उन दिनों बिहार में वामपंथ
बहुत बड़ी ताकत थी और उसके छात्र-संगठन भी बहुत सक्रिय थे। वह आंदोलनों का दौर था-
आज कंबोडिया, कल
वियतनामा-परसो होगा हिन्दुस्तान। जे. पी . आंदोलनों के ठीक पहले तीनों वामपंथी
छात्र संगठनों ने मिलकर महंगाई, भष्टाचार, शिक्षा में सुधार और आमूल परिवर्तन को लेकर लगातर
प्रदर्शन, विरोध और आंदोलन शुरू किये
थे। हम लोग तो पूरे तौर पर राजनितिक कार्यकर्ता थे, लेकिन आलोक धन्वा इन तमाम गतिविधियों में बराबर
हिस्सा लेते थे। अरूण कमल भी कभी-कभी जूलूसों या प्रदर्शनों में शामिल होता था। तब
तक ज्ञानेद्रपति भी पटना में जम चुके थे लेकिन उनका रहन-सहन, सरोकार और जीवन शैली ऐसी थी कि उनकी दिनचर्या में यह
सब शामिल नहीं था। उनकी एक अलग ही दुनिया थी। अरूण कमल अपनी पढ़ाई को लेकर गंभीर
था और परिक्षाओं के समय उसका मिलना-जुलना बिल्कुल नहीं होता था लेकिन कविताएं वह
लगातर लिख रहा था। उन दिनों उसकी लिखी कविताओं में उस समय के ताप को महसूस किया जा
सकता है।
संभवत: 1971-72 का
अक्तूबर-नवम्बर का महीना था। उन दिनों मैं मुंगेर में
इंटरमीडिएट का छात्र था। गांव से मुंगेर जाते हुए मैं अक्सर आलोक धन्वा और डॉ.
श्रीकृष्ण सिंह से मिलने के लिए एक दिन पटना रूक जाता था। इसी क्रम में एक बार जब
मैं मिलने गया तो आलोक धन्वा मुझे विदा करने निकले और हम मछुआ टोली के तिमुहाने पर
खड़े-खड़े बातें करने लगे-जैसी कि हमारी आदत थी, विदा करते हुए हम घंटों बातें
करते। इसी दौरान एक गोरे–चिट्टे दुबले-पतले से युवक ने आकर आलोक को टोका। उसने
परिचय कराया – ये अरूण कमल हैं, कविताएं लिखते हैं और बी. एन. कॉलेज में पढ़ते
हैं। अपनापे और तपाके से भरी उसकी मुलाकात में उत्साह और आत्मीय उष्मा थी। बाद में
जब मैं पटना आया, तो वामपंथी छात्र संघठन बी. एस. ए. से जुड़कर सक्रिय हो गया। उस
समय बी. एस. ए. विभिन्न नक्सली गुटों के छात्रों का एक प्रभावशाली संगठन था। मेरा
ख्याल है उस समय तक अरूण कमल सीपीआई से जुड़ चुका था या उसके साथ था। जाहिर था
नक्सलवादी राजनीति के सरोकारों के कारण हम स्वभाव से कुछ ज्यादा ही उत्तेजित,
उद्धत और आवेग में रहा करते थे। हमारे स्टडी सेंटर चलते थे, हम रात-रात भर जगकर
पढ़ा करते, हमारी धुंआधार बातचीत और बहसें अक्सर आवेग और उत्तेजना से भरी हुई होती
थीं। हम सब इस विश्वास में थे गोया 1978 में तो क्रांति को हो ही जानी है। जाहिर
था सीपीआई को लेकर हमारे भीतर तब बहुत कटुता थी और उससे जुड़े लोगों से मिलने–जुलने
में हम लोग अमूमन परहेज करते थे। मुझे ठीक-ठीक याद है उन दिनों भी मुझे वामपंथ की
तीनों धाराओं के अलगाव की बात नापंसद थी और यह बात हमारी समझ में नहीं आती कि ये
तीनों आपस में बहस कर के किसी बात पर क्यों नहीं पहुंचते? लेकिन दूसरी ओर मैं यह भी देख रहा था
कि हमारे बीच ही विभिन्न नक्सली गुटों के अलग-अलग वैचारिक विश्वास और सरोकार थे।
एक साथ काम करते हुए भी हमारे आपसी विश्वास इतने संदिग्ध थे कि हम एक-दूसरे की
थोड़ी-बहुत जासूसी और चुगली तक कर लिया करते थे। आधार क्षेत्रों से कभी-कभी इनके
बीच हिंसक झड़पों तक की खबरें भी आतीं, जिस पर हमारे बीच कभी खुलकर बात नहीं होती।
डॉ. श्रीकृष्ण सिंह हमारे नेता, अभिभावक और बड़े भाई थे। पटना आते ही मेरा उनसे
जुड़ाव पारिवारिक और निजी हो गया था। वे असीत सेन ग्रुप के प्रतिनिधि थे और तमाम
नक्सलवादी गुटों के नेताओं का उनके यहां आना-जाना था। कई भूमिगत नेताओं को पहली
बार मैंने उन्ही के यहां देखा था। उनके ही निर्देशों पर मैं शहर की
झुग्गी-झोपड़ियों में काम कर रहा था ‘‘फिलहाल’’ से भी जुड़ा हुआ था। उसके दफ्तर में आने वाले पत्रों, मिलने वाले लोगों
और होने वाली बातचीत मुझे डॉ. साहब को बतानी रहती थी थी और चुपचाप अपना काम करना
होता था। मेरा अरूण कमल के घर जाने और मिलने का सिलसिला बना हुआ था और वह भी
कभी-कभी डॉ. साहब से मिलता रहता था। अरूण कमल के यहां हमारी वैचारिक बहसें अक्सर
तीखेपन में बदल जाती और हम एक-दूसरे को कभी कनवींस नहीं कर पाते। मुझे अच्छी तरह
याद है एक बार उसके घर में हमारी बहस इतनी तीखी हो गई कि बाबू जी गलियारे से अंदर
आ गये, लेकिन कुछ देर रूककर ‘क्या है ?’ ‘कुछ नहीं’ के बाद
लौट गये। तो हम खूब बहसें करते, असहमत होते लेकिन मिलते जरूर थे। बेशक बहुत निकटता
का दावा भले न करें, लेकिन हमारे बीच कटुता और अप्रियता जैसी भी कोई बात नहीं थी।
उन्ही दिनों मैंने ए. एन कॉलेज के अपने साथियों के साथ
मिलकर ‘संघर्ष’ नाम से एक बुलेटिन निकाला था। उसके संपादकीय में मैंने आर. पी.
सर्राफ की पुस्तक ‘इंडियन सोसायटी’ के हवाले से सोवियत रूस के सामाजिक साम्राज्यवाद (?) को लेकर ढेर सारे आंकड़े दिये थे। ‘‘फिलहाल’’ में इस पर धारावाहिक लेख भी छपा था। उसे पढ़कर अरुण कमल गुस्से में था
और उसने सर्राफ की पुस्तक की ऐसी-तैसी करते हुए बड़ी नाराजगी
व्यक्त की थी। यह बात सच थी कि हम सब सोवियत रूस की आलोचना इस तरह करते थे मानों
वही हमारा मुख्य शत्रु हो। डॉ. साहब इस मामले में थोड़े उदार थे। सीपीआई से जुड़े
लोगों से भी उनके अच्छे रिश्ते थे। उन्होनें डांगे की पुस्तक ‘आज का भारत : वर्तमान और भावी’
मुझे पढ़ने को दी थी। हमारा ग्रुप, चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन और व्यक्तिगत
हत्या के सख्त खिलाफ था। बहुत दिनों तक अरूण कमल मुझसे नाराज रहा। वह इस बात पर
अक्सर जोर देता था कि मुझे दूसरी वामपंथी पत्रिकाएं भी पढ़नी चाहिए। वामपंथी एकता
की बातें वह भी करता था। हम दोनों इस बात पर जरूर सहमत थे कि कट्टरता बहुत गलत है
और इससे हमें बचना चाहिए। कभी-कभी वह ‘फिलहाल’ दफ्तर में भी आता, तो मेरी व्यस्थता और काम को गौर से देखता। अकेले में
वह इसकी सराहना भी करता लेकिन एक-दो बार उसने हल्के से मुझे अपनी पढ़ाई के लिए
सचेत होने की भी बात कही थी।
उन दिनों बिहार में वामपंथ बहुत बड़ी ताकत थी और उसके
छात्र-संगठन भी बहुत सक्रिय थे। वह आंदोलनों का दौर था- आज कंबोडिया, कल
वियतनामा-परसो होगा हिन्दुस्तान। जे. पी . आंदोलनों के ठीक पहले तीनों वामपंथी
छात्र संगठनों ने मिलकर महंगाई, भष्टाचार, शिक्षा में सुधार और आमूल परिवर्तन को
लेकर लगातर प्रदर्शन, विरोध और आंदोलन शुरू किये थे। हम लोग तो पूरे तौर पर
राजनितिक कार्यकर्ता थे, लेकिन आलोक धन्वा इन तमाम गतिविधियों में बराबर हिस्सा
लेते थे। अरूण कमल भी कभी-कभी जूलूसों या प्रदर्शनों में शामिल होता था। तब तक
ज्ञानेद्रपति भी पटना में जम चुके थे लेकिन उनका रहन-सहन, सरोकार और जीवन शैली ऐसी
थी कि उनकी दिनचर्या में यह सब शामिल नहीं था। उनकी एक अलग ही दुनिया थी। अरूण कमल
अपनी पढ़ाई को लेकर गंभीर था और परिक्षाओं के समय उसका मिलना-जुलना बिल्कुल नहीं
होता था लेकिन कविताएं वह लगातर लिख रहा था। उन दिनों उसकी लिखी कविताओं में उस
समय के ताप को महसूस किया जा सकता है।
जे. पी. आंदोलन के
साथ सब कुछ उलट-पुलट गया और लंबे समय तक हमारी मुलाकातें नहीं हुई। श्रीमती इंदिरा
गांधी को सीपीआई ने समर्थन दिया लेकिन भाकपा आंदोलन के पक्ष में गई। हम लोगों का
छात्र संगठन बिखर गया। डॉ. साहब ने मुझे कुठ संपर्क दिये और भोजपुर के इलाके में
भेजा। वे चाहते थे कि हम शहीद भगतसिंह देशभक्त मोर्चा बनाकर सरकार और जे.पी आंदोलन
से अलग एक स्वतंत्र रास्ता अख्तियार करें। मैंने लगभग दस महीने भोजपुर इलाके में
काम किया और बक्सर में जब हमारा पहला प्रदर्शन हुआ तो भीड़ काफी जुट गई लेकिन जब
सभा हुई तो वह जे. पी. आंदोलन के पक्ष में बदल गई। मैं समझ गया कि यह काम मेरे बस
का नहीं। डॉ. साहब ने कहा – ‘अब तुम चुपचाप अपनी पढ़ाई करो।’ वे खुद इग्लैंड चले
गये और आज तक वहीं हैं। मेरे कामरेड दोस्तों ने बहुत कोशिश की, मगर मेरी राजनितिक
सक्रियता का अंत हो गया और मैं पूरी तरह पढ़ने-लिखने में
एकाग्र हो गया। यह बात अरूण कमल को भी पसंद आयी और उससे मिलना-जुलना फिर से शुरू हो गया।
इस बीच प्रलेस के नये सिरे से गठन और सक्रियता से एक नया
उभार आया। जनसंस्कृति मंच के गठन के बावजूद उसकी गतिविधियों से मेरा तालमेल नहीं
निभ सका। मध्यप्रदेश में ज्ञानरंजन और डॉ. कमला प्रसाद, बिहार में डॉ. खगेन्द्र
ठाकुर की सक्रियता ने प्रगतिशील काव्य आंदोलन को केंद्र में ला दिया। नागार्जुन,
त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल की प्रगतिशील काव्य परपंरा परिदृश्य के शिखर पर थी।
प्रलेस की गतिविधियां मुझे ज्यादा पसंद थीं। इसलिए अरूण कमल और खगेन्द्र जी से
नियमित मिलने-जुलने का सिलसिला बढ़ता गया। ज्ञानरंजन जी का भी दबाव था सो प्रलेस
में शामिल होने की अरूण कमल की इच्छा सहज ही निर्णायक बन गयी। मैं प्रलेस का सदस्य
बन गया। इसी बीच ‘अपनी केवल धार’ का प्रकाशन हुआ और अरूण कमल हिन्दी कविता के
सर्वाधिक चर्चित नये कवियों में प्रसिद्ध हो गये।
1980 से लेकर आज तीन से भी अधिक दशक बीत गये। अरूण कमल
हिन्दी कविता में बिना उतार-चढ़ाव के उत्तरोत्तर प्रतिष्ठित होता गया। निरंतर लेखन
के साथ पुरस्कारों, विदेश यात्राओं के साथ उसकी लोकप्रियता और ख्याति कुछ के लिए
ईर्ष्या भी रही और उसके विरूद्ध आरोपों और आलोचनाओं का एक समानांतर सिलसिला भी चल
पड़ा। जाहिर था इससे वह कभी आहत होता, कभी दु:खी । अंदर ही अंदर वह बहुतों से सशंकित और सावधान रहने लगा था।
लेकिन हमारे रिश्ते जैसे थे, वैसे ही रहे। ऐसा संभव है और स्वाभाविक भी कि उसकी
लोकप्रियता और प्रतिष्ठा के पीछे कुछ का योगदान रहा हो लेकिन मैं गवाह हूं कि अरूण
कमल ने अपने प्रति किये के लिए किसी को कृतज्ञता या भरसक प्रतिदान में कभी कोई
कंजूसी नहीं बरती। मैनें बहुत नजदीक से देखा है वह किसी के किये को कभी नहीं भूलता
है, लेकिन हर किये का प्रतिदान वही तो नहीं होता, जो करने वाला चाहता हो। अब यह
बात माननी होगी कि बिना सृजनात्मक क्षमता के सिर्फ प्रयत्न और पहुंच से साहित्य में
किर्ति नहीं टिकती। अरूण कमल के जीवन और सृजन के पीछे उसका अपना गंभीर और सघन
अध्ययन, अध्वसाय, समर्पण, निष्ठा और कठिन संघर्ष है। यह बात भी सच है कि एक वक्त
के बाद उसमें आत्मविश्वास और आत्म-निर्भरता प्रबल हुई है। यह भी सही है कि बाजदफा
वह अहम् तक उत्क्रमित भी हो जाती है। कुछ मामलों में उसका व्यक्तित्व पहले की
तुलना में जरूर बदला है। जाहिर है यह बात उन लोगों को बहुत अखरती है, जो उससे पहले
वाली अपेक्षाओं की लालसा पालते हैं। यह बात समझने की है कि सृजन और समझ की
निरंतरता से आदमी के सोच, संवेदन, सरोकार और हैसियत में भी फर्क आता है। हम किसी
को वही मानकर नहीं चल सकते, जो वह कभी था। हर किसी की तरह समय के साथ अरूण कमल की
पसंदगी-नापसंदगी में भी उलट-पुलट हुआ और ऐसा होना सहज और स्वाभाविक है।
जहां तक मेरी समझ है – उसकी सृजनात्मक निरंतरता के पीछे
उसके व्यक्तित्व का सधा संतुलन है। उसमें एक जबर्दस्त किस्म का आत्म-नियंत्रण है –
जिसे हम सेंस ऑफ प्रोपोरसन कहें। न तो उसके जीवन में, न ही उसके सृजन में भावुकता
रही न कोई भावावेग। अंदर से नपा-तुला लेकिन बाहर से सहज आत्मीय! सुव्यवस्थित जीवन शैली, जिम्मेवारी भरी
दिनचर्या, घोर व्यस्तताओं के बावजूद भरसक किसी को शिकायत का अवसर नहीं देना। इसी
बीच लगातर यात्राएं, अबाध पढ़ाई, बिल्कुल अपटूडेट फिर भी सृजन में सबसे अधिक
गतिशील। उसने खुद को इस तरह साध रखा है कि उसकी सक्रियता आश्चर्य और ईर्ष्या पैदा
करती है। इसे लेकर जब भी मैं सोचता हूं तो लगता है – उसने अपने लिए एक निजि वृत्त
रचा है बिल्कुल अलग और आज़ाद! उसमें किसी का प्रवेश नहीं। घर
के,परिवार के सदस्यों तक की नो एंट्री। उसके वृत्त के बाहर ही परिवार, पड़ोस,
संसार और साहित्य है। इसलिए वह हर एक को ज्यादा तटस्थता से देखता, समझता और परखता
है। इससे उसे अपने व्यवहार को तय करने में सहूलियत होती है। यह सब कुछ भले ही अंदर
से नियंत्रित, सुचिंतित और व्यवस्थित क्यों न लगे, बाहर से उसका जीवन व्यवहार एकदम
सहज, स्वाभाविक होता है। उसकी कविता में भी परिवार, पड़ोस, आमजन का सहज दैनिक जीवन
व्यापार ज्यादा जगह घेरता है। इस तरह रचा-बसा मनुष्य का जीवन और उस पर पड़ते समय
का असर। उसे बारीकी से परखना, जांचना और उसके अदीठ यथार्थ की परतें उकेरना उसका
कवि स्वभाव रहा है।
मैंने पूरी तटस्थता से उसके अंदरूनी स्वभाव को समझने की
कोशिश की है और पाया है कि उसमें एक खास तरह की अनासक्ति है। ‘खास तरह की’
इसलिए क्योंकि उसके व्यवहार, आचरण और सृजन में जीवन के प्रति घोर आसक्ति दिखती है।
उसके भीतर और कविताओं में जीवन-राग अत्यन्त गहरा और सघन दिखाई देता है। मेरा ख्याल
है अरूण कमल और उसकी कविताओं को समझने में पारिवारिक बोध एक अहम् पक्ष है। मैंने
अपने जीवन में उसके जैसा माता-पिता का ख्याल रखने वाला किसी और को नहीं देखा। लगभग
नब्बे की उम्र तक पहुंचे जर्जर शरीर वाले पिता के तमाम हठों, आदतों और न सिर्फ
जरूरी बल्कि, नागवार लगने वाली अपेक्षाओं-इच्छाओं को भी बिना अनसाये, बिना खीज और
चिड़चिड़ाहट के पूरे लगाव से पुरा करते जाना, कोई मामूली बात नहीं है। मैने उसकी
तंगी भरे मुश्किल दिन भी देखे हैं। लेकिन आज तक उसने कभी अपनी परेशानियों का रोना
नहीं रोया। बेहद संकरी गली से जाकर पतली सीढ़ियों पर चढ़ते वह ऊपर वाला छोटा,
अंधेरा-सा घर। चारों ओर से रेलिंग से नीचे झांकने पर छोटा-सा आंगन। जिसे लेकर अरूण
ने एक बहुत ही जीवंत कविता लिखी थी। परिवार बड़ा था, गुजारे का घर। गलियारे में भी
बिस्तर लगा था। बॉल्कनी से थोड़ा-सा बड़ा कमरा आप चाहे तो उसे बैठका मान लें। इन
सबके बावजूद परिवार की हार्दिकता और आत्मीयता मोह लेने वाली। वैसे भी आप जब अक्सर
किसी के घर जाते हैं, तो आपको क्या पता कि आप उचित समय में गये हैं या असमय पहुंच
गये हैं! याद नहीं मुझे कभी भी ऐसा लगा हो कि मैं उसके घर
बेमौके पहुंचा हूं। जब भी गया, अरूण हो या नहीं, मां हो या बाबू जी, वैसी ही
आत्मीयता, वैसा ही आमंत्रण गोया मैं अपने घर आया हूं। कोई जरूरी नहीं कि मिठाई,
नमकीन या चाय ही। बात वक्त की – ‘दो रोटी सब्जी के साथ खा लो!’ ‘नहीं ...कोई बात
नहीं थोड़ी-सी सब्जी लो और पानी पी लो।‘ भला ऐसी अनौपचारिकता परिवार के बाहर कहीं
होती है? रसोई में पकौड़ी बन रही हो, हलवा या कुछ भी अच्छा ! अथवा घर में कोई अच्छी-सी चीज मौजूद हो, तो क्या मजाल जो उस दिन बिना
खाये मैं वापस लौटा हूं। उसकी मां तो बस मां थीं। जब भी बोलती लगता आवाज दिल की
अतल गहराइयों से। बहू और बबुआ-बबुनी का हालचाल जरूर पूछतीं। बाबू जी मेरे बड़े
दादा के छात्र थे, सो मेरे प्रति अंत तक उनका अतिरिक्त अनुराग बना रहा। जब वे आखिरी दिनों में बहुतों
को नहीं पहचान पाते, तब भी मुझे आवाज से ही पहचान लेते थे। एक बार जिद्द कर वे
अरूण के साथ विश्व पुस्तक मेले में गये। हम सभी मंडी हाउस के गोमती में टिके थे।
अरूण अपनी व्यस्तता में निकलता तो उनकी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ जाता। वे जो कहते,
मैं वही करता। एक बार अपने किसी परिचित को देखने आये थे, तो मुझे मुहल्ले में दिख
गये। मैं उन्हें घर लाया। पूरे दिन घर में पिता की उपस्थिति। शाम को मेरा बेटा
उनको स्कूटर से छोड़ आया। तब से वह उनके पोतों की सूची में शामिल, अंत-अंत तक जब
भी मिलते, उसका हाल-समाचार जरूर पूछते। अरूण की बहनें, बिल्कुल बहनों की तरह।
पत्नी भी उसको ऐसी ही मिलीं। बेटा-बेटी गुलाल और रिमझिम का तो कहना ही क्या? मैंने ऐसा आत्मीय परिवार कम देखा है। आत्मीय परिवारिकता का स्वाभाविक बोध
उसकी कविताओं में जहां भी आया है, वहां कोई भी अनुभव की सजीवता और सच्चाई महसूस कर
सकता है। उसकी जड़े उसके जीवन में अत्यन्त गहरी हैं जो उसे खांटी देशज बनाती हैं।
अनासक्ति और आसक्ति का यह बोध उसके जीवन में अजीब तरह से
सधा हुआ है। बाबूजी कविताएं लिखा करते थे, जिसमें पूंजीवाद और सांप्रदायिकता को
लेकर अपने विचारों को सपाट ढंग से व्यक्त कर देता थे। उन्होंने जिद्द करके पुस्तक
छपाई। अरूण इसे लेकर अक्सर परिहास करता। ... शिशिरवा खतरा अब घर में ही हो गया।
बाबूजी की कविता की किताब आ गई। ... उसका परिहास लंबे वक्त तक चला। उसी पिता की
तमाम हठों, तमाम आदतों को उसने सहजता से दशक भर झेला। बाथरूम ले जाने, नहलाने,
शरीर पोंछने से कपड़े पहनाने तक, खाने – पिलाने से सुलाने तक। उनकी आदतों में
शुमार क्लासिक सिगरेट के पैकटों को मुहैय्या कराने से लेकर थोड़ी भी अस्वस्थता में
महंगें इलाज तक पूरा का पूरा ख्याल रखा। आखिरी दिनों में जलती सिगरेट गिरी, कपड़े
में आग लगी और हॉस्पीटल में कुछ दिन रहकर वे विदा हो गये। निकट के रिश्तेदार,
परिवार के अलावे उसने किसी को कोई खबर नहीं की। मोबाइल बंद कर दिया। बाद में बताया
– “उस दिन यार!
मौसम बहुत बुरा था। नाहक सभी को परेशान करता।” पिता के प्रति गहरे अनुराग के बावजूद उसकी
प्रतिक्रिया सहज थी - “देखो ! उनकी
उम्र तो अधिक हो ही गई थी। शरीर के टिसू काम करना बंद करते गये। शरीर तो पदार्थ है
न – पदार्थ में मिल गया, बात खत्म!” मुझे याद आया एक बार
उसके साथ मसौढ़ी के एक स्कूल में योजित समारोह में गया था। लौटते समय न सिर्फ रात
हो गई, बल्कि कुहासा इतना घना कि कार की रोशनी बांस भर दूरी तक भी नहीं बेध पाती।
बगल में बहती पुनपुन नदी का खतरनाक किनारा। चालक भी बुरी तरह सशंकित था। सकुशल घर
वापसी ऊपर वाले के भरोसे ही थी। कार बिल्कुल अंदाज से चल रही थी। हम बात कर रहे कि
अचानक किसी बात पर अरूण ने कहा – “जीवन का क्या? अब मान लो अगले पल में कार नदी में चली जाय, बात खत्म। बस ऐसा ही है
जीवन। जब तक है, सारी हलचल-एक पल में सारा खेल खत्म।” बात उसने
पूरी सहजता से कही, लेकिन मैं सन्न था। जीवन और मृत्यु को लेकर अनासक्ति का बोध
उसकी कविताओं में भी आता है। जीवन के प्रति गहरा राग और जीवन नैरन्तर्य का स्वर
उसकी रचनाओं में प्रमुखता से मौजूद है।
तमाम सहजता के बावजूद मैंने उसमें कभी भावुकता नहीं देखी।
किसी की मदद करनी हो, चंदा देना हो – जरूर देगा लेकिन संतुलित। उतना ही जितना उसने
अंदर ही अंदर तय कर लिया है। नहीं देना है, तो नहीं देगा – चाहे कोई लाख हठ करे।
उचित–अनुचित वह पहले से ही तय कर लेता है। उसकी छबि भद्र और शालीन की है और यह ठीक
ही है। लेकिन मामला अगर किसी नये का हो, तो उसको पूरी तरह परखेगा। इनसाइड-आउट पूरी
वंशावली पता करेगा, उसके मिलने-जुलने वालों और रिश्तों को जानेगा। उसके यहां पूरी तरह ठोक–बजाकर ही किसी नये की एंट्री संभव
है। मदद वह हर किसी की करता है, किसी धर्म, किसी जाति, किसी वर्ग का क्यों न हो,
उसकी पैरवी किसी ने की हो या नहीं भी की हो, करने योग्य होगा तो जरूर करेगा। अगर
कोई हिचक होगी, तो आप लाख कहे, उसकी इच्छा के विरूद्ध उससे कोई कुछ नहीं करा सकता।
उसकी दोस्ती किसी से है या नहीं – यह दावे से कोई नहीं कह सकता। मुझे फोन पर हमेशा
इयरवा कहता है, भोजपुरी का यह ऐसा शब्द जिसमें गलत हो या सही, हमेंशा एक-दूसरे का
साथ देना होता है। अपनी किताब भेंट करेगा तो शिशिर के आगे (वा) जरूर जोड़ेगा।
व्यवहार में इयरवा को आचरित भी करेगा। स्वभाव से भारी शंकालु है लेकिन मेरे बारे
में उसे पक्का यकीन है कि यह भितरघात वाला नहीं। पीठ पीछे निंदा भी नहीं करता, इसे
कभी ईर्ष्या, स्पर्धा भी नहीं रही लेकिन सच यही है कि मैं दम ठोक कर यह दावा नहीं
कर सकता कि मैं उसका इयरवा हूं ही। वह आदतन नापंसद करेगा। असहमति होगी तो जरूर
दर्ज करेगा। मेरा कहा वही मानेगा – जो उसे ठीक लगेगा। सिफारिशें सारी मान लेगा, कर
भी देगा। लेकिन जहां हिचक होगी – साफ नकार जायेगा। मूल बात उसकी इच्छा और समझ के
रडार पर संगति बैठने की है। दोस्ती तो दोस्ती मगर दुश्मनी में भी अरूण कमल कभी
पीछे नहीं रहता। चौकन्ना ऐसा कि हर भितरघात को पहले भांप ले। किसी ने चोट
पहुंचायी, पंगा लिया, तो अंदर ही याद रखेगा। नाजुक मौके की प्रतीक्षा करेगा और ऐसी
नाजुक जगह पर वार करेगा कि सामने वाला तिलमिलाकर रह जाय। पानी मांगने की भी नौबत
नहीं देता। बदला लेना और माफ करना कोई उससे सीखे। समकालीनों को लेकर उसकी
संवेदनशीलता स्थायी है। वहां कोई रियायत नहीं। उसने समकालीन कविता के परिदृश्य पर
अपनी जो जगह तजबीज की है, उसका स्थायित्व निर्विवाद हो-बस! समकालीन में उसका कोई
कितना ही अंतरंग क्यों न हो, जहां वह उसकी जगह की ओर बढ़ा, अरुण कमल हरकत में आ
जायेगा। वह जगह हर हाल में सुरक्षित होनी चाहिए, जो उसने अपने लिए तजबीज की है। हर
एक पर और हवा के रूख पर उसकी निगाह बिच्छू के टूंड सी सजग रहती है। उसे पूरा पता
होता है, कौन क्या चालें चल रहा है, कौन, कहां गोटी बिठा रहा है। साहित्य जगत की
हर गोपनीयता अरूण कमल के पास अदेर पहुंच जाती हैं। सब कुछ इतना सधा और सुव्यवस्थित
कि उसे कुछ नहीं करना होता-बस माउस क्लिक किया सब कुछ स्क्रीन पर। आप चाहे उससे
दोस्ती करें या दुश्मनी, यह आपकी मर्जी। किसी भी हाल में अरूण कमल को इससे कभी कोई
फर्क नहीं पड़ता।
संपर्क- कर्मेन्दु शिशिर, 38/9 न्यू पुनाईचक, शास्त्रीनगर, पटना – 800023
, मो. 09431221073
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