शनिवार, 23 अगस्त 2014

हिंदी दलित नाटक: विचारधारा एवं चेतना की निर्मिति - नीरज कुमार





दलित साहित्य शुरू में कविता और आत्मकथा के रूप में ही लिखा जाता था। परन्तु अब दलित लेखकों ने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाना प्रारंभ कर दिया है। उसी का परिणाम है कि आज दलित साहित्य नई ऊंचाइयों को छू रहा है। दलित नाटकों की विचारधारा को निर्मित करने के पीछे दलित लेखकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दलित लेखकों ने भारतीय समाज में दलित समुदाय के लोगों का सवर्ण वर्ग के लोगों के द्वारा किये जाने वाले शोषण, उत्पीड़न को आधार बनाकर अपने नाटकों की रचना की है। दलित नाटकों में इतिहास में उपेक्षित दलित व्यक्तियों को भी आधार बनाया गया है। हिंदी दलित नाटकों की विचारधारा और चेतना की निर्मिति के मूल में बाबा साहब अंबेडकर और ज्योतिबा फुले के द्वारा दलितों का उद्धार करने के लिए किए गए आंदोलनों को माना जा सकता है।

हिंदी दलित नाटकों में प्रस्तुत विचारधारा एवं चेतना की निर्मिति के संदर्भ में अध्ययन करने से पहले विचारधारा और चेतना को स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है। चेतना का संबंध मस्तिष्क से होता है। चेतना के स्वरूप पर मार्क्स अपनी कृति साहित्य और कलामें लिखते हैं ‘‘मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन तथा भौतिक संसर्ग का विकास करते हुए अपने इस वास्तविक अस्तित्व के साथ अपने चिंतन तथा चिंतन के परिणामों को भी बदलते हैं। मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि उल्टे उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है।’’[1]
मार्क्स आगे लिखते हैं कि ‘‘भौतिक जीवन के अंतरविरोधों के आधार पर ही समाज की उत्पादन शक्तियों और उत्पादन संबंधों की मौजूदा टक्कर के आधार पर ही चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए।’’[2] शोषितों की मुक्ति की दिशा में पहला कदम होता है, एक आलोचनात्मक चेतना के विकास के माध्यम से शोषित तबकों में यह ज्ञान पैदा होना कि वे शोषित हैं। यह चेतना अन्यायपूर्ण परिस्थितियों की आलोचनात्मक छानबीन की प्रक्रिया के द्वारा विकसित होती है।
हिंदी दलित नाटकों की विचारधारा एवं चेतना की निर्मिति के संबंध में विचारकों का मानना है कि भारतीय समाज में सदियों से दलितों पर होते आ रहे शोषण को अभिवयक्त करने हेतु नाटक एक उपयुक्त विधा है। नाटकों के माध्यम से लोगों के सामने दलितों की वास्तविक स्थिति का सफलतापूर्वक चित्रण किया जा सकता है। नाटक एक दृश्य विधा है जिसमें लोग पात्रों एवं संवादों के माध्यम से किसी विषय के को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। नाटक व्यक्तियों को अंदर तक हिला देता है, क्योंकि व्यक्तियों में सामान्यीकरण की प्रक्रिया का गुण पाया जाता है, जिसके माध्यम से लोग पात्रों के साथ अपना तादाम्य स्थापित कर लेते हैं और उस पात्र में अपनी स्वयं की छवि देखने लगते हैं। यही कारण है कि व्यक्तियों को नाटक के माध्यम से जनचेतना को जागृत करने की शिक्षा मिलती है।
हिंदी में दलित चेतना की अभिव्यक्ति करने वाली कई नाट्य कृतियों की रचना की गई है। कई नाटकों का सफल मंचन भी किया है। डॉ. शशिधरन का कहना है कि ‘‘दलित चेतना के नाटककारों ने नाट्य-रूप या नाट्य-शिल्प पर कम ही सोचा है। उन्होंने कथ्य पक्ष यानी वैचारिकता पर ही ज्यादा बल दिया है। इनकी नाट्य-कृतियों की चर्चा हिंदी नाटक या साहित्य के इतिहास में नहीं मिलती है। इतिहास में स्थान देना इतिहासकार की मानसिकता का परिचायक है। भले ही इतिहास में इन नाट्य-कृतियों की चर्चा न हों, किन्तु दलित मसलों की चर्चा गंभीरता के साथ इन्हीं नाट्य-कृतियों में ही हुई है। नाटककारों ने पौराणिक, ऐतिहासिक और चरित्रों के माध्यम से दलित शोषण, उत्पीड़न, धार्मिक कुरीतियों, सामाजिक बुराइयों, राजनीतिक छलछद्म, जातिवाद आदि का अनावरण करते हुए सवर्ण वर्चस्ववादिता का भंडाफोड़ किया है और यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वर्णहीन समाज में ही दलितों की उन्नति संभव है।’’[3]
हिंदी दलित नाटकों का अध्ययन करने के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि हिंदी दलित नाटकों की विचारधारा एवं चेतना की निर्मिति बाबा साहब द्वारा घोषित 22 प्रतिज्ञाओं के आधार पर हुई मानी जा सकती है। बाबा साहब का मानना था कि दलितों के शोषण का प्रमुख माध्यम हिंदू धर्म है। हिंदू धर्म की धार्मिक मान्यताओं के आधार पर समाज में दलितों को जिल्लतभरी जिंदगी जीने को मजबूर होना पड़ा है। धर्म के नियम इतने कठोर थे, जिनका पालन करना दलितों के लिए अनिवार्य था, अन्यथा दलितों को सवर्णों के कोप का भाजन बनना पड़ता था। इस धार्मिक अत्याचार से मुक्ति का बाबा साहब ने एक ही उपाय बताया - हिंदू धर्म से नाता तोड़ना। ताकि न तो हिंदू धर्म को मानना पड़ेगा, न ही उस धर्म की कठोर नियमावली का पालन करना पड़ेगा। दलितों की मुक्ति के लिए बाबा साहब ने धर्म परिवर्तन को अनिवार्य माना। उनका मानना था कि जो धर्म समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना को बढ़ावा देता हो, वही धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसी धर्म का पालन करना चाहि। बौद्ध धर्म को बाबा साहब ने दलितों के लिए उपयुक्त माना क्योंकि वही एकमात्र धर्म था जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात करता है। व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य किसी प्रकार के भेदभाव को बौद्ध धर्म नहीं मानता है। बौद्ध धर्म की अच्छाइयों से ही प्रभावित होकर बाबा साहब ने 1956 में हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाया और दलितों से भी बौद्ध धर्म अपनाने का आह्वान किया। जिसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों ने बौद्ध धर्म को अपनाया। बाबा साहब के धर्म परिवर्तन को आधार बनाकर माताप्रसाद ने अपने प्रसिद्ध दलित नाटक धर्मपरिवर्तनकी रचना की। इस नाटक में माताप्रसाद ने डॉ. अंबेडकर के उस संपूर्ण संघर्ष को, जिसकी परिणिति धर्मांतरण के रूप में हुई, अत्यंत बेबाकी से चित्रित किया है। माताप्रसाद ने अपने इस नाटक में यह दिखाने का सफल प्रयास किया है कि किसप्रकार तत्कालीन हिंदू समाज में मानवीय अधिकारों से वंचित करोड़ों अछूतों-दलितों को गुलामी का अहसास कराने के निमित्त ही डॉ. अंबेडकर ने महाड़ और नासिक के सत्याग्रह किए थे। वास्तव में इन्हीं दो सत्याग्रहों ने दलित मुक्ति के आंदोलन की आधारशिला रखी थी। इन्हीं ने दलितों की विचारधारा एवं चेतना की निर्मिति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
हिंदी दलित नाटकों ने दलितों को यह प्रमुख संदेश दिया कि दलितों को एकजुट होना होगा, उन्हें संगठित होकर, समाज की विषमता के खिलाफ आवाज उठानी होगी, अन्यथा उनके शोषण में कमी नहीं हो सकेगी। दलित नाटकों ने समाज को एक खुला संदेश दिया है कि सवर्णों द्वारा दलितों का शोषण बहुत हो चुका है, अब उसे बंद किया जाना चाहिए। दलितों को भी समाज में सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करने का उतना ही हक है जितना सवर्णों को है। माताप्रसाद का नाटक अछूत का बेटामें समाज में व्याप्त छुआछूत, दहेज-प्रथा की बुराइयां, गांवों की सामाजिक दशा का दिग्दर्शन है। इस नाटक का संदेश है कि पुरानी परंपराओं से बाहर निकलकर जब तक रोटी-बेटी का संबंध नहीं होगा, समाज में जाति, धर्म, छूत-अछूत के नाम पर संघर्ष और विग्रह की स्थिति बनी रहेगी, हमारी राष्ट्रीय एकता को चोट पहुंचती रहेगी। सब लोगों को मिल-जुल कर रहने का संदेश भी इसमें दिया गया है। इसप्रकार यह कहा जा सकता है कि दलित नाटकों के माध्यम से दलित रचनाकारों ने दलित समाज के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने की चेतना को जागृत करने का काम किया है।
हिंदी दलित नाटकों की विचारधारा एवं चेतना को निर्मित करने में समाज में दलितों के पग-पग पर होने वाले अपमान एवं शोषण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दलितों द्वारा ही दलितों की वेदना को अच्छी तरह से महसूस किया जाता है। इसलिए दलितों के द्वारा लिखे दलित नाटकों में दलितों के शोषण को बारीकी से उकेरा जा सका है। इसीलिए दलितों द्वारा लिखे दलित नाटक स्वरूप एवं संवेदना के स्तर पर दलितों की वेदना को चित्रित कर सके हैं।
दलितों की विचारधारा एवं चेतना की निर्मिति में बाबा साहब द्वारा ली गई 22 प्रतिज्ञाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी दलित नाटकों में दलित लेखकों ने भी इन प्रतिज्ञाओं का सहारा लिया है। बाबा साहब द्वारा ली गई 22 प्रतिज्ञाएं निम्नलिखित हैं:-
(1) मैं ब्रह्म, विष्णु और महेश को कभी ईश्वर नहीं मानूंगा और न ही उनकी पूजा करूंगा।
(2) मैं राम और कृष्ण को ईश्वर नहीं मानूंगा और न कभी उनकी पूजा करूंगा।
(3) मैं गौरी-गणपति इत्यादि हिंदू धर्म के किसी भी देवी-देवताओं को नहीं मानूंगा और न ही उनकी पूजा करूंगा।
(4) मैं इस बात पर विश्वास नहीं करूंगा कि ईश्वर ने कभी अवतार लिया है।
(5) मैं कभी नहीं मानूंगा कि भगवान बुद्ध, विष्णु के अवतार हैं। मैं ऐसे प्रचार को पागलपन का झूठा प्रचार समझता हूं।
(6) मैं श्राद्ध कभी नहीं करूंगा और न कभी पिण्डदान दूंगा।
(7) मैं बौद्ध धम्म के विरुद्ध किसी भी प्रकार का आवरण नहीं करूंगा।
(8) मैं कोई भी क्रिया-कर्म ब्राह्मणों के हाथों नहीं कराऊंगा।
(9) मैं इस सिद्धांत को मानूंगा कि सभी मनुष्य समान हैं।
(10) मैं समानता की स्थापना के लिए प्रयत्न करूंगा।
(11) मैं भगवान बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का पूर्ण रूप से पालन करूंगा।
(12) मैं भगवान बुद्ध द्वारा बताई गई दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करूंगा।
(13) मैं प्राणी मात्र पर दया करूंगा और उनका पालन-पोषण करूंगा।
(14) मैं कभी चोरी नहीं करूंगा।
(15) मैं कभी झूठ नहीं बोलूंगा।
(16) मैं कभी व्याभिचार नहीं करूंगा।
(17) मैं शराब अथवा किसी प्रकार का नशा नहीं करूंगा।
(18) मैं अपने जीवन को बौद्ध धम्म के तीन तत्वों-ज्ञान, शील और करुणा पर ढालने का प्रयत्न करूंगा।
(19) मैं मानव समाज के उत्कर्ष के लिए हानिकारक और मनुष्य मात्र को ऊंच-नीच मानने वाले पुराने हिंदू धर्म का पूर्णतः त्याग करता हूं और बौद्ध धम्म को स्वीकार करता हूं।
(20) मेरा ऐसा पूर्ण विश्वास है कि बौद्ध धम्म ही सद्धम्म है।
(21) मैं यह मानता हूं कि मेरा पुनर्जन्म हो रहा है।
(22) मैं यह पवित्र प्रतिज्ञा करता हूं कि आज से मैं बौद्ध धम्म की शिक्षा के अनुसार आचरण करूंगा।’’[4]
इन तमाम प्रतिज्ञाओं के माध्यम से बाबा साहब ने हिंदू धर्म का खंडन किया और बौद्ध धम्म की प्रशंसा की। तथा सभी दलितों से हिंदू धर्म की धार्मिक आडंबरपूर्ण व्यवस्था से मुक्त होने की अपील की।
दलित साहित्य का वैचारिक आधार बाबा साहब अंबेडकर के जीवन संघर्ष तथा ज्योतिबा फुले और महात्मा बुद्ध के दर्शन को माना गया है। यह कहना सच है कि दलित साहित्यकारों को दलित साहित्य रचने की प्रेरणा बाबा साहब अंबेडकर और उनकी क्रांतिकारी विचारधारा से मिली है। कई आलोचकों का मानना है कि दलित साहित्य का संबंध मार्क्सवाद से है, कुछ नीग्रो साहित्य से भी इसका संबंध जोड़ते हैं। जबकि सत्य तो यह है कि दलित साहित्य एक अलग विचारधारा का साहित्य है, जिसमें स्वयं के द्वारा भोगे और व्यतीत किए गए जीवन का यथार्थ चित्रण किया गया है। दलित साहित्य की प्रेरणा न मार्क्सवाद से मिली है, न हिन्दुत्ववाद से और न ही नीग्रो साहित्य से। इसकी प्रेरणा तो सिर्फ अंबेडकरवाद से मिली है। दलित विचारक कंवल भारती की यह मान्यता इसी तथ्य को प्रमाणित करती है कि आधुनिक हिंदी दलित साहित्य वह है जो दलित मुक्ति के सवालों पर पूरी तरह अंबेडकरवादी है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सभी क्षेत्रों में उसके सरोकार वे हैं जो अंबेडकर के थे। अभय कुमार दुबे भी इसीप्रकार के विचार व्यक्त करते हैं। उनका मानना है कि ‘‘दलित साहित्य में अंबेडकर का असली महत्व एक पथ-प्रदर्शक और मनोवैज्ञानिक मुक्ति द्वार पर खड़ा कर देने का महत्व है।’’[5]
डॉ. गंगाधर पानतावणे भी इसी तथ्य पर जोर देते हैं कि ‘‘दलित साहित्य की प्रेरणा न मार्क्सवाद है, न हिन्दुत्ववाद, न नीग्रो साहित्य है। दलित साहित्य की प्रेरणा केवल अंबेडकरवाद है।’’[6] गुजराती दलित कवि जयंत परमार दलित चेतना के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ‘‘अंबेडकर दर्शन ने दलित कवियों के मन में आत्म सम्मान जागृत किया है, उसके फलस्वरूप जीवनानुभव को देखने और पहचानने की उनकी भूमिका विद्रोह तथा नकार से भर उठी। उसका आवेग किसी तूफान की तरह है। उसका सौंदर्य और उसकी सामर्थ्य उसकी वेदना में है। दलित कविता का कथ्य पूर्ण तथा अनोखा है, उसमें किसी और कवि के संस्कारों की या अनुकरण की न तो कोई आवश्यकता है न कोई गुंजाइश।’’[7]
इसप्रकार कहा जा सकता है कि दलित चेतना बाबा साहब अंबेडकर के जीवन-दर्शन से मुख्य ऊर्जा ग्रहण करती है। इस तथ्य को लगभग सभी दलित रचनकारों ने माना है जो कि पूर्णतः सही है। हिंदी दलित नाटकों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि दलितों में चेतना जगाने के उद्देश्य से भी इन नाटकों की रचना की गई है। दलित साहित्य के अध्ययन के आधार पर दलित चेतना के प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित बताये जा सकते हैं -
(1) मुक्ति और स्वंतत्रता के सवालों पर डॉ. अंबेडकर के दर्शन को स्वीकार करना।
(2) बुद्ध का अनीश्वरवाद, आत्मवाद, वैज्ञानिक दृष्टिबोध, पाखंड-कर्मकांड विरोध।
(3) वर्ण व्यवस्था विरोध, जाति-भेद विरोध, साम्प्रदायिकता विरोध।
(4) अलगाववाद का नहीं भाईचारे का समर्थन
(5) स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय की पक्षधरता।
(6) सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्धता।
(7) आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवाद का विरोध।
(8) सामंतवाद, ब्राह्मणवाद का विरोध।
(9) अधिनायकवाद का विरोध।
(10) महाकाव्य की रामचन्द्र शुक्लीय परिभाषाओं से असहमति।
(11) पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र का विरोध।
(12) वर्णविहीन, वर्गविहीन समाज की पक्षधरता।
(13) भाषावाद, लिंगवाद का विरोध’’[8]
अपने समय की प्रसिद्ध हिंदी पत्रिका चांदके सन् 1927 में प्रकाशित अछूत अंकमें कुछ दलित रचनकारों की रचनाएं छपी थीं, उनमें भी वही शिकायत का स्वर, वही याचना और दीनता का वर्णन मिलता है। साठ के दशक में जब मराठी में दलित साहित्य एक आंदोलन का रूप लेता हुआ अपनी उपस्थिति का एहसास साहित्य समाज को कराता है, तब हिंदी में भी कुछ दलित लेखक कविता लिखना शुरू करते हैं। इस समय तक हिंदी में बाबा साहब अंबेडकर और बौद्ध धर्म से दलितों का एकदम नए तरीके से परिचय होता है और बुद्ध का प्रभाव लिए अंबेडकर की विचारधारा उनकी सुसुप्त चेतना को आंदोलित कर उनमें समता और स्वाभिमानपूर्ण जीवन जीने की जिजीविषा एवं संघर्ष करने की भावना का संचार करती है। बाबा साहब अंबेडकर के विचारों से प्रेरित होकर दलित लेखक जब कलम उठाकर लिखना शुरू करते हैं तो सबसे पहले बाबा साहब और महात्मा बुद्ध का जयगान करते हैं और उसके बाद वे हिंदू धर्म की विषमता और विसंगतियों पर प्रहार करते हुए हिंदू धर्म के ग्रंथों आदि के विरोध को अपनी रचनाओं का विषय बनाना शुरू करते हैं। समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमताओं के खिलाफ अपनी कलम को चलाते हुए दलित रचनाकार साहित्य की रचना करते हैं।
दलित चेतना के संदर्भ में कहना है कि ‘‘अस्सी के दशक के बाद दलित चेतना अप्प दीपों भवमें अपना विस्तार पाती है जब मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि और कंवल भारती प्रभूति आदि लेखक पूरी तैयारी और प्रतिबद्धता के साथ दलित साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उतरते हैं। अप्प दीपों भवका सूत्र ही यथार्थ में दलित साहित्य में स्वाभिमान और स्वावलंबन की चेतना को जन्म देता है। इसी का प्रभाव और परिणाम आज के दलित साहित्य की रचनाओं में देखने को मिलता है।’’[9]
दलित साहित्य के सृजन के संदर्भ में बाबूराव बागूल का कहना है कि अस्सी के दशक से पूर्व तक और काफी हद तक नब्बे के दशक के दौरान भी दलित साहित्य के सृजन के पीछे मिशनरी भाव था तथा अंबेडकर मिशन के दूसरे कार्यकर्ताओं की तरह दलित लेखक भी बौद्ध धर्म-दीक्षा को अपने सामाजिक या मुक्ति आंदोलन का अंतिम लक्ष्य मानकर चलते हैं।’’[10]
दलित साहित्य के बारे में विमल थोराट का मानना है कि ‘‘दलित साहित्य उस विद्रोह का उन्मेष है जो किसी विशिष्ट जाति या व्यक्ति के विरुद्ध नहीं, बल्कि स्व की खोज में निकले हुए एक पूरे समाज का पूर्व परंपराओं में विद्रोह है एवं अपने अस्तित्व की स्थापना का प्रचार है।’’[11]
दलित साहित्य को बाबा साहब अंबेडकर के जीवन दर्शन ने एक वैचारिक ऊर्जा दी है और महात्मा बुद्ध की दार्शनिकता ने उसे सामाजिक दृष्टि दी है। साथ ही ज्योतिबा फुले के जीवन संघर्ष से उसे गहन प्रेरणा मिलती है। सभी दलित रचनाकार इस बिन्दू पर एकमत हैं कि ज्योतिबा फुले ने स्वयं क्रियाशील रहकर सामन्ती मूल्यों और सामाजिक गुलामी के विरोध का स्वर तेज किया था। ब्राह्मणवादी सोच और वर्चस्व या प्रभुत्व के विरोध में उन्होंने एक आंदोलन खड़ा किया था। यही कारण है कि जहां दलित रचनाकारों ने ज्योतिबा फुले को अपना विशिष्ट विचारक माना, वहीं बाबा साहेब को अपना शक्ति पुंज स्वीकार किया। एक ऐसा शक्तिपुंज जिससे समूचा दलित लेखन वैचारिक ऊर्जा ग्रहण करता है। बाबा साहब और ज्योतिबा फुले के विचारों की प्रखर शक्ति पाकर दलित साहित्य आंदोलन प्रगति की ओर बढ़ रहा है।
साहित्य में दलित चेतना के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि का कहना है कि ‘‘दलित साहित्य में आंतरिक चेतना में निराशावाद, भाग्यवाद नहीं है, वर्ण-व्यवस्था के प्रति उसका कठोर रूख है जिसे विध्वंस करके समाज में समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता की भावना स्थापित करना दलित चेतना के सरोकारों में शामिल है।’’[12]
डॉ. रामचन्द्र का कहना है कि ‘‘ज्योतिबा फुले और अंबेडकर के दर्शन, संघर्ष और अन्य परिवर्तनकामी आंदोलनों की परंपरा के इतिहासबोध से दलित चेतना का विकास हुआ है। दलित चेतना का बोध, विकास और निर्मिति का मूल आधार बाबा साहब का जीवन-संघर्ष और अधिकारों की मांग से गहरे स्तर तक जुड़ा है।’’[13]
संजीव कुशवाह के अनुसार, ‘‘दलित चेतना अपने इतिहास को पहचानना, अपने शोषकों की संस्कृति का तिरस्कार करना एवं डॉ. अंबेडकर की विचारधारा का पालन करना है।’’[14]
दलित चेतना की निर्मिति के संदर्भ में ज्ञान सिंह बल का कहना है कि ‘‘दलित चिंतन अम्बेडकरी-विचारधारा से ही तमाम किस्म की वैचारिक ऊर्जा ग्रहण करता है। डॉ. अंबेडकर के कुशल नेतृत्व में ही इस आंदोलन ने स्वभाव व चरित्र प्राप्त किया है तथा एक सुदृढ़ शोषण-रहित मानवतावादी समाज की स्थापना की नींव रखी है। डॉ. अंबेडकर की समझ थी कि वर्गों में बंटे समाज को सामाजिक पायदान के निचले स्तर पर बैठे लोगों के दृटिकोण से समझना होगा क्योंकि वे सामाजिक यथार्थ के प्रति सचते थे। ज्योतिबा फुले और अंबेडकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को शोषण आधारित तथा राष्ट्र व विश्व के विकास में एक सशक्त अवरोध समझते हुए, इसके दार्शनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक कारकों को नेस्तानाबूद करने की एक आवश्यक शर्त बताते हैं। बाबा साहेब अंबेडकर ने अपने सामाजिक दर्शन की व्याख्या तीन सूत्रों में दी- स्वतंत्रता, समता और भाईचारा। दलित चिंतन का आदर्श समाज का नवनिर्माण इन्हीं तीनों सिद्धांतों के आधार पर करना है।’’[15]
सुभाष गाताडे का कहना है कि ‘‘यह दलित चेतना की स्वीकृति का ही प्रतीक है कि दक्षिण से लेकर उग्रवाम तक, उदारवादी सियासदानों से लेकर तमाम किस्म के सामाजिक-सांस्कृतिक जमातों तक सभी को इसकी सशक्त उपस्थिति पर न केवल गौर करना पड़ा है बल्कि भारत के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में आई इस नई बयार के सामने सिजदा करना पड़ा है। यह दलित चेतना की ताकत का ही परिचायक है कि हमारी भाषा-बोली, हमारा रहन-सहन, हमारी प्राचीन गौरवशाली संस्कृति में अंतर्निहित वर्ण-मानसिकता तथा ब्राह्मणी मूल्य, शुद्धता तथा प्रदूषण पर टिकी जाति-व्यवस्था द्वारा सदियों से तराशी जा रही हमारी समाज-व्यवस्था सभी पर सवाल खड़े हुए हैं।’’[16]
दलित चेतना के संदर्भ में सुभाष गाताडे का कहना है कि ‘‘अगर सर्वस्वीकृत या सर्वमान्य समझदारी के हिसाब से देखें तो दलित चेतना, वह चेतना है जो शुद्धता तथा प्रदूषण पर आधारित, ऊंच-नीच अनुक्रम पर टिकी ब्राह्मणवादी विचारधारा के बरअक्स एक समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है। निश्चित ही वह मनु द्वारा रचे गए संविधान को नकारती है, मनुष्य के जन्म प्रदत्त श्रेणी क्रम को अस्वीकार करती है। यह विचारधारा श्रम को हेय मानने की प्रवृत्ति को चुनौती देती है और उसके स्थान पर समग्र मानव जाति की मुक्ति की बात करती है।’’[17]
दलित चेतना की निर्मिति के संदर्भ में डॉ. ए. आर. किदवई ने कहा है कि दलित चेतना की पहली शर्त आत्मसम्मान का बोध। यह बोध शिक्षा से ही जगता है। दूसरी शर्त है उसके लिए संघर्ष यानी सामूहिक जनशक्ति में आस्था और यह जनशक्ति संगठन बनती है। इसी के अभाव में दलित पीड़ित और शोषित रहे। पग-पग पर अपमानित व लांछित होते रहे।’’[18]
हिंदी दलित नाटकों के माध्यम से दलितों में उत्पन्न हुई दलित चेतना के संदर्भ में डॉ. चन्द्रेश्वर कर्ण का कहना है कि ‘‘दलितों में नई चेतना आयी है। लोकतंत्र ने उन्हें आत्मविश्वास दिया है, अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेतन बनाया है। एक सीमा में ही सही उन्होंने सुविधाओं का उपयोग किया है। उनकी कर्तव्यविमूढ़ता और जड़ता की पथरीली जमीन चटकी ही नहीं, टूट रही है। उनका गूंगापन शब्द और अर्थ प्रक्षेपित करने लगा है। वे शब्दों को नए अर्थ संदर्भों में प्रयुक्त करने लगे हैं।’’[19]
उनका कहना है कि ‘‘महापुरुषों और लोकनायकों का सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। दलितों के बीच भी महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने देश, समाज और मानवता के हित में कार्य किया है। उनमें चेतना जगाने, नई दिशा दिखाने और नए जीवन के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी है। दलितों में जो चेतना और जुझारूपन आया है, उसके शक्ति स्रोत ये ही नायक रहे हैं। महात्मा फुले, सावित्रीबाई, बाबा साहब अंबेडकर ऐसे ही नाम हैं, जिन्होंने दलितों में नई चेतना जगाने का कार्य किया है।’’[20]
दलित चेतना के बारे में शरण कुमार लिम्बाले का कहना है कि ‘‘दलित चेतना क्रांतिकारी मानसिकता है। यह चेतना आनंद पर निर्भर न होकर समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधु भाव पर आधारित है।’’[21]
ओमप्रकाश वाल्मीकि का कहना था कि ‘‘दलित-साहित्य का वैचारिक आधार डॉ. अंबेडकर और बुद्ध दर्शन है, न कि रैदास और कबीर। रैदास और कबीर दलितों के प्रेरणा स्रोत अवश्य हैं, लेकिन दलित आंदोलन, दलित साहित्य के आदर्श नहीं हैं। दलित चेतना में जो जुझारूपन और जीवटता है, वह अंबेडकर की देन है।’’[22]
अतः हिंदी दलित नाटकों का अध्ययन करने के उपरांत यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य में नाटकों का अपना विशेष महत्व है। दलित साहित्य शुरू में कविता और आत्मकथा के रूप में ही लिखा जाता था। परन्तु अब दलित लेखकों ने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाना प्रारंभ कर दिया है। उसी का परिणाम है कि आज दलित साहित्य नई ऊंचाइयों को छू रहा है। दलित नाटकों की विचारधारा को निर्मित करने के पीछे दलित लेखकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। दलित लेखकों ने भारतीय समाज में दलित समुदाय के लोगों का सवर्ण वर्ग के लोगों के द्वारा किये जाने वाले शोषण, उत्पीड़न को आधार बनाकर अपने नाटकों की रचना की है। दलित नाटकों में इतिहास में उपेक्षित दलित व्यक्तियों को भी आधार बनाया गया है। हिंदी दलित नाटकों की विचारधारा और चेतना की निर्मिति के मूल में बाबा साहब अंबेडकर और ज्योतिबा फुले के द्वारा दलितों का उद्धार करने के लिए किए गए आंदोलनों को माना जा सकता है। इन आंदोलनों के माध्यम से दलितों में चेतना का उदय हुआ और दलितों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना प्रारंभ कर दिया था। उसी संघर्ष का परिणाम है कि भारतीय समाज में अब दलितों के साथ पहले जैसा दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है। हिंदी दलित नाटकों के माध्यम से दलित लेखकों ने दलित समुदाय के लोगों को भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था की भेदभावपूर्ण नीतियों से अवगत कराया है और साथ ही उन नीतियों का विरोध करने की चेतना भी दलितों में पैदा की है।
संपर्क - नीरज कुमार, शोधार्थी हिंदी, कमरा सं. 304, पेरियार छात्रावास, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नयी दिल्ली 110067, दूरभाष -9968827916
ईमेल पता - nkhjnu@gmail.com



[1] साहित्य और कला, पृ. 47
[2] वही, पृ.48
[3] दलित साहित्य का मूल्यांकन, पृ. 23-24

[4] बाबा साहब द्वारा ली गई 22 प्रतिज्ञाएं
[5] अंबेडकरवाद दलित साहित्य की प्रेरणाः शिखर की ओर पृ. 300
[6] अंबेडकरवाद दलित साहित्य की प्रेरणाः शिखर की ओर पृ. 300
[7] दलित कविता, शिखर की ओर, पृ. 396
[8] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र

[9] तीसरा पक्ष, पृ. 31
[10] दलित साहित्य आज का क्रांति विज्ञान, पृ.91
[11] मराठी दलित कविता और साठोत्तरी हिंदी कविता में सामाजिक, राजनीतिक चेतना, पृ. 29
[12] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ.105
[13] जनसत्ता, दिल्ली, 15 मई, 2011, पृ. 17
[14] संजीव कुशवाह-युद्धरत आम आदमी, अंक 109, जुलाई-सितम्बर, 2011, पृ.119
[15] युद्धरत आम आदमी, विशेषांक, 2006, पृ. 9-10
[16] युद्धरत आम आदमी विशेषांक 2006, पृ. 136
[17] वही पृ. 137
[18] युद्धरत आम आदमी, अंक-41, 1998, पृ. 3
[19] वही पृ. 33
[20] वही पृ.34
[21] युद्धरत आम आदमी, अंक-41, 1998, पृ. 118
[22] युद्धरत आम आदमी, विशेषांक, 2007, पृ.72

मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014)   
 ISSN   2320-835X                                                                                                                              
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 


2 टिप्‍पणियां:

  1. Abhi tak prastut kiye natak ki suchi kahi di nahi hai. Dalit rangmanch me abhi tak kitne natak khele hai

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  2. हिंदी में दलित नाटक पर आपने जो विचार किया और डॉ. भीम राव अंबेडकर ,ज्योतिबा फुले , सावित्री बाई,को विचारों को आधार बनाकर रखा हैं। ये दलित महापुरुष लोगों ने दलित के जीवन जीने के लिए संघर्ष किया।

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