बुधवार, 27 अगस्त 2014

प्रेमचंद और भगत सिंह -डॉ.आशुतोष पार्थेश्वर






गांधी की डेली-रिपोर्टिंग करने वाले प्रेमचंद भगत सिंह के विषय में कुछ भी नहीं लिखते हैं। आखिर क्यों? यह एक बड़ा सवाल है? क्या ये वही प्रेमचंद थे जिन्होंने वतन की हिफाजत में गिरनेवाले खून के आखिरी कतरे को दुनिया का सबसे अनमोल रतनमाना था, क्या ये वही प्रेमचंद थे जिनका शेख मखमूरवतन के लिए अपना अपमान तक सह लेता है, क्या ये वही प्रेमचंद थे जो राणा प्रतापकी संघर्ष क्षमता का जयगान कर चुके थे, क्या ये वही प्रेमचंद थे जिन्होंने रानी सारंधके जरिए स्वाभिमान और स्वतंत्रता को सबसे बड़ा मूल्य सिद्ध किया था।
       निश्चय ही, ये तनिक भिन्न प्रेमचंद हैं। क्या इसे बदलते हुए समय के साथ प्रेमचंद की परिपक्व समझ  कहकर चलता किया जा सकता है? इसका निर्धारण कैसे हो सकता है कि दोनों (प्रेमचंद) में अधिक सच्चा और अधिक खरा कौन है। स्वाभाविक कौन है, देश की धड़कन को पकड़ने वाला, पहचानने वाला कौन है! क्या आरंभिक रचनाओं का उत्साह युवावस्था के जोश से अधिक कुछ न था तथा प्रेमचंद अब परिवर्तन और आजादी की बहुत प्रौढ़ समझ रख रहे थे या इस परिवर्तन के कारण कुछ और ही थे!


     23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की शहादत के बाद समूचे देश में गुस्से की आग फैल गई। इन शहीदों में किसी को अपना बेटा दिखा तो किसी को अपना भाई। भावनाओं का वैसा ज्वार सदियों में कभी-कभार ही उठता है। महात्मा गांधी भगत सिंह की नीतियों के विरोधी थे, इरविन से वे इस सजा को बदलवा न पाए, फिर भी 24 मार्च को हिंदुस्तान टाइम्सके लिए दिए गए वक्तव्य में उन्होंने कहा, भगत सिंह और उसके साथी अमर शहीद हो गए हैं। उनकी मृत्यु से आज लाखों व्यक्ति दुखी हैं। मैं इन नवयुवक देशभक्तों की लगन की भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूं। परंतु मैं देश के नवयुवकों को इस बात की चेतावनी देता हूं कि वे उनके पथ का अवलंबन न करें।[1]
इसी समय जवाहर लाल नेहरू ने कहा, “मैंने इन देशभक्तों के अंतिम दिनों में अपनी जबान पर लगाम लगा रखी थी, क्योंकि मुझे संदेह था कि मेरे जबान खोलते ही कहीं फांसी की सजा रद्द होने में बाधा न पहुंचे। यद्दपि मेरा हृदय बिल्कुल पक गया था और खून से उबाल खा रहा था, परंतु तिस पर भी मैं मौन था। परंतु अब, फैसला हो गया। इस देश के लोग मिलकर भी भारत के ऐसे युवक की रक्षा न कर सके, जो हमारा प्यारा रत्न था और जिसका अदम्य उत्साह, त्याग और विकट साहस भारत के युवकों को उत्साहित करता था। भारत आज अपने प्यारे बच्चों को फांसी से छुड़ाने में असमर्थ है। इस फांसी के विरोध में देशभर में हड़तालें होंगी और जुलूस निकलेंगे। हमारी इस परतंत्रता और असहायता के कारण देश के कोने-कोने में शोक का अंधकार छा जाएगा। परंतु उनके ऊपर हमें अभिमान भी होगा और जब इंग्लैंड हमसे संधि का प्रस्ताव करेगा, उस समय उसके और हमारे बीच में भगत सिंह का मृत शरीर उस समय तक रहेगा, जब तक हम उसे विस्मृत न कर दें।[2]
       भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा का विरोध करनेवालों में एक मुखर स्वर सुभाषचंद्र बोस का था। इस सजा का विरोध करने के लिए 20 मार्च 1931 को दिल्ली में आयोजित रैली में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, आज सारा हिंदुस्तान जानता है कि भगत सिंह और उनके साथियों राजगुरू और सुखदेव को किसी भी वक्त फांसी दी जा सकती है। मुझे यह जरूर कहना चाहिए कि कल दोपहर जब मैं दिल्ली स्टेशन पर उतरा तो एक भयानक थक्के की शक्ल में यह खबर मुझे मिली।....हम बस एकजुट होकर और एक आवाज में यह कहते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों की यह सजा तुरंत बदल दी जाए। भगत सिंह आज एक आदमी नहीं है बल्कि तरुण भारत की एक पहचान है, भारतीय क्रांति के एक संस्थान हैं। वे विद्रोह की भावना के प्रतीक हैं जो कि आज पूरे भारत में फैली हुई है। हम उनके तरीकों से असहमत हो सकते हैं, मगर उनके निःस्वार्थ देशप्रेम, त्याग और बलिदान की पवित्र भावना को अनदेखा नहीं कर सकते। वे हमारे गर्व और गौरव के प्रतीक हैं। भारतमाता की श्रेष्ठतम संतान हैं।[3]
       कांग्रेस का कराची अधिवेशन सुनिश्चित था, और इस बीच भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई। इस शहादत ने कांग्रेस और विशेषकर गांधी के लिए युवाओं के भीतर एक स्थायी दुराव पैदा कर दिया। उनके गुस्से का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि 25 मार्च 1931 को कराची कांग्रेस में भाग लेने गए गांधी को काले झंडे दिखाए गए और उनका तीखा विरोध किया गया। नौजवान भारत सभा ने कराची में कांग्रेस के अधिवेशन के समानांतर अपना सम्मेलन आयोजित किया और सुभाषचंद्र बोस उसकी अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किए गए। उन्होंने सभी कैदियों की रिहाई न करवा पाने के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराया। फांसी के बाद उन्होंने लिखा, भगत सिंह नौजवानों के बीच जागृति का प्रतीक बन गए थे।....नौजवानों के एक बड़े तबके के बीच यह भावना थी कि गांधी ने भगत सिंह और उसके साथियों के साथ धोखा किया है।[4]
       कराची कांग्रेस के राष्ट्रपति (अध्यक्ष) वल्लभभाई पटेल थे। अपने अभिभाषण में उन्होंने कहा, सरदार भगत सिंह, श्री सुखदेव और श्री राजगुरू की फांसी से समस्त देश में असंतोष की आग फैल गई है। मैं उनकी कार्यपद्धति से सहमत नहीं हो सकता और इसमें संदेह नहीं कि राजनीतिक हत्या उतनी ही अवांछनीय है जितनी एक साधरण हत्या। परंतु सरदार भगत सिंह और उनके साथियों के अनन्य देशप्रेम, उनके अतुल्य त्याग, साहस और निर्भीकता की मैं स्तुति किए बिना नहीं रह सकता। एक विदेशी गवर्नमेंट की निष्ठुरता का उतना परिचय कभी नहीं मिला, जितना इन तीनों वीरों को फांसी पर लटकाते समय। समस्त राष्ट्र ने एक स्वर से उनकी फांसी का विरोध किया और उनकी फांसी की सजा रद्द करने की प्रार्थना की, परंतु सब प्रार्थनाएं निष्ठुरतापूर्वक ठुकरा दी गईं। परंतु हमें इस फांसी के आवेश में आकर अपने पथ से भ्रष्ट न हो जाना चाहिए। पशुबल के इस नृशंस प्रदर्शन से हृदयहीन शासन विधान की ओर हमारी घृणा बढ़ती जा रही है; और यदि हम अपने निश्चित पथ पर आरूढ़ रहेंगे तो उससे हमारी शक्ति की वृद्धि होगी और हमें अपने उद्देश्य की प्राप्ति में भी सफलता प्राप्त होगी। ईश्वर इन वीर देशभक्तों की आत्माओं को शांति दे और उनके कुटुंबियों को इस बात से संतोष मिले, कि समस्त राष्ट्र ने उनकी मृत्यु पर खून के आंसू बहाए हैं।[5]
       भगत सिंह और उनके साथी भारतीय प्राणों में घुल गए थे। समूचा देश उन चिर युवाओं की शहादत से आंदोलित था। हिंदी सहित भारत की दूसरी विभिन्न भाषाओं में इन शहीदों पर लिखने का सिलसिला चल पड़ा।[6] हिंदी में इसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए उस समय की दो पत्रिकाओं को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। मासिक पत्रिका माधुरीने अप्रैल 1931 के अंक में मुखपृष्ठ पर कराची कांग्रेस के अध्यक्ष सरदार पटेल की तस्वीर छापी। अंदर में एक पूरे पृष्ठ (आर्ट पेपर) पर इन शहीदों की तस्वीरें छपीं। माधुरीके संपादक श्री रामसेवक त्रिपाठी थे। इन तस्वीरों के साथ यह नोट था, ‘स्वतंत्रता के तीन दीवाने; यदि ये तीनों त्यागी वीर अहिंसा के पुजारी होते तो भारत को बहुत लाभ पहुंचा सकते। क्योंकि अहिंसा और शांति ही हमारा उद्धार कर सकती है। 1931 का साल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक बेहद महत्त्वपूर्ण वर्ष है। भगत सिंह की फांसी के बाद 25 मार्च 1931 को कानपुर में गणेशशंकर विद्यार्थी सांप्रदायिक दंगे की भेंट चढ़ गए। इन शहीदों की तस्वीरों के साथ उसी पृष्ठ पर विद्यार्थीजी की भी तस्वीर छपी थी। इससे पूर्व 27 फरवरी को इलाहाबाद में चंद्रशेखर आजाद शहीद हुए थे।
       दूसरा उदाहरण चांदका दिया जा सकता है। चांदने भी अप्रैल अंक में इन शहीदों की तस्वीरें छापीं। भगत सिंह चांदके लिए काम कर चुके थे। चांदने तस्वीरों के साथ यह नोट लगाया, लाहौर कांड के तीन विप्लवकारी / जिन्हें सारे देश के विरोध करने पर भी 23 मार्च की शाम 7 बजे लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया / खुश रहो अहले-वतन हम तो सपफर करते हैं। माधुरीमें अहिंसा के रास्ते को सही बताया गया था तो चांदमें इन शहीदों की उपस्थिति तनिक अधिक भावपूर्ण और संवेदित करने वाली थी।
       यह चर्चा कुछ चीजें समझने के लिए आवश्यक है। भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के विषय में महात्मा गांधी की भूमिका और उनकी मंशा क्या थी, इससे सभी परिचित हैं। गांधी की राजनीति पर बहस करने से इतर यहां यह उद्देश्य है कि बंग-भंग आंदोलन के समय नेशनलिस्ट राजनीति का समर्थन करने वाले प्रेमचंद इस शहादत और क्रांतिकारी आंदोलन के संबंध में क्या विचार रखते थे, इससे परिचित हुआ जाए। प्रेमचंद की समझ और सोच तथा इस आंदोलन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया को देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि वे हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं के शीर्षस्थ लेखक के रूप में समादृत थे। वे कांग्रेस से सक्रिय रूप से जुड़े थे और उस समय हंसनिकाल रहे थे।[7] भगत सिंह जैसे युवा बौद्धिक के संघर्ष को, जिसकी आंखों में मनुष्य मात्र की मुक्ति का सपना था और जिसका लक्ष्य अंग्रेजों के शोषण के साथ ही तमाम तरह के अत्याचारों से मुक्ति पाना और दिलाना था; को प्रेमचंद किस तरह देखते हैं। अचरज की बात है कि प्रेमचंद के हजारों पृष्ठों के विपुल साहित्य में भगत सिंह के बारे में लिखा कुछ नहीं मिलता। न उनकी कहानियों में, न संपादकीय टिप्पणियों में, न लेखों में। उनकी पत्रिका हंसमें माधुरीया चांदकी तरह इनकी कोई तस्वीर नहीं छपी और न ही इनका कोई उल्लेख मिलता है। यों, प्रेमचंद हसरत मोहानी पर लिखते हैं[8], सरदार पटेल पर कटाक्ष करते हैं[9], नेहरू पर लिखते है[10], सांप्रदायिकता और दूसरी समस्याओं पर लिखते हैं; देश-दुनिया की अनेक छोटी-बड़ी घटनाओं पर लिखते हैं; गांधी के उपवास और स्वास्थ्य की एक-एक सूचना देते हैं। गांधी उनके कथा-साहित्य में कई बार उपस्थित होते हैं। लेकिन भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की चर्चा अपनी कहानियों, लेखों या संपादकीय में वे कहीं नहीं करते हैं। हंसके मार्च 1931 के अंक में प्रेमचंद ने गणेशशंकर विद्यार्थी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनपर लिखा।[11] पर, भगत सिंह की चर्चा नहीं की।
       भगत सिंह का एकमात्र उल्लेख उनके पत्र में मिलता है। 24 मार्च 1931 को (भगत सिंह की फांसी के अगले ही दिन) दयानारायण निगम को लिखे पत्र में वे इस घटना का उल्लेख करते हैं, कराची का इरादा था मगर आज भगत सिंह की फांसी ने हिम्मत तोड़ दी। अब किस उम्मीद पर जाऊं। वहां गांधी का मजाक उड़ेगा, कांग्रेस गैरजिम्मेदार, शोरिशपसंद तबके के हाथ में आ जाएगी और हम लोगों के लिए उसमें जगह नहीं है। आइंदा क्या तर्जे अमल अख्तियार
करना पड़े कह नहीं सकता मगर फिलहाल दिल बैठ गया है और मुस्तकबिल बिल्कुल तारीक नज़र आता है। इधर बनारस, मिर्जापुर, आगरे में जो हालात हुए उनसे गवर्नमेंट का हौसला बढ़ेगा, यही मेरा कयास है। मगर इससे ज्यादा हिमाकत कोई गवर्नमेंट नहीं कर सकती थी। तीन आदमियों की सजा में तबदीली करके गवर्नमेंट कितना अच्छा असर पैदा कर सकती थी। पर उसके तर्जे अमल ने अब साबित कर दिया कि तालीफ कल्ब उसने अभी तक नहीं किया और अब भी वह अपनी उसी कदीम गैर जिम्मेदाराना रविश पर कायम है।[12]
       कराची कांग्रेस में गांधी का विरोध हुआ पर कांग्रेस पर उनका प्रभाव बना रहा। यह प्रेमचंद के लिए संतोष और प्रसन्नता की बात थी। गांधी की विजय से आह्लादित प्रेमचंद हंसमें मार्च 1931 के संपादकीय में लिखते हैं, कांग्रेस का अधिवेशन समाप्त हो गया। हमें कुछ शंका थी, कि शायद गांधी-इरविन समझौते के विरोधी कुछ गुल न खिलाएं, पर वह शंका निर्मूल सिद्ध हुई। विरोधियों ने चेष्टा तो की कि महात्मा गांधी के विरुद्ध प्रदर्शन किया जाए, और काली झंडिया भी निकालीं, लेकिन महात्माजी के प्रभाव के सामने उनकी कुछ चली नहीं। कांग्रेस ने बहुमत से देहली के समझौते का समर्थन किया और महात्माजी के नेतृत्व में कांग्रेस प्रतिनिधियों का सम्मिलित होना सुनिश्चित हुआ।[13] यह प्रेमचंद के लिए बड़े चैन की बात थी कि कांग्रेस शोरिशपसंद तबके के हाथमें न गई। प्रेमचंद ने अपने संपादकीय में कई चीजों पर पर्दा डाल दिया। बहुमतकी विजय के आगे अल्पमतका विरोध उन्हें महत्वहीन लगा। इस प्रस्ताव का मसौदा महात्मा गांधी ने तैयार किया था। इसके पक्ष में 897 और विपक्ष में 816 मत पड़े थे।[14] प्रेमचंद के ही शब्द लें, तो यह गांधी के प्रभावकी जीत थी, न कि मसौदे की।
       ऊपर उद्धृत पत्रांश से कई सवाल खडे़ होते हैं। भगत सिंह को मिली फांसी से प्रेमचंद दुखी थे, वे चाहते थे कि उनकी सजा में परिवर्तन हो जाता तो अच्छा था। कराची ही नहीं समूचे देश में उन्हें इसकी प्रतिक्रिया की संभावना दिखाई दी। प्रेमचंद ने यह पत्र इसलिए नहीं लिखा था कि वे दयानारायण निगम से अपने विचार साझा करना चाहते थे। बल्कि यह बताने के लिए अब वे इन हालात में कराची न जा पाएंगे। और, न जा पाने का कारण क्या है? जनाक्रोश! असंतोष! अंग्रेजों से, गांधी से, किसका - भारतीय जनता का। युवाओं का। भगत सिंह की शहादत के बाद गांधी का विरोध करनेवालों को वे एक झटके से उपद्रवी कह देते हैं। उनके भीतर भगत सिंह और उनके साथियों के लिए सम्मान नहीं बल्कि दयाभाव था जो गांधी के नेतृत्व और सम्मान का सवाल उपस्थित होते ही एक वैचारिक कट्टरता का रूप ले लेता थी।
        प्रेमचंद वस्तुस्थिति को बहुत साफ-साफ देख रहे थे, उन्हें रत्ती भर संदेह नहीं था कि भगत सिंह की फांसी के बाद हालात और बदलेंगे। प्रेमचंद ने व्यक्तिगत पत्र में इस घटना का उल्लेख किया पर वे सार्वजनिक रूप से इसका उल्लेख कहीं नहीं करते हैं - कहानियों में नहीं, उपन्यासों में नहीं, निबंधों में नहीं। गांधी की डेली-रिपोर्टिंग करने वाले प्रेमचंद भगत सिंह के विषय में कुछ भी नहीं लिखते हैं। आखिर क्यों? यह एक बड़ा सवाल है? क्या ये वही प्रेमचंद थे जिन्होंने वतन की हिफाजत में गिरनेवाले खून के आखिरी कतरे को दुनिया का सबसे अनमोल रतनमाना था, क्या ये वही प्रेमचंद थे जिनका शेख मखमूरवतन के लिए अपना अपमान तक सह लेता है, क्या ये वही प्रेमचंद थे जो राणा प्रतापकी संघर्ष क्षमता का जयगान कर चुके थे, क्या ये वही प्रेमचंद थे जिन्होंने रानी सारंधके जरिए स्वाभिमान और स्वतंत्रता को सबसे बड़ा मूल्य सिद्ध किया था।
       निश्चय ही, ये तनिक भिन्न प्रेमचंद हैं। क्या इसे बदलते हुए समय के साथ प्रेमचंद की परिपक्व समझ  कहकर चलता किया जा सकता है? इसका निर्धारण कैसे हो सकता है कि दोनों (प्रेमचंद) में अधिक सच्चा और अधिक खरा कौन है। स्वाभाविक कौन है, देश की धड़कन को पकड़ने वाला, पहचानने वाला कौन है! क्या आरंभिक रचनाओं का उत्साह युवावस्था के जोश से अधिक कुछ न था तथा प्रेमचंद अब परिवर्तन और आजादी की बहुत प्रौढ़ समझ रख रहे थे या इस परिवर्तन के कारण कुछ और ही थे! प्रेमचंद के लिए क्रांति का मार्ग व्यर्थ था। वे भगत सिंह और उनके साथियों का मार्ग सही नहीं मानते। भगत सिंह की शहादत के तीन महीने बाद वे लिखते हैं, “महात्मा गांधी क्रांति नहीं चाहते और न क्रांति से आज तक किसी जाति का उद्धार हुआ है। महात्माजी ने हमें जो मार्ग बतलाया, उससे क्रांति की भीषणता के बिना ही क्रांति के लाभ प्राप्त हो सकते हैं, लेकिन एक ओर सरकार और उसके पिट्ठू जमींदार और दूसरी ओर हमारे कुछ तेजदम और जोशीले कार्यकर्ता नादिरशाह बने हुए क्रांति के सामान पैदा कर रहे हैं।[15] यह समझने की जरूरत है कि प्रेमचंद यहां किसे नादिरशाह कह रहे थे और क्यों? उनकी शिकायत केवल नादिरशाहों से है, सरकार से तो हमें शिकायत नहीं। हमें तो शिकायत अपने उन जोशीले भाइयों से है जो महात्माजी के किए-धरे को मिट्टी में मिला रहे हैं। हमारी जीत पहले भी धर्म पर जमे रहने में  थी, अब भी है और आगे भी रहेगी।[16] साफ है कि प्रेमचंद वही बोली बोल रहे थे, जो वे गांधी से सुन-सीख रहे थे। प्रेमचंद शांति और धर्म के आदर्श से कितने गहरे जुड़े हैं, इसकी चर्चा बाद में होगी, पर क्या उन्हें यह नहीं लगता था कि इस तरह के कदम से भगत सिंह अचानक ही आश्चर्यजनक रूप से लोकप्रिय हो गए[17] थे। और कुछ समय के लिए तो उन्होंने उस समय के अग्रणी राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में, मि. गांधी को भी मात दे दी थी।[18] क्या वे अपने नायक (गांधी) की चमकदार छवि को बनाए रखने के लिए क्रांतिकारियों को नादिरशाह कह रहे थे! प्रेमचंद इतिहास के विद्यार्थी थे, साहित्यकार थे, इतिहास का ज्ञान और शब्दों की संपत्ति उन्होंने किसी से कम न पाई थी पर क्रांतिकारियों को नादिरशाहकहने से उनकी किस समझ का पता चलता है। क्या प्रेमचंद उनके लिए न्यूनतम संवेदना भी बचाकर नहीं रख सकते थे! खुदीराम बोस की शहादत पर बेचैन होने वाले क्या यही प्रेमचंद थे![19]
       प्रेमचंद जिस क्रांति की आलोचना कर रहे थे वह क्रांति इन युवाओं को आजादी का रास्ता दिखाती थी, वह आजादी जो मानवजाति का अत्याज्य अधिकार है। वे युवा कहते थे, इस क्रांति की वेदी पर हम अपनी जवानी को नैवेद्य बनाकर लाए हैं, क्योंकि ऐसे महान लक्ष्य के लिए कोई भी बलिदान अधिक नहीं है। हम संतुष्ट हैं। हम क्रांति के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इंकलाब जिंदाबाद![20]
       ये भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथी ही थे जिन्होंने इंकलाब जिंदाबादको कौमी नारा बना दिया था। निर्भीकता उनके आंदोलन का प्राण तत्त्व था। उन्होंने सेंट्रल असेंबली में बम इसलिए फेंका था ताकि बहरी सरकार उनकी आवाज सुन सके। प्रेमचंद को यह तरीका नहीं रुचा। हंसमें मार्च 30 में वे युवकों का कर्तव्यबताते हुए लिखते हैं, “स्वराज्य वास्तव में तुम्हारे लिए है, और तुम्हें उसके आंदोलन में प्रमुख भाग लेना चाहिए। ....लेकिन यह न समझो कि केवल स्वराज्य का झंडा गाड़कर, और इंकलाबकी हांक लगाकर तुम अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हो। तुम्हें मिशनरी जोश और धैर्य के साथ इस काम में जुट जाना चाहिए। संसार के युवकों ने जो कुछ किया है, वह तुम भी कर सकते हो। क्या तुम स्वराज्य का संदेश गांवों में नहीं पहुंचा सकते?[21] प्रेमचंद का सोचना गलत न था, पर वह यह नहीं देख पा रहे थे कि वे इंकलाबी वही कर रहे थे जो अपने-अपने देशों में परिवर्तनकामी युवाओं ने किया था।
       एक दौर में बलिदान और संघर्ष के नारे से अभिभूत रहने वाले प्रेमचंद अब गांधी के समानांतर किसी और को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं दिखते हैं। विकास नारायण राय ने अपने एक लेख में यह दिखाने का प्रयास किया है कि प्रेमचंद गांधी और भगत सिंह दोनों की विचारधरा को साधने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार प्रेमचंद और भगत सिंह में समानता देखनी हो तो दोनों की सांप्रदायिकता, दलित, राष्ट्रभाषा, नास्तिकता, स्वराज की अवधारणा, ब्रिटिश राज की बदनीयती जैसे मामलों पर लगभग एक-दूसरे की प्रतिध्वनियां जैसी वे टिप्पणियां देखी जा सकती हैं जिनमें लगेगा कि प्रेमचंद कहीं-कहीं गांधी से पूरी तरह बेसुरे तक हो गए हैं। पर जब स्वयं गांधी बेसुरे नहीं हो सकते थे भला प्रेमचंद कैसे होते! गांधी भी इन मुद्दों पर उसी तरह समाज निरपेक्ष नहीं हो सकते थे जैसे भगत सिंह।[22]
       यह वाकई प्रीतिकर होता यदि प्रेमचंद बिना विचलन के भगत सिंह के साथ दिखाई देते; हैरत तो तब होती है जब वे कई बार गांधी के विचारों से भी अलग होते दिखते हैं, पर सार्थक रूप से नहीं बल्कि एक भटकाव के तहत। प्रेमचंद गांधी के आदर्शों से, अहिंसा से कितना जुड़े हुए हैं और भगत सिंह के साम्यवादी और प्रगतिवादी विचारों से कितने एकसुर हैं, इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिए।
       जनवरी 1931 में चंदनमें प्रेमचंद की कहानी जेलप्रकाशित हुई। कई तरह की नाटकीयताओं से भरी इस कहानी का अंत जेल-जीवन के लिए आकर्षण सिरजते हुए होता है। कहानी की नायिका मृदुला कहती है, “मैं जानती हूं, मैं जेल के बाहर रहकर जो कुछ कर सकती हूं, जेल के अंदर उससे कहीं ज्यादा कर सकती हूं। जेल के बाहर भूलों की संभावना है, बहकने का भय है, समझौते का प्रलोभन है, स्पर्धा की चिंता है, जेल सम्मान और भक्ति की एक रेखा है, जिसके भीतर शैतान कदम नहीं रख सकता। प्रसंगवश, जेल-जीवन के संबंध में भगत सिंह के विचार भी देख लेने चाहिए। सुखदेव के नाम पत्र में वे लिखते हैं, “मैं आपको बताता हूं कि जेलों में और केवल जेलों में ही कोई व्यक्ति अपराध एवं पाप जैसे महान सामाजिक विषय का प्रत्यक्ष अध्ययन करने का अवसर पा सकता है। मैंने इस विषय का कुछ साहित्य पढ़ा है और जेल ही ऐसे विषयों का स्वाध्याय करने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त स्थान है। स्वाध्याय का सर्वश्रेष्ठ भाग है- स्वयं कष्टों को सहना।[23] यहां मृदुला और भगत सिंह के कथनों में सतही साम्य दिख सकता है और, उस साम्य के कारण प्रेमचंद और भगत सिंह एकसुर में दिखाई पड़ सकते हैं। पर, किसी व्यक्ति की समझ को परखने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी भाषा और भाषिक प्रतीकों का उत्खनन किया जाए। कहानी की नायिका मृदुला भक्तिऔर शैतानका उल्लेख करती है; जबकि भगत सिंह के चिंतन और भाषा में ऐसे तत्त्वों के लिए कोई स्थान नहीं था। यदि मृदुला के विचार से प्रेमचंद को अलग होने की छूट दी भी जाए तो उनके जीवनसारमें व्यक्त विचारों से उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। हंसके जनवरी-फरवरी 1932 के अंक में प्रकाशित प्रेमचंद के जीवनसारका अंत इसतरह होता है, इस अनुभव ने मुझे कट्टर भाग्यवादी बना दिया है। अब मेरा दृढ़ विश्वास है कि भगवान की जो इच्छा होती है वही होता है, और मनुष्य का उद्योग भी इच्छा के बिना सफल नहीं होता।[24] साफ है कि भगत सिंह और प्रेमचंद के विचार विपरीत ध्रुवों पर टिके हैं। मैं नास्तिक क्यों हूंभगत सिंह का चर्चित लेख है। इसके अतिरिक्त भी उन्होंने कई स्थानों पर जीवन, मृत्यु, ईश्वर आदि विषयों पर अपने विचार प्रकट किए हैं। सुखदेव को लिखे एक पत्र में वे कहते हैं, एक और विशेष बात, जिस पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, यह है कि हम लोग ईश्वर, पुनर्जन्म नरक-स्वर्ग, दंड एवं पारितोषिक, अर्थात भगवान द्वारा किए जानेवाले जीवन के हिसाब आदि में कोई विश्वास नहीं रखते। अतः हमें जीवन एवं मृत्यु के विषय में भी नितांत भौतिकवादी रीति से सोचना चाहिए।[25]
       प्रेमचंद अंतिम दिनों में स्वयं को कम्युनिस्टकहने लगे थे, पर उनका कम्युनिज्मभिन्न प्रकार का था। शिवरानी देवी ने लिखा है कि अपने अंतिम दिनों में वे ईश्वर से प्रार्थना करे लगे थे कि वह उन्हें अच्छा कर दे।[26] प्रेमचंद की इस इच्छा पर टिप्पणी करना आवश्यक नहीं है पर यह याद रखना चाहिए कि फांसी के फंदे पर झूलते हुए भी भगत सिंह ने ईश्वर का नाम लेना न स्वीकारा था। प्रेमचंद भगत सिंह की देखा-देखी अपनी राह बनाते, यह आवश्यक नहीं है। इसीतरह यह भी आवश्यक नहीं है कि प्रेमचंद के अंतर्विरोधें को अनदेखा कर, उनकी सीमाओं की पहचान न कर, उन्हें क्रांतिकारी और भगत सिंह से अभिन्न ही सिद्ध कर दिया जाए!
       गांधी के विचारों की विजय दिखलाने के लिए प्रेमचंद अपनी कहानियों में अविश्वसनीय स्थितियों और अंधविश्वासों को भी जगह देने से नहीं हिचकते। भारतमें 25 नवंबर 1928 को प्रकाशित खूनीशीर्षक कहानी इसका उदाहरण है। मि. व्यास को प्रेत विद्या का शौक था और इसका इतना अभ्यास उनकी पत्नी को भी था। प्रेमचंद यह दिखाते हैं कि पत्नी मृत पति की आत्मा को बुलाकर उसके कातिल का पता आदि मालूम कर लेती है। उसे पति के हत्यारे को सजा देनी है। पति का हत्यारा उसे मिल भी जाता है पर अंत में उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है। इस हृदय परिवर्तन को गांधीवादी हृदय परिवर्तन नहीं कहा जा सकता है।
       प्रेमचंद के लिए लक्ष्य महत्त्वपूर्ण था, साधन नहीं। इसके लिए वे अविश्वसनीय और अवैज्ञानिक घटनाओं को जगह देने से भी नहीं हिचकते। जुलूस’ (हंस, मार्च 1930) और समरयात्रा’ (हंस, अप्रैल 1930) जैसी कहानियों में वे जनता के आक्रोश को नियंत्रित कर देते हैं क्योंकि उन्हें गांधीवादी सिद्धांतों की सफलता प्रदर्शित करनी थी। जबकि कातिल की मां’ (1935) में वे क्रांतिकारियों का बहुत ही ओछा रूप उभारते हैं। इससे पूर्व जून 1930 में हंस में प्रकाशित मैकूमें वे हृदय परिवर्तन और हिंसा का एक मिक्सचर प्रस्तुत कर चुके थे। इस कहानी में मैकू कांग्रेस के कार्यकर्ता को तमाचा मारता है। बाद में अपने किए का उसे पछतावा होता है। हृदय परिवर्तन की उनकी यह पुरानी तकनीक गांधीवादी प्रभाव में लिखी इस दौर की कहानियों में फिर से नया जीवन पा जाती है। प्रेमचंद का मैकू शराब की भट्ठी में तोड़-फोड़ करता है और मार-पीट करता है। वह कादिर से कहता है, “जो लोग दूसरों को गुनाह से बचाने के लिए अपनी जान देने को खड़े हैं, उन पर वही हाथ उठाएगा, जो पाजी है, कमीना है, नामर्द है। कह दो पुलिसवालों से, चाहें तो मुझे गिरफ्तार कर लें। इस हृदय परिवर्तन और आत्मशोधन के बाद उसका कथन और भी काबिलेगौर है, मैं कल फिर आऊंगा। अगर तुममें से किसी को यहां देखा तो खून ही पी जाऊंगा।  जेल और फांसी से नहीं डरता। तुम्हारी भलमनसी इसी में है कि अब भूलकर भी इधर न आना। यह कांग्रेसवाले तुम्हारे दुश्मन नहीं हैं। कहानी के अंत में प्रेमचंद की टिप्पणी है, मैंकू ने वहीं डंडा फेंक दिया और कदम बढ़ाता हुआ घर चला। इस वक्त तक हजारों आदमियों का हुजूम हो गया था। सभी श्रद्धा, प्रेम और गर्व की आंखों से मैकू को देख रहे थे।
       प्रेमचंद मैकू के लिए जो श्रद्धा झलका रहे थे, वह मूलतः किसके लिए थी? प्रेमचंद बताते हैं कि मैंकू फिसादी है, लठैत गुंडा है, पर कमीना और नामर्द नहीं है। वह पुलिस से नहीं डरता। यहां एक सवाल यह उठता है कि भीड़ से मिला सम्मानउसके हृदय परिवर्तन के लिए था या एक फिसादीऔर गुंडाके हिरोइज्मदिखाने, भट्ठी तोड़ने और पुलिस को खुली चुनौती देने के कारण। दूसरा प्रश्न यह है कि प्रेमचंद भीड़ की मनोवृत्ति का परिचय देते हैं या फिर अपनी मनोवृत्ति का। वे कई बार सामूहिकता और बहुमत के नाम पर सरलीकरण का सहारा लेते हैं और इसके लिए विवेक को परे रख देने में भी परहेज नहीं करते। यह समस्या उनके लेखन में आरंभ से मौजूद रही है। यह स्पष्ट है कि मैकू के लिए गांधी और कांग्रेस की नीतियों से बहुत मतलब नहीं है पर कहानी में मैकू को हिंसा से गांधीवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा करवाते हुए साफ-साफ दिखाया जाता है। यहां यह भी विचारणीय है कि मैकू का नामर्दन होना प्रेमचंद के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय क्यों हो जाता है? इस पुरुष बोधकी जरूरत प्रेमचंद को अचानक क्यों आन पड़ी?
       प्रेमचंद गांधी का सुविधानुकूल और पॉपुलर पाठ 1930 में करते हैं। प्रेमचंद का मैकूविधु विनोद चोपड़ा के लगे रहो मुन्नाभाईका पूर्व रूप ही जान पड़ता है। मुन्ना भाई भी अपनी हिंसा, ग्लैमर, ताकत, झूठ और ऐसे ही हथकंडों से गांधीगिरीका भ्रम खड़ा करता है। उसकी पॉपुलर छवि का एकमात्र लक्ष्य गांधी को उनके जड़ से छिटकाकर एक प्रदर्शन और बिकाऊ माल में परिणत कर देना है। गांधी ऐसे में एक विदूषक से अधिक कुछ नहीं रह जाते। उनकी यह छवि प्रेमचंद-साहित्य में कई स्थानों पर मौजूद है। अतः यह आवश्यक है कि प्रेमचंद और गांधी के रिश्ते की पड़ताल नए सिरे से की जाए। जहां तक भगत सिंह और प्रेमचंद के विचारों में साम्य ढूंढ़ने का प्रश्न है, यकीनन दोनों ही बेहतर दुनिया का सपना देखते थे, पर इन्हें एक ही फ्रेम में अंटाना उचित नहीं है।
संदर्भ सूची
1.अमृत राय, कलम का सिपाही, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद; जनवरी 2005,
2.उद्भावना (संपादक-अजेय कुमार), अंक 76-77
3.गोदारण (संपादक-आलोक सिंह), अंक-7
4.चमनलाल, भगत सिंह के संकलित दस्तावेज, आधार प्रकाशन, पंचकुला, 2007
5.चांद, अप्रैल 1931
6.प्रेमचंद रचनावली, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली; द्वितीय संस्करण, 2006
7.सुभाषचंद्र बोस के चुनिंदा भाषण, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1974            
8.सुमित सरकार, आधुनिक भारत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2004
9.शिवरानी देवी, प्रेमंचद घर में, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 2000, पृ. 295

संपर्क: डॉ. आशुतोष पार्थेश्वर, हिंदी विभाग, ओरियंटल कॉलेज, पटना सिटी (पटना), ईमेल पता - parthdot@gmail.com



(हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, लेखक – अमरनाथ, प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, दिल्ली)


[1] उद्भावना (संपादक-अजेय कुमार), अंक 76-77; देखें चमनलाल का लेख भगत सिंह: एक परिपक्व राजनीतिक चिंतक’, पृ. 48
[2] वही, इसी अंक में एस. इरफान हबीब का कांग्रेस और क्रांतिकारीशीर्षक लेख भी देखा जा सकता है। इरफान हबीब ने बांबे क्रॉनिकल’, 25 मार्च 1931 का हवाला दिया है। देखें पृ. 85
[3] सुभाषचंद्र बोस के चुनिंदा भाषण, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1974; पृ. 60
[4] वही, पृ. 205
[5] चांद, अप्रैल 1931
[6] चमनलाल, भगत सिंह के संकलित दस्तावेज, आधार प्रकाशन, पंचकुला, 2007; पृ. 31, चमनलाल के अनुसार 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को फांसी पर चढ़ाए जाने के बाद देशभर में अनेक भारतीय भाषाओं में भगत सिंह पर लेखन की बाढ़ सी आ गई। इस लेखन में कविताओं व जीवनी से लेकर देशभक्ति का भरपूर साहित्य था। अंग्रेज सरकार ने 1931 से 1940 के बीच भारत में प्रकाशित कम से कम तीस ऐसी पुस्तकों को जब्त किया था।
[7]हंसबाद में कांग्रेस से जुड़ा। महात्मा गांधी के कहने पर वह भारतीय साहित्य का मुखपत्र बना।
[8] प्रेमचंद रचनावली, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली; द्वितीय संस्करण, 2006, खंड-8, पृ. 50
[9] वही, पृ. 80
[10] वही, पृ. 30, 52, 87, 207
[11] वही, पृ 72-73
[12] प्रेमचंद रचनावली, खंड-19, पृ. 308
[13] प्रेमचंद रचनावली, खंड-8, पृ. 73
[14] गोदारण (संपादक-आलोक सिंह), अंक-7, पृ. 254
[15] प्रेमचंद रचनावली, खंड-8, पृ. 87        
[16] वही
[17] सुमित सरकार, आधुनिक भारत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2004, पृ. 289
[18] वही; पट्टाभि सीतारमैया ने भी कांग्रेस का इतिहास लिखते हुए यह बात स्वीकारी है। देखें, उद्भावना (अंक 76-77) का पृ.76
[19] अमृत राय, कलम का सिपाही, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद; जनवरी 2005, पृ. 98
[20] सुमित सरकार, आधुनिक भारत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2004, पृ. 289
[21] प्रेमचंद रचनावली, खंड-8, पृ. 35        
[22] प्रेमचंद रचनावली, खंड-8, पृ. 65
[23] उद्भावना (अंक 76-77), पृ. 165
[24] प्रेमचंद रचनावली, खंड-7, पृ. 369
[25] चमनलाल, भगत सिंह के संकलित दस्तावेज, पृ. 225
[26] शिवरानी देवी, प्रेमंचद घर में, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 2000, पृ. 295
मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6(अप्रैल-जून 2014) ISSN 2320 –835X Website:                                                                                                                           
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