गुजरात में कोटवाल शब्द का सम्बन्ध बांस के कार्य
करने वाले से जोड़ा जाता है तथा विटोलिया, बरोडिया और बसफोड़िया को भी कोटवालिया का ही भाग माना
जाता है। कोटवालिया भील जनजाति की एक शाखा है। भील जनजाति मुख्यतः दो संवर्गो में
बंटी है- उजले भील और मैले भील। मैले भील बड़वी, बसावा, गामीत, कोटवालिया, चौधरी तथा काथुड़ गोत्र समूहों में विभक्त हैं।
गोत्रों समूहों के नाम मिथकों, स्थान, व्यवसाय आदि के आधार पर उद्भुत है। पुनः कोटवालिया
जनजाति पांच गोत्रों में विभक्त हैं- कोटवालिया, बरंगिया, बरोड़िया, बंसफोड़िया तथा वीटोलिया में विभक्त हैं, ये गोत्र वंशों में और वंश कई परिवारों में विभक्त
हैं। ये वर्तमान समय में गोत्र अंतर्विवाह तथा परिवार व वंश वहिर्विवाह के नियम का
अनुपालन करते हैं।
जनजातीय
समुदाय में स्तरीकरण का प्रश्न अपने आप में विवादित रहा है। समाजशास्त्रियों एवं
मानवशास्त्रियों का एक वर्ग जनजातीय समुदाय को समस्तरीय (दुर्खीमः1933)
मानता है। दूसरा वर्ग कठोरतापूर्वक मानता है कि कोई भी
समुदाय या समाज पूर्णतया समस्तरीय हो ही नहीं सकता
(डेविसः2005:323-324) तो वहीं जान्सन (1990:461) जैसे विचारक अप्रत्यक्ष रुप से यह स्वीकार करते हैं कि किसी
भी समुदाय को किसी क्रम में रखना, महानतम से हीनतम अथवा उच्चतम से निम्नतम सदैव ही संभव होता
है। प्रत्येक व्यवस्था की यह अनिवार्य आवश्यकता होती है कि वह अपने सदस्यों में
किन्हीं भी आधारों पर कार्यों का विभाजन करे तथा पदों की संपूर्ति के लिए प्रेरणा
एवं पुरस्कार प्रदान करे। सामाजिक स्तरीकरण की अवधारणा असमान पुरस्कार और उसके साथ
सम्मिलित प्रस्थिति को अग्रेषित करती है। (पारसंसः1954:69-88) समाज का ऐसे वर्गो या स्तरों में विभाजन सामाजिक संरचना की
सार्वभौमिक विशेषता है, जो प्रतिष्ठा और शक्ति का पदानुक्रम निर्मित करता
है।(बाटोमोरः 2004:178)
भारतीय जनजातियों में स्तरीकरण
संबंधी अध्ययनों में दो प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम- अधिकांश समाजशास्त्रियों
एवं मानवशास्त्रियों ने अपने अध्ययनों में जाति,
वर्ग और शक्ति के मापदंडों द्वारा सामाजिक स्तरीकरण को
देखने का प्रयास किया गया है। अजनजातीय समुदाय में सामाजिक स्तरीकरण को ज्ञात करने
के लिए ‘‘शक्ति, संपत्ति, धन एवं सत्ता’’ को मापन के बतौर उपयोग में लिया जाता है। सामाजिक स्तरीकरण संबंधी
विभिन्न अध्ययन क्रम-विन्यास और वर्ग निर्माण के दृष्टिकोण से किये गये हैं एवं
उनकी अनुपस्थिति में, जनजातीय समाज में सामाजिक विभेदीकरण की अनुपस्थित होने की
मान्यता प्रदान की गयी है। द्वितीय- तीब्र गति से परिवर्तित हो रहे जनजातीय समुदाय
में अजनजातीय समुदायों के लक्षणों की उपस्थिति स्तरीकरण के उद्भुत होने की
प्रक्रिया का प्रकटीकरण करता है। भारत में जनजातीय समुदाय विकास के विभिन्न स्तरों
पर विद्यमान हैं, जिसके कारण जनजातीय अध्ययनों की श्रृंखला अपने आप में
विरोधाभास के संपुंज को उद्भुत करती है, जिसके कारण सैद्धांतिक स्तर पर भारत में जनजातीय समुदाय
समस्तरीय प्रतीत होता है तथा परिवर्तन की नवीन शक्तियों के प्रभाव के फलस्वरुप
प्रभाव के अर्थ में मान लिया जाता है कि जनजातीय समुदाय समस्तरीयता से
विषमस्तरीयता में परिवर्तित हो रहा। जनजातियों में सामाजिक स्तरीकरण एक
अस्तित्वात्मक संवृत्ति (फेनोमेना) है तथा अत्याधुनिक कृषि और औद्योगिक समाजों से
यह भिन्न अर्थ रखती है। सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त की संकेद्रियतयता या
नृजातीयता, वर्ग और शक्ति का स्वरुप प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है।
जनजातीय समाज के इतिहास, संरचनात्मक विभेदीकरण,
आर्थिक विकास के स्तर,
औपनिवेशिक प्रभाव की प्रकृति और सामाजिक रुपान्तरण की
आधुनिक शक्तियों को उद्घाटित करने में सामाजिक स्तरीकरण सिद्धान्त का क्रियान्वयन
और वास्तविक प्रकार्यात्मकता परिलक्षित होती है (के. एल. शर्मा 2006:164-167)। सामाजिक विज्ञानियों के अध्ययनों में विरोधाभास होने के दो
कारण हैं,
प्रथम- उन्होंने स्तरीकरण को एक आयामी स्थैतिक स्वरुप में
स्वीकार किया है, जबकि स्तरीकरण बहुआयामी है,
इसे विभिन्न- भाषायी,
धार्मिक, व्यसायिक, लैगिंक इत्यादि संवर्गो में विभक्त कर देखा जाना चाहिए।
(गुप्ताः1991:4) द्वितीय- समाजवैज्ञानिकों के समक्ष यह बहुत बड़ी चुनौती है
कि समूहों की जीवन पद्धति में अंतरस्थ विभिन्नता के आधार पर स्तरीकरण के मानक
प्रारुप एवं उन पर लागू होने वाली परिस्थितियों को सुत्रबद्ध किया जाय क्योंकि
गांव, कस्बा, नगर एवं महानगरों की जीवन पद्धति एक समान नहीं है,
इसके साथ-साथ गांव की प्रकृति यथा एक जाति एक गांव,
एक जाति कई गांव, कई जातियां एक गांव,
बहु जातियां बहु गांव (चौहानः1966)
इत्यादि, इन भौगोलिक इकाइयों में निवास करने वाले नृजातीय समूहों के
रीति रिवाजों, परम्पराओं प्रथाओं तथा जीवन पद्धतियों में पर्याप्त
वैविध्यता होती है।(दूबेः1975)
जनजातीयों में सामाजिक स्तरीकरण
हिंदुओं की जाति स्तरीकरण से भिन्न अर्थ रखता है। हिंदुओं में सामाजिक स्तरीकरण
स्वच्छता और अस्वच्छता की अवधारणाओं से निर्धारित होता है,
जिसका प्रकटन अनुक्रम विन्यास में संस्तरित जातीय व्यवस्था
के रुप में होता है तथा विभिन्न जातियों के मध्य प्रकार्यात्मक निर्भरता पायी जाती
है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि सभी व्यवस्थाओं में स्तरीकरण के साथ अनुक्रम
विन्यास पाया जाता ही हो, बाद के कुछ मामलों ने विभेदीकरण का मूल्य बढ़ाया है तथापि
अनुक्रम विन्यास की धारणा स्तरीकरण का बाहरी हिस्सा नहीं है,
(गुप्ताः1991:7) जबकि कुछ जनजातियां इस सम्बन्ध में पूर्णतया भिन्न है,
यथा- बैगा, (सिंहः2013) तो कुछ जनजातियां जनजाति जाति निरन्तरता (रेडफिल्डः1941,
सिन्हा) की प्रक्रिया द्वारा इसके निकट दिखाई देती है।
प्रत्येक जनजाति में अन्तःनिर्भरता और सामान्यतया,
अल्प मात्रा में पृथकता का (समुदाय में परिवर्तन स्तर के
अनुरुप) गुण भी पाया जाता है। प्रत्येक जनजाति समूह अंतर्विवाही है तथा जनजातीय
समूह में अनुक्रम एवं संस्तरण व्यक्तिगत व सामुदायिक आवश्यकताओं को पूरित करता है,
उपजनजाति, गोत्र, वंश समूह और परिवार आदि संरचनात्मक इकाइयाँ हैं।
जनजातियों में सामाजिक स्तरीकरण
एक आयाम (प्राथमिक स्तर) ही प्रस्तुत नहीं करता है,
अपितु ग्रामीण नगरीय अन्तःक्रिया की प्रक्रिया (वृजराज
चौहानः1990) ने परिवर्तन की शक्तिओं का संपर्क जनजातियों तक सुनिश्चित
किया है तथा परिवर्तन की आंतरिक एवं वाह्य शक्तियां (योगेन्द्रसिंहः2006:54) जनजातियों को राष्ट्र-राज्य (प्रहलाद मिश्राः 29 फरवरी से
1मार्च 2008) के केंद्र (संवैधानिक रूप से वे केंद्र में आ चुके हैं) में
आने की प्रक्रिया को तीव्र बना रही है। जनजातीय समूहो में अंतरस्थ विकास योजनाओं
की स्वीकार्यता, जागरुकता की दर, सापेक्षतया स्तरीकरण में अभिवृद्धि की प्रवृत्ति को असमान
रुप में प्रभावित कर रही है। ओरांस (1965) ने संथाल जनजाति का अध्ययन किया और परामर्श दिया कि संथाल
भी अपने पडोसियों के मानसिक सामाजिक परिधि द्वारा अनुक्रम को स्वीकार करते हैं।
टोपनो (1970) ने मुंडा जनजाति में स्तरीकरण को विवेचित करते हुए कहा कि
ये लोग अपने बच्चों का नाम हिन्दूवाद और इसाईवाद के शब्दों में रखने लगे हैं।
प्रसाद (1975) ने बिहार के पालामउ जिला में पहारिया जनजाति में सामाजिक
स्तरीकरण और अन्तःक्रिया का विवेचन किया तथा कहा कि जनजातीय समूह जाति व्यवस्था के
अभिलक्षण यथा- जजमानी व्यवस्था को स्वीकार कर रहे हैं। शाह (1976)
ने गुजरात के भरुच और पंचमहल जिला में स्थापित स्तरीकृत
जनजातीय समूहों के संबंध में सूचित किया कि आधुनिकीकरण और सरकार द्वारा चलायी जा
रही योजनाओं की शक्तियों के कारण जनजातीय समाज में समस्तरीयता और समानता समाप्त हो
गयी है। बोस (1981) ने गुजरात के जनजातीय कृषकों में चार लक्षणों की पहचान की
है- धनी कृषक, मध्यम कृषक, गरीब कृषक और कृषि श्रमिक। सबसे निचले अनुक्रम व्यवस्था में
कृषि श्रमिक हैं, इसकी संख्या सर्वाधिक है तथा ये भूमिहीन हैं,
कुछ कृषि श्रमिकों के पास एकाध एकड़ अनुपजाऊ भूमि है। ये
अपने श्रम को बेचते हैं, इसलिए इन्हें कृषि श्रमिक कहा जाना अधिक ठीक है। जनजातीय
सामाजिक विभेदीकरण की प्रक्रिया यथा अंतर्विवाही शक्तियां,
जनजातियों को विभाजित करती हैं उनके सदस्य सुदृढ़ समूह के
साक्षी हैं तथा यह स्थिति उनके समुदाय में सुदृढ़ स्तरीकरण को प्रतिबिबिंत करता है।
पाथी (1984) ने गुजरात के पॉंच जनजातीय गांवों का अध्ययन किया और संपूर्ण
जनसंख्या को पॉंच आर्थिक संवर्गो में बॉंटा है-जमींदार,
धनी कृषक, मध्यम कृषक, लघु कृषक तथा खेतों में कार्य करने वाले मजदूर। सिंह (1985)
ने भी उल्लेख किया है कि पश्चिमी बंगाल और विहार की
जनजातियों में सामाजिक स्तरीकरण विद्यमान है तथा जनजातीय समाज और उसकी प्रस्थिति
कृषक जाति ध्रुव में परिवर्तित हो रही हैं। सरकार (2000) ने सांस्कृतिक मशीनीवाद का संकेन्द्रीय परिधि पर स्थित जंगल में रहने वाले
धोदिया पर अध्ययन किया तथा बताया कि रानी परज और मैदानी भाग में निवास करने वालों
को धोधिया के नाम से जाना जाता है, उन्होंने पाया कि इन दोनों में भौतिक सामग्री का उपभोग,
धन, वस्त्र, सामाजिक व्यवहार समान है और यह स्थिति समूह अन्तःक्रिया और औद्योगिकीकरण
को उद्घाटित करता है। दास गुप्ता (2000) ने भील जनजाति की महिलाओं में पहचान और संघर्ष को अवलोकित किया
जो जीविका के लिए अवैध कार्यो में संलग्न हैं। भील समूह ने स्पष्ट रुप से
परम्परागत जीवन पद्धति का त्याग और व्यवसायिक औद्योगिक स्तर में प्रवेश किया है।
यह स्थिति नगरीकरण के प्रभाव को प्रतिबिबिंत करता है। अमिताभ सरकार एवं समीरा दास
गुप्ता (2007) ने छत्तीसगढ़ के बस्तर की मुरिया,
मारिया, भतरा, धुर्वा, दोरला तथा हल्बा जनजातियों में स्तरीकरण को स्पष्ट किया है।
उन्होंने पाया कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के कारण बस्तर की जनजातियाँ जनजाति
ध्रुव से कृषक ध्रुव की ओर गतिशील हैं। विनय कुमार श्रीवास्तव (2010) ने अपने अध्ययन में यह पाया कि टोडा,
बदगा कुरुंबा तथा कोटा जनजाति में हिंदुओं की विशेषता देखने
को मिलती है, इनमें सहजीवी अंतर्संबंध है एवं यह जजमानी व्यवस्था का एक
गुण है और यह विशेषता जाति ब्यवस्था की है।
सामाजिक स्तरीकरण के प्रतिस्थापित आयामों की श्रृंखला
समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के मुलभूत मुद्दे संरचना और प्रक्रिया के साथ घनिष्ठ रुप
में अंतर्सबंधित हैं। भारत में सामाजिक स्तरीकरण संबधीं अध्ययनों की दो मुख्य
अभिस्थापनायें परिलक्षित होती हैं -प्रथम- अध्ययन में स्वच्छता-अस्वच्छता,
पवित्रता-अपवित्रता और क्रमविन्यास आदि अवधारणाओं के मानकों
का अनुपालन। द्वितीय- स्तरीकरण की अभिस्थापना- आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र के
अभिजनों द्वारा किया जाना। भारत में जनजातीय अध्ययनों के अवलोकन से यह तथ्य विदित
होता है कि अभी तक जनजातियों में सामाजिक स्तरीकरण संबंधी अध्ययनों का अभाव है,
जबकि जनजातियों में स्तरीकरण संबंधी अध्ययन भारतीय समाज को
सर्वांग रुप में समझने का महत्वपूर्ण आयाम प्रस्तुत करता है तथा इसे समझे बिना
भारतीय समाज व्यवस्था की व्याख्या नहीं की जा सकती,
क्योंकि जाति और जनजाति (दोनों ही) भारतीय समाज व्यवस्था का
अंग है एवं यह प्रश्न संरचना और प्रक्रिया के सिद्वान्त से भी घनिष्ठ रुप में अंतर्सबंधित
है।
योगेन्द्र सिंह (1985) ने भारत में स्तरीकण के संपूर्ण अध्ययनों (सैद्धांतिक और
आनुभविक) को संरचनात्मक प्रकार्यात्मक, संरचनात्मक, संरचनात्मक ऐतिहासिक और ऐतिहासिक भौतिकवाद या मार्क्सवादी
पद्धति पर आधारित कोटिक्रम में रखा है। सामाजिक स्तरीकरण का संरचनात्मक
प्रकार्यवादी पद्धति जाति को क्रम विन्यास की व्यवस्था के रुप में समझती है। यह
पद्धति इसे जातियों के मध्य परस्पर सहयोग की व्यवस्था के रुप में विश्लेषित करता
है, यद्यपि संरचनात्मक उपागम के द्वारा ड्यूमा (1970) ने होमो हेरारकिकस में सामाजिक स्तरीकरण का विशेषीकृत
स्वरुप में अध्ययन किया है। सामाजिक मानवशास्त्र में समाजविज्ञानियों के बढ़ते
रुझान ने विशुद्ध सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययन की मात्रा को नकारात्मक रुप में
प्रभावित किया है। सामाजिक मानवशास्त्रियों के समक्ष ड्युमा के संरचनात्मक उपागम,
देसाई (1948), लींच (1960), बेली (1960), सच्चिदानंद (1964) और विद्यार्थी (1965,1970)
के अनुसरण के अतिरिक्त विकल्पों का अभाव प्रतीत होता है।
समाजविज्ञानियों का भारत एवं विश्व के अधिकांश देशों में जनजातीय अध्ययनों का
मुख्य केंद्र विन्दू संकेंद्रित (नृजातीय) आयामों की ओर रहा है,
जिसके फलस्वरुप वे मुख्यतया गोत्र,
नातेदारी और धर्म के विश्लेषण तक परिसीमित हो गये। सैद्धांतिक
अभिस्थापन के विषय में संरचनात्मक और संरचनात्मक प्रकार्यात्मक पद्धति का
अनुप्रयोग करने वाले समाजविज्ञानी सर्वाधिक अभिरुचि ज्ञापित करते हैं। भारत में
सामाजिक स्तरीकरण संबंधी अध्ययनों का तीसरा अभिस्थापन संरचनात्मक ऐतिहासिक है।
संरचनावाद ऐतिहासिकतावाद की अनदेखी कर देता है और कहीं-कहीं पर आनुभविक तथ्यों के
अभाव में संरचना का स्वरुप ही स्पष्ट नहीं होता तथा सामान्यत: राजनीति से ही
अभिप्रेरित हो जाता है। सिंह (1977) ने पाया कि इस उपागम में दो आयाम हैं- मार्क्सवादी और
अमार्क्सवादी। जो मार्क्सवादी नहीं हैं, वे ऐतिहासिकतावादी,
पुनः विभेदीकरण का ही अध्ययन करते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक
मानवशास्त्रियों के द्वारा सर्वाधिक संरचनात्मक ऐतिहासिक उपागम का उपयोग आनुभविक
तथ्य संकलन में किया गया है, यद्यपि भारत में अधिकांश अध्ययन जाति एवं वर्ग से सबंधित है,
जो कि इस सैद्धांतिक प्रारुप के अंतर्गत नहीं आता लेकिन फिर
भी इन अध्ययनों ने कृषक, कृषक संरचना और कृषकता के विषय में ज्ञान को विस्तारित किया
है। अमार्क्सवादियों के अंतर्गत भारत में जनजातियों का अध्ययन करने वाले प्रारंभिक
मानवशास्त्रियों यथा- डाल्टन, रिजले, क्रुक आदि को रखा जा सकता है। भारत में सामाजिक स्तरीकरण का चतुर्थ
अभिस्थापन मार्क्सवादी उपागम है, जिसने संघर्ष, संरचना और इतिहासवाद की विशिष्टता को विशेषीकृत किया तथा
अपने आप को उत्पादन की शक्तियों और उत्पादन संबंध में ऐतिहासिक शक्तियों पर
केन्द्रित किया। उत्पादन संबंध और उत्पादत की शक्तियां इतिहास के निश्चित द्वंद्व
से अंतर्सबंधित हैं। इसके अंतर्गत ए.आर. देसाई (1959,1977),
डी.डी. कौशाम्बी (1956),
एस.ए. डांगे (1949) आदि को रखा जा सकता है।
भारत में जाति व्यवस्था में
अनुक्रम निर्धारण पवित्रता और अपवित्रता के आधार पर होता है,
जिसका मापन विचार एवं मूल्यों के द्वारा किया जाता है।
संक्षेप में जाति व्यवस्था प्रकार्यात्मक रुप से परस्पर निर्भरता की एक व्यवस्था
है। विभिन्न जातियों के मध्य अनुक्रम निर्धारण सामूहिक अभिव्यक्ति है,
जो वेदों, पुराणों तथा ग्रंथों आदि के आधार पर व्याख्यायित किये जाते हैं।
जनजातियों में स्तरीकरण हिन्दू समुदाय से भिन्न एक जटिल संपुंज को अभिव्यक्त करता
है। भारत में एक तरफ शिकार अवस्था में जीवन यापन करने वाले कुछ जनजातीय समुदाय
पूर्णतया आत्मनिर्भर रहे हैं, यथा- चेंचू वहीं कुछ जनजाति समुदाय काफी कुछ मात्रा में
अन्तःनिर्भर रहते हुये अंततः अन्य जनजातीय समुदायों पर निर्भर रहे है,
यथा- बैगा, गोंड, परधान, धोबा, पनका आदि, वहीं बाह्य समुदायों के संपर्क,
स्थायी निवास की अवधि आदि
विभेदीकरण के विभिन्न प्रतिमान को उद्भुत कर रहा है।
जनजातियों में अंतर्विवाह के नियम का कठोरतापूर्वक पालन किया जाता है तथा प्रत्येक
जनजाति अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। इनमें अनुक्रम विन्यास का अभाव पाया
जाता रहा है, लेकिन बाजारोन्मुखी अर्थव्यस्था में प्रवेश,
एक पीढ़ी या कुछ दशकों से स्थायी एवं मिश्रित गांव में निवास,
जनजातियों में सामाजिक विभेदीकरण की प्रक्रिया में वृद्धि
तथा असमानता के आयाम को अभिव्यक्त कर रहा है,
साथ ही अनुक्रम विन्यास का नवीन आयाम भी उद्भुत हो रहा है,
एवं यह व्यक्तिगत अथवा परिवार,
वंश समूह व गोत्र तक ही सीमित नहीं है,
अपितु स्थानीय परिधि के बाहर भी विस्तारित हो रहा है।
पश्चिमी भारत में पायी जाने वाले
अति पिछड़े जनजातीय समूहों में कोटवालिया जनजाति का प्रमुख स्थान है। इनकी जनसंख्या
दक्षिणी गुजरात में मिलती है, जो वर्तमान में तापी जिला के नाम से जाना जाता है। तापी जिले
में पांच तालुका हैं - उच्चल, सोनागढ़, निज्झर, व्यारा, बालोद। तापी जिला में कुल 380 ग्राम हैं, जिसमें उच्चल में 68,
सोनागढ़ में 96, निज्झर में 87, व्यारा में 88 तथा वालोद में 41 ग्राम हैं। वर्ष 2011
(वेबसाइट के अनुसार) की
जनगणनानुसार कुल जनसंख्या 806489 है, जिसमें 402398 पुरुष एवं 359368 महिलायें हैं। वर्ष 2001 के जनगणना प्रतिवेदनानुसार कुल जनसंख्या 719561 थी,
जिसमें 551197 भाग जनजातीय जनसंख्या का है। सोनगढ़ तालुका में जनजातीय
जनसंख्या 161464, उच्छल में 71084, निज्झर में 83848, व्यारा में 198689 तथा वालोद में 36112 निवास करती है। इसमें प्रमुख रुप से कोटवालिया,
काथुड़, गामीत, वड़वी, वसावा, चौधरी, भील आदि जनजातियां निवास करती हैं।
गुजरात में कोटवाल शब्द का सम्बन्ध बांस के कार्य करने वाले
से जोड़ा जाता है तथा विटोलिया, बरोडिया और बसफोड़िया को भी कोटवालिया का ही भाग माना जाता
है। कोटवालिया भील जनजाति की एक शाखा है। भील जनजाति मुख्यतः दो संवर्गो में बंटी
है- उजले भील और मैले भील। मैले भील बड़वी,
बसावा, गामीत, कोटवालिया, चौधरी तथा काथुड़ गोत्र समूहों में विभक्त हैं। गोत्रों
समूहों के नाम मिथकों, स्थान, व्यवसाय आदि के आधार पर उद्भुत है। पुनः कोटवालिया जनजाति
पांच गोत्रों में विभक्त हैं- कोटवालिया, बरंगिया, बरोड़िया, बंसफोड़िया तथा वीटोलिया में विभक्त हैं,
ये गोत्र वंशों में और वंश कई परिवारों में विभक्त हैं। ये
वर्तमान समय में गोत्र अंतर्विवाह तथा परिवार व वंश वहिर्विवाह के नियम का अनुपालन
करते हैं।
कोटवालिया जनजाति आचार की परिशुद्धता के आधार पर दो भागों
में विभाजित है- ईसाई कोटवालिया और हिन्दू कोटवालिया। ईसाई कोटवालिया स्वयं को हिन्दू
कोटवालिया से उच्च मानते हैं तथा ये शराब,
मांस, मछली व अण्डे का सेवन त्याग चुके हैं तथा चर्च के अनुदेशों
का पालन करते हैं। सामान्यतया ईसाई कोटवालिया हिन्दू कोटवालिया में विवाह करना
पसन्द नहीं करते, लेकिन ईसाई कोटवालिया की जनसंख्या अपेक्षाकृत कम और दूर दूर
होने के कारण, उन्हें तीसरे मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। ईसाई कोटवालिया
अपनी कन्या के लिए वर के चयन का आधार प्रस्तुत करते हैं कि ‘‘जो युवक मांस और मदिरा का सेवन न करता हो तथा किन्हीं न
किन्हीं व्यवसायों में संलग्न हो।‘” इससे वर के चयन के दो स्तर स्पष्ट होते हैं - ईसाई कोटवालिया
(जिसके आचार परिशुद्ध होगें ही), दूसरा हिन्दू कोटवालिया,
जिसके आचार परिशुद्ध हों। कोटवालिया जनजाति में आचार की परिशुद्धता
सामान्यत: धर्म से जुड़ी हुई है तथा यह देवी आंदोलन से उद्भुत हुई है।
देवी आंदोलन का आरंभ नवंबर 1922 में माना जाता है (ए.एम.मैकमिलनः1922-3:43)। ए. आर. देसाई (2004:140) का मत है दक्षिणी गुजरात क्षेत्र (कोटवालिया के निवास क्षेत्र) समुद्र का किनारा,
समतल एवं कम घना वनीय क्षेत्र था। सड़क व जल मार्ग आदि की
सुविधा के कारण इस क्षेत्र पर अंग्रेजों का पूर्णतया नियंत्रण स्थापित था।
कोटवालिया जनजाति द्वारा शिकार, खाद्य संग्रहण एवं स्थानान्तरित कृषि को त्याग,
बांस के उत्पाद बनाने,
विक्रय करने को मुख्य व्यवसाय बनाने व अल्प समयावधि के लिए कृषि
मजदूरी करने में सर्वाधिक भूमिका ‘भारतीय वन अधिनियम 1927’
ने निभायी, जिसने राजकीय वन सेवा के अधिकारियों को असीमित अधिकार
प्रदान किया तथा जनजातियों को उनके वन अधिकारों से पूर्णतया वंचित कर दिया (नदीम हसनैनः1997:198-209) एवं समतल वनीय भूमि पर सरकार का नियंत्रण स्थापित हो गया।
सन् 1894 से 1927 के मध्य दक्षिणी गुजरात के आदिवासी वनीय भूमि पर कृषि अवश्य
करते थे, लेकिन भूमि पर अप्रत्यक्ष अधिकार पारसी साहूकारों का था,
जो इनके लिए लिए सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक आवश्यक वस्तु
शराब बनाने के लिए महुआ एवं गुड़ तथा ब्याज पर कर्ज देते थे। ये साहूकारों के कर्ज
के बोझ से इतने दबे हुए थे कि अपनी संपूर्ण उपज का अधिकांश भाग ब्याज के रुप में
चुकाते थे। (हार्डीमैनः1994:95-127) इससे कृषि पर निर्भर रहने वाली जनजातियां (गोत्र) सर्वाधिक पीड़ीत थीं,
विशेषतौर पर चौधरी,
बड़वी, बसावा, गामीत, आदि। अतः इस समय तीन वर्ग (देसाईः वही 140-143) दिखाई दिये-1- साहूकार या भूमि के अप्रत्यक्ष स्वामी 2-कृषक (वे जनजातियां जो कृषि कार्य से जुड़ी थीं) 3-शिल्पी एवं कृषि मजदूर। दक्षिणी गुजरात क्षेत्र में गामीत
जनजाति (गोत्र) प्रभु जनजाति है। इनकी जनसंख्या इस क्षेत्र में
सर्वाधिक है। भील जनजाति के इस गोत्र के सदस्यों को शराब बनाने में विशेषज्ञता
हासिल है और समाज द्वारा मान्यता प्राप्त है। ये लोग शेष लोगों को शराब की आपूर्ति
सुनिश्चित करते हैं। इसके साथ ही ये कृषि एवं पशुपालन का कार्य भी करते हैं। इस
रुप में वन एवं आबकारी कानूनों का सर्वाधिक उल्लंघन इन्हीं के द्वारा किया जाता
था। अतः दण्ड से बचने के लिए यह आवश्यक था कि ये अंग्रेजों के साथ ताल-मेल बैठायें
और अधिकांशतया यही लोग जंगल की सुरक्षा के लिए अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी ‘वन सुरक्षा समिति’ के सदस्य बने तथा अंग्रेज अधिकारियों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं
को पूरित करने में मदद करते थे। इससे इनके और अंग्रेजों के मध्य अन्य समूहों की
अपेक्षा ज्यादा घनिष्ठता उत्पन्न होती गयी। इस क्षेत्र में जहां एक तरफ अंग्रेज नियंत्रण
स्थापना के प्रशासनिक प्रारुप का विस्तार कर रहे थे तो दूसरी तरफ स्थायी नियंत्रण
के लिए ईसाई मिशनरियां धर्म परिवर्तन का कार्य भी कर रही थीं। इस क्षेत्र में ईसाई
मिशनरियों का मुख्य केंद्र नन्दुरबार था और दूसरा केंद्र व्यारा था। इस केंद्र की
स्थापना 19वीं शताब्दी के मध्य मानी जाती है। सोनगढ़ तालुका में 1969 में अंग्रेजों द्वारा सर्वप्रथम चर्च बनवाये जाने के
प्रमाण मिलते हैं। ईसाई मिशनरियों ने सर्वप्रथम गामीत जनजाति को अपने प्रभाव में
लिया तथा धर्म परिवर्तन का कार्य प्रारंभ किया। भींट बुदुरुख (नया फलिया या कोटवाल फलिया) गांव में गामीत,
बड़वी, बसावा, भील तथा कोटवालिया जनजातियां निवास करती हैं,
जिसमें गामीत 300, बसावा 7, बड़वी 100, भील 2 तथा कोटवालिया 250 परिवार हैं। पुनः 250 कोटवालिया परिवार दो भागों में विभक्त हैं,
जिसमें 55 ईसाई कोटवालिया
तथा 195 हिन्दू कोटवालिया हैं।
इस गांव के 1 गामीत परिवार ने 1957 में ईसाई धर्म स्वीकार किया तथा 1975 तक इनकी संख्या 40 हो गयी। इनके सहयोग से 1975-76 में कोटवाल फलिया में कच्चा चर्च बना तथा ये लोग ईसाई प्रचारक
का कार्य करते थे। 1987 में करंजिया गांव के चर्च में पहले कोटवालिया ने ईसाई धर्म
ग्रहण किया तथा वर्तमान समय में इस गांव 55 कोटवालिया परिवारों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया लिया है।
ऐसी मान्यता है कि धर्म परिवर्तन के पश्चात अंग्रेजों द्वारा शिक्षा,
चिकित्सा आदि की सुविधायें प्रदान की जाती थीं तथा उन्हें
परेशान नहीं किया जाता था। ऐसे में धर्म परिवर्तन करना इनकी विवशता थी। इन परिस्थितियों
के प्रत्युत्तर के रुप में देवी आंदोलन को देखा जा सकता है,
जिसने जनजातियों की सामाजिक सांस्कृतिक संरचना में विद्यमान
कुरीतियों को दूर करने, धर्म परिवर्तन रोकने एवं पूंजीवादी चेतना उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा
की। वास्तव में देवी आंदोलन चेचक की बिमारी से सबंधित है। हार्डीमैन (वहीः55) का मत है कि प्रारंभ में देवी पुरुष या स्त्री के शरीर
में प्रवेश करने के बाद प्रकट होती थी। उनको मनाने के लिए लोग तमाम उपहार प्रस्तुत
करते थे और अंत में देवी उनकी सेवा से संतुष्ट होकर उनका गांव छोड़कर कहीं और चली
जाती थी।
यदि देवी के आदेश को सर्वांग रुप में देखा जाये तो यह किसी
न किसी स्थानीय समस्याओं से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। तत्कालीन समय में शराब
आदिवासियों की अर्थव्यवस्था की बदहाली का सर्वप्रमुख कारण थी तथा इसी के कारण ये
भोले-भाले लोग पारसी साहूकारों के ऋण के चंगुल में फंस गये थे,
इस क्षेत्र में शराब देवताओं का भोजन (डोनाल्ड हर्टनः सितम्बर1943:246) माना जाता था तथा शराब पीना पूजा के नियमों द्वारा
मान्यता प्राप्त था, जिसमें उल्लेख था कि यह देवीय आत्मा द्वारा उत्तेजना पैदा
करने के लिए है। स्थानीय बड़े पीने वालों का विश्वास था (टी.वी. नायकः 1956:219-220) कि शराब मूलतः ईश्वर द्वारा लोगों को दी गयी है। एक
स्थानीय कहावत के अनुसार ईश्वर ने ब्राम्हणों को घी और भील को शराब दी थी।
दक्षिणी गुजरात में देवी आंदोलन
में भील जनजाति के गामीत गोत्र ने कर्मकाण्डीय परिशुद्धता का नेतृत्व किया तथा
चौधरी, बड़वी, बसावा ने उसका सहयोग किया। और कोटवालिया एवं काथुड़ की विशेष
रुचि आंदोलन में न होते हुए भी उन्होंने देवी के भय से गामीत का उथले मन से सहयोग
किया। परिणामतः दो वर्ग उभरे, प्रथम जिन्हांेने शराब,
मांस, मछली, अण्डा का सेवन करना बन्द कर दिया तथा देवी के आदेशों का
अनुपालन करना प्रारंभ कर दिया एवं दूसरा जिन्होंने आंदोलन में साथ तो दिया लेकिन
उन्होंने मांसाहार एवं शराब का सेवन बन्द नहीं किया। प्रथम वर्ग में क्रमश: गामीत,
वड़वी, बसावा तथा चौधरी आते हैं,
इनके घरों में आज भी मांस नहीं पकाया जाता और न ही शराब पी
जाती है। यदि किसी की इच्छा होती भी है तो चुपके से खेतों में मांस आदि पकाया जाता
है ताकि अन्य लोगों को इसका संज्ञान न हो। दूसरे वर्ग में कोटवालिया और काथुड़ आते
हैं। कोटवालिया में एक उदारवादी धड़ा था, जिसकी संख्या कम थी,
वे भी देवी के आदेशों का अनुपालन कर रहे थे,
लेकिन इनकी संख्या कम होने के कारण यह माना जाता है कि
कोटवालिया लोगों ने देवी के आदेशों का अनुपालन आंदोलन समाप्ति के बाद नहीं किया
तथा इनके लिए देवी का प्रकोप उनसे असंतुष्टि का प्रतीक था,
जो उनसे अनुकूलन के पष्चात समाप्त हो गया। इसप्रकार दक्षिणी
गुजरात की जनजातियों में विभेदीकरण की प्रक्रिया बलवती होती गयी। हार्डीमैन (वहीः164-165) लिखते हैं कि देवी कार्यक्रम के सांस्कृतिक पक्ष का
सर्वाधिक प्रभाव कर्मकाण्डीय शुद्धता एवं अहिंसात्मक व्यवहार पर पड़ा। धार्मिक विश्वासों
के बारे में लगभग कुछ नहीं कहा गया और न ही कोई ऐसी मांग करने का प्रयास किया गया
कि आदिवासी हिन्दू देवी देवताओं राम, कृष्ण एवं हनुमान की पूजा कर सकें। वास्तव में आदिवासियों
को देवी से अनुमति मिली थी कि वे अपने पुराने देवी देताओं की पूजा कर सकतें हैं,
पर बलिदान या हिंसा नहीं कर सकते। कर्मकाण्ड और सिद्धान्त
परिवर्तनीय हैं, लेकिन धर्म नहीं। देवी के आदेश ने एक मुश्त पुनर्बलन और आंतरिक
तर्क विकसित किया, जो एक तरफ उन्होंने एक ऐसे कानून का प्रतिनिधित्व किया जो
लोभी स्थानीय भड़काऊ पारसियों के विरोध में था। दूसरी तरफ उन्होंने क्षेत्रीय ऊंची
जातियों एवं हिंदुओं से सबंधित मूल्यों को उचित ठहराने का प्रयास किया। शराब और
ताड़ी पर प्रतिबंध ने एक निर्णायक स्थिति हासिल कर ली क्योंकि इसने पारसियों के
खिलाफ एक मुख्य हथियार दिया, साथ ही शुद्धतावादी संकेत भी दे दिया। निश्चित रुप से
हार्डीमैन का अध्ययन देवी आंदोलन का विश्लेषण सांगोपांग स्वरुप में करता है,
लेकिन वह इस आंदोलन के परिणामस्वरुप जनजातीय समाज में
विभेदीकरण की प्रक्रिया पर प्रकाश नहीं डालता। इससे क्रमश: गामीत,
चौधरी, बड़वी तथा बसावा ने अपने रहन सहन,
वेश भूषा और आचरण में परिशुद्धता लाकर अपने को शिल्पकार या
अल्पजीवि श्रमिक वर्ग यथा कोटवालिया और काथुड़ से अपने उच्च होने का दावा प्रस्तुत
किया तथा गामीत इन मूल्यों के सर्वाधिक निकट होने के कारण प्रभु जनजाति के रुप में
स्थापित हुई एवं चौधरी इनके समकक्ष होने का दावा प्रस्तुत कर रहे हैं तथा बड़वी,
बसावा गामीत के समकक्ष होने की प्रतियोगिता में लगे हुए
हैं। कोटवालिया एवं काथुड़ अपने को निम्न स्थिति को स्वीकार कर चुके हैं। कोटवालिया
जनजाति का उदारवादी धड़ा, जो आंदोलन के समय से ही अपने आचरण में परिशुद्धता ले आया था,
लेकिन संख्या कम होने के कारण उसे भी निम्न स्थिति प्राप्त
हुई। किंतु उसने इस स्थिति को कभी स्वीकार नहीं किया तथा अपने को गामीत के समकक्ष
होने के दावा प्रस्तुत करता रहा। इस वैचारिक द्वन्द्व को हार्डीमैन ‘जनजाति से जाति’ में रुपान्तरण के रुप में देखते हैं।
कोटवालिया जनजाति को व्यावसायिक
आधार पर तीन संवर्गों में विभक्त है- कृषक,
बांस का कार्य करने वाले,
कृषि एवं अन्य कार्यो में संलग्न श्रमिक तथा आधुनिक
व्यसायों में संलग्न। इनमें बांस कार्य करने वाले तथा कृषि एवं अन्य कार्यो में
संलग्न श्रमिक वर्ग की संख्या सर्वाधिक है। यह वर्ग पूर्व में स्थानीय मांगों एवं
आजीविका संचालन के अनुरुप उत्पादन करता था परन्तु वर्तमान समयावधि में स्थानीय
मांगों का स्थान बाजार व्यवस्था ने ग्रहण कर लिया है तथा साक्षर वर्ग मोटर चालन,
बैण्ड पार्टी, श्रमिक ठेकेदारी, दुग्ध उत्पादन, इत्यादि सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत सेवाओं में संलग्न है।
व्यारा तालुका के बाकला गांव में यह देखा गया कि 15 ईसाई कोटवालिया
परिवार में से 6 परिवारों की आर्थिक स्थिति उन्नत है एवं इन 6 परिवारों में कुल जनसंख्या 47 है, इसमें 12 सदस्य 18-40 आयु वर्ग के हैं तथा 4 स्नातक, 1 पालिटेक्नीक में अध्ययनरत है,
3 हाई स्कूल,
2 दसवीं फेल तथा 1 आठवीं तक शिक्षा ग्रहण किये हुए हैं। इनमें यह देखा गया कि
ये अपने को हिंदू कोटवालिया से भिन्न मानते हैं और विवाह के समय आर्थिक स्थिति
समान होने पर ही विवाह करते हैं अन्यथा अन्य गोत्रों चौधरी,
गामीत, बड़वी, बसावा, काथुड़ में विवाह करना पसन्द करते हैं। इन 12 सदस्यों में से 4 सदस्यों ने गामीत लड़की से एवं 1 बसावा लड़की से विवाह किया है। ये लोग सामान्यतया हिन्दू
कोटवालिया के घर भोजन करना पसन्द नहीं करते एवं हिन्दू कोटवालिया में इनके अनुकरण
की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। साथ ही वर्तमान समय में कोटवालिया जनजाति में शिक्षा,
परिश्रमी, सात्विक होना आदि वर चयन की कसौटी (मूल्य) के रुप में
स्थापित है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कोटवालिया जनजाति में शिक्षा और आर्थिक
स्थिति पड़ोसी समूहों से भिन्नता स्थापन उच्च सामाजिक प्रस्थिति होने का दावा
प्रस्तुत करने की प्रक्रिया में वृद्धि कर रही है,
जिससे सामाजिक विभेदीकरण बढ़ रहा है।
स्वतंत्रता के पूर्व वन अधिनियम 1927 ने कई जनजातियों को अपनी आजीविका के आयाम को परिषोधित करने
के लिए विवश किया (कोटवालिया), तो कुछ जनजातियों को परिस्थितियों के साथ
अनुकूलन करने के दौरान धर्म परिवर्तन की ओर उन्मुख हुए
(गामीत), साथ ही कुछ जनजातियों ने इसके लिए विद्रोह भी कर
दिया (बैगा) तथा सरकार को पीछे हटना पड़ा एवं इन समूहों को स्वतंत्रता के पश्चात
रियायत प्रदान की गयी (सिंहः2013)।
जनजातीय समुदाय परिवर्तित होते परिवेश में जातीय संरचना में
प्रवेश कर रहा हैं। जनजातीय सदस्यों द्वारा कृषि संस्तर में प्रवेश और उनकी
उत्तरजीविता, सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य मुद्दा है। स्वतंत्रता के पश्चात
कृषि एवं लघु कुटीर उद्योगों पर भी पूंजीवाद का प्रभाव पड़ा है। जनजातीय समूहों का
उत्तरजीविता का आयाम बाजारीय अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ गया है तथा जनजातियों में
पूंजी संक्रेद्रण की प्रवृत्ति पनप रही है। मार्क्सवादी और अमार्क्सवादी अध्येताओं ने जनजातियों में सामाजिक स्तरीकरण
की प्रक्रिया का अध्ययन किया है। मार्क्सवादी उपागम की मान्यता है कि जनजातियों
में समस्तरीयता वास्तविकता नहीं है अपितु मिथक है। जनजातियों में पहले से ही
सामाजिक विभेदीकरण का मौलिक बुनियादी ढांचा रहा है। भारत में ब्रिटिश शासन के
दौरान जनजातियों के बीच असमान भूमि वितरण था। जनजातीयों में विभेदीकरण का स्वरुप
जनजाति से वर्ग है तथा यह मुख्यतया कृषकों में दिखाई देता है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि
भारत में जनजातीय सामाजिक विभेदीकरण की संरचनात्मक इकाई जनजाति है,
जो परम्परागत जाति के अर्थ या वर्ग संरचना से भिन्न है। सैद्धांतिक
स्तर पर ‘जाति और वर्ग’ व्यवस्था के अंदर समूह के रुप में स्वीकार किये जाते हैं,
जबकि जनजाति समूहों के मध्य परस्पर निर्भरता की मात्रा अति न्यून
रही है (सिंहः2013) फिर भी इसे एक सुसंबद्ध व्यवस्था नहीं माना जा सकता।
प्रत्येक जनजाति स्वयं में स्वायत्त, अंतर्विवाही, सहभोजी, नातेदारी अभिस्थापित,
गोत्र समूह रही है। परिवर्तन की नवीन शक्तियों के कारण
जनजातियां अपनी संकेंद्रीय पहचान एवं प्रस्थिति में उर्ध्वमुखी गतिशीलता के प्रति
सचेष्ट हुई हैं। एक तरफ राज्य द्वारा प्रदत्त प्रस्थिति को अंगीकार किये हुए हैं,
तो दूसरी तरफ आचार व्यवहार में परिशोधन के द्वारा तथा पड़ोसी
समूहों से भिन्नता स्थापित कर क्षेत्रीय प्रभु जनजातीय समूहों से समान होने का
दावा प्रस्तुत कर रही है। बाजार व्यवस्था से जनजातियों के संपर्क ने इस प्रक्रिया
की गति में अभूतपूर्व वृद्धि की है। अतः स्पष्ट है कि जनजातियों में सामाजिक
विभेदीकरण प्रक्रिया जनजाति से जाति की ओर रुपान्तरण में दृष्टिगत होती है (बेलीः1960, अरोराः1972, बोसः1941) तथा जाति मूल्य, क्रिया और विचारों का परिवतर्तित होने वाला समूह है और इसका
संगठनात्मक सिद्धांत भारतीयों के दैनिक जीवन पद्धतियों को शामिल करता हैं। (डियने
पी. माइंसः2009:75)
संपर्क - डॉ. राजा राम सिंह, समाजशास्त्र एवं समाजकार्य
विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर, ईमेल पता - rajaramsinghrdvv@gmail.com
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