स्वयंप्रकाश ने भूमंडलीकरण के
आर्थिक पक्ष को उसके विभिन्न स्तरों पर उजागर किया है। एक आर्थिक प्रक्रिया के रूप
में भारत में उसके फैलाव, धीरे-धीरे विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय
कंपनियों को लील जाने, अमीरी और गरीबी के बीच की खाई के
गहराते जाने, नई तकनीकों के आगमन के साथ बेरोजगारी के बढ़ने,
वैश्विक या अमरीकी आर्थिक मंदी के दौर में भारतीय अर्थ-व्यवस्था के
भी चरमरा जाने आदि स्थितियाँ ‘ईंधन’ में
बहुत साफ-साफ चित्रित की गई हैं
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने समकालीन
हिन्दी उपन्यास को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है। समकालीन हिन्दी उपन्यासकारों
ने भूमंडलीकरण और उसके घटकों को अपने उपन्यासों के विषय के रूप में ग्रहण किया है।
विशेषकर विगत दस-पंद्रह वर्षों में हिन्दी उपन्यासकारों ने इस ओर विशेष ध्यान दिया
है और शायद ही भूमंडलीकृत जीवन का कोई ऐसा पक्ष हो जिस पर हिन्दी उपन्यासकारों की
दृष्टि न गई हो। लेकिन, भूमंडलीकरण को लेकर इन सभी
उपन्यासकारों का ट्रीटमेंट समान नहीं है। कुछ उपन्यासकार ऐसे हैं जो भूमंडलीकरण के
प्रभाव में बहते दिखाई देते हैं, इसे भुनाने की कोशिश में मीडिया और
सिनेमा की तरह चटपटी सामग्री प्रस्तुत करने में लगे हुए हैं, लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसे उपन्यास भी सामने आए हैं
जो जीवन पर भूमंडलीकरण के प्रभावों का चित्रण करते हुए उसके सर्जनात्मक प्रतिरोध
की ओर जाते हैं। यह चित्रण एवं सर्जनात्मक प्रतिरोध स्वयंप्रकाश के उपन्यास ‘ईंधन’ में अत्यन्त गहरे स्तर पर दिखाई देता है।
स्वयंप्रकाश
हिन्दी के उन रचनाकारों में शामिल हैं, जिन्होंने स्वयं को साहित्य जगत की दलबन्दियों, दाँव-पेचों, छल-प्रपंचों, नारेबाजी एवं शोर-शराबों से दूर रखते हुए कथा-साहित्य
में महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। समकालीन जीवन की विसंगतियों की पहचान करते हुए
उन्होंने उन्हें रचनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। वस्तुतः स्वयंप्रकाश समय की
हरकत पर गहरी दृष्टि रखने वाले रचनाकार हैं। वे समाज एवं व्यक्ति पर बदलती हुई
स्थितियों के प्रभावों-कुप्रभावों को लक्षित करते हुए उसे अपने रचनाकर्म का विषय
बनाते हैं।
आज
हम समय के जिस दौर से गुजर रहे हैं वह तीव्र भूमंडलीकरण का दौर है जो हमारी
जीवन-चर्या एवं वैचारिक संसार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन लेकर आया है। अमेरिकी
विदेश मंत्री हेनरी किसींजर ने 1966 ई. में “वाशिंगटन पोस्ट” समाचार-पत्र के अपने एक लेख में भूमंडलीकरण
के संबंध में कहा था कि कुछ ही समय में अमेरिकी संस्कृति और विकास मॉडल का वर्चस्व
पूरे विश्व में फैल जाएगा। समय ने इसे सच कर दिखाया और प्रख्यात समाजशास्त्री
प्रो. श्यामाचरण दुबे के अनुसार हम इस प्रवृत्ति के असहाय दर्शक मात्र बनकर रह गए।
वस्तुतः भूमंडलीकरण आज का एक ऐसा सच है जिससे जीवन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं है
और हमारे समय का हर विचारक, चिंतक, कलाकर्मी, रचनाकार इससे अपने-अपने तरीके से टकरा रहा है।
वैसे
तो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया बहुत पहले से ही चल रही है लेकिन 1990-91 से यह बहुत
तीव्र गति से प्रारंभ हुई। मूलभूत रूप में एक आर्थिक प्रक्रिया के रूप में प्रारंभ
हुआ भूमंडलीकरण अपने प्रभाव में व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया भी है और
परिणामतः इसने पूरे विश्व के आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ढाँचे को परिवर्तित कर
दिया है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में नई आर्थिक नीति, खुले बाजार की अवधारणा, सार्वजनिक संस्थानों का निजी संस्थानों में रूपांतरण, मल्टीनेशनल कंपनियों का बढ़ता प्रभुत्व, प्रौद्योगिकी और तकनीक की विस्फोटक प्रगति, कम्प्यूटर और मोबाइल का तीव्र विकास, प्रबंधन और वितरण की नई पद्धतियाँ, विज्ञापनों का मायावी संसार और परिणामतः बाजारवाद और
उपभोक्तावाद के अंतहीन प्रसार ने हमारे अंतःबाह्य जीवन को पूरी तरह बदल कर रख दिया
है। स्वयंप्रकाश ने इस बदलाव को औपन्यासिक स्तर पर अपने उपन्यास ‘ईंधन’ में उपस्थित किया है।
ऊपरी
स्तर पर देखें तो ‘ईंधन’ स्निग्धा और रोहित नामक
स्त्री-पुरुष के दाम्पत्य-जीवन की कथा है जो अंततः असफलता के द्वार पर दम तोड़
देती है, लेकिन थोड़ा ध्यान से देखें तो यह
भारतीय जीवन पर भूमंडलीकरण के प्रभाव की कथा है - ऐसा प्रभाव जिसने न केवल उसके
बाह्य जीवन को बदल कर रख दिया है बल्कि उनके भीतरी जीवन में भी गहरी सेंध लगाई है
और उनके संबंध-विधान को गंभीर ठेस पहुँचाई है।
स्वयंप्रकाश
ने भूमंडलीकरण के आर्थिक पक्ष को उसके विभिन्न स्तरों पर उजागर किया है। एक आर्थिक
प्रक्रिया के रूप में भारत में उसके फैलाव, धीरे-धीरे विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय कंपनियों को लील जाने, अमीरी और गरीबी के बीच की खाई के गहराते जाने, नई तकनीकों के आगमन के साथ बेरोजगारी के बढ़ने, वैश्विक या अमरीकी आर्थिक मंदी के दौर में भारतीय
अर्थ-व्यवस्था के भी चरमरा जाने आदि स्थितियाँ ‘ईंधन’ में बहुत
साफ-साफ चित्रित की गई हैं।
भूमंडलीकरण
की प्रक्रिया का एक बड़ा सच यह है कि भारत में जिस रूप में विदेशी निवेश होने की
बात की जा रही थी, वास्तव में वैसा हुआ नहीं। जो
विदेशी पूँजी यहाँ आई उसमें से अधिकांश नए उद्योग-धंधों की स्थापना में नहीं लगी, बल्कि वह शेयर बाजार या यहाँ के उद्योग-धंधों की खरीद
में लगी। अतः इसने भारतीय अर्थ-व्यवस्था को सुदृढ़ करने की जगह उसे खोखला करने का
काम किया। ‘ईंधन’ में स्वयंप्रकाश रोहित के हवाले से इस स्थिति
का वर्णन इन शब्दों में करते हैं -”जो पूँजी देश में आ भी रही थी वह कारखानों में या कारोबार में नहीं लग रही थी।
उसमें से लगभग आधी पूँजी शेयर बाजार में पोर्टफोलियो निवेश के रूप में आयी थी।
उसका हम क्या करते? चाटते? उसमें हमारी क्या भूमिका हो सकती थी? इसी पूँजी ने इसी दशक में एशियाई चीतों की रातोंरात
हवा निकाल दी थी। कोढ़ में खाज़ यह कि इस बची-खुची आमद का भी कोई चालीस प्रतिशत
हिस्सा ग्रीनफील्ड इन्वेस्मेण्ट नहीं था। जब सारा देश धोती खोलकर ही खड़ा हो तो
अनजान जगह में नया उद्यम चालू करने की जोखिम कौन मौल ले? विलय या अधिग्रहण न कर ले सीधे? तो कोकाकोला पारले को पी गयी और ब्रुक बाण्ड लिप्टन
किसान, कोठारी और क्वालिटी को खा गयी, जिलेट ने मलहोत्रा और विलटेक की हजामत बना दी और
व्हर्लपूल ने केल्वीनेटर को घुमा दिया। एसस्सार शिपिंग ने साउथ इण्डिया शिपिंग को
डुबो दिया तो प्रॉक्टर एंड गेंबल ने गोदरेज को धो दिया।”
भूमंडलीकरण
के दौर की एक मान्यता यह रही कि मल्टीनेशनल कंपनियों के विस्तार एवं निजीकरण के
विकास के परिणामस्वरूप रोजगार के व्यापक अवसर पैदा होंगे, लेकिन सच ऐसा ही नहीं रहा। टेक्नॉलोजी के आगमन ने कई
लोगों के सामने जहाँ रोजगार का संकट पैदा किया वहीं कइयों के सामने कम मेहनतनामे
पर कार्य करने की मजबूरी पैदा की। खासकर पुरानी पीढ़ी के लोगों के सामने इसने गहरा
संकट उपस्थित किया - “मौत के बारे में सोचना और सोचते
रहना अकारण नहीं था। ये लोग सचमुच मर रहे थे। नयी टेक्नॉलोजी के रोटरी प्रेसों के
आगे परंपरागत छापाखाने एक के बाद एक बन्द होते जा रहे थे। नयी टेक्नॉलोजी में
इन्हें प्रशिक्षित करने को कोई तैयार नहीं था। वहाँ इतने आदमियों की जरूरत भी नहीं
थी। बूढ़ों और असमय बूढ़ों की तो हर्गिज नहीं। उनका काम शोषण कराने को तैयार और
थोड़े से पैसों में पूरा दिन खटने को राजी चन्द बेरोजगार किस्म के लड़कों से ही चल
जाता था, जो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। एक को निकालो तो चार
आते थे। जिन छोटी-छोटी खटारा प्रेसों को इन्होंने कभी भाव नहीं दिया, ये लोग अब उन्हीं प्रेसों में आधी-पौनी तनखा पर काम
कर रहे थे।”
अर्थशास्त्र
की एक मान्यता है कि जब कोई अर्थ-व्यवस्था जितना आयात करती है उससे ज्यादा निर्यात
करने लगे तो वह अन्य अर्थ-व्यवस्थाओं को बेरोजगारी का भी निर्यात करती है। भारतीय
अर्थ-व्यवस्था भी इस स्थिति का शिकार हुई है। आज स्थिति यह है कि जहाँ देश में
कुछेक लोग अति संपन्न होते जा रहे हैं, वहीं एक बड़ा वर्ग गरीबी की खाई में डूबता
जा रहा है। आर्थिक मंदी की स्थिति इस संकट को और गहरा कर देती है। यह भूमंडलीकरण
का ऐसा श्याम पक्ष है जिसका शिकार विश्व के कई देशों की अर्थ-व्यवस्था हुई है
जिनमें भारत भी शामिल है। स्वयं प्रकाश ने ‘ईंधन’ में इस
स्थिति का बहुत ही सटीक वर्णन किया है - “बाज़ार में मन्दी थी। देश में घोटालों पर घोटाले हो रहे थे। आयात में नित नयी
छूटें दी जा रही थीं। केन्द्र में मिलीजुली सरकार थी जो निर्णय लेने से डरती थी।
निवेशकों में उत्साह नहीं था। सरकार जितनी डाँवाडोल थी उसकी आर्थिक नीतियाँ उससे
भी ज्यादा डाँवाडोल थीं। साल में चार-चार बार ब्याज की दरें गिराने के बावजूद
निवेश नहीं आ रहा था। शेयर बाजार एक घायल साँड की तरह था जो पूरा जोर लगाने के
बावजूद उठकर खड़ा नहीं होता था। छोटे निवेशकों का विश्वास बाजार की शक्तियों पर से
पूरी तरह उठ गया था। घरेलू बचत का पटरा बैठा हुआ था। विकास कार्य ठप्प थे। सीमेण्ट
और भारी उद्योग वाले रो रहे थे। औद्योगिक वृद्धि अतीत की स्वर्णिम याद जैसी बन गयी
थी। सरकार सार्वजनिक उद्योगों के विनिवेश पर आमादा थी। अनाज के गोदाम सड़ रहे थे
और किसान आत्महत्या कर रहे थे। कुल मिलाकर चारों तरफ सुस्ती और पस्ती का माहौल था।”
वस्तुतः
सामान्य लोगों के जीवन पर भूमंडलीकरण के प्रभाव का आकलन करें तो हम इसे त्रासद ही
पाते हैं। इसने एक ऐसी अनिश्चित अर्थव्यवस्था के बीच हमें छोड़ दिया जिसकी कुंजी
मूलतः अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों के हाथ में थी। भारत एक बड़ा उपभोक्ता बाजार
था अतः विदेशी उत्पादों का तीव्र प्रवाह यहाँ हुआ। कुल मिलाकर स्थिति अत्यन्त
विद्रूप होती रही। ‘ईंधन’ में यह स्थिति इन शब्दों में
अभिव्यक्त हुई है - “फिर जैसे भैंस के साथ भुनगे, खुजियल कुत्ते के साथ मक्खियाँ और व्हेल के साथ
छोटी-छोटी परजीवी मछलियाँ आ जाती हैं उसी तरह पेप्सी आ गयी, कोला आ गया, - एक बार तो खबर आयी कि गोबर भी आयात किया जा रहा है। अब बेचो-बेचो की गुहार
लगी। हाथ धोने की पुकार उठी। निकालो-निकालो का शोर मचा, हटाओ-हटाओ की हाँक लगी तो देसी उद्योग-धंधे बन्द होने
लगे, मजदूर कारीगर बेरोजगार होने लगे, किसान आत्महत्या करने लगे, लड़कियाँ वेश्यावृत्ति करने लगीं, नवयुवक बीहड़ कूदने लगे और गरीब लोग अखाद्य खाकर मरने
लगे। ठीक जिस समय गरीब आम की गुठली खाकर मर रहे थे, भारत सरकार एड्स के बचाव पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही थी।”
भूमंडलीकरण
ने मध्य वर्ग के व्यक्ति के जीवन से निजी समय का अपहरण कर लिया है। बहुराष्ट्रीय
कंपनी में कार्यरत व्यक्ति के पास न तो अपने समाज के लिए, न अपने परिवार के लिए, न ही अपने लिए समय है। उसकी व्यस्तता ऐसी है कि वह सोचने-विचारने के काबिल ही
नहीं रह पाता। वस्तुतः बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकमात्र उद्देश्य किसी भी प्रकार
से लाभ कमाना होता है। वह अपने बड़े अधिकारियों से लेकर छोटे अधिकारियों तक के
सामने बिक्री-लक्ष्य रखती है जिसे किसी भी तरह प्राप्त करना ही उसे सफल कर्मचारी
की कोटि में रखने का पैमाना होता है और प्रोन्नति को भी संभव बनाता है। यह
कर्मचारियों को निरन्तर तनाव में रखता है। ‘ईंधन’ में
कथावाचक इस स्थिति को इन शब्दों में वर्णित करता है -”उनमें से हरेक बेहद स्मार्ट, वाक्पटु और कुशल हिसाबी था, लेकिन वे हर समय तनाव में रहते थे। उनसे कहा भी यही
जाता था कि तुम्हें हर समय तनाव में रहना चाहिए। ‘ऑलवेज ऑन योर टोज।’ उन्हें दिये गये टारगेट उनकी नींद हराम किये रहते। जो
टारगेट पूरा कर लेता उसे सवाये टारगेट पकड़ा दिये जाते और जो नहीं कर पाता उसे
बुरी तरह झिड़का जाता और जलील किया जाता।... विक्रय अधिकारी हर सुबह अपनी कल के
काम की रिपोर्ट कॉरपोरेट ऑफिस को यानी हमें भेजते। हमारे यहाँ से हर शाम यह
रिपोर्ट सीधी अमरीका भेजी जाती थी। टारगेट वहाँ से आते थे, एप्रीसिएशन्स भी वहीं से, और पीठ पर लात भी वहीं से। बेशक सीईओ की मार्फत।”
स्वयंप्रकाश
ने भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव के साथ-साथ बढ़ते भ्रष्टाचार की समस्या को भी ‘ईंधन’ में उपस्थित किया है जिसकी जड़ में नौकरशाही और लालफीताशाही है। समझा यह
जाता था कि निजीकरण से भ्रष्टाचार में कमी आएगी लेकिन भूमंडलीकरण के अगुआ अमेरिका
के साथ-साथ विश्व के सभी विकासशील देशों में भ्रष्टाचार बढ़ता ही गया। भारत में
बढ़ते भ्रष्टाचार एवं नौकरशाही के नखरों ने विदेशी पूँजी को प्रभावित किया -”1900 से 1999 तक भारत में सिर्फ अट्ठाइस अरब डॉलर की
विदेशी पूँजी आयी थी जिसका वार्षिक औसत मात्र तीन अरब डॉलर, बल्कि उससे भी कम बैठता था, जबकि इसकी तुलना में चीन में हर साल चालीस अरब डॉलर
की विदेशी पूँजी जा रही थी। जबकि चीन ने विदेशी कम्पनियों को छूटें और रियायतें भी
हमारी तुलना में तो कम ही दी थीं। क्यों? चीन में क्या लड्डू बँट रहे थे? सब कुछ तो हमारे यहाँ जैसा ही था। लेकिन हाँ, नौकरशाही नहीं थी। नौकरशाही ने ही हमें पाला था और अब नौकरशाही ही हमें बरबाद
करने पर तुली हुई थी।”
स्वयं
प्रकाश की दृष्टि में नौकरशाही भारत की बहुत बड़ी समस्या है लेकिन इसके खिलाफ कोई
आवाज नहीं उठती। कदरोलकर के हवाले से वे लिखते हैं - “कदरोलकर कहता था इस देश के लिए सांप्रदायिकता से बीस
गुना ज्यादा बड़ा कैन्सर है नौकरशाही, लेकिन उसके खिलाफ कोई नहीं बोलता। बोलना छोड़ो, सोचता तक नहीं। क्यों? सांदायिकता के खिलाफ बोलना फैशन
में है। शायद इसलिए भी कि आपको लगता है कि आप उससे फाइट कर सकते हैं। लेकिन
नौकरशाही? उसका ख़्याल आते ही आपको लगता है इसके बगैर देश कैसे
चल सकता है? देखना रोहित। अगर हम कुछ बनेंगे तो
भी इसी की बदौलत और बरबाद भी होंगे तो इसी की बदौलत।”
भूमंडलीकरण
से जुड़ी एक अन्य समस्या वृद्धावस्था की समस्या को भी स्वयंप्रकाश ने ‘ईंधन’ में उठाया है। यह समस्या पहले से भी विद्यमान थी
लेकिन भूमंडलीकरण के कारण उत्पन्न नई स्थितियों ने इसकी भयावहता एवं दंश को और
घनीभूत कर दिया है। आज युवाओं का एक बड़ा वर्ग अमेरिका एवं अन्य देशों में जा बसा
है और यहाँ रह गए हैं उनके वृद्ध माता-पिता या किसी एक के देहान्त हो जाने की
स्थिति में माता या पिता। यह स्थिति उनके जीवन में घोर एकाकीपन ले आती है। ‘ईंधन’ में बीना आंटी द्वारा कही गई इन पंक्तियों में यह पीड़ा बहुत गहराई से उभरी है
– “बच्चे बैठे हैं अमेरिका। आने को तैयार नहीं। मैं वहाँ जाकर रह नहीं सकती...
अचानक चुप हो गयीं और फिर रोने लगीं.... रोते-रोते ही बोलीं- कोई किसी का नहीं है।
कोई काम नहीं आता। आप जिन्दगी भर मर-खपकर जिन्हें खड़ा करते हो वो भी काम नहीं
आते। चिडि़यों का चम्बा है। पंख निकलते ही सब उड़ जाते हैं। आखिर में रह जाते हो
या तो आप खुद और आपका थका-टूटा शरीर या तो आपका रब्ब! इसके तो फिर भी तुम लोग हो।
कुछ हो गया तो पहली फ्लाइट पकड़कर घंटे दो घंटे में आ जाओगी। मैं इस इतने बड़े
मकान में किसी रोज मर गयी तो कौन आएगा? कोई नहीं आएगा। भले दस रोज मेरी मिट्टी खराब होती रहे। अभी लाजपतनगर में हमारे
एक रिश्तेदार थे... मर गये। अड़ोसियों-पड़ोसियों को बदबू आयी तो दरवाजा तोड़ा।
उनके बच्चों को अमेरिका फोन लगाया... तो केंदे हैं... उनका अंतिम संस्कार वगैरह
हमारी तरफ से आप ही कर दो। वीडियो फिल्म बनाके हमको भेज देना। हम पे कर देंगे।
बोलो! कोई बात है!!! कोई इंसानियत है!!”
भूमंडलीकरण
का एक खतरनाक पहलू आतंकवाद का वैश्विक प्रसार भी है। इसने आतंकवाद को
अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क तो प्रदान किया ही है, साथ ही मूल्यों तथा बाजार-जनित नित नवीन लालसाओं के पीछे भागते माँ-बाप के
प्रेम एवं अभिभावकत्व से रहित किशोरों एवं युवाओं के रूप में बड़ा हथियार भी दिया
है जिनका इस्तेमाल वह अपने लिए कर सकता है। ‘ईंधन’ में रोहित
और स्निग्धा के किशोर पुत्र में उत्पन्न सांदायिक मानसिकता इसी का परिणाम है।
बाजार के मायाचक्र में फँसा रोहित अपने पुत्र पर खास ध्यान नहीं दे पाता और एक दिन
वह पाता है कि सांदायिक घटना को अंजाम देने गया उसका पुत्र जीप-दुर्घटना में मारा
गया है। तब रोहित को बोध होता है कि कहीं-न-कहीं इसका कारण भूमंडलीकरण के
परिणामस्वरूप उत्पन्न उपभोक्तावाद है -”मेरे घर में सबकुछ था। एसी और गीजर और माइक्रोओवन और टीवी और सीडीप्लेयर और
मूवी कैमरा और फ्रीजर और फोन और कंप्यूटर और इण्टरनेट और मोबाइल और आनसरिंग मशीन
और म्यूजिक सिस्टम और वह सब जिसे देखकर पापा खुश होते और स्निग्धा के भाग्य को
सराहते और बल्कि मुझसे और स्निग्धा से ईर्ष्या करते। सब कुछ था - सिर्फ हमारा
हँसत-खेलता बेटा नहीं था। बेटे की जगह उसकी जली हुई, अकड़ी हुई बेशिनाख्त लाश थी। और इस बदनसीब लाश के इर्द-गिर्द ये सारी चीजें
बेहद अश्लील, जुगुप्साजनक और हत्यारी लग रही
थीं।”
रोहित
इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि भले ही परिवार के अन्य लोग एवं सगे-संबंधी बेटू के
इस हश्र के लिए उसे जिम्मेवार समझते हों लेकिन इसके मूल में उपभोक्तावाद की भट्टी
है जो अपने फलने-फूलने हेतु लोगों को ‘ईंधन’ की तरह
इस्तेमाल कर रही है। “पापा तो मन ही मन मुझे ही दोष दे
रहे होंगे। वह तो यही समझ रहे होंगे कि मैंने ही इन हथियारों से अपने और स्निग्धा
के बेटे की हत्या की है। पापा कभी नहीं समझ पाएँगे कि हमारी दुनिया एक विशाल
दैत्याकार धमन भट्ठी बन चुकी है और हम तीनों अपने जैसे हजारों-लाखों लोगों की तरह उसमें
‘ईंधन’ की तरह झोंक दिये गये हैं। बेटू छोटा था, भस्म हो गया। हमारे पूरी तरह भस्म होने में अभी कुछ
और समय लगेगा।”
हम
‘ईंधन’ उपन्यास से गुजरते हुए स्पष्टतः देख पाते हैं कि समकालीन समय में तीव्र गति से
पाँव पसारता वैश्वीकरण मात्र एक आर्थिक परिघटना नहीं है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक
एवं गहरे अर्थों में राजनीतिक परिघटना भी है। प्रभाव के स्तर पर इसने मनुष्य के
बाह्य-जीवन में ही परिवर्तन उपस्थित नहीं किया है, बल्कि इसने समाज की छोटी ईकाइयों परिवार एवं व्यक्ति को भी अपना शिकार बनाया
है। वैश्वीकरण ने जिस चीज पर सबसे बड़ा हमला बोला है, वह है - संवेदना और इसकी जगह जिस चीज को प्रतिष्ठित
करने का काम किया है, वह है - उपभोगी मनोवृत्ति। ‘ईंधन’ उपन्यास इस तथ्य को बहुत सूक्ष्मता से पकड़ता है कि कैसे भूमंडलीकरण के दौर ने
हमें व्यक्ति से उपभोक्ता में रूपांतरित कर दिया है। परिणाम यह हुआ है कि हम
निरंतर संवेदना एवं मानवीय संबंधों से विलग होते जा रहे है और अंततः अकेले हो जाने
को अभिशप्त हो रहे हैं। ‘ईंधन’ में रोहित ऐसे ही अकेलेपन का शिकार
होता है और स्वयं को निरर्थक पाता है -”अब क्या था? क्या बचा था? किसके लिए करना था? कौन देखनेवाला था? मैं कामयाब हो भी जाता तो किसके
लिए? मेरी कामयाबी देखकर कौन खुश होता? कौन कहता हमें तुम पर नाज है? कौन मेरी उपलब्धियों पर फूला नहीं समाता? मेरी दशा उस अभिनेता की सी थी, आधे शो के दौरान जिसके सारे दर्शक हॉल छोड़कर चले गये
हों। इसके बावजूद परफार्म किया जा सकता है। लेकिन क्यों? किसके लिए?”
वस्तुतः
वैश्वीकरण ने हमारी बाहरी दुनिया और पारिवारिक दुनिया दोनों को प्रभावित किया है
और दोनों को हम से अपहृत कर लिया है। उन दोनों के नियंता हम नहीं है बल्कि बाजार
की शक्तियाँ हैं। आज स्थिति यह है कि हम स्वयं द्वारा इच्छित जीवन नहीं जीते बल्कि
हमारी इच्छाएँ एवं आवश्यकताएँ वैश्वीकरण की प्रक्रिया द्वारा निर्धारित हो रही
हैं। विश्व की बड़ी आर्थिक शक्तियाँ, मल्टीनेशनल कंपनियाँ एवं कॉरपोरेट घराने हमारी जरूरतों को तय कर रहे हैं अथवा
दूसरे शब्दों में कहें तो जरूरतें पैदा कर रहे हैं और हमें उनकी ओर धकेल रहे हैं।
विशेषकर मध्यवर्ग उसका बड़ा शिकार बना हुआ है - “जमाने ने एक झटके में भारतीय मध्यवर्ग के सपनों को और लिप्साओं को और लालच को
सौ गुना बढ़ा दिया था। राजनीति और न्याय-व्यवस्था इसे शह देती थी। हम बिककर भी
सबको संतुष्ट नहीं कर पाते।” इसने मध्यवर्ग के जीवन जीने के
तरीकों और भविष्य के सपनों को लगभग तय कर दिया है और उसके लिए न्यूनतम मानक का
निर्धारण कर दिया है और मध्यवर्गीय व्यक्ति इसे उपलब्ध करने हेतु लगातार बेचैन
रहता है। यह चक्रव्यूह इतना मजबूत है कि वह उन व्यक्तियों को भी अंततः अपनी गिरफ्त
में ले लेता है जो इनसे बचना चाहते है और भिन्न तरीके से जीवन जीना चाहते हैं।
इसका कारण यह है कि वैश्वीकरण बहुत चालाकी से हमारी संवेदना को भोंथरा बना देता है, हमारी वैयक्तिक रूचियों-अभिरूचियों को जड़ बना देता
है और हम एक व्यक्ति नहीं रह जाते बल्कि एक उपभोक्ता मात्र होकर रह जाते हैं और
हमारा घर उपभोक्ता वस्तुओं का कबाड़खाना बन जाता है।
‘ईंधन’ उपन्यास में कथानायक रोहित वैश्वीकरण की इसी प्रक्रिया का शिकार होता है। यदि
हम रोहित के पहले की जिन्दगी और बाद की जिन्दगी को एक-दूसरे के सामने रखें तो उनमें
पूर्ण वैपरीत्य की स्थिति पाते हैं। उपन्यास में हम देखते हैं कि पहले एक फक्कड़
जिन्दगी जीनेवाला रोहित सी.ए. बनकर जब बंबई में मल्टीनेशनल कंपनी में काम करना
प्रांरभ करता है तो बिल्कुल बदल जाता है - “बम्बई ने मुझे सपना देखना सिखा दिया। उसने मुझे अपने अब तक के जीवन को नीची
नजर से देखना - अपनी लगभग हर जानी-पहचानी चीज को घटिया समझना और जो कभी नहीं सोचा
था उसे सोचना, उसके सपने देखना और उसे पाने की
कोशिश में सिर खपाते रहना सिखा दिया।” बंबई जाकर यदि रोहित अपने पहले के जीवन को नीची नजरों से देखने लगता है तो
अमेरिका पहुँचकर भारत के जीवन को ही नीची नजरों से देखने लगता है -”अगर बम्बई ने मुझे अपने शहर को सुस्त, वीरान, धूल-घूसरित और उजाड़ समझना सिखा दिया था तो एक महीने के अमेरिका प्रवास ने
मुझे अपने देश से ही नफरत करना सिखा दिया।”
अंततः
उपभोक्तावादी आकर्षण रोहित को ऐसे मुकाम पर ले जाता है जहाँ वह पाता है कि जीवन को
लेकर किए गए उसके सारे गुणाभाग गलत साबित हो चुके हैं और वह सिर्फ एक बदनसीब आदमी
है जिसे ऐसा एक कंधा भी नसीब नहीं है जिस पर सिर टिकाकर रोया जा सके। वह अनुभव
करता है कि -”मेरा ध्यान पैसा कमाने और वस्तुएँ
जुटाने में लगा रहा। मैं उपलब्धियों की मीनार पर खड़ा संभावनाओं के उस पहाड़ पर
निगाहें जमाये रहा जो था तो न जाने कितनी दूर, लेकिन सामने नजर आ रहा था और जिस पर मुझे फतेह हासिल करनी थी। उस दलदल को
मैंने गंभीरतापूर्वक लिया ही नहीं जो मेरे कदमों के ठीक नीचे बनती जा रही थी और
अंततः जिसमें धँसकर मुझे और मेरे परिवार को नष्ट हो जाना था।”
भूमंडलीकरण
द्वारा सृजित उपभोक्तावाद के विराट मायाचक्र में फँसकर रोहित अपना पुत्र खोता है
और दाम्पत्य-जीवन भी। यह भूमंडलीकरण के उस त्रासद यथार्थ को व्यंजित करता है जहाँ
व्यक्ति अन्ततः अकेला पड़कर तिल-तिल मरने के लिए अभिशप्त है। ‘ईंधन’ उपन्यास मात्र भूमंडलीकरण के अमानवीय चरित्र को ही प्रस्तुत करने वाला
उपन्यास नहीं है बल्कि वह उसके विरुद्ध एक प्रतिरोध-चेतना को भी व्यंजित करने वाला
उपन्यास है। स्निग्धा का एन.जी.ओ. में शामिल होकर समाज-सेवा में संलग्न हो जाना
तथा रोहित का मल्टीनेशनल कंपनियों की दुनिया त्याग कर अपने छोटे शहर में लौटकर
अपने साथियों के साथ रोटरी प्रेस खोल लेना इस प्रतिरोध-भाव को ही प्रकट करता है।
वस्तुतः ‘ईंधन’ हिन्दी उपन्यास परंपरा में महत् स्थान का अधिकारी
उपन्यास है। भूमंडलीकरण को लेकर हिन्दी में जो उपन्यास लिखे गए हैं, उनमें
सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक ‘ईंधन’ भी है।
संपर्क –
धर्मा रावत, ईमेल पता - dharmarawat18@gmail.com
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