बाज़ारवाद, संस्कृति और राष्ट्र का तानाबाना: चेन्नई एक्सप्रेस - चारू गोयल
बाज़ारवाद, संस्कृति और राष्ट्र का तानाबाना:
चेन्नई एक्सप्रेस
- चारू गोयल
चेन्नई एक्सप्रेस में बाज़ारवाद के
दबाव में आकर उत्तर और दक्षिण का मिलाप तो हुआ है लेकिन यह भरत मिलाप नहीं बन पाया
है जहां दोनों संस्कृतियां अपने-अपने पूर्वाग्रहों को परे रखकर सच्चे दिल से
गलबाहीं कर पातीं। चेन्नई एक्सप्रेस में उत्तर और दक्षिण की संस्कृतियों के डिब्बे
एक-दूसरे से जुड़े तो हैं लेकिन जोड़ और गांठ साफ नजर आती है। और यहीं बाज़ार की
तमाम ताकत के बावजूद जातीय-सांस्कृतिक पूर्वाग्रह सांस्कृतिक समन्वय की ऊपरी सतह
को फोड़कर बाहर फूट पड़ते हैं। यह फिल्म तो एक ऐसा पनीला रसम है जिसमें सहजने का
फजी अलग तैर रही है और टमाटर की फांक अलग नजर आ रही है। यथार्थ और संवेदनशीलता को
ताक पर रखकर नस्लीय पक्षपात के साथ सांस्कृतिक वैभिन्नय को यहां दिखाया गया है।
यद्यपि 21 वीं सदी में कदम रखते-रखते हिंदी सिनेमा का कॉरपोरेटीकरण हो चुका है
लेकिन प्रोफेशनल एथिक (पेशेगत नैतिकता-ईमानदारी) से वह अभी भी कोसों दूर है। हिंदी
सिनेमा के लिए दक्षिण का मतलब आज भी मद्रासी ही बना हुआ है। इस भ्रामक मिथ को
तोड़ने की कोई पहल भी यह फिल्म नहीं करती। तमिल संस्कृति को उसकी पूरी विविधता और
प्रमाणिकता के साथ दिखाने की माथापच्ची से निर्देशक महोदय साफ बचते नजर आते हैं।
आधुनिकता की पश्चिमी अवधारणा
एकरूपता और समरूपता पर आधारित रही है क्योंकि जिस पश्चिमी राष्ट्र राज्य से इसकी
उत्पत्ति हुई है, वह एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा और एक नस्ल पर आधारित राष्ट्र राज्य है। लेकिन भारत जैसे बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषायी और बहुनस्लीय राष्ट्र में यूरोपीयन आधुनिकता की एकांगिता और एकरूपता
की अपनी सीमाएं और समस्याएं हैं। तर्क और भैतिक विज्ञान की सार्वभौमिक
निष्पत्तियों में विश्वास करने वाली पश्चिमी आधुनिकता संविधान और संस्कृति की
एकीकृत सांचाबद्धता को पूरे राष्ट्र राज्य पर लागू करने में विश्वास करती है जबकि
भारतीय समाज की विविधता और विषमता की अवहेलना करके एक वर्णीय आधुनिकता के चश्मे से
उसे देखना उसकी मूल प्रकृति के साथ अन्याय ही कहा जायेगा। धर्म, भाषा, नस्ल और संविधान की इकहरी पहचान पर आधारित राष्ट्रवाद भारत के संदर्भ में
अप्रासंगिक और अव्यावहारिक रहा है। और इसीलिए साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय
आंदोलन के समय से ही हमारे यहां विविधता में एकता का मूलमंत्र स्वीकृत रहा है।
धर्म के आधार पर वतन का विभाजन होने पर भी हमने स्वयं को इस्लाम आधारित पाकिस्तान
के जवाब में एक हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने की गलती नहीं की। आजादी के
बाद से लेकर आज तक हम भाषा, धर्म, जाति और नस्ल के साथ-साथ संस्कृति के नाम पर हिंदुस्तान
की राष्ट्रीयता को मिलने वाली चुनौतियों से पार पा सके हैं, तो उसका श्रेय हमारे दूरदर्शी कर्णधारों को जाता है
जिन्होंने विविधताओं का पूरा सम्मान करते हुए और विषमताओं के निवारणार्थ सकारात्मक
विभेद की नीतियां अपनाते हुए पंथ निरपेक्षता के सिद्धांत के आधार पर भारतीय
लोकतंत्र की नींव रखी थी। लेकिन संविधान में अल्पसंख्यक समुदायों और संस्कृतियों
के संरक्षण और विकास का जो वायदा किया गया है, वह नब्बे के बाद आरंभ हुए बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस वर्तमान दौर में पहले
से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। बाज़ारवाद में जहां संस्कृति भी एक पण्य
वस्तु बन चुकी है, वहां बहुसंख्यक या मुख्यधारा की
आर्य संस्कृति के लिए अपने उपभोक्ताओं का संख्याबल और क्रय क्षमता फायदे का सौदा
साबित हो रहा है। बाज़ार जहां इन संस्कृतियों के प्रचार-प्रसार का माध्यम है, वहीं वह उन्हें नियंत्रित-अनुरूपित कर उपभोक्तावाद के
अश्वमेध अश्व को खुला सांड बन उपभोक्ताओं की जेब चट कर जाने का अवसर भी मुहैया
कराता है। किंतु दूसरी ओर अल्पसंख्यक और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली बीपीएल
संस्कृति बाज़ार के लिए कोई महत्व नहीं रखती। दूसरी ओर बहुसंख्यक संस्कृति बाज़ार
के रथ पर सवार अल्पसंख्यक संस्कृतियों को कुचलने या उन्हें पृष्ठभूमि में धकेल
देने का जाने-अनजाने प्रयास करती रहती है।
भारतीय राष्ट्रवाद, संस्कृति और नब्बे के साथ आये वर्तमान बाज़ारवादी दौर
के बीच हिंदी सिनेमा के बदलते चरित्र की प्रतिनिधि फिल्म है - ‘चेन्नई एक्सप्रेस’। लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संविधान के आदर्शों की बाध्यता और विविधतामूलक
सिनेमाई दर्शकों के बाज़ार के दबाव के बीच ऐतिहासिक कारणों से हिंदी सिनेमा का
चरित्र समावेशी रहा है। यह भारत का राष्ट्रीय सिनेमा होने का दावा करता आया है।
विविधताओं के बीच समन्वय का जो आदर्श लोक स्थापित करके तुलसी अपने लोकधर्म का पालन
करते हैं, उसी लोक को जोड़ने का महत्ती कार्य हिंदी सिनेमा करता
आया है। परस्पर वैभिन्नता और यहां तक कि वैमनस्यता रखने वाले विभिन्न संप्रदायों
और समूहों को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की गुरू जिम्मेदारी हिंदी सिनेमा उठाता आया
है। हिंदू-मुस्लिम, ग्रामीण-शहरी, सवर्ण-अवर्ण, अमीर-गरीब, देशी-विदेशी और युवा-बुजुर्ग, इन सबको एक गुलदस्ते में सजाकर दर्शकों को सहृदय
बनाते हुए उनका मनोरंजन करना ही हिंदी सिनेमा का मूलभूत चरित्र रहा है। लेकिन इस
समन्वय के प्रयास में कई बार चीजों का सरलीकरण कर दिया जाता है और कई बार
निर्माता-निर्देशक-अभिनेता के जातीय पूर्वाग्रह भी फिल्म विशेष पर हावी हो जाते
हैं। और कभी-कभी भाषा की सीमा या पूंजी की सत्ता उस गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रवाह
के सामने अवरोधक दीवार बनकर खड़ी हो जाती है। उत्तर और दक्षिण को जोड़ने वाली
दुतरफा सेतु बनने में हिंदी सिनेमा प्रायः हाल-फिलहाल तक ज्यादा सफल नहीं हो पाता
था क्योंकि एक तो तमिल प्रदेश का डीएमके प्रेरित-संचालित हिंदी विरोधी चरित्र
दक्षिण में हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन में वैध-अवैध अड़ंग्गे लगाता रहा है और दूसरे, आर्य-द्रविड़ संस्कृतियों का परस्पर पूर्वाग्रह और
अलगाव भी हिंदी सिनेमा के दक्षिणागमन में रूकावतें डालता रहा है। इसीलिए ‘एक दूजे के लिए’ (1981) और ‘पड़ौसन’ (1968) जैसी फिल्मों को छोड़ दें, तो बड़े पर्दे पर से दक्षिण की संस्कृति प्रायः ओझल
ही रही है। लेकिन नब्बे के बाद ज्यों-ज्यों राजनीति और बाज़ार में उत्तर-दक्षिण के
बीच की दूरियां सिमटने लगी हैं, वैसे-वैसे हिंदी और तमिल सिनेमा के
बीच मैत्री भी परवान चढ़ती जा रही है। हां, यह अलग बात है कि अभी यह मैत्री बराबर के स्तर पर नहीं आई है। परस्पर एक-दूसरे
को लेकर पूर्वाग्रह अभी भी जीवित हैं। लेकिन फिर भी हिंदी सिनेमा तमिल संस्कृति और
वहां के तमिल सिनेमा के प्रति अपने रिश्तों में गर्माहट लाने लगा है। तमिल और अन्य
दक्षिण भारतीय राज्यों का बड़ा सिनेमा बाज़ार हिंदी सिनेमा को अपनी ओर ललचा रहा
है। तमिल संस्कृति और तमिल सिनेमाई संस्कारों से आबद्ध दक्षिण के सिने दर्शकों को
आकर्षित करने के लिए हिंदी सिनेमा लोकप्रिय तमिल सिनेमा के लटकों-झटकों तक को आगे
बढ़कर गले लगा रहा है। ‘ओम शांति ओम’ (2007), ‘सिंघम्’ (2011), ‘राउडी राठौड़’ (2012), ‘रावन’ (2010) और ‘डर्टी पिक्चर’ (2011) की श्रृंखला में अब ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ (2013) एक प्रतिनिधि नाम बन चुका है।
हिंदी और तमिल जातियों की भाषाओं और संस्कृतियों को जोड़ने वाली चेन्नई एक्सप्रेस
बाज़ारवादी नवउदारीकरण की बहुसंस्कृति की अवधारणा को हिंदी सिनेमा का सलाम कहा जा
सकता है।
फिल्म का नायक उत्तर भारतीय रोहित
है जिसका मुंबई में हलवाई की मिठाई का पैतृक कारोबार है जबकि नायिका मीनाम्मा ठेठ
तमिल लड़की है। महानगर में दुकानदारी जैसे बाज़ार संबद्ध व्यवसाय से जुड़े होने के
कारण रोहित फिल्म में आधुनिक महानगरीय युवक के रूप में दिखाया गया है जिसे
कुलमिलाकर अपनी संस्कृति से नॉस्टेलियाई लगाव नहीं है। इसके उलट नायिका मीनाम्मा
तमिल सभ्यता-संस्कृति में रची-बसी परंपरागत दक्षिण भारतीय पोशाक में नजर आती है।
फिल्म की कहानी मुंबई से प्रारंभ होकर वाया चेन्नई एक्सप्रेस रामेश्वरम् तक जाती
है। फिल्म का फिल्मांकन मुन्नार और कोडाइकनाल में किया गया है। तमिलनाडु और दक्षिण
की प्राकृतिक भूदृश्यावली फिल्म का एक आकर्षण रही है। सथ्याराज और मनोरमा जैसे
तमिल सिनेमा के मंजे हुए कलाकारों को इसमें लिया गया है। तमिल शब्दावली न केवल कोड
मिश्रण के स्तर पर है बल्कि बहुधा पूरे के पूरे संवाद तक बिना हिंदी उल्था के तमिल
में ही दे दिये गये हैं। कथकली और दक्षिण के स्थानीय लोनृत्यों का कॉलाज सा फिल्म
में है। तमिल के महानायक रजनीकांत को पूरा सम्मान देते हुए फिल्म के अंत में एक
आइटम गीत-नृत्य ‘लुंगी डांस’ उन्हें ही समर्पित है। तमिल सिनेमाई षैली की अतिनाटकीय
मारपीट के दृश्यों से लेकर तमिल मंदिर का एक पूरा सिक्वेंस तक फिल्म में रखा गया
है। वासत्व में पूरी फिल्म ही तमिल सिनेमा के सांचे में ढली हिंदी फिल्म बन गयी
है। नायिका मीनाम्मा का पिता एक मद्रासी डॉन है जिसके आतंक के सामने उत्तर भारतीय
सींकिया नायक डर से थरथर कांपता है। दक्षिण और उत्तर की परस्पर भिन्न भाषाओं और
संस्कृतियों का अलगाव, अपरिचय और गलतफहमियां हास्य का
सृजन करती हैं। लेकिन भाषा और संस्कृति का यह अंतर उत्तर और दक्षिण का मेल-मिलाप
होने से नहीं रोक पाता। फिल्म में हिंदी सिनेमा नायक-नायिका के बीच संवाद की कड़ी
के रूप में आता है। हिंदी सिनेमा के पुराने गानों और संवादों के माध्यम से उत्तर
और दक्षिण की भाषाओं का, संस्कृतियों का और नायक-नायिका को
संयोजन हो जाता है। मीनाम्मा और रोहित के मंडपम (विवाह) की स्वीकृति मीनाम्मा के
अप्पा गॉडफादर द्वारा दी जाना मानों दक्षिण की संस्कृति द्वारा अतीत के गिले-शिकवों
को भूल उत्तर की संस्कृति को गले लगाना है।
चेन्नई एक्सप्रेस में बाज़ारवाद के
दबाव में आकर उत्तर और दक्षिण का मिलाप तो हुआ है लेकिन यह भरत मिलाप नहीं बन पाया
है जहां दोनों संस्कृतियां अपने-अपने पूर्वाग्रहों को परे रखकर सच्चे दिल से
गलबाहीं कर पातीं। चेन्नई एक्सप्रेस में उत्तर और दक्षिण की संस्कृतियों के डिब्बे
एक-दूसरे से जुड़े तो हैं लेकिन जोड़ और गांठ साफ नजर आती है। और यहीं बाज़ार की
तमाम ताकत के बावजूद जातीय-सांस्कृतिक पूर्वाग्रह सांस्कृतिक समन्वय की ऊपरी सतह
को फोड़कर बाहर फूट पड़ते हैं। यह फिल्म तो एक ऐसा पनीला रसम है जिसमें सहजने का
फजी अलग तैर रही है और टमाटर की फांक अलग नजर आ रही है। यथार्थ और संवेदनशीलता को
ताक पर रखकर नस्लीय पक्षपात के साथ सांस्कृतिक वैभिन्नय को यहां दिखाया गया है।
यद्यपि 21 वीं सदी में कदम रखते-रखते हिंदी सिनेमा का कॉरपोरेटीकरण हो चुका है
लेकिन प्रोफेशनल एथिक (पेशेगत नैतिकता-ईमानदारी) से वह अभी भी कोसों दूर है। हिंदी
सिनेमा के लिए दक्षिण का मतलब आज भी मद्रासी ही बना हुआ है। इस भ्रामक मिथ को
तोड़ने की कोई पहल भी यह फिल्म नहीं करती। तमिल संस्कृति को उसकी पूरी विविधता और
प्रमाणिकता के साथ दिखाने की माथापच्ची से निर्देशक महोदय साफ बचते नजर आते हैं।
तमिल जातीयता के नाम पर तमिल सिनेमा द्वारा प्रस्तुत बाजारू सरलीकरण को ज्यों का
त्यों इस हिंदी फिल्म में उठाया गया है। तमिल के नाम पर घिसी-पिटी भद्दी अवधारणाओं, फॉर्मूलों और भ्रमों को लेकर चलने वाली इस फिल्म में
निर्देशक सांस्कृतिक सौहार्द्र और समन्वय स्थापित करने के अवसर चूक गया है। आज के
जिस दौर में पहचान और प्रतिनिधित्व की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण हो चुकी है, वहां इसप्रकार की बड़ी फिल्म में तमिल संस्कृति को
भ्रामक और फूहड़ ढंग से प्रस्तुत करना अन्य संस्कृतियों के प्रति वर्चस्वशील आर्य
संस्कृति का अलोकतांत्रिक नजरिया ही कहा जायेगा। फिल्म का कथानक उत्तर भारतीय आर्य
संस्कृति की उन परंपरागत रूढ़ मान्यताओं पर पुनः बल देता है जो जुगुप्साजनक है। मद्रासियों
को पूरे दक्षिण का प्रतिनिधि मानने वाले उत्तर भारतीय इस धारणा से आमतौर पर ग्रस्त
हैं कि दक्षिण के लोग श्याम वर्ण के होते हैं और श्याम वर्ण राक्षसी
सभ्यता-संस्कृति का परिचायक है। दक्षिण के विपरीत उत्तर के लोग स्वयं को दैवीय गौर
वर्ण का मालिक मानते आये हैं। चेन्नई एक्सप्रेस न केवल इस भ्रांत धारणा का पोषण
करती है अपितु रंग-रूप को लेकर इन काले-कलूटे ‘भयावह’ दिखते मद्रासियों का मजाक भी बनाती
है। फिल्म में नायिका और उसके पिता को छोड़कर प्रायः शेष मद्रासी पात्रों को काली
चमड़ी का और भद्दे-फूहड़ चेहरे-मोहरे वाला बताया गया है। विशेषतः नायिका के डॉन
पिता के गुंडों को। नायक रोहित ट्रेन में इन लोगों के चेहरों और भाव-भंगिमाओं की
हास्यास्पद चिढ़ाऊ नकल उतारकर अपनी असभ्यता का ही परिचय देता है।
रंग के बाद भाषा तमिल और आर्यों
में दूसरा भेदक तत्व रही है। तमिल भाषी लोगों का त्रुटिपूर्ण हिंदी उच्चारण सदैव
से हिंदी सिनेमा के लिए सस्ते मनोरंजन का मसाला बनता आया है। तमिल पात्रों की
हिंदी चेन्नई एक्सप्रेस में भी अपने उच्चारण की विचित्रता को लेकर हिंदी भाषी नायक
के लिए चिढ़ का विषय बनती है गोया वह स्वयं संस्कृतनिष्ठ शुद्ध हिंदी ही बोलता हो।
वास्तव में जब आज की वैष्विक दुनिया में अंग्रेजी के एकरूप सटीक उच्चारण पर भी बल
नहीं दिया जाता अपितु स्थान विशेष की अंग्रेजी की अपनी विशिष्ट षैलियां विकसित हो
गयी हैं जो अंग्रेजी को समृद्ध ही बना रही हैं। तब ऐसे में हिंदी के प्रति तमिल
हिंदी के संदर्भ में हिंदी सिनेमा वालों का यह शुद्धतावादी रवैया सिर्फ पाखंड और
अव्यावहारिक ही कहा जायेगा। फिल्म में तमिलभाषियों की हिंदी का स्वागत करते हुए
उसे प्रोत्साहित न करके उसका उपहासात्मक स्वांग प्रस्तुत किया गया है। नायक रोहित
नायिका मीनाम्मा और उसके पक्ष के लोगों के हिंदी उच्चारण को ‘बोकवास’ मानकर नकल करते हुए व्यंग्य करता है। हिंदी को अगर विश्वभाषा और राष्ट्रभाषा
बनना है, तो शुद्धतावादी कट्टरपन छोड़कर अपना हृदय उदार बनाना
होगा। भाषा के साथ-साथ मद्रासियों का खानपान भी इस उत्तर भारतीय आर्य नायक को नहीं
पचता। सुबह उठते ही मद्रासी लोगों को ट्रेन में इडली-डोसा-भात ढकोसते देख हमारे इस
नायक की आंखें खुली की खुली रह जाती है। मिठाई की हलवाईगिरी-दुकानदारी के पुष्तैनी
पेशे के वारिस नायक की इस मद्रासी सादे खाने को लेकर व्यक्त घिन्न का अपना वर्गीय
पहलू भी है।
तमिल समाज के चरित्रहनन की स्थिति
वहां के समाज में महिलाओं की स्वतंत्रता और इज्जत को लेकर भी देखी जा सकती है।
नायिका मीनाम्मा एक तमिल लड़की है। वह बालिग है और अपनी जिंदगी का फैसला स्वयं
करने में यकीन रखती है। लेकिन उसका गॉडफादर बाप उसकी इच्छा के विरूद्ध अपने एक
बाहुबली मित्र के लड़के टंगबली से उसका मंडपम करना चाहता है ताकि वह अपने इलाके
में और भी ज्यादा बड़ी ताकत बन जाये। दक्षिण की इस मद्रासी लड़की को वहां के इस
पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ी से आजाद कराने का श्रेय उत्तर भारतीय आर्य नायक रोहित
को दिया गया है। इसप्रकाइसप्रकार दक्षिण भारतीय समाज स्त्रियों के प्रति क्रूरता
बरतने वाला व्यंजित होता है और उत्तर भारतीय नायक उनका तारणहार! रोहित का संदेश है
कि हमें स्वाधीनता दिवस नहीं मनाना चाहिए क्योंकि हमारे समाज में स्त्री स्वतंत्र
नहीं है। रोहित का सामना टंगबली जैसे पहाड़काय दक्षिण भारतीय मद्रासी से कराया
जाता है जो मद्रासी पितृसत्ता की दैहिक ताकत का प्रतीक है। स्त्री सम्मान और स्वाधीनता का हितैशी नायक इस महाबली
पितृसत्ता के हाथों पीटा जाकर भी मीनाम्मा का साथ नहीं छोड़ता। मद्रासी मीनाम्मा
द्वारा तमिल टंगबली को नकारकर रोहित का वरण करना आर्य नायक की विजय और सफलता का
सूचक है। किंतु सवाल यह है कि क्या उत्तर भारतीय आर्य पितृसत्ता मातृ सत्तात्मक
द्रविड़ संस्कृति की तुलना में स्त्री के प्रति तनिक भी सहृदय रही है?
फिल्म में आये लगभग सारे तमिल
पात्रों को अपराधी समुदाय के सदस्यों के रूप में दिखाना हिंदी भाषी क्षेत्र में
रोजगार आदि के कारण रहने वाले प्रवासी तमिलों के प्रति नकारात्मक सोच को जन्म देने
वाला है। पहले भी दयावान (1988) जैसी हिंदी फिल्मों में तमिल गॉड फादर को अपराध
जगत का बेताज सरगना दिखाया गया है। हिंदी सिनेमा के ये रूढ़ तमिल अपराधी चरित्र भी
इस फिल्म में उपहास के पात्र बनकर अपनी गंभीरता और प्रभाव क्षमता खो बैठे हैं।
हास्य का सृजन करने के लिए उनकी नकल और आंगिक प्रहसन को जरिया बनाया गया है।
वास्तव में रूढ़ीबद्ध घिसे-पिटे
पात्र समस्या का मूल नहीं कहे जा सकते। इन पात्रों को लेकर भी मानवीयता और
सद्भावना का पाठ तैयार किया जा सकता है। ऐसे पात्रों के पाखंड पर किया जाने वाला
व्यंग्य रचनात्मक हास्य का हेतु बन सकता है। हिंदी की कई फिल्मों में राष्ट्रीय
एकता और गंगा-जमुनी संस्कृति की अभिव्यक्ति ऐसे ही सांचे में ढले पात्रों का माध्यम
बनाकर होती आयी है। परस्पर एक-दूसरे से गले मिलते, एक-दूसरे के त्यौहारों में शरीक होते ये पात्र उम्मीद जगाते हैं। भारतीय
प्रायद्वीप के लोगों में अंतःस्तर पर जो एकता विद्यमान है, उसके व्यंजक वे धार्मिक-आध्यात्मिक प्रतीक ही हैं जो
उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त है। यहां की पवित्र नदियां, मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे और तीर्थ स्थल वह तंत्र
बनाते हैं जिसमें राष्ट्र की आत्मा सांस लेती है। वैसे इस धार्मिक एकता की व्यंजना
भी इस फिल्म में हुई है। रोहित के दादाजी की अस्थियों का एक हिस्सा गंगा में विसर्जित
किया जाना था और दूसरा शेष हिस्सा रामेश्वरम् के समुद्र में। गंगा और रामेश्वरम्
का यह धार्मिक-आध्यात्मिक रिश्ता हिंदी और तमिल जातियों के बीच तमाम विविधताओं के
नीचे विद्यमान आध्यात्मिक एकता की दुहाई देता है। और रामेश्वरम् जाकर अपने दादाजी
की अस्थियों का विसर्जन करने के कर्तव्य की पालना में उत्तर भारतीय नायक की प्रेरक
और सहायक बनती है दक्षिण भारतीय नायिका।
लेकिन बाज़ारवाद के लिए धर्म, अध्यात्म और धार्मिक पर्व भी अपनी विपणन नीति का एक
हिस्सा बन गये हैं। हर बड़े धार्मिक त्यौहार के अवसर पर विशेषतः ईद और दीपावली पर
त्यौहार की खुशियों को बॉक्स ऑफिस पर भुनाने के लिए हिंदी फिल्मकार अपनी फिल्मों
के प्रदर्शन की तारीखें तय करते रहे हैं। चेन्नई एक्सप्रेस भी इसी बाज़ारवादी
रणनीति के तहत ईद के पावन मौके पर सिनेमाघरों में उतारी गयी जिसका आर्थिक फायदा इस
फिल्म को हुआ भी। फिल्म के कथानक में तमिल प्रदेश के एक मंदिर की पूरी रस्म का
प्रसंग भी रखा गया है। और इसके साथ ही गंगा और रामेश्वरम् जैसे हिंदू धार्मिक
प्रतीकों की चर्चा है। रामेश्वरम् का मंदिर भी फिल्म में आता है। लेकिन बाज़ारवाद
से इतर हटकर इन चीजों को देखा जाये तो फिल्म हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र को भी
अप्रत्यक्ष तौर पर बढ़ावा देती है। ईद एक मुस्लिम त्यौहार है लेकिन इस अवसर पर प्रदर्शित
फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस हिंदू धार्मिक स्थलों और प्रतीकों को अपने कथानक का हिस्सा
बनाती है। वैसे यहां मुस्लिम और हिंदू, दोनों दर्शकों को संतुष्ट करने का बाज़ारवादी प्रबंधन भी देखा जा सकता है।
आज के नवउदारवादी दौर के हिंदी
सिनेमा में बाज़ारवाद किस कदर हावी है, इसकी एक प्रमाणिक बानगी चेन्नई एक्सप्रेस है। फिल्म में उपभोक्ता वस्तुओं के
विपणन को साफ पकड़ा जा सकता है, चाहे इन्हें कथानक और छायांकन का
हिस्सा बनाकर कितना ही तर्कसंगत ठहराने का दुस्साहस निर्देशक करता रहे। कल्याण
रेलवे स्टेशन के बाहर कैमरा Bailley Water का विज्ञापपन वाला बड़ा सा कटआउट हमें दिखाता है।
इससे पहले तेंदुलकर की क्रिकेटर छवि को भी हमें दिखासा जाता है। रोहित बने शाहरूख
द्वारा तीन बार नोकिया के एक विशिष्ट मोबाइल फोन की मॉडल संख्या और उसकी कीमत
बताना तो स्पष्टतः बाज़ारवाद के आगे फिल्म का हथियार डाल देना ही कहा जायेगा।
वास्तव में चेन्नई एक्सप्रेस जैसी हास्य फिल्म करते-करते शाहरूख जैसे बड़े अभिनेता
स्वयं हास्यास्पद त्रासदी बन जाते हैं।
तमिल संस्कृति और मलयालम अभिनेत्री
दीपिका पादुकोन को भुनाकर चेन्नई एक्सप्रेस तमिलनाडु और केरल जैसे गैर हिंदी भाषी
राज्यों के हिंदी विरोधी सिनेमाई बाज़ार में सेंध लगाने में सफल हो गयी है। चेन्नई
और उसके आसपास के शहरी इलाकों तक सिमटा हिंदी सिनेमा का बाज़ार अब दूर-दराज के
तमिल और मलयालम क्षेत्रों तक पहुंचने लगा है। इंटरनेट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार
इस फिल्म ने अपने प्रदर्शन के आरंभिक 18 दिनों में यहां 8.55 करोड़ का व्यवसाय
किया है। यह दक्षिण में किसी भी हिंदी फिल्म की सफलता से कहीं ज्यादा है। फिल्म की
सफलता के लिए तमिलनाडु में अभिनेता शाहरूख खान ने आक्रामक प्रचार किया था और ‘मीना हंट’ जैसी प्रतियोगिताओं का आयोजन तक किया गया। अभिनेता का निर्मात बन स्वयं फिल्म
के प्रचार में उतरना 21वीं सदी के सिने बाज़ार में कला और बाज़ार के बीच बढ़ती
नजदीकियों का ही सूचक है।
पुरानी बोतल में नई शराब -
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ब्रांड एक पण्य वस्तु की जैसे बेचा जाता है। वैसे भी कॉरपोरेट
फिल्म निर्माण उद्योग में मौलिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता। घाटे-मुनाफे का अंक
गणित सिनेमा व्यवसायियों को सृजनात्मक उड़ान भड़ने का खुला आस्मां मुहैया नहीं
कराता। सफलता के सिद्ध हो चुके फॉर्मूलों को लेकर निर्देशक उन्हें नये ढंग से
दोहराने वाला यांत्रिक निर्माता मात्र बनकर रह जाता है। निर्देशक रोहित शेट्टी
आर्थिक सफलता को ही फिल्म की सफलता का एकमात्र मानदंड मानते हैं। और इस फिल्म में
उन्होंने नायक शाहरूख खान की सिनेमाई छवि को ही ब्रांड के रूप में भुनाने का
प्रयास किया है। और नई बोतल में बाज़ार में उतारी गई इस पुरानी शराब (फिल्म) को
कीर्तिमान तोड़ सफलता भी मिली है। शाहरूख खान की फिल्मोग्राफी बेचती यह फिल्म
व्यक्तिपूजा की भारतीय मानसिकता को दूहने में पूरी तरह सफल रही है। लेकिन बॉक्स ऑफिस
पर सुपरहिट साबित हुई इस फिल्म में शाहरूख खान अभिनय की नई ऊंचाइयां छूना तो दूर, अपना पुराना स्तर भी बरकरार नहीं रख पाये हैं। हिंदी
सिनेमा का यह डूबता हुआ सूरज अपने पुराने दिनों के नॉस्टेलिजिया में स्वयं को
दुहराने को अभिशप्त रहा है। जिसप्रकार उपभोक्त कंपनियां उपभोक्ता माल की गुणवत्ता
से अधिक उसकी पैकेजिंग पर बल देती है, वैसे ही निर्देशक ने शाहरूख की पुरानी सफल फिल्मों के गीतों, संवादों और पात्रों आदि को चेन्नई एक्सप्रेस में नई
साज-सज्जा के साथ दर्शक उपभोक्ताओं के सामने परोसा है। शाहरूख के सिनेमाई मिथक पर
ही फिल्म में नक्काशी की गई है। शाहरूख की सिनेमाई नायक की छवि को आम आदमी की मुहर
के साथ फिल्म में प्रस्तुत किया गया है। आम आदमी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता और आम
आदमी के आंदोलन को मिल रहे व्यापक मीडिया कवरेज के कारण आम आदमी का मुहावरा आज
राजनीति के साथ-साथ जनमानस में पुनः चल पड़ा है। फिल्म में रोहित का चरित्र इसी आम
आदमी की दुहाई देता है कि इस आम आदमी के महत्व को कमतर करके न आंका जाये। लेकिन
दूसरी ओर रोहित बने अभिनेता शाहरूख अपने नायकत्व की विशिष्टता को पुरानी सफल फिल्मों
की स्मृति दिलाकर बारंबार स्थापित करने का प्रयास करते हैं। इसप्रकार फिल्म आम और
खास का द्वंद्व पैदा करके अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहती है। निर्देशक इस
द्वंद्व का सृजनात्मक उपयोग करना चाहता तो यह फिल्म एक मील का पत्थर साबित हो सकती
थी लेकिन यह द्वंद्व न किसी प्रकार का तनाव सृजित कर पाता है और न दर्शक को सोचने
पर विवश करता है। निर्देशक तो बस शाहरूख को चाहने वालों को फिल्म में ‘अपना शाहरूख’ होने की संतुष्टि देकर आम आदमी की दुखती रग को भी साथ में सहलाकर अपना उल्लू
सीधा करता नजर आता है। शाहरूख की रोमांटिक नायक की छवि को आम आदमी के फ्रेम में
प्रस्तुत करने की इस सिनेमाई प्रबंधन नीति के तहत ही फिल्म में शाहरूख का
व्यक्तित्व दुबले-पतले डरपोक व्यक्ति का रखा गया है जो पेशे से मिठाईवाला हलवाई
है। फिल्म में वह अपने विरोधियों का सामना करने के स्थान पर भागता नजर आता है। वह
चुलबुल पांडेय या सिंघम् भी हो सकता था लेकिन ये दोनों छवियां एक तो शाहरूख नामक
इस सिने ब्रांड के साथ मेल नहीं खातीं और फिर चुलबुल पांडेय या सिंघम् बनकर वह आम
आदमी के साथ तादात्म्य नहीं कर पाता। पुराने सफल गीतों और उनकी पैरोडी के बीच शाहरूख
का रोमांटिक व्यक्तित्व आम आदमी की ताकत को सहलाने में सफल रहा है।
इसप्रकार चेन्नई एक्सप्रेस शाहरूख
की छवि का अनुकरण करती है लेकिन अरस्तू के शब्दों में यह केवल शाहरूख की प्रतीयमान
छवियों, गीतों और संवादों का ही अनुकरण है। अनुकरण के संभाव्य
और आदर्श रूप इसमें नहीं दिखाई देते। अतः अनुकरण का अर्थ यहां सृजनात्मकता का
व्यंजक न रहकर मात्र नकल तक सीमित रह जाता है। पूंजीवादी युग में कला जब यांत्रिक
पुनरूत्पादन मात्र बनकर रह जाये तब कलाकार भी सृजक न रहकर प्रबंधक व्यवस्थापक
मात्र बनकर रह जाता है। और ऐसा प्रबंधक पुरानी मिठाइयों को तो नयी प्रस्तुति के
साथ बेचने में सफल हो सकता है, लेकिन वह कोई नयी मिठाई या नयी
मौलिक कलाकृति प्रदान करने में असफल रहता है। आज चेन्नई एक्सप्रेस जैसी फिल्मों की
व्यावसायिक सफलता कला और सृजन की कीमत पर सिद्ध होती है किंतु मरणासन्न पूंजीवादी
युग का उत्तरआधुनिक दर्शन किसी मौलिकता का दावा भी नहीं करता।
पश्चिम के एक अन्य कला चिंतक लांजाइनस ने उदात्त कला
के मार्ग में तीन दोषों की चर्च की है जो आडंबर की संस्कृति की देन हैं। ये तीन
दोष होते हैं - शब्दाडंबर, भावाडंबर और बालेयता (पंडिताऊपन)।
कला में आडंबर की यह तुच्छता सामंती वैभव-प्रदर्शन की दिखाऊ मानसिकता से संबद्ध
रही है। आज सामंतवाद गुजर चुका है और पूंजीवाद का दौर है। लेकिन अप्सरा पूंजी पर
टिका आज का यह अनुत्पादक पूंजीवाद मानवीय उद्यमशीलता से बहुत दूर जा चुका है।
सर्वहारा और मध्यवर्ग के श्रम पर पलने वाला यह पूंजीवादी काला धन जब कॉरपोरेट
घरानों के मार्ग से हिंदी सिनेमा में आने लगता है, तो पूंजी के आधिक्य के कारण सामंती आडंबर के तीनों दोष हिंदी के व्यवसायिक
सिनेमा में भी दिखाई देने लगते हैं। चेन्नई एक्सप्रेस इन्हीं आडंबरों का कलात्मक
उत्पाद है। अभिनेता शाहरूख के सफल गीतों और संवादों का अनियंत्रित प्रयोग पूरी
फिल्म में व्याप्त हैं। इन गीतों और संवादों से फिल्म को सजाने के चक्कर में फिल्म
में बड़बोलापन आ गया है। अभिव्यक्ति और वाणी की यही कृत्रिमता भावों की अनियंत्रित
अतिशय प्रस्तुति में भी देखी जा सकती है।
वैसे तो हिंदी सिनेमा का मेलोड्रामिक चरित्र वाणी और भाव की अतिशयता का
बेहूदगी का शिकार रहा ही है लेकिन यहां तो ज्यों का त्यों पुरानी फिल्मों से ढेर
सारे तत्व उठा लिये गये हैं। रहा तीसरा आडंबर अर्थात् किसी विषय पर अपनी विद्वता
का प्रदर्शन, तो इस दोश से भी फिल्म अछूती नहीं
रह पायी है। फिल्म तमिल संस्कृति की प्रमाणिक प्रस्तुति का दावा करते नहीं अघाती।
तमिलनाडु के विभिन्न स्थलों पर फिल्मांकन से लेकर तमिल सिने कलाकारों के चयन आदि
की पृष्ठभूमि में यही उद्देष्य कार्यरत रहा है। किंतु तमिल संस्कृति का सम्मान
करने के स्थान पर उसकी प्रस्तुति में अपरिपक्वता साफ नजर आती है। चाहे कथकली नृत्य
के दृष्य हों या मंदिर रस्म या स्थानीय तमिल गायकों की नकल हो, सर्वत्र बालेयता (बचकानापन) जाहिर हो जाता है।
प्रमाणिकता और गंभीरता के अर्जन हेतु जिस साधना पथ पर चलना होता है, उस पर चलने का धैर्य और समय आज की भागदौड़ वाली
दुनिया में किसी के पास नहीं है और सिनेमा भी इसी गतिशील दुनिया का अंग है।
संपर्क - चारू गोयल, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली। चल-दूरभाष - 8876515201, ईमेल पता - charugoel84@gmail.com
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