बुधवार, 27 अगस्त 2014

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में दलित-संवेदनाएं - डॉ. जी. राजु




समाज के अंतर्गत जाति की समस्या दलित के सामने सदैव मुंह खोले खड़ी रहती है। जाति के नाम पर दलितों को समय-समय पर हर मोड़ पर अपमानित करना, उनका मजाक उड़ाना परिपाटी हो गया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी अंधड़ में कहानी का नायक मि. लाल अपनी पत्नी से कहता है, मैं नहीं चाहता यहां के लोगों को पता चले कि हम शिड्यूल्ड कास्ट हैं। जिस दिन ये लोग जान जाएंगे, ये मान-सम्मान सब घृणा और द्वेष में बदल जाएगा। सामान्यतः ऐसा होता भी है। आज-कल भी शहरों तक में दलित-समाज के उच्च शिक्षित लोग अपनी जाति छिपाने में ही अपनी भलाई समझते हैं। इसका कारण आज भी समाज के अंदर गहरी पैठ पकड़ी हुई जाति-व्यवस्था ही है। व्यक्ति किसी भी उच्च स्थान पर विराजमान क्यों न हो, उसे जाति के नाम से ही सम्मान दिया जाता है। अगर वह अपनी जाति छिपाता भी हो तो भी किसी न किसी तरह समाज उसे जान ही लेता है।



धुनिक युग में दलित-साहित्य ने अपनी एक अलग पहचान, अस्तित्व और विशेष स्थान प्राप्त कर लिया है। इस युग के साहित्यकारों में प्रमुखत: ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन, कंवल भारती, जयप्रकाश कर्दम, सूरजपाल चौहान, सुशीला टाकभौरे, राजत रानी मीनू, डॉ. कुसुम वियोगी आदि उल्लेखनीय हैं, जिनके लेखन द्वारा दलित-साहित्य का मुकम्मल स्थान स्थापित हुआ। इनमें भी ओमप्रकाश वाल्मीकि का स्थान सर्वोपरी है। उनके लेखन में जो तीखापन है, जिस जद्दोजहद से वे गुजरे है, उसका जीवंत चित्रण उनके साहित्य में हमारे सामने उपस्थित होता है- उन्होंने अपनी कहानियों में एक ओर जहां ज्ञान और सत्ता के प्रतीक ब्राह्मणवाद और सामंतवाद पर आक्रमण करते हुए दलितों पर हो रहे शोषण, दमन और तिरस्कार का मार्मिक चित्रण किया है, वहीं दूसरी ओर कविताओं में वर्ण और जाति व्यवस्था पर तीखा प्रहार करते हुए परंपरागत मायाजाल को तोड़ने की कोशिश की है।[1] ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम आज भी दलित-साहित्य क्षेत्र में मार्ग-निर्देशक के रुप में लिया जाता है। आज वे हमारे बीच में भौतिक रूप से भले ही न रहे हो लेकिन वैचारिक धरातल पर वे साहित्य जगत में अमर हैं। उनकी कविता इस हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था के प्रति विरोध की भावना को व्यक्त करती है जिसके अंतर्गत वे परंपरागत जातीय रूढ़ियों को तोड़ना चाहते हैं। जाति नामक कविता की ये पंक्तियां आज भी प्रासंगिक होकर हमें एक नयी उत्तेजना देती है  -
स्वीकार्य नहीं मुझे
जाना, मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में।
वहां भी तुम
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति से ही!
इस कविता के माध्यम से वे उन तमाम बंधनों से मुक्त होने की जिस आकांक्षा को रखते हैं, उससे सच में एक क्रांति की लहर फूटने वाली लगती है।
            आज की हिंदी कहानी में दलित कहानियों ने अपनी प्रश्नाकुलता से जड़ता को तोड़ने का कार्य किया है - दलित-कहानी इस व्यवस्था की सदियों के खिलाफ आवाज़ ही नहीं उठाती बल्कि कुछ सवाल भी पूछती है।[2] ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का नाम जितना उनकी आत्मकथा जूठन से हुआ है, उतना ही उनकी कहानियों के माध्यम से भी हुआ है। उनकी बहुचर्चित कहानी सलाम में दलितों की पीड़ा, त्रासदी और वेदना को दिखाते हुए सलामी के पारंपरिक रिवाज को तोड़ने की चेतना को दर्शाया गया है। सलामी की अपमानजनक प्रथा से ग्रस्त समस्त दलित-समाज को मुक्ति दिलाने का काम हरीश अपनी शादी के दौरान करता है। बरात की विदाई के पहले गांव के घर-घर जाकर सलाम करने की प्रथा से दलित वर-वधू में हीनता बोध घर कर जाता है और स्वाभिमान के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। इस हीनता बोध की जड़ रही सलामी की प्रथा से हरीश को मुक्ति दिलाने में उसका मित्र कमल उपाध्याय जो प्रगतिशील विचारों वाला ब्रह्मण है, का बड़ा योगदान रहा है। उसकी प्रेरणा से वह सदियों से चली आ रही इस प्रथा को ठुकराता ही नहीं बल्कि उसे खारिज भी करता है। उसका यह कदम  दलितों में चेतना के स्वर को आगे बढ़ाने का काम करता है।
एक अन्य कहानी अम्मां में भी चेतना का स्वर सुनाई देता है। कहानी की नायिका दरवाजे-दरवाजे मैला साफ करती हैं लेकिन अपने बच्चों को इस काम से दूर रखती है और उन्हें पढ़ाती है। अम्मां का स्वाभिमान उसका चरित्र है। मिसेज चौपड़ा के घर काम करने आयी अम्मां पर विनोद हाथ डालता है तो वह उसे झाड़ू से जवाब देते हुए कहती है- भैंणजी, इस हरामी के पिल्ले से कह देना... हर एक औरत छिनाल न होये है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में स्त्री के लिए उतना ही सम्मान है, उतना ही स्पेस है जितना कि पुरूष के लिए है। उनकी कहानी जंगल की रानी एक आदिवासी महिला कि कहानी है। वह गांव के स्कूल में काम करती है। ग्रामीण महिला प्रशिक्षण शिविर के दौरे पर आए डिप्टी साहब की गंदी मज़र कमली पर पड़ती है। वह उसके मन-मस्तिष्क में समा जाती है। उसे प्राप्त करने की चटपटाहट उनके अंदर बढ़ने लगती है। वह सिर्फ काम दृष्टि से ही उसे देखता है और उसे अपनी हवस का शिकार बनाने की कोशिश भी करता है। लेकिन वह अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पता है। कमली अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान को हरगिज झुकने नहीं देती है। वह अंत तक लड़ती है और अपनी अस्मिता को बनाये रखते हुए अपनी जान गवां देती है, लेकिन उसके सामने अपनी इज्जत को खोने नहीं देती है। यहां हम देख सकते हैं कि ओमप्रकाश वाल्मीकि जी स्त्री के आक्रोश, स्वाभिमान और संघर्ष को पुरुष के इन स्वाभावों से कहीं भी कम नहीं दिखाते हैं। दलित-आदिवासी स्त्री अपनी आबरु और स्वाभिमान पर पड़ने वाली गंदी मज़र को  सबक सिखाना भी अच्छी तरह से जानती है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी अंबेडकर की राह पर चलने वाले एक सामाजिक कथाकार हैं। इसीलिए उनकी कहानियों में अंबेडकर के विचारों का पूरा अनुपालन दिखता है। पच्चीस चौका डेढ़ सौ कहानी में शिक्षा का महत्व और दलित-समाज के लिए उसकी आवश्यकता को प्रासंगिक बनाया गया है। सुदीप के पिता एक अनपढ़ दलित-किसान है, जिसके लिए चौधरी की बात ही अंतिम है। सुदीप बचपन से अपने पिता के मुंह से सुनते आ रहा है कि पच्चीस चौका डेढ़ सौ। लेकिन जब वह स्कूल में मास्टर के द्वारा पच्चीस का पहाड़ा सुनता है कि पच्चीस चौका सौ, तब वह घर में भी वह पहाड़ा पढ़ता है। किंतु इस पर उसके पिता डांटते है कि मास्टर जी बच्चों को गलत-सलत पढ़ा रहे हैं। सुदीप समझाना चाहता है पर पिता उससे कहते हैं कि ‘वह चौधरी से ज्यादा जानता है क्या?’ यह कहकर वे उसे चुप करा देते हैं। सुदीप के पिता का चरित्र एक ईमानदार, मासूम और स्वामीभक्त दलित का चरित्र है। वे चौधरी पर पूरे भरोसे के साथ पच्चीस चौका डेढ़ सौ का सूत चुकाते रहते हैं। जब सुदीप नौकरी पाकर पहली तनख्वाह अपने पिता के सामने गिनकर समझाते हुए रखता है तब वह समझ लेते हैं कि पच्चीस चौका डेढ़ सौ नहीं सौ ही होते हैं। अब चौधरी पर जमा विश्वास टूटता है और उसके मुंह से निकलता है, तेरे कीड़े पड़ेंगे चौधरी, कोई पानी देने वाला भी नहीं बचेगा। इसप्रकार शिक्षा के महत्व के साथ-साथ सवर्णों के छल-कपट को भी उजागर करती है यह कहानी। यहां अंबेडकर के शिक्षित हो, संघटित हो, संघर्ष करो का नारा बिल्कुल सटीक बैठता है। जब तक दलित-समाज शिक्षित नहीं हो जायेगा तब तक सवर्ण उसे इसी तरह लूटते रहेंगे। इसीलिए शिक्षा के बगैर मनुष्य का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर के इस नारे का मुख्य उद्देश्य यही था कि दलितों को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होगी। इसके लिए किसी सवर्ण की अपेक्षा करना कसाई के पास जाकर जान की भीख मांगना ही होगा। दलित स्त्री के लिए समाज में कितने ही रुकावटें पैदा करने वाले रहते हैं। चीड़ीमार कहानी की नायिका सुनीति को हालातों के चलते स्वयं काम पर जाना पड़ता है। समाज में किसी अकेली औरत का और अगर वह दलित भी हो तो स्वतंत्र होकर नौकरी करना बहुत बड़ा उपद्रव-सा बन जाता है। तरह-तरह की बातें जोड़ी जाती है उसके साथ। गली के तीन चीड़ीमार (लड़के) सुनीति को छेड़ते हैं। लेकिन वह उनके सामने कभी परास्त नहीं होती है। अपने मित्र सुतेज के द्वारा दिये गये मनोबल के सहारे वह उनसे डटकर मुकाबला करती है और उन्हें सबक सिखाती है। सुतेज का मानना है कि दलितों की सहायता के लिए कोई भी आगे नहीं आयेगा, उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। इसतरह समाज के अंतर्गत पनपी इन बुराईयों का सामना करने के लिए दलितों को ही संघटित होकर संघर्ष करना चाहिए।
समाज के अंतर्गत जाति की समस्या दलित के सामने सदैव मुंह खोले खड़ी रहती है। जाति के नाम पर दलितों को समय-समय पर हर मोड़ पर अपमानित करना, उनका मजाक उड़ाना परिपाटी हो गया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी अंधड़ में कहानी का नायक मि. लाल अपनी पत्नी से कहता है, मैं नहीं चाहता यहां के लोगों को पता चले कि हम शिड्यूल्ड कास्ट हैं। जिस दिन ये लोग जान जाएंगे, ये मान-सम्मान सब घृणा और द्वेष में बदल जाएगा। सामान्यतः ऐसा होता भी है। आज-कल भी शहरों तक में दलित-समाज के उच्च शिक्षित लोग अपनी जाति छिपाने में ही अपनी भलाई समझते हैं। इसका कारण आज भी समाज के अंदर गहरी पैठ पकड़ी हुई जाति-व्यवस्था ही है। व्यक्ति किसी भी उच्च स्थान पर विराजमान क्यों न हो, उसे जाति के नाम से ही सम्मान दिया जाता है। अगर वह अपनी जाति छिपाता भी हो तो भी किसी न किसी तरह समाज उसे जान ही लेता है। किंतु  “साहित्य का काम समाज की संवेदनाओं को झकझोर कर उसमें प्रगति-चेतना का संचार करना तथा उसे एक दिशा देना है। दलित-साहित्य इस काम को पूरी तरह अंजाम दे रहा है।”[3] 
सवर्ण समाज द्वारा सदियों से शोषित दलित-समाज हर तरह के शोषण को, छल-कपट को सहते आ रहा है। उसे शारीरिक शोषण के साथ-साथ आर्थिक शोषण का शिकार भी होना पड़ता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी बिरम की बहू में दलित युवक का शारीरिक शोषण एक ठाकुर की बहू के द्वारा किया जाता है और  उसे बाद में कभी नज़र उठाकर भी नहीं देखा जाता। ठाकुर के द्वारा संतती न होने के कारण बहू सूर्यग्रहण के समय याचिका के लिए अपने द्वार पर आये हुए दलित युवक के साथ सहवास कर गर्भवती बनती है ताकि उसे अपने घर से निकाला न जाय। यहां इस स्त्री को उच्चवर्णीय पितृसत्ता की अमानवीयता के कारण ऐसा कदम उठाना पड़ता है, लेकिन जब वह पुत्र को जन्म देती है तो उसके असली बाप की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती । यह देखा जा सकता है कि अपनी वंश प्रतिष्ठा के लिए ब्राह्मणवादी सवर्णकिसी भी हद तक गिर सकता है, चाहे वह सवर्ण पुरुष हो या स्त्री। जब तक उनका स्वार्थ छिपा रहता है तब तक उनके लिए कोई छुआ-छूत की रेखा भी आड़े नहीं आती है। इस शोषणकारी नीति से बचकर अपनी अस्तित्व रक्षा करना आवश्यक हो जाता है।
दलित न कभी ब्राह्मण बन सकता है और न ही हिंदू व्यवस्था में आगे जा सकता है। इसका एक उदाहरण ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी सपना में देख सकते हैं। इस कहानी का नायक गौतम एक दलित युवक है जो मंदिर निर्माण के लिए न केवल पूरी निष्ठा और लगन के साथ धार्मिक भावना से चंदा वसूल करता है। वह पूरी लगन के साथ उस मंदिर निर्माण के लिए श्रमदान भी करता है। किंतु जिस दिन मंदिर में भगवान की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करने का आयोजन होना है,  उस दिन गौतम और उसके परिवार का पाण्डाल की अगली पंक्ति में बैठना सवर्णों के लिए जहर पीने जैसा अनुभव सिद्ध होता है क्योंकि वह एस. सी. यानी दलित है। तब उसका मित्र ऋषिराज नटराटन ब्राह्मण से कहता है किइससे क्या फर्क पड़ता है, यदि गौतम एस. सी. है?‘ तब नटराजन उससे कहता है, ‘फर्क पड़ता है।... पूजा-अनुष्ठनों में उन्हें आगे नहीं बैठाया जा सकता। यही रीत है। शास्त्रों की मान्याता है। यानी कट्टरपंथी हिंदुओं के लिए शास्त्र ही सर्वोपरी है। मनुष्यता को नकार कर उसे जाति-व्यवस्था से ध्वस्त करना ही शास्त्र सिद्धि है। ऐसा धर्म मनुष्य के लिए नहीं बल्कि उन पाखंडियों के लिए है जिनके लिए दलित समाज का व्यक्ति सिर्फ एक अछूत ही हो सकता है, उससे आगे कुछ नहीं। वाल्मीकि जी ने इस कहानी में न सिर्फ सवर्णों की मानसिकता का चित्रण किया है बल्कि दलित-समाज में चेतना के स्वर को भी उभारा है। इस अमानवीय व्यवहार से आहत होकर गौतम यह कहते  हुए उठता है कि - ऐसे अनुष्ठानों में बैठकर क्या होगा जहां आदमी को आदमी की तरह न समझा जाए। इन वाक्यों के साथ वह परंपरागत रूढ़ी और विश्वास को तोड़कर नयी राह पर चल पड़ता है।
दलित-साहित्य में वाल्मीकि जी ने अपनी कहानी के माध्यम से पूरे समुदाय का चित्रण किया है। वे स्व की जगह हम की भावना के साथ सामाजिक सरोकार एवं भेद-भाव को दर्शाते हैं। दलित-साहित्य में मानवता की बात होती है, जिस समाज में लेखक रहता है, उस समाज के हित में वह सोचता है। बाबा साहेब अंबेडकर ने स्वाधीनता, समानता और भाईचारे की जो बात कही, उसका पूरा-पूरा अनुपालन दलित साहित्यकार करत है। अंबेडकर का यह कहना है कि – “हिन्दू समुदाय विभिन्न जातियों का एक संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि वह शत्रुओं का समुदाय है। उसका हर विरोधी वर्ग स्वयं अपने लिए और अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही जीवित रहना चाहता है।”[4]  इनके गंभीर विचारों के आधार पर आज का दलित-साहित्य एक विचारात्मक पहलू के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए आगे बढ़ रहा है, जिसके मुख्य प्रेरणा स्रोत सिर्फ और सर्फ बाबा साहेब अंबेडकर ही हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनाओं में उस महान व्यक्ति के आदर्श और विचारों का एक प्रवाह-सा मिलता है। रमणिका गुप्ता के शब्दों में – अनुभवों की प्रमाणिकता से दलित-साहित्य में नया तेवर उभरा, जो सीधे मन को छूता है। यह वर्तमान साहित्य के लिजलिजेपन और बासीपन तथा एकरुपी, रसवादी प्रणाली से भिन्न है और चमत्कारी कल्पनाओं से बिलकुल अलग होता है।” सवर्णों के लिए दलित ‘लुटे जाने और भोगे जाने’ के लिए हैं। उनका जन्म सवर्ण वर्ग को सहूलियत देने और उच्चवर्गीय लोगों का भला करने के लिए हुआ है। लेकिन इसके बावजूद वे सवर्ण कभी तसल्ली नहीं लेते और न ही डकार लेते हैं। वे और लेने व प्राप्त करने की अपेक्षा रखते हैं जिसकी कोई सीमा या अंत शायद ही हो पायेगा।
ओमप्रकाश वाल्मीकि इन सारी परिस्थितियों का और दलित जीवन के यथार्थ का मार्मिक एवं जीवंत चित्रण कर वर्तमान समाज के लिए सोचने का एक ज़रिया छोड़ते हैं। उनके साहित्य पर हमें बारीकी से दृष्टिपात करना होगा। ओमप्रकाश वाल्मीकि की अन्य कहानियों में भी दलित-समाज की विभिन्न समस्याओं और अंतर्विरोधों का ताल-मेल है। दलित समाज की नियति यही हो गयी थी कि वह सवर्णों की सेवा करता रहे ताकि अपनी पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित कर सके। किंतु यह सब असंगत, अमानवीय और अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वाली बातें हैं। उनकी यह अंत नहीं,हिराई,ग्रहण,जिनावर,गोहत्या,छतरी,ब्रह्मस्त्रआदि कहानियों में दलित-जीवन की वास्तविकता, कर्मठता, वेदना, पीड़ा आदि का सजीव चित्रण करते हुए आभास कराया गया है कि दलित-समाज आज भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक के साथ जातिगत वैषम्य का शिकार हो रहा है। वे अपनी लेखनी द्वारा अस्पृश्य, अछूत और नीच कहे जाने वाली समाज के प्रति अपनी आवाज़ दे गये हैं। उनकी लेखनी उनकी वेदना एवं संवेदनाओं को वाणी प्रदान करती है। हिंदी दलित-साहित्य जगत में सर्वोन्नत शिखर पर विद्यमान रहे ओमप्रकाश वाल्मीकि जी पहले भी दलित-साहित्य के मार्गदर्शक थे और आगे भी रहेंगे। उनकी स्मृति में उनकी विशिष्ट कविता की कुछ पंक्तियों के साथ यहीं विराम देना उचित होगा -
“कुंआ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
गांव ?
शहर ?
देश ?
संपर्क - अतिथि प्राध्यापक, दलित-आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केंद्र, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद- 500 046, दूरभाष– 09059379268, 
ईमेल पता - dr.raju.huc@gmail.com



[1] देवेंद्र चौबे, आधुनिक साहित्य में दलित-विमर्श, पृ. 58
[2] रमणिका गुप्ता, दलित चेतना : साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार, पृ. 93 
[3] जयप्रकाश कर्दम, दलित-विमर्श : साहित्य के आईने में, पृ. 117
[4] बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड-1, पृ. 72

मूक आवाज़ हिंदी र्नल
अंक-6 (अप्रैल-जून 2014)  ISSN   2320 – 835X
Website: https://sites-google-com/site/mookaawazhindijournal/
 

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