बुधवार, 27 अगस्त 2014
कुलपति की नाक! - प्रमोद मीणा
दिल्ली
विश्विद्यालय के पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम की बर्बादी के बाद परास्नातक
पाठ्यक्रम की बर्बादी के मूल में भी पूँजीपतियों, निजी और विदेशी
विश्वविद्यालयों की भविष्यगामी समृद्धि में निहित है, जिसके
संकेत भारत-अमरीकी संवाद में बराबर मिलते रहे हैं। इस तरह ये पाठ्यक्रम उच्च
शिक्षा से गरीबों, दलितो, आदिवासियों
और पिछड़ों को दूर कर पूँजीपतियों के एकाधिकार के लिए रास्ता साफ करने की दूरगामी
साजिश का हिस्सा है। क्योंकि वे जानते है कि अगर वे दिल्ली विश्वविद्यालय की
शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने में कामयाब हो गए तो भारत में उच्च शिक्षा के
क्षेत्र में पाँव पसारना और भी आसान हो जाएगा। आज पूरे वैश्विक परिदृश्य में
पूँजीपतियों के लिए स्वास्थ्य के बाद शिक्षा दूसरा सबसे बड़ा मूनाफे का क्षेत्र
सिद्ध हो रहा है।
छात्र असमंजस में रहे कि अब उन्हें दाखिला तीन साला
पाठ्यक्रम में मिलेगा या चार साला पाठ्यक्रम में। डीयू उन्हें चार साला पाठ्यक्रम
में प्रवेश देने के लिए अड़ा था तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तीन साला पाठ्यक्रम
पर और बिना किसी आधिकारिक विश्वविद्यालयीय सूचना के सभी 64 महाविद्यालय
प्रवेश-सूची जारी नहीं कर सकते थे। डीयू प्रशासन द्वारा साधी लम्बी चुप्पी के कारण
जब 24/06/2014 से शुरू होने वाली प्रवेश-प्रक्रिया अब
अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गयी तो डॉ. एस.के. गर्ग की अध्यक्षता में डीयू
प्राचार्य संघ की आपात बैठक हुई, जिसमें प्राचार्य संघ ने
एकमत से सत्र 2014-15 के लिए डीयू-युजीसी मामला सूलझने के
बाद प्राप्त आधिकारिक सूचना तक प्रवेश-प्रक्रिया पर रोक लगा दी। दरअसल डीयू के चार
वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम को अपने निर्माण की प्रक्रिया के समय से ही शिक्षकों
और छात्रों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है। सत्र 2013-14 में इसके लागू होने के बाद से तो छात्र और शिक्षक दोनों ही सड़कों पर
हैं। डीयू कुलपति, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मन्त्री और
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष के इस विवादित चार साला पाठ्यक्रम (जिसे उसी समय
देश के तमाम चोटी के शिक्षाविदों के विरोध का सामना करना पड़ा) का खामियाजा डीयू
के छात्रों को भले ही अपना एक साल बर्बाद कर भुगतना पड़ा हो, लेकिन डीयू कुलपति प्रो. दिनेश सिंह को उनके इस अभूतपूर्व योगदान के लिए ‘पद्मश्री’ से नवाजा गया, जिसे
कुलपति ने खूब भुनाया। उन्हें सिर्फ चार साला पाठ्यक्रम के लिए पद्मश्री से नहीं
नवाजा गया, बल्कि इसके मूल में दिल्ली विश्वविद्यालय की
प्रतिष्ठा को धूमिल कर उसकी नायाब पाठ्यक्रम संरचना को बर्बाद कर भारत में उच्च
शिक्षा के क्षेत्र में बड़े स्तर पर पूँजीपतियों, निजी
विश्वविद्यालयों और विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए मार्ग प्रशस्त करने में उनका
अतुलनीय योगदान है!
कुलपति ने डीयू में इसकी शुरूआत सत्र 2011-12 में
पूर्वस्नातक स्तर पर सेमेस्टर व्यवस्था लागू करके की, जिसका
पूरजोर विरोध तत्कालीन छात्र/शिक्षक संगठनों ने किया, लेकिन
उन्होंने किसी की न सुनी। असल में जिस दिन डीयू में पूर्वस्नातक स्तर पर डीयू की
राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के आधार रहे तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम के वार्षिक
स्वरूप के स्थान पर सेमेस्टर (छमाही सत्रांक) व्यवस्था लागू हुई, उसी दिन से डीयू के इतिहास के सबसे बुरे दिनों की, उसके
काले अध्याय की शुरूआत हो गयी थी (जिसका आधार पूर्व कुलपतिद्वय प्रो. दीपक नैयर और
प्रो. दीपक पैण्टल तैयार कर चुके थे)। तत्कालीन शिक्षकों के आक्रामक विरोध को
देखते हुए कुलपति ने दूसरा सबसे बड़ा काम विश्वविद्यालय में स्थायी शिक्षकों की
नियुक्ति की प्रक्रिया को ठण्डे बस्ते में डालने का किया। इस बीच उन्होंने लिखित
और अलिखति रूप से महाविद्यालयीय शिक्षकों की सेवा-शर्तों पर भी मनमानी की। इससे
उन्हें दो सीधे लाभ हुए। एक तो छमाही सेमेस्टर व्यवस्था में पढ़ाई और काम के
अतिरिक्त दबाव में छात्रों और शिक्षकों का विरोधी आन्दोलन कमजोर पड़ गया। शिक्षकों
में सीधे-सीधे दो फाड़ हो गए। एक स्थायी शिक्षक और दूसरे तदर्थ/अस्थायी शिक्षक।
डीयू में स्थायी शिक्षकों और तदर्थ/अस्थायी शिक्षकों का क्रमशः अनुपात लगभग 40% और 60% का है। इससे स्थायी शिक्षकों पर काम का
अतिरिक्त बोझ पड़ना स्वाभाविक था और स्वाभाविक यह भी था कि वे अपने अतिरिक्त काम
का बोझ तदर्थ/अस्थायी शिक्षकों पर डाले, जो पहले से काम के
बोझ से लदे पड़े थे। काम के अतिरिक्त बोझ ने शिक्षकों को लिपिकों में तब्दील कर
दिया। ऐसी स्थिति में न तो स्थायी शिक्षकों के पास आन्दोलन के लिए समय बचा और न ही
तदर्थ/अस्थायी शिक्षकों के पास। डीयू में तदर्थ/अस्थायी शिक्षक ऐसा जीभ रहित जीव
होता है, जिसका वजूद सिर्फ खानापूर्ति/हस्ताक्षर
अभियान/अहंकार की तुष्टि/अतिरिक्त कार्य का बोझा ढोने तक सीमित होता है। उसकी कृपा
आधारित नियुक्ति का आधार चुप्पी और चापलूसी की संस्कृति है न कि प्रतिभा। इससे
शिक्षकों के दोनों धड़ों के रिश्ते आन्तरिक उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का रूप लेते
गये, जिसका सीधा लाभ कुलपति को हुआ और उन्होंने मनमाफिक
नियमों को थोपना शुरू कर दिया। पर सबकुछ इतना आसान न था। इसलिए उन्होंने सबसे पहले
येन-केन प्रकारेण विश्वविद्यालय के कला/वाणिज्य/विज्ञान के शक्तिशाली शिक्षकों और
नेताओं को अपने पक्ष में लिया। जैसे - मीडिया को अपने पक्ष में करने के लिए
उन्होंने विश्वविद्यालय के सबसे बड़े मीडियाकर्मी को अपने साथ लिया। परिणामतः
शिक्षकों के विरोध के स्वर मन्द पड़ने लगे। सही मौका देख उन्होंने छात्रों को अपने
पक्ष में लेने की रणनीति की शुरूआत की, क्योंकि मीडिया युग
मे छात्रों के विरोध को दबाना शिक्षकों की अपेक्षतया अधिक कठिन था। चार वर्षीय
पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम की पूर्वपीठिका के रूप में उन्होंने राष्ट्रमण्डल खेलों के
समय निर्मित विश्वविद्यालयीय खेल परिसर में लगभग सभी महाविद्यालयों के चुनिन्दा
छात्रों को कुलपति से संवाद शृंखला में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया।
उन्होंने न केवल चार साला पाठ्यक्रम के पक्ष में विभिन्न तथ्यों को तोड़ मरोकर पेश
किया बल्कि बिना किसी चर्चा-संवाद के उसे ऐतिहासिक समयावधि (40 घण्टे) में अकादमिक परिषद (एकेडमिक कौंसिल) और विद्वत परिषद
(एक्ज्युकेटिव कौंसिल) से पास भी करा लिया (विवाद ए.सी. और ई.सी. की संरचना पर भी
है)। इसके खिलाफ काफी उग्र विरोध हुए पर दबा दिए गए।
कुलपति ने विरोधों को कुचलने का एक नायाब तरीका निकाला।
शुरू-शुरू में जहाँ-जहाँ विरोध होते, वहाँ-वहाँ उन्होंने अपने समर्थकों की भारी
संख्या को सुनिश्चित किया पर हर समय यह सम्भव न था। ऐसे में उन्होंने
विरोध-प्रदर्शन-स्थलों पर विरोधियों की फोटोग्राफी और विडियोग्राफी करवानी शुरू की,
जिससे वे शिक्षक समुदाय में गहरा भय व्याप्त करने में सफल रहे। जब
अधिकांश स्थायी शिक्षक महाविद्यालयों और घरों तक सीमित हो गए तो फिर तदर्थ/अस्थायी
शिक्षकों की हैसियत ही क्या थी! आवाजें तब भी आती रही पर दबे स्वर में। परेशान
शिक्षकों ने जब आर-पार की लड़ाई की सोची तो कुलपति ने शिक्षकों के आन्दोलन को
तोड़ने के उद्देश्य से तमाम विश्वविद्यालयीय विभागों और महाविद्यालयों में कई
सर्कूलर भेजे, जिसमें उन्होंने विरोध प्रदर्शन के लिए नियत
दिन और समय विश्वविद्यालय/महाविद्यालय परिसर में (किसी भी कारणवश) अनुपस्थित रहने
वाले शिक्षकों के वेतन में कटौती करना शुरू कर दिया। कई विभागीय और महाविद्यालयीय
शिक्षकों द्वारा अपने दायित्वों की पूर्ति और कक्षाओं को लेने के बाद परिसर छोड़ने
पर उनके वेतन काटे गए। स्वायत्तता के नाम पर कुलपति ने अपने समर्थकों के माध्यम से
इस तरह की कई अनैतिक और तानीशाही कार्यवाहियों को अंजाम दिया। उन्होंने दिल्ली
विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के पदाधिकारियों को भी चार साला पाठ्यक्रम के
विरोध से अलग करने के कई उपक्रम किए, जो अब भी जारी है। जब
कहीं उम्मीद न दिखाई दी तो लोगों की सारी उम्मीदें लोकसभा चुनावों पर टिक गयी।
डीयू के चार साला पाठ्यक्रम की वापसी को भाजपा के घोषणापत्र में भी स्थान मिला।
सरकार बदली। मानव संसाधन विकास मन्त्रालय बदला। यूजीसी को भी राहत मिली। नतीजनतन
उसने पहले डीयू से अपने चार साला पाठ्यक्रम पर पुनर्विचार के लिए कहा, जिसे डीयू ने ठुकरा दिया। इस पर यूजीसी ने कड़ा रूख अपनाया और इसे
गैरकानूनी बताते हुए, तुरन्त वापस लेने और पूर्ववर्ती तीन
साला पाठ्यक्रम को फिर से लागू करने का आदेश दिया। आदेश की अवहेलना पर आयोग ने
डीयू के चार साला पाठ्यक्रम लागू करने वाले सभी 64
महाविद्यालयों को मिलने वाली आर्थिक मदद बन्द करने के साथ-साथ चार साला उपाधि की
मान्यता रद्द करने की चेतावनी दी। आयोग ने स्पष्ट कहा कि “दिल्ली
विश्वविद्यालय या इसके तहत आने वाला कोई महाविद्यालय, अकादमिक सत्र 2014-15 के लिए चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम में छात्रों को किसी भी सूरत में
दाखिला नहीं देगा।” और अगर वह ऐसा करता
है तो इसे “यूजीसी अधिनियम 1956 का उल्लंघन
माना जाएगा और उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाएगी।” (इस बीच डीयू के चार साला पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में यूजीसी ने 21 जून 2014 को एक 10 सदस्यीय
स्थायी समिति गठित की, जिसने अपनी रिपोर्ट में चार साला
पाठ्यक्रम को तीन साला पाठ्यक्रम में बदलने के सुझाव दिए हैं। उन्होंने चार साला
पाठ्यक्रम में भाग ले चुके छात्रों को भी तीन साला पाठ्यक्रम के तहत समायोजित करने
और उन्हें पूराने पाठ्यक्रम के तहत उपाधि प्रदान करने के साथ-साथ पाठ्यक्रम को
बेहतर बनाने के सुझाव भी दिए। समिति ने तीन साल तक पढाई करने वाले बी.टेक.
(कम्प्युटर विज्ञान) के छात्रों को बीएस.सी.(विशेष) की उपाधि देने तथा चार साल तक
पढाई पूरे करने वाले छात्रों को बी.टेक. की उपाधि देने का सुझाव दिया है।) लेकिन
कुलपति पर इसका कोई असर नहीं हुआ और वे न केवल अपने रुख़ पर अड़े रहे, बल्कि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने का ऐलान करके एक विवादास्पद
पत्रकार/मानवाधिकार कार्यकर्ता के मार्फत अपने समर्थकों के अनुरोध में उसे वापस
लेने तथा यूजीसी के अध्यक्ष पर धमकाने व पद से हटने का दबाव बनाने का आरोप भी
लगाया। इस पर तमाम शिक्षक/छात्र संगठनों का कहना है कि अगर ऐसा है तो कुलपति को
खुलकर अपना पक्ष रखना चाहिए था न कि चुप्पी साध लेनी चाहिए थी। उन्होंने इसे
स्वायत्ता और सरकारी दखल की आड़ में विश्वविद्यालयीय समुदाय की सहानुभूति हासिल
करने की एक निन्दनीय और अनैतिक कोशिश मानते हुए कुलपति के इस्तीफे की माँग को और
तेज कर दिया है।
इस बीच विश्वविद्यालय स्वायत्तता और उच्च शिक्षण संस्थानों
की शैक्षणिक स्वतन्त्रता पर हमले के विरोध की आड़ में डीयू के जो 10-15 शिक्षक (न कि
डीयू की पूरी शिक्षक बिरादरी) 24 जून को 24 घण्टे की भूख हड़ताल पर बैठे, वे कोई और नहीं बल्कि
कुलपति के अन्ध-समर्थक शिक्षक है, जिनके मुखिया ‘डूटा’ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. आदित्य नारायण मिश्रा
(अरबिन्दो महाविद्यालय) है, जिन्हें कुलपति-समर्थन देने का
पूरा लाभ मिलता रहा है। उन्होंने कुलपति के बचाव/समर्थन में आयोग द्वारा डीयू को
चार साल के पूर्वस्नातक पाठयक्रम को समाप्त कर पूर्ववर्ती तीन वर्षीय पूर्वस्नातक
पाठयक्रम लागू करने के लिए 20, 21 एवं 22 जून 2014 को दिए गए निर्देशों को रद्द करने की माँग
में भारत के उच्चतम न्यायालय में एक ‘जनहित याचिका’ (पी.आई.एल.) दायर की, जिस पर न्यायमूर्ति विक्रमजीत
सेन एवं न्यायमूर्ति शिवकीर्ति सिंह की खण्डपीठ ने उन्हें पहले दिल्ली उच्च
न्यायालय की शरण में जाने के लिए कहा ताकि उच्चतम न्यायालय में आने पर उनके पास
उच्च न्यायालय द्वारा दिए तर्क भी मौजूद हों। बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय में भी
इस मामले के पक्ष और विपक्ष (दोनों) में दायर जनहित याचिका पर स्थिति को गम्भीरता
को देखते हुए उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी और न्यायमूर्ति वी.
कामेश्वर राव की अवकाशकालीन पीठ ने जुलाई में मामले की सुनवाई की बात कही। जहाँ तक
विश्वविद्यालय की स्वायत्तता और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भूमिका का सवाल है
तो एक सांविधिक निकाय के रूप में आयोग भारतीय विश्वविद्यालयों को धन उपलब्ध कराने
के साथ-साथ उच्च शिक्षण संस्थानों में समन्वय स्थापित करने और उनकी शिक्षा के स्तर
पर ध्यान देता है। जब उसने यह पाया कि दिल्ली विश्वविद्यालय का चार वर्षीय पूर्वस्नातक
पाठ्यक्रम न केवल आयोग के नियमों की अवहेलना करता है बल्कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 की 10+2+3 व्यवस्था का भी उल्लंघन करता है, तब उसने डीयू को इसे वापस लेने के निर्देश दिए। यह सही है कि
विश्वविद्यालय कोई भी स्वतन्त्र पाठ्यक्रम चला सकता है पर विश्वविद्यालय अनुदान
आयोग और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए। विश्वविद्यालय
एकीकृत पाठ्यक्रम भी चला सकते और देश के कई विश्वविद्यालयों में
स्नातक+स्नातकोत्तर के पाँच वर्षीय एकीकृत पाठ्यक्रम की सुविधा पहले से उपलब्ध है।
यहाँ तक की जेएनयू शोध के क्षेत्र में पाँच वर्षीय एम.फिल.+पीएच.डी. एकीकृत
पाठ्यक्रम चला रहा है, जबकि डीयू में दोनों में प्रवेश के
लिए अलग-अलग प्रक्रिया का प्रावधान है। पंजाब विश्वविद्यालय तो उच्च माध्यमिक
(बारहवीं) के बाद सात वर्षीय एकीकृत पाठ्क्रम पर विचार कर रहा है, जिसमें छात्र को स्नातक-विशेष+स्नातकोत्तर+पीएच.डी. की सुविधा दी जाएगी।
इन सब में से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्देशों का
पूरा ध्यान रखा गया है। असल में देश के सभी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में
एक-सी पाठ्यचर्या और समयावधि होनी चाहिए, अन्यथा छात्रों को
एक विश्वविद्यालय से दूसरे विद्यालय में प्रवज्जन में तकनीकी दिक्कतें आएगी। ‘पाठ्यक्रम’ (सैलेबस) अलग हो सकता है पर ‘पाठ्यचर्या’ (करीकुलम) नहीं। पाठ्यक्रम निर्माण
विश्वविद्यालय का स्वायत्त मामला है पर पाठ्यचर्या नहीं। इस तरह स्वायत्तता का
मतलब न तो प्रशासनिक मनमानी होता है और न ही कुलपति का एकाधिकार।
विशेषज्ञों के अनुसार चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम
पूरी तरह से अस्तरीय, बचकाना और हास्यास्पद है और वह विभिन्न कौशलों के विकास (स्किल
डेवलपमेण्ट) के नाम पर छात्रों को गुमराह करता है। प्रारम्भिक स्तर पर इसकी
अन्तरानुशासनिक प्रकृति ने भले ही सबको प्रभावित किया हो, लेकिन
एक साल की प्रयोगधर्मिता के बाद जो परिणाम सामने आए, उनमें
छात्रों ने कुछेक अपवादों को छोड़कर ऐसा कोई बड़ा अन्तरानुशासनिक विकल्प नहीं चुना,
जिससे इसे पहले के तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रमों से अलगाया जा
सके (जबकि आधार पाठ्यक्रमों की अधिक बेहतर वैकल्पिक सुविधा पूर्ववर्ती तीन वर्षीय
पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम में पहले से मौजूद थी)। विज्ञान के छात्रों ने जहाँ कला या
वाणिज्य के विषयों से दूरी बनाए रखी, वहीं कला और वाणिज्य के
छात्रों ने विज्ञान के विषयों से दूरी बनाए रखी। छात्रों को लैपटॉप वितरित कर उनका
ध्यान इसकी मूल प्रकृति से हटाने की कोशिश की गयी और बार-बार यह कहा गया कि
छात्रों ने लैपटॉप और प्रोजेक्टर के माध्यम से खुद को अभिव्यक्त करना सीखा,
लेकिन इस पर कोई बात नहीं की गयी कि उन्होंने सीखा क्या? जिन 12 आधार पाठ्यक्रमों (फाउण्डेशन कोर्स) को चार
साला पाठ्यक्रम की आत्मा बताया जाता है, वह कक्षा 8 और 10 दर्जे के नितान्त अस्तरीय, बचकाने और हास्यास्पद पाठ्यक्रम है। 75 अंकों के
प्रत्येक आधार पाठयक्रम की अंक योजना में 55 अंकीय
(परियोजना(25अंक)+ प्रस्तुति(15अंक)+
समूह-परिचर्चा(15अंक) आन्तरिक मूल्यांकन और 20 अंकों की विश्वविद्यालय द्वारा ली जाने वाली सैद्धान्तिक प्रश्नपत्र-परीक्षा
की योजना समाहित है। चूँकि विश्वविद्यालय पहले से ही इसकी सफलता-असफलता को शिक्षक
की सफलता-असफलता के रूप में व्याख्यायित करता रहा है, इसलिए
आन्तरिक मूल्यांकन में किसी छात्र का अनुतीर्ण होना प्रायः नामुमकिन हो जाता है।
सामान्यतः 20 अंकों के विश्वविद्यालयीय सैद्धान्तिक
प्रश्नपत्र में छात्र को एक घण्टे में सामान्य जागरूकता सम्बन्धी कई विकल्पों में
से सिर्फ 10-10 अंकों के दो प्रश्न करने अनिवार्य होते हैं,
जिसमें अनुतीर्ण होने की तो सम्भावना ही नहीं बचती। फिर आन्तरिक
मूल्यांकन में तो वह पहले से उत्तीर्ण हैं। इसमें सिर्फ एक-दो छात्रों द्वारा
तैयार 25 अंकीय परियोजना-कार्य जबरन 5-10 साथियों के साथ मिलकर प्रस्तुत किया जाता है ताकि एक-दो छात्रों की मेहनत
का लाभ अन्य सभी छात्रों को समान रूप से मिले (इससे कुछ भिन्न अर्थीय दोहराव
दृश्य-श्रव्य-प्रस्तुतिकरण में भी होता है), इनमें अधिकांशतः
वे छात्र भी शामिल हैं, जो पूरे सत्रांक के दौरान सिर्फ ऐसी
प्रस्तुतियों के दौरान ही कक्षाओं में उपस्थित होते हैं। छात्रों की अनुपस्थिति का
कारण एक ओर डीयू प्रशासन द्वारा बाकायदा अपनी वेबसाइट पर अधिसूचना डालकर कक्षाओं
में छात्रों की उपस्थिति को अनावश्यक घोषित करना रहा तो दूसरी ओर 25 अंकीय सामूहिक परियोजना-कार्य में एक-दो छात्रों की मेहनत का लाभ को
अनिवार्यतः साझा करना रहा। आमतौर एक कक्षा में 30-40 छात्र
होते हैं, लेकिन आधार पाठ्यक्रम की कक्षाओं में सामान्यतः 80 से 120 छात्र होते हैं (इसमें शिक्षक-छात्र-अनुपात
पर कोई बात नहीं की गयी)। ऐसे में किसी भी प्रतिभाशाली शिक्षक के लिए वैयक्तिक
स्तर पर सिर्फ चार महिनों (100-120 दिनों) में प्रत्येक
छात्र के कौशलों के विकास को, उसकी स्वतन्त्र प्रस्तुति को
पड़तालना आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा है। कायदे से 55 मिनट
की एक कक्षा में तो सिर्फ दो-तीन प्रस्तुतियां ही हो सकती है, फिर चर्चा-परिचर्चा-संवाद के लिए अलग से समय चाहिए।
यह सवाल कि जब सभी भारतीय विश्वविद्यालय राष्ट्रीय शिक्षा
नीति-1986 के अनुरूप (एकीकृत और पेशेवर पाठ्यक्रमों को छोड़कर) तीन वर्ष में स्नातक
विशेष (ऑनर्स) की उपाधि प्रदान कर रहें है तो फिर दिल्ली विश्वविद्यालय अपने 12 वाहियात आधार पाठ्यक्रमों के नाम पर अपने पूर्ववर्ती तीन वर्षीय
पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम को पूर्णतः बदलकर उसमें जबरन एक साल जोड़कर चार वर्षीय
पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम में विशिष्ट स्नातक की उपाधि देने पर आमादा क्यों है?
और फिर चार साला पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में बार-बार यह दावा कि हम
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 के अनुरूप स्नातक उपाधि प्रदान
कर रहे हैं, तथ्यों को तोड़-मरोड़कर उसकी गलत व्याख्या
प्रस्तुत कर गुमराह करने वाला है। मामला अकादमिक धोखाधड़ी का भी है। वह तीन साल की
पढ़ाईपर्यन्त ड्रॉपआउट निकासी पर की गयी व्यवस्था को स्नातक उपाधि बता रहा है,
जिसके लिए कोई अलग से पाठ्यक्रम निश्चित नहीं किया गया है।) ध्यान
देने वाली बात यह भी है कि इसमें जोड़े गए एक अतिरिक्त वर्ष (3+1) से लाभ किसे होगा और किसे इसका खामियाजा भुगतना होगा? दरअसल लाभ और हानि दोनों का सम्बन्ध इस पाठ्यक्रम की संरचना से है। इसमें
दो साल, तीन साल और चार साल की पढ़ाईपर्यन्त निकासी की
स्पष्ट व्यवस्था है। दो साल की पढ़ाई के बाद निकासी पर डिप्लोमा, तीन साल की पढ़ाई के बाद निकासी पर स्नातक और चार साल की पढ़ाई के बाद
निकासी पर विशिष्ट स्नातक की स्वतन्त्र उपाधि का प्रावधान किया गया है, लेकिन ध्यान में देने की बात यह है कि इन तीन अलग-अलग उपाधियों के लिए
पाठ्यक्रम की संरचना तीन अलग-अलग उपाधियों के हिसाब से नहीं बल्कि एकमात्र चार
वर्षीय विशिष्ट स्नातक उपाधि के हिसाब से तैयार की गयी है। यानी यह पाठ्यक्रम
सीधे-सीधे ड्रॉपआउट व्यवस्था को बढावा देता है। दो वर्ष और तीन वर्ष के ड्रॉपआउट
के बाद जिन छात्रों को सम्बद्ध उपाधियां दी जाएगी, वे कौन
होंगे? वे सीधे-सीधे दलित, आदिवासी,
पिछड़े और गरीब लड़के-लड़कियां ही होंगे। वास्तविकता तो यह है कि
चार साला पाठ्यक्रम के बाद डीयू की योजना परास्तानक उपाधि पाठ्यक्रम को एक साल का
कर उसे भी बर्बाद करने की है और वह भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (10+2+3) का उल्लंघन होगा। पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम की बर्बादी के बाद परास्नातक पाठ्यक्रम
की बर्बादी के मूल में भी पूँजीपतियों, निजी और विदेशी
विश्वविद्यालयों की भविष्यगामी समृद्धि में निहित है, जिसके
संकेत भारत-अमरीकी संवाद में बराबर मिलते रहे हैं। इस तरह ये पाठ्यक्रम उच्च
शिक्षा से गरीबों, दलितो, आदिवासियों
और पिछड़ों को दूर कर पूँजीपतियों के एकाधिकार के लिए रास्ता साफ करने की दूरगामी
साजिश का हिस्सा है। क्योंकि वे जानते है कि अगर वे दिल्ली विश्वविद्यालय की
शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने में कामयाब हो गए तो भारत में उच्च शिक्षा के
क्षेत्र में पाँव पसारना और भी आसान हो जाएगा। आज पूरे वैश्विक परिदृश्य में
पूँजीपतियों के लिए स्वास्थ्य के बाद शिक्षा दूसरा सबसे बड़ा मूनाफे का क्षेत्र
सिद्ध हो रहा है। इसीलिए इस चार साला पाठ्यक्रम की रूपरेखा का निर्माण 99% छात्रों (जिनमें अधिकांश गरीब और कमजोर तबके के छात्र शामिल होते हैं) के
हितों को दरकिनार करते हुए, उन 1%
धनाठ्य छात्रों के भविष्य को ध्यान में रखकर किया गया जो हर साल विदेशों में
रोजगार/रोजगारोन्न्मुखी अध्ययन के लिए विदेश जाते हैं (और प्रायः वहीं बस जाते
हैं) और जिन्हें वहाँ की शिक्षा पद्धति के अनुरूप एक साल का अतिरिक्त पाठ्यक्रम
करना पड़ता है। यह बात चार साला पाठ्यक्रम के तथाकथित समर्थकों द्वारा बार-बार दिए
जाने वाले अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों के उदाहरणों से भी समझी जा सकती है।
मामला प्रतिभा पलायन (ब्रेन-ड्रेन) के अन्ध-समर्थन का भी है। कुल मिलाकर इसका
उद्देश्य उच्च शिक्षा पर पूँजीपतियों, महंगे निजी
विश्वविद्यालयों और विदेशी विश्वविद्यालयों के एकाधिकार के लिए रास्ता साफ करना
है। कई छात्र/शिक्षक संगठन इसमें कुलपति की भूमिका की जाँच की भी माँग कर रहे हैं।
माँगे और भी है, जिनमें पद का दुरूपयोग, अन्य पिछड़ा वर्ग की अनुदान राशि का दुरूपयोग और संसाधन मुहैया कराने के
नाम पर भ्रष्टाचार (विशेषकर लैटटॉप खरीद मामला) प्रमुख है।
इसी तरह बी.टेक. (कम्प्युटर विज्ञान) को बचाने के नाम पर चार
साला पाठ्यक्रम का अन्ध समर्थन सही नहीं है, क्योंकि बी.टेक. और अन्य
कला/वाणिज्य/विज्ञान स्नातक विशिष्ट पाठ्यक्रमों की प्रकृति एक-दूसरे से बिल्कुल
अलग है। बी.टेक. एक पेशेवर/व्यावसायिक पाठ्यक्रम है और डीयू के किसी भी
छात्र/शिक्षक संगठन ने इसे तीन साला करने की बात नहीं की, सभी
इसके चार साला स्वरूप को बनाए रखने के पक्ष में हैं। विवाद इसके पाठ्यक्रम की
संरचना को लेकर है, जो फिलहाल बीएस.सी. (कम्प्युटर विज्ञान)
के स्तर का भी नहीं है। जिस तरह कुलपति और उनके पूरे दल ने चार साला पाठ्यक्रम के
सम्बन्ध में गलत तथ्य जुटाकर छात्रों को अपने पक्ष में किया, यह एक तरह की अकादमिक बेईमानी है। इस सन्दर्भ में कुलपति ने शिक्षकों और
उनके एसोसिएशन के साथ संवाद की कोई जरूरत ही नहीं समझी। अक्टूबर 2010 में अपनी नियुक्ति के बाद से उन्होंने सिर्फ एक बार और वह भी मानव संसाधन
मन्त्रालय के दखल के कारण जून 2014 में उनसे मुलाकात की।
जबकि शिक्षक और छात्र न सिर्फ इस चार साला पाठ्यक्रम के थोपे जाने के समय से बल्कि
उससे भी पहले तीन साला पाठ्यक्रम में जबरन सेमेस्टर व्यवस्था लागू करने के समय से
सड़कों पर हैं (जिसका पहला बैच इसी सत्र 2013-14 में पासआउट
हुआ है)। चार साला पाठ्यक्रम के नाम पर डीयू ने अपने लोकप्रिय व्यावसायिक
पाठ्यक्रमों बी.बी.ए., बी.बी.एस. और बी.बी.ई. (इनमें दाखिले
प्रवेश-परीक्षा के आधार पर होते थे) को तो समाप्त किया ही, उसने
बी.ए. प्रोग्राम, बी.कॉम. प्रोग्राम, बीएस.सी.
जीवन विज्ञान और बीएस.सी. भौतिक विज्ञान जैसे अत्यन्त लोकप्रिय तीन साला स्नातक
पाठ्यक्रम भी समाप्त कर दिए। तीन साला बी.ए. पत्रकारिता और जनसंचार में पहले
प्रवेश-परीक्षा के आधार पर दाखिला होता था, डीयू ने उसे
समाप्त कर इसे भी चार साला कर दिया। कुलपति और उनका दल पूर्वस्नातक पाठ्यक्रमों
में किसी भी तरह की जनतान्त्रिक प्रवेश-परीक्षा के सख्त खिलाफ रहा है, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें उन प्रतिभाशाली छात्रों को भी मौका देना होगा,
जो किसी कारणवश बारहवीं में अच्छे अंक प्राप्त न कर सके। शैक्षिक
जनतन्त्र, नवाचार और स्वायत्तता की बात करने वालों के लिए
ऐसे छात्रों को मौका देना पचता ही नहीं है (हालांकि पूर्वस्नातक पाठ्यक्रमों की ही
तरह परास्नातक पाठ्यक्रमों में भी डीयू की कोई समान प्रवेश-प्रक्रिया व्यवस्था
नहीं होने से सभी विभाग अपनी मनमानी करते हैं।)
अपने तथाकथित श्रेष्ठतादम्भ के कारण डीयू हमेशा से आयोग
द्वारा जारी निर्देशों की अवहेलना करने में अव्वल रहा है। नौवें दशक में जब आयोग
ने अन्य विश्वविद्यालयों के साथ डीयू को शिक्षकों की नियुक्ति में कुछेक अपवादों
को छोड़कर ‘नेट’ को अनिवार्य करने के निर्देश दिए तो डीयू ने
ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया था। ऐसा न करने पर एक छात्र उच्च न्यायालय में गया,
जहाँ डीयू हारा। डीयू इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय गया और
वहाँ भी वह हारा। ऐसे अनेकों उदाहरण है जहाँ वह छात्र/शिक्षक हितों से सम्बद्द
यूजीसी के निर्देशों के पालन में मनमानी कर अपने पक्ष में उसकी गलत और अतार्किक
व्याख्या करता रहा है। छात्र/शिक्षक हितों में डीयू ने जो भी निर्णय लिए हैं,
वे तमाम निर्णय प्रायः उसने आयोग के हस्तक्षेप के बाद लिए हैं।
इसलिए डीयू की मनमानी कोई नयी बात नहीं है, नयी है वर्तमान
कुलपति की हठधर्मिता और उसका अड़ियल रवैया। नतीतजन डीयू द्वारा आयोग के निर्णयों
की अवहेलना में उन्होंने सीधे डीयू के उन 64 महाविद्यालयों
(जहाँ चार सारा पाठ्यक्रम में प्रवेश हुए) को भी निर्देश जारी किए, जिनमें से 57 ने आयोग के निर्देशानुसार दाखिले पर
अपनी सहमति दी और 7 तब भी कुलपति के निर्णय पर अड़े रहे।
जिस चार साला पाठ्यक्रम को कुलपति और उनके साथी छात्रों के
सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास से जोड़कर देखते हैं, वह उनके भविष्य और
उनके व्यक्तित्व के साथ खिलवाड़ करता है। कुलपति की हठधर्मिता ने इसे अपनी नाक की
लड़ाई बना ली। देखना यह है कि जरूरी क्या है - कुलपति की नाक या देश की शिक्षा का
भविष्य, जिसके साथ वे और उनके साथी लगातार खिलवाड़ करते रहे
हैं। मुद्दा छात्रों के हित में सही पाठ्यक्रम-निर्धारण का और उनके एक साल को
बचाने का रहा है। दूसरा मुख्य मुद्दा ‘देखो, छुओ और भागो’ की नीति पर आधारित सेमेस्टर (सत्रांक)
व्यवस्था में छात्रों के निम्नतर बुद्धिमत्ता स्तर का है, जो
चार वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम में तो समाप्त होता दिखता रहा है। डीयू के
सैकड़ों पूर्व छात्रों और शिक्षकों से संवाद से यह बात सामने आती है कि वार्षिक
स्वरूप वाला तीन वर्षीय पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम अब तक का सर्वश्रेष्ठ पाठ्यक्रम है,
जिसमें छात्रों को अध्ययन का भरपूर अवसर मिला और जिसने
विश्वविद्यालय को प्रसिद्धि प्रदान की। यूपीए सरकार के मानव संसाधन मंत्री के
निर्देश पर दिल्ली विश्विद्यालय में अफरा-तफरी में लागू किये गये चार वर्षीय
पाठ्यक्रम को रद्द करवाकर वर्तमान एनडीए सरकार की मानव संसाधन मंत्री अपनी जीत का
दावा कर सकती हैं लेकिन दुर्भाग्यवश इस समय वार्षिक स्वरूप वाले तीन वर्षीय
पूर्वस्नातक पाठ्यक्रम पर कोई चर्चा ही नहीं हो रही है, क्या
यह अपने आप में कुलपति की बड़ी जीत नहीं है?
‘मूक आवाज़’ हिंदी जर्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून2014) ISSN 2320 – 835X
Website:
https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
उत्तर आधुनिकता - डॉ. आशीष सिसोदिया
‘तार्किकीकरण’ (Rationalization) का विरोध उत्तर आधुनिकता इसकी वर्चस्ववादी, शोषणकारी, सर्वसत्तावादी
और जीवन रस को सोखने वाली प्रवृत्ति के कारण करती है। उत्तर आधुनिकता ऐसी व्यवस्था
का विरोध करती है जो ‘शोषण’ या ‘केंद्रीयता’ पर
आधारित हो। यही कारण है कि ल्योतार “ऐसे बड़े वृत्तान्तों
(महावृत्तान्तों) को स्वीकार नहीं करते जो अभी तक हमारे जीवन को संगठित करते आए
हैं।”
आधुनिकतावादी वास्तविक ऐतिहासिक और
सांस्कृतिक विभिन्नताओं का ख्याल भी नहीं रखते। इस प्रकार उत्तर आधुनिकता उन पक्षों
की चिंता करती है जिन्हें आधुनिकता ने तार्किक सभ्यता, व्यवस्था
या विकास के नाम पर या तो समाप्त कर दिया या विकृत कर दिया या फिर ‘अप्रस्तुति
योग्य’ घोषित कर दिया।
उत्तर आधुनिकता
में आधुनिकता के साथ उत्तर उपसर्ग लगाकर उत्तर आधुनिकता शब्द बना है। इसकी
व्याख्या दो अर्थों में की जा सकती है। एक तो है, आधुनिकता का
उत्तर अर्थात विरोध तथा दूसरा है आधुनिकता का उत्तर पक्ष। यदि इसे आधुनिकता की
अगली कड़ी या अगला सोपान कहें तो अनुचित न होगा। आप उत्तर आधुनिकता को आधुनिकता की
पुनर्परिभाषा भी कह सकते हैं- “उत्तर आधुनिकता में आधुनिकता के अनेक तत्त्वों को खारिज
किया गया और बदलती सामाजिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक
स्थितियों के प्रकाश में कुछ अन्य आधुनिक मान्यताओं को पुनर्परिभाषित किया गया है।”[1]
आधुनिकता को यदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में लें तो यह ऐसी
जीवन दृष्टि है जो औद्योगिक युग, पूंजीवाद, ज्ञानोदय, वैज्ञानिक
क्रांति, प्रोटेस्टेंट आचार पद्धति, तार्किकीकरण तथा विचारों की
सार्वभौमिकता पर टिकी थी। ‘उत्तर आधुनिक’ युग को डेनियल बेल ने ‘उत्तर औद्योगिक युग’ कहा है, जहां पर उद्योग अर्थ व्यवस्था के
केंद्र में नहीं रहा। उद्योगों के विकास के कारण उत्पादन में वृद्धि होने लगी
किंतु वस्तुओं के उपभोग हेतु उपभोक्ता कम होने लगे। उत्तर आधुनिक युग में उपभोक्ता
को केंद्र में रख कर एक कृत्रिम मांग पैदा की जाने लगी। अब उपभोक्ताओं को बहलाया
फुसलाया जाने लगा ताकि वे अधिकाधिक उपभोग करें। इसके लिए विज्ञापनबाजी का सहारा
धड़ल्ले से लिया जाने लगा।
डेनियल बेल ने 1973 में दावा किया कि आने वाले तीस या पचास
वर्षों में हम उत्तर औद्योगिक समाज को उभरता देखेंगे। बेल का यह भी मानना था कि
उत्तर औद्योगिक अवस्था उत्तर औद्योगिक समाज का सहज परिणाम नहीं है परंतु वह
संयोगवश इसके साथ है। बेल के अनुसार पूंजीवाद के विकास में प्रोटेस्टेंट विचारों
का योगदान था जिसमें अधिकाधिक अर्जन एवं न्यूनतम उपभोग दो विरोधी मूल्यों का
संतुलन था। आधुनिकता के अंतिम दौर में न्यूनतम उपभोग की अवधारणा समाप्त हो गई और
एक नई तरह की सुखवादी प्रवृत्तियों का विकास हुआ। इसप्रकार पंजीवाद में लोभ और लाभ
का दौर अंधे उपभोगवाद के साथ पनपने लगा और पूंजीवाद की लोकोत्तर नैतिकता नष्ट हो
गई। बेल की अवधारणा है कि उत्तर आधुनिकता में इस परवर्ती सुखवादी आधुनिकता की
प्रवृत्तियों का ही विकास हुआ है।
इसप्रकार उत्तर आधुनिक युग में बोद्रीलां का ‘उपभोक्ता समाज’ अस्तित्व में
आया, जहां पर हर व्यक्ति केवल सतत असंतुष्ट उपभोक्ता बनकर रह गया
जो नित नई वस्तुओं की खोज में भटकने लगा। प्रो.चमनलाल गुप्त के अनुसार “पूंजीवाद का
आधुनिकतावादी स्वरूप अब बदल गया क्योंकि इस युग में ‘विक्रय’ की अपेक्षा ‘विपणन’, आवश्यकतापूर्ति
की अपेक्षा ‘मुक्त उपभोग’ और ‘वस्तु उत्पादन’ की अपेक्षा ‘सेवा क्षेत्र’ का महत्त्व बढ़
गया। इस दृष्टि से उत्तर आधुनिक युग ‘पूंजीवाद’ से ‘वृद्ध पूंजीवाद’ की यात्रा पर
चल पड़ा।”[2]
वृद्ध पूंजीवाद में इच्छाओं और विलासिताओं को आवश्यकता में
बदल दिया जाता है। अब पूंजीवाद का चेहरा बदल गया है। पूंजीपतियों ने प्रचार
माध्यमों की सहायता से उपभोक्ता की चेतना को बंदी बना लिया है। इसप्रकार उत्पादक
जो बनाता है, उपभोक्ता उसी की मांग करने लगता है।[3]
उपभोक्ता सर्वोपरि हो गया है।
उत्तर आधुनिकता, आधुनिकता से ‘ज्ञानोदय’ (Enlightenment) के
बिंदु पर भी अलग हुई। ज्ञानोदय एक पश्चिमी वैचारिक आंदोलन था जिसका आधार था ‘तार्किकीकरण।’ फ्रांसिस बेकन
को तार्किकीकरण का पिता माना जाता है। आधुनिक युग में तर्कवाद ने मनुष्य के अनेक
भ्रमों को दूर किया। तर्क केवल मनुष्य कर सकता है इसलिए सृष्टि में मनुष्य को
केंद्रीय स्थान मिल गया। इसप्रकार मनुष्य (पुरुष) के वर्चस्ववाद को बढ़ावा मिला और
शोषणकारी व्यवस्था को जन्म मिला- “तर्कवाद ने पुरुष को वर्चस्व
प्रदान किया और स्त्री को हाशिए पर डाल दिया। तर्क यह था कि पुरुष तर्कशील है
इसलिए श्रेष्ठ है और नारी भावनापरक है इसलिए पुरुष से हीन है। नारी शोषण का आधार
यही तर्कवाद बना।”[4]
उत्तर आधुनिक विचारक मानते हैं कि तर्कवाद एक शोषणकारी
व्यवस्था को जन्म देता है। तर्कवाद के कारण मनुष्य वर्चस्ववादी हो गया। प्रकृति पर
वह अधिकार करने की होड़ करने लगा। इससे शोषणकारी व्यवस्था पनपी। एडार्नो और
होर्खीमर लिखते हैं -”ज्ञानोदय वस्तुओं के साथ वैसे ही व्यवहार करता है जैसे
तानाशाह व्यक्तियों के साथ करता है।
‘तार्किकीकरण’ (Rationalization) का विरोध उत्तर आधुनिकता इसकी
वर्चस्ववादी, शोषणकारी, सर्वसत्तावादी और जीवन रस को सोखने
वाली प्रवृत्ति के कारण करती है। उत्तर आधुनिकता ऐसी व्यवस्था का विरोध करती है जो
‘शोषण’ या ‘केंद्रीयता’ पर आधारित हो।
यही कारण है कि ल्योतार “ऐसे
बड़े वृत्तान्तों (महावृत्तान्तों) को स्वीकार नहीं करते जो अभी तक हमारे जीवन को
संगठित करते आए हैं।”[5]
आधुनिकतावादी वास्तविक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विभिन्नताओं
का ख्याल भी नहीं रखते। इस प्रकार उत्तर आधुनिकता उन पक्षों की चिंता करती है
जिन्हें आधुनिकता ने तार्किक सभ्यता, व्यवस्था या विकास के नाम पर या तो
समाप्त कर दिया या विकृत कर दिया या फिर ‘अप्रस्तुति योग्य’ घोषित कर दिया।
ल्योतार के अनुसार उत्तर आधुनिकता अप्रस्तुति योग्य को
छिपाने के स्थान पर उसे प्रस्तुतियोग्य बनाती है। “उत्तर आधुनिकता ‘ज्ञानोदय’ में
अप्रस्तुतियोग्य अथवा गौण मानकर साहित्य से बहिष्कृत किए गए विषयों को पुनः ‘प्रस्तुतियोग्य’ घोषित करती है।
इनमें नारीवाद, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों के
आंदोलन प्रमुख हैं।”[6]
आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता में तकनीक को लेकर भी मूलभूत
अंतर है। आधुनिकता में तकनीक का सीधा और अनिवार्य संबंध विज्ञान से जोड़ा जाता था।
उत्तर आधुनिकता में तकनीक का वर्चस्व अर्थ-व्यवस्था, राजनीति, विज्ञान आदि
में एकमत से स्वीकार कर लिया गया।
डॉ. चमन लाल गुप्त के अनुसार “ उत्तर आधुनिकता
की भारतीय चिन्तन धारा से विकेंद्रीकरण या बहुलवाद की दृष्टि से संगति बैठती है।
जगत् को माया समझना और वस्तुओं का चेतना पर हावी होना भारतीय विचारधारा और उत्तर
आधुनिकता में समान रूप से स्वीकार्य है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि उत्तर
आधुनिकता भारत के लिए नई विचारधारा अवश्य है परंतु उसके अनेक तत्त्व हमारी
विचारधारा में पहले से मौजूद रहे हैं।”[7]
समकालीन यथार्थ को समझाने वाले दूसरे बड़े विचारक मार्शल
मैक्लूहान हैं। उन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी में आ रहे परिवर्तनों के आधार पर
मीडिया युग की कल्पना की थी जो आज साकार हो रही है। उन्होंने सर्वप्रथम ‘भूमण्डलीय
ग्राम’ (Global Village) तथा ‘माध्यम ही संदेश है’ (Medium is the Message) जैसे मुहावरे गढ़े जो उत्तर
आधुनिक विमर्श के मुख्य (अभिन्न) अंग हैं।
मार्शल मैक्लूहान ने भी डेनियल बेल की तरह ‘उत्तर आधुनिकता’ पर सीधे बहस
नहीं की है, बल्कि उन स्थितियों का अध्ययन किया है जिन्होंने अपने
परिणाम के तौर पर वैचारिक प्रणाली के रूप में उत्तर आधुनिकता को प्रतिष्ठित करने
में सहायता की है। बेल ने बदलते युग की आर्थिक स्थितियों पर विचार किया था जबकि
मार्शल मैक्लूहान ने इस युग के एक अन्य पहलू ‘सूचना क्रांति’ पर विचार किया
है।
मीडिया अथवा माध्यमों का युगीन संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़
रहा है, इसका विश्लेषण वर्तमान में मार्शल मैक्लूहान ने किया है। उन्होंने आने
वाली सूचना क्रांति की पदचाप सुन ली थी और ऐसी भविष्यवाणियां की थी जो उनके
समकालीन विद्वानों को सनक मात्र लगीं। उनकी पहली पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग
मीडिया’ 1964 में और दूसरी पुस्तक ‘मीडियम इज द मैसेज’ 1967 में
प्रकाशित हुई। पहली पुस्तक में मीडिया संबंधित जिन प्रश्नों से वे जूझ रहे थे
दूसरी पुस्तक में पहुंचते-पहुंचते उनके उत्तर खोज चुके थे। यह एक रोचक तथ्य है कि ‘Medium is the Massag’ शीर्षक टाईपिस्ट की गलती से बना था जब कि होना चाहिए था ‘Medium is the Message’. मैक्लूहान ने रफ प्रूफ में गलती देखकर कहा कि इसे रहने
दो, यही ठीक है क्योंकि इसके तीनों अर्थ लगते हैं अर्थात् ‘मसाज’ मालिश करना - उपभोक्ता को
सुखद अहसास देना, दूसरे ‘मॉस एज’ (Mass age) - ‘समूह या जनयुग’ तथा ‘मेसेज’ (संदेश) के
अर्थ में भी इसे समझा जा सकता है।
मार्शल मैक्लूहान ने अपनी पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग
मीडिया’ में स्पष्ट किया है कि सामाजिक परिवर्तनों में विचारों की
अपेक्षा उन माध्यमों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है जो विचारों के
संप्रेषण में प्रयुक्त होते हैं। इसका हाल में ताजा उदाहरण ‘निर्भया’ केस में देखा
जा सकता है। मात्र मैसेज के द्वारा दिल्ली के इंडिया गेट पर लाखों नौजवान सरकार का
विरोध करने के लिए आ डटे थे। इसीप्रकार कहा जाता है कि हाल ही नवोदित ‘आप’ पार्टी के उदय
में भी मीडिया का महत्त्वपूर्ण योगदान था। कहा जाता है कि ‘आप’ पार्टी के
कार्यकर्ताओं ने अपने संदेश को जन-जन तक पहुंचाने में मीडिया का सही तरीके से
उपयोग किया था।
आइए उत्तर आधुनिकता को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से
समझने का प्रयास करें-
(क) ल्योतार का विकेंद्रीकरण एवं उत्तर आधुनिक समाज -
ल्योतार उत्तर आधुनिकता के प्रमुख व्याख्याता के रूप में उभरे। बर्साईल में जन्में
ल्योतार दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर थे। वामपंथी विचारधारा से जुड़े ल्योतार का
मार्क्सवादी सर्वसत्तावादी (Totalitarian) विचारों से मोहभंग हुआ और 1980
तक आते-आते उत्तर आधुनिकता के व्याख्याता बन गए। ल्योतार ने क्यूबेक सरकार के
आग्रह पर अति विकसित समाजों में विज्ञान और तकनीक की भूमिका का अध्ययन ‘द पोस्ट मॉडर्न
कंडीशन: ए रिपोर्ट ऑन नॉलेज’ पुस्तक में किया। ल्योतार की
प्रसिद्ध पुस्तकों में ‘दि डिफरेंड-फ्रेजिज इन डिस्प्यूट’, ‘जस्ट गेमिंग’, ‘पोस्ट मॉडर्न
एक्सप्लेंड’, तथा ‘नोट्स ऑन दी मीनिंग ऑफ पोस्ट’ है।
ल्योतार का मानना है कि उत्तर आधुनिक स्थितियों में ज्ञान
और सूचनाएं ही शक्ति का केंद्र हैं इसलिए ज्ञान पर आधिपत्य के लिए वैसे ही युद्ध
होंगे जैसे कि धरती पर अधिकार करने के लिए युद्ध होते थे। ज्ञान उत्तर आधुनिक युग
में शक्ति का स्रोत है।
ल्योतार मानते हैं कि उत्तर आधुनिकता के युग में ज्ञान का
व्यापारीकरण एक नग्न सच्चाई है। अब उपभोगवाद के चलते यह नहीं पूछा जाता कि ‘क्या
वह सत्य है?’ अब पूछा जाता
है कि ‘इसका
उपयोग क्या है?’ जो उपयोग है उसे सत्य की तरह प्रचारित किया जाता है। इस तरह
ज्ञान उत्तर आधुनिक युग में सही अर्थों में खतरे में है। ज्ञान की रक्षा वैयक्तिक
स्तर पर स्थानीय प्रतिरोधों के माध्यम से ही होगी इसीलिए आधुनिकता के
सर्वसत्तावादी, सार्वभौमिक सत्य माने जाने वाले महावृत्तांतों, महान कथनों, मिथकों के
प्रति उत्तर आधुनिकता अविश्वास व्यक्त करती है। महावृत्त सांस्कृतिक विकास में
बाधक होते हैं क्योंकि ये सत्य के विविध रूपों को सामने नहीं आने देते।
आधुनिकता ने तर्कवाद को जन्म दिया किंतु उत्तर आधुनिकता में
तर्कवाद का अंधानुकरण नहीं है, इसी सोच का परिणाम है कि
मार्क्सवाद, उपयोगितावाद, अस्तित्ववाद जैसे अनेक महावृत्तांत
उत्तर आधुनिकतावादियों के लिए अधिक सार्थक नहीं हैं।
ल्योतार ने महावृत्तांतों और आधुनिकता निर्मित
महावृत्तांतों की मृत्यु की भी घोषणा की। महावृत्तांतों (Grand Narratives) के
विरोध का एक कारण तो वे यह मानते हैं कि ये अर्द्धसत्य, एकांगी सत्य और
असत्य पर आधारित होते हैं तथा मानव के बौद्धिक विकास में बाधक बनते हैं। दूसरे यह
कि महावृत्तांत सत्ताधारी, शक्तिशाली वर्ग में ‘स्वजाति
केंद्रवाद’ को जन्म देते हैं। इन महावृत्तांतों को शासक वर्ग अपने
अधीनस्थों और कमजोर वर्गों पर सार्वभौम रूप से थोपता है और उन्हें श्रेष्ठ सिद्ध
करता है। फलस्वरूप औपनिवेशिक स्थितियों में शासकों के महावृत्तांत उपनिवेशितों के
लिए अनुकरणीय और आदर्श बना दिए जाते हैं। तीसरे ये महावृत्तांत एक ऐसी वर्चस्ववादी
व्यवस्था को जन्म देते हैं जिसमें कमजोर वर्गों का शोषण वैध हो जाता है। ‘तर्क’ को सर्वोपरि
कसौटी मानने के कारण इसका प्रयोग ‘वॉल प्लमवुड’ के अनुसार शोषण
का आधार बन गया है।
महावृत्तों के टूटने का परिणाम उत्तर आधुनिक जीवन दृष्टि पर
क्या पड़ा यह आधुनिकता की विभिन्न अवधारणाओं की मृत्यु की घोषणाओं में देखा जा
सकता है। उत्तर आधुनिकता ने निम्नलिखित घोषणाएं की हैं जो ल्योतार की विकेन्द्रित
सोच के प्रभाव का परिणाम है -
1.विचारधारा का अंत
2. ईश्वर का अंत
3मानव का अंत
4. इतिहास का अंत
5. साहित्य, साहित्यकार, आलोचना की
मृत्यु
विचारधाराओं का अंत - 19-20 वीं शताब्दी में पश्चिम
में विकासवाद, प्रजातंत्रवाद, समाजवाद, पूंजीवाद जैसी
अनेक विचारधाराएं विकसित हुईं जो कि महावृत्तांतों के रूप में उपनिवेशित देशों पर
लादी गईं। विकास की पश्चिमी अवधारणा को पूरे विश्व पर लादने का प्रयास किया गया और
पश्चिमीकरण ही आधुनिकता का पर्याय बना दिया गया। ल्योतार ने प्रगति और विकास में
अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि आधुनिकता के दौर में विकास तो बहुत किया, परंतु मानवता
का एक बड़ा हिस्सा उसके लाभों से वंचित रहा। सारी विचारधाराएं किसी न किसी के पक्ष
में थी और दूसरे के विरोध में। समाजवाद में सर्वहारा वर्ग की पक्षधरता थी परंतु
अन्य को जीने का अधिकार भी नहीं दिया गया। उत्तर आधुनिक स्थितियों में विचारधाराओं
के अंत की घोषणा कर दी गई है, इसका अर्थ यह नहीं है विचारधाराओं
का अस्तित्व समाप्त हो गया है बल्कि इसका अभिप्राय यह है कि विचारधाराओं का
सापेक्षिक महत्त्व ही रहेगा, निरपेक्ष सत्य के रूप में उनकी
पूजा नहीं होगी।
ईश्वर का अंत - आधुनिक युग में
बौद्धिकता और भौतिकता पर अत्यधिक बल देने के कारण ईश्वर को नकार दिया गया था।
ईश्वर की मृत्यु की घोषणा नीत्शे कर चुके थे। उत्तर आधुनिकतावादियों ने भी ईश्वर
की उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया क्योंकि ईश्वर भी एक महावृत्त है, जिसके आधार पर
जीवन के अधिकांश क्रिया व्यापारों को वैध या अवैध सिद्ध किया जाता रहा है। अब तक
का धर्म तंत्र और शासन तंत्र ईश्वर को अंतिम प्रमाण मानता रहा। ईश्वर की
अनुपस्थिति में मानव के लिए जरूरी है कि वह नई संभावनाओं की स्वयं तलाश करे। इसी
धारणा से नीत्शे की ‘अतिमानव’ की धारणा पुष्ट होती है। ईश्वर की
अनुपस्थिति को मानते हुए ‘ज्यां पाल सार्त्र’ ने कहा कि
मनुष्य को अपना सार स्वयं में खोजना चाहिए। इसी तरह आधुनिकता की ईश्वर के अंत
संबंधी धारणा उत्तर आधुनिकता में और अधिक पुष्ट हुई। ईश्वरीय अनुपस्थिति की यह धारणा
विकेंद्रीय सोच के लिए भी आवश्यक मानी गई।
मानव का अंत - आधुनिकता की पूरी
धारणा ही मनुष्य की श्रेष्ठता पर आधारित थी। सभी धर्मों में, दर्शनों में
मनुष्य की श्रेष्ठता को एकमत से स्वीकार कर लिया गया। मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार
उसकी तर्क शक्ति थी। आधुनिकतावादियों ने मनुष्य को सृष्टि का केंद्र मान लिया।
श्रेष्ठता की भावना ने मनुष्य को उच्छृंखल बना दिया। अब वह प्रकृति और दूसरी-तीसरी
दुनिया को अपना दास समझ उन पर अधिकार करने की होड़ में लग गया। इसी से विश्व युद्ध
हुए और मनुष्य की श्रेष्ठता का भ्रम टूट गया। मनुष्य पशुतुल्य बन गया।
अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग ने मनुष्य के विवेकशील और सत्य होने का भ्रम तोड़ दिया।
यही कारण है कि उत्तर आधुनिकता में मनुष्य की श्रेष्ठता के महावृत्त को भी
केंद्रीयता का ही रूप मानकर उसे तोड़ डाला। जाक देरिदा ने ‘द एण्ड ऑफ मेन
इन मार्जिन्स ऑफ फिलासफी’ में मानव की श्रेष्ठता की
विचारधारा को पूर्णतः नकार दिया।
दूसरी बात यह है कि मानव की श्रेष्ठता का
एक आधार यह था कि मानव ईश्वर की संतान है। यहां तक कि ईश्वर भी मनुष्य रूप में
पृथ्वी पर अवतार लेता है। परंतु जब ईश्वर की मृत्यु ही स्वीकार कर ली गई तो मनुष्य
भी सामान्य अन्य प्राणियों की तरह नाशवान और लघु बन गया। सब जीवों में मनुष्य ही
श्रेष्ठ है और उसके कर्मों का फल उसे हर योनि में भोगना पड़ता है, यह मिथक भी टूट
गया। जब ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया तो ईश्वर की श्रेष्ठ कृति
(मानव) की श्रेष्ठता पर भी प्रश्न चिह्न लगना तो स्वाभाविक ही था। अतः उत्तर
आधुनिकता में ‘मानव का अंत’ घोषित कर दिया गया।
तीसरी बात यह कि उत्तर आधुनिकता में मानव
की श्रेष्ठता में सबसे बड़ी बाधक तकनीकी बनी। आधुनिकता के दौर में तकनीकी मशीन पर
आधारित थी और मशीन अपने निर्माण और उत्पादन के लिए मनुष्य पर आधारित थी। किंतु
उत्तर आधुनिकता के दौर में कम्प्यूटर तकनीक के विकास से बौद्धिक कार्य (जो पहले
मनुष्य किया करते थे) भी मशीन से किया जाने लगा है। डीप ब्ल्यू कम्प्यूटर ने गैरी कॉस्पोरोव
को शतरंज में हरा दिया। इसके बाद से मनुष्य की श्रेष्ठता की धारणा ही बदल गई।
कम्प्यूटर अनेक बौद्धिक क्रियाएं कर सकता है जो मनुष्य के तीव्र मस्तिष्क से ही
संभव है। कम्प्यूटरों के आने से मनुष्य का बौद्धिक वर्चस्व समाप्त सा होने लगा है, अतः तकनीक के
आने से मनुष्य की श्रेष्ठता पर भी प्रश्न चिह्न लग गया। पांचवीं-छठी पीढ़ी के
कम्प्यूटर तो अब मनुष्य से आगे की सोचने लगे हैं। अब वह तकनीक को संचालित नहीं
करता, वह तकनीक से नियंत्रित हो रहा है।
इतिहास का अंत - फ्रांसिस फुक्यामा
ने ‘दि एण्ड
ऑफ हिस्ट्री एण्ड दी लास्ट मैन’ पुस्तक में इतिहास के अंत की घोषणा
की। इतिहास भी अपने आप में महावृत्तांत है। उत्तर आधुनिकता इस महावृत्तांत को
अस्वीकार करती है। इतिहास का अर्थ है ‘ऐसा ही था’ अर्थात् जो
घटित हुआ उसका प्रामाणिक वृत्त ही इतिहास है। किंतु इतिहास लेखन भी वर्चस्व
प्राप्ति का साधन बन गया। इतिहास हमेशा सत्ताधारियों, बाहुबलियों और
विजित वर्ग का ही होता है,
निर्बलों, शोषितों, वंचितों का या
तो इतिहास होता ही नहीं है या उनके इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता
रहा है। अतः सत्ताधारियों, ताकतवरों द्वारा लिखा गया इतिहास
कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। इतिहास लेखक निस्पृह ढंग से पूर्ण सत्य का उद्घाटन
नहीं करता है। यदि ऐसा होता तो चन्द्रशेखर, भगतसिंह जैसे राष्ट्रभक्त
अंग्रेजों के लिए केवल आतंकवादी न होते। अधिकांश इतिहास में ‘तथ्यों’ और ‘वस्तुपरकता’ का महत्त्व
नहीं रहता, बल्कि वह कल्पनामूलक अधिक बन जाता है। उत्तर आधुनिकता
इतिहास को (थ्पबजपवद) कल्पनामिश्रित साहित्य से भिन्न मानता है।
इतिहास में अविश्वास पैदा होने का दूसरा
कारण है बौद्धिक क्षेत्र में पश्चिम का एकाधिकार टूटना। 19 वीं शती बौद्धिक
क्षेत्र में पश्चिम की एकाधिकार की सदी है। पश्चिमी देशों ने आधुनिक विचारधारा
(पश्चिमी) को श्रेष्ठ बताते हुए उसे कल्याणकारी सिद्ध करने का प्रयास किया। भारत
सहित उपनिवेशित देशों पर पश्चिमी श्रेष्ठता का बखान करते हुए स्थानीय वैचारिक
तत्त्वों को निकृष्ट घोषित करने का प्रयास किया गया। किंतु स्वतंत्रता के पश्चात
बौद्धिक एकाधिकार टूटा और यह प्रश्न उठा कि किस का लिखा इतिहास अधिक प्रामाणिक है, उपनिवेशकों का
या उपनिवेशितों का? अतः स्वाधीन राष्ट्र अपनी विरासत की खोज कर ऐसा इतिहास रचने
में जुटे जिस पर वे गर्व कर सकें। आज इतिहास के स्तर पर भी केंद्रीयता टूट रही है।
विविधता और बिखराव का महत्त्व बढ़ रहा है। आज हर देश, हर परंपरा, हर जाति और हर
स्थानीयता का अपना इतिहास लिखा जा रहा है।
साहित्य की मृत्यु की घोषणा -
आल्विन कार्नान ने 1990 में पूरे साहित्य की मृत्यु की घोषणा की। विभिन्न
वृतान्तों एवं स्थापित धारणाओं के अंत के साथ ही विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया आगे
बढ़ती रही। साहित्य जो युगीन संवेदना, संवाद और संप्रेषण का वाहक होता है, उत्तर आधुनिक
परिप्रेक्ष्य में ज्यों का त्यों कैसे बना रह सकता था। साहित्य की विभिन्न विधाओं
की मृत्यु की छुटपुट सूचनाएं आधुनिकतावादी युग में ही आने लगी थी।
इलियट ने ‘उपन्यास की मृत्यु’ की घोषणा कर दी
थी। ‘एडमंड
विलसन’ ने कविता को एक मरती हुई विधा करार दिया। साहित्य की मृत्यु
के दो संदर्भ हैं। पहला संदर्भ यह कि साहित्य कर्म की श्रेष्ठता समाप्त हो रही थी।
उपभोक्ता समाज में साहित्य लेखन को भी अन्य लेखनों के समान ही एक सामान्य लेखन
स्वीकार किया जाने लगा। साहित्य का भी व्यापारीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा।
साहित्यकार से साहित्य का संबंध समाप्त होने लगा। किसी रचना में साहित्यकार केंद्र
में होता है, अब उसकी केंद्रीय स्थिति बिखरने लगी। अब साहित्य आत्माभिव्यक्ति
का साधन न होकर विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाने वाला उत्पाद बन गया।
साहित्य में भी टेक्नोलॉजी के प्रवेश के
कारण कम्प्यूटर पर ही साहित्य निर्मित किया जा रहा है। इसी तरह सत्य की निरपेक्ष
सत्ता मिटने और विचारधाराओं तथा ईश्वर और इतिहास की मृत्यु के पश्चात इतिहासकार के
पास लिखने के शाश्वत विषय नहीं बचे। ऐसी स्थिति में हमारे चिर-परिचित
कल्पनामिश्रित, उच्च जीवन-मूल्यों पर आधारित, क्लासिक साहित्य की मृत्यु
अवश्यंभावी हो गई। साहित्य में मौलिकता के लिए स्थान नहीं रह गया था।
साहित्य की मृत्यु का दूसरा संदर्भ भी
उत्तर आधुनिक स्थितियों से जुड़ा हुआ है। तकनीक में उन्नति के कारण सूचना
प्रौद्योगिकी ने सम्भावनाओं का अद्भुत संसार खोल दिया है। इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों
ने प्रिंट माध्यम को पछाड़ दिया। मनोरंजन का महत्व इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों ने इतना
बढ़ाया कि सम्पूर्ण सांस्कृतिक क्रिया-व्यापार मनोरंजन के माध्यमों में बदलने लगे।
इस प्रकार साहित्य का पुराना स्वरूप मिट गया और क्षणिक ऐन्द्रिय आनंद प्रदान करने
वाला साहित्य केंद्र में आ गया।
साहित्यकार का भविष्य तो साहित्य-सृजन से
अनिवार्य रूप से जुड़ा होता है। जब साहित्य ही मर गया तो साहित्यकार कैसे जीवित
रहता? लायनल ट्रिलिंग ने पांचवे दशक में एक लेख ‘लेखक का अंत’ लिखा जिसमें
उन्होंने दावा किया कि वर्तमान समय पाठक का है, महत्त्व लेखक का नहीं पाठक का है।
जिस युग में उपभोक्ता को सर्वोपरि महत्त्व दिया जा रहा हो और उत्पादक को गौण माना
जा रहा हो, उसमें साहित्यकार की मृत्यु की घोषणा आश्चर्यजनक नहीं है। 1968 में
रोलां बार्थ ने ‘दि डेथ ऑफ दी ऑथर’ की रचना की और पाठक के उद्भव को
लेखक की मृत्यु से जोड़ा।
इस
प्रकार से उत्तर आधुनिक साहित्य को सार रूप में निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर
समझा जा सकता है-
1.वर्तमान युग ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ के विस्फोट का युग है, इलैक्ट्रॉनिक
माध्यमों के एकाधिकार का युग है। छपे हुए शब्द की गरिमा को दृश्य-श्रव्य माध्यमों
की चमक ग्रस रही है। साहित्य का महत्त्व कम हुआ है। खाली समय साहित्य से छीन लिया
गया है।
2.‘अतियथार्थ’ के युग में सब
कुछ ‘अयथार्थ’, काल्पनिक हो गया है। ‘अर्थ’ और ‘सार’ जैसी मूल्य आधारित धारणाओं का न जीवन में महत्त्व रह गया है
और न ही साहित्य में। साहित्य का लक्ष्य मनोरंजन तक सिमटता जा रहा है।
3.जीवन
में लेखन (साहित्य) की केंद्रीयता टूटी है और लेखन में लेखक की केंद्रीयता समाप्त
हुई है। कुछ भी मौलिक, महत्त्वपूर्ण, रहस्यमय नहीं रहा। अन्य कलाओं की तरह ही साहित्य में भी
विविधतापूर्ण (बहुलवादी) सत्य की उपस्थिति बढ़ी है।
4.पूर्वकाल
में विरोधी प्रसंगों को अनावश्यक या अप्रस्तुति योग्य कहकर साहित्य से निकाल दिया
जाता था, परंतु आज विरोधी प्रसंगों के साथ ‘जक्सटोपोज’ करके ‘असंगतिपूर्ण संगति’ स्थापित की जाती है। इतिहास की पुनर्व्याख्या साहित्य में ही प्रारंभ हुई।
साहित्य में ‘पैश्टीज’ का शिल्प स्वीकृति प्राप्त कर रहा है।
5.उत्तर
आधुनिकता साहित्य को परिभाषित नहीं करती, परंतु सही साहित्य की मांग करती है। सही की कसौटी कोई सार्वभौम सौंदर्य बोध या
विधारधारा नहीं, बल्कि स्थानीय, खण्डित समूह-हित हैं जो अभिजात वर्चस्ववाद का विरोध करते
हैं। उत्तर आधुनिकता सभी रचनाओं को ‘एक पाठ’ मानती है और सभी पाठ समान
हैं। देवेन्द्र इस्सर के शब्दों में “साहित्य नाम की कोई वस्तु नहीं होती। वह अन्य पाठों
की भांति ही एक पाठ है। चाहे वह वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ हो या मार्क्स का ‘दास केपिटल’ या कालिदास का ‘कुमारसंभव’ या कोई कॉमिक्स, सब पाठ हैं और सब पाठ समान हैं। किसी पाठ को किसी अन्य पाठ
पर तरजीह नहीं दी जा सकती।”[8] आज प्रत्येक पाठ मूलतः राजनीतिक माना जाता है जिसमें
किसी न किसी रूप में सत्ता का खेल रहता है। प्रत्येक पाठ में दबे हुए पाठ होते हैं
और साहित्य का मूल्यांकन इन उपपाठों के विखंडन द्वारा ही संभव है। इसप्रकार “उत्तर आधुनिकतावाद शुद्ध साहित्य की अनुपस्थिति मानती है।”[9]
6.रचना
को पाठ मान लेने का परिणाम यह हुआ कि लिखने के पश्चात लिखित (पाठ) और लेखक का कोई
संबंध स्वीकार नहीं किया जाता। जिस ‘लिखित’ (Text) को पाठक पढ़ता है, वह तो ‘लेखकीय पाठ’ मात्र है। अपने
अनुभव, परिवेश, अभिप्रायों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप पाठक, पाठ का विखंडन करता है। पाठक ही पाठ का मूल्यांकन करता है।
ऐसी स्थिति में लेखक की केंद्रीयता नष्ट हो गई क्योंकि ‘पाठ’ अब लेखक का
नहीं, पाठक का हो गया और वह इसे जो अर्थ
देता है, वही महत्त्वपूर्ण है।
7.उत्तर
आधुनिकता मानती है कि कोई भी रचना अन्य सभी रचनाओं से अनिवार्य रूप से संबद्ध होती
है क्योंकि रचना संस्कृति के विविध पक्षों से ही संबद्ध है। अतः यह स्वाभाविक है
कि सभी रचनाएं एक-दूसरे से अंतर्संबंधित हों। इसी को अंतर्पाठयीता कहा गया है।
8.उत्तर
आधुनिकता में विखंडित करके पाठ पढ़ने की तकनीक पर बल रहता है। रचना से अर्थ
प्राप्त करने की प्रविधि या तकनीक को विखंडन कहते हैं। सतही तौर पर रचना का जो भाव
हमें प्राप्त होता है, उसमें भी बहुत कुछ दमित एवं
अप्रकाशित रहता है। पाठक ‘उपपाठों’ और ‘भाषायी चिह्नों’ के विखंडन के माध्यम से रचना के अर्थ एवं सौंदर्य तक
पहुंचता है। किसी भी रचना में ‘अर्थों’ को खोजना ही रचना का लक्ष्य होता है। इसमें निकृष्ट की खोज
नहीं की जाती बल्कि सही और गलत पाठ को पहचाना जाता है।
इसप्रकार
उत्तर आधुनिकता आधुनिकता के विरोध से उपजी है परंतु उससे निरपेक्ष भी नहीं है।
संक्षिप्त में कहा जा सकता है कि कोई रचनाकार किसी निश्चित सांचे में बंधकर रचना
नहीं करता है। वह तो मुक्त रूप से सृजन करता है। रचना में अनेक अधूरी पंक्तियां
होती हैं, जिन्हें पाठक को स्वयं अपनी कल्पना
शक्ति के सहारे अपने अनुभव के आधार पर समझना होता है। रचना मुक्त विचरण करती है।
उत्तर आधुनिक रचना स्वानुभव रसिक नहीं, सर्वानुभव रसिक बन गई है। रचनाकार की दृष्टि ‘स्व’ से ‘सर्वकेंद्री’ बन गई है। उत्तर आधुनिकता
रचना वाद विहीन है। दलित साहित्य, आंचलिक साहित्य, नारी-विमर्श इसका परिणाम है। कृति का अंत हो रहा है। पाठ
कृति की जगह ले रहा है। पाठ और विखंडन ही उत्तर आधुनिकता है। यह कलाकार के लुटते
जाने का समय है। साहित्य और कला मुनाफे से
संबद्ध हो गये हैं। वे जितना मुनाफा देते हैं उतने ही मूल्यवान हैं।
संपर्क - डॉ. आशीष सिसोदिया, सहायक
आचार्य, हिन्दी विभाग, मोहनलाल सुखाडि़या विश्वविद्यालय, उदयपुर, दूरभाष-
094148-51055,
ईमेल
पता - sashish25@rediffmail.com
[1] डॉ. चमनलाल
गुप्त, उत्तर आधुनिकता और समकालीन हिन्दी उपन्यास, किशोर
विद्या निकेतन, वाराणसी, पृष्ठ-1
[9] डॉ. चमनलाल
गुप्त, उत्तर आधुनिकता और समकालीन हिन्दी उपन्यास, किशोर
विद्या निकेतन, वाराणसी,
पृष्ठ-88
‘मूक आवाज़’ हिंदी जर्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014) ISSN 2320 – 835X
Website:
https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
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