कर सकता है इसके पीछे भी यही नजरिया होता है। राजनीति में देखा गया हैं कि अक्सर दलित या आदिवासी नेतृत्व भी भ्रष्ट होता है। इस संदर्भ में कहा जाता है क्योंकि उस के सामने अपने समूह के प्रति जबावदेही का प्रश्न भी जुड़ा है इसलिए आगे उसके सही होने की संभावना है। आवयविक नेतृत्व दीर्घजीवी होता है, वह उत्तरोत्तर बेहतर होता जायेगा।
       प्रश्न - इस अप्रोच में जाति को कैसे देखेंगे?
       उत्तर - वर्ग के आधार पर समाज को देखते हैं और उसमें और बहुत से अंतर छुप जाते हैं। वर्गीय दृष्टि अपेक्षाकृत सरलीकृत है जिसमें कई वास्तविकताएं नजर नहीं आतीं। वर्गको भी एक ग्रेट ट्रेडीशन माना गया है उत्तर-आधुनिकता में। अब छोटी परंपराओं को देखने का दौर है। स्त्री और काले लोगों के सवालों को वर्गीय श्रेणी में उपेक्षित कर दिया गया। आदिवासी, दलित और स्त्रियों के प्रश्नों को सांस्कृतिक श्रेणियों में देखा जा रहा है। जब हम सभी मजदूरों को एक ही श्रेणी में देख रहे थे तब भी उनमें बड़े अंतर थे। कोटा शहर के जे.के. सिंथेटिक में काम करने वाले मजदूर और एक तेल मिल के मजदूर में बहुत अंतर था। सबाल्टर्न का मतलब है तलछट। सबसे नीचे से देखना शुरू करें।
जाति व्यवस्था की संरचना भी पिरामिड जैसी है। इसमें सबाल्टर्न अप्रोच को लागू करेंगे तो देखेंगे कि सबसे अधीनस्थ स्थिति में कौन है। तो उत्तर भारत में हम पाते हैं कि वाल्मीकि समुदाय सबसे निचले पायदान पर रहा है जो जातिगत तौर पर सफाई के पेशे से जुड़ा रहा है। वर्गीय दृष्टि इन भेदों को छुपा लेती है। दलित और आदिवासी की प्रचलित समाजशास्त्रीय श्रेणियों में भी हम इनके अन्तर्भेदों को नहीं देख सकते। ग्राम्शी का जोर सांस्कृतिक वर्चस्व और अधीनस्थता के अंतरों को देखने पर रहा है। सबाल्टर्न अप्रोच सांस्कृतिक संदर्भों के विश्लेषण में बहुत कारगर है।
       प्रश्न - तो आप कह रहे हैं कि अभी तक इतिहास में सक्रिय सबाल्टर्न अप्रोच को संस्कृति में प्रयुक्त किया जा सकता है?
       उत्तर - यह उल्लेखनीय है कि इतिहास में भी सबाल्टर्न धारा को प्रस्थापित करने का श्रेय भारत को है। नव मार्क्सवाद के दौर में इतिहास लेखन शुरू हो चुका था। कलकत्ता से रणजीत गुहा ने एक अलग दृष्टि से कृषकों का इतिहास लिखा और इस दृष्टि को सबाल्टर्न नजरिया कहा। यहां से इतिहास लेखन के सबाल्टर्न स्कूल की शुरूआत हुई। अब तो सबाल्टर्न स्टडीज के कई खंड आ चुके हैं। लेकिन हमारा मानना है कि इस दृष्टि को इतिहास लेखन तक सीमित रखना उचित नहीं है। इस अप्रोच को सृजनात्मक लेखन और संस्कृति की मौखिक परंपराओं के अध्ययन में भी प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यह अप्रोच संस्कृति में आयेगी तो वर्चस्व और वंचना के भेद ज्यादा वस्तुपरक और संवदेनशील रूपों में उद्घाटित होंगे।
       प्रश्न - आप कह रहे हैं कि इससे दलित और आदिवासी श्रेणियों के और भी अन्तर्भेद प्रकट होंगे?
       उत्तर - स्त्रियों के भी, स्त्रियों की दशा अपने विशिष्ट समूहों में दोयम दर्जे की होती है। वाल्मीकि स्त्री की स्थिति बाकी दलित स्त्रियों की तुलना में अधिक शोचनीय होगी। हमारे यहां जाटव जाति है लेकिन गौर से देखें तो इसमें दर्जन भर उपजातियां हैं। उत्तर भारत में ही जो घुमक्कड़ जातियां हैं उनकी स्थिति दलितों से भी खराब है। वे नागरिक हकों- एनटाइटिलमेंट से भी वंचित हैं। एक वाल्मीकि गांव के हाशिये पर ही सही, पर अपनी झौपड़ी का मालिक है। लेकिन एक घुमक्कड़ का डेरा वैधानिक रूप से अतिक्रमण है। उसका नाम मतदाता सूची में नहीं है, उसके पास राशन कार्ड नहीं है। वह बी.पी.एल. सूची में भी नहीं हो सकता। ऐसे अनेक समुदाय हैं जो अभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों, नागरिक अधिकारों से वंचित हैं।
       प्रश्न - इनकी समस्याएं भी सामने आनी हैं, लेकिन इनर्की ओर्गनिक लीडरशिप तो हैं नहीं?
       उत्तर- देखों, राजनीतिक और सामाजिक इन्क्ल्यूजन-समावेशन एक प्रक्रिया है जो न्याय और अधिकारों के बिना मुकम्मिल नहीं हो सकती। इसके लिए आपको उन्हें कई स्तरों पर जगह देनी होगी। पहला स्तर है प्रतिनिधित्व, उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में उचित जगह दी जाये। अगला स्तर इनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना है। अन्यथा इनका प्रतिनिधित्व महज प्रतीकात्मक भी हो सकता है। तीसरा इन्हे अभिव्यक्ति में सक्षम बनाना है। यह इनके सशक्तीकरण की प्रक्रिया से ही हो सकता है।
यह सही है कि आज इनके बीच इनका अपना नेतृत्व नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि हमारा इनके प्रति कोई दायित्व नहीं है। बल्कि आवयविक नेतृत्व का विकास हमारे लिए परिभाषित किया गया दायित्व है। अगर हम इनके बीच काम कर रहे हैं तो अपने काम तो आंकने का यही आधार बनायें कि हमने इनके बीच से नेतृत्व की कतार तैयार की अथवा नहीं। इन्हे लोकतांत्रिक धारा में लाने का दायित्व नागरिक समाज का है।
मुख्यधारा में इनके समावेशन के मायने हैं वर्चस्व और अधीनस्थता के संबंधों का खत्म होना। यह इनकी गरिमा और स्वाभिमान की बहाली का मामला है। यह दोतरफा प्रक्रिया है इनमें व्यक्ति के रूप में आत्म का बोध है और हम इन्हे एक व्यक्ति के रूप में मान्यता दें।
प्रश्न - तो साहित्य से ये कैसे जुड़ता है?
       उत्तर - सबाल्टर्न दृष्टि सभी संस्कृति रूपों से जुड़ती है। हमारे यहां सांस्कृतिक अध्ययनों का सिलसिला शुरू हुआ है। मैं ऐसे एक अध्ययन का जिक्र करना चाहूँगा जो मेरी पिछली बात से भी जुड़ा है। गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक का एक लेख है- केन सबाल्टर्न स्पीक?’ (क्या सबाल्टर्न बोल सकता है?) यह एक अध्ययन पर किया गया अध्ययन है। किसी अध्येता ने बंगाल की सतियों पर एक शोधपत्र लिखा है। गायत्री का लेख इस शोधपत्र का विश्लेषण है। इसमें एक ऐसी सती का उल्लेख है जो सती होने के समय गर्भवती थी। जबकि गर्भवती स्त्री के सती होने पर रोक थी। गायत्री सवाल उठाती हैं कि वह स्त्री तो बोल नहीं पायी और सती हो गयी। उसकी ओर से कौन बोलेगा?
तो जब तक सबाल्टर्न अपनी अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं हो जाते, हमें उसकी ओर से बोलना होगा। हमारा बोलना उसे सशक्त करेगा। हमारे अध्ययन उनके संघर्ष में मददगार होंगे, उनके बीच से नेतृत्व उभारेंगे। वे समूह तो अभी तक मौन की संस्कृति में जीते रहे हैं। हमने जिन घुमक्कड़ समुदायों का जिक्र किया, उनकी अपनी भाषा-बोली, रीति-रिवाज, सामाजिक नियम, धार्मिक अनुष्ठान और परम्पराएं हैं। उनका अपना ऐतिहासिक इतिवृत्त है। लेकिन यह स्मृतियां कहीं धुंध में खोयी हैं, उन्हें अभिव्यक्ति और भाषा की दरकार है। साहित्य और कलाओँ ने ऐसे क्षेत्रों में महत्ती भूमिका निभायी है। सांस्कृतिक अध्ययनों का क्षेत्र एक बड़ी संभावना है।
संपर्क - राजाराम भादू (मो.) 9828169277, कालूलाल कुल्मी (मो.) 8875541925


मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-7(जुलाई-सितंबर 2014)                                                                               ISSN   2320 – 835X
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