नारीवादी आलोचना: अर्थ और विकास - प्रियंका शर्मा
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प्रियंका शर्मा
पुरुषसत्तात्मक समाज व्यवस्था में ‘स्त्रीत्व’ और ‘पुरुषत्व’ की इन विशेषताओं का प्रयोग ही किसी चरित्र को लैंगिक
स्तरीकरण सहित महिला अथवा पुरुष बनाता है जिसमें महिला अधीन और पुरुष वर्चस्व की
स्थिति में रहता है। ऐसे साहित्य में महिलाओं के अनुभवों और सोच को अभिव्यक्ति
नहीं मिलती। और महिला लगातार अधीनता का शिकार होती रहती है। इसलिए महिलाओं के
प्रतिनिधित्व को पितृसत्तात्मक मूल्यों से संघर्ष कर के मुक्त होना होगा। आगे, नारीवादियों ने साहित्य आलोचना को ‘स्त्री केंद्रित’ (Gyno Criticism) आलोचना बनाने की बात कही।
आलोचना और रचना के अंतरसंबंध और उनके बीच के दायित्वों को लेकर चली बहस में
मार्क्सवादी आलोचक ‘टेरी ईगलटन’ ने अपनी किताब ‘Function of
Criticism’ में लिखा था
है कि अब तक का साहित्य एक वर्ग केंद्रित साहित्य रहा है। और इसमें सामान्य जन के
लिए जगह नहीं है। इसलिए आलोचना का दायित्व साहित्य में जनता के लिए जगह बनाना है।
और उनके अनुभवों को साहित्य में अभिव्यक्ति देने को लेकर सवाल करना है। कुल मिलाकर
टेरी ईगलटन का कहना है कि आलोचना का दायित्व साहित्य को बुर्जुआ वर्ग के दायरे से
निकालकर सर्वहारा जनता के दायरे तक लाना है। लेकिन इस पुरुषवादी
व्यवस्था के पूरे नजरिए में जनता की जो छवि थी, वह पुरुष द्वारा संचालित समाज की
थी। इसलिए, जनता के दायरे में आने के बावजूद साहित्य में महिलाओं की भागीदारी और अभिव्यक्ति
छूट गई और साहित्य के केंद्र में पुरुष बना रहा। पुरुषवादी व्यवस्था के साहित्य की
पुरुष केंद्रीयता को ‘दूसरी लहर’ के नारीवादियों ने प्रश्नांकित किया। और इसमें
महिलाओं की भागीदारी का आग्रह किया।
70 के दशक में आयी नारीवाद की ‘दूसरी लहर’ में, अभी तक के चले आ रहे हर
तरह के साहित्य लेखन पर नारीवादियों ने इस पूरे लेखन में से महिला के गायब होने और
पुरुष द्वारा रचे गए साहित्य में दिखाई गई ‘महिला छवि’ को लेकर सवाल उठाए। इस लहर में केट मिलेट ने एक
किताब ‘Sexual Politics’ में अब तक के शास्त्रीय लेखन में पुरुषों द्वारा गढ़ी
गई स्त्री छवि को नारीवादी नजरिए से उजागर किया। इस अध्ययन में ‘केट मिलेट’ ने लिंगों के बीच के शक्ति
संबंध और इनकी राजनीति को दिखाया और इन शास्त्रीय पुरुष लेखकों की कड़ी आलोचना की।
इस अध्ययन ने साहित्य जगत में अब तक वर्चस्व की स्थिति में चली आ रही साहित्यिक
आलोचना विशेषकर अमेरिका की नई आलोचना पर भी विरोध जताया। इसके प्रभाव ने आगे की
नारीवादी आलोचकों को एक रास्ता दिया।[1]
शुरुआत में, नारीवादियों द्वारा पुरुष केंद्रित साहित्य की
नारीवादी आलोचना से यह बात सामने आई कि महिलाओं को मुख्य धारा में शामिल करने के
लिए मुख्य धारा के साहित्य में महिला लेखन को शामिल करना होगा। इसके साथ ही यह भी
माना गया कि महिला लेखन जरूरी तौर पर नारीवादी ही होगा। लेकिन महिला लेखन के आँकलन
में यह बात सामने आई कि प्रत्येक महिला द्वारा लिखे गए साहित्य को नारीवादी
साहित्य नहीं माना जा सकता।
सन् 1986 में Toril Moi ने अपने निबंध ‘Feminist
Literary Theory’ में साहित्य
और महिला लेखन को रेखांकित करते हुए कहा कि हर एक महिला का लेखन ‘नारीवादी लेखन’ नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने साहित्य में ‘महिला, स्त्रीत्व और नारीवाद’ को लेकर एक नजरिया प्रस्तुत किया। और कहा कि ‘नारीवादी’ लेखन वह है, जिसे
पितृसत्ता विरोधी और यौनिक स्थिति के विरोधी के रूप में पहचाना जा सके।[2]
लेकिन मैरी वॉल्सनक्राफ्ट या वर्जीनिया वुल्फ जैसी महिलाओं के लेखन को ध्यान में
रखते हुए यह संभावना भी जताई गई कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के द्वारा लिखे गए
साहित्य में नारीवाद के अवयव ज्यादा हो सकते हैं।
इसीलिए ‘केट मिलेट’ के बाद की नारीवादियों ने उनके अध्ययन की कमी को
रेखांकित किया और कहा कि सारे पुरुषों का लेखन हर तरह से स्त्री विरोधी नहीं होता।
यानि कि अब यह माना गया कि नारीवादी लेखन के लिए व्यक्ति का स्त्री या पुरुष होना
मायने नहीं रखता। बल्कि नारीवादी लेखन या आलोचना के लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था
प्रदत्त पुरुषवादी वर्चस्व की अवधारणा को रेखांकित करना और इसके अंदर गढ़ी जाने
वाली महिला और पुरुष की ‘स्त्रीत्व’ और ‘पुरुषत्व’ छवि की पड़ताल करना है। ताकि अब तक महिला के अधीनीकरण
को समझा जा सके और महिलाओं के अनुभवों और अभिव्यक्तियों को मुख्यधारा में शामिल कर
समता आधारित समाज की तरफ बढ़ा जा सके।
इसलिए नारीवादियों ने पुरुषवादी व्यवस्था द्वारा दी
गई महिला और पुरुष की विशेषताओं को भी चिह्नित किया। ‘Thinking about Women’ (1968) किताब में Mary Ellmann ने स्त्रीत्व की परंपरागत विशेषताओं को सूचीबद्ध
किया है, कि सामान्यत: महिलाओं को निष्क्रियता, अस्थायित्व, असमरूप, दया, मातृत्व, धोखेबाज, आध्यात्मिक, सम्मति/स्वीकृति, अतार्किकता, और दो अशुभ रूपों - डायन और झगड़ालू के रूप में भी देखा
जाता है।[3]
इसी तरह Helen Cixouc अपनी किताब ‘The newly born
Women’ (1986) में लिखती हैं कि
द्विगणीतीय जोड़े में स्त्रीत्व को निष्क्रिय, चाँद, प्रकृति, रात, माँ, भावनात्मक, संवेदनशील, करुण समझा जाता है। पितृसत्तात्मक सोच में महिला और
स्त्रीत्व के बीच में एक ऐसी कड़ी है जिस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया गया है।
स्त्रीत्व महिला की प्राकृतिक विशेषता के रूप में देखा जाता है और पुरुष के साथ
जुड़ने वाली पुरुषत्व विशेषताओं से कमतर आँका जाता है।[4] महिला
और पुरुष की इन तुलनाओं के विरोधाभास में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मूल्यों को,
प्रत्येक विरोधी जोड़े को स्तरीकृत करके विश्लेषित किया जा सकता है, जहाँ ‘स्त्रीत्व’ को हमेशा नकारात्मक और
कमजोर के रूप में देखा जाता है।[5]
सामान्यत: ये गुण और विशेषताएँ एक युद्धक्षेत्र सी बन जाती हैं, जहाँ सर्वोच्चता को हमेशा
ही संकेतित किया जाता है। और अंत में, जीत ‘सक्रियता’ के साथ होती है और ‘निष्क्रियता’ हारती है, पितृसत्ता में पुरुष हमेशा ‘विजयी’ होता है।[6]
‘स्त्रीत्व’ को इन विशेषताओं से जोड़े
जाने के कारण, पितृसत्ता द्वारा महिलाओं को दमित और उत्पीड़ित होना पड़ता है। इसकी जबाबदेही
पर नारीवाद ‘स्त्रीत्व’ की इन विशेषताओं को और स्थिति को नकारता है और मानता है कि महिला भी पुरुष की
तरह ही योग्य है, समान अवसर के लायक है। वह महिला की भावुकता और
संवेदनशीलता को समाज प्रदत्त जीवनगत देन मानता है।[7]
पितृसत्ता को चुनौती के रूप में ही ‘सिमोन द बोउआर’ जैसी नारीवादियों ने ‘औरत पैदा नहीं होती, बना दी जाती है’ का नारा दिया।
नारीवाद की ‘दूसरी लहर’ के उदय के साथ ही नारीवादी आलोचकों ने पितृसत्तात्मक
व्यवस्था के साहित्य लेखन को पुरुषवादी घोषित किया। Mary Ellmann ने कहा कि
पुराने साहित्य लेखन में सत्तात्मक रुख को पुरुष से ज्यादा जोड़ा गया है, और महिला को संवेदना की
अभिव्यक्ति के साथ जोड़ा
गया है, इसलिए इसे पुरुषवादी माना जाना चाहिए।[8]
पुरुषसत्तात्मक समाज व्यवस्था में ‘स्त्रीत्व’ और ‘पुरुषत्व’ की इन विशेषताओं का प्रयोग
ही किसी चरित्र को लैंगिक स्तरीकरण सहित महिला अथवा पुरुष बनाता है जिसमें महिला
अधीन और पुरुष वर्चस्व की स्थिति में रहता है। ऐसे साहित्य में महिलाओं के अनुभवों
और सोच को अभिव्यक्ति नहीं मिलती। और महिला लगातार अधीनता का शिकार होती रहती है।
इसलिए महिलाओं के प्रतिनिधित्व को पितृसत्तात्मक मूल्यों से संघर्ष कर के मुक्त
होना होगा। आगे, नारीवादियों ने
साहित्य आलोचना को ‘स्त्री केंद्रित’ (Gyno Criticism) आलोचना बनाने की बात कही।
टॉरिल मोई का ‘महिला, स्त्रीत्व और नारीवाद’ का समीकरण यहीं पर उपयोगी है, यह पितृसत्ता और यौनिकता
विरोधी स्थिति को बनाने में, हाशिये के (दमित और मौन) लोगों की आवाज बन कर उनका
नेतृत्व करता है। ‘स्त्रीत्व’ और ‘पुरुषत्व’ के बीच स्तरीकरण में ‘नस्ल’, ‘वर्ग’, ‘जाति’ और ‘यौनिकता’ भी हमेशा अंतर्गुथित रहते हैं।[9] और निर्णायक
की भूमिका निभाते हैं। महिलाओं के लिए पुरुषसत्तात्मक समाज व्यवस्था द्वारा बनाई
गई इन्हीं विशेषताओं की आलोचना और अतिक्रमण करने के उद्देश्य से नारीवादी आलोचना से
साहित्य को परिचित कराया गया।
1960 के अंत और 70 के दशक से नारीवादी साहित्यिक
आलोचना के लिए ‘महिला’ और ‘पुरुष’ दोनों ही मुद्दे अपर्याप्त थे, वास्तव में पुरुष के ‘पाठ’ में स्त्री के प्रतिनिधित्व में स्त्री द्वेष था।
लेकिन ‘नारीवादी साहित्यिक आलोचना की प्रेरणा आश्चर्यजनक रूप से मजबूत हुई। इनकी
मुख्य चिंता पुरुष लेखक नहीं थे, बल्कि साहित्य में दिखाई गई वह महिला थी जो अक्सर यहाँ
खोई, चुपचुप, छिपी-सी, पुरुष वर्चस्व को स्थापित
करती ‘दरबान’-सी चित्रित की जाती थी।[10]
‘वर्जीनिया
वुल्फ’ के ‘अपना कमरा’ के बाद लगभग आधी सदी तक जगह खाली रही, जिसमें महिला लेखन ढूढ़ने
की जरूरत है।
इसप्रकार नारीवादी आलोचकों ने अभी तक के मुख्य धारा के साहित्य की पड़ताल करते हुए
कहा कि अभी तक पुरुषों ने साहित्य में महिलाओं के लिए ‘दरबानी’ का काम किया है। और उन्हें
साहित्य में जगह लेने से रोके रखा है। पुरुषों के वर्चस्व को देखते हुए साहित्य
में महिलाओं की असमान भागीदारी और प्रतिनिधित्व अब प्रतिकार कर रहा है।[11]
साहित्य में महिलाओं की भागीदारी
और प्रतिनिधित्व को लेकर भी बाद के नारीवादी आलोचकों ने यह माना कि यह
प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि महत्वपूर्ण यह जानना हैकि यह प्रतिनिधित्व
किस रूप में किसके द्वारा महिला को दिया गया -
“नारीवादी
आलोचकों के लिए मुख्य सवाल यह नहीं है कि किसने प्रतिनिधित्व पाया, बल्कि सवाल यह
है कि किसके द्वारा किसने प्रतिनिधित्व पाया, कैसे पाया, किन विमर्शों और शक्ति विभाजन के बीच और किस परिणाम
के साथ पाया।”[12] साहित्यिक नारीवादी आलोचना का उदय इसी पड़ताल का
परिणाम रहा। नारीवादियों का उद्देश्य इसके जरिए साहित्य में महिलाओं के
प्रतिनिधित्व, उनका चित्रण, और उस चित्रित महिला छवि के विमर्शों को खंगालना और
उनकी पड़ताल करना है। कि इस साहित्य लेखन ने अब तक महिलाओं को पुरुषसत्ता के अधीन
बनाए रखने में कैसे और क्या काम किया। पुराने पुरुषवादी साहित्य में चित्रित की गई
महिला की निष्क्रिय, कामुक, अस्थायी और अनुकरणशील छवि के पीछे काम कर विचारों की
पड़ताल करना साहित्यिक नारीवादी आलोचना का प्रमुख उद्देश्य रहा है।
अब तक साहित्यिक विचारकों और चिंतकों ने साहित्य और
कला से ‘कला समाज के लिए’ के विचार तले सामाजिक गतिविधियों में प्रगतिशील
तत्वों का साथ देने का आग्रह किया है। भारत में भी हिंदी आलोचक शुरुआत से रचना को
समाज के प्रगतिशील तत्वों की सहयोगी बनाने की मुहिम चलाते आये हैं। लेकिन समाज को
समझने का उनका दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक होने के कारण, महिलाओं की भागीदारी और
प्रतिनिधित्व साहित्य की आलोचना में नहीं रहा।
संपर्क
- प्रियंका शर्मा, परफॉर्मिंग आर्ट्स विभाग, पांडिचेरी विश्विद्यालय, पांडिचेरी,
[2] Edi. By Mary Eagleton, ‘A concise Companion to Feminist Theory’,
Wiley-Blackwell, June 2003, page no. 153
[3] Edi. By Mary Eagleton, ‘A concise Companion to Feminist Theory’,
Wiley-Blackwell, June 2003, page no.155
[4] Ibid, page no. 155
[6] Ibid, page no. 104
[7] Edi. By Mary Eagleton, ‘A concise Companion to Feminist Theory’,
Wiley-Blackwell, June 2003, page no.155
[8] Ibid, page no. 156
[9] Edi. By Mary Eagleton, ‘A concise Companion to Feminist Theory’,
Wiley-Blackwell, June 2003, page. No.156
[11] Edi. By Mary Eagleton, ‘A concise Companion to
Feminist Theory’, Wiley-Blackwell, June 2003,
page no. 170
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