बुधवार, 27 अगस्त 2014

डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि में सुब्रह्मण्य भारती का जीवन और साहित्यकर्म - बिजय कुमार रबिदास



 
सुब्रह्मण्य भारती एक देशभक्त कवि थे। उनके लेखन की यह विशेषता होती थी कि वह किसी भी विषय पर लिखे,  चाहे कला पर या कविता पर, उसे अपने क्रांतिकारी और राजनीतिक चेतना के रंग से रंग देते थे। उनके जीवन का उद्देश्य था -  भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता, जातिभेद की समाप्ति और भारतीय स्त्रियों के उत्थान के लिए लड़ते रहना। डॉ. शर्मा लिखते हैं – “कविता के लिए भारती ने अनेक कष्ट सहे और कविता ने इन कष्टों में उन्हें सांत्वना भी दी। कविता का विषय जितना भारती है, उससे अधिक भारत और तमिलनाडु है।

डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार सुब्रह्मण्य भारती तमिल भाषी क्षेत्र के नवजागरण के अग्रदूत हैं। भारती तमिल साहित्य के सबसे बड़े एवं अप्रतिम कवि हैं। साहित्य जगत में उनका प्रवेश एक क्रांतिकारी कवि के रूप में होता है। वे “सबसे पहले देशभक्त कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनके पास मधुर और ओजस्वी वाणी थी। और इसी के बल पर वह भारत के प्राचीन गौरव, राजनीतिक पराधीनता तथा सुनहले भविष्य पर लिखे गए अपने गीतों को गाकर जन – समूह को मंत्रमुग्ध किये।”[1] उन्होंने तमिल साहित्य को एक नई दृष्टि और एक नई दिशा दी। डॉ.शर्मा की दृष्टि में उनका साहित्य केवल तमिलनाडु के लिए ही नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए प्रासंगिक है। वे लिखते हैं –“भारती का दृष्टिकोण केवल तमिलनाडु के लिए नहीं, केवल उस युग के लिए नहीं, वरन् इस युग के लिए, पूरे भारत के लिए प्रासंगिक है।”[2] तमिल साहित्य में भारती का योगदान अविस्मरणीय है- “वास्तव में सुब्रह्मण्य भारती ने ही पहली बार बहुत बड़े उद्वेग के साथ तमिल प्रदेश में नवजागरण का शंख फूंका, जिसके परिणामस्वरुप तमिल प्रदेश अपनी लंबी निद्रा और तंद्रा से अंगड़ाई लेने लगा और अपने को झकझोरकर जाग उठा। अपने अनेक गीतों, लेखों और निबंधों में भारती ने इस बात को स्पष्ट किया कि पराधीन देश में साहित्य, संगीत, और कला आदि का समुचित विकास होने की कतई गुंजाइश नहीं .......।”[3] डॉ. रामविलास शर्मा ने तमिल जातीयता और राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में भारती के जीवन और साहित्य पर गंभीरता से विचार किया हैं।
भारती का जीवन संघर्ष-सुब्रह्मण्य भारती का जन्म नवम्बर,1882 ई. को तमिलनाडु के एक छोटे से गांव में हुआ था। भारती तमिलनाडु के जिस क्षेत्र में पैदा हुए थे, वह कला और साहित्य के लिए विख्यात था। वहीं एट्टयपुरम् नाम की एक रियासत थी। भारती के पिता चिन्नस्वामी अय्यर वहां  के जमींदार की सेवा में कार्यरत थे। उन्हें तमिल साहित्य का बहुत अच्छा ज्ञान था, परंतु उनका ध्यान प्रोद्योगिकी की ओर अधिक था। सुब्रह्मण्य भारती, चिन्नस्वामी अय्यर के पहले पुत्र थे और बचपन से ही मां की ममता से वंचित थे। माता की मृत्यु के बाद भारती का जीवन अपने नाना के यहां बीता। उनके नाना भी “तमिल साहित्य के प्रेमी थे और बालक भारती को उन्होंने तमिल काव्य से परिचित कराया। माता के अभाव में और पिता के कठोर अनुशासन के कारण भारती कविता में डूबे रहते थे और स्वयं भी बहुत जल्दी कविता करने लगे थे।”[4] भारती बचपन से ही कविता रचने लगे थे। 11 वर्ष की उम्र में, उनकी काव्य प्रतिभा से चकित होकर उन्हें ‘भारती’ की उपाधि दी गयी थी। 15 वर्ष की अवस्था में भारती का विवाह चेलम्मा नाम की एक बालिका से करा दिया जाता है। उस समय उनकी पत्नी 7 वर्ष की थी। दुर्भाग्य से उसी वर्ष उनके पिता की मृत्यु हो जाती है। फिर वह अपनी मामी के पास बनारस चले जाते हैं। बनारस प्रवास ने भारती के व्यक्तित्व में खासा परिवर्तन ला दिया- “उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत, और हिंदी का गहन ज्ञान प्राप्त किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा विशेष पुरस्कारपूर्वक पास की। वह घनी मूंछें रखने लगे और उनकी चाल में शालीनता आ गई।”[5] बनारस में शिक्षा प्राप्त करने के बाद जीविका उपार्जित करने के लिए भारती एट्टयपुरम् के राजा के पास लौट आये। राजा के साथ काम करना उन्हें पसंद नहीं था। इसलिए उस नौकरी को छोड़कर वे 1904 में मदुरई के एक हाई स्कूल में तमिल के अध्यापक हो गए। वहां भारती की मुलाकात ‘स्वदेशमित्रन्’ पत्रिका के संपादक सुब्रह्मण्यम् अय्यर से हुई। वह भारती के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुए कि 1904 में उन्होंने भारती को इस पत्रिका का संपादक बना दिया। बाद में भारती मासिक पत्रिका ‘चक्रवर्तिनी’, साप्ताहिक पत्र ‘इंडिया’ के भी संपादक बने। इन पत्रिकाओं में भारती स्वामी विवेकानंद, अरविन्द घोष तथा बालगंगाधर तिलक जैसे महान नेताओं के भाषणों का अनुवाद तमिल में करके छापा करते थे। भारती का संबंध ‘विजय’, ‘बाल–भारत’, ‘कर्मयोगी’ और ‘सूर्योदय’ जैसे पत्रों से भी था। इन पत्रिकाओं में भारती की रचनायें छपा करती थी। उनकी रचनायें तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों से प्रभावित होती थी। भारती की रचनाओं के बारे में डॉ. शर्मा लिखते हैं - “भारती की रचनाओं के लिए बहुत-से लेखक उनकी प्रशंसा करते थे परंतु कट्टर रूढ़िवादी उनका विरोध भी जोरों से कर रहे थे क्योंकि भारती अस्पृश्यता और जातिप्रथा के विरूद्ध आंदोलन कर रहे थे।”[6]
भारती की कविताएं राजनीतिक चेतना से प्रभावित होती थी। ‘इंडिया’ पत्र में जो संपादकीय होते थे, वे  अंग्रेजों को बिल्कुल पसंद नहीं थें। भारती पर प्रतिबंध लगाने के लिए अंग्रेजो ने उनके नाम से वारंट जारी कर दिया था। गिरफ्तारी से बचने के लिए भारती पांडिचेरी पहुंच गये। 1918 में भारती जब पांडिचेरी से ब्रिटिश भारत में लौट आये तो अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर जेल में बंद कर दिया। 24 दिन तक वे जेल में रहे। बाद में प्रभावशाली लोगों के दबाव में अंग्रेजों को झुकना पड़ा - “एनी बेसेंट, सी. पी. रामस्वामी अय्यर, आयंगार आदि प्रभावशाली व्यक्तियों के हस्तक्षेप से सरकार ने उन्हें छोड़ दिया।”[7] जेल से बाहर आने पर उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ सी गई थी। वह अपने परिवारवालों को दो वक्त की रोटी भी नहीं खिला पाते थे- “निर्धनता और पुष्टिकारक भोजन के अभाव से उनकी जीवनी शक्ति क्षीण हो गई थी।”[8] फिर भी वे निरंतर रचनाकर्म में लगे रहे। उनके जीवन के अंतिम दिनों के बारे में डॉ. शर्मा लिखते हैं – “ट्रिप्लीकेन में एक मंदिर के हाथी को और दिनों की तरह उन्होंने एक नारियल दिया। परंतु वे जानते न थे कि हाथी मदोन्मद था। हाथी ने उन्हें सूंड से उठाकर पटक दिया। वे घायल हो गए। यद्यपि उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, फिर भी वे कुछ दिनों तक गंभीर रूप से बीमार रहे। 12 सितम्बर,1921 को 39 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया।”[9]
सुब्रह्मण्य भारती एक देशभक्त कवि थे। उनके लेखन की यह विशेषता होती थी कि वह किसी भी विषय पर लिखे,  चाहे कला पर या कविता पर, उसे अपने क्रांतिकारी और राजनीतिक चेतना के रंग से रंग देते थे। उनके जीवन का उद्देश्य था -  भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता, जातिभेद की समाप्ति और भारतीय स्त्रियों के उत्थान के लिए लड़ते रहना। डॉ. शर्मा लिखते हैं – “कविता के लिए भारती ने अनेक कष्ट सहे और कविता ने इन कष्टों में उन्हें सांत्वना भी दी। कविता का विषय जितना भारती है, उससे अधिक भारत और तमिलनाडु है।”[10]
साहित्य कर्म- सुब्रह्मण्य भारती एक समाज सुधारक के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी दृष्टि वर्तमानकालीन सामाजिक कुरीतियों पर थी। भारती अपने समय की सामाजिक व्यवस्था से खुश नहीं थे। उनके सामने जाति प्रथा एक बहुत बड़ी चुनौती थी। वे ऐसे समाज की मांग करते हैं जहां ब्राह्मण और शूद्र, सब एक समान हो। उन्होंने अपनी अनेक कविताओं में सामाजिक समानता की बात कही हैं :-
ब्राह्मण हो या अब्राह्मण, हम सब समान हैं
इस धरती पर जन्मे सब मानव समान हैं।
जाति – धर्म का दम न भरेंगे
ऊंच – नीच के भेद तजेंगे।
हम वंदे मातरम् कहेंगे।
जो अछूत हैं, वे भी कोई और नहीं हैं
वे भी तो रहते हम सबके साथ यहीं हैं।
अपने कहीं  पराए होंगे
और हमारा अहित करेंगे?
हम बन्दे मातरम् कहेंगे।
(भारतीय संस्कृति  और हिंदी प्रदेश भाग – 2,पृष्ठ संख्या-495)
भारती मनुष्य को वर्ण के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर देखते हैं। उनका कहना हैं – “गीता में वर्णव्यवस्था के बारे में जो कुछ कहा गया है, उससे वर्तमान स्थिति कोसों  दूर है। ब्राह्मण अब वेद शास्त्र नहीं रचते। बहुत समय से उन्होंने शाश्वत सत्य, या इस पृथ्वी से संबंधित विज्ञान के बारे में सोचना बंद कर दिया है। प्राचीन और शुद्ध ग्रंथों का अर्थ वे पूरी तरह भूल गए हैं। .........क्षत्रियों ने शासन कार्य, एक युग हुआ, छोड़ दिया। इस भेड़ियाधसान में वैश्य और शूद्र भी शामिल हो गए। वे ईमानदार हैं परंतु अज्ञानी हैं और दलित हैं। गीता में जो सामाजिक आदर्श बताया गया है, उसके अनुरूप कार्य करने में वे नितांत अक्षम हैं। अब चार वर्णों के बदले चार हजार जातियां हैं, इनके अस्तित्व का समर्थन करने के लिए अब लोग दुनिया भर के विज्ञानों का नाम लेते हैं। हमारे अज्ञानी जन समुदायों को यह विश्वास दिलाया गया है कि यह जाति प्रथा का घपला विशेष दैवी वरदान है जो हमारे देश को मिला है और जो भी इस प्रथा का उल्लंघन करता है, वह नरक जाता हैं। अन्य बातों की अपेक्षा यह विश्वास लोगों  को जाति प्रथा के दुष्परिणामों की ओर अचेत कर देता है।”[11] भारती ने अपनी रचनाओं  में बराबर जाति प्रथा का विरोध किया है। उसे समाप्त करने की बात कही है। इसके लिए उन्होंने महत्वपूर्ण सूत्र दिये हैं। भारतीय समाज में जाति प्रथा समाप्त हो, इसके लिए “सब जातियों के लोग आपस में खान–पान के संबंध कायम करें, खान–पान के संबंधों के साथ वे आपस में विवाह संबंध कायम करें।.........विभिन्न जातियों को आपस में विवाह संबंध कायम करने पर बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना होगा पर वे ऐसी नहीं है कि उन पर विजय न पाई जा सके। विवाह संबंध कायम करने के अलावा इस प्रथा को खत्म करने के लिए और कोई कारगार उपाय नहीं।”[12] भारत में जाति प्रथा एक विकराल समस्या बनी हुई है। यह समाज को आगे बढ़ने नहीं दे रही। इस रूढ़ परम्परा को समाप्त करने के लिए “गौतम बुद्ध से लेकर विवेकानंद तक बहुत से ज्ञानियों ने जाति प्रथा की निंदा की परंतु वह फिर भी जारी है। वह भारतीय जनता के रक्त में घुल मिल गयी है,......ढाई हजार वर्षों में बहुत से बड़े आदमियों ने इस प्रथा की निंदा की है। अब उसमें कोई गुण बाकी नहीं रह गया। वह निर्जीव हो गयी है। किसी को इस बात पर खुश न होना चाहिए कि जाति प्रथा को खत्म होने में इतना समय लग रहा है, क्योंकि जितना ही समय लगेगा, उतना ही उसका रूप भयावह होगा।”[13]
हमारे देश में परंपरा के नाम पर बहुत सी कुरीतियां  प्रचलित हैं। इनमें से कुछ का संबंध स्त्रियों से है। भारती ने यह लक्ष्य किया है कि हमारे समाज में स्त्रियों की दशा दासों के समान है। उसे मात्र भोग–विलास की वस्तु ही समझा गया है। वर्षों से लगातार पुरुष वर्ग उनका शोषण ही करता आया है। डॉ. शर्मा के अनुसार वर्तमान भारत में नारी मुक्ति आंदोलन के लिए भारती के विचार अत्यंत प्रासंगिक हैं। भारती ने नारी स्वाधीनता को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा हैं। भारती कहते हैं –“भारतवासी अंग्रेजों से अपेक्षा करते हैं कि वे उन्हें स्वाधीनता प्रदान करें। क्या भारतवासी स्वयं उसी तरह निःस्वार्थ भाव से नारी को स्वतंत्र करेंगे।”[14] अंग्रेजों की गुलामी ख़त्म होने पर केवल पुरुषों को स्वाधीन नहीं होना है, उनके साथ स्त्रियों का भी स्वाधीन होना जरुरी है। भारती कहते हैं कि जब हम भारतीय महिलाओं की शिक्षा के बारे में विचार करते हैं तब  हम “ इस बात का ध्यान रखते हैं कि वह शिक्षा इतनी ही हो कि वे कुछ नैतिक उपदेश वाली कहानियां पढ़ लें, पतिव्रता का धर्म सरहाने वाले कुछ उपन्यास पढ़ लें और हारमोनियम जैसे घटिया बाजे पर कुछ घिसी–पिटी धुनें बजा लें। उनका मुख्य धंधा भोजन बनाना है और मानवता के जीवन और प्रगति में उनका एकमात्र योगदान बच्चे पैदा करना है; और इस सबका जो सुंदर परिणाम निकालता है, जिस पर हम कभी–कभी गर्व भी प्रगट करते हैं, वह यह कि हमारी स्त्रियां कट्टरता और रूढ़िवाद की स्तंभ हैं। इसका अर्थ यह है कि वे हमारे धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में गुलामी की परिस्थितियों को सुरक्षित और अपरिवर्तित बनाये रखने में जबरदस्त सहायता करती हैं।”[15] रूढ़िवादी होने के कारण हमारी स्त्रियां अपनी गुलामी को अपना धर्म मानती हैं एवं उसे और बढ़ावा देती। इस रूढ़िवादी मानसिकता को बदलने के लिए हमें सबसे पहले स्त्रियों को वैचारिक स्तर पर स्वाधीन करना होगा क्योंकि सामाजिक विकास की प्रक्रिया में स्त्रियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। इनके बिना एक प्रगतिशील समाज की कल्पना नहीं की जा सकती - “भारती स्त्रियों के बारे में जो कहते हैं कि उनमें जातिभेद नहीं है, सांप्रदायिक भेद नहीं है। उनके लिए सभी जातियों, सभी संप्रदायों की स्त्रियां एक विशाल दासियों का समुदाय है।”[16] उनकी दृष्टि में स्त्रियां हमारे समाज की नींव हैं। उन्हें भी पुरुषों की तरह समान अधिकार प्राप्त है। भारती का यह प्रगतिशील दृष्टिकोण उन्हें अपने समय के अन्य साहित्यकारों से एकदम अलग करता है। डॉ. शर्मा लिखते हैं – “भारती देश की सांस्कृतिक गरिमा के प्रबल समर्थक हैं परंतु वह रूढ़िवाद को इस गरिमा का पर्याय नहीं मानते। भारतीय स्वाधीनता का समर्थन करने में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध करने में, वह अपने बहुत से समकालीनों से आगे हैं और जहां तक सामाजिक क्रांति का संबंध है। वे परवर्ती बहुत-से साहित्यकारों से अब भी आगे हैं।”[17]
सुब्रह्मण्य भारती तमिल भाषा के जातीय कवि हैं। उन्होंने तमिल भाषा और साहित्य को सांस्कृतिक विरासत के रूप में अर्जित किया था। जितना उन्हें अपने देश से प्रेम था,  उतना ही अपने भाषा से प्रेम था। ब्रिटिश भारत में भारती ने तमिल जाति में राष्ट्रीय चेतना का भाव जगाया। 18 वर्ष की आवस्था में उन्होंने अपनी पत्नी को जो पत्र लिखा था, उसमें उनका भाषा प्रेम देखा जा सकता है। वे लिखते हैं –“मेरी प्यारी पत्नी चेलम्मा को आशीर्वाद। तुम्हारा पत्र मिला। मैं  ऐसे कोई कार्य नहीं कर रहा हूं जिनसे तुम इतना डर रही हो।........इस तरह चिंतित रहने के बजाये अगर तुम तमिल अच्छी तरह पढ़ो, तो मैं  बहुत प्रसन्न होउंगा।”[18] भारती का ध्यान तमिल भाषा पर था। वह मुख्य रूप से तमिल भाषा के विकास के बारे में सोच रहे थे इसलिए वे चाहते थे कि उनकी पत्नी तमिल अच्छी तरह से पढ़ सके।
अंग्रेज भारतीय भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी को श्रेष्ठ भाषा समझते थे। वे भारतीय भाषाओं के लिए वर्नाकुलर जैसे शब्द का प्रयोग घृणा भाव से करते थे। उनका मानना था कि भारतीय भाषायें अविकसित हैं। उसमें उच्च शिक्षा देने की पर्याप्त क्षमता नहीं हैं। इसलिए यहां भारतीय भाषाओं में शिक्षा न देकर अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था होनी चाहिए। भारती अंग्रेजो की इस शिक्षा नीति के पक्ष में नहीं थे। उनके अनुसार भारतीय भाषाओं में महान साहित्य है। वे कहते हैं – “मैं समझता हूं कि समय आ गया है, अब इस तरह की बहस में भाग लेने वाले सभी पक्षों को बता दिया जाए कि अधिकांश भारतीय भाषओं में महान ऐतिहासिक और जीवंत साहित्य है। नि:संदेह, पिछले दिनों आर्थिक परिस्थितियों के कारण इनकी आभा कुछ मंद हुई है। इस देश के अंग्रेजी  शिक्षित अल्पसंख्यक जन क्षमा के योग्य हैं कि वे हमारे जातीय साहित्यों की उच्चतर अवस्थाओं के बारे में कुछ भी नहीं जानते। लेकिन उनके लिए यह अच्छा होगा कि हमारी भाषाओं के बारे में, ऊंचे आसन से संरक्षकों की तरह लिखना और बोलना छोड़ दें। उनका यह ढंग हमें अच्छा नहीं लगता। उदाहरण के लिए तमिल भाषा में ऐसा जीवंत काव्य और दार्शनिक साहित्य है जो मेरी समझ में इंग्लैण्ड की ‘वर्नाकुलर’ से कहीं अधिक भव्य है।”[19] अंग्रेज यहां की भाषा और साहित्य को समझे बिना उसके लिए ‘वर्नाकुलर’ जैसे शब्द का प्रयोग कर रहे थे। भारती भी यूरोपीय साहित्य के लिए ‘वर्नाकुलर’ शब्द का प्रयोग करते हैं। भारती ने सिर्फ अंग्रेजों की ही नहीं बल्कि अंग्रेजी जानने वाले अल्पसंख्यक भारतीयों की भी आलोचना की है, जो भारतीय साहित्य की श्रेष्ठ उपलब्धियों से अपरिचित हैं।
भारती तमिल के समर्थक थे। तमिलनाडु में वे तमिल को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे। लेकिन राष्ट्र भाषा के लिए वे संस्कृत का प्रचार आवश्यक मानते थे।  उनका विचार था - “पूरे भारतवर्ष में सदा की तरह संस्कृत का प्रचार–प्रसार हो। देश भर में संस्कृत का अध्ययन– अध्यापन इतना बढ़ जाये कि हम सही अर्थों में राष्ट्रीय एकता की स्थापना कर सकें।”[20] भारती तमिलनाडु में तमिल और राष्ट्र की एकता के प्रचार–प्रसार के लिए संस्कृत को बढ़ावा देना चाहते थे। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अन्य भारतीय भाषाओं का विरोध करते थे। बनारस में रहते हुए वे हिंदी अच्छी तरह सीख गए थे। इतना ही नहीं तमिलनाडु में उन्होंने हिंदी  के पठन–पाठन की व्यवस्था भी की थी। मई, 1908 में तिलक को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा था –“एक चिट्ठी मुझे पंडित कृष्ण वर्मा से मिली है, जिसमें हमसे कहा गया है कि हम मद्रास में चेन्नै जन संगम के सौजन्य से हिंदी पाठ की एक कक्षा खोलें। हमने तो पहले ही एक छोटी–सी कक्षा खोल रखी है। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इस कक्षा के द्वारा अध्ययन करने वालों की संख्या में वृद्धि हो जाएगी। इसकी प्रगति के बारे में मैं बाद में सूचित करूंगा”।[21] स्पष्ट है कि तमिलनाडु में भारती बहुत पहले ही हिंदी का प्रचार– प्रसार आरम्भ कर चुके थे।
शिक्षा के क्षेत्र में भारती अपने पिता की तरह औद्योगिक शिक्षा के पक्षपाती थे। वे नौजवानों से साहित्य के साथ–साथ औद्योगिक शिक्षा प्राप्त करने की बात करते हैं। भारती का मानना था कि हम जो शिक्षा प्राप्त कर रहे है, वह सिर्फ साहित्य  सृजन तक सीमित नहीं होनी चाहिए बल्कि विभिन्न प्रकार के उद्योग एवं व्यवसाय से भी संबंधित होनी चाहिए। तभी हमारे देश में धन की वृद्धि हो पायेगी। डॉ. शर्मा लिखते हैं – “भारती का स्वप्न था कि स्वाधीन भारत में औद्योगिक शिक्षा की वयवस्था होगी। यहां भारतीय जनता अस्त्र – शस्त्र बनाएगी, कागज का उत्पादन करेगी, वायुयान बनाएगी, कृषि के लिए उपयोगी यंत्र बनाएगी और ऐसे जलयान बनाएगी जिससे दुनियां कांप उठे।”[22] राष्ट्रीय शिक्षा के अंतर्गत भारती प्रादेशिक इतिहास के महत्त्व पर बहुत ज्यादा जोर देते हैं। वे कहते हैं – “जिस गांव या शहर में स्कूल खोला जा रहा है, वह गांव या शहर जिस प्रदेश या राज्य में स्थित हो, वहां का इतिहास विशेष रूप से पढ़ाया जाना चाहिए।”[23] इसी तरह भूगोल पढ़ते समय भारती अध्यापकों से जातीय प्रदेशों पर ध्यान देने के लिए कहते हैं। “भारत का भूगोल, यहां के विभिन्न प्रदेश, भाषागत विभिन्नता के अनुसार स्वाभाविक रूप से विभक्त देश के विभिन्न भूखंड – इन विषयों को  बड़ी सावधानी से पढ़ाया जाना चाहिए।”[24]
भारती ने तमिल में काव्य रचते समय वहां की लोकसंस्कृति को अपने साहित्य में  समेट  लिया है। उनके साहित्य में एक तरफ वेद, उपनिषद और गीता के संदेश हैं तो दूसरी तरफ तमिलनाडु के लोकगीत और लोकनृत्य है। ‘कुम्मी’ नाम के लोकनृत्य के बारे में भारती कहते हैं –“नृत्य की यह विधा शायद दक्षिण भारत में ही पाई जाती है। इसमें युवतियां एक घेरा बनाकर नाचती हैं। इस सुंदर नृत्य के साथ गाये जाने वाले गीत को भी कुम्मी कहा जाता है।”[25] डॉ. शर्मा की दृष्टि में भारती ने कहीं–कहीं पर तमिल भाषा का महत्व प्रतिपादित करने के लिए प्रेमकथाओं एवं किंवदंतियों का भी सहारा लिया है - “तमिल मूर्तियां, तमिल कहावतें,तमिल प्रकृति, ये सब भारती के काव्य में समेट ली गयी हैं। इसलिए वह राष्ट्रीय कवि होने के साथ तमिलनाडु के जातीय कवि भी हैं।”[26]
अस्तु, सुब्रह्मण्य भारती ने भाषा और साहित्य को जनसाधारण के निकट लाने का प्रयास किया। भारती के लिए जातीयता और राष्ट्रीयता में कोई विरोध नहीं है-  “तमिल भाषा की जय, तमिल जनता की जय, भारती के लिए दोनों एक ही चीज हैं। तमिल जन की जय बोलने के साथ वह भारत भूमि की जय भी बोलते हैं।”[27] उन्हें अपने देश की सांस्कृतिक विरासत पर गर्व था। उससे सुसज्जित होकर उन्होंने दृढ़तापूर्वक साम्राज्यवाद का विरोध किया - “वे पूंजीवाद के विरोधी हैं। दार्शनिक चिंतन और आचार–विचार के स्तर पर भारत में जो बहुत–सी रूढ़ियां प्रचलित थीं, उन्होंने उनका भी डटकर विरोध किया।”[28] उनके चिंतन की मुख्य धारा वेदांत है। वेदांत के आधार पर ही उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को जातीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर मिलाने का प्रयत्न किया - “साहित्य के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी क्रांति मानी जाएगी ...........भारती की कविता का मूल स्वर देशभक्ति ही रहा है और उसके आधार पर ही सामजिक सुधार, भाषा प्रेम आदि विभिन्न विषयों को काव्य का विषय बनाया था।”[29]
संपर्क–  बिजय कुमार रबिदास (शोधार्थी), 16 वेस्ट कापते पारा रोड, पोस्ट– आतपुर , विश्व –भारती ( शान्तिनिकेतन ) जिला –उत्तर 24 परगना,पश्चिम बंगाल – 743128, दूरभाष – 8100157970, ईमेल पता - bijaypresi@rediffmail.com


[1] प्रेमानंद कुमार,अनुवादिका – सुमति अय्यर, भारतीय साहित्य के निर्माता भारती, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ संख्या 23
[2] रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश भाग-2, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2012,पृष्ठ संख्या 544
[3] उपर्युक्त, पृष्ठ संख्या 545
[4]रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश भाग-2, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2012,पृष्ठ संख्या 520    
[5] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 521
[6] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 521
[7] रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश भाग-2, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2012,पृष्ठ संख्या 522
[8] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 522
[9] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 522
[10] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 523
[11] रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश भाग-2, किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2012,पृष्ठ संख्या 496
[12] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 496
[13]उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 496, 497
[14] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 500
[15] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 500
[16] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 503
[17] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 502
[18] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 529
[19] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 484, 485
[20] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 525
[21] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 526
[22] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 526
[23] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 527
[24] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 527
[25] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 532, 533
[26] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 534
[27] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 532
[28] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 491
[29] उपर्युक्त,पृष्ठ संख्या 545, 546
मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014) ISSN   2320 – 835X
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 

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