बुधवार, 27 अगस्त 2014

स्त्री-पुरुष संबंधों का मनोवैज्ञानिक : जैनेन्द्र - डॉ. दीप्ति गौड़






नर में नारी के आश्रय की उत्कट अभिलाशा है तथा उसके अभाव में उसका जीवन अपूर्ण है लेकिन पुरुष मन ही मन अपनी इस पराधीनता व परमुखापेक्षिता को स्वीकारना नहीं चाहता। पुरुष सोचता है कि नारी ने उसे अधीनस्थ कर रखा है और उसके बिना पुरुष जीवन खोखला है। इसीलिए वह घोर जीवन व्यापी संघर्ष में रत रहता है और अपने पुरुषत्व अहं के आगे स्त्रीत्व की महत्ता को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करने में न केवल झिझकता है अपितु स्त्रीत्व पर प्रहार करने का भी प्रयत्न करता रहता है ताकि उसमें कहीं कोई हीन भावना उत्पन्न न हो।

हिन्दी के विराट साहित्याकाश में जैनेन्द्र कुमार का रचनात्मक आलोक तेज पुंज के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। उन्होंने प्रेमचन्द के काल में ही समानान्तर कथा-परंपरा का प्रखर प्रस्थान प्रस्फुटित किया। जैनेन्द्र कुमार हिन्दी के एक ऐसे विरल एवं विदग्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने भाषा और साहित्य को अपनी मौलिकता, सहजता व दार्शनिकता से समृद्ध किया। हिन्दी साहित्याकाश के रचनात्मक आलोक पुंज एवं मनोविश्लेषणवादी लेखन के पुरोधा श्री जैनेन्द्र कुमार का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अपने आप में अनूठा है। जैनेन्द्र जी ने हिन्दी के एक प्रौढ़ साहित्यकार के रूप में अपनी विभिन्न विधाओं की रचनाओं के लेखन द्वारा साहित्य की श्रीवृद्धि की है। बौद्धिक और दार्शनिक दोनों ही प्रकार के विचारों से ओत-प्रोत उनकी मनोविज्ञान पर आधारित कहानियों ने जैनेन्द्र को अत्यन्त विख्यात बना दिया है।
वैयक्तिक संबंधों को अत्यंत समीप से देखने तथा अंतर्मन की सूक्ष्म हलचलों का रहस्योद्घाटन करके पाठक को भावमग्न विचारमग्न कर देना जैनेन्द्र की कहानियों की प्रमुख विशेषता है। स्त्री-पुरुष संबंधों और उनके मानसिक संघर्ष और द्वंद्व का चित्रण अत्यंत व्यावहारिकता एवं सजीवता के साथ हुआ है। प्रेम, करूणा और मैत्री की प्रशस्ति का संधान उनकी कहानियों में किया जा सकता है। जैनेन्द्र जी ने अपनी सारी संवेदनाओं के साथ स्त्री-पुरुष के मनोविज्ञान में प्रवेश किया और अपनी कहानियों को मनोवैज्ञानिक रस से सिंचित किया है।
नर में नारी के आश्रय की उत्कट अभिलाशा है तथा उसके अभाव में उसका जीवन अपूर्ण है लेकिन पुरुष मन ही मन अपनी इस पराधीनता व परमुखापेक्षिता को स्वीकारना नहीं चाहता। पुरुष सोचता है कि नारी ने उसे अधीनस्थ कर रखा है और उसके बिना पुरुष जीवन खोखला है। इसीलिए वह घोर जीवन व्यापी संघर्ष में रत रहता है और अपने पुरुषत्व अहं के आगे स्त्रीत्व की महत्ता को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करने में न केवल झिझकता है अपितु स्त्रीत्व पर प्रहार करने का भी प्रयत्न करता रहता है ताकि उसमें कहीं कोई हीन भावना उत्पन्न न हो। स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित कहानियां जैनेन्द्र रचनावली में खंड 4 और 5 में चतुर्थ भाग, पंचम् भाग, सप्तम भाग, अष्टम् भाग और नवम् भाग में संकलित हैं।
मनोतत्व की सूक्ष्मता के माध्यम से इन कहानियों में स्त्री पुरुष की मानसिक गतिविधियों की अभिव्यक्ति की गई है। अतः जैनेन्द्र जी मानव के अंतर में पैठने का यत्न करते हैं। अतः उनकी इसप्रकार की कहानियों में मनोविज्ञान की सूक्ष्मता के दर्शन होते हैं। अतः स्त्री-पुरुष संबंधों की विविध विवृत्तियों, उनकी तात्विकता, मौलिकता और सूक्ष्मता, प्रेम तत्व और उसकी व्यथा का संधान विभिन्न मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्तों के माध्यम से किया गया है।
       स्त्री-पुरुष के संबंधों की तात्विकता-यह अखंड सत्य है कि नर में नारी की और नारी में नर की तलाश बनी रहती है। दो विपरीत ध्रुव होने के बाद भी एक-दूसरे की अनिवार्यता अपरिहार्य है। स्त्री-पुरुष के अंतर्मन की पीड़ा को, अंतमंथन को अपनी कहानी कला का सहारा देकर जैनेन्द्र ने एक नये मार्ग पर ला खड़ा किया है। यद्यपि उनका दृष्टिकोण बौद्धिक है तथापि उनमें आधुनिक मनोविज्ञान के शास्त्रीय सिद्धान्तों का आग्रह अधिक है। नर-नारी संबंधों को विभिन्न रचनाकारों ने अपनी रचनाओं का वर्ण्य विषय बनाया है। डॉ. देवराज उपाध्याय ने पति-पत्नी संबंधों के विषय में उपन्यासकार डी.एच. लॉरेन्स का उदाहरण देकर यह मत अभिव्यक्त किया हैः-
‘‘डी.एच. लॉरेन्स के उपन्यासों को पढ़िये तो उसमें दांपत्य जीवन का जो चित्र सामने आयेगा, वह ऐसे दो प्राणियों का होगा, जो ऐसे शत्रुओं का होगा जो पारस्परिक संघर्ष में निरंतर निरत हैं, जो एक-दूसरे को दबोच लेना चाहते हैं और कोई पराजय स्वीकार नहीं करता। मानो वे पति-पत्नी न हों चूहे और बिल्ली हों अथवा सांप और नेवला। पति और पत्नी बात की छोड़ दीजिये। लॉरेन्स के उपन्यास में पात्रों को मिथुनाचार से यद्यपि एक क्षणिक आनन्दोपलब्धि होती है पर साथ ही साथ उनमें एक दुर्दांत विकृत घृणा के भाव के विकास की भी नींव पड़ती है। प्रेम के पार्श्व में ही घृणा और बैर फुफकारते से दिखाई पड़ते हैं, प्रणय और प्रीति के गर्भ से जैसे घृणा और बैर-भाव के बीज विकसित हो रहे हों। मानों मानव तृप्ति की लालसा से विकल हो और उसी की खोज में अपने जीवन का कोना-कोना झांक आया हो। पर हाय, यह उसके भाग्य में नहीं लिखा है। उसे अपने अंदर कभी भी गम्भीर तृप्ति प्राप्त नहीं हो सकती। उसे इसकी उपलब्धि अपने से बाहर ही हो सकती है और वह भी नारी के कोमल अंक में। ‘‘आत्मन्येवात्मना तुष्टा’’ वाला सिद्धांत मनुष्य के लिए अपर्याप्त है। उसे अपने से बाहर नारी के आश्रय की चाह करनी ही पडे़गी। हां, नारी के अंक की क्योंकि नर का अंक तो प्रकारान्तर से उसी का अंक होगा न।’’[1]
मूल प्रवृत्तियों व संवेगों का वैवाहिक जीवन पर प्रभाव-मूल प्रवृत्तियों से ही मनुष्य में संवेगात्मक भावना उत्पन्न होती है। मानव जीवन की प्रारंभिक घटनाएं स्थायी भाव बन जाती हैं जिनका प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है। संवेग सुखदायी व दुःखदायी दोनों प्रकार के होते हैं, यथा क्रोध, घृणा, भय आदि दुःखदायी संवेग हैं और प्रेम, दया, करूणा आदि सुखदायी संवेग हैं। वैवाहिक जीवन की सफलता इन्हीं संवेगों पर आधारित होती है। भिन्न-भिन्न वातावरण या परिवेश व समाज में पालित-पोषित बालक व बालिका में भिन्नताएं होना स्वाभाविक हैं। जब वे वैवाहिक संबंधों के द्वारा एक दूसरे के संपर्क में आते हैं तो उनमें परस्पर विभिन्नता होने के कारण सामंजस्य बैठाने में उन्हें परेशानियों का सामना करना होता है। साथ ही कभी-कभी टकराहट की स्थिति, गृहक्लेश, अंतर्द्वंद्व, कुण्ठा, तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक टर्मन ने इस विषय को लेकर विभिन्न दंपत्तियों पर प्रयोग किए तथा अपने निरीक्षणों के आधार पर वह इस निष्कर्ष  पर पहुंचे कि सफल विवाहित जीवन के लिए पति-पत्नी दोनों में कुछ विशेषताएं होनी चाहिए। परिवार समाज की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण इकाई है। हमारे देश में परिवार का आधार विवाह है। विवाह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो अपरिचित स्त्री-पुरुष सामाजिक विधानों के अनुसार संबंध स्थापित करते हैं तथा उनका शारीरिक एवं भावनात्मक मिलन होता है।
किशोरकालीन व्यक्तित्व की झांकी- जैनेन्द्र जी की कहानी ‘‘मास्टर जी’’ में मास्टर मोशाय बाबू का विवाह श्यामकला से हुआ परंतु दोनों की उम्र में लगभग 20 वर्ष का अंतर है। मास्टर जी ने बड़े लाड़ प्यार से उत्सुकता पूर्वक उसे आगे बढ़ाया। उन्होंने पति के प्रेम से भी अधिक माता के प्रेम से उसे खिलौने ला-लाकर दिये हैं। श्यामकला का विवाह दस वर्ष की अवस्था में हो गया था और मोशाय बाबू उससे एक छोटी बच्ची की तरह व्यवहार करते रहे हैं। जब श्यामकला युवा हो जाती है तब उसके मन में भी कुछ आकांक्षा, कुछ अभाव और कुछ कसक बनी रहती है। यौवन इसी अवस्था का नाम है। श्यामकला के अंतर में भी पूर्ण स्त्रीत्व हिलोरे मारता है। फ्रायड के अनुसार उत्तर किशोर काल में विषम लिंगी संबंध विकसित होने लगते हैं। किशोर बालक और बालिकाओं में प्रेम की प्रकृति अधिक हो जाती है। किशोरकालीन व्यक्तित्व के विकास का एक प्रमुख लक्षण है-आत्म केन्द्रीयकरण। इसके फलस्वरूप किशोर अपने को प्रत्येक परिस्थिति में अत्यधिक प्रधानता देता है। श्यामकला भी इसी अवस्था से गुजर रही है। कहानी से श्यामकला की मनः स्थिति पर प्रकाश डालता हुआ एक उद्धरण प्रस्तुत हैः-
‘‘लेकिन महामहिम अपने प्रेम को किस प्रकार कम गाढ़ा करे कि उसमें उद्वेग दिखायी दे? वह प्रेम धारा उसमें क्या कभी रूकती भी है। जो गतिशील दिखे? क्या वह कहीं उथली है, जो कभी उत्कट भी हो? क्या उसमें द्वंद्व है कि वहां विक्षिप्त फेनिल लहरें उठें? तरंगहीन, कूलबद्ध, एकरस होकर ही तो प्रेम इस महामहिम में श्यामकला के प्रति बह सकता है, क्योंकि वह उसमें गहरा होता गया है।
यह क्या बात है कि वह मुझ पर कभी नाराज भी नहीं हो सकते हैं’ - श्यामकला सोचती है- क्यों वह नहीं मानते कि मैं पूर्ण स्त्री हूं? क्यों वह मुझे बहलाते ही हैं, धमकाते नहीं; जैसे कि मैं बच्ची हूं? मैं नहीं चाहती अच्छा पहनना, अच्छा रहना। फिर वह क्यों नये-नये कपड़े लाकर दिये जाते हैं? और जब मैं उन्हें पहनती हूं, तब क्यों उनकी निगाह से वे ही कपड़े नीचे रह जाते हैं? क्यों मेरे साथ वह अपने पढ़ने-लिखने से इतर और तरह की बातें नहीं कर पाते?’’[2]
फ्रायड के मनोनियतिवाद का समावेश-बाल-विवाह होने के कारण श्यामकला की अबोधता स्वीकारते हुए मास्टर जी उसकी हर जरूरत को पूर्ण करना चाहते हैं। वह यह प्रमाणित करना और देखना चाहते हैं कि श्यामकला के प्रति उनका प्रेम पूर्ण है। परंतु श्यामकला को एक दिन अपने नौकर से तृष्टि का अनुभव होता है। उसके अहंकार को तृप्ति मिलती है, आनंद मिलता है। उसे लगता है कि वह कृपाकांक्षिणी नहीं है, अनुग्रहदात्री भी है। उसे अपने जीवन में कुछ अधूरेपन का अहसास होता है और वह घर छोड़कर चली जाती है। मास्टरजी अपने छात्रों को समझाते रहते हैं कि एक दिन मास्टरनी जी जरूर आएंगी और अंततः दीपावली पर मास्टरनी जी लौट आती हैं। उसे अहसास हो जाता है कि मास्टर जी का प्रेम कितना निश्चल है। इस कहानी में स्त्री-पुरुष के संबंधों की गहन तात्विकता पर प्रकाश डालने का जैनेन्द्र जी ने अत्यंत सफल प्रयास किया है। यद्यपि श्यामकला का विवाह मास्टर जी से होता है तथापि वे श्यामकला की अबोधता के कारण उसके अभिभावक की तरह उससे व्यवहार करते हैं।
प्रत्येक घटना का कुछ-न-कुछ कारण अवश्य होता है, जिसप्रकार कि भौतिक संसार में बिना पर्याप्त कारण के कोई भी घटना घटित नहीं हो सकती, ठीक उसी प्रकार मानसिक जगत में कार्यकारण के संबंध को फ्रायड ने सत्य पाया। इसे मनोनियतिवाद कहा जाता है। कुछ लोग आनुवाशिंक कारणों या कठिन परिस्थितियों के कारण ऐसे बन जाते हैं कि उनका अपने समाज के तौर-तरीकों से मेल नहीं बैठ पाता। इस कारण कई बार व्यक्ति असामान्य व्यवहार करने लगता है, कभी-कभी मनोविकार ग्रस्त भी हो जाता है। इससे व्यक्ति के सामान्य कार्य संचालन में बाधा उत्पन्न होती है तथा मानसिक रूग्णता आ जाती है। मनोविकृति विज्ञान लक्षणों के कारण, सार्थकता व मितव्ययिता की सरलता से व्याख्या कर सकता है।
रूपांतरित क्षोभोन्माद के कारण दृष्टिदोष-जैनेन्द्र जी की कहानी ‘‘दृष्टि-दोष’’ में मनोविकारोत्पन्न दृष्टिदोष या रोग के विषय में वर्णन है। यह साधारण दृष्टिदोष नहीं, बल्कि रूपांतरित क्षोभोन्माद (conversion hysteria) के कारण है। इस कहानी में एक ऐसी स्त्री है जिसके नेत्रों में किसी प्रकार का कोई रोग नहीं है वह तो ‘‘हिस्टीरिक दृष्टिदोष’’ है क्योंकि इसके कारण सुभद्रा नामक स्त्री को नेत्र विशेषज्ञ का सामीप्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह नेत्र विशेषज्ञ उसका पूर्व प्रेमी रहा है जिससे वह अपने प्रणय का निवेदन नहीं कर सकी और उसने अपने प्रेम का दमन कर दिया। किशोरावस्था के इस प्रेम को वह भूल नहीं पाती और उसके सम्मुख अंतर्द्वंद्व की परिस्थिति निर्मित हो जाती है कि वह पति के प्रति प्रेम व कर्तव्य का पालन करे या डॉक्टर के प्रति प्रेम संबंध स्थापित करे। उसकी ये दोनों इच्छाएं एक-दूसरे के विपरीत थीं जिसके फलस्वरूप द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हो गई। सुभद्रा डॉक्टर का सानिध्य प्राप्त करने के लिए अपने ‘‘दृष्टि दोष’’ का कारण बताते हुए कहती है कि-
‘‘नहीं, मैं विधवा जल्दी होने वाली नहीं हूं। मैं कभी विधवा नहीं हो सकती, क्योंकि मैं सती होऊंगी। सतीत्व भारत से मिटा नहीं है, यह मुझसे लोग देखेंगे। तुम आशा करके अपने को ठगो मत, केदार! क्योंकि मैं विधवा एक क्षण को भी नहीं हूंगी और तुम्हारा मुंह भी नहीं देखूंगी। दृष्टिदोष न होता तो क्या तुम समझते हो मैं याद भी करती कि केदार नाम का कोई डॉक्टर है या केदार कोई आदमी भी है? आंख की वजह से ही मैं तुम्हारे पास आयी हूं, यह खूब समझ लो।’’[3]
सुभद्रा के दृष्टि दोष का कारण द्वंद्व की परिस्थिति थी। द्वंद्व की स्थिति में वह चितिंत रहने लगी। डॉक्टर से प्रेम का उसने जो दमन किया था, वह समाप्त नहीं हुआ बल्कि दूसरे रूप में रूपांतरित हो गया। इस रूपांतरित रूप की उसके व्यक्तित्व के लिए अत्यंत महत्ता और सार्थकता थी। यदि ऐसा नहीं होता तो वह सदैव चितिंत रहती व अंतर्द्वंद्व से पीड़ित रहती और उसका जीवन जीना अत्यंत दुष्कर हो जाता। अचेतन रूप से इस मानसिक संघर्ष से छुटकारा पाने के लिए उसने शारीरिक दोष लक्षण को विकसित किया। उसका नैतिक अहं इस बात पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं है कि केदार नामक डॉक्टर के लिए उसके हृदय में प्रेम हिलोरें ले रहा है। इसीलिए वह डॉक्टर से कह उठती है-
‘‘कुछ देर वह जैसे अवसन्न हो रही। फिर एक साथ झटके से अपना हाथ खींचकर बोली, ‘‘आप मुझे यह बताना चाहते हैं कि मैं मरीजा नहीं हूं और आपके पास इसलिये नहीं आयी हूं कि आप डॉक्टर हैं? अजी, मुझे दृष्टिदोष न होता और आप आंख के डॉक्टर न होते तो मेरा आपसे क्या वास्ता था? ये रूपये वापिस करके आप अपने को धोखा देना चाहते हैं कि मेरा आप से वास्ता है?’’[4]
इसप्रकार मन की सूक्ष्म हलचलों का रहस्योद्घाटन करने में जैनेन्द्र जी दक्ष रहे हैं। एक मनोविज्ञान के विद्यार्थी के लिये ये कहानियां बहुत ही महत्वपूर्ण विचार सामग्री प्रस्तुत करती हैं। और इनकी व्याख्याओं में वैज्ञानिक कारणों के अनुसंधित्सु मनोवैज्ञानिक की प्रतिध्वनि है। कहीं-कहीं यह प्रतिध्वनी मनोवैज्ञानिक व्याख्या के रूप में दिखाई देती है। एक मनोविज्ञान के ज्ञाता के लिए इन कहानियों में अतिरिक्त आनंद की अनुभूति प्रदान करने की क्षमता है। मनोविज्ञान हर समस्या का व उसकी व्याख्या करने का सन्तोषजनक समाधान देने के लिए तैयार है। मनुष्य में यदि कोई मानसिक असाधारणता उत्पन्न हो जाती है तो वह उसके लिए एक मानसिक आवश्यकता है। इस संबंध में ब्राउन महोदय का कथन है- ‘‘मनोविकृति या मानसिक रूग्णता भले ही भयंकर दीख पड़े पर उस व्यक्ति के लिए एक आवश्यक पदार्थ है, उसके जीवन-धारण के लिये सबसे सुविधापूर्ण मार्ग है।’’
पारिवारिक समायोजन में पति-पत्नी की भूमिका व मनोविज्ञान- पारिवारिक समायोजन न होने की स्थिति में भी द्वंद्व बना रहता है। विवाह के पश्चात स्त्री और पुरुष दोनों को ही नवीन भूमिकाओं से स्वयं को समायोजित करना होता है। पारिवारिक समायोजन में स्त्री जो वधू के रूप में ससुराल जाती है, विवाह के बाद उसका पहला समायोजन पति के साथ होता है और फिर ससुराल के अन्य सदस्यों के साथ समायोजन की समस्या उत्पन्न होती है। जैनेन्द्र जी की कहानी ‘‘विस्मृति’’ में पारिवारिक समायोजन की समस्या को उठाया गया है। वधू को ससुराल में सबसे अधिक समायोजन की समस्या ससुराल की स्त्रियों के साथ होती है जो कि सास, ननद, जेठानी के रूप में होती है। ‘‘विस्मृति’’ कहानी में भानामल की बहू और सास में परस्पर मनमुटाव होता रहता है। बहू के सिर में हमेंशा दर्द रहता है। सास ने भानामल की विवाह के पूर्व आशा रखी थी कि मैं तो पीढ़े पर बैठकर कहूंगी ‘‘बहू, पान तो लगाकर एक लाना।’’ पर बहू की खराब तबियत के कारण काम में कुछ कमी रह जाती तो सास-बहू में कहा-सुनी होती। और फिर बहू एक कमरे में और सास दूसरे कमरे में जाकर पड़ी रहतीं। इस तरह रोटी कभी बनती, कभी नहीं बनती। लाला भानामल को रोज फैसले करने होते। कहानी से एक उद्धरण देखिए-
‘‘और शशिकला कहतीं, ‘क्या बात है! जाकर पूछो न अपनी मां से, क्या बात है! और तुम सब लोग मुझे मारना चाहते हो तो एकदम से क्यों नहीं मार डालते, जो टंटा मिटे!
लाला भानामल घबड़ाकर पूछते, ‘ऐसी क्या बात हुई, बताओ भी तो?’
शशिकला कहतीं, ‘बात हुई कि मैंने कहा - अम्माजी, मेरा सिर बड़ा दुखता है, नेक आज तुम रोटी बना लोगी? सो इसी बात पर जाने क्या-क्या बात उन्होंने मुझे नहीं सुनायी। मैं पूछती हूं कि जब मैं मरने लगूंगी तब भी तुम लोग यही तो समझोगे न, कि बहाना है?’’
बहू से निबटकर भानामल मां के पास जाकर कहते, ‘‘मां, क्या बात है?’’
मां कहती, ‘‘कुछ बात नहीं है, बेटा!’’
भानामल कहते, ‘मां, उसने कहा था तो तुम एक दिन रोटी नहीं बना सकती थीं?’
मां कहतीं, ‘‘बना सकती थी बेटा, और बना दिया करूंगी। रोटी तो मैं बनाती ही थी। सोचती थी - बहू आ गयी है चलो, दो रोज को मुझे भी बिसराम मिल जाएगा। पर न सही बिसराम, मैं ही रोटी बना दिया करूंगी। मेरा इसमें जाता क्या है। और काम से तो आदमी अच्छा ही रहता है।
भानामल - ‘‘अम्मा, उसके सिर में दर्द रहता है। और वह कोई झूठ तो कहती नहीं। और रोग ऐसी चीज है कि न जाने कब बढ़ जाए!
मां - ‘‘हां बेटा, ठीक तो है। चलो, मैं चौके में चलती हूं। अभी बनाए देती हूं रोटी।’’[5]
नव वधू के आगमन पर सास को प्रायः ‘‘असुरक्षा की भावना’’ अनुभव होती है। इसी के वशीभूत हो कर वह अपने मन के रोष, क्षोभ, आशा, स्पर्धा आदि भावों का शिकार हो जाती है। परिवार के पुरुष वर्ग का अधिकांश समय घर के बाहर व्यतीत होता है और प्रायः स्त्रियां सारा दिन घर में रहती हैं इसलिए समायोजन की आवश्यकता उनके साथ अधिक होती है। यद्यपि आज महिलाएं नौकरीशुदा भी हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक कारण है- स्त्रियों में जाने अनजाने में एक दूसरे के रूप और गुण के प्रति ईर्श्या की भावना का होना।
एक और स्थिति में जरा-सी चूक हो जाने पर समायेाजन की समस्या गंभीर होने के साथ-साथ असंभव भी हो जाती है, जहां वर अपने परिवार से बहुत अधिक जुड़ा रहता है। उसके अनुसार आदर्श नारी का रूप उनकी मां और बहनें ही होती हैं और वह उन्हीं की विशेषताओं को अपनी पत्नी में भी देखना चाहता है। वधू का अपना व्यक्तित्व और विशेषताएं होती हैं तथा जब वर के द्वारा अपनी पत्नी तथा परिवार की अन्य स्त्रियों में बहुत अधिक तुलना की जाने लगती है तो कई बार वधू के आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचती है और सहनशीलता की सीमा पार हो जाने पर परिवार टूट जाते हैं। ऐसा कभी-कभी वधू के द्वारा भी हो जाता है कि वह अपने पिता की छवि व विशेषताएं अपने पति में देखना चाहती है। यह भावना ग्रंथी होती है। इन्हें फ्रायड ने मनोग्रंथियां कहा है। फ्रायड के अनुसार पुत्र का लिबिडो प्रायः माता पर एवं पुत्री का लिबिडो पिता पर केन्द्रित होता है। जब पुत्र का लिबिडो माता पर केन्द्रित हो जाता है तब इसे फ्रायड ने ‘‘इडिपस ग्रंथी’’ कहा है। जब पिता और पुत्री में लिबिडो के आधार पर अधिक प्रेम पिता पर केन्द्रित हो जाता है और उसके फलस्वरूप जो मानसिक ग्रंथी उत्पन्न होती है उसे फ्रायड ने ‘‘इलेक्ट्रा ग्रंथी’’ कहा है।
परिवार में वैयक्तिक विभिन्नताओं का प्रभाव- जैनेन्द्र जी ने एक और कहानी भाभीमें खट्ठे-मीठे रिश्तों को अपनी लेखनी में पिरोया है। वैयक्तिक विभिन्नताओं के कारण परिवारों में पूर्णतया शांति तो कहीं भी नहीं होती। परस्पर मतभेद के कारण सफल समायेाजन नहीं हो पाता। वर्तमान समय में समायोजन के लिए आवश्यक है कि पति-पत्नी में समानता की भावना हो, अधिकार की नहीं। जैनेन्द्र जी ने अत्यंत साधारण उदाहरणों के द्वारा विलक्षण मनोविज्ञान का परिचय दिया है तभी तो वह ‘‘बर्तन खटकने’’ का उदाहरण देते हैं और इसी तरह के आवर्तन-प्रत्यावर्तन को जीवन की संज्ञा देते है। जैनेन्द्र के ये विचार ‘‘भाभी’’ नामक कहानी से उद्धृत हैं-
‘‘यह नहीं कि खटपट नहीं हो जाती थी। बासन न खटके तो बासन कैसे? यह भी तो होता रहना चाहिए। पर खटपट से मिलन का मिठास और गहरा हो जाता था। एक रूठे नहीं तो दूसरे को मनाने का मौका कैसे हाथ आये और दो रोज अलग-अलग होकर दोनों के मुंह न फूले रहें तो तीसरे रोज साथ बैठकर दोनों आंसू कैसे बरसा पाएं। इसीतरह के आवर्तन-प्रत्यावर्तन का नाम जीवन है। नहीं तो जहां गुदगुदी रेतीलीसमतल धरती ही है, लोग उस रेगिस्तान को ही क्यों न पसन्द करें, क्यों घास-पात से मैली-कुचैली धरती में और हल चलाकर उसे ऊबड़-खाबड़ करके अन्न का बीज छोड़ें? इन लोगों का क्या हरियाला जीवन है। कैसा चुहल से भरा है। कहीं मैला बादल नहीं है। चारों ओर भविश्य में जहां तक निगाह जाती है, हरियाली-ही हरियाली है।’’[6]
भाभी ने अत्यंत त्याग और समर्पण से विनय का ख्याल रखा। विनय का जब विवाह हुआ तो उसे लगा कि भाभी और उसकी पत्नी के बीच की विषमताएं भी उन्हें समायोजित करने में बाधा नहीं पहुंचायेंगी। परंतु जब अत्यंत भीषण समय उपस्थित हो जाता है, अहं, अहं से टकराने लगता है तब संघर्ष से घबराकर मैत्री और प्रेम का संबंध भी व्यक्ति समाप्त कर लेता है, उस पर डटा नहीं रहता। इस सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता के दर्शन ‘‘भाभी’’ कहानी में जैनेन्द्र जी के इन विचारों में होते हैं-
‘‘मैं कह चुका हूं, उस घर में कभी-कभी रगड़ हो जाया करती थी। लोग जब बहुत निकट होकर मिलते हैं, तब उनके स्वभाव-विषमताएं एक दूसरे को स्पर्श करते हैं। उस समय तो उन्हें एक प्रकार का सुख होता है, जैसे फोड़े को हल्के-हल्के छूने में। जब और पास आते हैं तब स्वभाव की उभरी हुई विषमताएं टकराती हैं। उस समय दांतेदार पहियों की भांति एक दूसरे को निभाकर, रल-मिलकर, एक-दूसरे पर निर्भर रहकर, चलने लायक अंतर सम्मिलन (Adjustment) उनमें किसी तरह नहीं हो जाए तो बड़ी गड़बड़ होती है। वे मानो एक दूसरे को काटने दौड़ते हैं, आपस में टकराकर एक दूसरे को नष्ट करने की प्रवृत्ति होती है, टक्कर में चिनगारियां निकलती हैं। ऐसे समय यदि मनुष्य की रीढ़ (Axle)  अत्यंत दृढ़ हो, तो वह इन टक्करों से डरकर पीछे नहीं हट जाएगा अर्थात् शत्रुता पैदा करके या और कारण से अपनी निकटता में विच्छेद नहीं डालेगा, बल्कि बहुत धीरज से काम लेगा। अंत में ऐसा समय आएगा कि या तो वे विषमताएं मिल बैठेंगी या रगड़ते-रगड़ते बिल्कुल नष्ट हो जाएंगी और भीतर से सहज समान मनुष्यता प्रकट हो जाएगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है। जब भीषण समय उपस्थित होता है, तब संघर्ष से घबराकर मैत्री और प्रेम का संबंध ही लोग एक दूसरे से तोड़ लेते हैं, डटे नहीं रहते।’’[7]
जैनेन्द्र जी ने स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित कहानियों में ‘‘नारी मनोविज्ञान’’ का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है। जैनेन्द्र ने अपनी कहानियों में पतित्व धर्म और पत्नीत्व धर्म, दोनों को ही चुनौती दी है। उन्होंने व्यापक सांस्कृतिक संदर्भों में पति-पत्नी की मूल चेतना को उभारा है। स्त्री-पुरुष संबंधों में व परिवारों में जिन समस्याओं के कारण तनाव उत्पन्न हो, उन समस्याओं पर मिलकर विचार करना चाहिए। कौन सही है, इस पर नहीं अपितु क्या सही है इस पर विचार किया जाना चाहिये और यह स्वस्थ संवाद से ही संभव है। इस दृष्टि से जैनेन्द्र की स्त्री-पुरुष संबंधों की तात्विकता पर आधारित कहानियां सहायक सिद्ध हो सकती हैं। सुखी, शान्त पारिवारिक जीवन के लिए आवश्यक है कि पति-पत्नी दोनों अपनी मान्यताओं में परिवर्तन लायें तथा परस्पर मतभेदों को दूर कर पारस्परिक समझौते से परिवार में शांति स्थापित करें।



संदर्भ ग्रन्थ सूची

1.जैनेन्द्र कुमार, जैनेन्द्र रचनावली, समग्र कहानियां(खंड चार और पांच में प्रकाशित), संपादक निर्मला  जैन (12 खण्डों में समग्र साहित्य प्रकाशित), ज्ञानपीठ प्रकाशन, पहला संस्करण 2008 ई.
2. देवराज उपाध्याय, आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य और मनोविज्ञान, साहित्य भवन इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1953 ई.
3.डॉ0 सीताराम जायसवाल, व्यक्तित्व का मनोविज्ञान, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा
4.डॉ. लाभ सिंह एवं डॉ0 गोविन्द तिवारी, असामान्य मनोविज्ञान,विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा
5.देवेन्द्र कुमार वेदालंकार,     फ्रायड मनोविश्लेषण (अनुवाद),
राजपाल एण्ड सन्स, 1971
संपर्क - डॉ. दीप्ति गौड़, अध्यापक, शा.उत्कृष्ट उ.मा.विद्यालय, मुरार ग्वालियर (म.प्र.), ईमेल पता - gaurdeepti2012@gmail.com


(हिंदी पत्रिकाएं-वाङ्मय, उम्मीद, साक्षात्कार)


[1] डॉ. देवराज उपाध्याय - आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य और मनोविज्ञान, साहित्य भवन इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1953 ई., पृ. 309
[2] जैनेन्द्र कुमार, जैनेन्द्र रचनावली, समग्र कहानियां (खण्ड चार और पांच में प्रकाशित), मास्टर जीशीर्षक कहानी से उद्धृत, पृ. 439-440
[3] जैनेन्द्र कुमार, जैनेन्द्र रचनावली, समग्र कहानियां (खण्ड चार और पांच में प्रकाशित), दृष्टि-दोषशीर्षक कहानी से उद्धृत, पृ. 509
[4] जैनेन्द्र कुमार, दृष्टि-दोषशीर्षक कहानी से उद्धृत, पृ. 509
[5] जैनेन्द्र कुमार, जैनेन्द्र रचनावली, समग्र कहानियां (खण्ड चार और पांच में प्रकाशित), विस्मृतिशीर्षक कहानी से उद्धृत, ज्ञानपीठ प्रकाशन, पहला संस्करण 2008, पृ. 512
[6] जैनेन्द्र कुमार, जैनेन्द्र रचनावली, समग्र कहानियां (खण्ड चार और पांच में प्रकाशित), भाभीशीर्षक कहानी से उद्धृत, ज्ञानपीठ प्रकाशन, पहला संस्करण 2008, पृ. 566
[7] जैनेन्द्र कुमार, जैनेन्द्र रचनावली, समग्र कहानियां (खण्ड चार और पांच में प्रकाशित), ‘भाभीषीर्शक कहानी से उद्धृत,ज्ञानपीठ प्रकाषन, पहला संस्करण 2008, पृ. 566-567

मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6(अप्रैल-जून 2014)
ISSN 2320– 835X                                                                                                                               
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 

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